Monday, December 25, 2017

किताबों की दुनिया - 157

नदी, झरने, किताबें, चाँद, तारे और तन्हाई 
वो मुझसे दूर हो कर हर किसी के पास जा बैठा 

मैं जब घबरा गया हर रोज़ के सौ बार मरने से 
उठा शिद्दत से और फिर ज़िन्दगी के पास जा बैठा 

ये मेरी बेख़ुदी है या है उसके प्यार का आलम 
उसी के पास से उठ कर उसी के पास जा बैठा 

आप ये बात तो मानेंगे कि सोशल मिडिया ने शायरी को फायदा भी पहुँचाया है और नुक्सान भी। फायदा तो ये कि पहले बहुत से लोग जो अच्छी शायरी करते थे बिना अपनी पहचान बनाये गुमनामी के अँधेरे में खो जाते थे किसी रिसाले ने मेहरबानी करदी और छप गए तो और बात वरना उनकी शायरी अपनी गली मोहल्ले तक ही महदूद रहती , अब अच्छी शायरी करने वाले सोशल मिडिया की बदौलत अपनी पुख्ता पहचान बनाने में कामयाब हो रहे हैं, उनका कलाम गली, मोहल्ले, शहर को छोड़ देश की हद पार करने में कामयाब हो रहा है. नुक्सान ये हुआ है बहुत से गैर शायराना किस्म के लोग भी फ़टाफ़ट नाम कमाने के चक्कर में शायरी का सरे आम बेड़ा गर्क कर रहे हैं। शायरी फ़क़त काफिया पैमाइश, रदीफ़ और बहर का ही नाम नहीं है ये अपने ज़ज़्बात को इज़हार करने का अनूठा फ़न है। ये फ़न जितना आसान नज़र आता है उतना होता नहीं तभी तो बहुत कम लोग हैं जो इस भीड़ में अपनी पहचान बना पा रहे हैं। :

ख़ुदा, वाइज़,दरिंदे, देवता और जाने क्या क्या थे 
मिला कोई नहीं मुझको अभी तक आदमी जैसा 

जो चौराहे पे बच्चे खेलते हैं रोज़ मिटटी में 
कोई गौहर तो लाओ ढूंढ के उनकी हंसी जैसा 

कभी चूड़ी की बंदिश थी कभी पाजेब की बेड़ी 
हमारे पास से गुज़रा न कुछ भी ज़िन्दगी जैसा 

मैं अपनी बात को जां निसार अख्तर साहब के एक शेर के हवाले से , जिसे हो सकता है आपने पढ़ा हो ,आप तक पहुँचाने की कोशिश करता हूँ, वो कहते हैं "हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या ,चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाये "और साहब लफ़्ज़ों में आग छुपाने का फ़न हर किसी को नहीं आ सकता। आप अंदर से शायर होने चाहियें तभी बात बन सकती है। किताबें पढ़ कर ,किसी की नक़ल कर के या किसी उस्ताद को गंडा बाँधने भर से शायरी नहीं आ सकती। हाँ , तुकबंदी जरूर आ सकती है और उस तुकबंदी पर आपके मित्र मंडली के सदस्य सोशल मिडिया की साइट पर लाइक या कमेंट्स की झड़ी लगा सकते हैं जिसकी बदौलत आपमें शायर होने का मुगालता पैदा हो सकता है । ।

हथेली पर मेरी लगता है उग आये हैं कांटे 
लकीरों में हर इक रिश्ता तभी उलझा रहे अब

 तू मेरा है ,नहीं है , है, नहीं है , है नहीं है 
 सरे-महफ़िल हमारा ही फ़क़त चर्चा रहे अब

गली में खेलते बच्चों में बाँटी कुछ किताबें 
किसी खुशबू से मेरा घर सदा महका रहे अब 

हमारी "किताबों की दुनिया " श्रृंखला की इस कड़ी की शायरा " रेणु नय्यर " जी ने, जिनका जन्म पंजाब के अबोहर जिले में 9 अगस्त 1970 हुआ था , अपना शेरी सफर सन 2007 में सोशल मिडिया की साइट ऑरकुट से शुरू किया। शुरू में हलकी फुलकी तुकबंदी से शुरू हुआ ये सफर पंजाबी नज़्मों और ग़ज़लों से होता हुआ उर्दू शायरी तक पहुंचा और सन 2017 के आते आते उनका पहला शेरी मज़्मुआ "अभी तो हिज़्र मरहम है " जिसकी हम आज बात करेंगे ,मंज़रे आम पर आ गया। यूँ तो हर साल न जाने कितनी ही ग़ज़लों की किताबे प्रकाशित होती हैं लेकिन उनमें से बहुत कम पाठकों की अपेक्षाओं पर खरी उतरती हैं। ये वो किताबें होती हैं जिनकी एक्सपायरी डेट नहीं होती , ये किताबें सदा बहार होती हैं और इनमें शाया अशआर जिन्हें आप कभी भी कहीं भी पढ़ें हमेशा ताज़ा लगते हैं।



चराग़-ए-ज़ीस्त मद्धम है अभी तू नम न कर आँखें 
अभी उम्मीद में दम है , अभी तू नम न कर आँखें 

किसी दिन वस्ल की चारागरी भी काम आएगी 
अभी तो हिज़्र मरहम है , अभी तू नम न कर आँखें 

अभी तो सामने बैठी हूँ, बिलकुल सामने तेरे 
अभी किस बात का ग़म है , अभी तू नम न कर आँखें 

रेणु जी की किताब बिलकुल वैसी ही है जिसकी एक्सपायरी डेट नहीं होती याने सदाबहार। ये किताब शायरी की किताबों के विशाल रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी है जिसे पढ़ते हुए वैसी ही ठंडक और सुकून हासिल होता है। कामयाब शायर वो होता है जो इंसान के सुख-दुःख ,उसकी फितरत और समाज की अच्छाइयों बुराइयों को एक नए दृष्टिकोण से हमारे सामने रखता है। विषय वही हैं जो हज़ारों साल पहले थे लेकिन उन्हें शायरी में अगर अलग और नए अंदाज़ में ढाला जाय तो ही दिल से वाह निकलती है। बशीर बद्र साहब की शायरी से मुत्तासिर रेणु जी की शायरी में ये बात बार बार नज़र आती है। उनके कहन का निराला पन ही उन्हें भीड़ से अलग करता है। रेणु जी को उर्दू शायरी करते अभी कुलजमा तीन-चार साल ही हुए हैं लेकिन उनके अशआर बरसों से शायरी कर रहे उस्तादों से कम नहीं है। कारण ? जैसा मैंने पहले कहा "वो अंदर से शायरा हैं " शायरी उनकी रूह में बसी हुई है, ओढ़ी हुई नहीं है।

