Monday, December 27, 2010

पहुँच गए चीन...समझ गए ना - 3


गुप्ता जी आज सुबह से ही बहुत खुश थे. इसका कारण जानने के लिए ज्ञान के सागर में डुबकी लगाने की जरूरत नहीं है. जब कारण सतह पर ही तैर रहा हो तो उसके लिए डुबकी लगाना अकलमंदी नहीं होगी. गुप्ता जी दो कारणों से खुश थे पहला और अहम कारण था चार दिनों के इन्तेज़ार के बाद इसबगोल की भूसी, जो वो विशेष तौर पर भारत से ले कर आये थे और जिसका सेवन वो रोज नित्यकर्म से पूर्व किया करते थे, का अब जाकर असर होना और दूसरा चीन से घर जाने के समय का पास आना.

हर चीज़ जो शुरू होती है वो खतम भी होती है फिर चाहे वो चीन यात्रा ही क्यूँ न हो. विदेश में चार पांच दिनों के बाद देश की याद बहुत जोर से आने लगती है. अपना देश अपना देश ही होता है. न अपने जैसा खाना न अपनी भाषा और न अपने दोस्त नाते रिश्तेदार. विदेश में हमें लाख सुविधाएँ मिलें लेकिन दिल घर वापसी के लिए धड़कता ही है. देश के बाहर रहने वाले लोग बाहर से भले ही बहुत खुश और संपन्न लगें लेकिन अंदर से वो अपने को बहुत अकेला और खोखला महसूस करते हैं. ये बात मैं अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मिले अनेक भारतियों से की गयी बातचीत के आधार पर कह रहा हूँ लेकिन मेरी ये बात सबके लिए सच हो ये दावा नहीं करता.

शंघाई से हम लोग चेंदू शहर गए जो लकड़ी के फर्नीचर के लिए सारे चीन में मशहूर है. दो दिन वहाँ रुकने के बाद चीन में हमारे अंतिम पड़ाव नानजिंग शहर पहुंचे . हमारे एक चीनी मित्र ची तुंग हमारी प्रतीक्षा में खड़े मिले. नानजिंग चीन के मुख्य शहरों में से एक है और बहुत ख़ूबसूरती से बसाया गया है. नानजिंग पहुँच कर सबसे पहले हमने अपनी ग्रुप फोटो खिंचवाई


होटल जाने के रास्ते भर हम नानजिंग शहर की ख़ूबसूरती निहारते रहे. गुप्ता जी अपना “ओ शिट” भूल चुके थे और चहक रहे थे.
“देखो सर जी ये शहर तो वाकई में बहुत खूबसूरत हैगा, सड़कें कितनी चौड़ी हैंगी, लोग कितने कम हैंगे. चीन की जनसख्या अपने से ज्यादा हैगी जे मानने को दिल नहीं करता हैगा” सिंह साहब को गुप्ताजी की बातें पसंद नहीं आतीं लेकिन गुप्ता जी की इस बार बात सच्ची थी इसलिए अपना “छड्डो जी” वाला अमोघ अस्त्र छह कर भी नहीं चला पाए.


होटल पहुंचे जिसके बाहर एक विशाल काय शेर नुमा पत्थर की प्रतिमा राखी हुई थी. गुप्ता जी सब कुछ भूल कर उसे गौर से निहारने लगे और फिर ची की और मुखातिब हुए:
“ये क्या हैगा?”
“ये ड्रैगन है”
“ड्रैगन ? माने क्या हैगा?”
“ड्रैगन एक पवित्र जीव है जिसकी प्रतिमा बना कर उसे हर आफिस होटल घर आदि के बाहर रखा जाता है”
“किसलिए रखते हैंगे ?”
“वो इसलिए ताकि बुरी आत्माएं अंदर प्रवेश न कर पायें”
“याने अब सिंह साहब होटल में प्रवेश नहीं कर पायेंगे”
“ओ छड्डो जी”


जरूरी नहीं के ड्रेगन की प्रतिमाएं एक जैसी हों बल्कि ड्रेगन दूसरी मुद्रा में भी बैठे दिखाए दे जाते हैं. लेकिन ये पाषाण प्रतिमाएं मूर्ती कला का शानदार नमूना होती हैं. ड्रेगन की अदा और उस पर की गयी चित्रकारी हतप्रभ कर देती है.ये ड्रेगन डरावने जरूर हैं लेकिन अगर प्यार से काम लें तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते ये ही बात गुप्ता जी को बताने के लिए हमें एक ऐसे ही एक ड्रेगन के मुंह में अपना हाथ डाल कर दिखाना पड़ा.


नानजिंग के जिस होटल में हम ठहरे वो था तो बहुत शानदार लेकिन वहाँ एक ही दिक्कत थी वो ये के कोई भी अंग्रेजी नहीं समझता था सिवा रिशेप्शन पर बैठे एक आध लड़के लड़कियों के.ये समस्या हमें पूरी यात्रा के दौरान परेशान करती रही. मेरी तो आपको ये सलाह रहेगी कि अगर आपके साथ कोई स्थानीय भाषा बोलने वाला नहीं है तो बेहतर है आप चीन न जाएँ वर्ना आप दुखी हो जायेंगे . मुझे ये बात समझ नहीं आई के इतनी तरक्की करने के बावजूद भी वहाँ के लोगों में दूसरी दुनिया के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आवश्यक अंग्रेजी भाषा के प्रति इतनी बेरुखी क्यूँ है. वैसे चीनी और भारतीय लोगों में मुझे बहुत समानता दिखाई दी जैसे लोगों का आपसी प्रेम, बुजुर्गों के प्रति श्रधा. युवाओं का बड़ों के प्रति आदर भाव आदि जबकि ये बात मुझे अमेरिका और यूरोप में नहीं दिखाई दी.चीनी लोग बहुत सहज हैं और जल्दी ही आपके दोस्त बन जाते हैं जबकि यूरोप के लोग घमंडी होते हैं और भारतियों के प्रति उनका रवैय्या भी रुखा होता है.

नानजिंग के जिस होटल में हम ठहरे वो बाहर से ऐसा दिखाई देता था:


अंदर से भी होटल की छवि देखें, खास तौर पर कोने में ऊपर जाती सीडियां देखें वहाँ ऊपर एक रेस्टोरेंट था.दूसरे दिन शाम होटल के उसी रेस्टोरेंट में कोई शादी की पार्टी थी. नव-दंपत्ति सारा समय आगुन्तकों के स्वागत के लिए सीडियों पर खड़े रहे और जैसे ही कोई बुजुर्ग महिला या पुरुष आता वो फ़ौरन सीढियां उतर कर उसका स्वागत करते और उनके हाथ पकड़ कर ऊपर छोड़ कर आते. बुजुर्ग स्नेह वश उनके सर पर हाथ फेरते, ठीक भारतीय परम्परा की तरह. मुझे ये देख बहुत अच्छा लगा.


होटल से चंद क़दमों की दूरी पर एक बाजार था जिसमें किसी भी प्रकार के वाहनों का आवागमन बंद था. लोग पैदल ही शाम और रात वहाँ घुमते नज़र आते थे. वहाँ भी कुछ होटल, दुकाने और रेस्टोरेंट थे जिनमें एक भारतीय रेस्टोरेंट भी था जिसकी वजह से हम रोज रात दो दिन तक भारतीय भोजन का आनंद उठाते रहे. सबसे पहले देखिये उस पैदल बाज़ार के आरम्भ में बनाये गए होटल का चित्र:


उसके बाद इस बाजार को प्रदर्शित करता हुआ एक चित्र:


और अंत में भारतीय रेस्टोरेंट का बोर्ड जिसने हर शाम सारे दिन थक हार कर वापस लौटने पर हमारे पेट भरने में पूरी सहायता की. इस रेस्तरां के मालिक दिल्ली के साहनी साहब हैं. बड़े प्यार से वो हमें अपने
रेस्तरां की डिशेज तारीफ़ कर कर के खिलाते. गुप्ता जी और सिंह साहब की वहाँ जाते ही बांछे खिल जातीं दोनों भाव विभोर हो जाते. मन की खुशी बातों में झलकती


गुप्ता: सर चीनी चाहे हम से आगे चले गए हैंगे लेकिन मेरे हिसाब से वो अभी भी बहुत पीछे हैंगे.
मैं: कैसे गुप्ता जी ?
गुप्ता : सर चौड़ी चौड़ी सड़कें बना लेना तेज गति की ट्रेन चला लेना बड़ी बात हैगी लेकिन उस से बड़ी बात हैगी खड्डे वाली सड़कों या मुंबई की धक्कम धक्के वाली ट्रेन में यात्रा करते वक्त भी मुस्कुराते रहना और गीत गाते रहना.
ये बहुत जंगली लोग हैंगे इसलिए जिंदा बन्दर की खोपड़ी खोल कर उसका भेजा नमक डाल कर खाते हैंगे हमारी तरह मक्की की रोटी ढेर सा मक्खन डले हुए सरसों के साग के संग नहीं खाते हैंगे. इनको टिड्डों के सूप के स्वाद का ही पता हैगा गाज़र के हलवे के स्वाद के बारे ये नहीं जानते हैगे.
सिंह: सही कहा तूने गुप्ते “ जो खाते हैं डडडू ( मेंडक) क्या जाने वो लड्डू?”


गुप्ता जी ने अचानक हमसे इक बात पूछी बोले “ सर जिस तरह हम लोग चायनीज खाने के शौकीन हैंगे वैसे ये चीनी भारतीय खाने के शौकीन क्यूँ नहीं हैंगे? आपने देखा होगा अपने देश के हर नुक्कड़ पर आपको चायनीज फ़ूड के रेस्टोरेंट मिल जायेंगे और तो और अब तो आम भारतियों के घरों में भी चायनीज खाना बनता हैगा लेकिन आप किसी चीनी से पूछो के भाई तेरे घर क्या माँ दी दाल बनती है ? या तूने कभी कढ़ी खाई है ?भरवां भिन्डी या करेले की सब्जी के चटखारे लिए हैं ? और तो और आलू के परोंढे दही के संग खाए हैंगे तो वो मुंडी हिला के ना में जवाब देगा, शर्त लगा लो.”
गुप्ता जी की बात में दम है. हम उनकी इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाए,आपके पास अगर जवाब है तो टिपण्णी में जरूर बताएं ताकि गुप्ता जी को संतुष्ट किया जा सके.

आखिर वो दिन आ ही गया जब हम नानजिंग से हांगकांग के लिए उड़ गए. हांगकांग से दो घंटे बाद हम लोगों की फ्लाईट बैंकोक होते हुए मुंबई के लिए थी. हांगकांग एयरपोर्ट पर घर लौटने की खुशी मानो छुप ही नहीं रही है:


विमान में जितने चीनी या विदेशी हांगकांग से हमारे साथ बैठे थे वो सब बैंकोक में उतर गए और वहाँ से बहुत से भारतीय दल बल सहित चढ़ गए. अधिकांश लोग किसी ट्रेवल एजेंसी द्वारा आयोजित टूर के सदस्य थे इसलिए वो बिना सीट नंबर देखे अपने अपने इष्ट मित्रों या परिवार जन के पास जा कर बैठ गए. एयर होस्टेस पहले तो सबको अपनी अपनी सीट पर बैठने का आग्रह करती रही लेकिन जब किसी पर कोई असर होता दिखाई नहीं दिया तो खुद एक कोने में जा कर चुप चाप बैठ गयी.

रात का एक बजा तो विमान बैंकोक से उड़ा और उसके आधे घंटे बाद खाने पीने का अखिल भारतीय आयोजन शुरू हो गया जो तीन बजे सुबह तक निर्बाध गति से चलता रहा.

