Monday, November 22, 2021

किताबों की दुनिया - 245

यह तब्सिरा शिकायतें बेकार हैं मियांँ 
ये मान लो कि खेलती है खेल जिंदगी
*
मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई 
जब बच्चों को हंसते देखा आंखों ने आराम किया 

पापों के साए में खुद को यूंँ जीवित रखते हैं हम 
घट भरने की बारी आई सीधा तीरथ धाम किया

उसकी माया वो ही जाने इसका मतलब यू समझो 
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया
*
चाहे वे जिसको खरीदें, भोग लें या फेंक दें 
इश्तहारों से टँगे हैं हम सभी दीवार पर
*
राधिका-सी ज़मीं रक्स करने लगे 
बादलों बांँसुरी तो बजाया करो
*
तब हर इक घर में सदाक़त का जनाज़ा उतरा
झूठ से लिपटे हुए सुबह जो अख़बार गए
सदाक़त: सच्चाई
*
मैं आइने से मुखातिब हूँ ख़ूब तन के खड़ा
मेरा ये अक्स मगर क्यों झुका-झुका ही लगे
*
तेरे आगे मैं ठहरा हूँ
बिल्कुल ड्रेसिंग टेबल जैसा

रिश्तों का आखेट हुआ है
घर लगता है जंगल जैसा

शायद आप जानते हों लेकिन बहुत से लोग नहीं जानते कि बैतूल जिले के गाँव मलाजपुर के एक मंदिर में पिछले 400 सालों से भूत भगाने के लिए मेला लगता है जिसमें दूर दूर से लोग अपने परिजनों, मित्रों की दिमागी बीमार का इलाज़ करवाने ये सोच कर आते हैं कि इन पर किसी भूत-प्रेत का साया है। मज़े की बात है कि ऐसे लोगों का दावा है कि इस तरह के मरीज़ वहां जा कर  ठीक भी हो जाते हैं। एक बात और इस मंदिर में आरती के समय बजते शंख की आवाज़ के साथ मंदिर के प्रांगण में बसने वाले कुत्ते अपना सुर भी मिलाते हैं। ये आरती रोजाना शाम को होती है।  आप पूछेंगे कि किताबों की दुनिया में मलाजपुर का ज़िक़्र क्यों ? आपके इस सवाल का कोई सीधा जवाब भी मेरे पास नहीं है मलाजपुर का ज़िक्र तो मैंने इसलिए किया क्यूंकि इसके मात्र 40 की.मी. दूर गाँव गोराखार है जहाँ 15 जुलाई 1981 को एक स्कूल अध्यापक के घर जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया मिथिलेश पूरा नाम मिथिलेश वामनकर। अब चूँकि गोराखार में ऐसा कुछ उल्लेखनीय नहीं है लिहाज़ा उसके पास के गाँव का ज़िक्र कर लिया। मिथिलेश जी की प्रारम्भिक शिक्षा गोराखार गाँव के आंगनबाड़ी केंद्र से ही हुई। इसी गाँव से उन्होंने पहली दूसरी कक्षा की पढाई भी की फिर पिता का स्थानांतरण लगभग 500 की मी दूर बस्तर के बवई गाँव में हो गया तो आगे की शिक्षा फिर बस्तर के अलग अलग गाँवों के अलग अलग स्कूलों में हुई।    
.          
आज मिथिलेश वामनकर की ग़ज़लों की किताब 'अँधेरों की सुबह' अभी हमारे सामने है। इस किताब को अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद ने सं 2016 को प्रकाशित किया था। ये किताब अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ध है।


आसान लग रहा है अगर तय सफ़र मियांँ 
तो जिंदगी ये आपकी समझो उतार पर 

वादा लिया कि ख़वाब हकीक़त करोगे तुम 
यूं बोझ रख दिया है किसी होनहार पर
*
अजब है लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे 
मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते हैं
*
अब सिसकते हैं अकेले में विष के प्याले 
आजकल तो कहीं शंकर नहीं देखे जाते

