चल दिए हम उन्हें मनाने को
हो के मायूस लौट आने को
अब कोई आँख नम नहीं होती
क्या नज़र लग गयी ज़माने को
कोई बैसाखियाँ नहीं बनता
टोकते सब हैं लड़खड़ाने को
छोटी बहर में अपनी बात कहना हुनर मंदी है, ये हुनर आसानी से नहीं आता एक भी लफ्ज़ इधर से उधर हुआ के समझो शेर की तासीर कम हुई. उस्ताद ही छोटी बहर में कहने कि जुर्रत कर सकते हैं या फिर हम जैसे नौसिखिए उस्तादों कि रहनुमाई में कुछ कह पाते हैं. आपने ऊपर जिन शेरों को पढ़ कर तारीफ़ में वाह की है उसके कहने वाले शायर हैं, 'अमरोहा' उत्तर प्रदेश में 4 सितम्बर 1956 को जन्में जनाब "दीक्षित दनकौरी".
जिसने पल पल मुझे सताया है
कैसे कह दूँ कि वो पराया है
ऐन मुमकिन है रो पड़े फिर वो
मुद्दतों बाद मुस्कुराया है
हमने सारी सजा भुगत ली जब
उनको इलज़ाम याद आया है
उसी पुस्तक मेले में घूमते हुए दीक्षित दनकौरी जी की किताब "डूबते वक्त.." पर नज़र पड़ी. इनका नाम जेहन में इसलिए था क्यूँ कि इनकी सम्पादित तीन पुस्तकों कि श्रृंखला "गज़ल...दुष्यन्त के बाद " मेरी नज़रों से गुज़र चुकी थी. दनकौरी जी ने ग़ज़लों पर ढेरों किताबें सम्पादित की हैं इसलिए उन्हें शायरी की खूब समझ है और ये समझ उनके अशआर के हर लफ्ज़ में हमें दिखाई देती है.
दनकौरी साहब के कलाम की तारीफ़ जनाब कृष्ण बिहारी 'नूर',मखमूर सईदी, नूरजहाँ'सर्वत', गोपाल दास 'नीरज', अशोक अंजुम, हस्तीमल जी हस्ती, चंद्रसेन 'विराट', आबिद सुरती, डा.कुंवर बैचैन, डा.शेर गर्ग जैसे कई नामचीन साहित्यकारों और पिंगलाचार्य श्री महर्षि जी ने भरपूर की है. कारण बहुत सीधा और साफ़ है, दीक्षित जी कि गज़लें कथ्य, लय,छंद की कसौटी पर खरी उतरती हैं. उन्होंने अपनी मिटटी, अपनी ज़मीन, अपने लोगों के दर्द को महसूस करके उन्हें अपनी शायरी का हिस्सा बनाया है. उर्दू गज़ल की सजावट और हिंदी गज़ल कि सुगंध लिए दीक्षित जी की ग़ज़लें सरल और सहज हैं.
किताब घर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस किताब की एक खूबी ये भी है के ये उर्दू और देवनागरी दोनों लिपियों में छपी गयी है. किताब के बाएं पृष्ठ पर उर्दू में और दायें पृष्ठ पर हिंदी में गज़लें छपी गयीं हैं. ये खूबी हिंदी में छपी शायरी कि बहुत कम किताबों में मिलती है. इस किताब में दीक्षित जी कि लगभग पचास ग़ज़लें पढ़ने को मिलती हैं जिनमें अधिकाँश छोटी बहर में हैं . छोटी बहर कि गज़लें शीघ्र ही याद हो जाती हैं और गुनगुनाई जाती हैं.
दीक्षित जी ने लगभग हज़ार से अधिक कवि सम्मेलनों में शिरकत और उनका सफल सञ्चालन किया है इसके अलावा दूरदर्शन, सब टी.वी.,एन.डी.टी.वी.,आकाशवाणी एवं विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने चाहने वालों को अपनी शायरी से खुश किया है. उन्हें उर्दू शायरी की खिदमत के लिए "दुष्यंत अवार्ड 2001",अंजुमने फ़रोग़े-उर्दू (दिल्ली),हिंदी विद्या रत्न भारती सम्मान, शायरे-वतन, रंजन कलश शिव सम्मान भोपाल, नौ रत्न अवार्ड 2004, आबरू-ऐ-गज़ल जैसे बहुत से सम्मान एवम पुरुस्कारों से नवाज़ा गया है.
जो लोग दीक्षित साहब कि किताब हासिल करने में मुश्किलों का सामना कर रहें हों उनसे गुज़ारिश है के वो जनाब दनकौरी साहब से इस किताब कि प्राप्ति का रास्ता उनके इ-मेल dixitdankauri@gmail.com पर संपर्क कर पता करें या फिर उनसे सीधे ही उनसे फोन न. 011-22586409 या मोबाईल न. 09899172697 पर बात कर स्वयं उन्हें इस खूबसूरत शायरी के लिए मुबारकबाद दें. शायर के लिए उसके पाठकों का प्यार ही सब कुछ होता है इसलिए आप उनकी शायरी के प्रति अपने प्यार का इज़हार उनसे जरूर करें.