कन्वेयर पर हमारे और दूसरे लोगों के सामान के साथ साथ लगभग तीस चालीस फ़्लैट टी.वी भी थे जो बैंकोक के मुसाफिर अपने साथ लाये थे.तभी कस्टम के दो अधिकारी वहाँ आये और बोले के जिनके साथ टी.वी है वो लोग अलग से खड़े हो जाएँ उनकी जांच होगी.हर टीवी पर कस्टम ड्यूटी लगेगी जो छै से दस बारह हज़ार के बीच टी.वी.के साइज़ के हिसाब से होगी. लोगों में घबराहट फ़ैल गयी तभी टूर आपरेटर का एक बन्दा आया और उसने सबको कहा " टेंशन लेने का नहीं, ये तो रोज का नाटक है रे बाप..., डरने का नहीं, अपुन है ना रे...अपुन सब सेट कर दिया ऐ, क्या? बत्तीस इंच टी.वी.का दो हज़ार और चालीस इंची का पांच हज़ार कस्टम वाले कू देने का और ग्रीन चेनल से मस्त निकलने का, समझे क्या? अभी टाइम खोटी मत करो खीसे में हाथ डालो और पैसा निकालो जल्दी चलो " वहीं उसने सबसे पैसे लिए एक पोटली बनाई और गायब हो गया. बाद में मैंने देखा सब लोग हँसते हुए कस्टम वालों से बतियाते हुए अपने अपने टी.वी ट्राली पर रख कर ग्रीन चेनल से बाहर निकलने लगे.

हम लोग जब बाहर आये तो सुबह के सात बज रहे थे, याने प्लेन आने के तीन घंटे बाद हम लोग बाहर आये. फर्श पर हर जगह बिकती सब्जियों के ढेर, भिनभिनाती मख्खियों, पेड़ों पर फडफडाते पक्षियों, बेवजह इधर उधर मुंह मारते कुत्तों और एक दूसरे को धक्के देते इंसानों के शोर के बावजूद हमें अपने वतन आ कर बहुत अच्छा लगा.

Monday, December 20, 2010

पहुँच गए चीन...समझ गए ना - 2

जगह : शंघाई का आरामदार होटल
समय : सुबह के छै बजे हैं
समस्या: फोन पर अलार्म की घंटी बज रही है अब तो उठना पड़ेगा. शरीर कह रहा है यार रेस्ट करने दे लेकिन दिमाग कहता है प्यारे रेस्ट किया तो साढ़े आठ बजे की ट्रेन जिस से “यीवू” जाना है छूट जायेगी. आखिर शरीर ने हार मान ली और दिमाग जीत गया.
अगला कदम: अपने साथ के दोनों अधिकारियों को उठाना जो ये जिम्मेवारी रात में मुझ पर डाल कर दूसरे कमरे में सोने चले गए थे. उनके कमरे में फोन किया घंटी बजी उधर से सिंह साहब की भारी सी आवाज़ आई
सिंह: हेल्लो...
मैं: गुड मार्निंग हो गयी है सिंह साहब अब आप उठ जाओ और गुप्ता जी (दूसरे अधिकारी) को भी जगा दो.
सिंह: गुड मार्निंग सर...सर चीन में सुबह जल्दी नहीं हो गयी ? हैं? ईस्ट में येही स्यापा है..सुबह जल्दी हो जाती है...अभी अभी तो सोये थे सर...खैर...ओऐ गुप्ते उठ जा यार सर का फोन आ गया है, सुबह हो गयी है
गुप्ता : ओह शिट

जगह: टैक्सी की पिछली सीट
समय : सुबह के सात बजे हैं
समस्या:
गुप्ता जी जो आगे बैठे हैं के खर्राटों से ड्राइवर और सिंह साहब जो पीछे बैठे हैं के खर्राटों से मैं, परेशान हो रहे हैं.
मैं: सिंह साहब जागो भाई बाहर देखो शंघाई शहर और इसकी बिल्डिगें...कितनी सुन्दर हैं...
सिंह: (बिना आँखें खोलें) ओ छड्डो जी हमने कौनसा यहाँ रहना है...
मैं : फिर भी देख लो...इण्डिया जा कर क्या बताओगे शंघाई के बारे में...
सिंह: (आँखें बंद किये हुए) ओ छड्डो जी इण्डिया में किसे फुर्सत है शंघाई के बारे में जानने की...लोग अपने बारे में जान लें ये ही बहुत है ( सिंह साहब आँख बंद कर के जो भी बात करते हैं बहुत काम की करते हैं)
मैं अपने मोबाइल से रास्ते की फोटो खींचने लगा ताकि अगर कोई इण्डिया वापस जाने पर पूछे की शंघाई कैसा है तो कमसे कम बता तो सकूँ के ऐसा है.

जगह: उसी टैक्सी की पिछली सीट
समय: सुबह के पौने आठ बजे हैं

समस्या : सिंह साहब करवट लेना चाहते हैं लेकिन जगह की कमी से कसमसा रहे हैं. गर्दन बार बार लटक रही है. गुप्ता जी खिडकी से सर टिका कर जिस आराम से सो रहे हैं वो आराम सिंह साहब को नहीं मिल रहा.
परेशानी के आलम में उठ जाते हैं. आँखें मलते हैं और जोर की उबासी लेते हुए कहते हैं
सिंह: हम कहाँ हैं सर?
मैं : सड़क पर
गुप्ता: (झटका खा कर उठते हुए) ओ शिट
सिंह: ओ छड्डो गुप्ता जी क्या शिट शिट लगा रखी है सुबह सुबह. सर मेरी यीवू जाने की बड़ी तमन्ना थी, सभी कहते थे अगर चीन जाओ तो यीवू जरूर जाना. सर हिन्दुस्तान का शायद ही कोई व्यापारी हो जो यीवू के नाम से परिचित न हो.
मैं: क्यूँ?
सिंह: क्यूँ की सर वो चीन में घरेलु सामान खरीदने की थोक की सबसे बड़ी मंडी है, साबुन तेल बनियान से लेकर फ्रिज, टी.वी. खिलौने, बल्ब, नकली आभूषण, बिजली का सामान, हैंडी क्राफ्ट के आइटम, कपडे वगैरह की कोई चालीस हज़ार से ऊपर दुकाने हैं वहाँ. हिन्दुस्तान में आने वाला अधिकतर चीनी सामान यहीं से खरीदा जाता है सर. वक्त मिला तो अपने लिए बहुत सारा सामान लूँगा सर.
मैं : सिंह साहब वक्त आपको नहीं मिलेगा क्यूँ के हम एक स्टील फेक्ट्री देखने जा रहे हैं जहाँ तीन घंटे लगेंगे और हमारी वापसी की ट्रेन की टिकटें पहले से ही लेकर वहाँ रखी हुई हैं. हमें जाना है काम करना है और वापस आना है बस.
गुप्ता: ओ शिट

जगह: शंघाई स्टेशन
समय: सवा आठ बजे सुबह
आखिर शंघाई रेलवे स्टेशन आ ही गया जिसका हमें बेताबी से इन्तेज़ार था. स्टेशन के नाम अंग्रेजी और चीनी भाषा में लिखे हुए थे .सीधे टिकट काउंटर पर गए ट्रेन की टिकटें लीं और स्टेशन के भीतर दाखिल हुए. अंदर घुसते ही आँखें चकाचौंध हो गयीं. दोनों अधिकारियों की नींद भक् से उड़ गयी. चमचमाता फर्श और गज़ब की सफाई देख कर हम लोग हैरान रह गए
सिंह: ये स्टेशन है सर?
मैं : हाँ भाई है तो स्टेशन ही

गुप्ता: ओ शिट (उनका मुंह खुला का खुला रह गया)
सिंह: सर यूँ सफाई तो हमने दिल्ली कलकत्ते के मेट्रो स्टेशन पर भी देखी है लेकिन यहाँ तो छड्डो जी.
मैं: सिंह साहब अभी दस मिनट हैं चलो कुछ खा लें.
सिंह: छड्डो जी, सर यहाँ कुछ खाने को मिल ही नहीं रहा. खाने पीने की दुकाने बाहर हैं सर , यहाँ तो सिर्फ केंटकी फ्रायड चिकन की दुकान है.
मैं : इसके पास फ्रेंच फ्राइअज़ जरूर मिलती होंगी. सिंह साहब जरा पता करो न.
सिंह: सर यहाँ सिर्फ फ्रायड चिकन ही मिल रहा है.
मैं: सिर्फ चिकन?
सिंह: हाँ जी
गुप्ता: ओ शिट

जगह: चमचमाती रेल का डिब्बा
समय : सुबह के साढ़े आठ बजे हैं
मैं : गडडी तो कमाल की सोनी (सुन्दर ) है नहीं?
सिंह: ओ छड्डो जी सोनी तो हमारी दिल्ली की मेट्रो भी है.
मैं: मैंने देखि नहीं सुना ही है लेकिन यहाँ देखें हर डब्बे के बाहर एक केयर टेकर खड़ा है जो आने वालों का सर झुका झुका कर स्वागत कर रहा है.
सिंह: सर ये तो है और देखो यहाँ कोई किसी को धक्का मुक्का भी नहीं मार रहा. सब बड़े आराम से अपने अपने डब्बे में चढ़ रहे हैं.
मैं: इस तरह चुपचाप एक कतार में डब्बे में चढ़ना कितना अच्छा लग रहा है न सिंह साहब.
सिंह: ओ छड्डो जी जब तक ट्रेन में धक्के मुक्के न हों, रेल पेल न हो, डब्बे के अंदर-बाहर छोड़ने वालों की भीड़ न हो बाय बाय करती ट्सुवे टपकाती माताएं बहने बीवियां न हों, हाकर्स की चिल्ल पों न हो तब तक ट्रेन में सफर का मजा ही क्या है सर. हम कोई मेट्रो ट्रेन में सफर थोड़ी कर रहे हैं सर ये तो लॉन्ग डिस्टेंस ट्रेन है सर और हमारा सफर तीन सौ की.मी. का है. लेकिन स्टेशन देख कर लगता ही नहीं के स्टेशन है “ ये क्या जगह है दोस्तों ये कौनसा दयार है...हद्दे निगाह तक जहाँ दिखता नहीं गुबार है...”
गुप्ता: ओ शिट

जगह: ट्रेन का डब्बा
समय: सुबह के आठ बज कर पैंतीस मिनट
हम क्या कर रहे हैं? : हम सीट के सामने लगे बड़े से डिस्प्ले इलेक्ट्रोनिक बोर्ड को देख रहे हैं.
क्यूँ? क्यूँ की उसपर अगले स्टेशन का नाम और ट्रेन की स्पीड बारी बारी से दिखाई जा रही है
अचानक सिंह साहब का मुंह आश्चर्य से खुल गया
मैं : क्या हुआ सिंह साहब?
सिंह: देखो तो सर ट्रेन की स्पीड पांच मिनट से कम समय में ही तीन सौ छत्तीस की.मी. प्रति घंटा दिखाई दे रही है
गुप्ता : ओ शिट

जगह: ट्रेन का डब्बा
समय : सुबह के दस बजे हैं

मैं : लगता है हम साढ़े दस बजे तक यीवू पहुँच जायेंगे.
सिंह: ओ छड्डो जी हमको तीन सौ की.मी. जाना है सर...दो घंटे में कैसे पहुंचेंगे?
मैं: क्यूँ नहीं पहुंचेंगे? ट्रेन की स्पीड देखी है?
सिंह: ओ छड्डो जी आप भी कहाँ चीनियों पर भरोसा कर रहे हैं...ये डिस्प्ले बोर्ड दिखावे का है सर, चीनी माल जैसा है...असलियत कभी नहीं बताएगा...आप आराम से दो घंटे सौ लो सर हम बारह एक बजे तक पहुंचेंगे...
मैं: लेकिन ट्रेन देखो न दौड़े जा रही है...रस्ते के स्टेशन पर रूकती है और फिर तीन मिनट बाद तीन सौ की स्पीड पकड़ लेती है...
सिंह: ओ छड्डो जी...तीन सौ की स्पीड...आप देखो ये ग्लास पानी का भरा हुआ इसमें भरा पानी कोई हिल रहा है ? आप लोगों को देखो सब आराम से बैठे हैं किसी की गर्दन हिल रही है ? और तो और आप अपने आप को देखो सर आपके पेट में कोई गुड गुड हो रही है...
मैं: नहीं
सिंह: फिर कैसे कह रहे हो आप के ट्रेन तीन सौ की.मी. की स्पीड दे दौड रही है...आप भी न सर बहुत भोले हो...

