Monday, February 16, 2015

किताबों की दुनिया - 103 / 2


इस उम्मीद के साथ कि आपने इस श्रृंखला की पहली कड़ी पढ़ ली होगी और अगर नहीं भी पढ़ी तो भी ये मान कर कि पढ़ ही ली होगी ,हम अपना अगला सफर जारी करते हैं। गर आपने पिछली पोस्ट पढ़ी है तो, याद होगा, आठ युवा शायरों के कलाम पढ़े थे जिनकी उम्र इस किताब के छपने तक चालीस से कम थी और उनकी अपनी कोई किताब मंज़र--आम पर नहीं आई थी।  आज हम बाकी के सात शायरों के कलाम से रूबरू होते हैं। 

शुरुआत करते हैं 15 अगस्त 1978 को मेरठ उत्तर प्रदेश में जन्मे लेकिन आजकल जयपुर में रह रहे जनाब आदिल रज़ा मंसूरी साहब से जिनके प्रयास से ही हम इस गुलदस्ते के फूलों की महक का लुत्फ़ उठा पा रहे हैं।  आपने करीब 90 युवा शायरों की लिस्ट से ये 15 शायर छांट कर इस किताब की शक्ल में हमारे सामने पेश किये। ये काम जितना आसान लगता है उतना है नहीं। सबसे पहले हम उनकी इस अनूठी सोच के लिए उन्हें सलाम करते हैं और फिर उनका कलाम आपको पढ़वाते हैं। आदिल साहब नज़्म और ग़ज़ल कहने में कमाल हासिल रखते हैं :-



बस्तियां क्यों तलाश करते हैं 
लोग जंगल उगा के कागज़ पर 

जाने क्या हमको कह गया मौसम 
खुश्क पत्ते गिरा के कागज़ पर 

हमने चाहा कि हम भी उड़ जाएँ 
एक चिड़िया उड़ा के कागज़ पर 

लोग साहिल तलाश करते हैं 
एक दरिया बहा के कागज़ पर 

कोर ग्रुप ऑफ कंपनीज़ के ग्रुप सी की हैसियत से कार्यरत आदिल साहब  बेल्स एजुकेशन एंड रिसर्च सोसाइटी ,चंडीगढ़ एवम ग्रूमर्स प्रोफेशनल स्टडीज एंड एजुकेशन के एडवाइजरी मेंबर भी हैं। आप उन्हें इस विलक्षण किताब के लिए उनके मोबाइल 09829088001 पर बधाई दे सकते हैं ।आईये उनकी एक और ग़ज़ल चंद अशआर आपको पढ़वाएं :-

ये सुना था कि देवता है वो 
मेरे हक़ ही में क्यों हुआ पत्थर 

अब तो आबाद है वहां बस्ती         
अब कहाँ तेरे नाम का पत्थर

नाम ने काम कर दिखाया है 
सब देखा है तैरता पत्थर 

हमारे आज के दूसरे और किताब के दसवें शायर हैं 11 फरवरी 1978 को मुल्तान पाकिस्तान में जन्में जनाब "अहमद रिज़वान" साहब। आप इन्हें भारतीय कविताओं सबसे बड़ी साइट " कविता कोष " और उर्दू अदब की सबसे बड़ी साइट "रेख्ता" पर भी पढ़ सकते हैं। आपकी दो -बुक्स तुलु--शाम इंटरनेट पर उपलब्ध है। आईये पढ़ते हैं बानगी के तौर पर उनकी ग़ज़ल के कुछ शेर :-

ख्वाबों का इक हुजूम था आँखों के आसपास 
मुश्किल से अपने ख्वाब का चेहरा अलग किया 

जब भी कहीं हिसाब किया ज़िन्दगी का दोस्त 
पहले तुम्हारे नाम का हिस्सा अलग किया 

फिर यूँ हुआ कि भूल गए उसका नाम तक 
जितना करीब था उसे उतना अलग किया 

रिज़वान साहब की बेहतरीन ग़ज़लों में से सिर्फ एक ग़ज़ल के अशआर आप तक पहुँचाना तो आप लोगों के साथ ना -इंसाफी होगी इसलिए उनकी एक और ग़ज़ल के  शेर पढ़ें :-  

ये कौन बोलता है मिरे दिल के अंदरून 
आवाज़ किसकी गूँजती है इस मकान में 

उड़ती है खाक दिल के दरीचों के आस पास
शायद कोई मकीन नहीं इस मकान में 

'अहमद' तराशता हूँ कहीं बाद में उसे 
तस्वीर देख लेता हूँ पहले चटान में 

इस हसीन सफर में अब मिलते हैं जनाब "फ़ैसल हाशमी " साहब से जिनका जन्म अगस्त 1976 में कबीरवाला (खानेवाल ) पाकिस्तान में हुआ। खूबसूरत शख्सियत के मालिक जनाब "फैसल हाश्मी" साहब का नाम पाकिस्तान के चुनिंदा नौजवान शायरों में शुमार होता है और क्यों हो जरा उनके अशआर पर नज़र डालें खुद समझ जायेंगे :-

