यह तब्सिरा शिकायतें बेकार हैं मियांँ
ये मान लो कि खेलती है खेल जिंदगी
*
मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई
जब बच्चों को हंसते देखा आंखों ने आराम किया
पापों के साए में खुद को यूंँ जीवित रखते हैं हम
घट भरने की बारी आई सीधा तीरथ धाम किया
उसकी माया वो ही जाने इसका मतलब यू समझो
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया
*
चाहे वे जिसको खरीदें, भोग लें या फेंक दें
इश्तहारों से टँगे हैं हम सभी दीवार पर
*
राधिका-सी ज़मीं रक्स करने लगे
बादलों बांँसुरी तो बजाया करो
*
तब हर इक घर में सदाक़त का जनाज़ा उतरा
झूठ से लिपटे हुए सुबह जो अख़बार गए
सदाक़त: सच्चाई
*
मैं आइने से मुखातिब हूँ ख़ूब तन के खड़ा
मेरा ये अक्स मगर क्यों झुका-झुका ही लगे
*
तेरे आगे मैं ठहरा हूँ
बिल्कुल ड्रेसिंग टेबल जैसा
रिश्तों का आखेट हुआ है
घर लगता है जंगल जैसा
शायद आप जानते हों लेकिन बहुत से लोग नहीं जानते कि बैतूल जिले के गाँव मलाजपुर के एक मंदिर में पिछले 400 सालों से भूत भगाने के लिए मेला लगता है जिसमें दूर दूर से लोग अपने परिजनों, मित्रों की दिमागी बीमार का इलाज़ करवाने ये सोच कर आते हैं कि इन पर किसी भूत-प्रेत का साया है। मज़े की बात है कि ऐसे लोगों का दावा है कि इस तरह के मरीज़ वहां जा कर ठीक भी हो जाते हैं। एक बात और इस मंदिर में आरती के समय बजते शंख की आवाज़ के साथ मंदिर के प्रांगण में बसने वाले कुत्ते अपना सुर भी मिलाते हैं। ये आरती रोजाना शाम को होती है। आप पूछेंगे कि किताबों की दुनिया में मलाजपुर का ज़िक़्र क्यों ? आपके इस सवाल का कोई सीधा जवाब भी मेरे पास नहीं है मलाजपुर का ज़िक्र तो मैंने इसलिए किया क्यूंकि इसके मात्र 40 की.मी. दूर गाँव गोराखार है जहाँ 15 जुलाई 1981 को एक स्कूल अध्यापक के घर जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया मिथिलेश पूरा नाम मिथिलेश वामनकर। अब चूँकि गोराखार में ऐसा कुछ उल्लेखनीय नहीं है लिहाज़ा उसके पास के गाँव का ज़िक्र कर लिया। मिथिलेश जी की प्रारम्भिक शिक्षा गोराखार गाँव के आंगनबाड़ी केंद्र से ही हुई। इसी गाँव से उन्होंने पहली दूसरी कक्षा की पढाई भी की फिर पिता का स्थानांतरण लगभग 500 की मी दूर बस्तर के बवई गाँव में हो गया तो आगे की शिक्षा फिर बस्तर के अलग अलग गाँवों के अलग अलग स्कूलों में हुई।
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आज मिथिलेश वामनकर की ग़ज़लों की किताब 'अँधेरों की सुबह' अभी हमारे सामने है। इस किताब को अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद ने सं 2016 को प्रकाशित किया था। ये किताब अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ध है।
आसान लग रहा है अगर तय सफ़र मियांँ
तो जिंदगी ये आपकी समझो उतार पर
वादा लिया कि ख़वाब हकीक़त करोगे तुम
यूं बोझ रख दिया है किसी होनहार पर
*
अजब है लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे
मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते हैं
