Monday, January 30, 2012

त्यागता ख़ुशबू कहाँ है मोगरा सूखा हुआ

अपनी इक पुरानी ग़ज़ल को झाड़-पौंछ कर फिर से प्रस्तुत कर रहा हूँ , उम्मीद है पसंद आएगी

खौफ का खंजर जिगर में जैसे हो उतरा हुआ
आज कल इंसान है कुछ इस तरह सहमा हुआ

चाहते हैं आप खुश रहना अगर, तो लीजिये,
हाथ में वो काम जो मुद्दत से है छूटा हुआ

पाप क्या औ' पुण्य क्या है वो न समझेगा कभी
जिसका दिल दो वक़्त की रोटी में हो अटका हुआ

फूल की खुशबू ही तय करती है उसकी कीमतें,
क्या कभी तुमने सुना है, खार का सौदा हुआ

झूठ सीना तानकर चलता हुआ मिलता है अब,
सच तो बेचारा है दुबका, कांपता डरता हुआ

अपनी बद-हाली में भी मत मुस्कुराना छोड़िये
त्यागता ख़ुशबू कहाँ है मोगरा सूखा हुआ

वो हमारे हो गए 'नीरज' ये क्या कम बात है
खुद ग़रज़ दुनिया में वरना कौन कब किसका हुआ

Monday, January 16, 2012

किताबों की दुनिया - 65

पहले की बात है मैंने एक शेर कहा था :
संजीदगी, वाबस्तगी, शाइस्तगी, खुद-आगही
आसूदगी, इंसानियत, जिसमें नहीं, क्या आदमी
(वाबस्तगी: सम्बन्ध, लगाव, शाइस्तगी: सभ्यता, खुद-आगही: आत्मज्ञान, आसूदगी:संतोष)

कहने बाद मैंने सोचा के इस शेर में जो आदमी की इतनी खूबियाँ बयाँ की हैं वो कहीं एक साथ मिलती भी हैं? मेरे मन के अन्दर से ही जवाब आया के" प्यारे मिलती तो हैं लेकिन बहुत मुश्किल से मिलती हैं". कोई इंसान ऐसा नहीं जिसमें कोई एब ना हो बल्कि मुझे लगता है "परफेक्ट" शब्द इंसान के लिए बना ही नहीं है, फिर भी अगर हमें किसी इंसान में एब दिखाई नहीं देते तो समझिये वो उसकी अच्छाइयों से दब गए हैं. ऐसे ही एक अच्छे इन्सान और उनकी उतनी ही अच्छी शायरी की किताब का जिक्र आज हम करने जा रहे हैं.

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

हुक्मरानी हर तरफ बौनों की, उनका ही हजूम
हम ये अपने कद की इन ऊचाइयों का क्या करें

नाज़ तैराकी पे अपनी कम न था हमको मगर
नरगिसी आँखों की उन गहराइयों का क्या करें

बौनों के हुजूम में ऊंचा कद रहने वाले इस युवा शायर को आप मेरे ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं इन का नाम है श्री "अखिलेश तिवारी" जिनकी किताब "आसमां होने को था" का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं.


था रवानी से ही कायम उसकी हस्ती का सुबूत
गर ठहर जाता तो फिर दरिया कहाँ होने को था

खुद को जो सूरज बताता फिर रहा था रात को
दिन में उस जुगनू का अब चेहरा धुआं होने को था

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा
वो परिंदा जिसका सारा आसमां होने को था

इंसान को हम उसकी सोच से पहचान सकते हैं जो इंसान ऐसे खूबसूरत शेर कहता है वो कैसा होगा ये पहचानना कोई मुश्किल काम नहीं है. अच्छी शायरी के लिए मेरे हिसाब से इंसान का अच्छा होना लाज़मी है. बुरे लोगों द्वारा की गयी अच्छी बातों में असर नहीं होता. मेरी खुशकिस्मती है कि मैं तो उनसे मिला हूँ लेकिन जो नहीं मिले हैं वो उनकी इस किताब से उनके बारे में भली भांति जान लेंगे.

