Monday, December 2, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 22

दुखों से दाँत -काटी दोस्ती जब से हुई मेरी 
ख़ुशी आए न आए जिंदगी खुशियां मनाती है 
किसी की ऊंचे उठने में कई पाबंदियां हैं 
किसी के नीचे गिरने की कोई भी हद नहीं है 

युगों से जिसकी गाथाएं सुनी जाती रही हैं 
न जाने क्यों मुझे लगता वही शायद नहीं है 
रुदन कर नैन पथराए कभी के 
भले ही आज टूटी चूड़ियां हैं 
हाथ गर आईना नहीं होता 
हाथ मेरे भी क्या नहीं होता 

आपका अपना इक नज़रिया है 
कोई अच्छा बुरा नहीं होता 
जब से रहबर के हाथ में आई 
सारे घर को डरा रही माचिस 

जल्द-ही वोट पड़ने वाले हैं 
देखिए कुलबुला रही माचिस 
गायकी हमने भी सीखी लेकिन 
राग दरबारी सुनाते न बने 

गैर तो छूट गए पहले ही 
अब तो अपनों से निभाते न बने
आज भी मिलते तपस्वी ऐसे 
जो अहिल्या को शिला करते हैं 

आपने ऊपर जो शेर पढ़े ये हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार श्री 'राजेंद्र वर्मा' जी की क़लम का चमत्कार हैं। वर्मा जी स्वयं को हिंदी ग़ज़लकार कहते हैं क्यूंकि उनकी ग़ज़लों में आप तत्सम (संस्कृत से बिना किसी बदलाव के आये ) और तद्भव (संस्कृत के कुछ बदलाव के साथ आये ) शब्दों के समावेश के साथ साथ हिंदी के मुहावरों में ढली भाषा, भारतीय पौराणिक मिथ, ऐतिहासिक सन्दर्भ और देशज बिम्ब-प्रतीक भी पाते हैं। वैसे हिंदी ग़ज़ल की शुरुआत तो अमीर खुसरो से मानी जाती है बाद में निराला, त्रिलोचन, शमशेर, नीरज आदि की ग़ज़लों से इसकी पहचान बनी जो दुष्यंत की ग़ज़लों से पुख्ता हुई। 

हमारे सामने श्री 'राजेंद्र वर्मा' जी की ग़ज़लों की किताब ' प्रतिनिधि ग़ज़लें' खुली हुई है जिसमें उनकी 95 ग़ज़लें संग्रहित हैं. इस किताब को 'प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़ल संग्रह' योजना के अंतर्गत डॉ. 'गिरिराजशरण अग्रवाल' जी के प्रयास से 'हिंदी साहित्य निकेतन' बिजनौर द्वारा प्रकाशित किया गया है। आप इस किताब को प्रकाशक से 07838090732 पर संपर्क कर अथवा अमेज़ॉन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। 

8 नवम्बर 1957 को ग्राम-सधई पुरवा ( धमसड़), जनपद बाराबंकी (उत्तर प्रदेश ) में जन्में 'राजेंद्र' जी विलक्षण प्रतिभा के धनि हैं। माँ सरस्वती की इनपर विशेष कृपा रही है। आपने हिंदी ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र के अलावा साहित्य की अन्य विधाओं जैसे कवितायेँ ,हाइकु और तांका कवितायेँ ( ये दोनों जापान से आयी कविता की विधियां हैं ), दोहे , मुक्तक, नवगीत, उपन्यास, मुक्त छंद कवितायेँ, व्यंग, निबंध, आलोचना तथा कहानी आदि में भी सफलता पूर्वक लेखन किया है। इन सभी विधाओं पर उनकी किताबें प्रकशित हो कर प्रसिद्ध हो चुकी हैं। 

ये तो कहिए की कमर सीधी है 
वरना अपने भी पराए लगते 
हमीं उम्मीद रखें आंधियों से 
कि वे बरतेंगी दूरी बस्तियों से 

मुई ये भूख बढ़ती जा रही है 
हया ने बैर ठाना पुतलियां से 
जब से जाना कि मैं स्वयं क्या हूं 
मुझको दुनिया ही लग रही अपनी 
यूं तो हवन अनेक हुए जोर-शोर से 
अवगुण मगर मैं एक भी स्वाहा न कर सका 
देखा जो नयन मूंद के दुनिया का नज़ारा 
कोई न शहंशा यहां कोई रियाया 
रोटी की बात करना लेकिन अभी ठहर जा 
इतिहास से अभी वे गांधी मिटा रहे हैं 
शिशु है मां की गोद में 
दोनों में उल्हास है 

आकर्षण ही मिट गया 
आत्मन इतना पास है 

कविता से उनका लगाव विद्यार्थी जीवन से रहा लेकिन सृजन का संयोग देर से हुआ। उन्होंने 1977 में एक गद्य कविता लिखी और उसे अमृतलाल नगर जी को दिखाया तो उन्होंने कहा ' तेवर तो तुम्हारे निराला वाले हैं लेकिन अभी पढ़ो और हाँ ,कम से कम पाँच सालों तक कुछ मत लिखो'। ' नागर जी' का ये सूत्र उन सभी लेखकों के लिए है जो लिख कर रातों रात प्रसिद्द होना चाहते हैं। हर लेखक को, वो चाहे किसी भी विधा में लिखे, सबसे पहले खूब पढ़ने की आदत डालनी चाहिए। 'राजेंद्र' जी ने 'नागर' जी की बात को गंभीरता से लिया और अगले पांच साल सिर्फ और सिर्फ पढाई की। 

उसके बाद पहली कहानी सं 1982 में लिख कर जब उसे 'नागर' जी को दिखाया तो बड़े खुश हुए और कुछ सुझाव भी दिए। विधि स्नातक 'राजेंद्र' जी ने 'स्टेट बैंक आफ इंडिया' में नौकरी की और फिर वहीं से मुख्य प्रबंधक के पद से सेवा निवृत हुए। सेवा निवृति के बाद अब वो स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। भीमसेन जोशी जी के गाये ध्रुपद, हरी प्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी और सेमी क्लासिकल फ़िल्मी गीतों के प्रेमी 'राजेंद्र जी की साहित्य साधना पर लखनऊ विश्व विद्यालय द्वारा एम् फिल भी दी गयी है। अनेक विश्वविद्यालयों के शोध ग्रंथों में उनका सन्दर्भ आया है। उनकी ग़ज़लों तथा लघु कथाओं का पंजाबी भाषा में अनुवाद भी हुआ है। राजेंद्र जी की रूचि सार्थक एवं मनोरंजक फ़िल्में देखने तथा समय मिलने पर पर्यटन में भी है। 

राजेंद्र जी को उनकी बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के लिए 'उत्तर प्रदेश के हिंदी संस्थान का श्री नारायण चतुर्वेदी तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, अखिल भारतीय लघु कथा सम्मान, पटना, तथा 'कथा बिम्ब (मुंबई) पत्रिका द्वारा कमलेश्वर कहानी सम्मान के अलावा वो देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। आप राजेंद्र जी को उनके इस ग़ज़ल संग्रह तथा अन्य साहित्यिक उपलब्धियों के लिए 8009660096 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं। 

धारा में बहते रहते हो 
तुम इसको जीवन कहते हो 

ये दुनिया तो फ़ानी ठहरी 
जिसमें तुम डूबे रहते हो 
सोच रहा है गुमसुम बैठा राम भरोसे 
कब तक आख़िर देश चलेगा राम भरोसे 

गांधी के तीनों बंदर, बंदर ही निकले 
बांच रहा बस उनका लेखा राम भरोसे 
यश की भी अभिलाषा का अंत हुआ 
अब जीवन को जीना परिहास नहीं 
मैंने भी पत्नी की जांच रिपोर्टे देखी हैं 
अपनों से भी दिल का हाल छुपाना पड़ता है 
चूरन, चुस्की, चाट-समोसा फिर बुढ़िया के बाल 
हामिद तो चिमटा ले आया, लाया कौन त्रिशूल 
सात दशकों की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है 
पिस रहे गेहूं बराबर, पिस न पाया एक घुन 
आप 'कालिदास' से भी दो कदम आगे बढ़े 
वृक्ष ही को काट देंगे, ये कभी सोचा न था 
अब तो कौरव और पांडव एक हैं 
द्रोपदी का चीर हरने के लिए