*
अब सिसकते हैं अकेले में विष के प्याले
आजकल तो कहीं शंकर नहीं देखे जाते
राह कैसी है हमें हश्र पता है लेकिन
इश्क़ में मील के पत्थर नहीं देखे जाते
*
कि चूल्हे भी जिनके घरों में जल नहीं पाते
उन्हें तहज़ीब रख कर बोलना क्या इक तराजू से
ज़रा सोचो कि उसका भी भला क्या हौसला होगा
अभी जो मेढकों को तोल आया इक तराजू से
*
क़ुरबतें घटाती हैं हर नजर की बिनाई
ज्यूँ तले चरागों के रौशनी नहीं मिलती
*
अब तो मुकम्मल ज़िदगी हर एक को मिलते नहीं
जो हाथ में है रोटियांँ तो पांव में जंजीर है
लो क़त्ल भी मेरा हुआ क़ातिल मुझे माना गया
तफ्तीश भी मेरी हुई मुझको मिली ताज़ीर है
ताज़ीर: दंड ,सजा
पापा की मास्टरी और तबादले चलते रहे और मैं भी कई स्कूलों में पढ़ता रहा, नए नए दोस्तों से मिलता रहा। 1989 में पापा का चयन डिप्टी कलेक्टर के पद पर हुआ तो हम घास फूस वाले घर से सीधे बंगले में पहुंच गए। गाँव छूट गए और कस्बानुमा नगरों के नए स्कूलों में दाखिल होते गए। इस दौरान पापा छत्तीसगढ़ की छोटी छोटी तहसीलों में रहें जहां के सरकारी स्कूलों में मेरी पढ़ाई हुई। जब मैं मिडिल स्कूल पहुँचा तो थोड़ी बहुत तुकबंदी शुरू कर दी थी। सातवीं में पहली बार मेरी एक कविता स्थानीय अखबार में छप गई।
फिर क्या था, खुद को साहित्य के क्षेत्र पदार्पित मानते हुए काव्य लिखना और साहित्य पढ़ना शुरू हो गया। चूंकि पापा खुद अच्छे कवि है इसलिए घर में किताबों की कमी थी नहीं। लेकिन मेरा साहित्यक अध्ययन कविता से नहीं बल्कि उपन्यासों से आरंभ हुआ। आठवीं कक्षा में प्रेमचंद के अधिकांश उपन्यास पढ़ चुका था। दसवीं कक्षा तक तो अज्ञेय, नागर, यशपाल, मोहन राकेश, श्रीलाल शुक्ल, रेणु, प्रसाद, चतुरसेन आदि के उपन्यास पढ़ चुका था लेकिन उस उम्र में सर्वाधिक प्रभावित हुआ था धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता से। उस उपन्यास का असर कई महीनों तक रहा। अपने आसपास चंदर, सुधा, बिनती खोजते रहता। कभी खुद को चंदर मानकर कहीं सुधा की कल्पना में खोया रहता तो कभी बिनती से मिलने को आतुर हो जाता।
दिखे जो नींद में यारो वो सपने हो नहीं सकते
ये वो शै है, कभी जो आपको सोने नहीं देती
खुशी आई है घर में तो यक़ीनन साथ ग़म होगा
कभी साया अलग खुद रौशनी होने नहीं देती
*
अगर लफ़्जों की ज्यादा पत्तियां बिखरी हुई होंगी
तो मतलब के समर हमको दिखाई दे नहीं सकते
खुदा ने भूल जाने की अजब दौलत तो बख़्शी है
मगर फिर भी सभी बस याद रखने में लगे रहते
*
क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी
ये परबतों पे दाल गलाने की बात है
खुद ही उतर के आएंगे तारे ज़मीन पर
बस आसमां से चांद हटाने की बात है
*
खुशियां मिले तभी तक क़दमों में आसमां है
हमने ग़मों को पाया सिर पे ज़मीन जैसे
*
आज उफ़क तक सरसों देखी दिल बोला
नीली चूनर पीला लहंगा बढ़िया है
बूँदों की बारात दुआरे से बोली
खेतों का हरियाला बन्ना बढ़िया है
*
लहू से आज नहा कर जो लौट आया है
गया था शख्स़ शरीफों का घर पता करने
