Monday, October 25, 2010

किताबों की दुनिया - 40

चल दिए हम उन्हें मनाने को
हो के मायूस लौट आने को

अब कोई आँख नम नहीं होती
क्या नज़र लग गयी ज़माने को

कोई बैसाखियाँ नहीं बनता
टोकते सब हैं लड़खड़ाने को

छोटी बहर में अपनी बात कहना हुनर मंदी है, ये हुनर आसानी से नहीं आता एक भी लफ्ज़ इधर से उधर हुआ के समझो शेर की तासीर कम हुई. उस्ताद ही छोटी बहर में कहने कि जुर्रत कर सकते हैं या फिर हम जैसे नौसिखिए उस्तादों कि रहनुमाई में कुछ कह पाते हैं. आपने ऊपर जिन शेरों को पढ़ कर तारीफ़ में वाह की है उसके कहने वाले शायर हैं, 'अमरोहा' उत्तर प्रदेश में 4 सितम्बर 1956 को जन्में जनाब "दीक्षित दनकौरी".

जिसने पल पल मुझे सताया है
कैसे कह दूँ कि वो पराया है

ऐन मुमकिन है रो पड़े फिर वो
मुद्दतों बाद मुस्कुराया है

हमने सारी सजा भुगत ली जब
उनको इलज़ाम याद आया है

हाल ही में चार दिन के लिए जयपुर गया था दो दिन वहां चल रहे पुस्तक मेले में कट गए और बाकी के दो मिष्टी का जनम दिन मनाने में. इस बार वहां बहुत से प्रिय जनों से मिलने का कार्यक्रम था जिसमें कुश का नाम सर्वोपरि था क्यूँ कि उसी के माध्यम से पता चला था के जयपुर में पुस्तक मेला चल रहा है. लेकिन जैसा कि मैंने कहा समय की ऐसी कमी रही के सांस लेने के लिए एक अलग से आदमी रखना पढ़ा :-).
उसी पुस्तक मेले में घूमते हुए दीक्षित दनकौरी जी की किताब "डूबते वक्त.." पर नज़र पड़ी. इनका नाम जेहन में इसलिए था क्यूँ कि इनकी सम्पादित तीन पुस्तकों कि श्रृंखला "गज़ल...दुष्यन्त के बाद " मेरी नज़रों से गुज़र चुकी थी. दनकौरी जी ने ग़ज़लों पर ढेरों किताबें सम्पादित की हैं इसलिए उन्हें शायरी की खूब समझ है और ये समझ उनके अशआर के हर लफ्ज़ में हमें दिखाई देती है.


ग़लत मैं भी नहीं तू भी सही है
मुझे अपनी तुझे अपनी पड़ी है

अना बेची वफ़ा कि लौ बुझा दी
उसे धुन कामयाबी की लगी है

शराफत का घुटा जाता है दम ही
हवा कुछ आजकल ऐसी चली है

दनकौरी साहब के कलाम की तारीफ़ जनाब कृष्ण बिहारी 'नूर',मखमूर सईदी, नूरजहाँ'सर्वत', गोपाल दास 'नीरज', अशोक अंजुम, हस्तीमल जी हस्ती, चंद्रसेन 'विराट', आबिद सुरती, डा.कुंवर बैचैन, डा.शेर गर्ग जैसे कई नामचीन साहित्यकारों और पिंगलाचार्य श्री महर्षि जी ने भरपूर की है. कारण बहुत सीधा और साफ़ है, दीक्षित जी कि गज़लें कथ्य, लय,छंद की कसौटी पर खरी उतरती हैं. उन्होंने अपनी मिटटी, अपनी ज़मीन, अपने लोगों के दर्द को महसूस करके उन्हें अपनी शायरी का हिस्सा बनाया है. उर्दू गज़ल की सजावट और हिंदी गज़ल कि सुगंध लिए दीक्षित जी की ग़ज़लें सरल और सहज हैं.

