Monday, October 29, 2018

किताबों की दुनिया -201

मिले तो खैर न मिलने पे रंजिशें कैसी 
कि उससे अपने मरासिम थे पर न थे ऐसे 
*** 
आस कब दिल को नहीं थी तेरे आ जाने की 
पर न ऐसी कि क़दम घर से न बाहर रखना
 *** 
मेरी गर्दन में बाहें डाल दी हैं 
तुम अपने आप से उकता गए क्या
 *** 
मगर किसी ने हमें हमसफ़र नहीं जाना 
ये और बात कि हम साथ-साथ सब के गये 
***
 मुंसिफ हो अगर तुम तो कब इन्साफ करोगे 
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते
 ***
 खिले तो अब के भी गुलशन में फूल हैं लेकिन 
न मेरे ज़ख्म की सूरत न तेरे लब की तरह 
*** 
इस चकाचौंध में आँखे भी गँवा बैठोगे 
उसके होते हुए पलकों को झुकाये रखना 
*** 
हम यहाँ भी नहीं हैं खुश लेकिन 
अपनी महफ़िल से मत निकाल हमें 
*** 
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौसला है मुझे
 *** 
हंसी ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है 
ये हर मकाम पे क्या सोचता है आखिर तू 

बहुत बड़ा ऑडिटोरियम था ,पूरा खचाखच भरा हुआ, लोग कुर्सियों के अलावा कॉरिडोर में भी बैठे थे ,यूँ समझें तिल धरने को भी जगह नहीं थी। सामने मंच पर साजिंदे बैठे और बीच में शॉल ओढ़े गायक जिसकी उँगलियाँ हारमोनियम पर थीं। अचानक गायक ने हारमोनियम पर सुर छेड़े और जैसे ऑडिटोरियम में करंट सा दौड़ गया। तालियों की गड़गड़ाहट से दीवारें कांपने लगीं , कुछ लोग सीट पर से खड़े हो कर सीटियां बजाने लगे, गायक ने आलाप लिया तालियां और तेज हो गयीं , लोग खुद गुनगुनाने लगे। गायक ने हारमोनियम रोक दिया सामने की सीट पे बैठे एक सज्जन को सलाम किया वो उठ खड़े हुए और ऑडिटोरियम में बैठे लोगों की और मुंह करके हाथ हिलाया। तालियों बजती रहीं। गायक ने गला साफ़ करके कहा " मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी शायर को उसके जीते जी इतना सम्मान और मकबूलियत हासिल हुई हो ,ये अपने दौर के तो सबसे मकबूल शायर हैं ही ,आने वाली सदियां भी इन्हें शिद्दत से याद किया करेंगी। "

 फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं 
तेरे आने के ज़माने आये 

 ऐसी कुछ चुप-सी लगी है जैसे 
हम तुझे हाल सुनाने आये 

 दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम 
काश ! फिर कोई बुलाने आये 
हंगाम :समय 

 क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी 
लोग क्यों जश्न मनाने आये 

 आज हम जिस शायर और उसकी किताब की बात कर रहे हैं उसे उर्दू बोलने समझने वाले सभी लोग चाहे वो जिस भी मुल्क के बाशिंदे हों बेहद प्यार करते थे, करते हैं और करते रहेंगे।इनकी शायरी को सरहदों में बांधना ना-मुमकिन है। हमने जिस गायक की बात अभी की वो थे जनाब मेहदी हसन साहब और शायर थे जनाब 'अहमद फ़राज़' जिस धुन को हारमोनियम पर अभी उन्होंने बजाया वो थी फ़राज़ साहब की बेहद मशहूर ग़ज़ल "रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ ..." इस एक ग़ज़ल ने मेहदी हसन साहब को जो मकबूलियत दिलाई उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। लगता है जैसे मेहदी हसन साहब इस ग़ज़ल को गाने के लिए बने थे ,यूँ तो उनकी ढेरों ग़ज़लें सुनने वालों को मुत्तासिर करती रही हैं लेकिन 'रंजिश ही सही ..." की तो बात ही अलग है।इस ग़ज़ल को हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बहुत से नए पुराने गायक -गायिकाओं ने पहले भी गाया है आज भी गाते हैं, गाते भी रहेंगे लेकिन जो असर मेहदी हसन साहब ने इसे गाते हुए पैदा किया था उसकी तो बात ही कुछ और है। यूँ तो फ़राज़ साहब की ढेरों किताबें बाजार में हैं, उन्हीं में से एक "ख़्वाब फ़रोश" हमारे सामने है :


 जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे 
मैंने ये आलम भी देखा है तिरि तस्वीर का 

 जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर 
आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरि तहरीर का

 जिसको भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है फ़राज़ 
सिलसिला टूटा नहीं है दर्द की ज़ंज़ीर का 

 ये कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा कि फ़राज़ बीसवीं सदी के महान शायरों इक़बाल और फैज़ साहब के बाद उर्दू के सबसे लोकप्रिय शायर हुए हैं। ऐसा भी नहीं है कि उनके समकालीन शायरों की शायरी उनसे मयार में कम थी लेकिन जो लोकप्रियता फ़राज़ साहब ने हासिल की वैसी उनके साथ के शायर नहीं हासिल कर पाए। अगर गौर करें तो पाएंगे कि फ़राज़ साहब की लोकप्रियता का राज़ उनकी शायरी की ज़बान थी। बेहद आसान ज़बान में गहरी बात कहने का जो हुनर फ़राज़ साहब के पास था वैसा और दूसरे शायरों में नहीं मिलता यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों को भारत या पाकिस्तान के गायकों ने खूब गाया है। फ़राज़ खुद भी देश विदेश के मुशायरों में अपनी सादा ज़बान और अपना कलाम पढ़ने के निराले अंदाज़ के कारण बहुत बुलाये जाते थे। उनके व्यक्तित्व और कलाम को पढ़ कर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि इस शायर के पास फौलाद का जिगर है।

 ये ख़्वाब है खुशबू है कि झौंका है कि पल है
 ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो

 इस दीद की साअत में कई रंग हैं लरज़ां 
मैं हूँ कि कोई और है ,दुनिया है, कि तुम हो
 साअत =क्षण 

 देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी 
देखूं ये किसी और का चेहरा है ,कि तुम हो 

 पाकिस्तान के शहर कोहाट में 12 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ का असली नाम सैयद अहमद शाह था लेकिन वह दुनिया भर में अपने तख़ल्लुस अहमद फ़राज़ के नाम से जाने जाते थे. कोहाट में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वो आगे पढ़ने के लिए 75 की मी दूर बसे बड़े शहर पेशावर चले गए। पेशावर के मशहूर एडवर्ड कॉलेज से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी ज़बानों में एम् ऐ की डिग्री हासिल की। स्कूल के ज़माने में उनका बैतबाज़ी में हिस्से लेने का शौक बाद में शायरी की ओर खींच लाया। ग़ज़ल लेखन की और उनका झुकाव कॉलेज दिनों से ही हो गया था जहाँ फैज़ अहमद फैज़ पढ़ाया करते थे। शुरू में उनकी शायरी रुमानियत से भरी नज़र आती है। फैज़ और अली सरदार ज़ाफ़री साहब के संपर्क में आने के बाद उनकी शायरी में बदलाव देखने को मिलता है।

 तू भी हीरे से बन गया पत्थर 
 हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ 

 देर से सोच में हैं परवाने 
राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ 

 अब के अगर तू मिले तो हम तुझसे 
ऐसे लिपटें तिरि क़बा हो जाएँ

 'फ़राज़' अपने आदर्श फैज़ की तरह क्रांतिकारी शायर नहीं थे लेकिन उनकी शायरी में राजनीती में होने वाली ओछी हरकतों को खुल कर बयां करने का हौसला था. बांग्ला देश बनने से पहले पश्चिमी पाकिस्तान की सेना द्वारा पूर्वी पकिस्तान के बंगाली सैनिकों और आम इंसान पर ढाये गए जुल्म को उन्होंने खुल कर अपनी एक नज़्म में बयां किया है। इस नज़्म को उन्होंने सार्वजानिक रूप से एक मुशायरे में पढ़ा और पाकिस्तान की सेना को जल्लाद कहा। जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के इशारे पर उन्हें रातों रात बिना किसी वारंट के जेल में बंद कर दिया गया। कोई और शायर होता तो इस बात के लिए सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांग कर जेल से बाहर आ सकता था लेकिन फ़राज़ को ये मंज़ूर नहीं था। जेल की चार दीवारों में बंद घुटन और साथ ही उन पर ढाये जाने वाले जुल्म फ़राज़ को तोड़ने में नाकामयाब रहे। फ़राज़ के इस हौसले की चारों और बहुत प्रशंशा हुई।

 मेरे झूठ को खोलो भी और तोलो भी तुम 
लेकिन अपने सच को भी मीज़ान में रखना 
मीज़ान =पलड़ा 

बज़्म में यारों की शमशीर लहू में तर है 
रज़्म में लेकिन तलवारों को म्यान में रखना 
रज़्म =युद्ध 

 इस मौसम में गुलदानों की रस्म कहाँ है 
लोगो ! अब फूलों को आतिशदान में रखना  

तानाशाही रवैय्यों से उनका दूसरा पाला तब पड़ा जब जनरल जिया -उल-हक़ पाकिस्तान के डिक्टेटर बने। जिया हर पढ़ेलिखे समझदार इंसान से नफरत करते थे। उन्हें फ़राज़ का सैन्य अधिकारीयों के खिलाफ लिखना नाग़वार गुज़रता था। फ़राज़ उस वक्त के पाकिस्तान के माहौल से निराश हो कर वहां से 6 साल के लिए जलावतन हो गए और ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में प्रवास करते रहे। उनके साथ पाकिस्तानी हुक्मरानों ने जैसा बुरा व्यवहार किया उसकी मिसाल ढूंढना मुश्किल है। अमेरिका के पिठ्ठू कहने पर जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने उनके सारे सामान के साथ उन्हें सरकारी घर से सड़क पर ला खड़ा किया। अमेरिका में बसे पाकिस्तानी 'मोअज़्ज़म शेख ' ने अपने एक लेख में लिखा था कि "अगर ओलम्पिक में किसी शायर या कवि पर किये गए अत्याचारों पर मैडल देने की प्रतियोगिता होती तो पाकिस्तान को गोल्ड मैडल मिलता।"

 बदला न मेरे बाद भी मौजू-ए-गुफ़्तगू 
मैं जा चुका हूँ फिर भी तेरी महफ़िलों में हूँ

 मुझसे बिछुड़ के तू भी तो रोयेगा उम्रभर 
ये सोच ले कि मैं भी तेरी ख्वाइशों में हूँ 

 तू हंस रहा है मुझ पे मेरा हाल देख कर 
और फिर भी मैं शरीक तेरे कहकहों में हूँ

 भले ही पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया लेकिन पाकिस्तान की अवाम ने हमेशा उन्हें सर आँखों पे बिठाया। पाकिस्तान की ही नहीं बल्कि हर उस इंसान ने जिसे उर्दू ज़बान और शायरी से मोहब्बत है फ़राज़ साहब को अपने दिल के तख्ते ताउस पर बड़ी इज़्ज़त से बिठया है। ये उनके प्रति लोगों का प्यार ही है जिसकी बदौलत उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिनमें सितारा-ए-इम्तियाज़ ,हिलाल-ए-इम्तियाज और निगार अवार्ड प्रमुख हैं। सं 2006 में उन्होंने सरकार की नीतियों से सहमत न होते हुए हिलाल-ऐ-इम्तिआज़ अवार्ड वापस कर दिया था। 25 अगस्त 2008 को इस्लामाबाद के एक निजी अस्पताल में गुर्दे की विफलता से फराज़ का निधन हो गया। 26 अगस्त की शाम को इस्लामाबाद, पाकिस्तान के एच -8 कब्रिस्तान के कईप्रशंसकों और सरकारी अधिकारियों के बीच उनको सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया। पाकिस्तान सरकार ने अपने किये पे शर्मिंदा होते हुए उन्हें उनकी मृत्यु के बाद सन 2008 में हिलाल-ऐ- पकिस्तान के अवार्ड से नवाज़ा।

 यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए 
अब यही तर्क-ऐ-तअल्लुक़ के बहाने मांगे 

 अपना ये हाल कि जी हार चुके लुट भी चुके 
और मोहब्बत वही अंदाज़ पुराने मांगे

 ज़िन्दगी हम तिरे दागों से रहे शर्मिंदा 
और तू है कि सदा आईनाख़ाने मांगे 

 अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फ़िराक का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।

 क्या क़यामत है कि जिनके लिए रुक-रुक के चले 
अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं 

 कोई बतलाओ कि इक उम्र का बिछड़ा महबूब 
इत्तिफ़ाक़न कहीं मिल जाए तो क्या कहते हैं 

 जब तलक दूर है तू तेरी परिस्तिश करलें 
हम जिसे छू न सकें उसको खुदा कहते हैं 

 मेहदी हसन की आवाज़ में "रंजिश ही सही--" के अलावा "अब के हम बिछुड़े तो शायद ---" और गुलाम अली साहब की आवाज़ में ये आलम शौक का ---"जैसी न जाने कितनी ग़ज़लों के माध्यम से फ़राज़ साहब हमारे बीच सदियों तक ज़िंदा रहेंगे।पाकिस्तान के मेहदी हसन और गुलाम अली साहब के अलावा भारत के नामचीन गायकों जैसे जिनमें लता मंगेशकर, आशा भोंसले, जगजीत सिंह, पंकज उधास आदि ने भी अपना स्वर दिया है ।उनके क़लाम को पढ़ने का पूरा मज़ा लेने के लिए आपको उनकी किताब " ख़ानाबदोश चाहतों के" तलाशनी होगी जिसमें फ़राज़ साहब की चुनिंदा ग़ज़लें और नज़्में हैं। फ़राज़ साहब की शायरी का हिंदी में इस से बेहतर संकलन और किसी किताब में नहीं है। " " ख्वाब फरोश " , जिसे डायमंड बुक्स ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेज -2 द्वारा प्रकाशित किया है, को मंगवाने के लिए आप उन्हें 011-41611861 पर फोन करें या उनकी वेब साइट www.dpb.in पर जा कर इसे आन लाइन ऑर्डर करें। ये किताब अमेज़न पर भी आसानी से उपलब्ध है। आखिर में इस किताब की एक ग़ज़ल से ये शेर पढ़वाते हुए हम आपसे रुखसत होते हैं :

 ये क्या कि सबसे बयाँ दिल की हालतें करनी
 फ़राज़ तुझको न आई मोहब्बतें करनी 

 मोहब्बतें ये कुर्ब क्या है कि तू सामने है और 
हमें शुमार अभी से जुदाई की साअतें करनी 
कर्ब =निकटता , साअतें =क्षण  

हम अपने दिल से हैं मज़बूर और लोगों को
 ज़रा सी बात पे बरपा कयामतें करनी 

 ये लोग कैसे मगर दुश्मनी निभाते हैं 
हमें तो रास न आए मोहब्बतें करनी

Monday, October 22, 2018

किताबों की दुनिया - 200

ता-हश्र उसका होश में आना मुहाल है
 जिसकी तरफ सनम की निगाहे-नयन गई 
ता-हश्र =क़यामत तक 
*** 
साफ़ी तिरे जमाल की कां लग बयां करूँ
 जिस पर कदम निगाह के अक्सर फिसल गए 
साफी =सफाई, सुंदरता , जमाल =रोशनी ,कां लग =कहाँ तक 
*** 
सजन तेरी गुलामी में किया हूँ सल्तनत हासिल 
मुझे तेरी गली की ख़ाक है तख्ते-सुलेमानी 
*** 
मुद्दत के बाद गर्मी दिल की फरद हुई है 
शरबत है हक़ में मेरे उस बेवफ़ा की गाली 
फरद =समाप्त 
*** 
तुझ मुख की आब देख गई, आब आब की 
ये ताब देख अक्ल गई आफ़ताब की 
*** 
सुन कर खबर सबा सूँ गरेबाँ को चाक़ कर 
निकले हैं गुल चमन सूँ तिरे इश्तयाक में
 सबा =हवा , इश्तयाक =चाह 
*** 
तुझ गाल पर नौं का निशाँ दिसता मुझे उस घात का 
रोशन शफ़क़ पर जगमगे ज्यूँ चाँद पिछली रात का 
नौं =नाख़ून, दिसता =दिखाई देता 
*** 
वो आबो-ताब हुस्न में तेरे है ऐ सजन 
खुर्शीद जिस कूँ देख कर लरज़ां है ज्यूँ चिराग 
खुर्शीद =चाँद 
*** 
शुगल बेहतर है इश्कबाज़ी का 
क्या हकीकी क्या मजाज़ी का 
हकीकी =वास्तविक , मजाज़ी =अवास्तविक
 *** 
बुलबुलां गर यक नज़र देखें तिरे मुख का चमन 
फिर न देखें ज़िन्दगी में मुख कभी गुलज़ार का 
*** 
ऐ शोख़ तुझ नयन में देखा निगाह कर-कर 
आशिक़ के मारने का अंदाज़ है सरापा 

 आप सर खुजला रहे होंगे -नहीं ? अच्छा जी ? इसलिए पूछा क्यूंकि मैंने तो ये सब पढ़ते वक्त खुजलाया था और इतनी जोर से खुजलाया की मेरे सर पर पड़े नाखूनों के निशान आप आज भी देख सकते हैं। बात ही ऐसी थी। इससे पहले ना ऐसी भाषा पढ़ने में आयी थी और न ऐसे ख़्याल। आती भी कैसे ? साढ़े तीन सौ सालों में बहुत कुछ बदल गया है। जी सही पढ़ा आपने , ये जो अशआर अगर आपने पढ़ें हैं तो बता दूँ कि आज से लगभग साढ़े तीन सौ साल पहले के हैं। कैसा ज़माना रहा होगा न तब ? शायर के पास सिवा इश्क फरमाने और अपनी मेहबूबा की ख़ूबसूरती बखान करने के अलावा और कोई काम ही नहीं होता होगा शायद । रोज़ी रोटी की फ़िक्र तो तब भी हुआ ही करती होगी लेकिन शायद उसके लिए इतनी मारामारी नहीं हुआ करती होगी जितनी आज के दौर में होती है । थोड़े में गुज़ारा हुआ करता होगा। तब लोग उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज्यादा सफ़ेद क्यों के झमेले में नहीं पड़ते होंगे।हाथ में वक़्त हुआ करता होगा तभी लोग कभी बुलबुल कभी चाँद कभी गुलशन कभी फूल देख देख कर खुश हुआ करते होंगे।

 अँखियों की करूँ मसनद ओ पुतली का करूँ बालिश 
वो नूरे-नज़र आज अगर मेरे घर आवे 
बालिश =तकिया 

 जामे मनें गुंचे नमन रह न सकूँ मैं 
गर पी की खबर लेके नसीमे-सहर आवे
 नसीमे-सहर =सुबह की हवा  

तुझ लब की अगर याद में तस्नीफ़ करूँ शेर 
हर शेर मनें लज़्ज़ते-शहदो-शकर आवे 

 हमने किताबों की दुनिया की ये यात्रा समझिये गंगा सागर से शुरू की थी आज हम गो-मुख पर आ पहुंचे हैं ,देखिये ,जरा गौर से देखिये यहाँ का पानी गंगा सागर के पानी से बिलकुल अलग है इसलिए कुछ अजीब सा लग रहा है।आज हम जिस शायर और उसकी शायरी की बात कर रहे हैं उन्हें उर्दू शायरी का जनम दाता कहा जाता है , कोई उन्हें शायरी का बाबा आदम कहते हैं तो कोई उर्दू अदब के वाल्मीकि, क्यों कि उन से पहले शायरी फ़ारसी ज़बान में हुआ करती थी। उन्होंने ही सबसे पहले उर्दू ज़बान की नज़ाकत, नफ़ासत और ख़ूबसूरती को शायरी में इस्तेमाल किया। उन्होंने न सिर्फ भारतीय ज़बान उर्दू को शायरी में इस्तेमाल किया बल्कि भारतीय मुहावरे, भारतीय ख़याल (कल्पना) और इसी मुल्क की थीम को भी अपने कलाम की बुनियाद बनाया। इस तरह मुक़ामी अवाम उर्दू शायरी से जुड़ गई .उस वक्त लिया गया ये एक क्रन्तिकारी क़दम था।

 सजन तुझ इन्तजारी में रहें निसदिन खुली अंखिया
मशाले शमआ तेरे ग़म में रो-रो बह चली अँखियाँ

 तेरे बिन रात-दिन फिरतियाँ हूँ बन-बन किशन की मानिंद
अपस के मुख ऊपर रखकर निगह की बांसली अखियां

 तिरि नयनां पे गर आहो-तसदक हो तो अचरज नहीं
कि इस कूँ देख कर गुलशन में नरगिस ने मली अँखियाँ
आहो-तसदक=सदके करना 

  घुमक्कड़ी के बेहद शौकीन हमारे आज के शायर जनाब 'वली' दकनी की शायरी को श्री जानकी प्रसाद शर्मा जी ने 'उर्दू शायरी के बाबा आदम -वली दकनी' किताब में संकलित किया है जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं। जनाब शमशुद्दीन 'वली' का जन्म 1668 में आज के महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुआ था। कुछ लोग उनकी पैदाइश 1667 की मानते हैं ,महाराष्ट्र क्यूंकि भारत के दक्षिण में है इसी कारण शमशुद्दीन वली का नाम 'वली ' दकनी पड़ा। वैसे उनके नाम को लेकर अभी भी लोग एक मत नहीं है कुछ लोग उन्हें वली मुहम्मद पुकारते हैं तो कुछ वली गुजराती। वली बहुत खोजी प्रकृति के इंसान थे ,ज्ञान की खोज में वो उस ज़माने में जब यातायात के कोई साधन नहीं हुआ करते थे दूर-दराज स्थानों की और निकल जाया करते थे। इस घुमक्कड़ी के कारण ही उनकी शायरी फ़ारसी के शिकंजे से आज़ाद हो पायी। देशज और आसान शब्दों को शायरी में ढाल कर उन्होंने इसे आम जन तक पहुँचाने का काम किया।



 मैं आशिकी में तब सूँ अफ़साना हो रहा हूँ 
तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ 

 ऐ आशना करम सूँ यक बार आ दरस दे 
तुझ बाज सब जहाँ सूँ बेगाना हो रहा हूँ 

 शायद वो गंजे-ख़ूबी आवे किसी तरफ सूँ 
इस वासते सरापा वीराना हो रहा हूँ 
गंजे-खूबी =प्रिय 