जगह: यीवू स्टेशन
समय: सुबह के साढ़े दस बजे हैं
मैं: गुप्ता जी उठो यीवू स्टेशन आ गया...
सिंह: ओ हाँ सच्ची ओए डिस्प्ले बोर्ड पर भी यीवू ही दिखा रहा है...उठ ओए गुप्ते यीवू आ गया यार
गुप्ता: ओ शिट

जगह: यीवू में हमारे कष्टमर द्वारा भेजी हुई औडी कार की पिछली सीट
समय : सुबह के पौने ग्यारह बजे हैं
सिंह: सर अभी तक यकीन नहीं हो रहा के हम दो घंटों में तीन सौ की.मी. आ गए हैं.
मैं: सच्ची बात है, मैंने जापान की शिनकानसेन और यूरोप की ट्रेनों में भी यात्रायें की हैं लेकिन इस ट्रेन की तो बात ही अलग है. काश ऐसी ट्रेन अपने भारत में भी चलनी शुरू हो जाए.
सिंह: ओ छड्डो जी भारत में कहाँ से शुरू होगी ? आपको पता है ऐसी ट्रेन की योजना कोई पन्द्रह साल पहले भारत में बन कर ठन्डे बस्ते में पड़ी हुई है वर्ना हम चीन से इस मामले में कोसों आगे होते. हमारे नेता सिर्फ बातें करते हैं सर काम नहीं करते.
मैं: हम्मम्मम
सिंह: अगर ऐसा हो जाता तो हरनाम कौर अपने मायके हर हफ्ते संडे वाले दिन जा सकती थी और मैं हर हफ्ते संडे को मौज मनाता. महीने में सर जी चार दिन कम से कम ऐश करने के मिल जाते. अपनी तो लाइफ बन जाती. बुरा हो देश के हुक्मरानों का जो हर काम को लटका के बैठ जाते हैं.
मैं: कहाँ है भाभी जी का मायका?
सिंह: लुधियाना में है सर. दिल्ली से सुबह छै बैठती दो घंटे में आठ बजे लुधियाना, और अपनी सुबह छै बजे से ही बल्ले बल्ले शुरू हो जाती.
मैं: ये तो कुछ नहीं सिंह साहब बीजिंग से शंघाई वाली ट्रेन तो पांच सौ की.मी. प्रति घंटे की स्पीड से चलती है.
सिंह: क्या बात कर रहे हैं सर?
मैं: सच कह रहा हूँ
सिंह: फिर तो गुप्ते की बीवी भी हर हफ्ते कानपुर जा सकती थी, इसकी भी मौज हो जाती, हर हफ्ते अपने पसंद कि अंडे की बुर्जी खाता जो अब बीवी के डर से छै महीने में एक बार ही खा पाता है, बिचारे को रोज लौकी और तुरई ही खानी पड़ती है.
मैं: मुझे नहीं लगता ऐसी ट्रेन अपने देश में आने वाले दस सालों में चल पाएगी. याने गुप्ता जी हर हफ्ते भुर्जी खाने के लिए अभी लंबा इन्तेज़ार करना पडेगा.
गुप्ता: ओ शिट

जगह: यीवू ट्रेन स्टेशन
समय : शाम के पांच बजे
हम क्या कर रहे हैं? : ट्रेन का इन्तेज़ार.
ट्रेन का समय: शाम के छै बजे
साथ में कौन है : चाऊ एन ली – हमारा कष्टमर
मैं: चाऊ आप के देश में ऐसी प्रगति कैसे संभव हुई?
चाऊ: देखिये हमारे यहाँ सरकार का विरोध नहीं होता है. जो सरकार चाहती है वोही होता है.
मैं: मतलब?
चाऊ: मतलब ये के अगर सरकार चाहती है के फास्ट ट्रेन चलानी है तो वो हर कीमत पर चलेगी ही...फिर चाहे उसके रास्ते में आपका घर आये दुकान आये या खेत आये...सब हटा दिया जाता है...जो टारगेट दिया जाता है उस टारगेट से पहले ट्रेन चलती है...देरी करने पर सजा मिलती है...आपके यहाँ ऐसा नहीं है?
सिंह: ओ छड्डो जी हमारे यहाँ तो कोई स्कीम आई नहीं कि छुट भैय्ये नेता ही विरोध में खड़े हो जाते हैं, उनका मुंह बंद करो तो विरोधी नेता अनशन पर बैठ जाते हैं और अगर खुदा न खास्ता उन्हें भी दे दा कर शांत कर भी दिया तो ठेकेदार और अफसर मिल कर उस कि ऐसी दुर्गत करते हैं के स्कीम फ़ाइल में ही दम तोड़ देती है.
मैं: याने आपके देश के नेता भ्रष्ट नहीं हैं?
चाऊ: भ्रष्ट हैं भ्रष्ट क्यूँ नहीं हैं लेकिन वो आटे में नमक मिलाते हैं आपके यहाँ कि तरह नमक में आटा नहीं.
मैं: हमारी इच्छा है के आप ट्रेन को बैक ग्राउंड में रख कर हम तीनों कि एक फोटो लें ताकि हम इस पल को याद रख सकें.
चाऊ: जरूर जरूर...गुप्ता जी जरा मुस्कुराइए
गुप्ता: ओ शिट

जगह: शंघाई रेलवे स्टेशन
समय : शाम के आठ बजे
सिंह: सरजी कुछ वि कहो शंघाई रेलवे स्टेशन दा जवाब नहीं. लगता है जैसे एयरपोर्ट पर आ गए हों. रात को तो ये कमाल का खूबसूरत लग रहा है.
मैं: सबसे बड़ी बात है के आठ बजे यहाँ कोई भीड़ भाड़ भी नहीं है...चीनी सात बजे से पहले घर चले जाते हैं और साढ़े सात बजे तक खाना खा लेते हैं.
सिंह: चाऊ बता रहा था सर के खाने के बाद उनके यहाँ पीने का बड़ा रिवाज़ है.
मैं: हाँ खाने के बाद पीना बड़ा अजीब सा लगता है. हमारे यहाँ उल्टा है पहले पीते हैं फिर खाते हैं.
सिंह: चाऊ ने बताया उनके यहाँ हर गाँव शहर में ड्रिंकिंग बार बने हुए हैं, जहाँ रात नौ बजे से सुबह तीन चार बजे तक वो लोग सप्ताह अंत में पीते रहते हैं.
मैं: कमाल है
सिंह: सर मुझे उनकी प्रगति का राज़ समझ में आ गया है.
मैं: क्या?
सिंह: सिंपल सर, पहले खाना बाद में पीना.
गुप्ता : ओ शिट

जगह: वो ही कल वाली- दिल्ली दरबार
समय : रात के नौ बजे हैं
हम क्या कर रहे हैं? : खाने का आर्डर दे कर गप्पें मार रहे हैं
सिंह: सर आपने एक बात नोट की ?
मैं: क्या?
सिंह: सर तीन सौ की.मी. के लंबे रास्ते में हमें खिडके बाहर एक भी जानवर या परिंदा नज़र नहीं आया...ये अजीब बात हैं न सर?
मैं: सही कह रहो आप..लगता है चीनी सभी जानवरों और परिंदों को एक जगह कैद करके रखते हों.
सिंह: किसलिए?
मैं: खाने के लिए. चीनी हर चलती हिलती डुलती चीज़ को खा जाते हैं यहाँ तक के कीड़े मकौड़े भी, तो जानवर और परिंदे तो उनके लिए बहुत खास चीज़ हैं.
सिंह: कीड़े खाते हैं?
मैं: बहुत शौक से...यहाँ की एक मशहूर कहावत भी है
सिंह: क्या?
मैं: कीड़े कि माँ कब तक खैर मनाएगी
सिंह: देखो कीड़े कि डिश
गुप्ता: ओ शिट

जगह: शंघाई एयर पोर्ट
समय: सुबह के आठ बजे
हम क्या कर रहे हैं: अगले पड़ाव कि तैय्यारी
हम कहाँ जायेगे : चेंदू (जिसे सिंह साहब चेंगडू कहते हैं) रुकते हुए नानजिंग शहर
क्यूँ?; काम है भाई कष्टमर से मिलना है

सिंह: सर वो बच्ची देख रहे हैं ?
मैं: कौनसी?
सिंह: वो सर आपके पीछे अपनी माँ के साथ हँसती हुई चीनी बच्ची
मैं: बहुत प्यारी है एक फोटो ले लूं?
सिंह: ओ छड्डो जी सारे बच्चे प्यारे होते हैं
मैं: सच है लेकिन ये बहुत प्यारी है
सिंह: छड्डो सर जाने दो उसकी माँ साथ है...
मैं: तो क्या हुआ मैं उसकी माँ से परमिशन ले लूँगा
सिंह: आपकी मर्ज़ी सर
मैं उस बच्ची कि तरफ जाता हूँ वो भागती है
मैं: मैडम क्या मैं आपकी बच्ची कि तस्वीर ले सकता हूँ?
मैडम: क्यूँ?
मैं: यूँ ही मेरी भी एक ऐसी ग्रांड डाटर है उसे दिखाऊंगा.
मैडम चीनी भाषा में: चुन चान चीन लीं मी
बच्ची विक्टरी साइन बनाकर पोज देती है

जगह : चेंदू जाने वाले हवाई जहाज कि सीट
समय : सुबह के दस बजे हैं
हम क्या कर रहे हैं? : हवाई जहाज़ के उड़ने का इन्तेज़ार
सिंह: सर बच्ची ने विक्ट्री साइन बनाते हुए फोटो क्यूँ खिंचवाई
मैं: लगता है ये विक्टरी साइन इन के दिलो दिमाग में कूट कूट कर भर दिया गया है तभी तो देखो न एशियाड में इन्होने ने थोक के भाव में पदक जीत कर अपने देश कि झोली भर दी है.
सिंह: सच्ची कह रहे हो सर, हम भी अपने बच्चों को अब विक्ट्री साइन बनाना सिखाएंगे.

मैं: लो अपनी अगली यात्रा शुरू हो गयी, विमान उड़ चला
सिंह: हा हा हा याने फ़ोकट कि दारु फिर मिलेगी सर
मैं: नहीं
सिंह: क्यूँ सर?
मैं क्यूँ के ये अंतर्राष्ट्रीय सेवा नहीं है डोमेस्टिक है और डोमेस्टिक सेवा में दारु नहीं मिलती
गुप्ता: ओ शिट

हम चेंदू होते हुए नानजिंग कि यात्रा वृतांत एक छोटे से ब्रेक के बाद फिर से शुरू करेंगे तब आप जरा द्रुत गति कि ट्रेन का आनंद लीजिए...कहीं जाईयेगा नहीं...हम बस यूँ गए और यूँ आये.