जाप मृत्युंजय का करता है वही 
जो है जीवित मात्र मरने के लिए



Monday, November 25, 2024

किताब मिली --शुक्रिया - 21

जो तू नहीं तो ये वहम-ओ-गुमान किसका है 
ये सोते जागते दिन रात ध्यान किसका है 

कहां खुली है किसी पे ये वुसअत-ए -सहारा 
सितारे किसके हैं ये आसमान किसका है 
वुसअत ए सहारा: रेगिस्तान का फैलाव 
वही इक शेर मुझ में सांस लेगा 
जिसे कहते ज़माने लग गए हैं 
*
खुद में रहने का ये भी ख़दशा है 
हो न जाऊं कहीं मैं अपना शिकार 

अब के तन्हाई जानलेवा है 
ख़ुद से बाहर निकल किसी को पुकार 
*
मैं जिसके साए से बचकर निकलना चाहता हूं 
वो मुझको राह में अक्सर दिखाई देता है 

हमारे बीच ये नज़दीकियां ही काफी हैं 
तुम्हारे घर से मेरा घर दिखाई देता है 
फूलों ने बदले रंग कई तेरे जैसा होने को 
तुमको पाकर सोचता हूं कितना कुछ है खोने को 
बड़ी गहराई में मिलते हैं लफ़्ज़ों के ख़ज़ाने 
गुहर भी क्या कभी पानी के ऊपर तैरते हैं 
बहुत मजबूत हो पाए न रिश्ते 
कि दोनों में कोई झगड़ा नहीं था 

अगर आप शायरी प्रेमी हैं तो ये मुमकिन नहीं है कि आपने 'रतन पंडोरवी', 'राजेंद्र नाथ रहबर' और 'परवीन कुमार अश्क़' का नाम न सुना हो। सौभाग्यवश मैंने इन तीनो पर लिखा भी है। इन तीनो का आपस में जो सम्बन्ध है वो शायरी के अलावा उस शहर से भी है जिसके ये तीनो ही बाशिंदे रहे हैं। वो शहर है 'पठानकोट', इस शहर से मात्र 14 किलोमीटर दूर के एक गाँव 'शाहपुर कंडी' में 23 नवम्बर 1976 को जन्मे 'सुनील आफ़ताब' का नाम अब पठानकोट में जन्में ख्यातिप्राप्त शायरों की लिस्ट में शामिल हो गया है। हालाँकि ये जरूरी नहीं है फिर भी बता दूँ की 'शाहपुर कंडी' गाँव 'सुनील आफ़ताब' की जन्म भूमि के अलावा 'रावी' नदी पर बने शाहपुर कंडी बाँध' के लिए भी प्रसिद्ध है।

'सुनील' को शायरी विरासत में नहीं मिली , उनके परिवार में दूर दूर तक किसी का शायरी से कोई नाता नहीं रहा। फिर सुनील क्यों शायरी की तरफ मुख़ातिब हुए ? इसका जवाब सुनील के पास भी नहीं है। मुझे लगता है कि इंसान में कोई न कोई गुण उसे जन्म से मिलता है। हमें ही अपने अंदर छिपे गुणों का सही से अंदाजा नहीं होता। हर किसी के, उसके अंदर छिपे, गुण सामने नहीं आ पाते। कई बार तो हमें अपने अंदर के गुणों का पता जब चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।'सुनील' को खुशकिस्मती से अपने इस गुण का पता तब चला जब वो कालेज में पढ़ रहे थे। वो लिखते, अपने दोस्तों को सुनाते और खुश होते। ये वो ज़माना था जब इंटरनेट नहीं आया था .लिहाज़ा जो जानकारी चाहिए होती उसके लिए किताबें ही एक मात्र जरिया थीं। 'सुनील' ने अपने कालेज की लाइब्रेरी में रखी शायरी की किताबों को गंभीरता से पढ़ना शुरू किया। शायरी क्या होती है? ग़ज़ल का व्याकरण क्या है? जैसे पेचीदा सवालों का जवाब वो किताबों से ढूंढने लगे और कामयाब भी हुए। ग़ज़ल सीखने के लिए उन्होंने किसी एक उस्ताद को नहीं तलाशा बल्कि किताबों और अपने साथ के शायरों के मशवरों से खुद को दुरुस्त किया।

'सुनील' बहुत ज़ज़्बाती इंसान हैं। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। वो अपने बारे में बार बार इसरार करने पर भी कुछ नहीं बताते। उन्हें अपने बारे में बढ़चढ़ कर बताने की बात तो छोड़िये कुछ भी बताने से परहेज़ है। ये जो सब मैं यहाँ उनके बारे में लिख रहा हूँ ये भी बड़ी मुश्किल से मैंने पता किया है। आज के इस दौर में जहाँ एक ज़र्रा अपने आप को पहाड़ बताने के लिए दिन रात एक कर रहा है वहां एक ऐसा नौजवान भी है जो ख़ामोशी से अपना काम कर रहा है। मज़े की बात ये है कि उसे चाहने वाले भी उतने ही हैं जितने अपने आपको बढ़ चढ़ कर बताने वालों के हैं। कहने का मतलब ये है कि अगर आपके पास हुनर है, बात कहने का सलीका है तो आपको अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की जरुरत नहीं है। अगर फूल में खुशबू है तो वो चाहे जहाँ खिला हो उसकी खुशबू तो फैलेगी ही। इंटरनेट की हवा से खुशबू जरा जल्दी फैलती है लेकिन दिल में बसती तभी है जब वो दिलकश हो और दिल ओ दिमाग को तारो ताज़ा कर दे।' सुनील' की शायरी में ये खूबियां आपको मिल जाएँगी। 

'गुरु नानक देव' यूनिवर्सिटी से बी एस सी तथा 'जम्मू यूनिवर्सिटी' के 'रामिष्ट कालेज' से बीएड करने के बाद 'सुनील' अध्यापन करने लगे। ये सिलसिला लम्बा नहीं चला। क्यों ? शायद संवेदनशील, सच्चे, सिद्धांतवादी और खुद्दार व्यक्ति के लिए कोई भी नौकरी करना आसान नहीं होता। नौकरी में समझौते करने ही पड़ते हैं। मुझे नहीं मालूम कि उन्होंने नौकरी क्यों छोड़ी, हो सकता है कोई और कारण रहा हो लेकिन छोड़ दी ये पक्का है। उसके बाद उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया। कौनसा ? ये सवाल मैंने भी सुनील जी से पूछा तो उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया 'छोटा मोटा रंगों का' , इससे आगे पूछने की मुझे हिम्मत भी नहीं हुई। 

तुम्हारे साथ मेरी चाहतें तुम्हीं तक थीं 
तुम्हारे बाद सभी से मुझे मोहब्बत है 
*
ढूंढने निकले तो फिर हम ढूंढते ही रह गए 
ज़िंदगी तुझको तो अपने पास ही समझे थे हम 
अब एक घर ही में शामिल हैं जाने कितने घर 
मैं घर में आऊं तो घर को तलाश करता हूं 
रौशनी में तो चमकती है शराफ़त मेरी 
तीरगी में मेरा किरदार बदल जाता है 
*
डूब जाए न कहीं नाव मेरी 
बढ़ते जाते हैं मुसाफिर मेरे 
ज़िंदगी कुछ इस तरह बोझल हुई 
हमने जीने का इरादा कर लिया 