 आप देखिये कि वली ने तत्कालीन लोक भाषा में ही अपनी शायरी की है। उनमें ब्रज, अवधि और संस्कृत भाषाओँ का विशेष पुट है। कूँ ,सूँ ,निस-दिन,परत,पीत (प्रीत ), जीव , मोहन ,रयन (रैन ),सजन जैसे लफ्ज़ इसका उदाहरण हैं. 1700 में अपनी ग़ज़लों के दीवान के साथ जब वो दिल्ली पहुंचे, तो शुमाली (उत्तरी) भारत के अदबी हल्क़ों में एक हलचल पैदा हो गई। ज़ौक, सौदा और मीर तक़ी मीर जैसे महान उर्दू शायर वली की रवायत की ही देन हैं। उस दौर में सबको समझ आने वाली उर्दू ज़बान में उनकी आसान और बामानी शायरी ने सबका दिल जीत लिया। दरअसल, वली का दिल्ली पहुंचना उर्दू ग़ज़ल की पहचान, तरक्की और फैलाव की शुरुआत थी।एक ओर वली ने जहां शायराना इज़हार के ज़रिए भारतीय ज़बान की मिठास और मालदारी से वाक़िफ़ कराया, वहीं फ़ारसी के जोश और मज़बूती को भी कायम रखा, जिसका उन्होंने अपनी नज़्मों में बख़ूबी इस्तेमाल भी किया। वली को शायरी की उस जदीद (आधुनिक) ज़बान का मेमार (शिल्पी) कहा जाना कोई बड़बोलापन नहीं होगा, जो हिंदी और फ़ारसी अल्फ़ाज़ों का बेहतरीन मिश्रण है।

 ऐ रश्के-महताब तू दिल के सहन में आ
 फुरसत नहीं है दिन को अगर तू रयन में आ 
रश्के-माहताब =चाँद भी जिससे इर्षा करे , रयन =रात 

 ऐ गुल अज़ारे-गुंचा दहन टुक चमन में आ 
गुल सर पे रख के शमआ नमन अंजुमन में आ  
गुल अज़ारे-गुंचा दहन =फूल की कली जैसा मुंह , नमन =समान 

 कब लग अपस के गुंचए-मुख को रखेगा बंद 
ऐ नौबहारे-बागे-मुहब्बत सुखन में आ 
कब लग =कब तक , अपस =अपने 

 आदिल कुरैशी उनके बारे में लिखते हैं कि "वली की पसंदीदा थीम इश्क़ और मोहब्बत थी। इसमें सूफ़ियाना और दुनियावी, दोनों ही तरह का इश्क़ शुमार था। मगर उनकी शायरी में हमें ज़्यादानज़र ख़ुशनुमा इक़रार और मंज़ूरी आती है। इसके बरअक्स उदासी, मायूसी और शिकायत कुछ कम ही महसूस होती है। वली इस मामले में भी पहले उर्दू शायर थे, जिसने उस दौर के चलन के ख़िलाफ़ जाकर आदमी के नज़रिए से प्यार का इज़हार करने की शुरुआत की।" दिल्ली में वो लंबे अर्से तक रहे बल्कि यहां की तबज़ीब से ख़ासे मुतआस्सिर भी हुए. जब वली दिल्ली पहुंचे, सुख़न-नवाज़ों ने उन्हें हाथों हाथ लिया. महफ़िलें सजने लगीं, शायर चहकने लगे, लेकिन जो आवाज़ निकलती वो वली की आवाज़ से मेल खाती नज़र आती. अब तक वली के दिल पर दिल्ली और दिल्ली के दिल पर वली का नाम रौशन हो चुका था.दिल्ली में वली को वो सम्मान मिला कि शाही दरबार में हिंदी के जो पद गाए जाते थे उनकी जगह वली की ग़ज़लें गाई जाने लगीं.दिल्ली में तहलका मचाने के बाद वली घूमते हुए अहमदाबाद चले आये ये शहर इन्हें इतना रास आया कि यहीं के हो के रह गए।

 तुझ गली की खाके-राह जब सूँ हुआ हूँ ऐ पिया
 तब सूँ तेरा नक़्शे-पा तकिया है मुझ बीमार का
 तकिया =पवित्र स्थान 

 बुलबुलां गर यक नज़र देखें तिरे मुख का चमन 
फिर न देखें ज़िन्दगी में मुख कभी गुलज़ार का 

 टुक अपस का मुख दिखा ऐ राहते-जानो-जिगर 
है 'वली' मुद्दत सती मुश्ताक़ तुझ दीदार का
 सती =से

 31 अक्टूबर 1707 को वली ने अपनी अंतिम सांस अहमदाबाद में ही ली। उनका जनाजा बहुत धूमधाम से निकाला गया जिसमें उनकी शायरी के दीवाने हिन्दू और मुस्लिम लोग हज़ारों की तादात में शामिल थे, शाहीबाग इलाके में उनको दफना दिया गया। उनकी कब्र पर एक मज़ार भी बनाया गया जिसे देखने और अपना सर झुकाने लोग नियमित रूप से आया करते। अहमदाबाद को इस बात का फ़क्र हासिल था कि उसकी गोद में उर्दू शायरी का बाबा आदम गहरी नींद में सो रहा है। कोई समझदार इंसान 28 फरवरी 2002 का वो मनहूस दिन याद नहीं करना चाहेगा जब अहमदाबाद में दंगे भड़क उठे थे। हिंसक भीड़ सोच समझ खो देती है। धार्मिक उन्माद अच्छा बुरा सोचने की क्षमता हर लेता है। लोगों में छुपा हिंसक पशु अपनी पूर्ण क्रूरता के साथ बाहर आ जाता है। उस वक्त हमें महसूस होता है कि सभ्य होने का जो मुलम्मा हम ओढ़े हुए हैं ये किसी भी क्षण उतार कर फेंका जा सकता है। हम हकीकत में जानवर ही हैं। दंगों के दौरान भीड़ के हाथ जो लगा वो नष्ट कर दिया गया। बदकिस्मती से वली दकनी की मज़ार उन्मादी भीड़ के रास्ते में आ गयी जो पुलिस कमिश्नर आफिस के पास ही थी। भीड़ ने ये नहीं सोचा कि शायर किसी मज़हब विशेष का नहीं होता ,वो अवाम की आवाज़ होता है ,लेकिन भीड़ सोचती ही कब है लिहाज़ा उस मज़ार को तहस नहस कर दिया गया। तुरतफुरत सरकार द्वारा उस पर सड़क बना दी गयी.आज अगर आप उस मज़ार को खोजने जाएँ तो उसका नामो-निशान भी नहीं मिलेगा।

 इस रात अँधेरी में मत भूल पडूँ तिस सों 
टुक पाँव के झाँझे की झनकार सुनाती जा 

तुझ इश्क में जल-जल कर सब तन कूँ किया काजल 
यह रौशनी-अफ़्ज़ा है अँखियाँ कूँ लगाती जा 
रौशनी-अफ्ज़ा =रौशनी बढ़ने वाली 

 तुझ नेह में दिल जल-जल कर जोगी की लिया सूरत
 यक बार इसे मोहन छाती सूँ लगाती जा 

 लोग भूल जाते हैं कि मज़ार मिटाने से वली दकनी जैसे शायर कभी नहीं मिट सकते। ये वो चिराग़ हैं जो आँधियों से नहीं बुझते उनकी रौशनियां राह दिखाती रही हैं और ता-उम्र रास्ता दिखाती ही रहेंगी। वली दकनी को पढ़ने के लिए आप इस किताब को पढ़ें जो मेरे ख्याल से हिंदी में उपलब्ध एक मात्र किताब है जिसे वाणी प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है। वाणी प्रकाशन से संपर्क के बारे में बहुत बार बताया जा चूका है लेकिन आपकी सुविधा के लिए एक बार फिर बता देते हैं।
वाणी प्रकाशन 21-A दरियागंज नई दिल्ली -110002
 फ़ोन :011-23275710 /23273167
 ई -मेल : sales@vaniprakashan.in, marketing@vaniprakashan.in 

 आखिर में चलते चलते आपको पढ़वाते हैं वली दकनी की एक अनूठी ग़ज़ल जिसकी संरचना अद्भुत है एक शेर जिस शब्द से शुरू होता है उसी पर ख़तम होता है ,पहले मिसरे (मिसरा-ऐ-ऊला )का आखरी शब्द दूसरे मिसरे(मिसरा -ऐ-सानी ) का पहला शब्द होता है। इस विधा को क्या कहते हैं ये तो मुझे पता नहीं लेकिन ये काम है काफी मुश्किल :

 दिलरुबा आया नज़र में आज मेरी खुश अदा 
 खुश अदा ऐसा नहीं देखा हूँ दूजा दिलरुबा

 बेवफ़ा गर तुझको बोलूं , है बजा ऐ नाज़नीं 
 नाज़नीं आलम मने होते हैं अक्सर बेवफ़ा 

 मुद्दए-आशक़ाँ हर आन है दीदारे-यार 
 यार के दीदार बिन दूजा अबस है मुद्दआ 
 अबस =बेकार

Monday, October 15, 2018

किताबों की दुनिया - 199

अगर ये जानते चुन-चुन के हमको तोड़ेंगे 
 तो गुल कभी न तमन्नाए-रंगो-बू करते
 ***
 दिखाने को नहीं हम मुज़तरिब हालत ही ऐसी है
 मसल है -रो रहे हो क्यों ,कहा सूरत ही ऐसी है 
 मुज़तरिब=बैचैन , मसल =मिसाल 
 *** 
बाद रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है जी 
 अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढूं ,कुछ तू बढे
 *** 
समझ है और तुम्हारी कहूं मैं तुमसे क्या 
 तुम अपने दिल में खुदा जाने सुन के क्या समझो 
 *** 
 ज़ाहिदे-गुमराह के मैं किस तरह हमराह हूँ 
 वह कहे 'अल्लाह हू ' और मैं कहूं ' अल्लाह हूँ ' 
*** 
दिल वो क्या जिसको नहीं तेरी तमन्नाए - विसाल 
 चश्म क्या वो जिस को तेरी दीद की हसरत नहीं 
 *** 
उस हूरवश का घर मुझे जन्नत से है सिवा
 लेकिन रक़ीब हो तो जहन्नुम से कम नहीं
 *** 
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल 
 सितम में भी तुझे पूरा न पाया
 *** 
एक दिन भी हमको जीना हिज़्र में था नागवार 
 पर उमीदे-वस्ल में बरसों गुज़ारा हो गया 
 *** 
दिल गिर के नज़र से तेरे उठने का नहीं फिर 
 यह गिरने से पहले ही संभल जाए तो अच्छा 

 नौकरी कैसी भी हो होती नौकरी ही है चाहे वो सरकारी ही क्यों न हो। यूँ सरकारी नौकरी भी आजकल बहुत मज़े की नहीं रह गयी ,प्राइवेट की बात तो छोड़ ही दें। प्राइवेट नौकरी करना ब्लेड की तेज़ धार पे चलने जैसा है ज़रा सा चूके तो या तो कटे या गिरे। प्राइवेट नौकरी मैंने 46 साल की है और मुझे मालूम है कि सबकी अपेक्षाओं पर हमेशा खरे उतरना कितना मुश्किल काम होता है। प्राइवेट नौकरी में एक बॉस होता है जो 98 % खड़ूस किस्म का होता है उसके हज़ारों चमचे होते हैं जो हमेशा उसे खुश रखने में लगे रहते हैं इसके बदले किसी की जान जाये या नौकरी इसकी परवाह उन्हें नहीं होती। कभी कभी प्राइवेट नौकरी में मालिक ही आपका बॉस भी होता है। ये सबसे ख़तरनाक स्थिति होती है. बॉस से तो जैसे तैसे निपटा जा सकता है लेकिन मालिक से ? तौबा तौबा !! उसके चमचों की भीड़ भी बॉस के मुकाबले सौ गुना होती है और ये भी देखा है कि ज्यादातर मालिक कान के कच्चे होते हैं उनके इस अवगुण की वजह से आपकी बरसों की मेहनत पल भर में धूल में मिल सकती है।

 मय्यत को ग़ुस्ल-दीजो न इस ख़ाकसार की 
 है तन पे ख़ाके-कूचाए-दिलबर लगी हुई 

 बैठे भरे हुए हैं खुमे-मै की तरह हम 
 पर क्या करें कि मुहर है मुंह पर लगी हुई 
 खुमे-मै =शराब का मटका 