राह कैसी है हमें हश्र पता है लेकिन 
इश्क़ में मील के पत्थर नहीं देखे जाते
*
कि चूल्हे भी जिनके घरों में जल नहीं पाते 
उन्हें तहज़ीब रख कर बोलना क्या इक तराजू से 

ज़रा सोचो कि उसका भी भला क्या हौसला होगा 
अभी जो मेढकों को तोल आया इक तराजू से
*
क़ुरबतें घटाती हैं हर नजर की बिनाई 
ज्यूँ तले चरागों के रौशनी नहीं मिलती
*
अब तो मुकम्मल ज़िदगी हर एक को मिलते नहीं 
जो हाथ में है रोटियांँ तो पांव में जंजीर है

लो क़त्ल भी मेरा हुआ क़ातिल मुझे माना गया 
तफ्तीश भी मेरी हुई मुझको मिली ताज़ीर है 
ताज़ीर: दंड ,सजा

बस्तर को याद करते हुए मिथिलेश जी लिखते हैं कि 'बस्तर में गुजरा मेरा बचपन मेरी यादों में आज भी जस का तस है। घने जंगल, छोटे छोटे गांव, घासफूस वाले घर, धूल भरी गांव की गलियाँ, साइकिल पर बैठकर पापा के साथ हाट जाना, पापा का नदी तैरकर दूसरे तट तक मुझे ले जाना फिर दूसरी बार मे साइकिल लाना, लालाजी की किराने की टपरी से मीठी गोली मिलना जिससे पूरे होंठ लाल हो जाते थे, पत्तल बनाने के लिए जंगल से पत्ते लाना, घर की बाड़ी से सब्जियाँ तोड़ना, वो भीमा, लक्ष्मी दीदी, ओट्टी चाचा, शोभा दीदी, कितनी सादगी थी उन लोगों में, उस हवा में, उन गांवों में, उन जंगलों में। और कितना कुछ है। बस्तर मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है। 

पापा की मास्टरी और तबादले चलते रहे और मैं भी कई स्कूलों में पढ़ता रहा, नए नए दोस्तों से मिलता रहा। 1989 में पापा का चयन डिप्टी कलेक्टर के पद पर हुआ तो हम घास फूस वाले घर से सीधे बंगले में पहुंच गए। गाँव छूट गए और कस्बानुमा नगरों के नए स्कूलों में दाखिल होते गए। इस दौरान पापा छत्तीसगढ़ की छोटी छोटी तहसीलों में रहें जहां के सरकारी स्कूलों में मेरी पढ़ाई हुई। जब मैं मिडिल स्कूल पहुँचा तो थोड़ी बहुत तुकबंदी शुरू कर दी थी। सातवीं में पहली बार मेरी एक कविता स्थानीय अखबार में छप गई।

फिर क्या था, खुद को साहित्य के क्षेत्र पदार्पित मानते हुए काव्य लिखना और साहित्य पढ़ना शुरू हो गया। चूंकि पापा खुद अच्छे कवि है इसलिए घर में किताबों की कमी थी नहीं। लेकिन मेरा साहित्यक अध्ययन कविता से नहीं बल्कि उपन्यासों से आरंभ हुआ। आठवीं कक्षा में प्रेमचंद के अधिकांश उपन्यास पढ़ चुका था। दसवीं कक्षा तक तो अज्ञेय, नागर, यशपाल, मोहन राकेश, श्रीलाल शुक्ल, रेणु, प्रसाद, चतुरसेन आदि के उपन्यास पढ़ चुका था लेकिन उस उम्र में सर्वाधिक प्रभावित हुआ था धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता से। उस उपन्यास का असर कई महीनों तक रहा। अपने आसपास चंदर, सुधा, बिनती खोजते रहता। कभी खुद को चंदर मानकर कहीं सुधा की कल्पना में खोया रहता तो कभी बिनती से मिलने को आतुर हो जाता।

दिखे जो नींद में यारो वो सपने हो नहीं सकते 
ये वो शै है, कभी जो आपको सोने नहीं देती