बढ़ा दिए हैं तो वापस कदम नहीं करना
मिले न साथ किसी का तो ग़म नहीं करना

तमाम उम्र ही लग जाए भूलने में उसे
किसी ग़रीब पे इतना करम नहीं करना

इन आँधियों की भी औक़ात देख लेने दे
मुझे बचा के तू मुझ पर सितम नहीं करना

किताब घर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस किताब की एक खूबी ये भी है के ये उर्दू और देवनागरी दोनों लिपियों में छपी गयी है. किताब के बाएं पृष्ठ पर उर्दू में और दायें पृष्ठ पर हिंदी में गज़लें छपी गयीं हैं. ये खूबी हिंदी में छपी शायरी कि बहुत कम किताबों में मिलती है. इस किताब में दीक्षित जी कि लगभग पचास ग़ज़लें पढ़ने को मिलती हैं जिनमें अधिकाँश छोटी बहर में हैं . छोटी बहर कि गज़लें शीघ्र ही याद हो जाती हैं और गुनगुनाई जाती हैं.

रिश्ता कितना ही गहरा हो
खलता है गर रास न आये

उसने पूछ लिया कैसे हो
आँखों में आंसू भर आये

काश भरत से भाई हों सब
राम कभी वो दिन दिखलाये

दीक्षित जी ने लगभग हज़ार से अधिक कवि सम्मेलनों में शिरकत और उनका सफल सञ्चालन किया है इसके अलावा दूरदर्शन, सब टी.वी.,एन.डी.टी.वी.,आकाशवाणी एवं विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने चाहने वालों को अपनी शायरी से खुश किया है. उन्हें उर्दू शायरी की खिदमत के लिए "दुष्यंत अवार्ड 2001",अंजुमने फ़रोग़े-उर्दू (दिल्ली),हिंदी विद्या रत्न भारती सम्मान, शायरे-वतन, रंजन कलश शिव सम्मान भोपाल, नौ रत्न अवार्ड 2004, आबरू-ऐ-गज़ल जैसे बहुत से सम्मान एवम पुरुस्कारों से नवाज़ा गया है.

यक़ीनन तेरे दामन पर न कोई दाग है फिर भी
शराफ़त के लबादे का उतर जाना ही बेहतर है

तेरी आवारगी का लोग पूछेंगे सबब आख़िर
अगर बतला नहीं सकता तो घर जाना ही बेहतर है

तू कहता है न सुनता है, न सोता है न जगता है
न रोता है न हँसता है तो मर जाना ही बेहतर है

जो लोग दीक्षित साहब कि किताब हासिल करने में मुश्किलों का सामना कर रहें हों उनसे गुज़ारिश है के वो जनाब दनकौरी साहब से इस किताब कि प्राप्ति का रास्ता उनके इ-मेल dixitdankauri@gmail.com पर संपर्क कर पता करें या फिर उनसे सीधे ही उनसे फोन न. 011-22586409 या मोबाईल न. 09899172697 पर बात कर स्वयं उन्हें इस खूबसूरत शायरी के लिए मुबारकबाद दें. शायर के लिए उसके पाठकों का प्यार ही सब कुछ होता है इसलिए आप उनकी शायरी के प्रति अपने प्यार का इज़हार उनसे जरूर करें.

चलते चलते दीक्षित जी के तीन शेर और पढ़िए और उसके बाद सुनिए उन्हें अपने अशआर सुनाते हुए, सब टी.वी. के लोकप्रिय कार्यक्रम वाह वाह में:-

मैं तेरा तो नहीं हो गया
काम का तो नहीं हो गया

तुझको पूजा अलग बात है
तू खुदा तो नहीं हो गया

एक तो बोलना, वो भी सच
सरफिरा तो नहीं हो गया

Monday, October 18, 2010

दें सदा बचपन को हम,फिर से करें अठखेलियाँ


दिल मिले दिल से फ़क़त इतना ज़ुरूरी है मियां
क्यूँ मिलाते फिर रहे हो प्यार में तुम राशियाँ

बारिशों का है तक़ाज़ा, सब तकल्‍लुफ़ छोड़कर
दें सदा बचपन को हम, फिर से करें अठखेलियाँ

घर तुम्हारा भी उड़ा कर साथ में ले जाएंगीं
मत अदावत की चलाओ, मुल्क में तुम आंधियाँ