बेहद रोचक अंदाज़ में अपने बारे में आगे बताते हुए मिथिलेश जी लिखते है 'वो उम्र के सबसे रोमांचित करने वाले दिन थे। हार्मोनल बदलाव अपना करिश्मा दिखा रहे थे और मैं डायरी पर डायरी भर रहा था। उन सालों में खूब लिखा। कितना सार्थक लिखा ये नहीं पता। लेकिन लिखा खूब। हार्मोन्स प्रेम कवितायें लिखवाते थे और औपन्यासिक पठन के प्रभाव से सामाजिक यथार्थवादी कविताएँ भी लिखने लगा था। गीत सर्वाधिक प्रिय विधा थी उन दिनों। इधर जगजीत सिंह की ग़ज़लों की कैसेट्स ने शायरी से जोड़ दिया तो बशीर बद्र साहब की दीवानगी रही। इस कला प्रेम ने पढ़ाई पर असर डाला जरूर लेकिन पता नहीं कैसे दसवीं में गणित और विज्ञान में अच्छे नम्बर आ गए और उस समय की प्रचलित परम्परा अनुसार हायर सेकेंडरी में गणित लेना और इंजीनियर बनना तय हो गया। यद्यपि यह निर्णय मेरे अलावा बाकी सबने लिया था जिसमें घर परिवार समाज सभी सम्मिलित थे। नैतिक दबाव ऐसा था कि मेरे पास ना कहने की गुंजाइश ही नहीं थी।
इस दौरान जगदलपुर और दंतेवाड़ा से ग्यारहवीं बारहवीं कक्षा पूरी की और इंजीनियरिंग के इंट्रेंस की तैयारी के लिए भिलाई चला गया। वहां अकेला रहता था तो पढ़ाई के साथ साथ कविताई भी खूब चली। उन दिनों इंजीनियरिंग में आई टी ब्रांच का बड़ा जोर था लेकिन मेरे टेस्ट में इतने ही नम्बर आते थे कि मुझे सिविल मिल सके। मुझे सिर्फ आई टी इंजीनियर बनना था। आई टी इंजीनियरिंग का सपना पूरा नहीं हो सका। आखिर हार मानकर मुझे वापस दंतेवाड़ा जाकर बी एस सी करनी पड़ी। दंतेवाड़ा से 50 किलोमीटर दूर किरंदुल कॉलेज में प्रवेश लिया और बैलाडीला किरंदुल के लौह अयस्क वाले लाल हरे मनोरम पहाड़ों में खोता रहा। लेखन का आलम ये था कि मुझे सेकेंडियर में इसलिए सप्लीमेंट्री आई क्योंकि तब मैं अपना उपन्यास "लौह घाटी में चांद" लिख कर रहा था।
वो उपन्यास कॉलेज के सफल असफल प्रेम प्रसंगों और बस्तर में व्याप्त शोषणकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध युवाओं के आक्रोश पर आधारित था जो कभी प्रकाशित नहीं हो सका। उस उपन्यास को कई दोस्तों ने पढ़ा और उसमें खुद का चरित्र पाकर बहुत खुश भी होते थे। सब आज भी याद करते हैं।
हमारे पांव चिपके जा रहे हैं
नदीम उनकी गली चुंबक हुई क्या
नदीम: मित्र
अचानक ही ग़ज़ल फिर हो गई है
हमारी वेदना सर्जक हुई क्या
*
किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने
हुआ पराजित ये गांव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है
मुआवजे हो तमाम लेकिन वही ख़सारा वही हक़ीक़त
ज़मीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है
*
तीर बूंँदों के भला, क्या आपको आए मज़ा
भीग जाने का हुनर तो जानती है छतरियांँ
जेब में है वज़्न कितना, ये ज़माना देखता
फूल कितना खिल गया है, देखती हैं तितलियाँ
*
कहीं बुत परस्ती कहीं हैं ज़ियारत, तिज़ारत हुई है कहीं मज़हबों की
शिवाला बहुत है, मिली मस्जिदें भी, मगर आदमी में अक़ीदत नहीं है
ज़ियारत: प्रार्थना, तिज़ारत: व्यापार