 निकले है कब किसी से कि उसकी मिज़ा की नोक 
 है फांस सी कलेजे के अंदर लगी हुई 
 मिज़ा=पलक 

 दरअसल होता क्या है कि नौकरी में मिलने वाली सुविधाओं की तरफ तो लोगों का ध्यान जाता है लेकिन उन सुविधाओं को जुटाने में नौकरी पेशा इंसान को जो खतरा उठाना पड़ता है उसे सब नज़र अंदाज़ कर देते हैं. जो लोग ये समझते हैं कि अब प्राइवेट नौकरी करना बहुत मुश्किल और जानलेवा हो गया है वो हमारे आज के शायर के बारे में शायद नहीं जानते जो 1789 में दिल्ली के एक बेहद मामूली और ग़रीब सिपाही शैख़ मुहम्मद रमज़ान साहब के यहाँ पैदा हुए थे। घर पर खाने के लाले पड़े हुए थे ऐसे में उनकी पढाई-लिखाई की तरफ कौन ध्यान देता ? अपने बेटे को पढ़ने के लिए मदरसे भेजने की औकात रमज़ान साहब में थी नहीं लिहाज़ा उन्होंने मोहल्ले के ही एक उस्ताद जनाब हाफ़िज़ गुलाम रसूल साहब से दरख़्वास्त की कि वो उनके बेटे को अपने घर बुला कर जितनी भी जैसी भी दे सकते हैं तालीम दें। रसूल साहब नेक इंसान थे बच्चे की मासूमियत देख पिघल गए और हाँ कर दी।रसूल साहब के यहाँ शेरो शायरी की खूब चर्चा हुआ करती थी क्यूंकि रसूल साहब खुद शायर थे।

 अक्ल से कह दो कि लाये न यहाँ अपनी किताब 
 मैं हूँ दीवाना अभी घर से निकल जाऊँगा 

 दिल ये कहता है कि तू साथ न ले चल मुझको
 जा के मैं वां तेरे काबू से निकल जाऊँगा 

 जा पड़ा आग में परवाना दमे-गर्मीए-शौक़ 
 समझा इतना भी न कमबख़्त कि जल जाऊंगा 
 दमे-गर्मीए-शौक़=प्रेमालाप के क्षण में 

 रसूल साहब के यहाँ ही रमज़ान साहब के बेटे जनाब शैख़ इब्राहिम 'ज़ौक़', जिनकी शायरी के संकलन की किताब "शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ -जीवनी और शायरी " जिसे डा राजेंद्र टोकी साहब ने सम्पादित किया है की चर्चा आज कर रहे रहे हैं , के साथ मीर काज़िम हुसैन 'बेकरार' भी पढ़ा करते थे। एक बार बेकरार साहब ने ज़ौक़ साहब को एक ग़ज़ल सुनाई , ग़ज़ल ज़ौक़ साहब को बहुत पसंद आयी और पूछा कि मियां आपके उस्ताद कौन हैं ? बेकरार साहब ने फ़रमाया कि जनाब 'शाह नसीर साहब'। ज़ौक़ साहब तब अपनी एक ग़ज़ल शाह नसीर साहब के पास ले गए और उन्हें अपना उस्ताद मान लिया। ज़ौक़ अपनी ग़ज़लें शाह साहब को दिखाने लगे. मियां इब्राहिम ज़ौक़ की शायरी अपने उस्ताद की शायरी से जब बेहतर होने लगी तभी शाह साहब में गुरु द्रोणाचार्य की आत्मा प्रवेश कर गयी और उन्होंने ज़ौक़ से एकलव्य की तरह अंगूठा तो नहीं माँगा लेकिन ये जरूर कहा कि तुम इतना बकवास कहते हो बरखुरदार मुझे यकीन हो गया है कि शायरी तुम्हारे बस की बात नहीं , अच्छा होगा कि तुम शायरी छोड़ कर जामा मस्जिद की सीढ़ियों पे जा के लोगों को चने बेचो। ज़ौक़ उदास वाकई जामा मस्जिद की सीढ़ियों पे बैठ रोने लगे। उन्हें रोता हुआ देख एक बुजुर्गवार जनाब मीर कल्लू 'हक़ीर'जो उधर से गुज़र रहे थे रुक गए। ज़ौक़ ने कारण बताया , हक़ीर तुरंत शाह साहब की नियत समझ गए। उन्होंने कहा बरखुरदार परसों ईद है और उस मौके पे जामा मस्जिद के पास होने वाले मुशायरे में तुम अपनी ग़ज़ल पढ़ना। ज़ौक़ साहब ने बात मान ली और मुशायरे में ये ग़ज़ल पढ़ी :


 हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें 
 शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता 

 हस्ती से ज़ियादा है कुछ आराम अदम में 
 जो जाता है वां से वो दोबारा नहीं आता 
 अदम=परलोक 

 किस्मत ही से नाचार हूँ ऐ 'ज़ौक़' वगर्ना 
 सब फ़न में हूँ मैं ताक़ मुझे क्या नहीं आता 
 ताक़=माहिर, दक्ष 

 एक सत्तर अठ्ठारह साल के लड़के के मुंह से ऐसी ग़ज़ल इस से पहले किसी ने नहीं सुनी थी। समझिये उन्होंने मुशायरा ही लूट लिया उस दिन। लोगों की ज़बान पर उनके शेर और नाम चढ़ गया। शहर में होने वाले मुशायरों में उन्हें बुलाया जाने लगा लेकिन उनकी शोहरत शहर की गलियों से क़िले तक नहीं पहुँच पायी जहाँ अकबर शाह द्वितीय बादशाह थे। बादशाह को तो शायरी से कोई लेना देना नहीं था लेकिन उनके बेटे बहादुर शाह ज़फर शायरी के दीवाने थे। ज़फर किले में अक्सर मुशायरे करवाते थे जिसमें वो दूसरे शायरों को सुनते कम और अपनी शायरी ज्यादा सुनाया करते थे। एक आम सिपाही के बेटे का क़िले की दीवारों को पार कर अंदर पहुंचा इतना आसान नहीं था। अगर सिर्फ़ पत्थर की दीवारें होतीं तो भी वो कोशिश करते लेकिन दीवारें तो रसूख़ वाले शायरों की थीं जो किसी हाल में एक नए शायर को अंदर नहीं आने देना चाहते थे। ये परम्परा तो वैसे आज तक चली आ रही है अगर आपको कोई प्रमोट करने वाला नहीं है फिर आप चाहे कितने ही बड़े शायर हों आपको कोई मान्यता नहीं देगा, सरकारी ईनाम मिलने की तो बात ही जाने दीजिये। आखिर कोशिशों के बाद किले के मुशायरों में शिरकत करने वाले एक नेक दिल शायर ने उनके बारे में ज़फर साहब को बता ही दिया। अगले ही मुशायरे में ज़फर साहब ने उन्हें शिरकत करने का न्योता भेज दिया। ज़ौक़ साहब तशरीफ़ लाये जिन्हें देख ज़फर हैरान रह गए , इतनी कम उम्र में ये लड़का क्या शायरी करेगा ?खैर अब बुलाया है तो सुन लेते हैं। मुशायरा शुरू हुआ और ज़ौक़ साहब ने शमा अपने सामने आने पे ये ग़ज़ल पढ़ी :

दरियाए-अश्क चश्म से जिस आन बह गया 
 सुन लीजिओ कि अर्श का ऐवान बह गया 
 दरियाए-अश्क=आंसू की नदी , ऐवान =महल 

 ज़ाहिद ! शराब पीने से क़ाफ़िर हुआ मैं क्यों 
 क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया 

 कश्ती-सवारे-उम्र है बहरे-फ़ना में हम 
 जिस दम बहा के ले गया तूफ़ान , बह गया 

 उसके बाद तो ज़ौक़ नियमित रूप से किले के मुशायरों में बुलाये जाने लगे। शहज़ादे ज़फर के पास बहुत धन दौलत तो थी नहीं ,बादशाह भी अपनी एक बेग़म की मोहब्बत में गिरफ्तार होने के कारण ज़फर की जगह उसके बेटे को गद्दी सौंपना चाहते थे। ज़फर को महज़ 500 रु महीने में अपना गुज़ारा करना होता था। ज़फर की माली हालत देख कर उनके उस्ताद एक एक कर के उनसे कनारा कर दूसरी रियासतों की तरफ जाने लगे थे। एक बार ज़फर ने अपनी एक ग़ज़ल ज़ौक़ साहब को दिखाई और उनकी इस्लाह से इतने मुत्तासिर हुए कि उन्हें अपना उस्ताद मान लिया और चार रूपये महीना तनख्वाह पर किले में ही मुलाज़िम रख लिया। दिन गुज़रते रहे ज़फर आखिर बादशाह सलामत बने तब ज़ौक़ सिर्फ सात रुपये महीना के मुलाज़िम ही थे। बादशाह बनते ही चमचों की भीड़ उनके चारों और खड़ी हो गयी। चमचों की चांदी हो गयी और अदीब भूखे मरते रहे। ये ही कल होता रहा है ये ही आज हो रहा है ये ही कल होता रहेगा। मुख्तार मिर्ज़ा मुग़ल जो बादशाह के मंत्री थे ज़ौक़ को पसंद नहीं करते थे उन्होंने अपने चमचे पूरे दरबार में भर लिए और शाही ख़ज़ाने को दीमक की तरह चाटने लगे। आखिर पाप का घड़ा फूटा मिर्ज़ा और उनके चमचों को धक्के दे कर किले से निकाल दिया। ज़ौक़ साहब की तनख्वाह पहले 30 रु और फिर 100 रु महीना कर दी जो दरबार के बाकि दरबारियों से बहुत ही कम थी लेकिन ज़ौक़ ने कभी इस बात का गिला नहीं किया।

 कहीं तुझको न पाया गरचे हमने इक जहाँ ढूँढा 
 फिर आखिर दिल ही में देखा बगल ही में से तू निकला

 खजिल अपने गुनाहों से हूँ मैं यां तक कि जब रोया  
तो जो आंसू मेरी आँखों से निकला सुर्खरू निकला 
 खजिल=शर्मिंदा 

 उसे अय्यार पाया यार समझे ज़ौक़ हम जिसको
 जिसे यां दोस्त हमने अपना जाना वो उदू निकला 
 अय्यार =चालाक , उदू =दुश्मन 

 ज़ौक़ अब शहज़ादे ज़फर के नहीं बादशाह ज़फर के उस्ताद हो गए थे लिहाज़ा लोगों की बद-नज़रों का शिकार होने लगे। बादशाह के चमचे उन्हें हर वक्त किसी न किसी वज़ह से नीचा दिखाने में लगे रहते और तो और बादशाह सलामत जो खुद सनकी थे उनकी ऊटपटांग ढंग से परीक्षा लिया करते। प्राइवेट नौकरी में आने वाली जो भी तकलीफें मैंने ऊपर बयां की हैं वो ज़ौक़ साहब रोज़ाना झेलने लगे। अब देखिये बादशाह सलामत अपने महल की खिड़की पे खड़े हैं चमचे भी हैं और उस्ताद ज़ौक़ भी तभी किले के बाहर से एक चूरन बेचने वाला अजब से तरन्नुम में आवाज़ लगा कर चूरन बेच रहा है तभी एक चमचा ज़ौक़ साहब से कहता है उस्ताद जी इस तरन्नुम पे एक ग़ज़ल हो जाये तो बादशाह सलामत खुश हो जायेंगे। बादशाह चमचे की बात पर सर हिलाते हुए कहते हैं हाँ हाँ क्यों नहीं -हो जाये उस्ताद। ज़ौक़ साहब मन ही मन चमचे को गलियां देते हुए लेकिन ऊपर से मुस्कुराते हुए उसी तरन्नुम में ग़ज़ल कहने लगते हैं और खुद को इस नौकरी के लिए लानत भेजते हैं।

