Monday, October 30, 2017

किताबों की दुनिया -149

घिरती हुई है बाढ़ भी आँखों के गाँव में 
फैला हुआ चारों तरफ़ सूखा भी देखिये 

ये धूल के बादल भी छुएँ आसमान को 
मिटटी में ये रुला हुआ सोना भी देखिये 

बेमौसमी खिले हुए 'सुमन' भी हैं कई 
बेमौसमी ये रूप पिघलता भी देखिये 

16 नवम्बर 1942 को जन्में बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री लक्ष्मी खन्ना 'सुमन' हमारे आज के शायर हैं जिनकी किताब 'ग़ज़लों की नाव में ' की बात हम करेंगे। लक्ष्मी जी ये का ये पाँचवा ग़ज़ल संग्रह है जिसे 'हिन्द युग्म' प्रकाशन ,नयी दिल्ली ने सन 2014 में प्रकाशित किया था। इस से पहले उनके "दायरों के पार" , "इस भरे बाज़ार में" , "ग़ज़लों की छाँव में" और "याद भी ख्वाब भी हकीकत भी" ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो कर धूम मचा चुके हैं। लक्ष्मी जी की प्रतिभा का आंकलन महज़ एक पोस्ट में नहीं हो सकता।



बेवजह सूखे जो लम्हे थे दिलों के दरमियाँ 
आँख की बारिश उन्हें झर-झर बहाकर ले चली 

मस्तियों की गंध ले ऋतुओँ की रानी आ रही 
फ़ागुनी झंकार पतझर को बहाकर ले चली 

फिर समय की वादियों में खिल उठे हैं मन-'सुमन'
धूप, कोहरे के बुझे मंज़र बहाकर ले चली 

हल्द्वानी के एम्. बी इंटर कॉलेज से स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के बाद लक्ष्मी जी ने डी बी एस कॉलेज नैनीताल से बी एस सी तक की पढाई पूरी की और फिर इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी रुड़की से न्यूक्लियर फिजिक्स में स्नातक की डिग्री हासिल करने के पश्चात् पंतनगर यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे। लेखन उनका प्रिय शौक रहा इसीलिए उन्होंने अबाध लेखन किया। ग़ज़लों के अलावा उनकी कलम गीत ,नवगीत ,दोहे, मुक्तक और बाल साहित्य रचने में लगातार चल रही है।

 मैं लहज़ों की बारीकियाँ चुन रहा हूँ 
तभी तो मैं हैरान रहने लगा हूँ 

मुहब्बत, इनायत, मुरव्वत,सखावत 
मैं सब सीढ़ियों से फिसलता रहा हूँ 
मुरव्वत = दिल में किसी के लिए जगह होना। सखावत=दानशीलता 

मुझे साथ ही तुम जो ले लो तो बेहतर
मैं अपने ख्यालों में पक-सा गया हूँ 

वो आये हैं भरकम खिताबों को लेकर 
मैं हाथों को बांधे खड़ा हो गया हूँ

इस किताब पर प्रतिक्रिया देती हुई डा. निर्मला जैन लिखती हैं कि "लक्ष्मी सुमन ग़ज़लों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि धरती से उनका गहरा रिश्ता है। इन्हें पढ़कर आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इनके कवि को ज़िन्दगी से प्यार है और शायरी उनकी लगन है। सहजता इन ग़ज़लों का प्राण है। कहीं कोई बनावट नहीं, शैली का ऐसा कोई करिश्मा नहीं जो पाठक के लिए दिक्कत पैदा करे। ये ग़ज़लें अनुभव से पैदा हुई हैं और सीधे पाठक के दिल में उतरती चली जाती हैं। "

दिन भर खटता रहता है वह कड़ी धूप के मैदाँ में
सुखी रहे घर इस कोशिश में रहता है घरवाला 'पेड़'

सरल हवा को दिया गरल जब मनुज के ओछे लोभों ने
नीलकंठ बन अमृत देता पी कर उसे निराला 'पेड़'

कहीं सुमन संग कलियाँ नटखट कहीं फलों संग कांटे भी
जीवन धन से हरा-भरा है सब का देखा-भाला 'पेड़' 

 लक्ष्मी सुमन जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "यदि ग़ज़ल की भाषा में रवानी हो उसमें आम बोलचाल के शब्द ही प्रयोग किये जाएँ तभी पाठक या श्रोता उससे तारतम्य बैठा पाता है। इस संग्रह की ग़ज़लों में सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक तथा आम आदमी के सरोकार तो हैं ही पर श्रृंगार रस से ओतप्रोत कोमल अहसासों से भरे भी कई अशआर पिरोये गए हैं ,इसमें प्रकृति के कई अद्भुत करिश्में भी अपने विशेष रंग में हैं. 

बैठ सब्र की छाँव तले 
अंगूरों को खट्टा मान 

लगा फ़कीरी का तकिया 
सो जा सुख की चादर तान

'सुमन' सरीखा हँसता जा 
दर्द न काटों का पहचान 

 प्रकृति के धरती, खेत, जंगल, पहाड़, बादल, कोहरा, वर्षा,ओस, धूप,छाया, सूर्य,वृक्ष , पक्षी आदि विभिन्न अवयवों का मानवीकरण करते हुए लक्ष्मी जी ने इनके सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत किये हैं तो कभी इन्हें प्रतीकों के रूप में प्रस्तुत करते हुए मनुष्य जीवन के किसी सत्य का उद्घाटन किया है। किताब की भूमिका में दिवा भट्ट जो कुमाऊँ यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग की विभागाध्यक्ष हैं लिखती हैं कि "भाषा के साथ नए नए प्रयोग करना सुमन की आदत है , नए प्रयोगों के साथ भी स्वाभाविकता तथा सम्प्रेषण की सार्थकता वे कभी नहीं चूकते, खास तौर पर शब्द चयन में आंचलिक प्रयोग ताज़गी का अहसास कराते हैं :

रस भरे फलों का बनें पेड़ एकदिन 
करती हैं प्राणपण यही प्रयास 'गुठलियां' 

तोड़कर उन्हें मिलीं 'गिरी ' की लज़्ज़तें 
पत्थर को तभी आ गयीं हैं रास 'गुठलियां' 