किसलिए मगरूर इतने आप हैं, मत भूलिए
ख़ाक में इक दिन मिलेंगी आप जैसी हस्तियाँ

आ गए वो सैर को, गुलशन में नंगे पाँव जब
झुक गयीं लेने को बोसा, मोगरे की डालियाँ

खुशबुएँ लेकर हवाएं खुद ब् खुद आ जाएँगी
खोल कर देखो तो घर की बंद सारी खिड़कियाँ

झाँक लें इक बार पहले अपने अंदर भी अगर
फिर नहीं आयें नज़र शायद किसी में खामियां

चाहते हैं सब, मिले फ़ौरन सिला 'नीरज' यहाँ
डालता है कौन अब, दरिया में करके नेकियाँ


(इस गज़ल के फूल मेरे हैं लेकिन खुशबू गुरुदेव पंकज सुबीर जी की है)



Monday, October 11, 2010

किताबों की दुनिया - 39


जगजीत सिंह जी की गयी एक बहुत मशहूर गज़ल है , शायद आपको याद हो, देर लगी आने में तुमको...उस ग़ज़ल में एक शेर है :-

झूट है सब तारीख हमेशा अपने को दोहराती है
अच्छा मेरा ख़्वाबे-जवानी थोडा सा दोहराए तो

ग़ज़ल के इस शेर में शायर ने इस बात को नकार दिया है के इतिहास अपने आपको दोहराता है...जबकि ये बात झूट नहीं है, सच है...बहुत सारी घटनाएँ जीवन में दुबारा घटित होती हैं. अब आपके साथ हुईं या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन मेरे साथ हुई है. जो घटना दिसंबर 2009 में मेरे साथ घटित हुई वो हू बहू फिर से अगस्त 2010 में घटित हो गयी. मैंने अपनी किताबों की दुनिया-20 में इस बात का जिक्र किया है, जो सज्जन उस घटना को वहाँ जा कर न पढ़ना चाहें उनके लिए उसे फिर से यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.

"शायरी करना तो अभी का शौक है लेकिन शायरी पढना बहुत पुराना.बरसों से अच्छे शायरों को पढता रहा हूँ और ये काम अभी भी बदस्तूर जारी है. इसी शौक की वजह से मैं आपका तारुफ्फ़ नयी नयी किताबों से करवाने का प्रयास करता हूँ. किताबों के आलावा नेट पर भी जहाँ कहीं सम्भावना नज़र आये नज़रें दौड़ाता रहता हूँ. 'अनुभूति' मेरी प्रिय साईट है जिसे 'पूर्णिमा वर्मन' जी चलाती हैं.इस साईट पर हर हफ्ते अंजुमन के तहत नए अशार पढने को मिलते हैं. अपनी इसी खोज के दौरान मैं चंद ऐसी ग़ज़लों से रूबरू हुआ जिन्होंने मुझ पर गहरा असर डाला.

शायर का नाम देखा तो मुझे अनजाना लगा. मुझे अनजान शायरों को पढने में बहुत मजा आता है क्यूंकि आप नहीं जानते की वो कैसे हैं, कैसा लिखते हैं, क्या सोचते हैं याने आपके मन में उनकी कोई पूर्व छवि बनी हुई नहीं होती. आप उन्हें निष्पक्ष हो कर पढ़ते हैं. इसी में मजा आता है. वहीँ अनुभूति की साईट पर उनका परिचय भी दिया हुआ था जिसमें उनकी ग़ज़ल की किताब का जिक्र भी था. अनुभूति से ही उनकी मेल का पता मिला और तुरंत उन्हें पुस्तक भेजने का अनुरोध
कर डाला."

जी हाँ आप ठीक समझे जिस शायर का जिक्र ऊपर किया गया है वो हैं जनाब संजय ग्रोवर साहब और जिस शायर का जिक्र मैं अब करने जा रहा हूँ उनका नाम है जनाब 'अनमोल शुक्ल अनमोल'. तारीख़ ने अपने आपको दोहराया या नहीं बताइए ? संजय जी की जगह अनमोल जी से परिचय हो गया बस ये ही परिवर्तन हुआ. याने अनमोल साहब की शायरी मैंने अनुभूति पर पढ़ी उनसे संपर्क किया और उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक अपनी किताब मुझे भेज दी.