खुशी आई है घर में तो यक़ीनन साथ ग़म होगा 
कभी साया अलग खुद रौशनी होने नहीं देती
*
अगर लफ़्जों की ज्यादा पत्तियां बिखरी हुई होंगी 
तो मतलब के समर हमको दिखाई दे नहीं सकते 

खुदा ने भूल जाने की अजब दौलत तो बख़्शी है 
मगर फिर भी सभी बस याद रखने में लगे रहते
*
क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी 
ये परबतों पे दाल गलाने की बात है

खुद ही उतर के आएंगे तारे ज़मीन पर 
बस आसमां से चांद हटाने की बात है
*
खुशियां मिले तभी तक क़दमों में आसमां है 
हमने ग़मों को पाया सिर पे ज़मीन जैसे
*
आज उफ़क तक सरसों देखी दिल बोला 
नीली चूनर पीला लहंगा बढ़िया है

बूँदों की बारात दुआरे से बोली 
खेतों का हरियाला बन्ना बढ़िया है
*
लहू से आज नहा कर जो लौट आया है 
गया था शख्स़ शरीफों का घर पता करने

बेहद रोचक अंदाज़ में अपने बारे में आगे बताते हुए मिथिलेश जी लिखते है 'वो उम्र के सबसे रोमांचित करने वाले दिन थे। हार्मोनल बदलाव अपना करिश्मा दिखा रहे थे और मैं डायरी पर डायरी भर रहा था। उन सालों में खूब लिखा। कितना सार्थक लिखा ये नहीं पता। लेकिन लिखा खूब। हार्मोन्स प्रेम कवितायें लिखवाते थे और औपन्यासिक पठन के प्रभाव से सामाजिक यथार्थवादी कविताएँ भी लिखने लगा था। गीत सर्वाधिक प्रिय विधा थी उन दिनों। इधर जगजीत सिंह की ग़ज़लों की कैसेट्स ने शायरी से जोड़ दिया तो बशीर बद्र साहब की दीवानगी रही। इस कला प्रेम ने पढ़ाई पर असर डाला जरूर लेकिन पता नहीं कैसे दसवीं में गणित और विज्ञान में अच्छे नम्बर आ गए और उस समय की प्रचलित परम्परा अनुसार हायर सेकेंडरी में गणित लेना और इंजीनियर बनना तय हो गया। यद्यपि यह निर्णय मेरे अलावा बाकी सबने लिया था जिसमें घर परिवार समाज सभी सम्मिलित थे। नैतिक दबाव ऐसा था कि मेरे पास ना कहने की गुंजाइश ही नहीं थी। 

इस दौरान जगदलपुर और दंतेवाड़ा से ग्यारहवीं बारहवीं कक्षा पूरी की और इंजीनियरिंग के इंट्रेंस की तैयारी के लिए भिलाई चला गया। वहां अकेला रहता था तो पढ़ाई के साथ साथ कविताई भी खूब चली। उन दिनों इंजीनियरिंग में आई टी ब्रांच का बड़ा जोर था लेकिन मेरे टेस्ट में इतने ही नम्बर आते थे कि मुझे सिविल मिल सके। मुझे सिर्फ आई टी इंजीनियर बनना था। आई टी इंजीनियरिंग का सपना पूरा नहीं हो सका।   आखिर हार मानकर मुझे वापस दंतेवाड़ा जाकर बी एस सी करनी पड़ी। दंतेवाड़ा से 50 किलोमीटर दूर किरंदुल कॉलेज में प्रवेश लिया और बैलाडीला किरंदुल के लौह अयस्क वाले  लाल हरे मनोरम पहाड़ों में खोता रहा। लेखन का आलम ये था कि मुझे सेकेंडियर में इसलिए सप्लीमेंट्री आई क्योंकि तब मैं अपना उपन्यास "लौह घाटी में चांद" लिख कर रहा था।
वो उपन्यास कॉलेज के सफल असफल प्रेम प्रसंगों और बस्तर में व्याप्त शोषणकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध युवाओं के आक्रोश पर आधारित था जो कभी प्रकाशित नहीं हो सका। उस उपन्यास को कई दोस्तों ने पढ़ा और उसमें खुद का चरित्र पाकर बहुत खुश भी होते थे। सब आज भी याद करते हैं। 