 देखा आखिर को न फोड़े की तरह फूट बहे 
 हम भरे बैठे थे क्यों आपने छेड़ा हमको 

 तू हंसी से न कह मरते हैं हम भी तुझ पर
 मार ही डालेगा बस रश्क हमारा हमको 

 वस्ल का उसके तसव्वुर तो बंधा रहता है 
 तो मज़े हिज़्र में भी आते है क्या क्या हमको 

 प्राइवेट नौकरी की एक और त्रासदी देखिये अगर कहीं ज़ौक़ साहब ने कोई ग़ज़ल कही जो बादशाह सलामत तक पहुँच गयी तो बादशाह सलामत तुरंत उसी ज़मीन और रदीफ़ काफिये पर अपनी एक ग़ज़ल कह कर उस्ताद के लिए इस्लाह के लिए भेज देते अब उस्ताद अगर उस ग़ज़ल को अपने से घटिया मानें तो बादशाह की नाराज़गी मोल लेने का खतरा खड़ा हो सकता था और अगर अपने से बढ़िया कह दें तो अपना ही लिखा ख़ारिज करने का दुःख झेलना पड़ता था। इसके बावजूद ज़ौक़ साहब ने ग़ज़ल कहना नहीं छोड़ा और न ही छोड़ी नौकरी। अपने सरल स्वाभाव के कारण उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी एक ही मकान में काट दी जो मकान कम कबूतरों का बाड़ा ज्यादा लगता था। अगर चाहते तो बादशाह सलामत से कह कर अपने लिए कोई ढंग का मकान ले सकते थे लेकिन अपने कम बोलने की आदत के चलते चुप ही रहे और बादशाह को कहाँ इतनी फुर्सत कि वो जाने कि उनके उस्ताद किस हाल में कहाँ रहते हैं। यूँ बादशाह अगर अपने मुलाज़िमों की खोज खबर लेने लगें तो हो गयी बादशाही। ये वो परम्परा है जो सदियों से चली आ रही है चलती रहेगी। आप ही बताएं हमारे आज के बादशाहों को कुछ ख़बर भी है कि उनकी अवाम किस हाल में रहती है ? अदीबों का हाल जो उस वक्त था उस से बदतर अब है।

 दिन कटा, जाइये अब रात किधर काटने को
 जब से वो घर में नहीं, दौड़े है घर काटने को 

 हाय सैय्याद तो आया मेरे पर काटने को 
 मैं तो खुश था कि छुरी लाया है सर काटने को 

 वो शजर हूँ न गुलो-बार न साया मुझमें 
 बागबां ने लगा रक्खा है मगर काटने को 

 ये तो आप जानते ही होंगे कि ग़ालिब मोमिन और ज़ौक़ साहब एक ही दौर के शायर हुए हैं और वो भी दिल्ली के और तीनो ही अपने फ़न में माहिर , कोई किसी से कम नहीं। तीनों में आपसी रंजिश भी थी लेकिन सौदा और मीर की तरह नहीं। तीनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे लेकिन एक दूसरे की अच्छी शायरी की तारीफ़ जरूर किया करते थे। ग़ालिब, जो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते थे, को ये मलाल था कि किले में जो रुतबा ज़ौक़ साहब को मिला हुआ था उसके सच्चे हक़दार वो खुद थे। अवाम की तरह ग़ालिब को भी ज़ौक़ साहब हाथी पर चांदी के हौदे में बैठे तो नज़र आते थे लेकिन हाथी को पालने में ज़ौक़ साहब को क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते थे उसका शायद अंदाज़ा नहीं था। जिस इंसान को अपना घर चलाने में दिक्कत महसूस हो रही हो उसे अगर साथ में हाथी भी पालना पड़े तो सोचिये क्या हाल होगा। बादशाह होते ही ऐसे हैं खुश हुए तो ज़ौक़ साहब को चांदी के हौदे के साथ हाथी ईनाम में दे दिया। प्राइवेट नौकरी में आप ये नहीं पूछ सकते कि हुज़ूर ये आप मुझे ईनाम दे रहे हैं या मुझसे हर्ज़ाना ले रहे हैं।

 अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे 
 मर गए पर न लगा जी तो किधर जाएंगे 

 हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुझ पर 
 बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जाएंगे

 'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
 उनको मैखाने में ले आओ ,संवर जाएंगे 

 ज़ौक़ साहब को वर्तमान आलोचकों ने उनके समकालीन शायरों के मुकाबले बहुत कम आँका है ,उन्होंने इस बात को नज़र अंदाज़ कर दिया कि ज़ौक़ साहब ने उम्र भर अपने काँधे पर सल्तनते-मुग़लिया के भारी भरकम ताजिये बहादुर शाह ज़फर को ढोया है और साथ ही उर्दू अदब को कुछ ऐसी चीज़ें दे गए जिनका आज की अस्थिर मनोवैज्ञानिक पृष्ठ-भूमी में कुछ महत्त्व न मालूम हो किन्तु जिसमें बिला शक कुछ स्थाई मूल्य निहित हैं जिससे किसी ज़माने में इंकार नहीं किया जा सकता। ज़ौक़ अपने शागिर्दों से उम्र और रुतबे में कम थे। ज़ौक़ की शायरी में लफ़्ज़ों को बरतने का जो सलीका मिलता है वो कमाल है इसके साथ ही उनकी ग़ज़लों में ज़बान की सादगी और चुस्ती ग़ज़ब की नज़र आती है। ज़ौक़ जिस ज़माने के शायर थे उस ज़माने में मुश्किल बहरों में कहने की रवायत थी लेकिन ज़माने के चलन को दरकनार करते हुए उन्होंने आसान लफ़्ज़ों को चुना। रिवायतों के खिलाफ जाने के लिए आपमें ग़ज़ब का आत्मविश्वास होना चाहिए जो ज़ौक़ साहब में था.

 मरते हैं तेरे प्यार से हम और जियादा 
 तू लुत्फ़ में करता है सितम और जियादा 

 वो दिल को चुरा कर जो लगे आँख चुराने 
 यारों का गया उनपे भरम और जियादा 

 क्यों मैंने कहा तुझसा खुदाई में नहीं और
 मगरूर हुआ अब वो सनम और जियादा 

 ज़ौक़ साहब के बारे में इतना कुछ है बताने को कि ऐसी बहुत सी पोस्ट्स लिखनी पढ़ें। ज़ौक़ ता उम्र लिखते रहे , कहा जाता है कि वो अपनी मृत्यु, जो सं 1854 में हुई थी ,के तीन घंटे पहले तक शेर कहते रहे थे। अगर आपको ज़ौक़ साहब और उनकी शायरी पढ़ने की दिली तमन्ना है तो इस पुस्तक के लिए आप 'अंगूर प्रकाशन' W A -170 -A -6 शकरपुर, दिल्ली को लिखें या फिर उन्हें +91-11-22203411पर संपर्क करें , वैसे आसान तो ये रहेगा कि आप इस किताब को अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा लें। चलते चलते आईये आपको ज़ौक़ साहब की वो ग़ज़ल पढ़वाते हैं जिसे कुंदन लाल सहगल साहब ने अपनी आवाज़ दे कर अमर कर दिया , अगर आपने ये ग़ज़ल नहीं सुनी तो अभी की अभी यू ट्यूब का सहारा लें , फिर न कहना बताया नहीं :

 लायी हयात आये , क़ज़ा ले चली , चले 
 अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले 

 बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे 
 पर क्या करें जो काम न बे दिल-लगी चले 

 हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो कहेंगे ब-वक्ते-मर्ग 
 हम क्या रहे यहाँ अभी, आये अभी चले 
 उम्रे-ख़िज़्र=अमर , ब-वक्ते-मर्ग=मरते समय

 दुनिया ने किस का राहे-फ़ना में दिया है साथ 
 तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले

Monday, October 8, 2018

किताबों की दुनिया -198

"तशरीफ़ लाइए हुज़ूर" ख़िदमदगार फर्शी सलाम करता हुआ हर आने वाले को बड़े अदब से अंदर आने का इशारा कर रहा था। दिल्ली जो अब पुरानी दिल्ली कहलाती है में इस बड़ी सी हवेली, जिसके बाहर ये ख़िदमतगार खड़ा था, को फूलों से सजाया गया था। आने जाने वाले लोग बड़ी हसरत से इसे देखते हुए निकल रहे थे क्यूंकि इसमें सिर्फ वो ही जा पा रहे थे जिनके पास एक तो पहनने के सलीक़ेदार कपडे थे और दूसरे हाथ में वो रुक्का था जिसमें उनके तशरीफ़ लाने की गुज़ारिश की गयी थी ,उस रुक्के को आज की भाषा में एंट्री पास कहते हैं। जिस गली में ये हवेली थी उसे भी सजाया गया था। ये तामझाम देख कर इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि कोई खास ही मेहमान यहाँ आने वाला है. तमाशबीन खुसुर पुसुर करते हुए क़यास लगा रहे थे लेकिन किसी के पास भी पक्की खबर नहीं थी। कुछ रईस लोग घोड़े पर और कुछ बग्घियों में तशरीफ़ ला रहे थे। आईये हम भी अंदर चलते हैं ,यहाँ कब तक खड़े रहेंगे ?

 वां तू है ज़र्द-पोश , यहाँ मैं हूँ ज़र्दरंग 
 वां तेरे घर बसंत है याँ मेरे घर बसंत 
 ज़र्द-पोश =पीले कपडे पहने हुए , ज़र्द रंग =पीले रंग का (पीतवर्ण )  

ये किसके ज़र्द चेहरे का अब ध्यान बंध गया
 मेरी नज़र में फिरती है आठों पहर बसंत 

 उस रश्के-गुल के हाथ तलक कब पहुँच सके 
 सरसों हथेली पर न जमाये अगर बसंत 

अंदर घुसते ही हमें एक बड़ा सा दालान दिखाई देता है जिसके चारों तरफ़ खूबसूरत इमारत बनी हुई है। दालान में चांदनी का चमचमाता फर्श बिछा है और इमारत पर चारों और फूल मालाएं लटक रही हैं। एक और ख़िदमदगार सलाम करते हुए हमें और अंदर की तरफ जाने का इशारा करता है। अहा- अंदर के दालान की ख़ूबसूरती बयां नहीं की जा सकती। दालान के चारों और बने बरामदों पर रंगबिरंगे रेशमी परदे लटक रहे हैं। इत्र की खुशबू हर ओर महक रही है। दालान के बीचों बीच एक चबूतरा है जिसके चारों और मख़मली कालीन बिछे हैं ,थोड़ी थोड़ी दूरी पर उनपर रेशमी खोल चढ़े तकिये रखें हैं जिनपर कढ़ाई की गयी है। चबूतरे पर गद्दे बिछे हैं गद्दों पर कीमती चादर बिछी है और सफ़ेद रंग के रेशमी गाव तकिये रखे हैं. हमें भी सबकी देखा देखी चबूतरे पर बैठे एक निहायत खूबसूरत शख़्स को सलाम करना है और कालीन पर बैठ जाना है। आप बैठिये न, देखिये यूँ टकटकी लगाकर देखने की इज़ाज़त यहाँ किसी को नहीं है।

 थी वस्ल में भी फ़िक्रे-जुदाई तमाम शब् 
 वो आये तो भी नींद न आई तमाम शब 

 यकबार देखते ही मुझे ग़श जो आ गया 
 भूले थे वो भी होश रुबाई तमाम शब 

 मर जाते क्यों न सुबह के होते ही हिज़्र में 
 तकलीफ़ कैसी-कैसी उठाई तमाम शब

 मैं आपको दोष नहीं देता क्यूंकि चबूतरे पर गाव तकिये के सहारे बैठे शख्स की शख़्सियत है ही ऐसी कि बस देखते रहो मन ही नहीं भरता। जिसकी बड़ी बड़ी आँखें हैं ,लम्बी पलकें हैं ,पतले होंठ हैं जिन पर पान का लाखा जमा है ,मिस्सी लगे दांत हैं, हल्की मूंछे हैं सुन्दर तराशी हुई दाढ़ी है ,मांसल भुजाएं हैं ,चौड़ा सीना है ,सर पर घुंघराले बाल हैं जो पीठ और कंधे पर बिखरे हुए हैं ,बदन पर शरबती मलमल का अंगरखा है लेकिन उसके नीचे कुरता नहीं पहना हुआ है लिहाज़ा इस वजह से उनके शरीर का कुछ भाग खुला दिखाई देता है ,गले में काले धागे में बंधा सुनहरी तावीज़ है ,लाल गुलबदन रेशमी कपडे का मोहरियों पर से तंग लेकिन ऊपर जाकर थोड़ा सा ढीला पायजामा पहना है, सर पर दुपल्लू टोपी है जिसके किनारों पर बारीक लैस लगी है -ऐसे शख़्स को कोई टकटकी लगा कर न देखे तो क्या करे ?