एक बात तो पक्का है कोई भी 'सुनील' ऐसे ही 'आफ़ताब' नहीं बन जाता।अपने अंदर लगातार आग पैदा करनी पड़ती है , तपना पड़ता है और निरंतर चलना पड़ता है। 'सुनील' अपने मुंह से चाहे कुछ न बताएं लेकिन उनकी शायरी से अंदाज़ा हो जाता है कि उन्होंने 'सुनील' से 'सुनील आफताब' बनने के लिए कितनी तपस्या की होगी। इस किताब की भूमिका में - जो कमाल है और बार बार पढ़ने लायक है -- प्रसिद्ध शायर 'अमीर इमाम' ने लिखा है कि ' अच्छा शेर किसी शाइर के दिल से निकलने और उसके क़लम से लिखे जाने के बाद मुकम्मल नहीं होता बल्कि आने वाली नस्लों में फूलता-फलता रहता है', 'सुनील' की इस किताब में ऐसे शेर इक्का दुक्का नहीं, ढेरों हैं और यही  इस किताब की खासियत है। 'सुनील' की शायरी में पुख़्तगी लाने में बेहतरीन शायर जनाब 'विकास शर्मा राज़',महेंद्र कुमार सानी' और 'अमीर इमाम' का बहुत बड़ा हाथ है।
अपनी तरह के अनूठे शायर 'विकास शर्मा राज़' साहब लिखते हैं कि 'सुनील की ग़ज़लों में 'नासिर काज़मी' साहब का असर कहीं कहीं दिखता है, खास तौर पर छोटी बहर की ग़ज़लों में। इस असर के बावजूद शाइर ने अपनी आवाज़ और अदा  को तलाशने की कामयाब कोशिश की है। 
उस्ताद शायर जनाब 'मयंक अवस्थी' ने सुनील की शायरी पर लिखा है कि ' लफ्ज़ बरतना सुनील की शायरी का सबसे मज़बूत पक्ष है। सुनील आफ़ताब की शायरी में कई लफ़्ज़ रईस हो गए हैं।' 
मारूफ़ शायर जिया ज़मीर साहब लिखते हैं कि' सुनील संजीदगी से शेर कह रहे हैं। उन्हें कहीं जाने की जल्दी नहीं है , कुछ बड़ा हासिल करने की भूख भी उनमें दिखाई नहीं देती यानी अभी वो सिर्फ शेर कहने में मशगूल हैं.' 
मैं ज़िया भाई की इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ क्यूंकि जहाँ मुशायरों के मंचो पर बहुत से शायर अपने अध पके शेर कह कर धूम मचा रहे हैं वहां सुनील को मुशायरों में शेर पढ़ कर दाद के लिए झोली फैलाते देखना संभव ही नहीं है। यू ट्यूब पर भी शायद उनका एक आधा छोटा सा विडिओ कहीं हो तो हो वर्ना वो शायरी अपनी फ़ेसबुक वाल पर पोस्ट कर के ही खुश हैं। 
लाजवाब युवा शायर 'महेंद्र सानी' जी ने इस किताब पर बहुत अद्भुत टिपण्णी की है वो लिखते हैं ' आफ़ताब धूप के रंग देखने के ख़ाहा हैं। धूप जो स्रोत्र भी है और विस्तार भी। धूप जो संसार भी है एकांत भी। इसी धूप की सादा रंगों की तर्जुमानी है 'सुनील आफ़ताब' की शायरी। वो सुबह का उजाला हो या शाम की मलगिजी रौशनी सबमें उसी धूप को कारफ़रमा देखते हैं।

 'धूप में बैठने के दिन आये ' सुनील आफ़ताब का पहला शेरी मज़्मुआ है जिसमें उनकी 87 ग़ज़लें शामिल हैं। ये किताब 'रेख़्ता पब्लिकेशन से सन 2024 में शाया होकर चर्चित हो चुकी है। आप इसे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। 

दुआएं मांगी थी मैंने तो कामयाबी की 
ये कब कहा था मेरे इम्तिहान कम कर दे 
घर से निकलूं तो दूर जा निकले 
किसी जंगल में रास्ता निकले 

इश्क़ राहें बदलता रहता है 
क्या पता कौन बेवफ़ा निकले 
तुम्हारे बाद जितना रह गया था 
उसी में अब गुज़ारा कर रहा हूं 

कई बेकार बहसों में उलझ कर 
मैंअपना ही ख़सारा कर रहा हूं 
 ख़सारा: हानि 
*
तुम्हारी याद से रौशन है दिल की वीरानी
चराग़ बुझ गया तो फिर खंडर का क्या होगा
*
फ़त्ह कर ली बुलंदियां सारी 
अब तो सारा सफ़र ढलान का है 

घर तो तक़्सीम होते रहते हैं 
मसअला अब जो है मकान का है 
या इतनी भी बेरंग ये दुनिया नहीं होती 
या मेरी नज़र ने तुम्हें देखा नहीं होता 
तमाम राह ए सफ़र यूं तो ख़ुशनुमा थी मगर 
भर आई आंख तेरा शहर पार करते हुये






Monday, November 11, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 20


तू है सूरज तुझे मालूम कहां रात का दुख 
तू किसी रोज़ मेरे घर में उतर शाम के बाद 

लौट आए ना किसी रोज़ वो आवारा मिज़ाज 
खोल रखते हैं इसी आस पे दर शाम के बाद
*
हम इर्द-गिर्द के मौसम से जब भी घबराए 
तेरे ख़्याल की छांव में बैठ जाते हैं
*
आबादी से निकले तो मालूम हुआ 
आगे तन्हाई है, पीछे से साए हैं 
*
वो मेरे अंदर छुपा है और उसे 
बोलते रहने की आदत हो गई है
*
घर जाने से इतनी खौफ़-ज़दा हैं लोग 
रात गए तक बाज़ारों में फिरते हैं
*
तुम गए हो तो सर-ए-शाम ये आदत ठहरी 
बस किनारे पर खड़े हाथ हिलाते रहना

बात सन 1989 की है। लाहौर का फोर्ट्रेस स्टेडियम खचाखच भरा हुआ है।बहुत से करतब वहां दिखाए जा रहे हैं। तभी अनाउंसमेंट होता है 'ख़्वातीन ओ हज़रात , दिल थाम के बैठे अभी आपके सामने एक नौजवान अपनी कोहनी से बर्फ की सिल्लियां तोड़ेगा। ये नौजवान बर्मीज मार्शल आर्ट (Bando ) का मास्टर है जिसने ये आर्ट ग्रैंड मास्टर जनाब अशरफ़ ताई से सीखा है'। काले कपडे पहने एक दुबला पतला  लड़का लोगों के सामने आया और  झुक कर सबका अभिनन्दन किया। कुछ ने उसे देख हलके से तालियां बजाई लेकिन ज्यादातर उसकी कद काठी देख हंसने लगे। बर्फ की सिल्ली लाइ गयी , लोग उत्सुक थे देखने को कि लड़का इसे कैसे तोड़ेगा, तभी उस सिल्ली पे दूसरी सिल्ली रख दी गयी। लोग खुसरफुसर करने लगे और ये खुसर फुसर शोर में तब्दील तब हुई जब सिल्लियों की संख्या दो से दस हो गयी। लेकिन जब ग्यारवीं सिल्ली लायी लायी गयी तो  स्टेडियम में सन्नाटा पसर गया। लोगों ने दम साध लिया, हैरत से आँखें चौड़ी कर लीं क्यूंकि ऐसा कारनामा इस से पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया था। लड़का सीढ़ियों से ग्यारवीं सिल्ली के तक पहुंचा गहरी सांस ली एक दो बार कोहनी को सिल्लियों तक लाया और फिर, लोगों को दिखाई ही नहीं दिया कि कब लड़के की कोहनी बिजली की रफ़्तार से सिल्ली पर गिरी और ग्यारह की ग्यारह सिल्लियां चूर चूर हो गयीं। लोगों को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ कि उन्होंने जो अभी देखा वो एक ऐसा विश्व रिकॉर्ड है जो आज तक नहीं टूटा।  इस करिश्मे को अंजाम देने के बाद ये लड़का लोगों की तालियां सुनने के लिए रुका नहीं बल्कि स्टेडियम के बाहर खड़ी कारों के पीछे गया और  घुटनों पे बैठ कर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया। आज इस लड़के के लगभग 40000 से ज्यादा शागिर्द दुनियाभर में लोगों को 'बर्मीज मार्शल आर्ट' (Banda ) सिखा रहे हैं। 

आप सोच रहे होंगे कि किसी किताब का जिक्र करने के बजाय मैं आपको ये गैर शायराना किस्सा क्यों बता रहा हूँ ? मुझे याद है कि ऐसा आपने तब भी सोचा था जब मैंने एक पहलवान शायर जनाब 'क़तील शिफ़ाई' साहब की किताब का ज़िक्र किया था। हमारे आज के शायर पाकिस्तान के पहले ब्लैक बेल्ट निंजा ही नहीं हैं और भी बहुत कुछ हैं और ये बहुत कुछ उन्हें ऊपर वाले ने छप्पर फाड़ नहीं दिया बल्कि इन्होने अपनी मेहनत से कमाया है। उन्होंने जो कारनामे किये हैं उसे ठीक से बताने के लिए ऐसी न जाने कितनी पोस्ट मुझे लिखनी पड़ेंगी। 

चलिए शुरू से शुरू करते हैं। 

अपना दुख बस अपना ही होता है ये जान लिया 
अपने आप से अपनी सारी बातें कहना सीख लिया
*
कोई गुमान मुझे तुमसे दूर कैसे करे 
कि एतबार मेरे चार-सू अभी तक है 
*
दूर से कैसा हंसते-बसते शहरों जैसा लगता था 
लेकिन पास आए तो आया हाथ खंडर वीरान
*
खुशियां हमारे पास कहां मुस्तक़िल रहीं 
बाहर कभी हंसे भी तो घर आ के रो पड़े
मुस्तक़िल: हमेशा के लिए 
*
सच ना बोलो कि अभी शहर में मौसम ही नहीं 
इन हवाओं में चराग़ों का है जलना मुश्किल 
*
बारिश हुई तो घर के दारीचे से लग के हम 
चुपचाप सोगवार तुम्हें सोचते रहे

