Monday, October 20, 2008

जो निशाने साधते थे कल तलक



( दोस्तों पेश है एक और ग़ज़ल जिसके हुस्न को सँवारने में पंकज जी का ही योगदान है. जैसा की आप जानते हैं मुझे ग़ज़ल लिखने की बारीकी आदरणीय प्राण साहेब, पंकज जी और भाई द्विज जी अभी तक सिखा रहे हैं. सीखना एक सतत क्रिया है...जितना सीखता हूँ लगता है अरे अभी तो कुछ भी नहीं सीखा. इस ग़ज़ल को ही लें...इसके मूल रूप को बरक़रार रखते हुए पंकज जी ने मेरे शेर तो संवारे ही साथ ही कुछ अपने भी लिख कर भेज दिए. मुझे खुशी होगी अगर सुधि पाठक इसे एक जमीन पर लिखी दो अलग अलग ग़ज़लें समझ कर पढ़ें )
दूर होंठों से तराने हो गये
हम भी आखिर को सयाने हो गये

जो निशाने साधते थे कल तलक
आज वो खुद ही निशाने हो गये

लूट कर जीने का आया दौर है
दान के किस्से, पुराने हो गये

भूलने का तो न इक कारण मिला
याद के लाखों बहाने हो गए

आइये मिलकर चरागां फिर करें
आंधियां गुजरे, ज़माने हो गये

साथ बच्‍चों के गुज़ारे पल थे जो
बेशकीमत वो ख़जाने हो गये

देखकर "नीरज" को वो मुस्‍का दिये
बात इतनी थी, फसाने हो गये

(और अब ये रहे पंकज सुबीर जी के इसी काफिये बहर पर लाजवाब शेर ,मेरी प्रार्थना है की आप कृपया इन दोनों ग़ज़लों की आपस में तुलना ना करें सिर्फ़ दोनों का अलग अलग आनंद लें, जैसे पगार के साथ दीवाली का बोनस )

यूं ही रस्‍ते में नज़र उनसे मिली
और हम यूं ही दिवाने हो गये

दिल हमारा हो गया उनका पता
हम भले ही बेठिकाने हो गये

खा गई हमको भी दीमक उम्र की
आप भी तो अब पुराने हो गये

फिर से भड़की आग मज़हब की कहीं
फिर हवाले आशियाने हो गये

खिलखिला के हंस पड़े वो बेसबब
बेसबब मौसम सुहाने हो गये

लौटकर वो आ गये हैं शहर में
आशिकों के दिन सुहाने हो गये

वक्‍त और तारीख क्‍या बतलायें हम
आपके हम कब न जाने हो गये

Tuesday, October 14, 2008

किया यूं प्यार अपनों ने


कभी ऐलान ताकत का, हमें करना जरुरी है
समंदर ओक में अपनी, कभी भरना जरुरी है

उठे सैलाब यादों का, अगर मन में कभी तेरे
दबाना मत कि उसका, आंख से झरना ज़रुरी है

तमन्ना थी गुज़र जाता, गली में यार की जीवन
हमें मालूम ही कब था यहां मरना ज़रूरी है

किसी का खौफ़ दिल पर, आजतक तारी न हो पाया
किया यूं प्यार अपनों ने, लगा डरना ज़रूरी है

दुखाना मत किसीका दिल,खुशी चाहो अगर पाना
ज़रा इस बात को बस, ध्यान में धरना जरुरी है

कहीं है भेद "नीरज" आपके कहने व करने में
छिपाना आंख को सबसे, कहां वरना जरुरी है

( श्री पंकज सुबीर जी की अनुमति से प्रकाशित ग़ज़ल )

Thursday, October 9, 2008

शब्दों के जादूगर



मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता...लेकिन क्या हम उन्हें भली भांति जानते हैं जिनसे हमारा व्यक्तिगत परिचय होता है?...आप कितना भी अपने आप को भुलावा दें आप को इसका उत्तर "नहीं" में ही मिलेगा. किसी को जानने या पहचानने के लिए उसका भौतिक रूप महत्वपूर्ण नहीं है. कोई बिना देखे, मिले भी अपना सा लगने लगता है...शब्दों के जादूगर राकेश जी के बारे में भी येही बात सच है. अगर कभी खुशनसीबी से वो सामने आ जायें तो मैं उन्हें शायद पहचान ना पाऊं लेकिन अगर उन्होंने आवाज दी जो जरूर पहचान लूँगा.

खोपोली में एक दिन देर रात मोबाइल बजा...देखा तो कोई अपरिचित नंबर था..हेल्लो कहने पर आवाज आयी "क्या नीरज गोस्वामी बोल रहे हैं?" मैंने कहा "हाँ" तो हँसते हुए किसी ने कहा "नमस्कार मैं राकेश खंडेलवाल बोल रहा हूँ वाशिंगटन से...आप को देर रात डिस्टर्ब तो नहीं किया ना "...मैं आसमान से गिरा और खजूर पर भी नहीं अटक पाया...हतप्रभ मेरी आवाज ही नहीं निकली. राकेश जी की रचनाएँ मैं लगातार उनके ब्लॉग "गीत कलश" पर पढता आया था और उनके शब्द और भाव कौशल का दीवाना था. ब्लॉग पर इतने उच्च स्तर की काव्य रचनाएँ अन्यत्र मिलनी असंभव हैं. औपचारिकता पहले दो एक संवादों की गर्मी से बर्फ सी पिघल गयी और फ़िर उसके बाद हमने खूब देर तक ढेरों विषयों पर बातें की.