चलते चलते दीक्षित जी के तीन शेर और पढ़िए और उसके बाद सुनिए उन्हें अपने अशआर सुनाते हुए, सब टी.वी. के लोकप्रिय कार्यक्रम वाह वाह में:-
ग़लत मैं भी नहीं तू भी सही है
मुझे अपनी तुझे अपनी पड़ी है
अना बेची वफ़ा कि लौ बुझा दी
उसे धुन कामयाबी की लगी है
शराफत का घुटा जाता है दम ही
हवा कुछ आजकल ऐसी चली है
दनकौरी साहब के कलाम की तारीफ़ जनाब कृष्ण बिहारी 'नूर',मखमूर सईदी, नूरजहाँ'सर्वत', गोपाल दास 'नीरज', अशोक अंजुम, हस्तीमल जी हस्ती, चंद्रसेन 'विराट', आबिद सुरती, डा.कुंवर बैचैन, डा.शेर गर्ग जैसे कई नामचीन साहित्यकारों और पिंगलाचार्य श्री महर्षि जी ने भरपूर की है. कारण बहुत सीधा और साफ़ है, दीक्षित जी कि गज़लें कथ्य, लय,छंद की कसौटी पर खरी उतरती हैं. उन्होंने अपनी मिटटी, अपनी ज़मीन, अपने लोगों के दर्द को महसूस करके उन्हें अपनी शायरी का हिस्सा बनाया है. उर्दू गज़ल की सजावट और हिंदी गज़ल कि सुगंध लिए दीक्षित जी की ग़ज़लें सरल और सहज हैं.
बढ़ा दिए हैं तो वापस कदम नहीं करना
मिले न साथ किसी का तो ग़म नहीं करना
तमाम उम्र ही लग जाए भूलने में उसे
किसी ग़रीब पे इतना करम नहीं करना
इन आँधियों की भी औक़ात देख लेने दे
मुझे बचा के तू मुझ पर सितम नहीं करना
किताब घर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस किताब की एक खूबी ये भी है के ये उर्दू और देवनागरी दोनों लिपियों में छपी गयी है. किताब के बाएं पृष्ठ पर उर्दू में और दायें पृष्ठ पर हिंदी में गज़लें छपी गयीं हैं. ये खूबी हिंदी में छपी शायरी कि बहुत कम किताबों में मिलती है. इस किताब में दीक्षित जी कि लगभग पचास ग़ज़लें पढ़ने को मिलती हैं जिनमें अधिकाँश छोटी बहर में हैं . छोटी बहर कि गज़लें शीघ्र ही याद हो जाती हैं और गुनगुनाई जाती हैं.
रिश्ता कितना ही गहरा हो
खलता है गर रास न आये
उसने पूछ लिया कैसे हो
आँखों में आंसू भर आये
काश भरत से भाई हों सब
राम कभी वो दिन दिखलाये
दीक्षित जी ने लगभग हज़ार से अधिक कवि सम्मेलनों में शिरकत और उनका सफल सञ्चालन किया है इसके अलावा दूरदर्शन, सब टी.वी.,एन.डी.टी.वी.,आकाशवाणी एवं विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने चाहने वालों को अपनी शायरी से खुश किया है. उन्हें उर्दू शायरी की खिदमत के लिए "दुष्यंत अवार्ड 2001",अंजुमने फ़रोग़े-उर्दू (दिल्ली),हिंदी विद्या रत्न भारती सम्मान, शायरे-वतन, रंजन कलश शिव सम्मान भोपाल, नौ रत्न अवार्ड 2004, आबरू-ऐ-गज़ल जैसे बहुत से सम्मान एवम पुरुस्कारों से नवाज़ा गया है.
यक़ीनन तेरे दामन पर न कोई दाग है फिर भी
शराफ़त के लबादे का उतर जाना ही बेहतर है
तेरी आवारगी का लोग पूछेंगे सबब आख़िर
अगर बतला नहीं सकता तो घर जाना ही बेहतर है
तू कहता है न सुनता है, न सोता है न जगता है
न रोता है न हँसता है तो मर जाना ही बेहतर है
चलते चलते दीक्षित जी के तीन शेर और पढ़िए और उसके बाद सुनिए उन्हें अपने अशआर सुनाते हुए, सब टी.वी. के लोकप्रिय कार्यक्रम वाह वाह में:-
मैं तेरा तो नहीं हो गया
काम का तो नहीं हो गया
तुझको पूजा अलग बात है
तू खुदा तो नहीं हो गया
एक तो बोलना, वो भी सच
सरफिरा तो नहीं हो गया