हमारे पांव चिपके जा रहे हैं 
नदीम उनकी गली चुंबक हुई क्या 
नदीम: मित्र 

अचानक ही ग़ज़ल फिर हो गई है
हमारी वेदना सर्जक हुई क्या
*
किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने 
हुआ पराजित ये गांव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है 

मुआवजे हो तमाम लेकिन वही ख़सारा वही हक़ीक़त 
ज़मीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है
*
तीर बूंँदों के भला, क्या आपको आए मज़ा 
भीग जाने का हुनर तो जानती है छतरियांँ

जेब में है वज़्न कितना, ये ज़माना देखता
फूल कितना खिल गया है, देखती हैं तितलियाँ
*
कहीं बुत परस्ती कहीं हैं ज़ियारत, तिज़ारत हुई है कहीं मज़हबों की 
शिवाला बहुत है, मिली मस्जिदें भी, मगर आदमी में अक़ीदत नहीं है 
ज़ियारत: प्रार्थना,  तिज़ारत: व्यापार
*
उसे भी तो ज़रा दिल से निकालो 
मिटाया नाम जिसका डायरी से
*
लगे फिर से बँधाने को नई जो आस अच्छे दिन 
असल में कर रहे जैसे कोई उपहास अच्छे दिन

ग़रीबी में दिखाते जो किसी को भूख के जलवे 
अमीरी में वही लगते, हमें उपवास अच्छे दिन

जब मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ अलग हुए तो पापा ने मध्यप्रदेश चुना और हम मध्यप्रदेश आ गए। पहले पापा की हरदा पोस्टिंग हुई फिर  छिंदवाड़ा। जब मैं छिंदवाड़ा में था वहीं से बी एस सी फाइनल किया और जैसे तैसे साइंस ग्रेजुएट हो गया। इन्ही दिनों दुष्यन्त कुमार का ग़ज़ल संग्रह साये में धूप हाथ लगा। अब मुझे ग़ज़लें लिखने से कोई नहीं रोक सकता था। मैंने खूब ग़ज़लें लिखी।  100 से अधिक ग़ज़लों का एक दीवान तैयार हो गया। इस दौरान एक इंटरनेट कैफे में थोड़ा बहुत काम कर जेब खर्च लायक कुछ कमाई करने लगा था। उल्लेखनीय है कि पॉकेट मनी मांगना हमारे घर मे अपराध की श्रेणी में आता था। इंटरनेट से संपर्क हुआ तो वेब डिजायनिंग सीख ली। खुद से थोड़ी बहुत html लेंग्वेज भी सीख ली। उन दिनों इंटरनेट जानने वालों में अंधों में काना राजा था मैं। बड़े उत्साह से भोपाल में एम सी ए करने का सपना लेकर पापा से बात करने की कोशिश की मगर बात नहीं बनी।खैर। सौभाग्य से इसके बाद पापा का ट्रांसफर भोपाल हुआ तो  मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।

2003 में हम भोपाल आये। भोपाल में एम सी ए में प्रवेश से सम्बंधित जानकारी लेने के दौरान एक दिन बेरोजगार आंखों को मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का विज्ञापन नज़र आया। बड़े बड़े अफसरों वाली परीक्षा ने ध्यान खींचा। विज्ञापन देखा तो फॉर्म भरने की अंतिम तिथि दो दिन बाद थी। तत्काल फॉर्म भरा और रुचि अनुसार इतिहास विषय का चयन कर लिया। प्री की परीक्षा पास हो गया। मुख्य परीक्षा के लिए इतिहास के साथ दूसरा विषय लेना था फिर रुचि अनुसार हिंदी साहित्य लिया। तैयारी में लग गया। मेंस के पेपर अच्छे गए लेकिन रिजल्ट आने में बहुत साल लगे। उस दौरान दिल्ली आई ए एस की कोचिंग करने चला गया। लेकिन दो बार प्री निकलने के बाद भी मेंस में असफल हो जाता था। वो बहुत खीझ भरे दिन थे। मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का रिजल्ट नहीं आ रहा था और upsc क्रेक करना बूते का नहीं लग रहा। बेरोजगारी के वो दिन बड़े कष्ट वाले थे। खुद पर जितना गुस्सा उन दिनों आया उतना न उससे पहले आया, न उसके बाद।हां उन दिनों लेखन अवश्य चला और ब्लॉग भी खूब लिखे। 