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Monday, December 13, 2010

पहुँच गए चीन...समझ गए ना -1

एक पुरानी फिल्म चलती का नाम गाडी का गाना है “जाना था जापान पहुँच गए चीन समझ गए ना...”वहीँ से बात शुरू करते हैं, "पहुँच गए चीन...समझ गए ना"...अरे इसमें समझने जैसी क्या बात है जब चीन ही जाना तो चीन ही पहुँचते जापान तो पहुँचने से रहे. चीन जाने का कार्यक्रम महीनों से बन रहा था और मैं अपनी सीमित ताकत के प्रयोग से इसे टालने के प्रयास में जुटा हुआ था. सही बात तो ये है के विगत ग्यारह सालों में इतनी विदेश यात्रायें की हैं के अब विदेश यात्रा के नाम से कंपकंपी सी छूटने लगती है. विदेश यात्रा के दौरान हुई थकान और बिगड़ी दिनचर्या को ठीक करने में बहुत समय चला जाता है. इसलिए अब मैं विदेश यात्रा के लिए अपने अपेक्षाकृत युवा साथियों को भेजने में सहायता करता हूँ. खैर मेरी ताकत, जैसा मैंने ऊपर कहा, सिमित थी इसलिए जल्द ही चुक गयी और मुझे जाना ही पड़ा.

आज की पोस्ट इसी चीन यात्रा को समर्पित है जो हमारे वर्तमान ग्राहकों को मिलने और नए ग्राहकों की तलाश के उद्देश्य से की गयी थी, इस पोस्ट में आपको चीन की कोई आर्थिक, सामाजिक , भौगोलिक या सामाजिक जानकारी नहीं मिलेगी अगर आप इन सबकी जानकारी के लिए ये पोस्ट पढ़ रहे हैं तो आप इसे पढ़ना यहीं छोड़ सकते हैं. ये खालिस टाइम पास पोस्ट है. बाद में आप हाथ मलते हुए ये मत कहना “ खालीपीली बेकार में टाइम वेस्ट हो गया यार ".

21 नवंबर की रात एक बज कर बीस मिनट पर जैसे ही मुंबई अंतर राष्ट्रिय हवाई अड्डे से “कैथे पैसफिक” का विमान रवाना हुआ वैसे ही मेरे साथ यात्रा कर रहे मेरे दो और अधिकारियों के चेहरे पर रौनक आ गयी. कारण खोजने में वक्त नहीं लगा उन्होंने खुद ही चहकते हुए कहा “ अब फ़ोकट की दारु मिलेगी सर...”. दारू मिलेगी ये तो उन्हें पता था लेकिन कब इसकी फ़िक्र में दोनों अपनी जगह पर ढंग से बैठ नहीं पा रहे थे. फ़िक्र ये के अगर कहीं नींद का झोंका आ गया और विमान परिचारिका उन्हें बिना जगाए आगे बढ़ गयी तो ? याने चीन यात्रा का पहला मकसद ही पानी में चला जाएगा.

मुझे बहुत जोर से नींद आ रही थी इसलिए परिचारिका से आँखें ढकने के लिए पैड लिया, लगाया और सो गया. लगभग दो बजे परिचारिका ने मुझे उठाया फिश, मटन, बीफ ओर वेज सर ? गहरी नींद से जगाए जाने के बाद रात दो बजे प्लेट लिए मुस्कुराती परिचारिका मुझे दुनिया की सबसे बदसूरत महिला लगी. “नो थैंक्स” मैंने कहा और फिर से सोने की कोशिश करने लगा,लेकिन पूरे विमान में चपड चपड खाने की आवाजों ने नींद चौपट कर दी. मैंने देखा, एक आध मुझ जैसे खूसट बुढाऊ को छोड़ बाकि सारे यात्री खाने का भरपूर आनंद ले रहे थे.

एक बात पक्की है, फ़ोकट में जब मिले जो मिले उदरस्त करने की प्रवृति हर इंसान में होती है इसमें देश-भाषा-रंग-धर्म कुछ भी आढे नहीं आता.इस मामले में पृथ्वी के सब इंसान एक हैं. तीन बजे रात इस कार्यक्रम का समापन चाय काफी वितरण से हुआ. थोड़ी नींद आई ही थी के भारतीय समय के अनुसार लगभग पांच बजे याने स्थानीय समय के अनुसार सात बजे फिर से सबको उठा कर नाश्ता दिया गया जिसे मैंने फिर लेने से मना कर दिया. विमान परिचारिका समझी मुझे पेट सम्बन्धी कोई गंभीर समस्या है इसलिए आ कर बोली “विल यू टेक सम फ्रेश लाइम जूस सर ? इट इज गुड फार स्टोमक....” मैंने उसे कहा “नो थैंक्स” और मन में कहा हे देवी मुझे सोने दो मेरी सारी समस्याओं का निवारण हो जायेगा. नाश्ते के कार्यक्रम के समापन के आधे घंटे बाद विमान के हाँगकाँग एयरपोर्ट पर उतरने की सूचना प्रसारित कर दी गयी.

जब विमान हाँगकाँग हवाई अड्डे पर उतरा तब स्थानीय समय के अनुसार सुबह नौ बजे थे याने भारत में सुबह के साढ़े छै बजे थे. रात ढेढ से सुबह साढ़े छै याने पांच घंटों के इस सफर में कुल मिला कर शायद एक घंटे की नींद ही मिली होगी.

सुबह होते ही विमान में बैठे यात्री सारी रात बैठ कर खाए ठोस डिनर और नाश्ते को गैस में परिवर्तित हो चुकने की सूचना सार्वजानिक रूप से देने लगे.

हाँगकाँग एयरपोर्ट, मेरी तुच्छ बुद्धि के हिसाब से अकेला ऐसा एयरपोर्ट है जो एक तरफ समुद्र और दूसरी तरफ पहाड़ों से घिरा हुआ है. मुझे हर बार यहाँ उतर कर बहुत अच्छा लगता है इसकी सफाई और सुंदरता मन मोह लेती है. आप भी इस एयरपोर्ट के एक आध चित्र देखें जो मैंने अपने साधारण मोबाइल से खींचे.

हाँगकाँग से हमें दो घंटों बाद चाइना एयर लाइन के विमान से शंघाई जाना था. ये दो घंटे हमने एयरपोर्ट पर जितना घूमा जा सकता था घूम कर ,कुर्सी पर बैठे ऊंघ कर या विमान में चढने को तैयार लंबी लाइन में खड़े हो कर बिताये. दोपहर लगभग दो बजे हम शंघाई पहुंचे. चीन पहुँचने का मेरा ये पहला अनुभव था, इस से पहले इस देश के आसपास के सभी देश देख डाले थे लेकिन चीन ही नहीं जा पाया था.

शंघाई एयरपोर्ट यकीनन बेहद खूबसूरत था, वहाँ के कर्मचारी एक दम चुस्त दुरुस्त चौकन्ने मुस्कुराते हुए नज़र आये. इमिग्रेशन वाले ने “नमस्ते,वेलकम टू चाइना” बोल कर खुश कर दिया. एयरपोर्ट के बाहर आये तो ठंडी हवा के झोंके ने तरो ताज़ा कर दिया. टैक्सी से जब होटल की और चले तो साफ़ चौड़ी सड़कें, जो शहर और एयरपोर्ट को जोड़ती हैं और जमीन से ऊपर बनाई गयी हैं ताकि वाहन सौ या ढेढ सौ की.मी. की रफ़्तार से बिना रोक टोक के चल सकें, देख कर यकीन हो गया के जो लोग मुंबई को शंघाई बनाने की बात कर रहे हैं उन्होंने शंघाई देखा ही नहीं है, वर्ना वो ऐसी मूर्खता पूर्ण असंभव बात कभी नहीं करते .

बिना खड्डों और स्पीड ब्रेकर्स के बनी इस सड़क पर चलते कब एक घंटे हम होटल पहुँच गए पता ही नहीं चला. इस चीन की कल्पना कम से कम मैंने तो नहीं की थी. यहाँ उद्देश्य दूसरे देश की प्रशंशा और अपने देश की बुराई करने का नहीं है यहाँ उद्देश्य सिर्फ अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा बताने का ही है.

भारतीय समय के अनुसार दोपहर के दो बज चुके थे जब हम अपने होटल के कमरे में पहुंचे. नहाये धोए तो मेरी भूख जग गयी. मेरे साथ के अधिकारी चूँकि लगातार चरते आये थे इसलिए उन्हें भूख ने अधिक परेशान नहीं किया हुआ था. घंटे भर बाद तैयार हो कर हमने होटल के बाहर घूमने की योजना बनाई, कुछ ही कदम चले होंगे के सामने फल विक्रेता की दूकान दिखाई दी. करीने से सजे ताज़े और हट्टे कट्टे फल निहायत ख़ूबसूरती से प्रदर्शित किये गए थे. आप भी चित्र में देखें. हम अपने आपको ताज़े सेब खरीदने से नहीं रोक पाए. लाल और रस से भरे सेब जिनमें दांत गड़ाते ही आनंद आ गया. सेब खाते हुए हम शंघाई की सड़कों पर निरुद्देश घूमने लगे. सड़कों पर चमचमाती विदेशी कारें स्कूटर और एक आध साईकिल सवार भी दिखाई दिए. किसी जमाने में सड़कों पर एकाधिकार रखने वाले साईकिल सवार सुना है चीन के महानगरों से अब गायब ही हो गए हैं. कम से कम शंघाई में तो मुझे नज़र आये नहीं. चीन के शहरों में संपन्न लोग रहते हैं इसका अनुमान शंघाई की सड़कों पर एक घंटा घूमने से ही हो गया. लकदक करते बाज़ार और हँसते खिलखिलाते युवा हलकी ठण्ड वाले माहौल को और भी खुशनुमा बना रहे थे.

एक घंटा घूमने के बाद सेब पच गए और भूख ने सर उठाना शुरू कर दिया. शंघाई में वो सज्जन जो हमें शाम का खाना खिलाने ले जाने वाले थे किसी जरूरी कारण वश बैंकाक चले गए. उन्होंने हमें समझाया की भारतीय रेस्टोरेंट, हमारे होटल के पास ही है, आप होटल रिशेप्शन पर पता करलें. याने अब हमें अपना भारतीय खाना खुद ही ढूढना था. वापस होटल आये और भारतीय रेस्टोरेंट का पता पूछा, होटल वाले ने क्या कहा और हमने क्या समझा यहाँ बतलाना मुश्किल है. जिस टैक्सी वाले को होटल वाले ने समझा कर भारतीय रेस्टोरेंट भेजा था वो हमें जिस जगह ले गया वहाँ भारतीय भोजन के अलावा सब कुछ मिल रहा था. वापस लौटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था.जिस टैक्सी पर हम आये थे वो जा चुकी थी . ठण्ड और भूख दोनों बढ़ रहीं थीं. सड़कों पर दौड़ती टैक्सियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. "मसरूफ ज़माना मेरे लिए क्यूँ वक्त अपना बर्बाद करे..."जिस किसी से भी बातचीत की कोशिश करते वो अजीब से इशारे कर चीनी भाषा में क्या कहता कुछ पता ही नहीं चलता था. आप यकीन नहीं करेंगे भरपूर कोशिश करने के बावजूद भी हमें एक भी इंसान इंग्लिश समझने या बोलने वाला नहीं मिला.सड़क के किनारे खड़े खड़े एक घंटा बीत गया तब कहीं एक टैक्सी वाला आ कर रुका. उसमें बैठ फिर होटल गए. इन्टरनेट की मदद से भारतीय रेस्टोरेंट खोजे गए उनका नाम और पता चीनी भाषा में लिखवाया गया, फिर से टैक्सी लिए और चल पड़े.
पहला रेस्टोरेंट “इन्डियन किचन” बंद मिला. दूसरे ‘दिल्ली दरबार’ का जब पता टैक्सी वाले को बताया तो उसने इशारे में समझाया की वो बहुत दूर है. दिल्ली दरबार का नंबर जब अपने मोबाईल से मिलाया गया उधर से आवाज आई “हेल्लो जी”. लगा जैसे इश्वर ने हमारी सुन ली. हमने आदतानुसार अंग्रेजी में बात की तो जवाब आया “ बद्शाओ क्यूँ अंग्रेजी बोल के डरा रहे हो सीधे आ जाओ, मेरी टैक्सी वाले से बात करवाओ” दोनों ने चीनी भाषा में बात की और हम खुशी खुशी चल दिए अपने गंतव्य की और.