 "ग़ज़लों की नाव में" सुमन जी की 72 ग़ज़लें संग्रहित हैं जिनमें से अधिकांश छोटी बहर में हैं , छोटी बहर के बादशाह जनाब विज्ञान व्रत जी ने सुमन जी के लिए लिखा है कि "सादगी लक्ष्मी खन्ना सुमन का स्थाई भाव है। सादा ज़बान में बात कहने के फन में शायर को महारत हासिल है। बात को इस तरह से कहना कि श्रोता , पाठक चौंक जाएँ उनका विशेष गुण है। उनकी ग़ज़लें अपनी ख़ामोशी और सादगी के साथ पाठकों के दिल में जगह बनाने में और उन्हें विशेष पहचान दिलाने में सक्षम हैं। "

वही मैं आम जन का पोस्टर हूँ 
सियासत जिसपे लिखी जा रही है 

जो ठोकर से उठी वो धूल क्या है 
ये गिर कर आँख में समझा रही है 

हवा ने कान में जाने कहा क्या 
ये क्यारी इस क़दर लहरा रही है 

इस किताब को आप अगर चाहें तो अमेजन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं या फिर हिन्दयुग्म से उनके मोबाईल न 9873734046 या 9968755908 पर संपर्क कर सकते हैं। मेरा निवेदन तो ये ही रहेगा कि आप लक्ष्मी खन्ना सुमन जी से जो गुरुगांव (गुड़गांव ) में रहते हैं को उनके मोबाईल न 9719097992 अथवा 9312031565 पर संपर्क कर बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें और बिलकुल अलग तरह की इन ग़ज़लों की किताब को अपनी निजी लाइब्रेरी में जगह दें।
चलते चलते पढ़िए उनकी एक छोटी बहर की प्यारी सी ग़ज़ल :

मन सागर में ज्वार उठा 
आते देखा अपना 'चाँद' 

फिर अम्मी की ईद हुई 
छुट्टी पर घर आया 'चाँद' 

दाग़ छुपाने की खातिर 
शक्लें रोज बदलता 'चाँद' 

चुरा रौशनी सूरज की 
ढीठ बना मुस्काता 'चाँद' 

Monday, October 23, 2017

किताबों की दुनिया -148

आज ग़ज़ल बहुत सी भारतीय भाषाओँ में कही जा रही है लेकिन जिस भाषा के साथ ग़ज़ल का जिक्र हमेशा आएगा वो है "उर्दू'. शायरी पर बात करने से पहले आईये उसे पढ़ते हैं जो हमारे आज के शायर ने इस किताब की भूमिका में एक जगह लिखा है "दुनिया की सब सभ्यताएं भाषाओँ पर टिकी हैं। उर्दू ही एक भाषा थी जो धर्म और सभ्यता की सभी सीमाओं को पार कर चुकी थी। इस फैलती हुई भाषा को एक दम से समेट दिया गया। उर्दू एक भाषा है, वोटों की किसी संस्था में नहीं आती। लोग तो बहु या अल्पसंख्यकों में बंटे और ढूंढें जा सकते हैं लेकिन भाषा को हम कहाँ ढूंढें ? वोटो की राजनीति ने भाषा को हमसे छीन लिया और धीरे धीरे उर्दू भाषा को मुस्लिम मज़हब के साथ चस्पां कर दिया। भाषा के साथ ऐसा दुर्व्यवहार शायद ही कहीं दुनिया में हुआ होगा। उर्दू भाषा को अमीर बनाने में सिर्फ मुसलमान शायरों अदीबों और नक्कादों का ही नहीं गैर-मुस्लिम विशेषतः हिंदू शायरों अदीबों और आलोचकों का योगदान कभी भी कम नहीं रहा"

मेरे घर में सब मेहमाँ बन संवर के आते हैं
इक तेरा ही गम है जो, नंगे पाँव आता है

अब तिरा तसव्वुर भी, मुझसा हो गया शायद 
शब को खूब हँसता है, सुबह टूट जाता है 

किस तरह करूँ शिकवा वक़्त से मैं ऐ 'ज़ाहिद' 
वो भी तेरे जैसा है, यूँ ही रूठ जाता है 

हमारे शायर ने आगे लिखा है " आज के इस दौर में, मैं जिसे उर्दू ज़बान के ज़वाल का दौर मानता हूँ , उर्दू शाइरी के पौधों को सींचने वाले उस्ताद भी कम रह गए हैं। उर्दू भाषा और उर्दू लिपि लगभग लुप्त हो गयी है " शायर का ये कथन मुझे आंशिक रूप से सत्य लगता है क्यूंकि आज की नयी पीढ़ी फिर से उर्दू भाषा और उसकी लिपि में दिलचस्पी लेने लगी है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो उर्दू पढ़ने लिखने वालों में शर्तिया इज़ाफ़ा होगा। हमारे आज के शायर की मादरी ज़बान पंजाबी है और उन्होंने उर्दू किसी उस्ताद से नहीं बल्कि उर्दू के कायदे खरीद कर सीखी है और शायरी किताबों से।

क्यों बढ़ाये रखता है उसकी याद का नाखुन 
रोते रोते अपनी ही आँख में चुभो लेगा 

आँख, कान, ज़िहन-ओ-दिल बेज़बाँ नहीं कोई 
जिसपे हाथ रख दोगे, खुद-ब-खुद ही बोलेगा 

तू ख़िरद के गुलशन से फल चुरा तो लाया है 
उम्र भर तू अब खुद को खुद में ही टटोलेगा 
ख़िरद=अक्ल , बुद्धि 

 20 दिसम्बर 1950 को चम्बा हिमांचल प्रदेश में जन्में जनाब "विजय कुमार अबरोल" जो "ज़ाहिद अबरोल " के नाम से लिखते हैं हमारे आज के शायर हैं , उनकी ग़ज़लों की किताब "दरिया दरिया-साहिल साहिल " की बात हम करेंगे। इस किताब को जिसमें अबरोल साहब की 101 ग़ज़लें संकलित हैं ,सन 2014 में सभ्या प्रकाशन ,मायापुरी , नई दिल्ली ने प्रकाशित किया था। ज़ाहिद साहब ग़ज़लों के अलावा नज़्में भी लिखते हैं।


दिल में किसी के दर्द का सपना सजा के देख 
खुशबू का पेड़ है इसे घर में लगा के देख 

सच और झूठ दोनों ही दर्पण हैं तेरे पास 
किस में तिरा ये रूप निखरता है जा के देख 

जो देखना है कैसे जिया हूँ तिरे बगैर 
दोनों तरफ से मोम की बत्ती जला के देख 

मेरी हर एक याद से मुन्किर हुआ है तू 
गर खुद पे एतिमाद है मुझको भुला के देख 
मुन्किर=असहमत , एतिमाद=भरोसा 