 कुछ क़फ़स में इन दिनों लगता है जी 
 आशियाँ अपना हुआ बर्बाद क्या 
 क़फ़स =पिंजरा 

 है असीर उसके वो है अपना असीर 
 हम न समझे सैद क्या सय्याद क्या 
 असीर =बंदी , सैद =शिकार 

 क्या करूँ अल्लाह सब है बे-असर 
 वलवला क्या नाला क्या फ़रियाद क्या 

 अचानक सरगर्मियां कुछ तेज हो गयीं -हुज़ूर आ गए, हुज़ूर आ गए का शोर होने लगा। देखा तो पूरे लवाजमे के साथ मुग़लिया दरबार के शायर-ए-आज़म और नवाब बहादुर शाह ज़फर साहब के उस्तादे मोहतरम जनाब मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ साहब तशरीफ़ ला रहे हैं। सब लोग अपनी जगह खड़े हो गए। चबूतरे पर से उतर कर उस हसीं नौजवान ने उनका इस्तक़बाल किया दुआ सलाम की और उन्हें बड़े एहतराम के साथ चबूतरे पर अपने पास बिठाया। उस दिलकश नौजवान की आँखें अभी भी दरवाज़े की और लगीं हुई थीं। किसी का इंतज़ार था शायद। किसका ? ज़ौक़ साहब ने नौजवान के कंधे पर हाथ रखा और कहा 'मोमिन' साहब कुछ सुनाइये ,भाई हमसे तो और इंतज़ार नहीं होता। आपको ये बता दूँ कि चबूतरे के नीचे बैठे साजिंदे जिनमें एक के पास हारमोनियम एक के पास तबला और एक के पास सारंगी एक के पास वीणा थी , ऊपर बैठे नौजवान के इशारे का इंतज़ार ही कर रहे थे. अब जब ज़ौक़ साहब ने उस नौजवान का नाम उजागर कर ही दिया है तो ये बताने के सिवा हमारे पास और चारा क्या है कि किताबों की दुनिया में इस बार जनाब 'कलीम आनंद' साहब द्वारा संकलित "मोमिन की शायरी" किताब ,जो हमारे सामने खुली हुई है, की बात हो रही है। इशारा हुआ, साज बजने लगे और मोमिन साहब ने गला खंखारते हुए लाजवाब तरन्नुम के साथ ये ग़ज़ल शुरू की :


 मैंने तुमको दिल दिया तुमने मुझे रुसवा किया 
 मैंने तुमसे क्या किया और तुमने मुझसे क्या किया 

 रोज़ कहता था कहीं मरता नहीं, हम मर गए 
 अब तो खुश हो बे-वफा तेरा ही ले कहना किया 

 रोइये क्या बख़्ते- खुफ्ता को कि आधी रात से 
 मैं इधर रोया किया और वो वहाँ सोया किया 
बख़्ते- खुफ्ता = सोया हुआ भाग्य  

सुरों की बरसात में भीगे ग़ज़ल के शेरों ने लोगों को वो कर दिया जो करना चाहिए था -पागल। सुभानअल्लाह सुभानअल्लाह की आवाज़ें चारों तरफ से आने लगीं ,तालियां रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। 'मोमिन' के गले का जादू सब के सर चढ़ कर बोल रहा था। पूरी दिल्ली में ऐसा खूबसूरत ,सलीकेदार और सुरीला शायर दूसरा नहीं था. हकीम गुलामअली खां जो कश्मीर से दिल्ली आकर बस गए थे का ये बेटा मोमिन न सिर्फ अपनी 'शायरी' बल्कि एक योग्य चिकित्सक और जबरदस्त ज्योतिषी के रूप में भी पूरी दिल्ली में मशहूर थे। एक मशहूर कहावत कि "खुदा जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है" मोमिन साहब पर पूरी तरह सच उतरती थी। आज ये मजलिस उनके जनम दिन की ख़ुशी में उनकी हवेली में सजाई गयी थी जिसमें दिल्ली ही नहीं उसके आसपास के बड़े बड़े रईस और शायरी के दीवाने बुलाये गए थे। हम तो आप जानते हैं रईस तो हैं नहीं सिर्फ शायरी के दीवाने हैं लिहाज़ा इस वजह से बुलाये गए और आप क्यूंकि हमारे अज़ीज़ हैं इसलिए हम आपको भी साथ ले आये। ज़ौक़ साहब ने उठ कर मोमिन को गले लगा लिया और बोले भाई एक और -मोमिन ने सर झुकाया साजिंदों को इशारा किया और गाने लगे :

 वो जो हममें तुममें करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
 वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो

 वो जो लुत्फ़ मुझपे थे पेश्तर वो करम कि था मेरे हाल पर
 मुझे सब है याद ज़रा-ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो

 वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े-मज़े की हिकायतें
 वो हरेक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो
हिकायतें =कहानियां  

हर शेर पर आसमान शोर से फट रहा था मुकर्रर सुभान अल्लाह वाह कहते लोग थक नहीं रहे थे किसे पता था कि ये ग़ज़ल उर्दू शायरी में मील का पत्थर कहलाएगी और बरसों बाद भी इसकी ताज़गी बनी रहेगी। लाजवाब अशआर बेमिसाल तरन्नुम। ज़ौक़ साहब ने मोमिन के लिए दुआओं के दरवाज़े खोल दिए। तभी एक दुबला पतला इंसान ढीली ढाली शेरवानी और तुर्की टोपी पहने नमूदार हुआ। 'मोमिन' को जैसे इन्हीं का इंतज़ार था, चबूतरे से तेजी से उठे और दौड़ते हुए उनके गले लग गए। कमर में हाथ डाले बड़े प्यार से उन्हें चबूतरे पर अपने साथ ही बिठाया। ज़ौक़ साहब ने उन्हें देख कर मुंह बिचकाया बोले आओ मियां असद, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे शायद मोमिन मियां। मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब के आते ही महफ़िल और भी गरमा गयी। ग़ालिब ने मुस्कुराते हुए मोमिन को मुबारकबाद दी और ज़ौक़ साहब से पूछा हुज़ूर और सब खैरियत ? ज़ौक़ साहब हाँ और ना के बीच झूलते हुए कुछ बोल नहीं पाए। वो भले मानें न मानें लेकिन पूरी दिल्ली जानती थी कि ग़ालिब ज़ौक़ साहब से हर लिहाज़ से बड़े शायर हैं। ग़ालिब ने मोमिन से कहा आज कुछ ऐसी ग़ज़ल सुनाओ कि तबियत फड़क उठे। मोमिन ने इशारा किया साजिंदों ने साज संभाले और तरन्नुम के साथ अशआर का दरिया बहने लगा :

 असर उसको ज़रा नहीं होता
 रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता 
 राहत-फ़ज़ा =आराम पहुँचाने वाला 

 तुम हमारे किसी तरह न हुए 
 वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता 

 उसने क्या जाने क्या किया लेकर
 दिल किसी काम का नहीं होता 

 हाले-दिल यार को लिखूं क्यूँकर 
 हाथ दिल से जुदा नहीं होता 

 तुम मेरे पास होते हो गोया 
 जब कोई दूसरा नहीं होता

 'तुम मेरे पास होते हो गोया ' ग़ालिब ये शेर सुनकर लपक के उठे और मोमिन को कस कर गले लगा लिया ,उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या बोलूं ? भर्राये गले से कहा 'मिसरे में गोया लफ्ज़ जोड़ कर मानो शेर को फर्श से अर्श पर बिठा दिया तुमने मोमिन -आह !!! ऐसा करो तुम मेरा पूरा दीवान ले लो और ये एक शेर मुझे दे दो। "आप समझ रहे हैं इस शेर का महत्त्व -जिसकी एवज में ग़ालिब अपना पूरा दीवान देने की बात कर रहे हैं। ग़ालिब जो अपने समकालीन किसी भी शायर की तारीफ़ झूठे मुंह भी नहीं किया करते थे उनके द्वारा इतनी बड़ी बात कहना क्या मायने रखता है आप समझ सकते हैं। छोटी बहर में इसकी टक्कर का शेर आपको पूरी उर्दू शायरी में बहुत कम मिलेंगे बल्कि शायद ही मिलें। कभी कभी एक शेर आपको अमर कर सकता है। मैं हमेशा कहता हूँ ज्यादा लिखना बड़ी बात नहीं अच्छा लिखना बड़ी बात होती है और वो भी सादा लफ़्ज़ों में। मोमिन साहब को तो जैसे ग़ालिब ने सब कुछ दे दिया। इस से बड़ा तोहफ़ा भला क्या होगा ? मोमिन की आँखें छलक गयीं। ग़ालिब को गले लगाते हुए बोले कि ये मेरी ख़ुशक़िस्मती है मैं आप जैसी शख़्शियत को रूबरू देख रहा हूँ आप को सुन रहा हूँ आपको छू सक रहा हूँ। आप बड़े शायर ही नहीं बहुत बड़े इंसान हैं। कैसे कैसे प्यार से भरे लोग हुआ करते थे तब।
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 लिक्खो सलाम ग़ैर के खत में ग़ुलाम को 
 बन्दे का बस सलाम है ऐसे सलाम को 

 अब शोर है मिसाल जो दी उस ख़राम को
 यूँ कौन जानता था क़यामत के नाम को
 ख़राम =चाल 

 जब तू चले जनाज़ाए-आशिक़ के साथ साथ 
 फिर कौन वारिसों की सुने इज़्न-ए-आम को 
 इज़्न-ए-आम=मुसलमानों में अर्थी के ले जाते वक्त मृतक के उत्तराधिकारी लोगों को सार्वजनिक आज्ञा देते हैं कि जो लोग घर जाना चाहें वो जा सकते हैं। 

 आप सोच रहे होने कि इतनी तामझाम और उस पर होने वाले खर्चे को मोमिन साहब किस तरह वहन करते होंगे ? सच ही सोच रहे हैं क्यूंकि इन्होने अपने हुनर को तो कभी पेशा बनाया नहीं। इतने योग्य चिकित्सक होने के बावजूद उन्होंने लोगों के इलाज़ के लिए पैसा नहीं लिया। ज्योतिषी तो ऐसे कि अगर कह दें कि सूरज आज पश्चिम से उगेगा तो सूरज की क्या मजाल जो उनके कहे को टाल दे. लोग उनकी ज्योतिष पर पकड़ देख कर दांतों तले उँगलियाँ दबा लिया करते थे। दरअसल इनके पूर्वज शाही चिकित्सक थे और बड़े जागीरदार थे बाद में उन्हें सरकार से इतनी पेंशन मिलने लगी जो उनके रईसाना ठाट बाट को बनाये रखने के लिए काफी थी। ये वो दौर था जब मुगलिया सल्तनत अपने उतार पर थी और उर्दू शायरी परवान चढ़ रही थी। उर्दू शायरी के स्वर्ण काल का आरम्भ था ये दौर। हिन्दुस्तान छोटी बड़ी रियासतों में बंटा हुआ था वहां के राजा और नवाब अच्छे फ़नकारों के कद्रदान हुआ करते थे। मोमिन साहब को भी रामपुर, टोंक, भोपाल, जहांगीराबाद और कपूरथला राज्यों के नवाब और राजाओं ने अपने यहाँ आने और रहने का निमंत्रण भेजा लेकिन स्वाभिमानी तबियत के चलते दिल्ली रहना ही पसंद किया।