किसी मुश्किल को आसाँ बोल देना है बड़ा आसाँ 
वो मेरी ज़िन्दगी जी कर दिखाये , मान जाऊँगी 

बस इतना फासला है दरमियाँ अपने तअल्लुक़ में 
किसी दिन आ के मुझको तू मनाये , मान जाऊँगी 

तली पर ज़िन्दगी रक्खा है तुझ को आबलों जैसा 
मेरे नख़रे किसी दिन तू उठाये , मान जाऊँगी 

इस किताब की भूमिका में प्रसिद्ध शायर जनाब ख़ुशबीर सिंह 'शाद' ने लिखा है कि " मौजूदा दौर में उग रही शायरों की बेतरतीब खरपतवार में कुछ ख़ुदरौ पौधे ऐसे भी हैं जो अपनी अलग रंगत और ख़ुश्बू से पहचाने जा रहे हैं , रेणु भी उनमें से एक है। अच्छा शेर तभी होता है जब आप अंदर से शायर हों। शायरी की बुनियादी शर्त अपने एहसास का ईमानदाराना इज़हार है। रेणु अपने एहसास के पिघले सोने को ज़ेवर बनाने का हुनर जानती है। सफर लम्बा और दुश्वार है ,मंज़िल भी दूर है लेकिन रेणु ने अपने लिए रास्ता बना लिया है और ये कोई मामूली बात नहीं " 

दुनिया को हर चीज़ दिखाई जा सकती है 
पत्थर में भी आँख बनाई जा सकती है 

हिज़्र का मौसम वो मौसम है जिसमें अक्सर 
आँखों में भी रात बिताई जा सकती है 

पत्थर को ठोकर तक ही महदूद न समझो 
पत्थर से तो आग लगाई जा सकती है 

बहुत कम शायर होते हैं जिनकी ग़ज़लें लोग पढ़ते भी चाव से हैं और सुनते भी चाव से हैं। रेणु जी को लोग पढ़ते भी हैं और सुनते भी हैं । कुल हिन्द मुशायरों की मकबूल उर्दू शायरा रेणु जी के कलाम को उनके उस्ताद, जो हालाँकि उम्र में उनसे कम हैं ,जनाब 'शमशीर गाज़ी " ने संवारा। गाज़ी साहब हालांकि अपने आपको उस्ताद कहलवाना पसंद नहीं करते लेकिन रेणु जी को उन्हें सरे आम अपना उस्ताद मानने में कोई गुरेज़ नहीं क्यूँकि उनकी नज़र में उस्ताद का हुनर देखा जाता है उम्र नहीं। गाज़ी साहब ने ही रेणु जी को शायरी में सलीके से अपने एहसासात, ज़ज़्बात और तख़य्युलात का इज़हार करना सिखाया। उन्हीं की रहनुमाई में रेणु जी ने शायरी में ज़िन्दगी के तल्ख़-ओ-तुर्श तजुर्बात की कसक , हुस्न-ओ-इश्क की रानाई ,अंदाज़े बयां में बेसाख़्तगी , नग्मगी और शाइस्तगी पिरोना सीखा।

अजब हूँ मैं, मुझे ये सोच कर भी डर नहीं लगता 
मेरा घर क्यों मुझे अक्सर मेरा ही घर नहीं लगता 

मिला है ज़ख्म तुमको आज सच कहने पे दुनिया से 
अगर तुम झूठ कह देते तो ये पत्थर नहीं लगता 

सभी मखमल के रिश्तों को हिफाज़त की जरूरत है 
कभी खद्दर के कपड़ों में कोई अस्तर नहीं लगता 

18 वर्षों तक शिक्षण के क्षेत्र में प्रबंधन का काम सँभालने वाली और सन 2012 से अपने घर को समर्पित रेणु जी ग़ज़लों के अलावा खूबसूरत नज़्में भी कहती हैं। नज़्में कहना शेर कहने से मुश्किल काम होता है लेकिन रेणु जी ने ये साहस किया है और खूब किया है। 'एनीबुक' प्रकाशन नोएडा से प्रकाशित इस पेपर बैक संस्करण में रेणु जी की 68 ग़ज़लेँ और 11 नज़्में संगृहीत हैं। एनीबुक ने प्रकाशन के क्षेत्र में अभी क़दम रखा ही है लेकिन उनके यहाँ से प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह, नामी गरामी प्रकाशकों से मीलों आगे हैं। नफ़ा-नुकसान की फ़िक्र किये बग़ैर एनीबुक ने जिस तरह से नए-पुराने शायरों के क़लाम को मन्ज़रे आम पर लाने का काम किया है उसकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है। 'अभी तो हिज़्र मरहम है " की प्राप्ति के लिए आप एनीबुक के पराग अग्रवाल साहब को उनके मोबाइल न. 9971698930 पर संपर्क करें और खूबसूरत ग़ज़लों के लिए रेणु जी को उनकी ई मेल आई डी renu.nayyar@ gmail.com  पर बधाई सन्देश भेजें।
नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले आपको रेणु जी की, छोटी बहर में कही कुछ एक ग़ज़लों के शेर पढ़वाता चलता हूँ , सूचनार्थ बता दूँ कि इस संग्रह में रेणु जी की बहुत सी छोटी बहर में कही अद्भुत ग़ज़लें संगृहीत हैं :

ये मरज़ हड्डियों को खाता है 
हिज़्र को नाम और क्या देदूं 

काट के वो निकल ही जाता है 
जिसको खुद में से रास्ता दे दूँ 
*** 

ये ख़ामोशी अचानक लग गयी जो 
मुसलसल गुफ़्तगू है और क्या है 

वहां बस मैं नहीं हूँ, और सब हैं 
यहाँ बस तू ही तू है , और क्या है 
*** 

रेत होने तलक का क़िस्सा हूँ 
बस तेरी याद तक संभलना है

इश्क है, हाँ ये इश्क ही तो है 
इसमें अब और क्या बदलना है ?