पाकिस्तान के झंग जिले में 15 नवम्बर 1964 को हमारे आज के शायर जनाब 'फरहत अब्बास शाह' का जन्म हुआ।उनके कोई बहन भाई नहीं था। माँ - बाप की मृत्यु भी जल्दी हो गयी। उनके मन और घर में गहरी उदासी ने घर कर लिया। ये उदास लड़का किसी से अपनी उदासी नहीं बांटता था। लोगों की टीका टिप्पणियों को कड़वे घूँट की तरह पी जाया करता था। अपनी घुटन को कम करने के लिए उसने लफ़्ज़ों का सहारा लिया। कोई आठ नौ साल की उम्र में बाकायदा लिखने लगा। तेरह चौदह साल की उम्र में उसकी रचनाएँ पाकिस्तान के बड़े बड़े अखबारों और रिसालों में छपने लगी। मात्र 25 साल की उम्र में याने जून 1989 में उनकी पहली किताब ' शाम के बाद' शया हुई और तहलका मच गया। ये किताब पाकिस्तान के इतिहास की, उर्दू में छपी ग़ज़लों और नज़्मों की अब तक की सबसे लोकप्रिय किताब साबित हुई। इस किताब के पिछले 35 सालों में इस कोई सवा सौ से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। दुनिया की बहुत सी भाषाओँ में ये छपी है और अब इसे अगस्त 2024 में 'नायाब बुक्स, नयी दिल्ली' ने अरब अमीरात के 'अप्लॉज़ अदब' के सहयोग से पहली बार हिंदी में प्रकाशित किया है।   

फरहत अब्बास कहते हैं कि 'मैं फ़ितरी शायर हूँ।  शायरी मुझ पर ऊपर से उतरती है।  अगर आपके अंदर शायरी नहीं है तो आप शायर नहीं हो सकते तुक्केबाज़ हो सकते हैं। आप शेर का ढांचा तो बना सकते हैं उसमें रूह नहीं डाल सकते। बड़ा शेर वो है जो इतनी आसानी से अता हो जाय कि आप बस वाह कर उठें , मसलन ' तुम मेरे पास होते हो गोया , जब कोई दूसरा नहीं होता। अच्छे शेर पर इंसान का इतराना बनता ही नहीं है , ये इल्हाम है।  पाकिस्तान के बहुत बड़े शायर जो आसानी से किसी भी शायर को गिनती में लाते ही नहीं थे ने कहा था कि 'फरहत अब्बास अहद ऐ हाज़िर में शायरी का वारिस है।' जनाब 'अहमद नदीम क़ासमी' ने कहा है कि ' अब्बास शाह जदीदतरीन नस्ल का जदीदतरीन शायर है।' उनके कुछ शेर जैसे :

हम तुझे शहर में यूँ ढूंढते हैं 
जिस तरह लोग सुकूँ ढूँढ़ते हैं 
*
बाद आँखों के मेरा दिल भी निकाला उसने 
उसको शक था कि मुझे अब भी नज़र आता है 
*
वो जो टल जाती रही सर से बला शाम के बाद 
कोई तो था कि जो देता था दुआ शाम के बाद  

लौट आती है मेरी शब की इबादत खाली 
जाने किस अर्श पे रहता है खुदा शाम के बाद 

सोशल मिडिया पर करोड़ों लोगों द्वारा पसंद किये जाने से वायरल हो गए हैं। आप यकीन करें न करें लेकिन हकीकत ये है कि 'फरहत अब्बास शाह की अब तक 75 किताबें मंज़र-ऐ आम पर आ चुकी हैं जिनमें से 52 तो सिर्फ उनकी शायरी की हैं। उनकी शोहरत  से कमज़ोर शायर ख़ौफ़ज़दा हो जाते हैं और उनके खिलाफ साज़िशें रचते रहते हैं। फरहत अब्बास शाह को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्यूंकि वो दिल से लिखते हैं जो सुनने पढ़ने वाले के सीधा दिल में उतर जाता है। 

मैं उसकी आंखों में झांकूं तो जैसे जम जाऊं 
वो आंख झपके जब तो चाहूं ज़रा ठहर जाये
*
वह एक चेहरा जो आंखों में आ बसा था कभी 
तमाम उम्र मेरे आंसुओं में क़ैद रहा
*
इक ज़रा पांव में झंकार बजे सिक्कों की 
फिर मेरे नाम के हर शख़्स हवाले देगा
*
नींद नाराज़ हो गई हमसे 
हमने जिस रात तुमको याद किया
*
बहुत कठिन था पस-ए-चश्म रोकना सैलाब 
जो बोलते हुए आवाज़ फट गई तो क्या
*
मैंने उसका सोग मनाया कुछ ऐसे 
ख़ाली रखा पैमानों को शाम के बाद

फ़रहत चांद के ख़ौफ़ से कर लेता हूं बंद 
कमरे के रोशनदानों को शाम के बाद

झंग से साइक्लॉजी में एम एस सी करने के बाद फरहत साहब लाहौर चले आये जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ पंजाब से फिलॉसफी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और उसके बाद अंग्रेज़ी में भी एम ऐ की डिग्री हासिल की।  बात यहीं ख़तम नहीं हुई उन्होंर इकोनॉमिक्स पढ़ी , माइक्रो इकोनॉमिक्स पढ़ी। उनके लिखे पेपर्स पर देश विदेश की यूनिवर्सिटीज में चर्चे हुए। उन्होंने इस्लामिक माइक्रो फाइनैंसिंग में अद्भुत काम किया और दस हज़ार से भी अधिक महिलाओं को बहुत कम पूँजी से व्यापर शुरू करवा कर उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने में मदद की। 

फरहत अब्बास का रेडिओ चैनल 'ऍफ़ एम् 103' पाकिस्तान के बेहद मशहूर रेडिओ चैनलों में से एक रहा। रेडिओ से वो टेलीविज़न की और मुड़े और लाहौर टी वी की स्थापना की। इस टी वी चैनल पर प्रसारित होने वाले प्रैंक यूं ट्यूब पर लाखों की संख्या में पसंद किये जा रहे हैं। लाहौर टी वी पर उनका मज़ाहिया रूप देख कर हँसते हँसते लोटपोट हो जायेंगे। एक जनर्लिस्ट की हैसियत से उन्होंने पूरी दुनिया में अपनी खास पहचान बनाई। 

पाकिस्तान के मशहूर क्लासिकल गायक उस्ताद बदर उल ज़मां से फरहत साहब ने बरसों संगीत सीखा। रेडिओ पाकिस्तान से उनके गायन के प्रोग्राम लगातार आते रहे। उन्होंने बिना तबले के शास्त्रीय वाद्यों पर अपनी कविताएँ गाने का सफल प्रयोग किया जो सुखन सराय के नाम से लोकप्रिय हुआ। उन्होंने जितने काम अपनी 55 साल की उम्र में कर लिए हैं उतने कोई 55 जन्म लेकर भी नहीं कर पायेगा। .  

