शेर एक तितली है
ज़ेहन के गुलिस्ताँ की रंग-रंग दुनिया में
पंखुड़ी से पर लेकर
नाचता ही रहता है
शायर एक बच्चा है
ज़ेहन के गुलिस्ताँ की रंग-रंग दुनिया में
उस हंसीं पैरों वाली बेक़रार तितली के पीछे-पीछे चलता है
गिरता है
संभलता है
आस्तीन फटती है
दामन-ओ-गिरेबाँ के तार झनझनाते हैं
टूट टूट जाते हैं
धीरे धीरे लफ़्ज़ों की उँगलियाँ संभलती हैं
और वो हसीं तितली
उन पे बैठ जाती है
अपने पर हिलाती है
रंग छोड़ जाती है
ये नज़्म उस शायर की है जिन पर इतना कुछ लिखा जा सकता है कि ऐसी एक नहीं ढेरों पोस्ट्स लिखें तो भी कम पड़ेगीं। उनके लिए तो ये कहना भी मुश्किल है कि वो नस्र के बादशाह थे या शायरी के सुलतान ? इंसान ऐसे कि फांसी के तख़्ते पर खड़े हो कर सच बोलें और जिस काम को दिल न माने वो किसी भी कीमत पर करने को तैयार न हों। टी.वी सीरियल हों या फ़िल्में उन्होंने जिस विधा में लिखा अपनी अमिट छाप छोड़ दी। खूबसूरत इतने की लड़कियां उनकी तस्वीर अपने तकिये के नीचे रख के सोया करती थीं इस से पहले इस तरह के किस्से सिर्फ और सिर्फ मज़ाज़ के लिए मशहूर थे।
ये फ़न-ए-शेर है बेहिसों के बस का नहीं
हो दिल में आग तो अलफ़ाज़ से धुआं निकले
तुम्हारी बज़्म नहीं ये हमारी दुनिया है
तुम आस्तीन चढ़ाये हुए कहाँ निकले
कई उफ़क़ कई रातें कई दरीचे हैं
तुम्हारे शहर में सूरज कहाँ कहाँ निकले
जख्म-ए-दिल का ये शजर सबसे जुदा होता है
धूप लगती है तो ये और हरा होता है
अब सियासत की दुकानों का ये दस्तूर हुआ
वही सिक्का नहीं चलता जो खरा होता है
अब कोई रास्ता पूछे कि न पूछे उससे
वरना हर शख़्स में इक राहनुमा होता है
हम तो हैं परदेस में ,देश में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद
जिन आँखों में काजल बन कर तैरी काली रात
उनमें शायद अब ऑंसू का क़तरा होगा चाँद
रात ने ऐसा पेच लड़ाया टूटी हाथ की डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद
इस सफर में नींद ऐसी खो गयी
हम न सोये रात थक कर सो गयी
हाय इस परछाइयों के शहर में
दिल-सी ज़िंदा इक हकीकत खो गयी
हमने जब हँसकर कहा मम्नून हैं
ज़िन्दगी जैसे पशेमाँ हो गयी
मम्नून - आभारी
प्यास बुनियाद है जीने की बुझा लें कैसे
हमने ये ख़्वाब न देखे हैं न दिखलाये हैं
याद जिस चीज को कहते हैं वो परछाईं है
और साये भी किसी शख़्स के हाथ आये हैं
हाँ उन्हीं लोगों से दुनिया में शिकायत है हमें
हाँ वही लोग जो अक्सर हमें याद आये हैं
ये खुशबू है किसी मौजूदगी की
अभी शायद कोई उठ कर गया है
सलीब आवाज़ की कन्धों पे रख लो
कि सन्नाटा हर आँगन में खड़ा है
ये राही तो अजब इंसान निकला
हमेशा किसलिए सच बोलता है
महफ़िल वाले जल्दी में हैं जाने की
फिर हम क्यों तौहीन करें अफ़साने की
या तो उसके ज़ख्मों का मरहम लाओ
या फिर हालत मत पूछो दीवाने की
नासेह साहब आप तो अपनी हद में रहें
मंज़िल पीछे छूट गयी समझाने की
डॉक्टरेट करने के बाद वे वहीँ यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे लेकिन अपने प्रगतिशील विचारों के चलते उनकी पटरी अलीगढ के दकियानूसी लोगों के साथ बैठी नहीं और वो किस्मत आजमाने मुंबई आ गए। मुंबई में उनके पाँव ज़माने में उनके दोस्तों जिनमें अभिनेता भारत भूषण , लेखक कमलेश्वर और धर्मवीर भारती उल्लेखनीय हैं ,ने बहुत मदद की। मुंबई में ही साहित्य की लगातार साहित्य की सेवा करते हुए वो 15 मार्च 1992 को मात्र 64 साल की उम्र में इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़सत हो गए। अपने पीछे वो साहित्य का बहुत बड़ा खज़ाना छोड़ गए हैं जिसे आगे आने वाली पीढ़ियां पढ़ उन पर गर्व करेंगी।
बैठ के उसके नाम कोई खत ही लिखिए
रात को यूँ ही जागते रहना ठीक नहीं
जुल्म का सहना भी आदत बन सकता है
उसके भी हर जुल्म को सहना ठीक नहीं
बादल झील में देख रहे हैं अपना हुस्न
इस मौसम में घर पर रहना ठीक नहीं
मैंने शुरू में ही कहा था कि राही जी जैसी कद्दावर शख्सियत के बारे में जितना लिखा जाय कम ही होगा लेकिन पोस्ट की अपनी एक सीमा है इसलिए कहीं तो विराम देना ही पड़ेगा। आप तो इस किताब को डायमंड बुक्स वालों से मंगवा लें और फिर इत्मीनान से पढ़ें , इसमें संकलित राही साहब की नज़्में भी लाजवाब हैं।
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पेशे खिदमत हैं :
बाहर आते डरते हैं अपने-अपने अफ़साने से
कल तक जो दीवाने थे अब लगते हैं दीवाने से
सबके पास कई नासेह हैं और सभी समझाते हैं
अक्सर लोग बिगड़ जाते हैं बहुतों के समझाने से
क्यों इतने मगरूर हो राही क्यों इतने इतराते हो
गंगा-तट वीरान न होगा इक उनके उठ जाने से