दिल्ली दरबार वास्तव में दूर था लेकिन उस तक जाने का रास्ता निहायत खूबसूरत. चालीस मिनट की इस यात्रा में हमने शंघाई की रात का नज़ारा किया. जगमगाती ऊंची बिल्डिगें और सड़कें आँखें चकाचौंध कर गयीं . मैंने विकसित देशों की बहुत यात्रायें की हैं लेकिन इमारतों पर इतनी ख़ूबसूरती से की गयी रौशनी कहीं नहीं देखी. ऐसी रौशनी जो आपको जादुई संसार में होने का आभास दिलाती है.

(ये फोटो गूगल देवता से साभार)

“दिल्ली दरबार” के बाहर से ही हिंदी गाने “मुन्नी बदनाम हुई...” सुन कर बांछें खिल उठी. अंदर एक विशाल टी.वी. स्क्रीन पर चल रहे दबंग के गीत ने सारी थकान दूर कर दी. चारों तरफ बैठे भारतीय चेहरों और गरमा गरम सौंधी खुशबू वाले भोजन को देख कर लगा जैसे घर आ गए हैं. भोजन कर जब रेस्टोरेंट से रवाना हुए रात का एक बज रहा था...


बाकि फिर....

Monday, December 6, 2010

किताबों की दुनिया - 42

शायद आप जानते ही होंगे और अगर नहीं जानते तो बता दूँ के मेरा घर जयपुर में है लेकिन मैं मुंबई-पुणे के मध्य स्थित खोपोली नामक सुरम्य स्थान पर नौकरी की वजह से पिछले सात सालों से रह रहा हूँ. यहाँ कंपनी की तरफ से सभी सुविधाओं से युक्त घर मिला हुआ है लेकिन मेरा हफ्ते भर के लिए जयपुर जाना लगभग हर दूसरे माह तय होता ही है. ये सुविधा भी कंपनी ने ही दे रखी है. ये सब लिखने का कारण अपने बारे में आपको बताना नहीं बल्कि कुछ और है. जयपुर एयरपोर्ट की दूसरी मंजिल पर एक किताबों की दुकान खुली है जिसमें अंग्रेजी की तो खैर सैंकडों किताबें हैं ही लेकिन हिंदी की किताबें भी मिली जाती हैं और उन किताबों में शायरी की किताबों भी होती हैं जिनका वहां मिलना किसी अजूबे से कम नहीं.अजूबा इसलिए क्यूंकि अभी भी भारत में हवाई यात्रा पढ़े लिखे, सभ्रांत और धनी लोगों की बपौती मानी जाती है जो शायरी जैसी विधा को हिकारत की नज़र से देखते हैं और क्यूँ न देखें शायरी का रिश्ता दिल से होता है, दिमाग से नहीं, और दिल...पढ़े लिखे, सभ्रांत और धनी लोगों में अपवाद स्वरुप ही मिलता है. हकीकत बदल चुकी है इसका प्रमाण है एयरपोर्ट पर किताबों की दूकान में शायरी की किताब का मिलना याने अब चिथड़ा प्रसाद, थान सिंह जी के साथ कंधे से कन्धा मिला कर हवाई यात्रा करता है और शायरी की किताबें पढता है...लगता है समाजवाद आ गया.

मेरे हिंदी में पूछने पर काउंटर पर खड़े सज्जन ने अग्रेज़ी में बताया के महीने में शायरी की तीन चार किताबें तो बिक ही जाती हैं. ये आंकड़ा मेरे हिसाब से बहुत उत्साहवर्धक है. उर्दू शायरी की किताबें एयरपोर्ट पर बिकना हर्ष का विषय है, इस से अनुमान लगाया जा सकता है की हमारे समाज में उच्च वर्ग, उच्च मध्य वर्ग और मध्य वर्ग की आपसी दूरी कम हो रही है.

लौटती यात्रा में उस दुकान पर जाना मेरा प्रिय काम है. वहीँ मुझे जो किताब मिली उसी का जिक्र मैं आज यहाँ कर रहा हूँ. किताब है ,पटना, बिहार के हर दिल अज़ीज़ शायर जनाब आलम खुर्शीद साहब की ग़ज़लों की जिनका संकलन “एक दरिया ख्वाब में” शीर्षक से जनाब सुरेश कुमार जी ने किया है. किताब के पन्ने पलटते ही जब मुझे ये शेर दिखे तो फिर इसे खरीदने में एक क्षण भी नहीं लगा :-


बहुत चाहा कि आँखें बंद करके मैं भी जी लूँ
मगर मुझसे बसर यूँ जिंदगी होती नहीं है

लहू का एक-इक क़तरा पिलाता जा रहा हूँ
अगरचे ख़ाक में पैदा नमी होती नहीं है

मैं रिश्वत के मुसल्ले पर नमाज़ें पढ़ न पाया
बदी के साथ मुझसे बंदगी होती नहीं है
मुसल्ले : नमाज़ पढ़ने कि चटाई

ऐसे सीधे सच्चे शेर कहने के बेमिसाल हुनर के कारण ही समकालीन उर्दू शायरी के फ़लक पर पिछले बीस सालों में जिन शायरों ने अपने कलाम से गज़ल प्रेमियों और समीक्षकों को आकर्षित किया है उनमें आलम खुर्शीद जी का नाम बहुत ऊपर है. डायमंड बुक्स वालों द्वारा प्रकाशित ये किताब हिंदी में उनकी गज़लों का पहला संकलन है. एक बेहतरीन शायर को हर खास-ओ-आम तक पहुँचाने के लिए सुरेश कुमार जी और डायमंड बुक्स वाले बधाई के हकदार है।

ग़लत ये बात है रोशन कहीं दिमाग़ नहीं
जहाँ अँधेरा बहुत है वहीँ चिराग़ नहीं

मैं उनको शक की निगाहों से देखता क्यूँ हूँ
वो लोग जिनके लिबासों पे कोई दाग़ नहीं

आम बोलचाल के ये शेर पढ़ने सुनने वालों के साथ सीधा सम्बन्ध कायम कर लेते हैं और उनके दिलों में गहरे उतर जाते हैं. हमारे समाज की आज की जटिलताओं और विद्रूपताओं को जिस सहजता और सरलता के साथ वे अपने शेरों में ढालते हैं वो पढते सुनते ही बनता है, और उनकी शायरी पर गहरी पकड़ को प्रमाणित भी करता है.

घर के जितने भी झगडे हैं प्यार से हल हो सकते हैं
क्यूँ हम तकिया कर बैठे हैं तीरों पर तलवारों पर
तकिया: विशवास

बाजू की ताक़त भी इक दिन साहिल तक पहुंचा देगी
लोग भरोसा करते क्यूँ हैं कश्ती पर, पतवारों पर

पानी लाख उछालें मारे, पानी में मिल जाता है
एक नज़र तो डालो ‘आलम’ बागों के फव्वारों पर

आलम खुर्शीद साहब की शायरी पढते हुए लगता है जैसे वो हमारे मन की परतें खोल रहे हैं. वो जीवन को लेकर शंकित भी हैं लेकिन आशा का दामन कभी नहीं छोड़ते. एक बेहतर दुनिया का ख्वाब उनकी शायरी में हमेशा जिंदा रहता है और येही चीज़ उनकी शायरी को जीवंत बनाती है.

पीछे छूटे साथी मुझको याद आ जाते हैं
वर्ना दौड में सबसे आगे हो सकता हूँ मैं

इक मासूम-सा बच्चा मुझमें अब तक जिंदा है
छोटी छोटी बातों पे अब भी रो सकता हूँ मैं

सोच-समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वर्ना
बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं

वक्त आ गया है जब मैं आपको इस संकलन में से कुछ छोटी बहर की गज़लों के अशआर पढ़वाऊँ, जैसा के मैं हमेशा अपनी श्रृंखला में कहता आया हूँ छोटी बहर की ग़ज़लें पढ़ने वाले के साथ जल्द ही अपना नाता जोड़ लेती हैं और उनके दिल में घर कर लेती है, अगर जबान सादा हो तो फिर क्या कहने अशआरों के लिए पढ़ने वालों के दिल तक पहुँचने का रास्ता छोटा और सुगम हो जाता है.

दिल रोता है चेहरा हँसता रहता है
कैसा-कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है

तन्हाई का ज़हर तो वो भी पीते हैं
हर पल जिनके साथ ज़माना होता है

बढ़ती जाती है बैचैनी नाखुन की
जैसे-जैसे ज़ख्म पुराना होता है

आसानी से राह नहीं बनती कोई
दीवारों से सर टकराना होता है

आलम साहब के उर्दू में तीन काव्य संग्रह “नए मौसम की तलाश”, “ज़हर-ए-गुल” तथा “ख्याल-आबाद” आ चुके हैं उन्हीं संग्रहों से चुन कर इस किताब में सुरेश कुमार जी ने लगभग सौ अद्भुत ग़ज़लें संकलित की हैं इस के आलावा भी उनकी कुछ ऐसी ग़ज़लें भी हैं जो इस से पहले कहीं प्रकाशित नहीं हुईं. इस किताब की ग़ज़लें ताज़ा हवा के सुखद झोंके की तरह पढ़ने वालों के दिलो दिमाग को खुशनुमा कर देंगीं.

फूल, खुशबू, हवा, तितलियाँ हर तरफ़
तू नहीं तेरी परछाइयाँ हर तरफ़

मेरे जलते दिए मुस्कुराते रहे
हाथ मलती रहीं आंधियां हर तरफ़

झूट के वास्ते तख़्त-ओ-ऐवान हैं
और सच के लिए सूलियाँ हर तरफ़

यूँ तो "डायमंड बुक्स" सभी बुक्स स्टाल्स पर उपलब्ध हैं (जैसा के प्रकाशक का दावा है) लेकिन आपको अपने शहर के किसी बुक्स स्टाल पर इस पुस्तक के न मिलने पर जयपुर एयरपोर्ट तक जाने कि जरूरत नहीं है इसके लिए आसान उपाय ये है के आप डायमंड बुक्स वालों को अपने मोबाईल या लैन लाइन से 011-51611861-865 नंबर पर फोन करें या फिर अपने लैपटाप/ पी..सी. को इन्टरनेट से जोड़ कर उन्हें sales@diamondpublication.com पर मेल करें या उनकी वेब साईट www.diamondpublication.com पर लाग-इन करें. अब आप ये पोस्ट पढ़ रहें हैं तो उम्मीद करता हूँ के आप इन्टरनेट से जरूर जुड़े हुए होंगे और मेल करने कि स्तिथि में भी होंगे. ये सब अगर आपके पास नहीं है तो दिल्ली में किसी मित्र बंधू रिश्तेदार को कहिये के “डायमंड पाकेट बुक्स x-30, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया ,फेज-2, नयी-दिल्ली” वाले पते पर जाय और आपके लिए किताब खरीद कर कोरियर या फिर साधारण डाक से भिजवा दे. अब आप पुस्तक मंगवाने के ऊपर दिए गए या अन्य स्वयं द्वारा इज़ाद किये गए विकल्पों पर गंभीरता पूर्वक विचार करें. हम आपको आलम साहब के ये अशआर पढवा कर विदा लेते हैं और निकलते हैं एक और पुस्तक कि तलाश में...

देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैंने कैसे पार किया आसानी से

नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
क्या रिश्ता है मेरा बहते पानी से

हर कमरे से धूप हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है नादानी से







Monday, November 29, 2010

जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी

दीपावली के शुभ अवसर पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर एक तरही मुशायरे का आयोजन हुआ था जो अत्यंत सफल रहा. उस्ताद शायरों के बीच इस नाचीज़ को भी उस तरही मुशायरे में शिरकत का मौका मिला था. उस अवसर पर कही गयी अपनी गज़ल आप सब के लिए यहाँ पेश कर रहा हूँ उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी.



संजीदगी, वाबस्तगी, शाइस्तगी, खुद-आगही
आसूदगी, इंसानियत, जिसमें नहीं, क्या आदमी
वाबस्तगी: सम्बन्ध, लगाव, शाइस्तगी: सभ्यता, खुद-आगही: आत्मज्ञान, आसूदगी:संतोष

ये खीरगी, ये दिलबरी, ये कमसिनी, ये नाज़ुकी
दो चार दिन का खेल है, सब कुछ यहाँ पर आरिजी
खीरगी: चमक, दिलबरी: नखरे, आरिजी:क्षणिक

हैवानियत हमको कभी मज़हब ने सिखलाई नहीं
हमको लडाता कौन है ? ये सोचना है लाजिमी

हर बार जब दस्तक हुई उठ कर गया, कोई न था
तुझको कसम, मत कर हवा, आशिक से ऐसी दिल्लगी

हो तम घना अवसाद का तब कर दुआ उम्मीद के
जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी

पहरे जुबानों पर लगें, हों सोच पर जब बंदिशें
जुम्हूरियत की बात तब लगती है कितनी खोखली

फ़ाक़ाजदा इंसान को तुम ले चले दैरोहरम
पर सोचिये कर पायेगा ‘नीरज’ वहां वो बंदगी ?

Monday, November 22, 2010

रंग-ढंग बोलीवुड के

कायदे से तो आज की पोस्ट किसी किताब पर होनी चाहिए थी लेकिन इस बंधी बंधाई लीक पर चलते चलते कुछ ऊब सी होने लगी थी इसलिए सोचा चलो जायका बदला जाए.इस से ये मत समझ लीजियेगा कि मेरे किताबों के खजाने में कुछ नहीं बचा है,ये तो एक लंबी यात्रा के दौरान थोडा सा सुस्ता लेने वाली है बात है बस. साहित्य और क्रिकेट के शौक आलावा जो शौक मुझे आल्हादित करता है वो है सिनेमा।
सिनेमा देखना उसके बारे में पढ़ना मुझे बहुत पसंद है, इस विषय पर भी ढेरों किताबें मेरे पास आपको मिल जायेंगी. मेरे इस शौक का जैसे ही पता मेरे गुरुदेव प्राण शर्मा जी को चला उन्होंने खास तौर पर सिनेमा पर लिखी अपनी एक विलक्षण रचना भेज दी जिसेमें बालीवुड की तल्ख़ सच्चाई परत दर परत खोली गयी है. प्राण जी की प्रखर नज़र से बालीवुड का कोई राज़ छुप नहीं पाया है और उसे उन्होंने बहुत बेबाक तरीके अपनी रचना में प्रस्तुत किया है . उम्मीद करता हूँ सुधि पाठक उनकी इस रचना को पसंद करेंगे.

इस के अलावा मैं आपको अपना सिनेमा देखने का एक पुराना लेकिन रोचक संस्मरण भी सुना रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ ये किस्सा आपको पसंद आएगा.

सबसे पहले पढ़िए गुरुदेव प्राण शर्मा जी की बोलीवुड पर लिखी कविता:"रंग-ढंग बोलीवुड के"


ये बोलीवुड है प्यारे सब खेल यहाँ के न्यारे
रात में उगता सूरज और दिन में चाँद-सितारे

इस बेढंगी मण्डी में है चार दिनों का डेरा
सबको ही पड़ी है अपनी ना तेरा ना कोई मेरा

मुश्किल से मिलेगा कोई गिरतों को उठाने वाला
दिन के सपनों जैसा है इस मण्डी का उजियाला

यदि पुश हो किसी अपने की है सफल यहाँ पे अनाडी
सच ही कहती है दुनिया चलती का नाम है गाड़ी

कोई एक रात ही यारो आकाश को छू लेता है
कोई गिरता है औंधे मुँह सर्वस्व भी खो देता है


इस मण्डी के व्यापारी चाचे हैं या हैं भतीजे
कुछ ज़ोर नहीं औरों का बस साले हैं या जीजे

इस मण्डी चोर बहुत हैं हर चीज़ चुरा लाते हैं
औरों के माल को प्यारे अपना ही बतलाते हैं

काला बाज़ार यहीं पर काले धन के व्यापारी
हर बात यहाँ मुमकिन है तलवार चले दो धारी

चमचों की बदौलत ही से हर काम यहाँ होता है
जो उनका नहीं है संगी वो सर धुन कर रोता है

हीरो" और "हीरोइन" से निर्देशक भी डरते हैं
उनके आगे लेखक भी झुक कर पानी भरते हैं

पिक्चर के हिट होने पर सब को पर लग जाते हैं
जो कल तक थे "बेचारे" वे हाथ नहीं आते हैं

अब रातों-रात बोलियाँ स्टारों की लग जाती हैं
कल तक के "बेचारों" की पुश्तें भी तर जाती हैं

उनके नखरों की चिड़ियें ऊँची-ऊँची उडती हैं
पर ये न समझना प्यारे "यां" खुशियाँ ही जुडती हैं

पिक्चर असफल होने पर सब पर मातम छाता है
हर कोई निज किस्मत को रोता और चिल्लाता है

और अब एक दिलचस्प संस्मरण

दोस्तों बन्दे को फिल्में देखने का बहुत शौक है, ये हमारा खानदानी है शौक है कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, आज भी मेरी माता जी जो अस्सी के ऊपर हैं सिनेमा देखने हमारे साथ जाती हैं और हमसे ज्यादा आनंद लेती हैं. सन चालीस के ज़माने से लेकर आज तक के सभी कलाकार उनकी फिल्में और गाने उन्हें याद हैं...उनकी बात फिर कभी आज मैं आपको अपना फिल्म देखने का एक रोचक किस्सा सुनाता हूँ. ये किस्सा इस से पूर्व चवन्नी छाप ब्लॉग पर दस दिसम्बर २००८ को छप चुका है. आज प्रस्तुत है खास आपके लिए...पढिये और आनंद लीजिये.

बात बहुत पुरानी है शायद 1977 के आसपास की...जयपुर से लुधियाना जाने का कार्यक्रम था एक कांफ्रेंस के सिलसिले में. सर्दियों के दिन थे. दिन में कांफ्रेंस हुई शाम को लुधियाना में मेरे एक परिचित ने सिनेमा जाने का प्रस्ताव रख दिया. अंधे को क्या चाहिए?दो आँखें...फ़ौरन हाँ कर दी.

खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."धरम पाजी दा जवाब नहीं" वाक्य आप वहां खड़े हर दूसरे सरदार जी से सुन सकते थे.

बहुत लम्बी लाइन लगी हुई थी टिकट के लिए...इसकी कोई सम्भावना नहीं थी की लाइन में खड़े हो कर टिकट मिल सकेगा. मेरे परिचित हार मानने वाले कहाँ थे मुझसे बोले एक काम करते हैं मनेजर से मिलते हैं, आप सिर्फ़ उसके सामने इंग्लिश बोलना और कहना की जयपुर से आया हूँ और धर्मेन्द्र पाजी का बहुत बड़ा फेन हूँ...बस, काम हो जाएगा. मैनेजर तक पहुँचने की एक अलग कहानी है. सबसे पहले तो गेट कीपर को दस का नोट दिया जिसने हमें थिएटर में जाने दिया मिलने को.

मैनेजर साहेब एक ऊंचे तगडे सरदारजी थे और फोन पर किसी से बातों में व्यस्त थे, जिसमें बातें कम थीं और गालियाँ ज्यादा थीं...पंजाब में बात करने का एक एक खास स्टाइल है...आप जिसके जितने आत्मीय होंगे उस के साथ उतनी ही गालियाँ बातचीत में प्रयोग करेंगे. हम करीब दस मिनट खड़े रहे. फोन ख़तम करके वो हमारी तरफ़ देख कर बोले हाँ जी दस्सो...(बताओ). मेरे मित्र ने मेरे बारे में बताना शुरू किया की ये जनाब जयपुर से आए हुए हैं और "धरमिंदर पाजी" के बहुत बड़े फेन हैं अभी ये फ़िल्म वहां लगी नहीं है और ये इसे पहले देख कर इसका प्रचार वहां करेंगे...लेकिन समस्या टिकट की है इसलिए आप के पास आए हैं.

मैनेजर साहेब ने मेरी तरफ़ मुस्कुरा कर देखा...पूछा "अच्छा जी तुसी जयपुर तों आए हो? वा जी वा...लेकिन टिकट ते है नहीं..." मैंने अंग्रेजी में कहा की अगर मुझे ये फ़िल्म देखने को नहीं मिली तो बहुत अफ़सोस होगा और जयपुर में धर्मेन्द्र जी के फेन क्लब वाले निराश हो जायेंगे...आप कुछ कीजिये प्लीज" ...मेरी बात उन्हें कितनी समझ आयी कह नहीं सकता लेकिन "प्लीज" जरूर समझ में आ गया, इसलिए वो बोले " ओजी प्लीज की क्या बात है,चलो देखता हूँ तुवाडे लयी क्या कर सकता हूँ ". वे ये बोल कर चल दिए...और दस मिनट में दो टिकट लेकर लौटे..और...टिकट की कीमत धर्मेन्द्र जी के नाम पर दुगनी वसूल कर ली.

टिकट लेकर हम लोग इतने खुश हुए जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो...बाहर निकले तो देखा की अब लाइन टिकट विंडो की जगह थिएटर के गेट के सामने लग चुकी थी...धक्का मुक्का और गालियाँ अनवरत जारी थीं..लोग अन्दर घुसने को बेताब थे...गेट कीपर जंगले वाला गेट बंद कर के आराम से खड़ा था. मैंने अपने परिचित से पूछा की की ये इतनी लम्बी लाइन क्यूँ लगा रखी है और भीड़ अन्दर जाने को बेताब क्यूँ है...उसने कहा की टिकट पर सीट नंबर नहीं है इसलिए जो पहले घुसेगा उसे अच्छी सीट मिलेगी. " मर गए" मैंने मन में सोचा.

हम भी लाइन में जा खड़े हुए...अचानक जोर का शोर हुआ और एक धक्का लगा एक रेला सा आया जो मुझे और मेरे मित्र को लगभग हवा में लहराते हुए अपने आप थिएटर में पहुँचा दिया...अपने आप को संभल पाते तब तक हम थिएटर के अन्दर पहुँच चुके थे...थोड़ा अँधेरा था...परदे पर वाशिंग पौडर निरमा चल रहा था...सीट दिखाई नहीं दे रही थी...धक्के यथावत जारी थे...मेरे परिचित ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा हुआ था...हम किसी तरह पास पास सीट पर बैठ गए.