दिलचस्प बात ये है कि "ज़ाहिद" साहब ने भौतिक विज्ञान से एम् एस सी की और उसके बाद बरसों पंजाब नेशनल बैंक में काम करते रहे याने विज्ञान और बैंक दोनों ही बातें गैर शायराना हैं उसके बावजूद उन्होंने शायरी का दामन पकडे रखा और अनवरत लिखते रहे। उनका ये शौक उनकी तालीम और नौकरी से बिलकुल मुक्तलिफ़ रहा। उन्होंने सिद्ध किया की अगर आप में हुनर और ज़ज़्बा है तो रेगिस्तान में भी आप पानी से छलछलाती नदी ला सकते हैं।

खुद को लाख बचाया हमने दिल को भी समझाया हमने
लेकिन बस में कर ही बैठा गोरे बदन का काला जादू 

बरसों तेरी याद न आई आज मगर अनजाने में ही 
मुरझाये फूलों में जैसे नींद से जाग पड़ी हो खुशबू

'ज़ाहिद"कौन से अंधियारे में फेंक आएं यह धूप बदन की 
ज़ेहन पे हर पल छाए हुए हैं इस के आरिज़ उस के गेसू 

पंजाब के ख्यातिनाम शायर जनाब 'राजेंद्र नाथ रहबर 'जो अपनी नज़्म, जिसे जगजीत सिंह साहब ने अपनी मखमली आवाज़ दी थी "तेरे खुशबू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे " के हवाले से पूरी दुनिया में जाने जाते हैं ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि " ज़ाहिद अबरोल का कलाम सुबह की पहली किरण की तरह तरो-ताज़ा और ताबनाक है। उन्होंने एक लम्बा अदबी सफर तय किया है जिस ने उन की महबूबियत को चार चाँद लगा दिए हैं. उनके सीने में एक सच्चे फनकार का दिल धड़कता है। वो शुहरत और नामवरी की तमन्ना किये बगैर अपना साहित्यिक सफर जारी रखे हुए हैं। कलाम का बांकपन ,रंगों की बहार ,विषयों की नूतनता और अछूतपन प्रभावित करते हैं और पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं। सच्ची और उम्दा शायरी की पहचान भी यही है

दिल को जैसे डसने लगे हैं इंद्रधनुष के सातों रंग 
जब से हमने तेरी हंसी को दर्द में ढलते देखा है 

बादल, आंसू, प्यास, धुआं, अंगारा, शबनम, साया, धूप 
तेरे ग़म को जाने क्या क्या भेस बदलते देखा है

'ज़ाहिद' इस हठयोगी दिल को हमने अक्सर सुबह-ओ-शाम
नंगे पाँव ही दर्द के अंगारों पर चलते देखा है 

नज़्में 'ज़ाहिद अबरोल ' साहब का पहला प्यार हैं। उनकी नज़्मों का पहला संग्रह 1978 में और दूसरा 1986 में उर्दू और हिंदी दोनों ज़बानों में प्रकाशित हुआ। सन 2003 में उन्होंने बाहरवीं सदी के महान संत कवि शैख़ फ़रीद के पंजाबी कलाम को उर्दू और हिंदी में अनुवादित कर धूम मचा दी। उनका 'फरीदनामा' सर्वत्र सराहा गया। 'दरिया दरिया -साहिल साहिल उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जो पहले हिंदी में प्रकाशित हुआ और बाद में ये संग्रह उर्दू में भी प्रकाशित किया गया। इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें उर्दू की मुश्किल और तवील बहरों पर भी कही गयी है जो दूसरे ग़ज़ल संग्रहों में आसानी से पढ़ने में नहीं आतीं .

जी में है इक खिलौना सा बन कर कभी एक नन्हें से बच्चे का मन मोह लूँ 
जानता हूँ कि मासूम हाथों से मैं, टूट कर रेज़ा रेज़ा बिखर जाऊंगा 

तश्नगी का समुन्दर है ये ज़िन्दगी इस की हर लहर तलवार से तेज़ है 
आस की नाव के डूब जाने पे भी हौसला है मुझे पार उतर जाऊंगा

मुझको 'ज़ाहिद' इस उखड़े हुए दौर में आइनों का मुहाफ़िज़ बनाते हो क्यों 
नरम-ओ-नाज़ुक तबीयत है मेरी, कि मैं पत्थरों के तसव्वुर से डर जाऊंगा 

किताब की एक और भूमिका में जनाब बी.डी.कालिया 'हमदम' ने लिखा है कि 'ज़ाहिद साहब के शेरों यह अहसास होता है कि यदि आपको किसी भाषा से मुहब्बत है तो उसे सीखने में और भाषा के समंदर में तैरने में कोई मुश्किल सामने नहीं आ सकती। ज़ाहिद अबरोल साहित्यिक रूचि के मालिक हैं। ज़ाहिद अबरोल के कलाम में शब्द एवम अर्थ-सौंदर्य भी है और बंदिश का सौंदर्य भी। अच्छे शेर कहने के बावजूद वो सादगी और नम्रता से यह बात मानते हैं कि वो अभी भी एक विद्यार्थी हैं और उन्हें मंज़िल तक पहुँचने के लिए काफ़ी फ़ासला तय करना है

झुकने को तैयार था लेकिन जिस्म ने मुझको रोक दिया  
अपनी अना ज़िंदा रखने का बोझ जो सर पर काफ़ी था 

तीन बनाये ताकि वो इक दूजे पर धर पायें इलज़ाम 
वरना गूंगा, बहरा, अँधा, एक ही बन्दर काफ़ी था 

ग़म, दुःख, दर्द, मुसीबत,ग़ुरबत सारे यकदम टूट पड़े 
इस नाज़ुक से दिल के लिए तो एक सितमगर काफ़ी था

किताब की सौ ग़ज़लों से चुनिंदा शेर छांटना कितना मुश्किल काम है ये मैं ही जानता हूँ और ये भी जानता हूँ कि मैं हर शेर के साथ इन्साफ नहीं कर सकता इसीलिए बहुत से ऐसे शेर आप तक पहुँचाने से छूट जाते हैं जो कि यहाँ होने चाहियें थे तभी तो आपसे गुज़ारिश करता हूँ कि आप किताब मंगवा कर पढ़ें और सभी शेरों का भरपूर आनंद लें. इस किताब को मंगवाने के लिए आप ज़ाहिद साहब की शरीक-ऐ-हयात मोहतरमा रीटा अबरोल साहिबा से उनके मोबाईल न 97363 23030 पर बात करें । ज़ाहिद साहिब ने उनका ही मोबाईल न नंबर शायद इसलिए दिया है क्यूंकि उन्होंने ही ज़ाहिद साहब के अंदर के इंसान और शायर को ज़िंदा रखने में मदद की है। आप से मेरी ये गुज़ारिश है कि उनके खूबसूरत कलाम के लिए आप ज़ाहिद साहब को उनके मोबाईल न 98166 43939 पर संपर्क कर बधाई जरूर दें।