Monday, December 18, 2017

किताबों की दुनिया - 156

जो पसीने से इबारत पे यकीं रखता है 
वो भला कैसे हथेली पे लिखा याद रखे 

जिसके सीने से निकलता है निरंतर लावा 
मैं दिया हूँ उसी मिटटी का हवा याद रखे 

अब मुहब्बत भी गुनाहों में गिनी जाती है 
हर गुनहगार यहाँ अपनी सज़ा याद रखे 

इस ग़ज़ल के शेर 'जिसके सीने से ..." पर उर्दू शायरी के उस्ताद शायर जनाब किशन बिहारी नूर साहब ने फ़रमाया था कि "किस क़दर हौसला मंदी से और बेबाक होकर इस शेर में शायर ने यह बता ही दिया कि हवा मेरे वजूद को ख़तम करने की कोशिश न करे क्यूंकि मेरे वजूद को बुझा पाना उसके लिए आसान नहीं होगा। " एक नए उभरते शायर द्वारा इस तरह का कद्दावर शेर कहना क़ाबिले जिक्र बात थी। ये शेर इस और भी इशारा कर रहा था कि आने वाले वक्त में उर्दू शायरी के आसमान में एक नया सितारा जगमगाने वाला है. इस सितारे की चमक बहुत पहले एक मुशायरे के दौरान दिखाई दी, हुआ यूँ ....नहीं नहीं अभी नहीं ये किस्सा उनकी एक ग़ज़ल के इन शेरों के बाद...

मिल जायेगा मुझे भी समंदर का पैरहन 
मैं चल रहा हूँ साथ जहाँ तक नदी चले 

इस तरह तैरती रही अश्कों पे ज़िन्दगी 
पानी पे जैसे नाव कोई काग़ज़ी चले 

हम यूँ निकल चुके हैं कफ़स अपना तोड़ कर 
बादल से ज्यूँ निकल के कभी चांदनी चले 

बात बहुत पुरानी है हुआ यूँ कि दिल्ली के पास शाहदरा में एक मुशायरे का आयोजन किया गया था जिसमें गंगा-जमुनी तहज़ीब सभी बड़े शुअरा शिरकत कर रहे थे उन्हीं में सबसे पीछे एक गुमनाम सांवले से रंग का खोये खोये वुजूद वाला लड़का भी बैठा था। एक के बाद एक बड़े बड़े तमाम शुअरा अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद सामअईन से दाद हासिल करने में नाकामयाब हो रहे थे। सामअईन जैसे सोच के बैठे थे कि इस मुशायरे को हर हाल में क़ामयाब नहीं होने देना है। मायूसी पूरे मंच पर फैली हुई थी ,किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि मुशायरे को उठाने के लिए किया क्या जाय ? निज़ामत कर रहे शायर ने मरे मन से उसी पीछे बैठे लड़के का नाम पुकारा और बिना किसी तआर्रुफ़ के माइक के आगे खड़ा कर दिया। सामअईन तो जैसे हूट करने को तैयार ही बैठे थे लेकिन जैसे ही इस लड़के ने गला साफ़ कर एक खुशगवार तरन्नुम में ये शेर पढ़े तो महफ़िल अचानक पूरे रंग में आ गयी :

आते रहे वो याद भुलाने के बाद भी 
जलता रहा चिराग़ बुझाने के बाद भी 

फिर उसके बाद ज़ुल्फ़ के हम पर हुए करम
पर्दा रहा, नक़ाब उठाने के बाद भी 

जादू है मेरी आँख में या उनके नाम में 
उनका मिटा न नाम मिटाने के बाद भी 

उस गुमनाम लड़के "गोविन्द गुलशन "का नाम रातों रात शायरी के दीवानों के ज़ेहन में हमेशा के लिए दर्ज़ हो गया. आज "किताबों की दुनिया " श्रृंखला की इस कड़ी में उनकी ग़ज़लों की किताब "जलता रहा चिराग " की बात करेंगे जिसे चित्रांश प्रकाशन, चिरंजीव विहार, गाज़ियाबाद ने सन 2001 में प्रकाशित किया था। सोलह से भी अधिक बरस पहले लिखी ये ग़ज़लें आज भी अपनी कहन के कारण उतनी ही ताज़ा लगती हैं जितनी उस वक्त थीं.


आदमी जब-जब ग़मों की भीड़ में खो जायेगा 
आदमी सच पूछिए तो आदमी हो जायेगा 

आइने के रू-ब-रू जाने से घबराता है क्यूँ 
आईना रख सामने तू आइना हो जायेगा 

लाएगी चूनर के बदले रोटियां मुमकिन है वो 
रोज़ भूखा लाल बेवा का अगर सो जायेगा

7 फ़रवरी 1957, मोहल्ला ऊँची गढ़ी, गंगा तट अनूप शहर , ज़िला- बुलन्द शहर में जन्में गोविन्द जी ने कला विषयों में स्नातक की डिग्री हासिल की और नेशनल इन्श्योरेंस की गाज़ियाबाद शाखा में विकास अधिकारी के पद पर काम किया। गोविन्द जी को शायरी उनके पिता स्व. श्री हरिशंकर जी से विरासत में मिली। उनके बाबूजी खुद तो शेर नहीं कहते थे लेकिन उन्हें सैंकड़ो शेर याद थे जिन्हें वो रोजमर्रा की बातचीत के दौरान इस्तेमाल किया करते थे। बचपन से ही शेर सुनते सुनते गोविन्द जी का रुझान शायरी की तरफ हो गया और ये दीवानगी उन्हें सूफ़ियाना महफ़िलों तक ले गयी। वो डिबाई बुलंद शहर स्तिथ आस्ताने पर हाज़री देने लगे जहाँ देश भर से आये कव्वाल अपनी कव्वालियां सुनाया करते थे। इससे उन पर चढ़ा शायरी का रंग और गहरा हो गया।

इस बरस सैलाब में मिटटी के घर सब बह गये 
रह गए ऊंचे महल इस पार भी उस पार भी 

छीन कर सच्ची किताबें और हाथों से क़लम 
नस्ल को सौंपे गये बारूद भी हथियार भी 

दर्मियाँ बरसात का मौसम बना कर देखिये 
ख़ुद-ब-ख़ुद गिर जायेगी नफ़रत की ये दीवार भी 

ऐसा नहीं है कि गोविन्द जी सीधे ही ग़ज़ल कहने लगे। सबसे पहले उन्होंने भजन लिखने शुरू किये और देखते ही देखते उनके पांच भजन संग्रह छप कर लोकप्रिय हो गए। पहली ग़ज़ल उन्होंने शादी के एक बरस बाद सं 1987 में अपनी लखनऊ यात्रा के दौरान लिखी और ये सिलसिला 1994 तक अबाध गति से चलता रहा।ग़ज़ल के इस सफर के दौरान उन्हें बहुत से रहनुमा मिले जिन्होंने समय समय पर उनकी लेखनी को संवारा। डायरी में दर्ज़ ग़ज़लें धीरे धीरे उनके मुशायरों और नशिस्तों में शिरकत करने की वजह से लोगों तक पहुँचने लगीं। प्रतिभा छुपती नहीं इसीलिए उनका नाम गाज़ियाबाद में होने वाले हर बड़े छोटे मुशायरों और नशिस्तों में लिया जाने लगा।