बैठने के बाद मैंने देखा की लगभग हर दूसरा सरदार अपनी पगड़ी खोल कर फेहराता और पाँच छे सीटों को ढक लेता...जिसकी पगड़ी के नीचे जितनी सीटें दब गयीं वो उसकी..." ओये मल लई मल लई सीट असां" ( हमने सीट रोक ली है) का शोर मचा हुआ था. लोग सीट के ऊपर से इधर उधर से याने हर किधर से कूद फांद कर बैठने की कोशिश कर रहे थे. रात के इस शो में महिलाएं कम नहीं थीं बल्कि वे भी इस युद्ध का हिस्सां थीं...कुछ कद्दावर महिलाएं पुरुषों को धक्का देकर सीट पे बैठ चिल्लाती नजर आ रहीं थीं की " दार जी आ जाओ...सीट मल लई है मैं...मुंडे नू वी ले आओ...तुसी ते किसी काज जोगे नहीं.."( सरदार जी आ जायीये सीट रोक ली है मैंने, लड़के को भी ले आओ, आप तो किसी काम के नहीं हो). कोने में खड़ी चार पाँच लड़कियां जो शायद इंग्लैंड से आयीं हुई थीं( उस ज़माने में अधिकतर लोग पंजाब से इंग्लैंड जा बसे थे और कभी कभी अपने वतन लौटते थे )अपनी पंजाबी युक्त इंग्लिश जबान में गुहार लगा रहीं थी " एय टॉर्च मैन हेल्लो टॉर्च मैन...तुम कहाँ हो टॉर्च मैन...सानू सीट पे बिठाओ प्लीज" . उनकी ये अजीब जबान सुनकर अधिकतर लोग हंस भी रहे थे...टॉर्च मैन ने ना आना था ना आया...आता भी क्या करने?

फ़िल्म शुरू हुई...धर्म पाजी के आते ही " जो बोले सो निहाल...सत श्री अकाल" के नारे से पूरा हाल गूँज उठा. तालियाँ उनके हर एक्शन और संवाद पर जो बजनी शुरू होतीं तो रूकती ही नहीं. फ़िल्म भारी शोर शराबे के बीच अनवरत चलती रही. जब लोग चुप होते तो हाल में चल रहे पंखों की आवाज सुनी देने लगती.

इंटरवल हुआ...आगे पीछे देखा की सारी सीटें भरी हुई हैं...कुछ लोग दीवार के साथ खड़े भी हैं...मित्र को कहा की चलो काफी पी कर आते हैं...हम लोग उठने की सोच ही रहे थे की अचानक पन्द्रह बीस लोग सर पर टोकरियाँ लेकर अन्दर आ गए...ध्वाने ले लो जी ध्वाने...(तरबूज ले लो जी तरबूज)...तिरछी फांकों में कटे लाल तरबूज जिन पर मख्खियाँ आराम से बिराज मान थीं देखते ही देखते बिक गए...इसके बाद खरबूजे, चना जोर गरम, समोसे, जलेबी, मुरमरे, पकोडे और तली मछली का नंबर भी इसी तरह आया...

मैंने सोचा जो लोग फ़िल्म के इंटरवल में आधी रात के बाद इतना कुछ खा सकते हैं वो लोग खाने के समय कितना खाते होंगे? लगता था की लोग शायद इंटरवल में खाने अधिक आए हैं और फ़िल्म देखने कम...या फ़िल्म के बहाने खाने आए हैं. खाने पीने का ये दौर फ़िल्म शुरू होने के बाद तक चलता रहा, लोगों के मुहं से निकली चपड़ चपड़ की आवाजें फ़िल्म से आ रही आवाज से अधिक थी.

एक दृश्य जिसमें धर्मेन्द्र एक गुंडे की ठुकाई कर रहा था परदे पर आया...गुंडा कुछ अधिक ही पिट रहा था...तभी एक आवाज आयी..."ओये यार बस कर दे मर जाएगा"...दूसरी तरफ़ से आवाज आयी " क्यूँ बस कर दे गुंडा तेरा प्यो लगदा ऐ?( क्यूँ बस कर दे गुंडा क्या तेरा पिता लगता है). पैसे दित्ते ने असां...मारो पाजी तुसी ते मारो..." अब पहली तरफ़ से दूसरी तरफ़ लहराती हुई चप्पल फेंकी गयी...येही कार्यक्रम दूसरी तरफ़ से चला...चप्पलों का आवागमन तेज हो गया....अब चप्पलों के साथ गालियाँ भी चलने लगीं...तभी एक कद्दावर सरदार ऊंची आवाज में बोला..." ओये ऐ खेड ख़तम करो फिलम देखन देयो...जिन्नू लड़ना है बाहर जा के लड़े...हुन किसी ने गड़बड़ कित्ती ते देखियो फेर सर पाड़ देयांगा..."( ओ ये खेल ख़त्म करो फ़िल्म देखने दो ...जिसने लड़ना है बाहर जा कर लड़े...अब किसी ने गड़बड़ की तो सर फोड़ दूँगा) सरदार जी की बात का असर हुआ...जो बोले सो निहाल का नारा फ़िर से लगा और फ़िल्म अंत तक बिना रूकावट के चलती रही....

बाहर निकल कर रिक्शा किया तो रिक्शा वाला बोला "साब जी मैं पिछले तिन दिना विच ऐ फ़िल्म तिन वारि देख चुक्या हाँ...धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं....जी करदा है तिन वारि होर वेखां..."

लुधियाना में देखी ये फ़िल्म और माहौल मैं कभी नहीं भूल पाता. आज के मल्टीप्लेक्स ने सिनेमा देखने के इस आनंद का बड़े शहरों में तो कचरा कर ही दिया है

Monday, November 15, 2010

तुम हुए जिस घड़ी हमसफ़र

फोटो: गूगल साभार

(दोस्तों पेश है एक और छोटी बहर की गज़ल)

दूरियां मत बढ़ा इस कदर
दूँ सदाएं तो हों बेअसर

सोच मत, ठान ले, कर गुज़र
जिंदगी है बडी मुख़्तसर

याद तेरी हमें आ गयी
मुस्कुराए, हुई ऑंख तर

बिन डरे सच कहें किस तरह
सीखिये आइनों से हुनर

गर सभी के रहें सुर अलग
टूटने से बचेगा न घर

राह, मंजिल हुई उस घड़ी
तुम हुए जिस घड़ी हमसफ़र

घर जला कर मेरा झूमते
दोस्तों की तरह ये शरर

हैं सभी पास “नीरज” कहाँ
वो जिसे ढूंढती है नज़र


मुख़्तसर: छोटी, शरर: चिंगारियां ,

Monday, November 8, 2010

किताबों की दुनिया - 41

मैं तो गज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
लफ़्ज़ों के एक से बढ़ कर एक आलिशान नगीनों से सजी नायाब किताब के शायर हैं मरहूम जनाब कृष्ण बिहारी "नूर" साहब, जिनका आज जनम दिन है. ये पोस्ट उनकी याद को ताज़ा करने की एक छोटी सी कोशिश है. आज हम उनकी किताब जिसे "आज के प्रसिद्द शायर" श्रृंखला के अंतर्गत राजपाल एंड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है की चर्चा करेंगे. श्री कन्हैया लाल नंदन जी द्वारा सम्पादित इस किताब का एक एक लफ्ज़ पढ़ने वाले के दिल पर छा जाता है.

अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया
शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है

मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है

मैं जिसके हाथ में इक फूल दे के आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है

खालिस शायरी का यह बहता हुआ दरिया जो कृष्ण बिहारी श्रीवास्तव नाम से जाना गया, लखनऊ की देन है और आठ नवंबर सन 1925 को जनाब कुंजबिहारी लाल श्रीवास्तव के बेटे के रूप में पैदा हुआ था. मात्र सत्रह साल की उम्र से उन्होंने शायरी करनी शुरू कर दी और अपने उस्ताद जनाब फज़ल नक़वी की रहनुमाई में "नूर" तख़ल्लुस से शेर कहने लगे.कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़लें जब बोलती है तो साफ साफ बोलती है, बिना किसी लाग लपेट के। ग़ज़ल की रवायत कृष्ण बिहारी नूर के यहाँ ग़ज़ल की रवायत जैसी ही नज़र आती है, न कम न ज़्यादा, ठीक उन्ही के इस शेर की तरह - सच घटे या बढ़े तो सच न रहे/झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं।

उस तश्नालब की नींद न टूटे,ख़ुदा करे
जिस तश्नालब को ख़्वाब में दरिया दिखाई दे

दरिया में यूँ तो होते हैं क़तरे-ही-क़तरे सब
क़तरा वही है जिसमें कि दरिया दिखाई दे

क्यूँ आईना कहें उसे, पत्थर न क्यूँ कहें
जिस आईने में अक्स न उनका दिखाई दे

क्या हुस्न है जमाल है, क्या रंग-रूप है
वो भीड़ में भी जाए तो तनहा दिखाई दे

नूर साहब की शायरी सुनते पढते कभी ये गुमां नहीं होता के वो सिर्फ उर्दू ज़बान के शायर है. वो हमारी गंगा जमनी तहजीब के शायर हैं और खालिस हिन्दुस्तानी में शायरी करते हैं. ये ही वजह है के नामी गरामी शोअराओं के बीच मुशायरे में पढते हुए उन्हें बार बार आवाज़ देकर बुलाया जाता था और जब वो आते तो बस सावन के बादलों की तरह सुनने वालों के दिलो दमाग पर छा जाते और अपने खूबसूरत अशआरों की रिमझिम से उन्हें सरोबार कर देते.

आते -जाते सांस हर दुःख को नमन करते रहे
उँगलियाँ जलती रहीं और हम हवन करते रहे


दिन को आँखें खोल कर संध्या को आँखें मूंदकर
तेरे हर इक रूप की पूजा नयन करते रहे


खैर, हम तो अपने ही दुःख-सुख से कुछ लज्जित हुए
लोग तो आराधना में भी गबन करते रहे


विनम्रता और सादगी में उनका कोई सानी नहीं था. असल में येही सादगी और विनम्रता उनकी शायरी के केन्द्र में है, जिसमें आध्यात्मिकता और उदात्तता हर पल सांस लेती है. उनके गज़ल संग्रह " दुःख-सुख", "तपस्या" और "समंदर मेरी तलाश में है" प्रकाशित हो कर धूम मचा चुके हैं.नूर साहब की शायरी किसी अवार्ड या ईनाम की मोहताज़ नहीं है, उन्हें अमीर खुसरो अवार्ड, ग़ज़ल अवार्ड, उर्दू अकेडमी अवार्ड, मीर अकादमी अवार्ड, दया शंकर नसीम अवार्ड, और इन सब से बड़ा पाठकों और श्रोताओं की बेपनाह मोहब्बतों का अवार्ड मिला है. उन्हें अमेरिका में एक साथ बारह स्थानों पर उनकी शान में रखे मुशायरों में शिरकत करने का मौका भी मिल चुका है जो उनकी अंतर राष्ट्रिय लोकप्रियता का परिचायक है.

इस सज़ा से तो तबियत ही नहीं भरती है
जिंदगी कैसे गुनाहों की सज़ा है यारो


कोई करता है दुआएं तो ये जल जाता है
मेरा जीवन किसी मंदिर का दिया है यारो


मैं अँधेरे में रहूँ या मैं उजाले में रहूँ
ऐसा लगता है कोई देख रहा है यारो


इस संकलन में नूर साहब की अब तक हिंदी में अप्रकाशित चार पांच ग़ज़लें भी हैं, जिन्हें मुशायरों के ज़रिये लोगों ने भले सुना हो लेकिन पढ़ने का अवसर इस संकलन से ही मिलेगा. शाश्वत सच्चाइयां पिरोई उनकी गज़लें बार बार पढ़ने को जी करता है. छोटी बहर की उनकी एक कामयाब गज़ल के चंद शेर देखें:-

जिंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं


इतने हिस्सों में बाँट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आईना झूट बोलता ही नहीं

अपनी रचनाओं में वो जिंदा है
'नूर'संसार से गया ही नहीं.