उन्होंने पाकिस्तानी राइटर्स  यूनियन की स्थापना की जिस के अंतर्गत वो अदब की खिदमत कर रहे ऐसे गोलों को दुनिया के सामने लाने की कोशिश करते हैं जिनको कम अक़्ल लेकिन ताकतवर स्वार्थी बेईमान लोग आगे नहीं आने देते। फरहत साहब का मानना है कि ऐसे नौजवान जो हुनरमंद हैं उन्हें सामने आने का मौका मिलना चाहिए। उनका ये इदारा नॉन पोलिटिकल है। 

फ़रहत अब्बास शाह' साहब  पर एक पोस्ट में लिखना मुमकिन नहीं है। इसलिए आप थोड़े को ही ज्यादा लिखा माने और इस किताब को अमेज़न से  ऑन लाइन या फिर नायाब पब्लिकेशन से 9910482906 पर संपर्क करें।   
बना था रेतीली मिट्टी से जीवन 
बिखरता ही बिखरता जा रहा है
*
परायेपन की वसी-ओ-अरीज़ दुनिया में 
ये इक ख़ुशी ही बहुत है कि दर्द अपना है 
वसी-ओ-अरीज़: दूर तक फैली हुई
*
रो देता है आप ही अपनी बातों पर 
और फिर ख़ुद को आप हंसाया करता है 
*
तुम से पहले दिल से बुज़दिल कोई न था 
और फिर दिल से दुनिया डरती देखी है
*
हर इक ख़ानें में तेरे बुत सजे हैं 
किसी देवी का मंदिर हो रहा हूं
*
रुका हुआ है अजब धूप-छांव का मौसम 
गुज़र रहा है कोई दिल से बादलों की तरह
*
मेरी निगाह पे तूने बिठा दिया रास्ता 
नहीफ़ सीने पे रख दी पहाड़ हिज़्र की शाम
नहीफ़: कमज़ोर






















Monday, November 4, 2024

किताब मिली -शुक्रिया - 19


ऐ हमसफ़र ये याद रख, तेरे बिना यह ज़िंदगी 
कि सिर्फ़ धड़कनों की खींच-तान है, थकान है 

रहे जब उसके दिल में हम, तो हम को ये पता चला 
वो बंद खिड़कियों का इक मकान है, थकान है
*
अगर जो देना ही चाहते हो तो साथ देना 
वग़रना दुनिया में मशवरों की कमी नहीं है 
*
जितना मैं बात करती हूं बढ़ती है ख़ामुशी 
इस ख़ामुशी को और बढ़ा मुझसे बात कर 

शब भर में देखती रही तारों की सम्त और 
शब भर चराग़ कहता रहा, मुझसे बात कर
*
सफ़र में नींद के मुमकिन न था ठहरना कहीं 
तो हमने ख़्वाब तेरे रक्खे साथ, चलने लगे
*
अजब है मौत का यह ख़ौफ़ उम्र भर जिसने 
का ज़िंदगी से मेरा राब्ता न होने दिया 

बना के अपना, मिटाया मेरे वजूद को यूं 
कि उसने ख़ुद से मेरा सामना न होने दिया

बात काफी पुरानी है। शायद 2014 की , मैं प्रगति मैदान के राष्ट्रीय पुस्तक मेले के हॉल नंबर 2 में शिवना प्रकाशन जहाँ मेरा ठिकाना था दोपहर को उठ कर बाहर आया। हल्की हल्की भूख लगी थी सोचा कुछ खाते हैं तभी पीछे से आवाज़ आयी ' नीरज जी नमस्ते' मैंने पीछे मुड़ के देखा तो बेहद सलीके से सजी एक लड़की मुस्कुराती नज़र आयी , नज़र मिलते ही बोली 'पहचाना ?  मैं मीनाक्षी'. मुझे हतप्रभ देख हंसी और सहजता से बोली 'अरे मैं आपसे कभी मिली नहीं तो पहचानेगें कैसे ?'  मैं आपके ब्लॉग की नियमित पाठक हूँ जिसमें आप ग़ज़ल की किताबों पर लिखते हैं, मैंने एक लिस्ट बना रखी है, वो किताबें मुझे इस पुस्तक मेले से खरीदनी हैं,आप मेरी मदद करेंगे ?' उसने वो लिस्ट मुझे पकड़ाई जिसमें वो सब किताबें थीं जो एक अच्छे शायर को पढ़नी चाहियें। लिस्ट से एक बात साफ़ हो गयी की 'मीनाक्षी' एक संजीदा पाठक है। लेखक के लिए संजीदा पाठक मिलना किसी भी पुरूस्कार से कम नहीं। 'चलिए ढूंढते हैं इन किताबों को, आपकी मदद कर मुझे बहुत ख़ुशी होगी' मैंने कहा, तो वो हँसते हुए बोली पहले 'थोड़ी पेट पूजा हो जाये सुबह से घूम रही हूँ थक भी गयी हूँ और भूखी भी हूँ' . मैंने कहा ,शौक से खाइये मैं आपका  शिवना प्रकाशन के स्टॉल पर इंतज़ार करता हूँ, तो वो तपाक से बोली ' ऐसे कैसे सर आप भी आईये वैसे आप पता नहीं कैसा खाना खाते हैं मैं तो जो घर से बना कर लायी हूँ वही खिला सकती हूँ शायद आपको पसंद आ जाये आईये न'। जिस अपने पन से मीनाक्षी ने आग्रह किया उस से या फिर पेट में उछलकूद मचा रहे चूहों के आतंक से, कारण कुछ भी रहा हो, मैं इस निमंत्रण को ठुकरा नहीं सका। यकीन मानिये, उस दिन मीनाक्षी के हाथ की बनी आलू गोभी की सब्ज़ी का स्वाद आज भी ज़बान पर है। 

मीनाक्षी से उसके बाद कभी कबार फोन पे बात होती रही। उसे मलाल रहता कि उसे लिखने का वक़्त बहुत कम मिलता है। बात सही भी थी उसके दो स्कूल जाने वाले बच्चे थे, खुद भारतीय जीवन बीमा निगम में अधिकारी थी और  फरीदाबाद के घर से उसके दिल्ली के दफ्तर की दूरी भी बहुत थी। घर गृहस्ती सँभालते हुए भी उसने लिखना पढ़ना नहीं छोड़ा। शायरी के प्रति ये जूनून बहुत कम देखने को मिलता है। 

अभी खुशी से ही दूर हुए हैं मगर किसी दिन 
हमें उदासी की भी ज़रूरत नहीं हुई तो?
*
लम्स तेरी उंगलियों का चाहते हैं हर घड़ी 
तू मेरे इन उलझे उलझे गेसुओं की ज़िद समझ
*
हमने हर उड़ते परिंदे को दुआएं दी हैं 
जब भी सूखे हुए तालाब की जानिब देखा 
*
इक रोज़ हम आएंगे तेरे ख़्वाब से बाहर 
इक रोज़ तो हम खुद पे ये एहसान करेंगे
*
बिछड़ के सामने आई है दोनों की फ़ितरत 
वो क़िस्सा गो है उधर और हम इधर चुप हैं 

सवाल इश्क़ पर हम उसे कर तो लें लेकिन 
हम इस सवाल से आगे का सोच कर चुप हैं

सन 2018 के पुस्तक मेले में उस से फिर एक संक्षिप्त सी मुलाकात हुई बोली 'मैं भी चाहती हूँ कि मुशायरे पढूं लेकिन आयोजक बुलाते ही नहीं।  जो थोड़े बहुत बुलाते भी हैं वो समय नहीं देते।' उसका ये दुःख अकेले उसका नहीं है बल्कि हर उस शायर का है जो संजीदगी से लिखता है और सीधे सीधे अपनी बात कहता है। मैंने उसे कहा की आजकल ज़माना दिखावे का है , नौटंकी का है। आप क्या सुना रहे हो ये महत्वपूर्ण नहीं है, कैसे सुना रहे हो ये महत्वपूर्ण है.आप किसी भी मुशायरे में चले जाएँ आपको वहां दाद के लिए भीख मांगते , हाथ पाँव पटकते, उछलते, गाते और अपनी बरसों पुरानी शायरी सुनाते हुए शायर दिखाई देंगे। उनका, किसी भी कीमत पर दर्शकों से बैठे बैठे या खड़े हो कर हाथ उठा कर वाह वाह बुलवाना या तालियां बजवाना ही अंतिम उद्देश्य है। आयोजक पैसे भी उन्हें ही देता है। इसमें गलत कुछ नहीं क्यों की अब मुशायरे साहित्य की सेवा नहीं है, बाजार है और बाजार में जो चीज़ लोग पसंद करते हैं वो ही बिकती है। हर क्षेत्र में गलाकाट प्रतियोगिता है कोई किसी को आगे नहीं आने देता। अच्छे पढ़ने वालों को पीछे बैठे वरिष्ठ शायर ही घटिया जुमलों या फिर हिक़ारत भरी नज़र से देख ,मानसिक रूप से प्रताड़ित करते देखे गए हैं। कुछ मठाधीश अपने मठ के सदस्यों के साथ ही मंच आते हैं अगर आप उनके मठ के सदस्य नहीं हैं तो फिर आपके लिए अपनी जगह बनाना ही मुश्किल है।     