*
उसे भी तो ज़रा दिल से निकालो
मिटाया नाम जिसका डायरी से
*
लगे फिर से बँधाने को नई जो आस अच्छे दिन
असल में कर रहे जैसे कोई उपहास अच्छे दिन
ग़रीबी में दिखाते जो किसी को भूख के जलवे
अमीरी में वही लगते, हमें उपवास अच्छे दिन
जब मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ अलग हुए तो पापा ने मध्यप्रदेश चुना और हम मध्यप्रदेश आ गए। पहले पापा की हरदा पोस्टिंग हुई फिर छिंदवाड़ा। जब मैं छिंदवाड़ा में था वहीं से बी एस सी फाइनल किया और जैसे तैसे साइंस ग्रेजुएट हो गया। इन्ही दिनों दुष्यन्त कुमार का ग़ज़ल संग्रह साये में धूप हाथ लगा। अब मुझे ग़ज़लें लिखने से कोई नहीं रोक सकता था। मैंने खूब ग़ज़लें लिखी। 100 से अधिक ग़ज़लों का एक दीवान तैयार हो गया। इस दौरान एक इंटरनेट कैफे में थोड़ा बहुत काम कर जेब खर्च लायक कुछ कमाई करने लगा था। उल्लेखनीय है कि पॉकेट मनी मांगना हमारे घर मे अपराध की श्रेणी में आता था। इंटरनेट से संपर्क हुआ तो वेब डिजायनिंग सीख ली। खुद से थोड़ी बहुत html लेंग्वेज भी सीख ली। उन दिनों इंटरनेट जानने वालों में अंधों में काना राजा था मैं। बड़े उत्साह से भोपाल में एम सी ए करने का सपना लेकर पापा से बात करने की कोशिश की मगर बात नहीं बनी।खैर। सौभाग्य से इसके बाद पापा का ट्रांसफर भोपाल हुआ तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।
2003 में हम भोपाल आये। भोपाल में एम सी ए में प्रवेश से सम्बंधित जानकारी लेने के दौरान एक दिन बेरोजगार आंखों को मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का विज्ञापन नज़र आया। बड़े बड़े अफसरों वाली परीक्षा ने ध्यान खींचा। विज्ञापन देखा तो फॉर्म भरने की अंतिम तिथि दो दिन बाद थी। तत्काल फॉर्म भरा और रुचि अनुसार इतिहास विषय का चयन कर लिया। प्री की परीक्षा पास हो गया। मुख्य परीक्षा के लिए इतिहास के साथ दूसरा विषय लेना था फिर रुचि अनुसार हिंदी साहित्य लिया। तैयारी में लग गया। मेंस के पेपर अच्छे गए लेकिन रिजल्ट आने में बहुत साल लगे। उस दौरान दिल्ली आई ए एस की कोचिंग करने चला गया। लेकिन दो बार प्री निकलने के बाद भी मेंस में असफल हो जाता था। वो बहुत खीझ भरे दिन थे। मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का रिजल्ट नहीं आ रहा था और upsc क्रेक करना बूते का नहीं लग रहा। बेरोजगारी के वो दिन बड़े कष्ट वाले थे। खुद पर जितना गुस्सा उन दिनों आया उतना न उससे पहले आया, न उसके बाद।हां उन दिनों लेखन अवश्य चला और ब्लॉग भी खूब लिखे।
वापस भोपाल आकर कोई बिजनेस करने का मन बनाया। पुस्तैनी गांव गोराखार में स्टोन क्रशर की तैयारी में लग गया। कई दफ्तरों के चक्कर लगाए। ये 2007 की बात है।