सच फरमा गए हैं नूर साहब ऐसा हर दिल अज़ीज़ शायर कभी संसार से जा ही नहीं सकता, लखनऊ की एक सड़क दुर्घटना में 30 मई 2003 को ये देह छोड़ कर नूर साहब सदा के लिए अपने चाहने वालों के दिल में बस गए हैं. मेरी शायरी के चाहने वालों से गुज़ारिश है के राजपाल एंड संस् द्वारा प्रकाशित इस किताब को अपने लाइब्रेरी में जरूर जगह दें. किताब प्राप्ति के लिए आप राजपाल की वेब साईट www.rajpalpublishing.com अथवा उनके इ-मेल mail@rajpalpublishing.com पर संपर्क करें. इस किताब की भरपूर जानकारी के लिए आप http://pustak.org/bs/home.php?bookid=1533 पर क्लिक करें.
इस किताब में संकलित गज़लें इतनी खूबसूरत हैं के उन्हें आप तक न पहुंचा कर लगता है जैसे मैं कोई अधूरा काम कर रहा हूँ.मेरी मजबूरी है के छह कर भी मैं ये पूरी किताब आपके समक्ष नहीं रख सकता, हाँ कुछ गज़लों के चुनिन्दा शेर आपतक जरूर पहुंचा रहा हूँ, उम्मीद है पसंद आयेगें...मुझे तो दीवानगी की हद तक पसंद आये हैं...सच...इस किताब का खुमार शायद ही उतरे...

गुज़रे जिधर जिधर से वो पलटे हुए नक़ाब्
इक नूर की लकीर सी खींचती चली गयी

***
लब क्या बताएं कितनी अज़ीम उसकी ज़ात है
सागर को सीपीयों से उलचने की बात है

***
मैं तो अपने कमरे में तेरे ध्यान में गुम था
घर के लोग कहते हैं सारा घर महकता था

***
शख्श मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी, हाथ में पैसा न था

***
तमाम ज़िस्म ही घायल था घाव ऐसा था
कोई न जान सका रख रखाव ऐसा था

***
ज़मीर काँप जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले कि हो गुनाह के बाद

***

लीजिए अब सुनिए ये शेर उन्हीं कि जुबानी...मैं बीच में से हट जाता हूँ और तलाशता हूँ आपके लिए एक और किताब. .


***

Monday, November 1, 2010

चाँद छुपे जब बदली में

(आज की मेरी ये ग़ज़ल मैं हर दिल अज़ीज़ शायर और मेरे बड़े भाई समान जनाब जाफ़र रज़ा साहब को समर्पित कर रहा हूँ जो अचानक हमें और अपने सभी चाहने वालों को मंगलवार छब्बीस अक्टूबर को बिलखता छोड़ कर चले गए. उन जैसा ज़िंदा-दिल इंसान और बेहतरीन शायर दूसरा ढूँढना मुश्किल है. सिर्फ दो दिन पहले रविवार की रात को उनके साथ शिरकत किये मुशायरे की याद हमेशा दिल में ताज़ा बनी रहेगी. खुदा उस नेक रूह को करवट करवट ज़न्नत नसीब करे.)



तन्हाई में गाया कर
खुद से भी बतियाया कर

हर राही उस से गुज़रे
ऐसी राह बनाया कर

रिश्तों में गर्माहट ला
मुद्दे मत गरमाया कर

चाँद छुपे जब बदली में
तब छत पर आ जाया कर

जिंदा गर रहना है तो
हर गम में मुस्काया कर

नाजायज़ जब बात लगे
तब आवाज़ उठाया कर

मीठी बातें याद रहें
कड़वी बात भुलाया कर

‘नीरज’ सुन कर सब झूमें
ऐसा गीत सुनाया कर


(परम आदरणीय गुरु प्राण शर्मा जी की रहनुमाई में कही ग़ज़ल )

Monday, October 25, 2010

किताबों की दुनिया - 40

चल दिए हम उन्हें मनाने को
हो के मायूस लौट आने को

अब कोई आँख नम नहीं होती
क्या नज़र लग गयी ज़माने को

कोई बैसाखियाँ नहीं बनता
टोकते सब हैं लड़खड़ाने को

छोटी बहर में अपनी बात कहना हुनर मंदी है, ये हुनर आसानी से नहीं आता एक भी लफ्ज़ इधर से उधर हुआ के समझो शेर की तासीर कम हुई. उस्ताद ही छोटी बहर में कहने कि जुर्रत कर सकते हैं या फिर हम जैसे नौसिखिए उस्तादों कि रहनुमाई में कुछ कह पाते हैं. आपने ऊपर जिन शेरों को पढ़ कर तारीफ़ में वाह की है उसके कहने वाले शायर हैं, 'अमरोहा' उत्तर प्रदेश में 4 सितम्बर 1956 को जन्में जनाब "दीक्षित दनकौरी".

जिसने पल पल मुझे सताया है
कैसे कह दूँ कि वो पराया है

ऐन मुमकिन है रो पड़े फिर वो
मुद्दतों बाद मुस्कुराया है

हमने सारी सजा भुगत ली जब
उनको इलज़ाम याद आया है

हाल ही में चार दिन के लिए जयपुर गया था दो दिन वहां चल रहे पुस्तक मेले में कट गए और बाकी के दो मिष्टी का जनम दिन मनाने में. इस बार वहां बहुत से प्रिय जनों से मिलने का कार्यक्रम था जिसमें कुश का नाम सर्वोपरि था क्यूँ कि उसी के माध्यम से पता चला था के जयपुर में पुस्तक मेला चल रहा है. लेकिन जैसा कि मैंने कहा समय की ऐसी कमी रही के सांस लेने के लिए एक अलग से आदमी रखना पढ़ा :-).
उसी पुस्तक मेले में घूमते हुए दीक्षित दनकौरी जी की किताब "डूबते वक्त.." पर नज़र पड़ी. इनका नाम जेहन में इसलिए था क्यूँ कि इनकी सम्पादित तीन पुस्तकों कि श्रृंखला "गज़ल...दुष्यन्त के बाद " मेरी नज़रों से गुज़र चुकी थी. दनकौरी जी ने ग़ज़लों पर ढेरों किताबें सम्पादित की हैं इसलिए उन्हें शायरी की खूब समझ है और ये समझ उनके अशआर के हर लफ्ज़ में हमें दिखाई देती है.


ग़लत मैं भी नहीं तू भी सही है
मुझे अपनी तुझे अपनी पड़ी है

अना बेची वफ़ा कि लौ बुझा दी
उसे धुन कामयाबी की लगी है

शराफत का घुटा जाता है दम ही
हवा कुछ आजकल ऐसी चली है

दनकौरी साहब के कलाम की तारीफ़ जनाब कृष्ण बिहारी 'नूर',मखमूर सईदी, नूरजहाँ'सर्वत', गोपाल दास 'नीरज', अशोक अंजुम, हस्तीमल जी हस्ती, चंद्रसेन 'विराट', आबिद सुरती, डा.कुंवर बैचैन, डा.शेर गर्ग जैसे कई नामचीन साहित्यकारों और पिंगलाचार्य श्री महर्षि जी ने भरपूर की है. कारण बहुत सीधा और साफ़ है, दीक्षित जी कि गज़लें कथ्य, लय,छंद की कसौटी पर खरी उतरती हैं. उन्होंने अपनी मिटटी, अपनी ज़मीन, अपने लोगों के दर्द को महसूस करके उन्हें अपनी शायरी का हिस्सा बनाया है. उर्दू गज़ल की सजावट और हिंदी गज़ल कि सुगंध लिए दीक्षित जी की ग़ज़लें सरल और सहज हैं.

बढ़ा दिए हैं तो वापस कदम नहीं करना
मिले न साथ किसी का तो ग़म नहीं करना

तमाम उम्र ही लग जाए भूलने में उसे
किसी ग़रीब पे इतना करम नहीं करना

इन आँधियों की भी औक़ात देख लेने दे
मुझे बचा के तू मुझ पर सितम नहीं करना

किताब घर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस किताब की एक खूबी ये भी है के ये उर्दू और देवनागरी दोनों लिपियों में छपी गयी है. किताब के बाएं पृष्ठ पर उर्दू में और दायें पृष्ठ पर हिंदी में गज़लें छपी गयीं हैं. ये खूबी हिंदी में छपी शायरी कि बहुत कम किताबों में मिलती है. इस किताब में दीक्षित जी कि लगभग पचास ग़ज़लें पढ़ने को मिलती हैं जिनमें अधिकाँश छोटी बहर में हैं . छोटी बहर कि गज़लें शीघ्र ही याद हो जाती हैं और गुनगुनाई जाती हैं.

रिश्ता कितना ही गहरा हो
खलता है गर रास न आये

उसने पूछ लिया कैसे हो
आँखों में आंसू भर आये

काश भरत से भाई हों सब
राम कभी वो दिन दिखलाये

दीक्षित जी ने लगभग हज़ार से अधिक कवि सम्मेलनों में शिरकत और उनका सफल सञ्चालन किया है इसके अलावा दूरदर्शन, सब टी.वी.,एन.डी.टी.वी.,आकाशवाणी एवं विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने चाहने वालों को अपनी शायरी से खुश किया है. उन्हें उर्दू शायरी की खिदमत के लिए "दुष्यंत अवार्ड 2001",अंजुमने फ़रोग़े-उर्दू (दिल्ली),हिंदी विद्या रत्न भारती सम्मान, शायरे-वतन, रंजन कलश शिव सम्मान भोपाल, नौ रत्न अवार्ड 2004, आबरू-ऐ-गज़ल जैसे बहुत से सम्मान एवम पुरुस्कारों से नवाज़ा गया है.

यक़ीनन तेरे दामन पर न कोई दाग है फिर भी
शराफ़त के लबादे का उतर जाना ही बेहतर है

तेरी आवारगी का लोग पूछेंगे सबब आख़िर
अगर बतला नहीं सकता तो घर जाना ही बेहतर है

तू कहता है न सुनता है, न सोता है न जगता है
न रोता है न हँसता है तो मर जाना ही बेहतर है

जो लोग दीक्षित साहब कि किताब हासिल करने में मुश्किलों का सामना कर रहें हों उनसे गुज़ारिश है के वो जनाब दनकौरी साहब से इस किताब कि प्राप्ति का रास्ता उनके इ-मेल dixitdankauri@gmail.com पर संपर्क कर पता करें या फिर उनसे सीधे ही उनसे फोन न. 011-22586409 या मोबाईल न. 09899172697 पर बात कर स्वयं उन्हें इस खूबसूरत शायरी के लिए मुबारकबाद दें. शायर के लिए उसके पाठकों का प्यार ही सब कुछ होता है इसलिए आप उनकी शायरी के प्रति अपने प्यार का इज़हार उनसे जरूर करें.

चलते चलते दीक्षित जी के तीन शेर और पढ़िए और उसके बाद सुनिए उन्हें अपने अशआर सुनाते हुए, सब टी.वी. के लोकप्रिय कार्यक्रम वाह वाह में:-

मैं तेरा तो नहीं हो गया
काम का तो नहीं हो गया

तुझको पूजा अलग बात है
तू खुदा तो नहीं हो गया

एक तो बोलना, वो भी सच
सरफिरा तो नहीं हो गया