ऐसा आजकल ही नहीं हो रहा है ये चलन तो न जाने कब से है।  मुझे याद आती है 1965 में बानी एक मज़ेदार फिल्म ' भूत बंगला '। उस फिल्म में एक सीन है जिसमें किसी क्लब में संगीत प्रतियोगिता होती है और हीरोइन 'तनूजा',  हीरो 'मेहमूद' साहब फ़ाइनल में हैं। फैसला एक ताली मीटर से होना है।  याने एक यंत्र जिसकी सुई, तालियों की गड़गड़ाहट से चल कर अंक देती है। पहले 'तनूजा' जी 'लता' जी की आवाज़ में एक बेहद सुरीला गीत गाती हैं 'ओ मेरे प्यार आजा बनके बहार आजा' , इस पर तालियां बजती हैं और ताली मीटर की सुई 95 तक चली जाती है।  उसके बाद 'मेहमूद' साहब बहुत से लटके झटकों के साथ ' आओ ट्विस्ट करें गा उठा है मौसम' मन्नाडे की आवाज़ में गाते हैं , नतीजा ताली मीटर की सुई 100 तो पार करती ही है साथ में टूट के गिर भी जाती है। आज भी सलीके पर फूहड़ता हावी है। आप चाहें तो ये सीन यूट्यूब पर देख सकते हैं। 

खैर !! ये सब तो चलता रहेगा हम इस बात को यहीं छौड़ कर मीनाक्षी जिजीविषा साहिबा की ग़ज़लों की पहली किताब ' 'दरमियान' पर लौटते हैं जिसे श्वेतवर्णा प्रकाशन नयी दिल्ली ने 2022 में प्रकाशित किया था। आप इस किताब को प्रकाशक से 8447540078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।      'मीनाक्षी जी' की ग़ज़लों की ये भले ही पहली किताब हो लेकिन इस से पहले उनकी आठ जी हाँ आठ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वो हिंदी साहित्य का एक रौशन नाम हैं। उन्होंने उर्दू,, पंजाबी और अंग्रेजी ज़बानों में भी अपनी कलम चलाई है।    

चलो इश्क़ से आगे निकल के सोचें हम 
दिए बना लिए अब रौशनी बनाते हैं 

ग़ुलामी जहन से उनके नहीं गई अब तक 
जो लोग आज भी कठपुतलियां बनाते हैं
*
ये चांद करता है आराम जब अमावस में 
सियाह रात में तारों पे बोझ पड़ता है 

तुम्हारी याद की उजड़ी हुई हवेली में 
है इतनी धूल के सांसों पे बोझ पड़ता है
*
चलूं नक्श़-ए- क़दम पे मैं तो सब कुछ ठीक है लेकिन 
अलग रस्ते बनाती हूं तो रहबर रूठ जाता है
*
जलना नसीब में है मिट्टी के गर हमारी 
तो फिर चराग़ बनकर जलने में हर्ज क्या है
*
तुमको मालूम नहीं उसकी तड़प का आलम 
वो परिंदा की जो होता है रिहा आख़िर में

हरियाणा के हिसार में 19 मई को जन्मी 'मीनाक्षी' जी ने विज्ञान विषय में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की और अब फरीदाबाद में स्थाई रूप से रहती हैं। 'मीनाक्षी' जी की लेखन यात्रा के बारे में आईये उन्हीं के शब्दों में पढ़ते हैं। वो लिखती हैं कि 'अपने शेरी सफ़र के बारे में अपनी सुख़न-शनासी के बारे में अगर कुछ कहना है तो इसके लिए मुझे गुज़रे वक़्त का सिरा पकड़ कर बचपन की उन गलियों में जाना पड़ेगा जहाँ मैं बंद गली के आख़री मकान के सहन में एक चटख़ रंग की फ्राक पहने एक बेहद मासूम और चुपचाप सी लड़की को देखती हूँ जो दुनिया को बड़ी हैरत भरी नज़र से तकती है। उसके मन में हज़ारों सवाल हैं पर जवाब नदारद। जब मन की गहराइयों में से ये सवाल बादलों की तरह शोर करते तो वो कॉपी के आख़री पेज पर उन्हें दर्ज़ करती।  उसे पता नहीं था वो क्या है नज़्म, नस्र या ग़ज़ल। हाँ. लिखने के बाद एक सुकून सा जरूर मिलता था। मेरे पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था वो क़ायदे से रोज़ाना लुग़त के दस पेज पढ़ते उसके बाद हिंदी अंग्रेजी उर्दू में छपे अख़बार, रिसाले और किताबें। उन्हें मुशायरे सुनने का शौक था और वो सुनते ही नहीं थे बल्कि अपने पसंददीदा अशआर डायरी में नोट भी करते थे। आप यूँ कह सकते हैं कि उर्दू ज़बान और शायरी मुझे विरासत में मिली। बाहरी दुनिया के आडम्बरों, खोखलेपन,रिश्तों में पोशीदा खुदगर्ज़ी और ज़िन्दगी की जद्दोजहद से उपजे ख़ालीपन और उकताहट ने मुझे लफ़्ज़ों के और करीब ला दिया।ज़िन्दगी क्या है एक सफ़र ही तो है एक तलाश खुद को खोजने और पा लेने की।  इस सफ़र की मंज़िल तक पहुँचने के सबके अलग-अलग रास्ते हैं। कोई इबादत करता है तो कोई प्रेम कोई अक़ीदत से तो कोई इल्म के रास्ते पहुंचे तो कोई फ़न के रास्ते से इस मंज़िल को पाता है। ईश्वर ने मुझे ये हुनर दिया है कि मैं क़लम के रास्ते इस सफ़र को पूरा करूँ। मैं खुद को लफ़्ज़ों में ही पाती हूँ और लफ़्ज़ों में ही खुद को खो देना चाहती हूँ। अदब ही मेरी रूह की तस्कीन है। लफ्ज़ ही मेरी जिजीविषा (ज़िंदा रहने की चाह) को बनाये रखते हैं व् मुझे ज़िन्दगी और नजात की ख़ुशी देते हैं।'

मशहूर शायर 'फरहत एहसास' साहब इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि ' ग़ज़ल की शायरी कम से कम लफ़्ज़ों में ज़ियादा से ज़ियादा मानी अदा करने की कला है, लेकिन कुछ इस तरह, कि कला और भाव पक्ष एक दूसरे में पूरी तरह पैवस्त रहें अलग-अलग न रहें।  ये सूरत इस किताब के बहुत से श्रोण में नज़र आती है। 'मीनाक्षी' जी की ग़ज़लों का मिज़ाज क्लासिकी है।    
जनाब 'सैय्यद हुसैन ताज 'रिज़वी ' साहब लिखते हैं कि ' मीनाक्षी की शायरी में जहाँ आम इंसान हैं वहीँ ख़ास बन्दे भी हैं।  इनकी शायरी को किसी ख़ास फ़िक्री तबके में क़ैद नहीं किया जा सकता। 
जनाब 'इरशाद अज़ीज़' साहब इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि 'एक हस्सास तबियत की शायरा ज़माने के ग़म अपना बनाकर जब इतनी शिद्दत से बयां करती है तो ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि दर्द ज़माने का है या शायरा का अपना जाती दर्द है।  सुनने वाला अपने दर्द को महसूस करता है तो आह वाह की सूरत इख़्तियार करती है ये किसी शायरा के लिए अहम् बात होती है। 
मीनाक्षी जी को अदब की ख़िदमत के लिए मुख़्तलिफ़ तंज़ीमों ने कई सारे अवार्ड से नवाज़ा जिनमें सन 2006 में 'अमृता प्रीतम' अवार्ड,   2014 में 'सुभद्रा कुमारी चौहान' अवार्ड , 2007 में हरियाणा के मुख्यमंत्री द्वारा, 2011 में यूनिवर्स संस्था दिल्ली द्वारा और 2017 में अदिति गोवित्रिकर के हाथों ' 'वूमन अचीवर अवार्ड' से सम्मानित किया गया है। 
मस'अले उठते अगर हम बात का देते जवाब 
हमने चुप रह कर ही उसकी होशियारी काट दी 

जख़्म खाये, दर्द झेले, शायरी की और बस 
पूछिए मत आपके बिन कैसे काटी, काट दी
*
जिंदगी है रदीफ़ मुश्किल सी 
इसका आसान क़ाफ़िया ढूंढो 
*
बड़े ही सब्र से दिल तक पहुंचना था तुम्हारे 
नहीं खुलते ये दरवाज़े अगर मैं बोल देती 
*
अब के हवा के एक इशारे में बुझ गए 
तूफ़ान तो वही है चराग़ों में फ़र्क है
*
हम पर लाज़िम है करें हम खुद को साबित इस तरह 
रोशनी में जैसे खुद को इक दिया साबित करे
*
ठहरने का कोई मक़ाम नहीं 
सख़्त मुश्किल है आसमान का सफ़र 
*
तर्क-ए-त'अल्लुक़ात नहीं वक़्फ़ा है फ़क़त 
तू इस क़दर न डर हमें तन्हाई चाहिए
*
सुख़न पे अपने हमें यूं तो है यक़ीन बहुत 
पर अब की बार कोई ख़ुश-कलाम सामने है



















