 किसके हंसने का तसव्वुर है शबो-रोज़ कि यूँ 
 गुदगुदी दिल में कोई आठ पहर करता है 
 शबो-रोज़=रातदिन 

 ऐश में भी तो न जागे कभी तुम, क्या जानो 
 कि शबे-ग़म कोई किस तौर सहर करता है

 बख़्ते-बद ने यह डराया है कि काँप उठता हूँ 
 तू कभी लुत्फ़ की बातें भी अगर करता है 
 बख़्ते-बद =दुर्भाग्य 

 सुनो रखो सीख रखो इसको ग़ज़ल कहते हैं
 'मोमिन' ऐ अहले-फ़न इज़हारे-हुनर करता है 
 अहले-फ़न =कलाकारों 

 सच में ये 'मोमिन' का आत्मविश्वास ही है जो ग़ालिब और ज़ौक़ की मौजूदगी में अपने फ़न का इज़हार करते हुए कहता है कि ग़ज़ल कहना मुझसे सीखो। ग़ज़ब के खुद्दार, रसिक, विलासप्रिय, सलीकेदार 'मोमिन' शतरंज के भी उस्ताद थे। पूरी दिल्ली में उनकी टक्कर का शतरंज का कोई खिलाड़ी नहीं था। मोमिन सं 1800 में दिल्ली में पैदा हुए और यहीं सं 1851 में याने सिर्फ 51 साल की उम्र में इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़सत हो गए।उन्होंने ऐलान किया था कि वो 5 दिन ,5 महीने या 5 साल में मर जायेंगे और ये ही हुआ इस एलान के ठीक 5 महीने बाद वो अपनी छत की सीढ़ी से गिर गए और फिर कभी नहीं उठे। वैसे आप क्या सोचते हैं ? मोमिन जैसे शायर कभी मर सकते हैं ? नहीं , जब तक उर्दू शायरी ज़िंदा रहेगी मोमिन उसमें ज़िंदा रहेंगे , वक्त में इतनी ताकत नहीं कि उनका वजूद मिटा दे।

 किसी का हुआ आज, कल था किसी का 
 न है तू किसी का , न होगा किसी का 

 किया तुमने कत्ले-जहाँ इक नज़र में
 किसी ने न देखा तमाशा किसी का 

 न मेरी सुने वो, न मैं नासहों की 
 नहीं मानता कोई कहना किसी का 
 नासहों =नसीहत करने वाले 

 मुझे लगता अब हमें इस महफ़िल से उठ जाना चाहिए क्यूंकि शाम ढलने को है और थोड़ी ही देर में यहाँ जाम छलकने लगेंगे। आप मेरे साथ आएं, आप हालाँकि सूफ़ी नहीं हैं लेकिन इन लोगों की तरह रईस भी नहीं जो इनके साथ बैठ कर जाम टकराएं ,इन्होने हमें यहाँ इतनी देर बैठने दिया ये क्या कम बात है ? हम रास्ते में मोमिन साहब की बात करते रहेंगे। आपको पता है फ़िराक गोरखपुरी साहब ने एक जगह लिखा है कि "मोमिन सूफी आध्यात्मिकता का सहारा लिए बिना ही ठेठ भौतिक प्रेम की बातें इतने चमत्कारपूर्ण प्रभाव के साथ करते थे कि उनके शेर देर तक सुनने वालों के कानों में गूंजते हैं और बहुत से अशआर तो उर्दू साहित्य में मुहावरों और कहावतों का रूप धारण कर चुके हैं। उनकी रचनाएँ काव्य नियमों का पालन करते हुए बहुत सरलता और गति से दिल में उतर जाती हैं। वो नासिख़ की तरह बाल की खाल नहीं निकालते। ग़ालिब और ज़ौक़ के समकालीन होते हुए भी उन्होंने अपनी राह खुद बनाई और क्या ही खूब बनाई "

 दोस्त करते हैं मलामत, गैर करते हैं गिला 
 क्या क़यामत है मुझी को सब बुरा कहने को हैं 

 मैं गिला करता हूँ अपना, तू न सुन गैरों की बात
 हैं यही कहने को वो भी और क्या कहने को हैं 

 हो गए नामे -बुताँ सुनते ही 'मोमिन' बेकरार 
 हम न कहते थे कि हज़रत पारसा कहने को हैं 

 मोमिन के बारे में उर्दू पढ़ने लिखने वालों के लिए तो इंटरनेट, किताबों और रिसालों में बहुत कुछ है लेकिन हिंदी लिख पढ़ने वालों के लिए बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। जो एक मात्र किताब बहुत मशक्कत के बाद मुझे हासिल हुई है उसी का जिक्र मैं कर रहा हूँ इसके अलावा इनकी कुलियात या संकलन देवनागरी में अगर कहीं है तो मुझे उसका इल्म नहीं ,अगर आपके पास कुछ जानकारी है तो जरूर बताएं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप 'मनोज पब्लिकेशन' 1583-84 दरीबां कलां ,चांदनी चौक दिल्ली -6 को लिख सकते हैं या फिर 9868112194 पर पूछ सकते हैं ,ये किताब अमेज़न पर ऑन लाइन भी उपलब्ध है।इस किताब में यूँ तो मोमिन साहब की 100 से ज्यादा ग़ज़लें संगृहीत हैं जिन्हें यहाँ आपको पढ़वा पाना संभव नहीं इसलिए उनकी ग़ज़लों से कुछ चुनिंदा शेर आपकी खिदमत में हाज़िर हैं :

 यारो ! किसी सूरत से तो अहवाल जता दो
 दरवाज़े पर उसके मेरी तस्वीर लगा दो
 अहवाल =हालत
 ***
ताबो-ताकत, सब्रो-राहत, जानो- ईमां, अक्लो-होश
 हाय क्या कहिए, कि दिल के साथ क्या-क्या जाए है
 *** 
मैं भी कुछ खुश नहीं वफ़ा करके 
 तुमने अच्छा किया निबाह न की 
 *** 
माँगा करेंगे अब से दुआ हिज्रे-यार की 
 आखिर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ 
 *** 
ऐसी लज़्ज़त खलिशे-दिल में कहाँ होती है 
 रह गया सीने में उसका कोई पैकां होगा 
 पैकां =तीर 
 *** 
ग़ैर है बे-वफ़ा पै तुम तो कहो 
 है इरादा निबाह का कब तक 
 *** 
 नाम उल्फ़त का न लूँगा जब तलक है दम में दम 
 तूने चाहत का मज़ा ऐ फ़ित्नागर ! दिखला दिया 
 *** 
ख़ाक होता न मैं तो क्या करता 
 उसके दर का ग़ुबार होना था 
 *** 
देखिए किस जग़ह डुबो देगा 
 मेरी किश्ती का नाख़ुदा है इश्क 
*** 
 उम्र सारी तो कटी इश्के-बुताँ में 'मोमिन' 
 आख़री वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे

Monday, October 1, 2018

किताबों की दुनिया - 197

सिर्फ मंज़िल पे पहुँचने का जुनूँ होता है 
 इश्क में मील के पत्थर नहीं देखे जाते 
 *** 
जिसका पेट भरा है वो क्या समझेगा 
 भूख से मरने वाले कितने भूखे थे
 *** 
 इसके मजमे की कोई सीमा नहीं 
 आदमी दर्शक मदारी ज़िन्दगी 
 *** 
एक जलता हुआ चिराग हूँ मैं 
 मुझको मालूम है हवा क्या है
 *** 
जो कुछ है तेरे पास वही काम आएगा 
 बारिश की आस में कभी मटकी न फोड़ तू
 *** 
बढ़ी जब बेकली कल रात ,हमने 
 तुम्हारा नाम फिर गूगल किया है
 *** 
अर्दली हो के भी समझे है ये खुद को अफसर 
 ये मेरा जिस्म मेरी रूह का पैकर देखो 
 *** 
इश्क का मतलब समझ कर देखिएगा 
 क़ुरबतें महसूस होंगी फासलों में
 *** 
मिला तो सबक दूंगा इंसानियत का 
 मैं खुद में छुपा जानवर ढूंढता हूँ 
 *** 
जिस बशर की दस्तरस में कोई दरया था नहीं 
 प्यास की शिद्दत में वो आतिश को पानी लिख गया 

 बड़ा ही मुश्किल होता है एक तो किसी स्थापित प्रसिद्ध लोकप्रिय शायर पर लिखना और दूसरे किसी अनजान शायर पर लिखना। पहली श्रेणी के शायर के बारे में सभी को इतना कुछ मालूम होता है कि आप जो भी लिखें वही सबको पहले से पता होता है उसमें कुछ नया जोड़ना आसान नहीं होता और दूसरी श्रेणी के बारे में जब आपको कुछ पता ही नहीं होता है तो लिखेंगे कैसे और क्या ? ऐसे मामले में मैंने अक्सर देखा है कि सोशल मीडिया और सर्वज्ञानी गूगल बाबा भी अपना मुंह छुपा लेता है। आप उसके बारे में फिर यहाँ, वहां या जहाँ से भी थोड़ी सी सम्भावना दिखे जानकारी बटोरते हैं और इस अधकचरी जानकारी से मिले छोटे छोटे सूत्र इकठ्ठा करते हैं और फिर उन्हें आपस में जोड़ने की कोशिश करते हैं जिसमें कभी सफलता मिल जाती है तो कभी नहीं। हमारे आज के शायर दूसरी श्रेणी के हैं याने इनके बारे में मैंने न कभी सुना न कभी कहीं पढ़ा। किताब के कुछ पन्ने पलटे तो लगा कि इसे तो पूरा पढ़ना पड़ेगा। ये सरसरी तौर पर नज़र डाल कर रख देने वाली किताब नहीं है।

 रहगुज़ारे-दिल से गुज़रा शाम को उनका ख़्याल 
 रक़्स यादों का मगर अब रात भर होने को है 

 क्या पता मिटटी को अब वो कूज़ागर क्या रूप दे 
 हाँ मगर हंगामा कोई चाक पर होने को है 

 मुस्कराहट क्यों ज़िया की हो रही मद्धम 'दिनेश' 
क्या चिरागों पर हवाओं का असर होने को है 