सुखन आगाज़ तिरी नीम निगाही ने किया  
वरना मुझ में कोई खामोश हुआ जाता था 

कश्तियों वाले कहीं दूर निकल जाते थे 
साफ़ पानी में कोई रंग मिला जाता था 

अब बताते हैं वहां खून बहे जाता है 
मेरा हम ख्वाब जहाँ तेग छुपा जाता था 

अब जिक्र करते हैं जनाब ज़िया -उल-मुस्तफ़ा 'तुर्क' साहब का जिनका जन्म 29 अगस्त 1976 मुल्तान पाकिस्तान में हुआ। आप पाकिस्तान की किसी यूनिवर्सिटी के उर्दू डिपार्टमेंट में लेक्चरर  के पद पर काम कर रहे हैं।  लगभग तीन साल पहले उनकी एक किताब "सहर पसे चिराग " मंज़रे आम पर चुकी है। सादा ज़बान में मारक शेर कहना उनकी खासियत है , मुलाहिज़ा फरमाएं :-

दिल तेरी राहगुज़र भी तो नहीं कर सकते 
हम तिरी सम्त सफर भी तो नहीं कर सकते 

अब हमें तेरी कमी भी नहीं होती महसूस  
पर तुझे इसकी खबर भी तो नहीं कर सकते 

किस तरह से नयी तरतीब भुला दी जाये 
कुछ इधर से हम उधर भी तो नहीं कर सकते 

पत्रिका समूह के सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार से सम्मानित शायर ब्रजेश 'अंबर' जिनका जन्म  फरवरी 1975 को जोधपुर राजस्थान में हुआ इस कड़ी के हमारे अगले शायर हैं।  ब्रजेश सरल भाषा में कमाल के शेर रचते हैं :-

मुलाकात का सिलसिला चाहता हूँ 
मगर उसमें कुछ फ़ासिला चाहता हूँ 

गली हो कि घर हो सफर हो कि मंज़िल 
उसे हर जगह देखना चाहता हूँ 

मुझे चैन घर में भी आता नहीं है 
मगर शाम को लौटना चाहता हूँ 

उसे देख कर जाने क्या हो गया है
कि हर शख्स से फ़ासिला चाहता हूँ           

छोटी बहर में शेर कहना मुश्किल होता है लेकिन ब्रजेश जी ने इस विधा में भी महारत हासिल की है।  आप देखें कि धूप रदीफ़ को किस ख़ूबसूरती से उन्होंने छोटी बहर में निभाया है :-

जीना जीना चढ़ती धूप 
छत पर कब जा बैठी धूप 

कितनी अच्छी लगती है 
घर में आती- जाती धूप 

तू सावन की पहली बूँद 
मैं  सड़कों की जलती धूप 

नौजवान शायरों का जिक्र हो रहा हो और उसमें 1 अगस्त 1974 में  ताला गंग ,चकवाल लाहौर ,पाकिस्तान में जन्में जनाब "ह्माद नियाज़ी " का नाम शुमार  हों ऐसा मुमकिन नहीं है। उनका एक शेरी मज़्मुआ "जरा नाम हो " मंज़रे आम पर चुकी है :-

हुज़ूरे-ख्वाब देर तक खड़ा रहा सवेर तक 
नशेबे-चश्मो-क़ल्ब से गुज़र तिरा हुआ नहीं 
नशेबे-चश्मो-क़ल्ब से = ह्रदय की आँखों से

जाने कितने युग ढले जाने कितने दुःख पले 
घरों में हाँड़ियों तले किसी को कुछ पता नहीं 

वो पेड़ जिसकी छाँव में कटी थी उम्र गाँव में 
मैं चूम चूम थक गया मगर ये दिल भरा नहीं 

लीजिये साहब अब आपके सामने पेशे खिदमत हैं हमारी इस कड़ी के सातवें और किताब के अंतिम याने पन्द्रहवें शायर जनाब "दिलावर अली 'आज़र' साहब जिनका जन्म 21 नवम्बर 1971 में हुसैन अब्दाल ,पाकिस्तान में हुआ।  ये जैसा कि आपने देखा होगा इस किताब के सबसे उम्र दराज़ शायर हैं। सन 2013 में उनकी पहली किताब "पानी" प्रकाशित हुई और बहुत मकबूल हुई। आप उनकी ग़ज़लें उर्दू शायरी की साइट "रेख्ता" पर पढ़ सकते हैं।  आईये लुत्फ़ उठाते हैं उनकी ग़ज़ल के कुछ चुनिंदा शेरों का :-

सब अपने अपने ताक में थर्रा के रह गए 
कुछ तो कहा हवा ने चरागों के कान में 

निकली नहीं है दिल से मिरे बद-दुआ कभी 
रखे खुदा अदू को भी अपनी अमान में 

मंज़र भटक रहे थे दरो-बाम के क़रीब 
मैं सो रहा था ख़्वाब के पिछले मकान में   

'आज़र' इसी को लोग कहते हों आफ़ताब 
इक दाग़ सा चमकता है जो आसमान में   

सर्जना प्रकाशन शिवबाड़ी बीकानेर से प्रकाशित इस किताब की एक प्रति मुझे मेरे छोटे भाई बेहतरीन शायर अखिलेश तिवारी जी ने भेंट स्वरुप दी थी। आप इस किताब का रास्ता "आदिल रज़ा मंसूरी" साहब को फोन कर के पता कर सकते हैं। 

उम्मीद है आपको ये पेशकश पसंद आई होगी। अगली किताब के साथ जल्द ही हाज़िर होने की कोशिश करेंगे, तब तक के लिए खुदा हाफ़िज़