क़ुसूरवार वही है ये कौन मानेगा 
सबूत भी है ज़रूरी बयान से पहले 

यक़ीन कैसे दिलाऊँ कि मेरे हाथों में 
कभी गुलाब रहे हैं कमान से पहले 

न मिल सका न मिलेगा कभी कहीं 'गुलशन'
सुकून तुझको ख़ुदा की अमान से पहले 

गुलशन जी की शायरी की सबसे बड़ी खूबी है उसकी सरलता। बिना कठिन शब्दों का सहारा लिए वो बहुत बड़ी बात भी आसानी से कह देते हैं। उनकी शायरी हमारे सामाजिक और राजनीतिक परिवेश के साथ साथ मानवीय कमज़ोरियों और खूबियों को ख़ूबसूरती से बयां करती है। शायरी में ये परिपक्वता उन्होंने अपने मार्गदर्शक डा कुँअर बैचैन और जनाब इशरत किरतपुरी साहब के प्रोत्साहन और जनाब किशन बिहारी 'नूर' साहब की सोहबत से प्राप्त की। इनके अलावा जनाब गुलज़ार देहलवी , जनाब शरर जयपुरी , जनाब ओम प्रकाश चतुर्वेदी 'पराग', जनाब तुफैल चतुर्वेदी , जनाब कुमार विश्वास , जनाब सीमाब सुल्तानपुरी जैसे बहुत से दिग्गजों की रहनुमाई से भी उन्हें लाभ मिला।

घोंसलों में बंद हैं पंछी है ख़ाली आस्मां 
होने वाली है यहाँ आमद किसी तूफ़ान की 

उनके आने की खबर ने आज इतना तो किया 
हो गयी ज़िंदा लबों पर ख़्वाइशें मुस्कान की 

काग़ज़ी फूलों से अब सजने लगी हर अंजुमन 
है बहुत खतरे में 'गुलशन' आबरू गुलदान की

गोविन्द गुलशन साहब ने ग़ज़ल और भजनों के अलावा गीत और दोहो की रचना भी की है। साहित्य में उनके द्वारा किये गए योगदान पर उन्हें युग प्रतिनिधि सम्मान,सारस्वत सम्मान,अग्निवेश सम्मान,साहित्य शिरोमणि सम्मान, कायस्थ कुल भूषण सम्मान,निर्मला देवी साहित्य स्मॄति पुरस्कार,इशरत किरत पुरी एवार्ड आदि से नवाज़ा गया है.उनकी रचनाएँ इंटरनेट की सभी प्रमुख साहित्यिक साइट पर उपलब्ध हैं। अनेक पत्र पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएँ लगातार प्रकाशित होती रहती हैं और उनकी लोकप्रियता में लगातार इज़ाफ़ा करती रहती हैं। 

वो एक अश्क का क़तरा जरूर है लेकिन 
मुकाबले में समंदर ग़ुलाम हो जाये 

रवायतें नहीं मालूम आदमीयत की 
वो चाहता है फ़रिश्तों में नाम हो जाये 

किसी पे तेज़ दवाएं असर नहीं करतीं 
किसी का सिर्फ दुआओं से काम हो जाये

गुलशन जी की के इस पहले संग्रह में उनकी लगभग 70 ग़ज़लें शामिल हैं,सभी पठनीय हैंऔर अपने कथ्य शिल्प तथा भाषा की सरलता के कारण पाठक को बाँध लेती हैं. संग्रह की प्राप्ति के लिए आप गुलशन जी से 0120/2766040,01204552440 मोबाइल -: 09810261241 ई-मेल आइ डी -: govindgulshan@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। जनाब 'इशरत किरतपुरी' साहब के इन अल्फ़ाज़ के साथ कि " जनाब गोविन्द गुलशन ने मुझे ही नहीं पूरी गाज़ियाबाद की पूरी अदबी बिरादरी को मुताअसिर किया है लेकिन बहैसियत इंसान वो अपने अंदर के शायर से भी ज्यादा बुलंद हैं। मैंने उनसे कभी किसी की शिकायत नहीं सुनी वो बुजुर्गों का बड़ा एहतराम करते हैं , जब भी उन्हें मुफ़्लिसाना मशवरा दिया जाता है वो उसे क़ुबूल कर लेते हैं " मैं आपको उनके कुछ फुटकर शेर पढ़वाता चलता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में ::

उनके शानों से लिपट कर आज आई है हवा
वर्ना पहले तो कभी खुशबू भरी इतनी न थी
***
मुझको मुजरिम तो कर दिया साबित
उसके चेहरे पे इतना डर क्यों है
***
तुम घर की कहानी को दीवार पे मत लिखना
दिल में जो शिकायत हो रुख़सार पे मत लिखना
***
भूख बढ़ती जा रही है आज के इंसान की
क़ीमतें गिरने लगीं हैं दिन ब दिन ईमान की
***
बस यही सोच के पलकें न उठाईं मैंने
ढूंढ लेगा मेरी आँखों में ठिकाना कोई
***
खुली आँखें रखें तो नींद गायब
पलक झपकें तो मंज़र टूटता है
*** 
तुम कैसे सुन लेते हो 
जब मैं हिचकी लेता हूँ

Monday, December 11, 2017

किताबों की दुनिया -155

घर तो हमारा शोलों के नरग़े में आ गया
लेकिन तमाम शहर उजाले में आ गया
नरग़े = घेरे

यह भी रहा है कूच-ए-जानां में अपना रंग
आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया
कूच-ए-जानां=महबूब की गली , दरीचे =खिड़की

कुछ देर तक तो उस से मेरी गुफ़्तगू रही
फिर यह हुआ कि वह मेरे लहजे में आ गया

"आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया " जैसा शायरी का ये बेपनाह हुस्न बरसों ग़ज़ल के पाँव दबाने और उस्तादों की जूतियाँ उठाने के बाद भी किसी किसी को ही मयस्सर होता है। उर्दू शायरी को परवान चढाने में दिल्ली और लखनऊ के बाद रामपुर का नाम आता है। दरअसल दिल्ली और लखनऊ से उजड़े शायर रामपुर में आ बसे और उन्होंने दिल्ली वालों की दिल और लखनऊ वालों की शराब में डूबी ग़ज़ल को मर्दाना लहजे और बांकपन से परिचय करवाया। दाग देहलवी और अमीर मीनाई की ही अगली कड़ी हैं रामपुर के हमारे आज के शायर।