बहुत कम शायर होते हैं जो अपने नाम को सार्थक करते हैं, अनमोल जी उनमें से एक हैं. नाम अनमोल और शायरी भी अनमोल. तो आईये हम आज की पोस्ट में उनकी इस अनमोल शायरी का लुत्फ़ उठाते हैं , जिसे उन्होंने अपनी किताब "दरिया डूब गया" में समेटा है.

किसी के प्यार में हस्ती मिटा देना हंसी है क्या ?
वही जानेगा जिसने प्यार की गहराइयाँ जी हैं

अगर कुछ काम अच्छा है तो रखती याद हैं नस्लें
बदन पर अपने गिलहरियों ने जैसे धारियां जी हैं

कोई कुछ भी कहे 'अनमोल' को लेना है इससे क्या
ग़ज़ल में उसने केवल सत्य की बारीकियां जी हैं

हरदोई (उ.प्र) में जन्में अनमोल जी सिविल इंजीनियरिंग हैं और उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग में अभियंता के पद पर कार्यरत हैं. पिछले एक दशक से आप बिजनौर में रह रहे हैं. अनमोल जी की शायरी पढते हुए ये एहसास होता है के वो ग़ज़ल की नज़ाकत और नफ़ासत से भली भांति परिचित हैं. गंगा जमुनी तहजीब का निर्वाह करते हुए हिंदी उर्दू के शब्द सहज रूप से उनकी ग़ज़लों में आये हैं.

कितना पानी रोक लेता होगा उन आँखों का बाँध
जिनको बच्चे का खिलौना बेबसी लगने लगे

हे प्रभो आंधी कोई सारे मुखौटे ले उड़े
जिससे हर इक आदमी फिर आदमी लगने लगे

उसके दिल के ज़ख्म का अंदाज़ होगा क्या भला
बात भी करता है वो तो शायरी लगने लगे

एक कोशिश ये हमेशा ही रही 'अनमोल' की
हो ग़ज़ल उसकी उसकी मगर वो आपकी लगने लगे

जिस शायर की ग़ज़लें पढ़ने वाले को अपनी सी लगती हैं वो ही शायर सही मायने में अवाम का शायर होता है. अनमोल जी अपनी शायरी में अपनी ही नहीं हम सब के सुख दुःख की चर्चा करते हैं और बहुत सहजता से करते हैं. उनकी शायरी आपसी बातचीत की शायरी है जो आप पर हावी नहीं होती आपके हमराह चलती है.

जिस मुफलिस की स्यानी बेटी घर में बैठी हो
उसको तो अपना ही गाँव, गली घर चुभता है

परदेसी ने लिखा है जिसमें, लौट न पाऊँगा
विरहन को उस खत का अक्षर-अक्षर चुभता है

ग़ज़ल की परंपरा यूँ तो बहुत पुरानी है लेकिन इस परम्परा के मूल तत्वों का निर्वाह करते हुए इसमें नए नए प्रयोग करने की एक होड सी लगी हुई है, जो ग़ज़ल को और समृद्ध बनाती हैं. हमारी रोज की बोलचाल के शब्द इसे विधा को आसानी से समझने में बहुत सहायता करते हैं. अनमोल जी ने भी अपनी ग़ज़लों में भी ऐसे अद्भुत प्रयोग किये हैं, मिसाल के तौर पर एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़िए...

कोई त्यौहार क्या निर्धनों के लिए
ईद-होली-दिवाली, सभी कैक्टस

देखिये, स्वार्थवश हो रहा आजकल
आदमी के लिए आदमी कैक्टस

उसकी बेरोजगारी का संकेत है
उसके चेहरे पे उगती हुई कैक्टस

सीखने की प्रबल इच्छा, मेहनत और लगन के कारण ही बिजनौर में लगभग नौ वर्ष तक बिना किसी साहित्य गोष्ठी में गए, बिना किसी साहित्यकार से मिले अनमोल जी स्वांत सुखाय के लिए छूट-पुट लिखते रहे. सन 2003 में उनकी भेंट श्री मनोज 'अबोध' जी से हुई और उसके बाद ही उनके लेखन में सुधार आता चला गया. डा. अजय जनमेजय ने ग़ज़ल के व्याकरण को समझने में उनकी बहुत सहायता की और उन्हें जनाब निश्तर साहब से मिलवाया जो बाद में उनके गुरु बने. जनाब 'दिलकश बदायूँनी' और 'निश्तर खानक़ाही' जैसे उस्तादों की रहनुमाई में अनमोल साहब की शायरी संवरी और परवान चढ़ी.