वापस भोपाल आकर कोई बिजनेस करने का मन बनाया। पुस्तैनी गांव गोराखार में स्टोन क्रशर की तैयारी में लग गया। कई दफ्तरों के चक्कर लगाए। ये 2007 की बात है।

उसी साल मप्र पीएससी की मेंस का रिजल्ट आ गया। मैं सफल हुआ । फिर साक्षात्कार की तैयारी में लग गया।  मेरा चयन वाणिज्यिक कर अधिकारी में हो गया। अब नई नौकरी, ट्रेनिंग, नए नए दायित्व ट्रान्सफर पोस्टिंग आदि में दो तीन साल गुजर गए। इस बीच एक नया बखेड़ा हो गया। मेरा विवाह हो गया। वो भी अंतरजातीय प्रेम विवाह। यानी फुल फैमिली ड्रामा। सारी मान मनौवल का सिलसिला तब रुका जब एक बेटी का पिता बन गया। इन सब के कारण लेखन में कमी आई लेकिन प्रेमिका कम पत्नी ने सदैव लिखने के लिए प्रेरित किया और रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजने लगातार कहती रही। इसी बीच मेरी दो ग़ज़लें एक साझा संकलन में प्रकाशित हो गई तो फिर से मेरी लिखने की इच्छा जागृत हुई। अब जो ग़ज़लें लिखता था वो समाचार पत्रों में प्रकाशित भी होती थी। अब इस छपास ने मुझे और लिखने के लिए प्रेरित किया। फिर ग़ज़लों का अंबार लगने लगा। खुद को शायर घोषित कर स्थानीय आयोजनों में ग़ज़ल पाठ भी करने लगा। 

प्रमोशन पाकर असिस्टेंट कमिश्नर हो गया तो शायरी में रौब भी जुड़ गया और आयोजन में अतिथि के तौर पर बड़े ठाठ से जाता था। लेकिन खोखले शायर वाला रौब अधिक दिन नहीं चल सका।  जब नेट के माध्यम से अरूज़ की जानकारी मिली तो समझ आया ग़ज़ल लिखते नहीं कहते हैं। अब अपनी औकात समझ आई। अपनी तथाकथित ग़ज़लों के ढेर को परे किया और अनुशासित रूप से नेट और किताबों के माध्यम से अरूज़ का अभ्यास करने लगा। लगभग तीन साल तक यह अभ्यास जारी रहा। 2014 में ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट से जुड़ा और वहीं काव्य की विभिन्न विधाओं का अभ्यास करने लगा। गुणीजनों का सानिध्य पाकर कुछ कुछ शायरी समझ आने लगी। इस दौरान जो ग़ज़लें कही वो 2016 में प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह अंधेरों की सुबह में संग्रहित हैं। इसके बाद जैसे जैसे शायरी समझ आती गई, ग़ज़ल कहना कम होता गया। फिर छंदों और गीतों की तरफ मुड़ा। बहुत दोहे लिखे और दोहा संग्रह का संपादन भी किया। आलोचना विधा ने आकर्षित किया तो दुष्यन्त की ग़ज़लों के शिल्प पर लिखा। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई। एक गीत संकलन प्रकाशनाधीन है। आजकल इतिहास पर कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।

मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई 
जब बच्चों को हंँसते देखा आंँखों ने आराम किया 