 बात शुरू करते हैं कैथल से जो हरियाणा के शहर कुरुक्षेत्र से लगभग 54 की.मी की दूरी पर है। कैथल को हनुमान जी की जन्म स्थली भी माना जाता है और यही वो जगह है जहाँ भारत की पहली महिला शासक रज़िया सुल्तान की मज़ार स्थित है, लेकिन हम कैथल नहीं रुकेंगे उस से आगे चलेंगे ज्यादा नहीं ,यही कोई 18 -19 की.मी और पहुंचेंगे पूण्डरी गाँव। देखिये सावन का महीना है और ये सारा गाँव महक रहा है फिरनी की खुशबू से। कहते हैं जिसने पूंडरी गाँव की बनी फिरनी सावन में नहीं खाई तो फिर उसने जीवन में क्या खाया ? फिरनी एक तरह की मिठाई है जो मैदे और चीनी से बनाई जाती है और देश में ही नहीं विदेशों में भी सावन के महीने में पूंडरी से मंगवाई जाती है और बड़े चाव से खाई जाती है। इस फिरनी के अनूठे स्वाद के कारण ही पूंडरी का नाम लोगों की ज़बान पर है। इसी छोटे से गाँव के हैं हमारे आज के शायर जो देखने में पहलवान जैसे लगते हैं लेकिन हैं दिल के बहुत कोमल। जिस तरह की ग़ज़लें वो कह रहे हैं मुझे यकीन है कि आज नहीं तो कल पूंडरी को लोग उनके नाम 'दिनेश कुमार' की वजह से भी जानेंगे। दिनेश जी का पहला ग़ज़ल संग्रह 'तुम हो कहाँ ' अभी हमारे सामने है :


 नफ़स के इन परिंदों की कहानी भी अजीब है
 कि जब भी शाम हो गयी सफर तमाम हो गया 
 नफ़स =सांस 

 नसीब हम ग़रीबों का न बदला लोकतंत्र में 
 नया है हुक्मरां भले नया निज़ाम हो गया 

 सफर कलंदरों का कब है मंज़िलों पे मुनहसिर 
 जहाँ कहीं क़दम रुके वहीँ क़याम हो गया 
 मुनहसिर =आश्रित

 25 अक्टूबर 1977 को पूंडरी जिला कैथल में जन्में दिनेश ने कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय से वाणिज्य विषय में स्नातक की डिग्री हासिल की। गाँव और घर का माहौल ऐसा नहीं था कि दिनेश जी कविताओं या शायरी की और झुकते लेकिन उसके बावजूद ऐसा हुआ और पत्थरों की दीवार से जिस तरह एक कोंपल फूट निकलती है कुछ वैसे ही शायरी उनमें से निकल कर बाहर आयी। कारण ढूंढने की कोशिश करेंगे तो शायद सफलता हाथ नहीं लगेगी कि क्यों बचपन में वो दूरदर्शन और रेडियो से प्रसारित होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों के जूनून की हद तक दीवाने थे। सन 2005 याने 28 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली तुकबंदी की और उसे करनाल की एक काव्य गोष्ठी में सुनाया तो लोगों ने खूब पसंद किया। उत्साह बढ़ा तो बिना ग़ज़लों का व्याकरण समझे 7 -8 ग़ज़लें कह डालीं लेकिन जल्द ही ग़मे रोज़गार ने उनके इस परवान चढ़ते शौक के पर क़तर दिए।

 घुप अँधेरे में उजाले की किरण सा जीवन 
 जो भी जी जाए वो दुनिया में अमर होता है 

 आपसी प्यार मकीनों में हो, घर तब तब होगा 
 दरो-दीवार का ढाँचा तो खंडर होता है 

 वो न सह पायेगा इक पल भी हक़ीक़त की तपिश
 जिसके ख़्वाबों का महल मोम का घर होता है 

 ज़िन्दगी, जीने की जद्दो जहद में गुज़रती रही मन में उठते विचार कागज़ पर उतरने को तरसते रहे। लगभग 9 साल बाद याने 2014 में दिनेश जी ने अपनी एक ग़ज़लनुमा रचना फेसबुक पर डाली तो उसके बाद उन्हें जो प्रतिक्रिया मिली उस से पता लगा कि ग़ज़ल के लिए बहर का ज्ञान बहुत जरूरी है। सोचिये पूंडरी जैसे छोटे गाँव में ग़ज़ल के नियमों की जानकारी उन्हें कौन देता ?लिहाज़ा उन्होंने इंटरनेट की शरण ली। किस्मत से उन्हें डा ललित कुमार सिंह , नीलेश शेवगांवकर और डा अशोक गोयल जैसे हमेशा मदद करने को तैयार रहने वाले लोगों का साथ मिला। मुहतरम अनवर बिजनौरी साहब की किताब 'शायरी और व्याकरण' ने भी उनकी बहुत मदद की। सीख वही सकता है जो अपनी गलतियों से सबक ले और अगर कोई आपकी कमियां बताये तो उसे सकारात्मक ढंग से स्वीकार करे । दिनेश जी ने ये ही रास्ता अपनाया। उनका ,सीखने का 2014 में चला ये सिलसिला आज भी जारी है।

 ढो रहे हैं बोझ हम तहज़ीब का 
 गर्मजोशी अब कहाँ आदाब में 

 कौन करता रौशनी की क़द्र अब 
 ढूंढते हैं दाग सब महताब में 

 सिर्फ इतना सा है अफ़साना 'दिनेश' 
 ज़िन्दगी मैंने गुज़ारी ख्वाब में 

 दिनेश जी के लिखने पढ़ने के इस सिलसिले को एक झटका तब लगा जब उन्हें सन 2016 में दिल की गंभीर बीमारी ने आ घेरा। बीमारी कोई भी हो इंसान को तोड़ देती है और अगर दिल की हो तो और भी। दिनेश इस बीमारी की चपेट में आकर मानसिक रूप से बहुत कमज़ोर हो गए। इलाज़ के लिए पर्याप्त धन का अभाव, बीमारी से और ऑपरेशन से पैदा हुई परेशानियों ने उनकी कलम एक बार फिर उनके हाथ से छीन ली। सोशल मिडिया के अपने फायदे नुक्सान हैं लेकिन इसकी बदौलत हमें जीवन में कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनकी सोहबत में आपकी परेशानियां ,दुःख तकलीफें कम हो जाती है। दिनेश जी सौभाग्यशाली हैं कि मुसीबत की घडी में हौसला देने वालों की उन्हें कभी कमी नहीं रही और इसी हौसले की बदौलत वो ज़िन्दगी के मैदान-ए-जंग में फिर से ताल ठोक कर आ खड़े हुए।

 हमको तो क्यूंकि अपने सितमगर से प्यार था 
 ज़ोरो-जफ़ा का उस से गिला कर न सके हम 

 रंजो-अलम को सहने की आदत जो पड़ गई 
 फिर अपने सोज़े -दिल की दवा कर न सके हम 

 आज उनके तसव्वुरात का बंधन अजीब था 
 मरने तलक तो खुद को रिहा कर न सके हम

 'साहित्य सभा ' कैथल में चलने वाली उस मयारी मासिक काव्य गोष्ठी का नाम है जिसमें शिरक़त करना शायर के लिए फ़क्र की बात मानी जाती है. हर माह इस गोष्ठी द्वारा ग़ज़ल प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है जिसमें कैथल के ही नहीं पूरे हरियाणा और उसके आसपास के शायर भाग लेते हैं। दिनेश जी ने इस प्रतियोगिता में समय समय पर कभी तृतीय कभी द्वितीय तो कभी प्रथम स्थान ग्रहण किया है। श्री अमृत लाल मदान जो इस काव्यगोष्ठी के प्रधान हैं ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "मेरी लिए यह हैरानी का सबब रहा है कि आज जबकि ख़ालिस उर्दू जानने वालों की तादाद बहुत कम हो गयी है ,कैसे वाणिज्य पढ़ा कस्बे का ये नौजवान स्नातक एहसासात से लबालब ग़ज़लें कह लेता है , कैसे मुश्किल से मुश्किल उर्दू के अल्फ़ाज़ को शायरी की दिलकश चाशनी के रूप में परोस कर सामने रख देता है "

 हक़-परस्ती की डगर पर है ख़मोशी छाई
 झूठ की पैरवी करते हैं ज़माने वाले

 अपने उपदेशों की गठरी को उठाले ज़ाहिद
 मयक़दे जाएंगे ही मयक़दे जाने वाले

 अपनी हिम्मत से नया बाब कोई लिखते हैं
 सर नहीं देखते, दस्तार बचाने वाले

 मजे की बात है कि बिना किसी उस्ताद की मदद लिए उर्दू ज़बान दिनेश जी ने इंटरनेट के माध्यम से सीखी। उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं था क्यूंकि कस्बे में उर्दू सिखाने वाला कोई ढंग का उस्ताद मिला नहीं ,नौकरी की वजह से रोज रोज कैथल तो जा नहीं सकते थे लिहाज़ा इंटरनेट की शरण ले ली। उनका कहना है कि अभी उनको उर्दू लिखने में दिक्कत आती है अलबत्ता वो धीरे धीरे पढ़ जरूर लेते हैं। इस से उनकी झुझारू प्रवृति का पता चलता है, उनके जूनून की खबर लगती है। मुझे ऐसे सुदूर इलाकों में रहने वाले अनजान शायरों को पढ़ना अच्छा लगता है भले ही उनकी शायरी अभी कच्ची है मयार भी बहुत ऊंचा नहीं है लेकिन उनका हौसला बुलंद है। जो लोग स्थापित नहीं हैं उनके तरफ खड़े रहने वालों की हमेशा कमी रहेगी मगर जो लोग जुनूनी हैं उनके लिए इस बात से अधिक फ़र्क नहीं पड़ता कि कितने लोग उनके साथ खड़े हैं। आप दिल से लिखते रहें तो एक दिन चाहने वालों की भीड़ खुद-ब -खुद आपकी तरफ खींची चली आएगी।

 अगरचे काम कोई मेरा बेमिसाल नहीं 
 मगर सुकूँ है यही दिल को कुछ मलाल नहीं 

 वफ़ा की राह पे चल कर किसी को कुछ न मिला 
 मगर मैं ज़िंदा हूँ अब तक ये क्या कमाल नहीं 

 हम अब भी रातों को उठ उठ के उनको छूते हैं 
 हुई है उम्र मगर इश्क में ज़वाल नहीं 
 ज़वाल =गिरावट /कमी 

 दिनेश जी के इस पहले ग़ज़ल संग्रह को 'शब्दांकुर प्रकाशन' मदनगीर , नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस किताब को आप प्रकाशक को उनके ईमेल अड्रेस shabdankurprkashan@gmail.com पर मेल करके प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं या 09811863500 पर कॉल कर सकते हैं ,सबसे बढ़िया तो ये रहेगा कि आप अपने कीमती समय से एक छोटा सा हिस्सा निकाल कर दिनेश जी को उनके मोबाईल न. 09896755813 पर फोन करके बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। किसी अनजान शायर की हौसला अफ़ज़ाही करना सबाब का काम होता है क्यूंकि आपके एक फोन से जो ख़ुशी दिनेश जी को मिलेगी वो शायद उन्हें किसी बड़े सम्मान को प्राप्त करके भी न मिले -ये बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ और अगर आप भी कुछ लिखते हैं तो पाठक के फोन से मिलने वाली ऊर्जा को समझ सकते हैं।

अपने मिलने का इक दर खुला छोड़ दे 
 चारागर ज़ख्म कोई हरा छोड़ दे 

 तेरी नस्लों को दुश्वारी होगी नहीं 
 दश्ते-सहरा में तू नक़्शे-पा छोड़ दे

 सिर्फ खुशियाँ ही जीवन का हासिल नहीं
 कुछ ग़मों के लिए हाशिया छोड़ दे 

 वक्त आ गया है कि अब किसी नयी किताब की तलाश के लिए निकला जाय इसलिए दिनेश जी की ज़िन्दगी के लगभग हर पहलू को नज़दीक से देखती-भालती पुर कशिश अंदाज़ वाली ग़ज़लों की चर्चा को विराम दिया जाय। चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक छोटी बहर में कही ग़ज़ल के ये शेर :

 मेरे चेहरे पे जब चेहरा नहीं था 
 मैं तब आईने से डरता नहीं था 

 ग़मों से जब नहीं वाबस्तगी थी
 मैं इतनी ज़ोर से हँसता नहीं था 

 नज़ाकत ताज़गी कुछ बेवफाई 
 किसी के हुस्न में क्या क्या नहीं था