नदी के ख़्वाब दिखायेगा तश्नगी देगा
खबर न थी वो हमें ऐसी बेबसी देगा

नसीब से मिला है इसे हर रखना
कि तीरगी में यही ज़ख्म रौशनी देगा

तुम अपने हाथ में पत्थर उठाये फिरते रहो
मैं वो शजर हूँ जो बदले में छाँव ही देगा

पत्थर के बदले छाँव देने वाले इस बेहतरीन शायर से मेरी मुलाकात जयपुर में पिछले आठ वर्षों से लगातार आयोजित हो रही "काव्य लोक " की एक गोष्ठी में हुई. जिसका जिक्र मैंने अपनी एक पुरानी पोस्ट में विस्तार से किया भी है. धीर गंभीर व्यक्तित्व के स्वामी आलोक इस बात की तस्कीद करते हैं के जहाँ गहराई होती है वहां का समंदर शांत होता है. जितने सहज वो खुद हैं उतनी ही सहज उनकी शायरी है. वो अपने आस पास में जो देखते हैं सोचते हैं उसी को शायरी में ढाल देते हैं. उनकी शायरी में ख़्वाब नहीं हकीकत झलकती है.

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो

अब ख़त्म भी हो गुज़रे जमाने का तज़्किरा
इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो

जिनको मिले फरेब ही मंजिल के नाम पर
कुछ देर उनके पाँव के छालों की बात हो

बीना, जिला सागर, मध्य प्रदेश में 27-05-1966 को जन्में " अखिलेश", रिजर्व बैंक आफ इण्डिया की जयपुर शाखा में काम करते हैं और पिछले बीस वर्षों से शायरी कर रहे हैं समाज में हो रहे बदलावों पर उनकी नज़र रहती है, उसकी बुराइयों पर वो झल्ला कर विरोध में नारे नहीं लगाते बल्कि अपनी शायरी से उस पर विजय प्राप्त की बात करते हैं. लोगों से अपनी सोच को बदलने की बात भी वो बहुत विनम्र लेकिन असरदार अंदाज़ में करते हैं.

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा
दरिया को खंगाले बिना गौहर न मिलेगा

दर-दर यूँ भटकता है अबस जिसके लिए तू
घर में ही उसे ढूंढ वो बाहर न मिलेगा

ऐसे ही जो हुक्काम के सजदों में बिछेंगे
काँधे पे किसी के भी कोई सर न मिलेगा

महफूज़ तभी तक है रहे छाँव में जब तक
जो धूप पड़ी मोम का पैकर न मिलेगा

‘अखिलेश’ ग़ज़ल की मर्यादा में रह कर ज़िन्दगी की गुलकारियां अपनी ग़ज़लों में देखना चाहते हैं, उन्हें बहती नदी सी ग़ज़ल पसंद है इसलिए वो भाषाई पत्थर डाल कर उसके प्रवाह को अवरुद्ध करने के हामी नहीं हैं. उन्होंने इस किताब की अपनी एक अति संक्षिप्त भूमिका में कहा है " ग़ज़लें कह लेने के बाद लगता है कुछ खो गया था जिसे पा लिया है परन्तु ये ख्याल भी बहुत देर तक काइम नहीं रह पाता, भटकन फिर सताने लगती है एक नयी ग़ज़ल होने तक. ये सिलसिला बदस्तूर जारी है " हम पाठक दुआ करते हैं के ये सिलसिला आगे भी यूँ ही बना रहे ताकि हमें उनके दिलकश अशआर पढने को मिलते रहें

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे
जवाब जिनके यहीं आसपास कितने थे