चलते चलते पेश हैं उनके कुछ चुनिंदा शेर :-

एक घर में तो फ़क़त एक जला करता था
घर में बेटे जो हुए जल उठे चूल्हे कितने 
*** 
बज़ाहिर ओढ़ रक्खा है तबस्सुम 
मगर बातिन सरापा चीखता है 
बज़ाहिर : सामने , बातिन : पीछे 
*** 
मैं नए अंदाज़ से वाकिफ हूँ लेकिन शायरी 
और भी कुछ है फ़क़त लफ़्ज़ों के जमघट के सिवा 
*** 
खत्म कर बैठा है खुद को भीड़ में 
जब तलक तन्हा था वो मरता न था 
*** 
तू मेरी कैद में है मैं भी तेरी कैद में हूँ 
देखें अब कौन किसे पहले रिहा करता है
*** 
काठ के फौलाद के हों या लहू और मांस के
एक से हैं सारे दरवाज़े कहीं दस्तक न दो

Monday, October 16, 2017

किताबों की दुनिया -147

दूर से इक परछाईं देखी अपने से मिलती-जुलती
पास से अपने चेहरे में भी और कोई चेहरा देखा

सोना लेने जब निकले तो हर-हर ढेर में मिटटी थी
जब मिटटी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा

रात वही फिर बात हुई ना हम को नींद नहीं आयी
अपनी रूह के सन्नाटे से शोर सा इक उठता देखा

हिंदी पाठकों ने नासिर काज़मी और इब्ने इंशा का नाम जरूर सुना होगा जिन्होंने ग़ज़ल को ऐसी लय दी जिसे नई ग़ज़ल का नाम दिया जाता है लेकिन शायद अधिकांश ने जनाब खलीलुर्रहमान आज़मी साहब का नाम नहीं सुना होगा जिनका नाम भी उन दोनों शायरों के साथ ही लिया जाता है। आज़मी साहब को सन 1950 के बाद लिखी जाने वाली ग़ज़ल का इमाम कहा जाता है। आज हम उनकी किताब "ज़ंज़ीर आंसुओं की " की बात करेंगे जिसे सन 2010 में वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया था।



न जाने किसकी हमें उम्र भर तलाश रही 
जिसे करीब से देखा वो दूसरा निकला 

हमें तो रास न आयी किसी की महफ़िल भी 
कोई खुदा कोई हमसायए-खुदा निकला
हमसायए-खुदा=खुदा का पड़ौसी 

हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं 
पुकारा हमने तो सदियों का फासला निकला 

खलीलुर्रहमान आज़मी 9 अगस्त 1927 को जिला आज़मगढ़ के एक गाँव सीधा सुल्तानपुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए। उनके पिता मोहम्मद शफ़ी बहुत धार्मिक प्रवृति के इंसान थे। प्रारम्भिक शिक्षा शिब्ली नेशनल हाई स्कूल से हासिल करने के बाद वह 1945 में अलीगढ आये ,1948 में बी.ऐ और उर्दू में एम् ऐ की तालीम, प्रथम स्थान प्राप्त कर,अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हासिल की। सन 1953 से वो अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बतौर लेक्चरर पढ़ाते रहे। सन 1957 में उन्होंने "उर्दू में तरक्की पसंद अदबी तहरीक " विषय पर, जो उर्दू में आज भी बेहतरीन दस्तावेज माना जाता है, पी एच.डी की डिग्री पायी। जून 1978 को ब्लड कैंसर से लम्बी लड़ाई लड़ते हुए वो दुनिया-ऐ-फ़ानी से कूच फ़रमा गए।

हाँ तू कहे तो जान की परवा नहीं मुझे
यूँ ज़िन्दगी से मुझको मोहब्बत जरूर है

अपना जो बस चले तो तुझे तुझसे मांग लें 
पर क्या करें की इश्क की फितरत ग़यूर है
ग़यूर :स्वाभिमान 

आरिज़ पे तेरे मेरी मोहब्बत की सुर्खियां 
मेरी जबीं पे तेरी वफ़ा का गुरूर है 

अपने स्कूली दिनों से आज़मी साहब ने शायरी शुरू कर दी। उनकी लिखी रचनाएँ तब की बच्चों की प्रसिद्ध पत्रिका "पयामि तालीम "में छपती रहीं। उन्हें गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर सामान रूप से अधिकार प्राप्त था. उर्दू साहित्य की परम्परागत लेखन शैली में उन्होंने आधुनिकता के पुट का समावेश किया। प्रगतिशील आंदोलन से वो जीवन पर्यन्त जुड़े रहे। वो प्रगतिशील लेखक संघ के सेक्रेटरी भी रहे।

हर खारों-ख़स से वज़अ निभाते रहे हैं हम 
यूँ ज़िन्दगी की आग जलाते रहे हैं हम 

इस की तो दाद देगा हमारा कोई रक़ीब 
जब संग उठा, तो सर भी उठाते रहे हैं हम 

ता दिल पे ज़ख़्म और न कोई नया लगे 
अपनों से अपना हाल छिपाते रहे हैं हम 

आलोचकों का विचार है कि खलीलुर्रहमान आज़मी एक ऐसे प्रगतिशील शायर थे जिन्होंने प्रगतिशीलता और आधुनिकता के दरमियान पुल का काम किया। उनकी शायरी के दो संग्रह "कागज़ी पैरहन (1955 )और "नया अहद नामा (1966 ) उनके जीवन काल में प्रकाशित हुए जबकि "ज़िन्दगी-ऐ-ज़िन्दगी" 1983 में उनके देहावसान के बाद। यूँ उनकी अनेक विषयों पर दर्जनों किताबें हैं और वो सभी उर्दू साहित्य की धरोहर हैं। प्रोफ़ेसर शहरयार ने उनकी कुलियात "आसमां-ऐ-आसमां" नाम से प्रकाशित करवाई।

तमाम यादें महक रहीं हैं हर एक गुंचा खिला हुआ है
ज़माना बीता मगर गुमां है कि आज ही वो जुदा हुआ है