हम तो पैरों में समझते थे मगर
आप के ज़ेहन में कांटे निकले

जितना पथराव अंधेरों का हुआ
मेरे लहजे से उजाले निकले

लोग संजीदा समझते थे जिन्हें
वह भी बच्चों के खिलोने निकले

क्या ज़माना है कि अपने घर से
प्यार को लोग तरसते निकले

15 अप्रेल 1946 को रामपुर के पठान सफ़दर अली खां के यहाँ जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया अज़हर अली खां। बच्चे के वालिद और दादा तो शायरी नहीं करते थे लेकिन परदादा मौलाना नियाज़ अली खां बेहतरीन शायर थे जिनके उस्ताद मौलवी अब्दुल क़ादिर खां रामपुर के बड़े उस्ताद शायर जनाब अमीर मीनाई साहब के शागिर्द थे. बचपन से ही शायरी की और उनका झुकाव शायद अपने परदादा के गुणों का खून में आ जाने की वज़ह हो गया और उन्होंने मात्र 12 साल की उम्र में ही रामपुर के ख्याति नाम शायर जनाब महशर इनायती साहब को अपना उस्ताद मान लिया। उन से बाकायदा तालीम हासिल शुरू कर दी की और अपना नाम भी अज़हर अली खां से 'अज़हर इनायती' रख लिया और अब इसी नाम से विख्यात हैं। आज हम रामपुर रज़ा लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित किताब "अज़हर इनायती और ग़ज़ल " की बात करेंगे।


होती हैं रोज़ रोज़ कहाँ ऐसी बारिशें 
आओ कि सर से पाँव तलक भीग जायें हम 

उकता गया है साथ के इन कहकहों से दिल 
कुछ रोज़ को बिछड़ के अब आंसूं बहायें हम 

कब तक फुजूल लोगों पे हम तजर्बे करें 
काग़ज के ये जहाज़ कहाँ तक उड़ायें हम 

अज़हर साहब ने बी.ऐ. एल.एल. बी. करने के बाद कुछ साल रामपुर में बाकायदा वकालत की लेकिन एक शायर का दिल कानूनी दांवपेच में भला कब तक रमता सो उसे जल्द ही छोड़ छाड़ के पूरी तरह शायरी के समंदर में उतर गए। अज़हर साहब के बारे में जानकारी मुझे सबसे पहले दिल्ली के मेरे मित्र और शायरी के सच्चे दीवाने जनाब प्रमोद कुमार जी से मिली। उनके कहे को मैं कभी हलके में नहीं लेता इसलिए अज़हर साहब को जब मैंने इंटरनेट पे खोजा, पढ़ा और सुना तो लगा कि मैं कितना बदनसीब था जो अब तक इनसे दूर रहा। उनकी ग़ज़लों की किताबों की तलाश शुरू की तो हाथ कुछ लगा ही नहीं क्यूंकि मेरी जहाँ तक जानकारी है ,हिंदी में उनका कलाम शायद अभी तक शाया नहीं हुआ है। अगर हुआ भी है तो मुझे उसका पता नहीं चल पाया है।

ख़बर एक घर के जलने की है लेकिन 
बचा बस्ती में घर कोई नहीं है 

कहीं जाएँ किसी भी वक्त आएँ 
बड़ों का दिल में डर कोई नहीं है 

मुझे खुद टूट कर वो चाहता है 
मेरा इसमें हुनर कोई नहीं है 

अज़हर साहब का कलाम पढ़ने की मेरी हसरत आखिर कार जयपुर के नामवर शायर जनाब 'मनोज कुमार मित्तल 'कैफ़' साहब के घर पर एक मुलाकात के दौरान पूरी हुई जहाँ उनकी अलमारी में ढेरों किताबों में पड़ी ये किताब बिलकुल अलग से नज़र आ रही थी। अपने ढीठ पने का पक्का सबूत देते हुए मैंने ये किताब उनकी अलमारी से उठा ली और घर ले आया। और तब से ये किताब है और मैं हूँ।

कोई मौसम ऐसा आये 
उसको अपने साथ जो लाये 

हाल है दिल का जुगनू जैसा 
जलता जाये , बुझता जाये 

आज भी दिल पर बोझ बहुत है 
आज भी शायद नींद न आये 

बीते लम्हें कुछ ऐसे हैं 
ख़ुशबू जैसे हाथ न आये 

 डा बृजेन्द्र अवस्थी साहब इस किताब की एक भूमिका में लिखते हैं कि " अज़हर ज़िन्दगी को बहुत क़रीब से देखते हैं और उसकी अदाओं और समस्याओं को अपनी ग़ज़ल के दिल में बहुत सरल और अनूठी भाषा के माध्यम से उतार देते हैं। वह सच्चे शायर हैं इसलिए उनकी शायरी दिल-ओ -दिमाग़ पर गहरा असर डालती है और उनके शेरों की छाप देर तक बनी रहती है. उन्होंने अपने अंदाज़ और फूलों जैसे कोमल लहजे से ग़ज़ल को एक नयी दिशा दी है। मशहूर शायर जनाब अहमद नदीम कासमी साहब लिखते हैं कि अज़हर इनायती की ग़ज़ल सहरा में नख्लिस्तान की हैसियत रखती है ,उनका लहजा सरासर जदीद और नया है लेकिन वो अपनी रोशन रिवायत और धरती से पूरी तरह जुड़े हैं।

इस रास्ते में जब कोई साया न पायेगा 
ये आखरी दरख़्त बहुत याद आयेगा 

तख़्लीक़ और शिकस्त का देखेंगे लोग फ़न 
दरिया हुबाब सतह पे जब तक बनायेगा 
तख़्लीक़ और शिकस्त = बनना और मिटना , हुबाब =बुलबुला 

तारीफ़ कर रहा है अभी तक जो आदमी 
उठा तो मेरे ऐब हज़ारों गिनायेगा 

अज़हर इनायती साहब की शायरी समझने के लिए हमें सबसे पहले उन्हें समझना होगा।जिसतरह वो निहायत सलीकेदार और बेहद उम्दा कपडे पहनते हैं ठीक वैसी ही वो शायरी भी करते हैं। अपने बारे में उन्होंने लिखा है कि " मैं ग़ज़ल को टूट कर चाहता हूँ लेकिन अपने अहद, अपनी नस्ल और अपनी ज़िन्दगी की सच्चाइयों को सादा ज़बान और पुर-तासीर लहजे में ढाल कर सच्ची ग़ज़ल की पैकर तराशी की कोशिश करता हूँ। ज़िन्दगी की वादियों में माज़ी के दिलचस्प और यादगार मनाज़िर को हैरत और हसरत से मुड़ कर देखता जरूर हूँ लेकिन रुकने के लिए नहीं उफ़क़ के उस पार रोशनियों की तरफ़ बढ़ने के लिए।"

क्या जाने उन पे कितने गुज़रना हैं हादसे 
शाखों पे खिल रहे हैं जो गुंचे नये नये 

उन आंसुओं को देख के ग़म भी तड़प उठा 
दामन की आरजू में जो पलकों पे रह गये 

सदियों से चल रहा है ये इन्सां इसी तरह 
लेकिन हुनूज़ कम नहीं मंज़िल से फ़ासले 

यूँ तो इस किताब में अज़हर साहब की शान में उनके बहुत से दोस्तों और चाहने वालों ने लिखा है मैं उन सब का जिक्र यहाँ नहीं करूँगा क्यूंकि दोस्त और चाहने वाले अक्सर थोड़ा अतिरेक से काम लेते हैं ( मैं भी लेता हूँ ) लेकिन मेरी नज़र में आज उर्दू के बहुत बड़े स्कॉलर जनाब गोपी चंद नारंग साहब के उनके वास्ते लिखे लफ्ज़ बहुत मानी रखते हैं , वो लिखते हैं कि "अज़हर इनायती अपनी आवाज़, अपनी अदा और अपनी तर्जीहात रखते हैं। हर चंद कि इस ज़माने में जब फ़िज़ा में हर तरह ज़हर है, तहज़ीबी एहसास को आवाज़ देना बक़ौल किसी के "काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाना" है, ताहम शायर को हक़ बात कहना और आवाज़ दिए जाना है। बिलाशुबा अज़हर इनायती बहैसियत एक मुनफ़रिद अदाशनास शायर के हम सब की तवज्जो और मुहब्बत का हक़ रखते हैं।"

लहू जो बह गया वो भी सजा के रखना था 
जो तेग़-ओ-तीर अजायब घरों में रखे हैं 

हमें उड़ान में क्या हो रुतों का अंदेशा 
ज़माने भर के तो मौसम परों में रखे हैं 

हमें जुनून नहीं बाहरी उजालों का 
हमारे चाँद हमारे घरों में रखे हैं 

इस किताब का पहला भाग शायर को समर्पित है जिसमें उनके दोस्तों और चाहने वालों ने उनके बारे में लिखा है इसमें सबसे दिलचस्प लेख उनकी शरीके-हयात मोहतरमा सूफ़िया अज़हर साहिबा का है जिसमें उन्होंने अज़हर साहब की बहुत सी खूबियां गिनायीं है जो बहुत निजी हैं दूसरे भाग में अज़हर साहब की लगभग 175 चुनिंदा ग़ज़लें ,मुक्तलिफ़ अशआर आदि हैं. किताब में उनके बहुत से रंगीन फोटो भी हैं जिनमें वो एवार्ड लेते हुए, मुशायरा पढ़ते हुए और यार दोस्तों के साथ बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में बैठे दिखाई देते हैं। अज़हर इनायती को पूरी तरह से जानने में ये किताब आपकी मदद करती है।

कुछ और तजरबे अपने बढ़ा के देखते हैं 
उसे भी जिल्ल-ऐ-इलाही बना के देखते हैं 

गुलाम अब न हवेली से आएंगे लेकिन 
हुज़ूर आज भी ताली बजा के देखते हैं 

इसी तरह हो मगर हल तो हो मसाइल का
किसी मज़ार पे चादर चढ़ा के देखते हैं 

अमेरिका, क़तर, दुबई, अबूधाबी , शारजाह, मस्क़त, पाकिस्तान आदि देशों में एक बार नहीं अनेकों बार अपनी शायरी से सुनने वालों के दिल में राज करने वाले अज़हर साहब को ढेरों अवार्ड मिले हैं जिनमें पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी के हाथों मिला मौलाना मु. अली जौहर अवार्ड , बंगाल उर्दू अकेडमी अवार्ड , उत्तर प्रदेश उर्दू अकेडमी अवार्ड ,निशान-ऐ-बलदिया अवार्ड कराची, ग़ालिब इंस्टिट्यूट दिल्ली से मिला मेहशर इनायती अवार्ड विशेष हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप रामपुर रज़ा लाइब्रेरी , रामपुर -244901 को लिखें या अज़हर साहब को उनके मोबाईल न. 9412541108 पर बधाई देते हुए संपर्क करें। कुछ भी करें और किताब मंगवाएं क्यूंकि ये किताब आपको निराश नहीं करेगी।
चलते चलते अज़हर साहब की एक नाज़ुक सी ग़ज़ल चंद शेर आपके हवाले कर निकलता हूँ किसी नयी किताब की तलाश में :

 गुड़ियाँ जवान क्या हुई मेरे पड़ौस की 
आँचल में जुगनुओं को छुपाता नहीं कोई 

जब से बता दिया है नजूमी ने मेरा नाम 
अपनी हथेलियों को दिखता नहीं कोई 
नजूमी =ज्योतिषी 

देखा है जब से खुद को मुझे देखते हुए 
आईना सामने से हटाता नहीं कोई 

अज़हर यहाँ है मेरे घर का अकेलापन 
सूरज अगर न हो तो जगाता नहीं कोई

Monday, December 4, 2017

किताबों की दुनिया -154

मौसम है बहारों का मगर खानये दिल में 
सूखे हुए इक पेड़ की तस्वीर लगी है 

अरमाँ का शजर सूख चला ज़र्द हैं पत्ते 
लगता है कि इस पर भी अमर बेल चढ़ी है 

हम शहरे-तमन्ना में उसे ढूंढ रहे हैं 
आहट है कि तन्हाई के ज़ीने पे खड़ी है 

मात्र तीन चार सौ ग़ज़लों की किताबें पढ़ लेने से कोई शायरी का जानकार नहीं बन जाता लेकिन मैं अपने लिए ये यकीन से कह सकता हूँ कि मैंने "आहट है कि तन्हाई के ज़ीने पे खड़ी है " जैसे बेमिसाल मिसरे बहुत ही कम पढ़े हैं। आप हो सकता हैं मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ न रखें लेकिन जो बात मेरे लिए सच है उसे लिखने में गुरेज़ नहीं करूँगा। मेरे ख़्याल से ऐसे मिसरे सोच कर नहीं कहे जा सकते ये सीधे ऊपर से उतरते हैं जिन्हें आमद का मिसरा कहा जा सकता है। ऐसे मिसरे पढ़ने के बाद आप तुरंत आगे नहीं बढ़ सकते। शायरी का सौंदर्य और मिसरे का तिलिस्म आपको ठिठका देता है।