उसी साल मप्र पीएससी की मेंस का रिजल्ट आ गया। मैं सफल हुआ । फिर साक्षात्कार की तैयारी में लग गया। मेरा चयन वाणिज्यिक कर अधिकारी में हो गया। अब नई नौकरी, ट्रेनिंग, नए नए दायित्व ट्रान्सफर पोस्टिंग आदि में दो तीन साल गुजर गए। इस बीच एक नया बखेड़ा हो गया। मेरा विवाह हो गया। वो भी अंतरजातीय प्रेम विवाह। यानी फुल फैमिली ड्रामा। सारी मान मनौवल का सिलसिला तब रुका जब एक बेटी का पिता बन गया। इन सब के कारण लेखन में कमी आई लेकिन प्रेमिका कम पत्नी ने सदैव लिखने के लिए प्रेरित किया और रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजने लगातार कहती रही। इसी बीच मेरी दो ग़ज़लें एक साझा संकलन में प्रकाशित हो गई तो फिर से मेरी लिखने की इच्छा जागृत हुई। अब जो ग़ज़लें लिखता था वो समाचार पत्रों में प्रकाशित भी होती थी। अब इस छपास ने मुझे और लिखने के लिए प्रेरित किया। फिर ग़ज़लों का अंबार लगने लगा। खुद को शायर घोषित कर स्थानीय आयोजनों में ग़ज़ल पाठ भी करने लगा।
प्रमोशन पाकर असिस्टेंट कमिश्नर हो गया तो शायरी में रौब भी जुड़ गया और आयोजन में अतिथि के तौर पर बड़े ठाठ से जाता था। लेकिन खोखले शायर वाला रौब अधिक दिन नहीं चल सका। जब नेट के माध्यम से अरूज़ की जानकारी मिली तो समझ आया ग़ज़ल लिखते नहीं कहते हैं। अब अपनी औकात समझ आई। अपनी तथाकथित ग़ज़लों के ढेर को परे किया और अनुशासित रूप से नेट और किताबों के माध्यम से अरूज़ का अभ्यास करने लगा। लगभग तीन साल तक यह अभ्यास जारी रहा। 2014 में ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट से जुड़ा और वहीं काव्य की विभिन्न विधाओं का अभ्यास करने लगा। गुणीजनों का सानिध्य पाकर कुछ कुछ शायरी समझ आने लगी। इस दौरान जो ग़ज़लें कही वो 2016 में प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह अंधेरों की सुबह में संग्रहित हैं। इसके बाद जैसे जैसे शायरी समझ आती गई, ग़ज़ल कहना कम होता गया। फिर छंदों और गीतों की तरफ मुड़ा। बहुत दोहे लिखे और दोहा संग्रह का संपादन भी किया। आलोचना विधा ने आकर्षित किया तो दुष्यन्त की ग़ज़लों के शिल्प पर लिखा। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई। एक गीत संकलन प्रकाशनाधीन है। आजकल इतिहास पर कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई
जब बच्चों को हंँसते देखा आंँखों ने आराम किया
पापों के साए में खुद को यूं जीवित रखते हैं हम
घट भरने की बारी आई, सीधा तीरथ धाम किया
*
ये तब्सिरा शिकायतें बेकार है मियांँ
ये मान लो कि खेलती है खेल ज़िंदगी
तब्सिरा: आलोचना
एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने
बात करता है जमाने से वही नेचर की
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चाहे जिसकी जमीन पर कहिये
शे'र अपने बयाँ से उठता है
जो कि ममता हमेशा बरसाए
अब्र वो सिर्फ माँ से उठता है
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अगर दिल में ठिकाना है तो क़दमों को खबर कर दो
ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं
जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे
चलो तुमको हम अपने गांँव के बरगद दिखाते हैं
*
अगर दे तो मुअज्ज़िज़ फितरतन खुद्दार दुश्मन दे
मेरे क़द का नहीं होगा तो मतलब दुश्मनी का क्या?