कुछ और रुसवा करो अभी मुझको ता कोई पर्दा रह न जाए 
मुझे मोहब्बत नहीं जुनूँ है जुनूँ का कब हक़ अदा हुआ है 

वफ़ा में बरबाद होके भी आज ज़िंदा रहने की सोचते हैं 
नए ज़माने में अहले-दिल का भी हौसला कुछ बढ़ा हुआ है 

सन 1978 में ग़ालिब सम्मान से सम्मानित खलीलुर्रहमान साहब की ये किताब हिंदी में छपी उनकी पहली किताब है जिसे शहरयार और महताब हैदर नक़वी साहब ने सम्पादित किया है। इस किताब में आज़मी साहब की लगभग 40 ग़ज़लें और इतनी ही नज़्में आदि शामिल हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप जैसा मैं पहले बता चूका हूँ ,आप दिल्ली के "वाणी प्रकाशन " से संपर्क कर सकते हैं चलते चलते आईये उनकी ग़ज़लों के कुछ शेर आपको पढ़वाता हूँ :-

तेरे न हो सके तो किसी के न हो सके 
ये कारोबारे-शौक़ मुक़र्रर न हो सका 
*** 
यूँ तो मरने के लिए ज़हर सभी पीते हैं 
ज़िन्दगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैंने 
*** 
क्या जाने दिल में कब से है अपने बसा हुआ 
ऐसा नगर कि जिसमें कोई रास्ता न जाए
*** 
हमने खुद अपने आप ज़माने की सैर की 
हमने क़ुबूल की न किसी रहनुमा की शर्त 
*** 
कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूंगा 
ज़माना लाख करे आके संगसार मुझे 
*** 
ज़ंज़ीर आंसुओं की कहाँ टूट कर गिरी 
वो इन्तहाए-ग़म का सुकूँ कौन ले गया
*** 
उम्र भर मसरूफ हैं मरने की तैय्यारी में लोग 
एक दिन के जश्न का होता है कितना एहतमाम

Monday, October 9, 2017

किताबों की दुनिया -146

तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है 
न उसको भूलना है और न उसको याद करना है 

ज़बाने कट गईं तो क्या, सलामत उँगलियाँ तो हैं 
दरो-दीवार पे' लिख दो तुम्हें फ़रियाद करना है 

बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उसकी यादों का 
कभी आबाद करना है कभी बर्बाद करना है 

तक़ाज़ा वक़्त का ये है न पीछे मुड़ के देखें हम 
सो हमको वक़्त के इस फ़ैसले पर साद करना है 
साद =सही निशाना लगाना 

बनारस के पुस्तक मेले में राजपाल पब्लिकेशन के स्टॉल पर जब अचानक इस किताब पर नज़र पड़ी तो उठा लिया और इसके आख़री फ्लैप पर लिखी इस इबारत को पढ़ कर इस किताब को खरीदने में एक लम्हा भी ज़ाया नहीं किया ,लिखा था कि "ये शायद पाकिस्तानी और हिन्दुस्तानी औरत का मुश्तर्का अल्मिया (एक जैसी ट्रेजिडी) है कि औरत का कोई घर नहीं होता। वो हमेशा चार रिश्तों की मुहताज रहती है बाप, भाई, शौहर और बेटा। " वैसे ये बात सिर्फ हिंदुस्तान या पाकिस्तान की औरतों की ही नहीं है बल्कि ये सच्चाई कमोबेश पूरी दुनिया की औरतों पर लागू होती है .

कैसा अजीब दुःख है कि देखा न रात भर
आँखों ने कोई ख़्वाब भी, सोने के बावजूद

उगने लगी है फिर से अंधेरों की एक फ़स्ल
तारों को इस ज़मीन पर बोने के बावजूद

खूं से लिखा हुआ है कोई नाम आज भी
क़ातिल की आस्तीन पे' धोने के बावजूद

अहसास की कमी है कि इंतिहाए- कर्ब
आँखों में अश्क ही नहीं रोने के बावजूद
इंतिहाए- कर्ब =वेदना की चरम अवस्था 

'आँखों में अश्क ही नहीं रोने के बावजूद' जैसा मिसरा किसी शायर के लिए कहना मुश्किल काम है, ऐसे मिसरे कोई शायरा ही कह सकती है। स्त्री के दुःख को पुरुष समझ तो सकता है लेकिन उसे सही ढंग से शायद बयाँ नहीं कर सकता। किताबों की दुनिया में आज जिस किताब की बात होगी वो है "पांचवी हिजरत" जिसकी शायरा हैं पाकिस्तानी मशहूर शायरा "हुमैरा राहत" साहिबा। हिंदी के पाठकों के शायद ये नाम बहुत जाना पहचाना न हो क्यों की हिंदी में छपने वाली ये उनकी पहली किताब है।


रहे-दीवानगी से डर न जाये 
तुम्हारा इश्क मुझ में मर न जाये  

 खुदा के बाद जो है आस मेरी 
वही इक शख़्स तन्हा कर न जाये 

कभी ऐसा भी कोई मु'जिज़ा हो 
कि ये महताब अपने घर न जाये
मु'जिज़ा=चमत्कार 

 1959 में जन्मी हुमैरा राहत करांची में रहती हैं, घर-बार वाली ख़ातून शायरा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं। अदब की दुनिया में उनका रिश्ता शायरी के साथ साथ अफ़सानानिगारी से भी है और पाकिस्तान के अदबी हल्क़ों में अलग से पहचानी जाती हैं। इस किताब की भूमिका का आग़ाज़ वो जिस अंदाज़ से करती हैं वो बेहद दिलकश है उन्होंने लिखा है " ज़िन्दगी क्या है ! लम्ह-ऐ-अज़ल से लम्ह-ऐ-अबद तक ( पैदा होने से लेकर मरने तक का क्षण ) आँख की पुतली में जमी हुई हैरत ! पहले होने की फिर न होने की। इसी हैरत के आस-पास इश्क का कारखाना है। मगर इश्क ने भी हैरत की कोख़ से जनम लिया है , इश्क का अपना एक जहान -ऐ- हैरत है. मैंने जब अपने अंदर झाँका तो उसी जहान -ऐ-हैरत में मेरी शायरी भटक रही थी सो इसी शायरी का हाथ थाम कर मैं आपकी दुनिया में चली आयी हूँ।"

  हरेक ख़्वाब की ता'बीर थोड़ी होती है 
 मुहब्बतों की ये तक़दीर थोड़ी होती है 

 सफ़र ये करते हैं इक दिल से दूसरे दिल तक 
दुखों के पांवों में ज़ंजीर थोड़ी होती है 