Monday, October 28, 2024

किताब मिली -शुक्रिया -18


घर जब धीरे-धीरे मरने लगते हैं 
दीवारों पर अक्स उभरने लगते हैं 
*
मिली है अहमियत सांपों को इतनी 
सपेरा विष उगलना चाहता है 
*
सिर्फ हंस कर नहीं दिखाओ मुझे 
जी रहे हो यकीं दिलाओ मुझे 
*
दरिया अपनी गहराई पर फक़्र न कर 
मैं तेरी लहरों पर चलने वाला हूं 
*
भले ही हाथ जला तेरी लौ बढ़ाते हुए 
मगर चराग तू जंचता है जगमगाते हुए 
*
मैं उसे पर इल्ज़ाम लगाऊंगा तो कैसे 
उसके पास मेरा ही फेंका पत्थर होगा
*
मेरे अपनों ने ही गत ऐसी बनाई मेरी 
नब्ज चलती है तो दुखती है कलाई मेरी

ये किताब मैं सामने खोले बैठा हूँ और दिमाग में पाकिस्तान के लाजवब शायर जनाब 'मुनीर नियाज़ी' साहब की नज़्म 'हमेशा देर कर देता हूँ मैं ' घूम रही है. 'मुनीर' साहब का सुनाने का अंदाज़ जानलेवा है , अगर आपने उन्हें सुनाते हुए नहीं देखा तो अभी इसी वक़्त इस लेख पढ़ना बंद करें और यू ट्यूब पर ढूंढ कर उन्हें सुनें, तब आपको समझ आएगा कि देर कर देने से बाद में कितनी पीड़ा होती है. मैंने भी देर की और मैं भी उसी पीड़ा को महसूस कर रहा हूँ। वक़्त के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है की न तो उसे रिवाइंड कर सकते हैं न फारवर्ड। जो बीत गया उसे याद करके या तो दुखी हो सकते हैं या ख़ुश। मैं दुखी हूँ. सच में।

17 फरवरी 2022 की बात है , व्हाट्सएप पर मेसेज आया 'प्रणाम सर जी, अपना पोस्टल एड्रेस भेज दें अपनी किताब भेजनी है।' थोड़ी देर बाद उनका फोन आ गया बोले 'सर जी आप भी हैरान होंगे क्यूंकि मैंने आपसे पोस्टल एड्रेस माँगा है जबकि मुझे याद होना चाहिए था, जब आपके घर के खाने का स्वाद याद है तो पोस्टल एड्रेस भी तो याद होना चाहिए था। वैसे मुझे अगर जयपुर में कहीं छोड़ देंगे तो आपके घर पहुँच जरूर जाऊंगा क्यूंकि वो मोती डूंगरी का गणेश मंदिर मुझे याद है जिसके पास आपका घर है लेकिन पोस्टल एड्रेस ध्यान में नहीं है ' मैंने हँसते हुए कहा कि ' भाई जी अभी तुरंत एड्रेस भेजता हूँ उस से पहले आप अपनी पहली किताब के प्रकाशन की बधाई स्वीकार करें, मैं दुआ करता हूँ की आपकी ऐसी ढेरों किताबें समय समय पर भविष्य में आती रहें।' थोड़ी देर के मौन के बाद वो बोले ' सर जी ढेरों की क्या बात करते हैं दूसरी आ जाये तो गनीमत समझें अब स्वास्थ्य साथ नहीं देता, आप इस पर लिखेंगे तो कृपा होगी।' मैंने झिझकते हुए कहा कि ' भाई आप तो देख ही रहे हैं मैंने पिछले चार सालों से लिखना बंद कर रखा है इसलिए लिखने की गारंटी नहीं देता, हाँ इसे पढूंगा जरूर'। वो बोले 'आप पढ़ेंगे ये ही बहुत है, आप इत्मीनान से पढ़िए फिर बताइये'।    

आज जब इस किताब पर लिखने बठा हूँ तो दुःख हो रहा है, मुझे दो साल पहले ये काम करना चाहिए था। 'शेषधर तिवारी' जी की ग़ज़लों की किताब ' तितलियों के रंग' मेरे सामने है लेकिन उस पर मेरा लिखा पढ़ने को शेषधर जी अब हमारे बीच नहीं हैं. इसीलिए मुवोऔर 'मुनीर नियाज़ी' साहब की नज़्म 'हमेशा देर कर देता हूँ मैं' बहुत शिद्दत से याद आ रही है.

मैं तेरे लम्स की शिद्दत से कहीं जी न उठूं 
मेरी तस्वीर को सीने से लगाने वाले 
*
देखने का सही नजरिया रख 
चांद छोटा बड़ा नहीं होता 
*
उम्मीद हमसे आपकी बेजा नहीं मगर 
जां है नहीं तो कोई कैसे जांनिसार हो 
*
आईने की साफ़गोई देख कर 
हम हुए राज़ी संवरने के लिए
*
मेरे आंगन में धूप आती है ऐसे 
कि जैसे वो नवेली ब्याहता है 

हवा फिरती है हर सू पागलों सी 
कि जैसे उसका बेटा लापता है
*
तारीफ़ों के पुल के नीचे 
मतलब का दरिया बहता है

 'शेषधर' जी से मेरा राब्ता लगभग दस-बारह साल पहले हुआ। ये सोशल मिडिया के शुरुआत के दौर की बात है तब मैं और वो याने दोनों ग़ज़ल लेखन, उम्र के उस दौर में सीख रहे थे जब लोग लिखना पढ़ना छोड़ कर मंदिर मस्जिद की शरण में चले जाते हैं. हम दोनों को ही किस्मत से मार्गदर्शन के लिए मिले जनाब 'मयंक अवस्थी' और 'द्विजेन्द्र द्विज' साहब। बाद में मुझे श्री 'पंकज सुबीर, जी ने अपनी शरण में लिया और शेषधर जी 'आदिक भारती' जी से भी दिशा निर्देश प्राप्त करने लगे। 

जैसा की आम तौर पर होता है रेस में एक साथ दौड़ते बहुत से बच्चे हैं लेकिन आगे दमखम वाले ही निकलते हैं। मुझे ये स्वीकार करने से कोई गुरेज़ नहीं है कि जहाँ मैं चंद कदम चल कर हाफने लगा वहीँ 'शेषधर' जी छलांगे लगाते हुए बहुत आगे निकल गए. मुझे अपनी सीमाएं पहले से पता लग गयीं इसलिए मैंने लेखन से अधिक रूचि पढ़ने में ली और ढेरों किताबें पढ़ी, उन पर लिखा और बरसों लिखा।  

'शेषधर' जी ने लिखा ही नहीं बल्कि नए लिखने वालों को बहुत प्रोत्साहन भी दिया, उनकी मदद की. वो हमेशा दूसरों की मदद को आगे रहते और सबके लिए हमेशा उपलब्ध रहते। वो एक बेहद नेक और सच्चे शायर थे ,दुनिया दारी उन्हें न कभी आयी न उन्होंने खुद को बेचने का हुनर सीखा। सच कहूं तो आज सोशल मिडिया और मुशायरे के मंचों पर धूम मचा रहे शायर उनके सामने कहीं नहीं टिकते। उन्होंने 'सुख़नवर इंटरनेशनल' की स्थापना अपने कुछ हमख़याल मित्रों के साथ मिल कर की.  इस के अंतर्गत वो देश के विभिन्न शहरों में मुशायरों का आयोजन करते थे और उस शहर तथा आसपास के युवा शायरों को श्रोताओं के सामने आने का मौका देते थे । आज जहाँ कोई किसी को आगे नहीं आने देता वहां बिना किसी स्वार्थ के दूसरों को आगे लेन जैसा काम करना बहुत बड़ी बात है. अगस्त 2019 में उन्होंने 'सुख़नवर इंटरनेशनल' का बारवां आयोजन जयपुर में किया था और उसके आयोजन की जिम्मेदारी मुझे सौंपी. उस वक्त वो एक गंभीर बीमारी से लगभग सोलह साल लड़ने के बाद थोड़ा ठीक हुए ही थे. वो तब अस्वस्थ नहीं थे लेकिन पूर्ण रूप से स्वस्थ भी नहीं थे।उस हाल में भी उनकी ऊर्जा युवाओं को मात करने वाली थी।
हमारी बज़्म में आ कर तो देखें
चरागों के तले भी रौशनी है    
वो अक्सर इन मुशयरों में अपने कलाम का आगाज़ इस शेर से करते थे :
आप शायर हैं शायरी करिये
हम सुख़नवर हैं मश्क करते हैं