हंसी, मज़ाक, अदब, महफ़िलें, सुख़नगोई
उदासियों के बदन पर लिबास कितने थे

पड़े थे धूप में एहसास के नगीने सब
तमाम शहर में गोहरशनाश कितने थे

खूबसूरत और बिलकुल नए अंदाज़ के कलेवर वाली इस किताब को जयपुर के "लोकायत प्रकाशन" ने प्रकाशित किया है. इस किताब की प्राप्ति और भाई अखिलेश को दाद देने के लिए सर्वश्रेष्ठ बात तो ये होगी कि आप उनसे उनके मोबाइल नंबर +919460434278 पर बात करें. दूसरा और दुविधापूर्ण रास्ता है के आप "लोकायत प्रकाशन" के करता धरता श्री "शेखर जी" जो दिलचस्प व्यक्तित्व के मालिक हैं, से उनके मोबाईल न.+919461304810 पर, जो अधिकतर उनके कान से चिपका रहता है, बात कर मंगवा सकते हैं. जो नहीं जानते उनकी सूचना के बता दूं की "लोकायत प्रकाशन" की मोती डूंगरी रोड, जयपुर में स्थित छोटी सी लेकिन गागर में सागर वाली उक्ति को चरितार्थ करती दुकान अब विस्तार ले चुकी है और उसकी एक शाखा सांगानेरी गेट पर भी खुल गयी है. जयपुर वासी या वो जिनके प्रेमी जयपुर वासी हैं ये किताब वहां से ले सकते हैं या मंगवा सकते हैं. जिन शायरी प्रेमियों को ये किताब अखिलेश जी द्वारा मिली है या मिलेगी उनसे गुज़ारिश है के वो इसे पढ़ कर ऐसे बाकमाल शायर को दाद दें और उनका हौसला बढ़ाएं.
चलते चलते आईये उनकी एक ग़ज़ल के चन्द अशआर और पढ़ते चलें:-

तू इश्क में मिटा न कभी दार पर गया
नायब ज़िन्दगी को भी बेकार कर गया

मिटटी का घर बिखरना था आखिर बिखर गया
अच्छा हुआ कि ज़ेहन से आंधी का डर गया

बेहतर था कैद से ये बिखर जाना इसलिए
ख़ुश्बू की तरह से मैं फिजा में बिखर गया

'अखिलेश' शायरी में जिसे ढूंढते हो तुम
जाने वो धूप छाँव का पैकर किधर गया.

Monday, January 2, 2012

ये क्या कम है मेरी शाखों पे फिर भी कुछ परिंदे हैं

आप सब को नव वर्ष की हार्दिक शुभ-कामनाएं.



हजारों में किसी इक आध के ही गैर होते हैं
वगरना दुश्मनी करते हैं जो होते वो अपने हैं


कभी मेरे भी दिल में चांदनी बिखरा जरा अपनी
सुना है लोग तुझको चौदहवीं का चाँद कहते हैं


कोई झपका रहा आंखें है शायद याद कर मुझको
अंधेरी रात में जुगनू कहां इतने चमकते हैं

हमें मालूम है घर में नहीं हो तुम मगर फिर भी
यूं ही आंगन में जा जा कर तुम्हें आवाज़ देते हैं


ज़रूरी तो नहीं के फूल हों या फिर लगे हों फल
ये क्या कम है मेरी शाखों पे फिर भी कुछ परिंदे हैं


मनाते हैं बहुत लेकिन नहीं जब मानता है तो
हमीं थक हार कर हर बात दिल की मान लेते हैं


कहीं चलते नहीं दुनिया में फिर भी नाज़ है इनपर
विरासत में ये हमने प्यार के पाए जो सिक्के हैं


दिखाई दे रहा है जो, हमेशा सच नहीं होता
कहीं धोखे में आंखें हैं, कहीं आंखों के धोखे हैं


भले थे तो किसी ने हाल त़क 'नीरज' नहीं पूछा
बुरे बनते ही देखा हर तरफ अपने ही चरचे हैं



( इस ग़ज़ल को गुरुदेव पंकज सुबीर जी का आशीर्वाद प्राप्त है )