दिल के वीराने में सर सब्ज़ है यादों का शजर 
गर्मियों में भी हरा रहता है पीपल जैसे 

याद इक बीते हुए लम्हें की यूँ आज आई 
संग को तोड़ के फूटे कोई कोपल जैसे 
संग =पत्थर

जिस्म का अब मेरी साँसों से तअल्लुक़ ये है 
डाल कर काँटों पे खींचे कोई आँचल जैसे 

एक एक शेर एक एक मिसरा पढ़ कर आप रुकते हैं सोचते हैं दाद देते हैं फिर से उसे पढ़ते हैं फिर से दाद देते हैं और फिर बामुश्किल आगे बढ़ते हैं और अगला शेर पढ़ कर बेसाख़्ता कह उठते हैं अरे वाह सुभानअल्लाह !!! ऐसा मेरे साथ हुआ जब मैंने हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में शायरा "मलका नसीम" की हिंदी में पहली बार शाया हुई किताब " शहर काग़ज़ का " को पढ़ा। आज हम उसी किताब की बात आपसे करेंगे जिसे मुझे मेरे छोटे भाई समान बेहतरीन शायर जनाब "अखिलेश तिवारी " जी ने ये कहते हुए दी कि भाई साहब अगर आपने मलका नसीम जी को नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा।


हमारी आँख में यूँ इंतज़ार रोशन है 
नदी में जैसे कई दीप झिलमिलाते हैं 

तेरे बग़ैर कुछ ऐसे बिखर गयी हूँ मैं 
कि जैसे साज़ के सब तार टूट जाते हैं 

धुंधलका शाम का छाने लगा है सोचती हूँ मैं
कि इस समय तो परिंद भी लौट आते हैं 

ये ज़िन्दगी वो कड़ी धूप है 'नसीम' जहाँ 
न जाने कितने हरे पेड़ सूख जाते हैं 

इलाहाबाद के संपन्न सैय्यद घराने में 1 जनवरी 1954 को जन्मी मलका नसीम को पढ़ने का बचपन से ही बेहद शौक था। एक टीवी इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया कि अगर उन्हें बाजार से कुछ सामान लाने भेजा जाता तो वो उस कागज़ को जिसमें सामान लिपटा होता था रास्ते भर पढ़ती आतीं और पढ़ते हुए इतना खो जातीं की उसमें लिपटा सामान कब कहाँ गिर गया उन्हें पता ही नहीं चलता था। लगभग 15-16 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल कही और उस वक्त के मशहूर और मयारी रिसाले "बीसवीं सदी " में बिना किसी को घर में बताये छपने को भेज दी। वो ग़ज़ल छप गयी और उस रिसाले की कॉपी घर पर आ गयी। मलका जी को ग़ज़ल छपने की ख़ुशी तो हुई ही साथ में और आगे लिखना जारी रखने का हौसला भी मिला। घर का माहौल यूँ तो अदबी था लेकिन थोड़ा रूढ़िवादी भी था याने लड़कियों का ग़ज़ल कहना, घर के बाहर मुशायरों या नशिस्तों आदि में सुनाना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन मलका जी ने लिखना जारी रखा।

पत्ते तो वो भी थे जो गिरे हैं बहार में
इल्ज़ाम मौसमों के हवाओं के सर गए

जैसे थका परिंद ठहर जाए शाख़ पर 
इस तरह अश्क-ए-ग़म सरे मिज़गाँ ठहर गए
मिज़गाँ =पलकें 

आँखों ने तीरगी में बड़ा काम कर दिया 
ग़म की अँधेरी रात में जुगनू बिखर गए 

मुअज़्ज़म अली साहब ने जो खुद उर्दू ज़बान और अदब के दीवाने हैं, एक सच्चे जीवन साथी की तरह मलका जी के हुनर को न सिर्फ पहचाना बल्कि उसे और भी निखारने में भरपूर मदद की। मलका जी ने शादी के बाद उर्दू में एम.ऐ. किया, वो हँसते हुए एक इंटव्यू में कहती भी हैं कि मेरी उर्दू मेरे मियां से अच्छी है। मुअज़्ज़म अली साहब, जिन्होंने राजस्थान उर्दू अकेडमी के सचिव पद पर रहते हुए उर्दू अदब की जिस तरह से ख़िदमत की है और कर रहे हैं उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है, ने मलका जी को उड़ने के लिए न सिर्फ पर दिए बल्कि फ़लक नापने का हौसला भी दिया।

सुलगती शाम की दहलीज़ पर जलता दिया रखना 
हमारी याद का ख्वाबों से अपने सिलसिला रखना 

सदा बन कर, घटा बन कर,फ़ज़ा बन कर, सबा बन कर 
न जाने कब मैं आ जाऊँ दरीचा तुम खुला रखना 

न पढ़ लें कोई तहरीरें तुम्हारे ज़र्द चेहरे की 
दरो दीवार घर के शोख़ रंगों से सजा रखना 

जो बहनें मुफ़लिसी से भाइयों पर बोझ बनती हैं 
वो मर जाएँ तो उनके हाथ में शाख़े हिना रखना 

औरत के दर्द को जिस शिद्दत से एक औरत बयां कर सकती है वैसे किसी पुरुष के लिए करना लगभग नामुमकिन सा काम है। मलका जी जब अपने अशआर में औरत का दर्द बयाँ करती हैं तो आप उस दर्द को दुःख को तकलीफ़ को मज़बूरी को धड़कते लफ़्ज़ों से महसूस कर सकते हैं। उन्होंने अपने कलाम से न केवल उर्दू अदब को मालामाल किया है बल्कि जयपुर शहर का नाम भी पूरी दुनिया में रोशन किया है। उज्जैन में अपना पहला मुशायरा सं 1981 में पढ़ने वाली मलका नसीम साहिबा आज तमाम भारत और दुनिया के उन शहरों में जहां उर्दू के दीवाने रहते हैं , में बड़े अदब और अहतराम के साथ मुशायरे में अपना कलाम पढ़ने को बुलाई जाती हैं। उनकी मौज़ूदगी किसी भी मुशायरे की कामयाबी मानी जाती है।

अहले दानिश को इसी बात की हैरानी है 
शहर कागज़ का है शोलों की निगहबानी है 
अहले दानिश : अकलमंद 