जानते हैं ख़ामियां हैं अपनी फ़ितरत में बहुत 
लेकिन अब इस उम्र में तो हम सुधरने से रहे 
*
तुम्हारी क़ैद में रहना मुझे आराम ही देगा 
बशर्ते तुम करो मंज़ूर ख़ुद ज़ंजीर हो जाना 
*
ये न हो जख़्म दिल का भर जाए 
और तू जह्न से उतर जाए 
*
जिसे जो रास आये, रास्ता कर ले इबादत का 
अक़ीदत पर कभी छींटाकशी अच्छी नहीं लगती 
*
जो शाख़े समरदार है दीवार के उस पार 
वो मेरे मुक़द्दर में नहीं है तो नहीं है
*
अश्क आंखों में न हो और खुशी भी छलके 
हार जाओगे, कभी शर्त लगा कर देखो
*
मेरे सीने पर रख कर पांव बढ़ जा 
तेरी मंज़िल नहीं मैं रास्ता हूं

'शेषधर' जी का जन्म 16 जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के छोटे से गाँव  उदयकरनपुर में हुआ. उनके पिता जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यपक थे और पढ़ने में विशेष रूचि रखते थे।वो शेषधर जी को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करते. उनकी प्रेरणा से 'शेषधर' जी में बचपन से ही पढ़ने लिखने की रूचि जागृत हो गयी. छोटी उम्र से ही वो कविता लिखने लगे। उनके लेखन का स्तर देख उनके पिता बनारस से छपने वाले हिंदी अखबार 'आज' को उनकी रचनाएँ भेजते जिस में वो छपती। अखबार में छपी रचना को देख शेषधर जी और उनके पिता गौरवान्वित महसूस करते। हाई स्कूल के बाद उन्होंने गणित विषय में बी.एस सी पास की और इसी दौरान कालेज की लाइब्रेरी में पड़ी डाक्टर कुंअर बैचैन और गोपाल दास 'नीरज' जी की लिखी लगभग सभी किताबें पढ़ डालीं। इन दोनों की कविताओं से प्रभावित होकर लिखी उनकी कविताएँ तब की शीर्ष मैगजीन ' धर्मयुग' में छपने लगीं। 'धर्मयुग' से मिले पच्चीस रुपये के चेक उन्हें अनमोल लगते.  

बी.एस सी. के बाद उन्होंने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया और 1977 में बीटेक (यांत्रिकी) की डिग्री हासिल की। इंजिनीयरिंग की कठिन पढाई और उसके बाद स्टील अथॉरटी आफ इंडिया की नौकरी के चलते उनसे लिखने लिखाने का सिलसिला छूट गया। नौकरी की बंदिशें उन्हें  आयीं लिहाज़ा मात्र चार साल  के बाद स्टील अथॉरटी ऑफ इंडिया जैसी शानदार सरकारी नौकरी छोड़ वो प्रयागराज में खुद का व्यवसाय करने लगे। इससे उनकी झुझारू और अपने उसूलों के साथ समझौते न करने की प्रवृति का पता चलता है। लगभग चालीस वर्षों तक वो सफलतापूर्वक अपने व्यवसाय को चलाते रहे।  

सन 2011 से एक गंभीर बीमारी ने शेषधर जी को अपने गिरफ्त में ले लिया जिसके चलते उनके परिवार जन ने उन्हें अपना व्यवसाय बंद करने का आग्रह किया। उसके बाद शेषधर जी ने अपना पूरा समय साहित्य को समर्पित कर दिया।  सन 2019 के बाद वो फिर गंभीर रूप से बीमार पड़े और बिस्तर पकड़ लिया। प्रयागराज जहाँ वो बरसों रहे छोड़ कर उन्होंने अपने स्थाई निवास उदयकरनपुर जाने का निर्णय लिया लेकिन उसे क्रियान्वित 18 जून 2023 को ही कर पाए। उनके जीवन का निर्णय आखिर बहुत भरी पड़ा। अपने ही पैतृक घर में अपनों की उपेक्षा, तिरस्कार और लगतार किये गए अमानवीय व्यवहार से वो टूट गए और 29 सितम्बर 2024 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 18 जून 2023 से लेकर 25 अगस्त 2024 तक के अपने उदयकरनपुर गाँव के पैतृक घर में बिताये समय और वहां उन पर हुए अत्याचार को शेषधर जी ने फेसबुक पर डाली अपनी अंतिम पोस्ट में विस्तार से बयाँ किया है। इसे पढ़कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति खून के आंसू रो देगा। एक अच्छे और सच्चे इंसान के साथ उसके अपने और समाज कितना दुर्व्यवहार कर सकते हैं इसकी कल्पना बिना उस पोस्ट को पढ़े नहीं की जा सकती। उस पोस्ट का लिंक ये है अगर आप भी पढ़ना चाहें तो क्लिक करें.      


हद हो गई जब आज मेरे इंतज़ार की
बाहर निकल के मैंने ही दर खटखटा लिए
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कौड़ियों के भाव तो बिकना नहीं है
इसलिए नीलाम होना चाहता हूं
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तैरती लाशों को जब देखा तो आया ये ख़्याल
ज़िंदगी भर जिस्म को बस बोझ सांसों का मिला
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तितलियों के रंग से ख़ाइफ़ हैं बच्चे आजकल
मज़हबी तालीम का उन पर असर तो देखिए
ख़ाइफ़: भयभीत
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ख़बर लेता है वो औरों से मेरी
बुरा तो है मगर उतना नहीं है
'शेषधर' जी की ग़ज़लों पर श्री द्विजेन्द्र द्विज जी ने लिखा है कि ' उनके शेर ज़िन्दगी के किसी भी शोबे में अपूर्णता से काम लेने वालों पर बेहद करारा तंज़ हैं। विभिन्न प्रचलित बहरों में कहने के नयेपन व् अलग अलग दृष्टिकोण के साथ ग़ज़लें कहने वाले इस शायर के पास बड़ी से बड़ी बात को आसान से आसान और आमफहम शब्दों में कहने की आसानी है।'
प्रसिद्ध ग़ज़लकार 'विजय स्वर्णकार' जी ने इस किताब में लिखा है कि ' ग़ज़ल के तमाम पहलुओं को पूरा सम्मान देते हुए उसके रंग-रूप को और निखारना और इस खूबी से निखारना कि वो वर्तमान परिदृश्य में सभी सुधि जनों का धयान आकर्षित कर सके ये इस ग़ज़ल संग्रह में शेषधर जी ने कर दिखाया है। बेजोड़ शिल्प इन ग़ज़लों की विशिष्टता है। पंक्तियों में शब्द संयोजन की दुर्लभ कलाकारी है और जहां एक ओर संवेदनाओं का लबालब सागर है तो दूसरी ओर तार्किकता की ठोस जमीन भी है। '
शेषधर जी को ग़ज़ल के शिल्प की जानकारी देने वाले और मार्गदर्शन करने वाले हम दोनों के ही प्रारंभिक गुरु प्रिय 'मयंक अवस्थी' जी ने लिखा है कि ' शेषधर जी ने ऐसे मिसरे और और ऐसे ऐसे शेर कहे जिनको सुनकर कोई विश्वास ही नहीं करेगा इस व्यक्ति ने ग़ज़ल उस आयु में सीखना आरम्भ किया जब लोगों के अवकाश प्राप्ति की उम्र होती है। उनकी ग़ज़लों की भाषा में एक परिष्कृत और परिमार्जित शिष्ट और भद्र व्यक्ति हमेशा ही संवाद में उपस्थित है। '
सोनीपत निवासी देश के प्रसिद्ध शायर जनाब ''आदिक भारती' जो 'शेषधर' जी की ग़ज़ल यात्रा के हमेशा मार्गदर्शक बने रहे, लिखते हैं कि ' सटीक और सार्थक शायरी का दूसरा नाम तिवारी जी हैं। लफ़्ज़ों का तालमेल मिसरों में रवानी और मज़मून की बेसाख़्तगी पुख़्तगी और बेबाकी जो उनके अशआर में नज़र आती है वो बहुत कम देखने को मिलती है।'
ये किताब भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवाया जा सकता है।