जो जितना नम्र है उतनी ही उसकी हैं सरल राहें
किसी दरिया को बहने से कभी पत्थर ने रोका क्या

हमेशा पोंछती रहती है आंसू अपने बच्चों के
सुना तुमने, किसी माँ का कभी आँचल भीगा क्या

हमेशा देश से माँगा, दिया क्या देश को तुमने
कभी इस बात को गंभीरता से तुमने सोचा क्या

अविचल प्रकाशन , साहित्य पूर्वा, हाइडिल कालोनी , बिजनौर से प्रकाशित ये किताब आप उनसे उनकी इ-मेल avichalprakashan@yahoo.com पर जानकारी प्राप्त कर मंगवा सकते हैं, लेकिन मेरी आपको सलाह ये रहेगी के आप अनमोल जी को उनके मोबाईल 09412146255 पर इस किताब में प्रकाशित उत्कृष्ट शायरी के लिए उन्हें बधाई दें और फिर उन्हीं से पुस्तक प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ लें. यकीन करें आप की इस फोन काल से उन्हें बहुत खुशी होगी.

यूँ तो मैंने महफ़िल महफ़िल आधी उम्र बिताई है
पर जो पल भरपूर जिए हैं वो मेरी तन्हाई है

सबके आगे देखा उसको हाथों में पानी थामे
चुपके चुपके जिसने मेरे घर को आग लगाई है

एक न इक दिन ढल जाता है सबके जलवों का सूरज
सारी उम्र, बताओ किसकी चलती कब ठकुराई है

अनमोल जी की इस किताब में तरेसठ गज़लें हैं जिनमें जिंदगी के सैंकडों रंग भरे पड़े हैं, आपको इसमें रोचक नए काफियों से सजी ग़ज़लें भी पढ़ने को मिलेंगी तो छोटी और बड़ी बहर की ग़ज़लें भी. चलिए चलते चलते उनकी एक छोटी बहर की गज़ल की बानगी देखते हैं.

आप बिन जो कटी
जिंदगी त्रासदी

एक तू, तू ही तू
बस मेरी जिंदगी

तू नहीं पास जब
एक पल इक सदी

आप अनमोल जी को मोबाईल पर बधाई दीजिए तब तक हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में...मिलते हैं, एक छोटे से ब्रेक के बाद.

Monday, October 4, 2010

गुल हमेशा चाहता हमसे रहा बदले में वो




जिस शजर ने डालियों पर देखिए फल भर दिए
हर बशर ने आते - जाते उसको बस पत्थर दिए

शजर : पेड़

रब की नज़रों में सभी इक हैं तो उसने क्यों भला
एक को पत्थर दिए और एक को गौहर दिए
गौहर : मोती

गुल हमेशा चाहता हमसे रहा बदले में वो
जिसने हमको हर कदम पर बेवजह नश्तर दिए
नश्तर: कांटे

खो रहे हैं क्यूँ अदावत में उन्हें, ये सोचिये
प्यार करने के खुदा ने जो हमें अवसर दिए
अदावत: दुश्मनी

मिल गए हैं रहजनों से लूटने के वास्ते
मुल्क को चुनकर ये कैसे आपने रहबर दिए
रहज़न: लुटेरे

कुछ नहीं देती है ये दुनिया किसी को मुफ्त में
नींद ली बदले में जिसको रेशमी बिस्तर दिए

ज़िन्दगी बख्शी खुदा ने माना के "नीरज" हमें
पर लगा हमको कि जैसे खीर में कंकर दिए



( आदरणीय गुरुदेव प्राण शर्मा जी की रहनुमाई में लिखी ग़ज़ल )