इस तरह घेर लिया मुझको ग़मों ने जैसे 
मैं जज़ीरा हूँ मेरे चारों तरफ़ पानी है 

अब किसी और को देखूं भी तो कैसे देखूं 
तेरे ख्वाबों की इन आँखों पे निगहबानी है 

यूँ तो मलका साहिबा ने 26 जनवरी और 15 अगस्त को होने वाले देश के मशहूर लाल किले के मुशायरों में लगातार शिरकत की है लेकिन वो "डी.सी.एम द्वारा आयोजित मुशायरों को इन सब से श्रेष्ठ मानती हैं। पुराने लोग जानते हैं कि डी.सी.एम. मुशायरों में शिरकत करने में शायर अपनी शान समझता था क्यूंकि उस मंच से हलकी फुलकी शायरी कभी नहीं पढ़ी गयी। बहुत पुरानी बात है कि जब मलका साहिबा को पहली बार डी सी एम वालों ने मुशायरे में शिरकत का न्योता भेजा तो लोग विश्वास ही नहीं कर पाए कि जयपुर की एक शायरा इस मुकाम पर भी पहुँच सकती है लेकिन उन्होंने न केवल धमाकेदार शिरकत की बल्कि बाद में मुशायरों में वो मुकाम हासिल किया जिसका ख़्वाब हर शायर देखता है।

ये कौन आया रिदा खुशबुओं की ओढ़े हुए 
मैं जश्ने हिज़्र मनाऊं कि वस्ले यार करूँ
रिदा :कम्बल ,चादर ,हिज़्र :जुदाई

लिए हुए हूँ मैं कश्कोल खाली हाथों में 
अमीरे शहर का अब कितना इंतज़ार करूँ 

जो मुन्तज़िर है किसी और का वो चाहता है 
तमाम उम्र उसी का मैं इंतिज़ार करूँ 

जनाबे फ़ैज़ से सीखा है ये हुनर हमने 
ख़िज़ाँ की रुत में भी गुलशन का कारोबार करूँ 

मलका साहिबा को राजस्थान और उत्तर प्रदेश की उर्दू अकादमियों ने पुरुस्कृत किया है। 3 फरवरी 2017 को मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की तरफ से उन्हें रविंद्र भवन भोपाल में हुए शानदार समारोह में जावेद अख्तर साहब ने सन 2015-16 के लिए प्रसिद्ध "हामिद सय्यद खां " पुरूस्कार से नवाज़ा। उनकी शायरी के बारे में उर्दू अदब के मशहूर लेखक जनाब "अली सरदार जाफरी "साहब ने इस किताब की भूमिका में जो लिखा है उसके बाद और कुछ लिखने को नहीं रह जाता ,वो लिखते हैं कि "मलका नसीम की शायरी में निसवानी लताफत है इंसानी मसाईल का विक़ार -इसके एहसास में शिद्दत है और बयान में सादगी है। तशबीहात तरोताज़ा हैं जिनमें क्लासिक रख-रखाओं के साथ रोज़मर्रा की घरेलू ज़िन्दगी की आंच है। पूरी शायरी पर कुछ खूबसूरत यादों की धनक साया फ़िगन है और शाम की परछाइयाँ एक रोमानी कैफियत पैदा कर रही है। "

पलकें हर शाम सितारों से सजाया न करो 
अपनी आँखों को हंसी ख़्वाब दिखाया न करो

सुब्हा तक साथ न देगी शबे तनहाई में 
शम्मे उम्मीद सरे शाम जलाया न करो 

झिलमिलाती हुई आँखों में गुहर ठहरे हैं 
ये बिखर जायेँगे पलकों को झुकाया न करो 

पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से उर्दू अदब की खिदमद कर रही मलका साहिबा की अब तक आधा दर्ज़न किताबें मन्ज़रे आम पर आ चुकी हैं। "शहर काग़ज़ का" जैसा मैंने पहले बताया उनकी हिंदी में शाया होने वाली पहली किताब है जिसमें उनकी बेहतरीन ग़ज़लें और नज़्में संकलित हैं। इस किताब का इज़रा याने विमोचन 21 फरवरी 2016 को जयपुर में पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब " अब्बास ताबिश " साहब की मौजूदगी में हुआ था। इस किताब को लिटरेरी सर्किल जयपुर ने "जवाहर कला केंद्र जयपुर " की पुस्तक प्रकाशन योजना के अंतर्गत प्रकाशित किया है. किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछने के लिए आप जनाब मोअज़्ज़म अली साहब को उनके मोबाईल न 9828016152 पर संपर्क कर सकते हैं। रिवायती शायरी के प्रेमियों के पास ऐसी लाजवाब और मयारी शायरी की दिलकश किताब जरूर होनी चाहिए। अभी तो मैंने मलका साहिबा की नज़्मों की बात आपसे नहीं की क्यूंकि उसके लिए एक अलहदा पोस्ट चाहिए। उनकी नज़्में बेहतरीन हैं और पाठक को बार बार पढ़ने को मज़बूर करती हैं उनके विषयों का विस्तार भी बहुत अधिक है।

शब की तन्हाई मुझसे कहती है 
मेरे शानों पे अपना सर रख दे 

रौशनी क़र्ज़ माँगता है क्यों 
उठ अँधेरा निचोड़ कर रख दे

ख़्वाब की आरज़ू से बेहतर है 
रात की गोद में सहर रख दे 

वो जो परदेश जा रहा है 'नसीम' 
उसकी आँखों में अपना घर रख दे 

अपनी शायरी ही की तरह सीधी, सरल, सलीकेदार, नफ़ासत पसंद, संवेदनशील, पुर ख़ुलूस 'मलका नसीम' साहिबा की शायरी पर जितना लिखा जाय कम ही होगा। उनकी किताब की हर ग़ज़ल यहाँ पेश करने लायक है लेकिन मैं ऐसा कर नहीं सकता , ये काम आपको किताब मंगवा कर खुद ही करना होगा। अभी तो मेरी गुज़ारिश है आप मलका साहिबा को इस बाकमाल शायरी के लिए उनके मोबाईल न. 8290303163 पर बात कर भरपूर दाद दें।
आपके लिए अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले मैं उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पेश करता हूँ ,पढ़िए और उन्हें दुआएं दीजिये :

 उसे देखा नहीं सोचा बहुत है 
तसव्वुर में सही चाहा बहुत है 

मुझे छूकर जो पत्थर कर गया था 
वो इस एहसास से पिघला बहुत है 

झुका है जो दरे इन्सानियत पर 
ज़माने में वो सर ऊंचा बहुत है 

तबस्सुम तो लबों तक आ न पाया 
ये काजल आँख में फैला बहुत है