इसके बाद अब उनका फ़ोन यदा कदा आता रहता है और वे अपने और मेरे बारे में बताते पूछते रहते हैं. उनकी रोज मर्रा की बातों में भी काव्य झरता है और दिल करता है की उन्हें बस सुनते ही रहें. माँ सरस्वती उनकी वाणी से प्रकट होती है.

राकेश जी का लेखन अद्भुत है. काव्य की सरिता कल कल करती उनकी लेखनी से जब बहती है तो पढने वाले उसके साथ बह कर आनंद की अतल गहराईयों में डूब डूब जाते हैं. उनके बिम्ब पाठकों को उन ऊचाइयों पर ले जाते हैं जहाँ उनकी कल्पनाएँ भी नहीं पहुँच पातीं. आज के इस आपाधापी भरे दौर में जब इंसान पत्थर सा संज्ञा शून्य हो चला है उसमें अपनी कविताओं से संवेदनाएं जगाना किसी भागीरथी प्रयास से कम नहीं है. राकेश जी ये प्रयास अनवरत कर रहे हैं. उनसा प्रतिभाशाली कवि आज ढूंढ़ना इतना सहज नहीं है. अपनी रचनाओं से उन्होंने न केवल ब्लॉग जगत को बल्कि हिन्दी साहित्य को भी समृध्द किया है.

बरसों के इन्तेजार के बाद अब उनकी एक पुस्तक शीघ्र ही पाठकों के हाथ में होगी. उनकी इस पुस्तक " अँधेरी रात का सूरज " के प्रकाशन की जिम्मेवारी आदरणीय पंकज सुबीर जी ने उठा कर हम सब काव्य प्रेमियों पर बहुत बड़ा उपकार किया है. यकीन है की उनकी ये पुस्तक हमारे जीवन के अनदेखे अंधियारों में हमें सूर्य बन कर राह दिखाईयेगी. ग्यारह अक्तूबर को सीहोर और वाशिंगटन में होने वाले विमोचन समारोह की अग्रिम बधाई मैं भाई राकेश जी और गुरुदेव पंकज जी को देता हूँ.मेरी हार्दिक अभिलाषा है की इस पुस्तक को हिन्दी, विशेष रूप से हिन्दी काव्य के प्रेमी अवश्य खरीद कर पढ़ें. पुस्तक प्राप्ति के लिये आप पंकज सुबीर जी से 09977855399 पर संपर्क करें.

Monday, October 6, 2008

चाँद की बातें करो



(प्रणाम गुरुदेव पंकज जी को इस ग़ज़ल को पढने लायक बनाने के लिए )

जब कुरेदोगे उसे तुम, फिर हरा हो जाएगा
ज़ख्म अपनों का दिया,मुमकिन नहीं भर पायेगा

वक्‍त को पहचान कर जो शख्‍स चलता है नहीं
वक्‍त ठोकर की जुबां में ही उसे समझायेगा

शहर अंधों का अगर हो तो भला बतलाइये
चाँद की बातें करो तो, कौन सुनने आयेगा

जिस्म की पुरपेच गलियों में, भटकना छोड़ दो
प्यार की मंजिल को रस्ता, यार दिल से जायेगा

बन गया इंसान वहशी, साथ में जो भीड़ के
जब कभी होगा अकेला, देखना पछतायेगा

बैठ कर आंसू बहाने में, बड़ी क्या बात है
बात होगी तब अगर तकलीफ में मुस्‍कायेगा

फूल हो या खार अपने वास्ते है एक सा
जो अता कर दे खुदा हमको सदा वो भायेगा

नाखुदा ही खौफ लहरों से अगर खाने लगा
कौन तूफानों से फिर कश्‍ती बचा कर लायेगा

ये तुम्‍हारे भोग छप्‍पन सब धरे रह जायेंगें
वो तो झूठे बेर शबरी के ही केवल खायेगा

दिल से निकली है ग़ज़ल "नीरज" कभी तो देखना
झूम कर सारा ज़माना दिल से इसको गायेगा


{दोस्तों इस ग़ज़ल का "बोल्ड शेर" जिसे हासिले ग़ज़ल भी कह सकते हैं भेंट स्वरुप प्राप्त हुआ है, किसने किया ये बताने की अनुमति मुझे नहीं है.}

Wednesday, October 1, 2008

ये गुलाबों की तरह नाज़ुक


( नमन छोटे भाई समान द्विज जी को जिन्होंने इस ग़ज़ल को कहने लायक बनाया )


कब किसी के मन मुताबिक़ ही चली है जिन्दगी
राह तयकर इक नदी —सी ख़ुद बही है जिन्दगी

ये गुलाबों की तरह नाज़ुक नहीं रहती सदा
तेज़ काँटों सी भी तो चुभती कभी है जिन्दगी

मौत से बदत्तर समझ कर छोड़ देना ठीक है
ग़ैर के टुकड़ों पे तेरी गर पली है ज़िन्दगी

बस जरा सी सोच बदली तो मुझे ऐसा लगा
ये नहीं दुश्मन कोई सच्ची सखी है ज़िन्दगी

जंग का हिस्सा है यारो, जीतना या हारना
ख़ुश रहो गर आख़िरी दम तक लड़ी है जिन्दगी

मोल ही जाना नहीं इसका, लुटा देने लगे
क्या तुम्हें ख़ैरात में यारो ! मिली है जिन्दगी

जब तलक जीना है "नीरज" मुस्कुराते ही रहो
क्या ख़बर हिस्से में अब कितनी बची है जिन्दगी