 दुआ को हाथ उठाओ तो ध्यांन में रखना 
 हरेक लफ़्ज़ में तासीर थोड़ी होती है 

 हुमैरा साहिबा जब सार्क सम्मेलन में भाग लेने सन 2011 में पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल के साथ आगरा तशरीफ़ लायी तो उनकी मुलाकात दिल्ली के मशहूर शायर आलोचक और अनुवादक जनाब सुरेश सलिल साहब से हुई। सुरेश जी ने जब उन्हें एक महफ़िल में अपनी ग़ज़लें और नज़्में सुनाते सुना तो सोचा कि क्यों न इनकी ग़ज़लों और नज़्मों का हिंदी अनुवाद कर उसे एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचाया जाय। बात हुई लेकिन अंजाम तक न पहुंची। एक लम्बे अर्से के बाद फिर से ये बात जनाब नूर ज़हीर के माध्यम से उठाई गयी ,सुरेश जी दुबारा हुमैरा साहिबा से मिले जिसका नतीजा "पांचवीं हिजरत" की शक्ल में मंज़र-ऐ-आम पर दिखाई दिया. 

 बारिश के कतरे के दुःख से नावाकिफ़ हो 
 तुम हँसते चेहरे के दुःख से नावाकिफ़ हो 

 साथ किसी के रह कर के जो तनहा कटता है 
 तुम ऐसे लम्हे के दुःख से नावाकिफ़ हो 

 इक लम्हे में किर्ची -किर्ची जो हो जाये 
 तुम उस आईने के दुःख से नावाकिफ़ हो 

 मुहब्बत के कई कई शेड्स आपको उनकी शायरी में दिखाई देते हैं हुमैरा कहती हैं "इश्क और मोहब्बत में मामूली सा फर्क है -मुहब्बत इब्तिदा है और इश्क इन्तहा , मुहब्बत रसाई (पहुँच, प्रवेश) है और इश्क नारसाई (पहुँच से परे), मुहब्बत दुआ है और इश्क इबादत ,मुहब्बत तलब है और इश्क हैरत। बहुत सारे रंग हैं इश्क के मगर जब आँखें उन रंगों में इम्तियाज़ पर क़ादिर (चुनने पर आमादा ) हो जाती हैं तो एक ही रंग बन जाता है -आंसुओं का रंग , तिश्नगी और आबलापाई का रंग।"

हिसारे-ज़ात से बाहर निकलना चाहती हूँ मैं 
अब हर हुक्म से इंकार करना चाहती हूँ 
 हिसारे-ज़ात =ख़ुदी के दायरे से 

 ज़मीं पर घर की बुनियादें बहुत कमज़ोर ठहरीं 
 मैं अब पानी पे' घर तामीर करना चाहती हूँ 

 किसी हरफ़े-सताइश की तलब दिल में नहीं है
 मैं खुद अपने लिए सजना-सँवरना चाहती हूँ 
 हरफ़े-सताइश की तलब =किसी से सराहना पाने की इच्छा 

 हुमैरा राहत की शायरी की तीन किताबें मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं इन्हीं सब किताबों में से चुनिंदा 46 ग़ज़लें और 37 नज़्में सुरेश सलिल जी ने हिंदी में लिप्यांतर कर इस संग्रह में संकलित की हैं। किताब को राजपाल एंड सन्ज ने प्रकाशित किया है। सभी रचनाएँ अपने अलग रंग और लहज़े के कारण पढ़ने योग्य हैं। उनके कुछ शेर देर तक ज़ेहन में घूमते रहते हैं। 

 है चलन कितना अजब ये कि मिरे अहद में लोग 
 बीज बोते नहीं मिटटी में , समर मांगते हैं 
 समर=फल 

 इस क़दर घर को उजड़ते हुए देखा है कि अब
 घर की ख़्वाइश नहीं रखते हैं खंडहर मांगते हैं 

 संगदिल धूप में उम्मीद है बारिश की हमें 
 और साहिल पे' बना रेत का घर मांगते हैं 

 हुमैरा साहिबा ने शायरी के अलावा उपन्यास और कहानियां भी लिखी है लेकिन नज़्मों की और उनका झुकाव ज्यादा है। इस किताब में संग्रहित नज़्में कमाल की हैं कुछ तो बिलकुल नयी हैं जो इस किताब के अलावा अभी तक और कहीं प्रकाशित नहीं हुई। उनका कहना है कि" नज़्म अफ़साने से ज़्यादा क़रीब होती है ,वही पहली लाइन चौका देने वाली ,एहसास की नज़ाकत, ज़ज़्बात का इज़हार और फिर आखिर में एक अबूझ अपरिभाषित सी प्यास का रह जाना। नज़्म कभी मुकम्मल नहीं होती और अफ़साना भी हमेशा अधूरा ही रहता है शायद यही वजह है कि नज़्म लिखने में मुझे ज्यादा लुत्फ़ आता है " आईये पहले उनकी कुछ एक छोटी -छोटी नज़्मों का लुत्फ़ लें : 

1. तेरा नाम
 बारिशों के मौसम में 
 छत पे' बैठ के तन्हा 
 नन्ही नन्ही बूंदों से 
 तेरा नाम लिखती हूँ 

 2. काश 
 मेरे मालिक 
 बहुत रहमो-करम 
 मुझ पर किये तूने 
 मैं तेरा शुक्र अदा करते नहीं थकती 
 मगर, बस एक छोटी सी शिकायत है
 कि मेरी ज़िन्दगी में 
 इतने सारे ' काश' 
क्यों रक्खे 

 3. सवाल 
 मुहब्बत आशना लम्हे (प्रेम पूर्ण क्षण ) 
छिपाये इक अजब सा कर्ब (वेदना ) 
लहज़े में मुझी से पूछते हैं 
ये अगर हर ख़्वाब की किस्मत में 
 मर जाना ही लिखा है 
 तो आँखें देखती क्यों हैं 

 ये तो मैंने बता ही दिया है कि अगर आपको किताब चाहिए तो राजपाल एंड सन्ज दिल्ली से संपर्क करें , उनकी एक साइट भी है जी पर जा कर आप ऑन लाइन किताब मंगवा सकते हैं अगर वहां से नहीं तो अमेजन पर भी ये किताब उपलब्ध है , वैसे है तो myshopbazzar और universalbooksellers पर भी , आप जहाँ से चाहें मंगवा लें , पढ़ें और फिर फेसबुक पर हुमैरा जी के पेज पर जा कर बधाई भी दे आएं। आपकी सुविधा के लिए मैं ऑन लाइन मंगवाने के लिए तीन लिंक दे रहा हूँ आपको इनपर क्लिक करके ऑर्डर ही करना है बस।

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 आखिर में जैसा कि हमेशा करता आया हूँ आपको उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाता चलता हूँ , शेर नहीं इस बार चलिए एक नज़्म पढ़वाता हूँ उम्मीद है पसंद आएगी : 

 क्या मोहब्बत एक पल है 

 मैं दिल से पूछती हूँ 
 क्या मोहब्बत को भुलाना 
 इस कदर आसान होता है
 "चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों " 
बस इस मिसरे की ऊँगली थाम कर 
 बरसों पुराना साथ पल में तोड़ देते हैं 
 मोहब्बत एक लम्हा तो नहीं
 जो ज़िन्दगी में आये 
 और वापस चला जाय 
 मोहब्बत उम्र है 
 और उम्र जां के साथ जाती है 
 मोहब्बत आईना कब है
 मोहब्बत अक्स है 
 जब आईना गिर कर ज़मीन पर 
 टूट जाता है 
 तो अपने अक्स को टूटे हुए टुकड़ों में भी 
 महफूज़ रखता है 
 तो फिर मुमकिन नहीं कि 
 अजनबियत का लबादा ओढ़ कर
 कोई ये कह दे कि 
चलो अब लौट जाते हैं.....

Monday, October 2, 2017

किताबों की दुनिया -145

आप तस्वीर में न मर जाएँ 
चलना फिरना बहुत जरूरी है 

ज़िन्दगी में बिना किताबो-क़लम 
पढ़ना-लिखना बहुत जरूरी है 

याद करना उसे जरूरी नहीं 
याद रखना बहुत जरूरी है 

मेरा होना पता नहीं चलता 
तुमको छूना बहुत जरूरी है 

जब कभी भी छोटी बहर में कही ग़ज़लों का जिक्र होगा तो वो जनाब "विज्ञान व्रत" का नाम लिए बिना मुकम्मल नहीं होगा। छोटी बहर में उन्होंने इतनी ग़ज़लें कही हैं कि आप सोच भी नहीं सकते तभी तो उनके पांच या शायद छै ग़ज़ल संग्रह छप कर चर्चित हो चुके हैं। आप सोचेंगे कि इस श्रृंखला में विज्ञान व्रत जी के ग़ज़ल संग्रह की चर्चा तो पहले हो चुकी है तो फिर आज दोबारा से उनका जिक्र क्यों ? वो इसलिए कि आज के हमारे शायर भी छोटी बहर में ग़ज़ल कहने वाले शायरों की फेहरिश्त में बहुत अहम् मुकाम रखते हैं। जैसा मैं हर बार कहता हूँ कि छोटी बहर में कही ग़ज़ल पढ़ने सुनने में बहुत आसान सी लगती है लेकिन होती नहीं। गागर में सागर भरने के लिए आपके पास अनोखा हुनर होना चाहिए, तभी बात बनेगी , थोड़ी सी चूक हुई और शेर ढेर हुआ।

तिरे नज़दीक आना चाहता हूँ 
मैं खुद से दूर जाना चाहता हूँ 

तुझे छूना मिरा मक़सद नहीं है 
मैं खुद को आज़माना चाहता हूँ 

वही तो सोचता रहता हूँ हर दम 
मैं तुमको क्या बताना चाहता हूँ 

अदाकारी बड़ा दुःख दे रही है 
मैं सचमुच मुस्कुराना चाहता हूँ 

ज़िला बदायूं के बिसौली क़स्बे के एक नीम सरकारी महकमे में मुलाज़िम ज़नाब अहमद शेर खां उर्फ़ मद्दन खां के यहाँ चार जनवरी 1952 को जिस बेटे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया " ज़मा शेर खान उर्फ़ पुत्तन खान " जो आगे चल कर शायर जनाब "फ़ेहमी बदायूंनी " के नाम से पहचाने जाने लगे, आज इस श्रृंखला में हम उनके "ऐनीबुक " गाज़ियाबाद द्वारा देवनागरी में बेहद ख़ूबसूरती से प्रकाशित पहले ग़ज़ल संग्रह "पांचवी सम्त " की बात करेंगे। पेपरबैक में छपे इस संग्रह का आवरण और छपाई बहुत दिलकश है , किताब हाथ में लेते ही इसे पढ़ने की चाहत बलवती हो उठती है।


 मिरी वादा-खिलाफ़ी पर वो चुप है 
उसे नाराज़ होना चाहिये था 

अब उसको याद करके रो रहे हैं 
बिछड़ते वक़्त रोना चाहिये था 

चला आता यक़ीनन ख़ाब में वो 
हमें इक रात सोना चाहिये था 

हमारा हाल तुम भी पूछते हो 
तुम्हें मालूम होना चाहिये था 

किताब की भूमिका में मशहूर शायर और आलोचक जनाब "मयंक अवस्थी" साहब लिखते हैं कि "फ़हमी साहब ने छोटी बहर में बेशतर ग़ज़लें कही हैं और लफ्ज़ को बरतने में भी और उसे मआनी देने में भी उनका जवाब नहीं। इनके हर शेर की रूह नूरानी है।ऊला-सानी का रब्त बेहद असरदार है और इनके शेर का जिस्म तो चुराया जा सकता है रूह कतई नहीं। बयान शफ़्फ़ाक़ पानियों जैसा है -किसी बेअदब ग़ैर जरूरी लफ्ज़ का रत्ती भर दख़्ल इनकी शायरी में नहीं हो सकता। इस बुलंद मफ़्हूम के नाख़ुदा ने बेहद आसान लफ़्ज़ों की नाव से गहरे अर्थों के बेशुमार समंदर सर किये हैं। "