*
विधान जब से उड़ानों के हक़ में पारित है
नियम भी साथ बना एक, पर कुतरने का
जब मैंने उनके उस्ताद के बारे में पूछा तो उन्होंने लिखा कि मैं अपनी ग़ज़लें ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट पर पोस्ट करता था जहां कई उस्तादों की इस्लाह मिल जाती थी। दरअसल उस वेबसाइट पर सीखने सीखने की एक स्वस्थ्य परंपरा में सभी अभ्यासी भी थे और उस्ताद भी। सभी एक दूसरे की कमियाँ बताकर ग़ज़लों को ठीक कर लेते थे। जितना मैंने अरूज़ पढ़ा था और जो वेबसाइट पर अरूज़ के हवाले से इस्लाह मिली उसी के आधार पर लगा कि अब ग़ज़लें व्याकरण के हिसाब से काफी हद तक सही कह रहा हूँ। ये तो हुई कला पक्ष की बात लेकिन भाव पक्ष के संबंध में अभी ठोस कुछ कह नहीं सकता।
भोपाल के हिंदी भवन, स्वराज भवन, दुष्यन्त कुमार संग्रहालय आदि में हुए कवि सम्मेलनों में रचना पाठ का अवसर मिला है। मैंने "ओपन बुक्स ऑनलाइन भोपाल चैप्टर" नाम से एक संस्था बनाई थी जिसमें प्रतिमाह आयोजन होते थे। इस संस्था के अध्यक्ष स्वर्गीय जहीर कुरैशी साहब थे और मैं महासचिव। ज़हीर साहब का एक लंबे अरसे तक आशीष मिला। एक बड़े शायर की सादगी का गवाह रहा हूँ। उनके घर भी घंटों बैठा करते और ग़ज़ल से शुरू हुई चर्चा साहित्यिक दुनिया से समाज और राजनीति तक कब पहुंच जाती थी, पता ही नहीं चलता था। जहीर साहब मुझे उत्साहित करने के लिए अक्सर कहते थे मिथिलेश जी आप कभी कभी बड़ा शेर कह जाते हैं। उन जैसे बड़े शायर का स्नेह मिलना बड़ी बात थी मेरे लिए।
पसंदीदा शायरों के बारे में पूछने पर उन्होंने मुझे लिखा 'मुझे शायरों में ग़ालिब और दुष्यन्त बहुत पसंद है। ग़ालिब मुग्ध कर लेते हैं और दुष्यन्त झिंझोड़ देते हैं। ग़ालिब अपने समय से आगे के शायर थे और दुष्यन्त अपने समय के प्रामाणिक दस्तावेज।'
वर्तमान में हो रही शायरी पर उनकी टिप्पणी बहुत उल्लेखनीय है वो 'आजकल जो वास्तव में शायरी हो रही है वह तो बहुत बढ़िया है। शायर अपने समय को अभिव्यक्त करने के लिए नए प्रतीक, नए बिम्ब गढ़ रहा है और उनकी शायरी युगबोध से भरपूर दिखाई देती है। लेकिन जहां शायरी के नाम पर कुछ भी लिखा, पढ़ा और छापा जा रहा है वहां थोड़ा दुख होता है। शायरी के नाम पर केवल लिखने के लिए लिखना उचित नहीं है। हर विधा का अपना शिल्प और ढंग होता है, केवल नारेबाजी के लिए गलतियों को नए प्रयोग कहना ठीक नहीं है।'
आप मिथिलेश जी को उनके मोबाईल न 9826580013 पर फोन कर जरूर बताएं कि आपको उनकी शायरी कैसी लगीं उनकी शायरी का अंदाज़ कैसा लगा ,यकीन मानें वो स्वस्थ आलोचना को बहुत प्राथमिकता देते हैं और हाँ यदि आपको उनकी शायरी पसंद आयी हो तो आप उन्हें बधाई दें। मैं मिथिलेश का आभारी हूँ क्यूंकि ये पोस्ट मिथिलेश जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी। आखिर में पेश हैं उनकी कुछ और ग़ज़लों से लिए चुनिंदा शेर :
मुझे मंदिर की घंटी ने सवेरे प्रश्न पूछा है
कि मस्जिद में जो मीरा का भजन होगा तो क्या होगा
नगर जिसमें सभी पाषाण मन के लोग रहते हैं
मुझे मालूम है मेरा रूदन होगा तो क्या होगा
*
एक जुमले ने नई पौध को भी मारा है
अब न वो लोग, न वैसा है जमाना बाक़ी
*
सर्जना भी अब कहांँ मौलिक रही
जो पढ़ेंगे आप वो साभार है
हम गगन के स्वप्न में खोए रहे
और खिसका जा रहा आधार है
*
ज़ियारत क्या, परस्तिश क्या, अक़ीदत क्या, इबादत क्या
किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा