इंसान में हैवान , यहाँ भी है वहां भी
अल्लाह निगहबान, यहाँ भी है वहां भी
रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान , यहाँ भी है वहां भी
हिन्दू भी मज़े में हैं, मुसलमां भी मज़े में
इन्सान परेशान , यहाँ भी है वहां भी
अपने और सरहद पार के मुल्क में जो समानता है उसको हमारी "किताबों की दुनिया " के 100 वें शायर के अलावा शायद ही किसी और शायर ने इतनी ख़ूबसूरती और बेबाकी से पेश किया हो। सुधि पाठक इस बात से चौंक सकते हैं कि जब ये इस श्रृंखला की 101 वीं कड़ी है तो फिर शायर 100 वें कैसे हुए ? सीधी सी बात है हमने ही तुफैल में या समझें जानबूझ कर हमारे शहर और बचपन के साथी राजेश रेड्डी का जिक्र दो बार कर दिया था जो इस श्रृंखला की अघोषित नीति के अनुसार गलत बात थी। अब जो हो गया सो हो गया, उस बात को छोड़ें और जिक्र करें हमारे आज के शायर का जो इस दौर के सबसे ज्यादा पढ़े और सुने जाने वाले शायरों में से एक हैं।
शायर का नाम बताने से पहले पढ़िए उनकी ये रचना जिसे पढ़ कर मुझे यकीन है आप फ़ौरन जान जायेंगे कि मैं आज किस शायर की किताब का जिक्र करने वाला हूँ :-
बेसन की सौंधी रोटी पर ,खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन, चिमटा, फुकनी -जैसी माँ
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी - जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गयी
फ़टे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की - जैसी माँ
"
निदा फ़ाज़ली " - एक दम सही जवाब और किताब है साहित्य अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित "
खोया हुआ सा कुछ ". ग़ज़ल हो या नज़्म,गीत हो या दोहे हर विधा में रचनाकार निदा फ़ाज़ली अपनी सोच,शिल्प, और अंदाज़े बयां में दूसरों से अलग ही दिखाई नहीं देते , पूरी उर्दू शायरी में अकेले नज़र आते हैं। इस किताब की अधिकतर रचनाओं मसलन " कहीं कहीं पे हर चेहरा तुम जैसा लगता है ", "ग़रज़-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला" ,"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं" ,"धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो", "मुंह की बात सुने हर कोई", आदि को जगजीत सिंह जी ने अपने स्वर में ढाल कर हर खास-ओ-आम तक पहुंचा दिया है इसीलिए हम आज उनकी उन ग़ज़लों का जिक्र करेंगे जो इनसब से अलग हैं :
निकल आते हैं आंसू हँसते - हँसते
ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में
गुज़र जाती है यूँ ही उम्र सारी
किसी को ढूंढते हैं हम किसी में
सुलगती रेत में पानी कहाँ था
कोई बादल छुपा था तिश्नगी में
बहुत मुश्किल है बंजारा मिज़ाजी
सलीका चाहिए आवारगी में
आधुनिक शायर निदा फ़ाज़ली साहब की आधुनिकता उनके पाठकों और श्रोताओं से कभी दूर नहीं होती। निदा जी की पहचान उनकी सरल सहज ज़मीनी भाषा है जिसमें हिंदी उर्दू का फर्क समाप्त हो जाता है और यही उनकी लोकप्रियता का राज़ भी है ।
उठके कपडे बदल , घर से बाहर निकल , जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन , आज के बाद कल , जो हुआ सो हुआ
जब तलक सांस है, भूख है प्यास है , ये ही इतिहास है
रख के काँधे पे हल , खेत की और चल , जो हुआ सो हुआ
मंदिरों में भजन, मस्जिदों में अजां , आदमी है कहाँ
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल, जो हुआ सो हुआ
किताब के रैपर पर सही लिखा है कि ' निदा फ़ाज़ली की शायरी एक कोलाज़ के सामान है। इसके कई रंग और रूप हैं। किसी एक रुख से इसकी शिनाख्त मुमकिन नहीं। उन्होंने ज़िन्दगी के साथ कई दिशाओं में सफर किया है उनकी शायरी इस सफर की दास्तान है। जिसमें कहीं धूप कहीं छाँव है कहीं शहर कहीं गाँव है। '
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमअ जलाने से रही
फासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही
शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हंसने हंसाने से रही
12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में जन्में निदा की स्कूली शिक्षा ग्वालियर में हुई। 1947 के भारत पाक विभाजन में उनके माता पिता पाकिस्तान चले गए जबकि निदा भारत में रहे। बचपन में एक मंदिर के पास से गुज़रते हुए उन्होंने सूरदास का भजन किसी को गाते हुए सुना और उससे प्रभावित हो कर वो भी कवितायेँ लिखने लगे। रोजी रोटी की तलाश उन्हें 1964 में मुंबई खींच लायी जहाँ वो धर्मयुग और ब्लिट्ज के लिए नियमित रूप से लिखने लगे।
हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए
घर से बाहर की फ़िज़ा हंसने हंसाने के लिए
मेज़ पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए
तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए
मुंबई की फ़िल्मी दुनिया ने भी उनकी लेखन प्रतिभा को पहचाना और उन्हें फिल्मों में गीत और स्क्रिप्ट लेखन का मौका दिया। फिल्म 'रज़िया सुलतान' के लिए लिखे उनके गानों ने धूम मचा दी। फ़िल्मी गीत लिखने में स्क्रिप्ट और मूड की बाध्यता उन्हें रास नहीं आई। वो लेखन को भी चित्रकारी और संगीत की तरह सीमा में बंधी हुई विधा नहीं मानते। इसी कारण उनका फ़िल्मी दुनिया से नाता सतही तौर पर ही रहा।
याद आता है सुना था पहले
कोई अपना भी खुदा था पहले
जिस्म बनने में उसे देर लगी
इक उजाला सा हुआ था पहले
अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले
निदा साहब की हिंदी उर्दू
गुजराती में लगभग 24 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।"खोया हुआ सा कुछ" देवनागरी में उनके "मोर नाच" के बाद दूसरा संकलन है जिसे "वाणी प्रकाशन " दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस संकलन में निदा साहब की चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा उनकी नज़्में और दोहे भी शामिल हैं।
निदा साहब को सन 1998 में साहित्य अकादमी और 2013 पद्म श्री के पुरूस्कार से नवाज़ा गया है। इसके अलावा भी खुसरो पुरूस्कार ( म,प्र ), मारवाड़ कला संगम (जोधपुर), पंजाब असोसिएशन (लुधियाना), कला संगम (मद्रास ), हिंदी -उर्दू संगम ( लखनऊ ), उर्दू अकेडमी (महाराष्ट्र), उर्दू अकेडमी ( बिहार) और उर्दू अकेडमी (उ.प्र ) से भी सम्मानित किया जा चुका है.
चलिए चलते चलते उनके उन दोहों का आनंद भी ले लिया जाय जिन्हें जगजीत सिंह जी ने नहीं गाया है और उनकी बहुमुखी प्रतिभा को सलाम करते हुए अगले शायर की तलाश पर निकला जाए।
जीवन भर भटका किये , खुली न मन की गाॅंठ
उसका रास्ता छोड़ कर , देखी उसकी बाट
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बरखा सब को दान दे , जिसकी जितनी प्यास
मोती सी ये सीप में, माटी में ये घास
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रस्ते को भी दोष दे, आँखे भी कर लाल
चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल
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मैं क्या जानू तू बता तू है मेरा कौन
मेरे मन की बात को, बोले तेरा मौन