जब रेतीले हो जाते हैं 
पर्वत टीले हो जाते हैं 

तोड़े जाते हैं जो शीशे 
वो नोकीले हो जाते हैं 

फूलों को सुर्खी देने में 
पत्ते पीले हो जाते हैं 

फ़हमी साहब ने बदायूं से इंटरमीडिएट तक की तालीम 1968 में हासिल की चूँकि उस वक्त बदायूं में कोई डिग्री कॉलेज नहीं था इसलिए तालीम हासिल करने के लिए तालिब-ऐ-इल्मों को बरेली या चंदौसी जाना पड़ता था ,फ़हमी साहब के घर की हालत इस लायक नहीं थी कि वो घर छोड़ कर बाहर जाते लिहाज़ा उन्होंने घर पर किताबें ला कर ग्रेजुएशन की पढाई करने की ठानी। घर पर पढाई चलती रही और इस बीच उन्हें 1970 में यू पी गवर्नमेंट के रेवन्यू महकमे में "चकबंदी लेखपाल" की नौकरी मिल गयी जो उन्हें हुए पीलिया के हमले के बाद ज़्यादा लम्बी नहीं खिंच पायी। इस बीच शादी भी हो गयी और बच्चे भी। बेरोज़गारी के आलम में उन्होंने स्कूली बच्चों के लिए गणित और साइंस विषयों की ट्यूशन लेनी शुरू की। उनके पढ़ाने का अंदाज़ और विषयों पर पकड़ इस कदर लोकप्रिय हुई की उनसे बीएससी और इंजीनियरिंग के छात्र भी ट्यूशन लेने आने लगे और ज़िन्दगी की गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगी।

हर कोई रास्ता बताएगा 
कोई चल कर नहीं दिखायेगा 

जलना-बुझना भी और उड़ना भी 
चाँद जुगनू से हार जायेगा 

नाम दरिया है जब तलक तेरा 
हर समंदर तुझे बुलाएगा 

रिवायत से हट कर शायरी करना और बात कहने का नया सलीका ईज़ाद करना फ़हमी साहब की खासियत है।उनके बहुत से शेर मुहावरों की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं। सब से बढ़िया बात जो उनकी शायरी में नज़र आती है वो ये कि आपको ऐसा एक भी लफ्ज़ उनकी शायरी का हिस्सा नहीं बनता नहीं दिखता जिसका मतलब खोजने के लिए पाठक को लुग़त मतलब डिक्शनरी का सहारा लेना पड़े. लियाकत ज़ाफ़री साहब ने फ़हमी साहब की शायरी के बारे में लिखा है कि "फ़हमी का शेर पहली ही रीडिंग में पकड़ लेता है... फिर सोचने पर मजबूर करता है.... उसके बाद परत दर परत खुलने लगता है ...और फिर जिस पाठक का जो मेयार है उसी के मुताबिक़ उसे मज़ा दे कर आगे निकल जाता है "

जब तलक तू नहीं दिखाई दिया 
घर कहीं का कहीं दिखाई दिया 

रोज़ चेहरे ने आईने बदले 
जो नहीं था नहीं दिखाई दिया

बस ये देखा कि वो परेशां है 
फिर हमें कुछ नहीं दिखाई दिया

"नदीम अहमद काविश" साहब ने इस संकलन में फ़हमी साहब की बेजोड़ 90 ग़ज़लें संगृहीत की हैं जो बार बार पढ़ी जाने योग्य हैं। बहुत से शेर तो पढ़ने के साथ ही आपके ज़ेहन में घर कर लेते हैं। लियाक़त ज़ाफ़री साहब ने इस किताब की भूमिका में फ़हमी साहब के लिए बहुत दिलचस्प अंदाज़ में लिखा है कि "फ़हमी एक ऐसा शायर जिसकी तबई-उम्र का अंदाज़ा उसकी शायरी से कर पाना तक़रीबन ना-मुमकिन है....फ़हमी की उम्र का उसके शेर से कोई लेना देना नहीं ... सिरे से उलट मामला है यहाँ.... आप में से पच्चीस-तीस वालों को ये साठ-सत्तर का कोई तज्रिबेकार बूढा लगेगा और साठ-सत्तर वालों को कोई नटखट रूमानी लौंडा जिसने अभी अभी इ-टीवी उर्दू के मुशायरे पढ़ने शुरू किये हैं....

लिख के रख लीजिये हथेली पर 
हाथ मलना शिकस्त खाना है 

ये जो तिल है तुम्हारे आरिज़ पर 
ये मुहाफ़िज़ है या खज़ाना है 
आरिज़=गाल , मुहाफ़िज़ =रक्षक 

बादलों से दुआ सलाम रखो 
हमको मिटटी का घर बनाना है 

आप कहते हैं पास तो आओ 
ये डराना है या बुलाना है

इस बाकमाल किताब के शेर पढ़वाने का लालच मुझे अब छोड़ना पड़ेगा क्यूंकि अगर सभी शेर यहाँ आपको पढ़वा दिए तो आप किताब मंगवाएंगे नहीं जबकि मेरा मक़सद इस किताब को आपकी किताबों की अलमारी में सजा हुआ देखना है। किताब मंगवाने के लिए आप अमेज़न की शरण में जा सकते हैं या फिर ऐनीबुक के पराग अग्रवाल से 9971698930 पर संपर्क करें.मेरी आपसे गुज़ारिश है कि आप फेहमी साहब से उनके मोबाईल न 9897454216 पर कॉल करके उन्हें इस बेहद खूबसूरत शायरी के लिए भरपूर दाद दें।देर मत कीजिये बस कोई सा भी रास्ता अख्तियार कर किताब मंगवा लीजिये उसे इत्मीनान से पढ़िए और फिर मुझे अगर चाहें तो धन्यवाद दीजिये। आखिर में उनकी कुछ और ग़ज़लों के चुनिंदा शेर आपकी खिदमत में पेश कर रुख़सत होता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :

छिपकली ने बचा लिया वरना 
रात तन्हाई जान ले लेती 
*** 
इक जनाज़े के साथ आया हूँ 
मैं किसी क़ब्र से नहीं निकला 
*** 
वहां फ़रहाद का ग़म कौन समझे 
जहां बारूद पत्थर तोड़ती है 
*** 
उसे लेकर जो गाड़ी जा चुकी है 
मैं शायद उसके नीचे आ गया हूँ 
*** 
बस वही लफ़्ज़ जानलेवा था 
ख़त में लिख कर जो उसने काटा था
*** 
शिकार आता है क़दमों में बैठ जाता है 
हमारे पास कोई जाल वाल थोड़ी है 
*** 
फूल को फूल ही समझते हो 
आपसे शायरी नहीं होगी 
*** 
तिरे मौज़े यहीं पर रह गए हैं 
मैं इनसे अपने दस्ताने बना लूँ 
*** 
नमक की रोज़ मालिश कर रहे हैं 
हमारे ज़ख़्म वर्जिश कर रहे हैं 
*** 
अदालत फ़र्शे-मक़्तल धो रही है 
उसूलों की शहादत हो गयी क्या 
फ़र्शे-मक़्तल = वध स्थल