पापों के साए में खुद को यूं जीवित रखते हैं हम 
घट भरने की बारी आई, सीधा तीरथ धाम किया
*
ये तब्सिरा शिकायतें बेकार है मियांँ 
ये मान लो कि खेलती है खेल ज़िंदगी 
तब्सिरा: आलोचना

एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने 
बात करता है जमाने से वही नेचर की
*
चाहे जिसकी जमीन पर कहिये 
शे'र अपने बयाँ से उठता है 

जो कि ममता हमेशा बरसाए 
अब्र वो सिर्फ माँ से उठता है
*
अगर दिल में ठिकाना है तो क़दमों को खबर कर दो 
ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं 

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे 
चलो तुमको हम अपने गांँव के बरगद दिखाते हैं
*
अगर दे तो मुअज्ज़िज़ फितरतन खुद्दार दुश्मन दे 
मेरे क़द का नहीं होगा तो मतलब दुश्मनी का क्या?
*
विधान जब से उड़ानों के हक़ में पारित है 
नियम भी साथ बना एक, पर कुतरने का


जब मैंने उनके उस्ताद के बारे में पूछा तो उन्होंने लिखा कि मैं अपनी ग़ज़लें ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट पर पोस्ट करता था जहां कई उस्तादों की इस्लाह मिल जाती थी। दरअसल उस वेबसाइट पर सीखने सीखने की एक स्वस्थ्य परंपरा में सभी अभ्यासी भी थे और उस्ताद भी। सभी एक दूसरे की कमियाँ बताकर ग़ज़लों को ठीक कर लेते थे। जितना मैंने अरूज़ पढ़ा था और जो वेबसाइट पर अरूज़ के हवाले से इस्लाह मिली उसी के आधार पर लगा कि अब ग़ज़लें व्याकरण के हिसाब से काफी हद तक सही कह रहा हूँ। ये तो हुई कला पक्ष की बात लेकिन भाव पक्ष के संबंध में अभी ठोस कुछ कह नहीं सकता।
 
भोपाल के हिंदी भवन, स्वराज भवन, दुष्यन्त कुमार संग्रहालय आदि में हुए कवि सम्मेलनों में रचना पाठ का अवसर मिला है। मैंने "ओपन बुक्स ऑनलाइन भोपाल चैप्टर" नाम से एक संस्था बनाई थी जिसमें प्रतिमाह आयोजन होते थे। इस संस्था के अध्यक्ष स्वर्गीय जहीर कुरैशी साहब थे और मैं महासचिव। ज़हीर साहब का एक लंबे अरसे तक आशीष मिला। एक बड़े शायर की सादगी का गवाह रहा हूँ। उनके घर भी घंटों बैठा करते और ग़ज़ल से शुरू हुई चर्चा साहित्यिक दुनिया से समाज और राजनीति तक कब पहुंच जाती थी, पता ही नहीं चलता था। जहीर साहब मुझे उत्साहित करने के लिए अक्सर कहते थे मिथिलेश जी आप कभी कभी बड़ा शेर कह जाते हैं। उन जैसे बड़े शायर का स्नेह मिलना बड़ी बात थी मेरे लिए।
 
पसंदीदा शायरों के बारे में पूछने पर उन्होंने मुझे लिखा 'मुझे शायरों में ग़ालिब और दुष्यन्त बहुत पसंद है। ग़ालिब मुग्ध कर लेते हैं और दुष्यन्त झिंझोड़ देते हैं। ग़ालिब अपने समय से आगे के शायर थे और दुष्यन्त अपने समय के प्रामाणिक दस्तावेज।'

वर्तमान में हो रही शायरी पर उनकी टिप्पणी बहुत उल्लेखनीय है वो 'आजकल जो वास्तव में शायरी हो रही है वह तो बहुत बढ़िया है। शायर अपने समय को अभिव्यक्त करने के लिए नए प्रतीक, नए बिम्ब गढ़ रहा है और उनकी शायरी युगबोध से भरपूर दिखाई देती है। लेकिन जहां शायरी के नाम पर कुछ भी लिखा, पढ़ा और छापा जा रहा है वहां थोड़ा दुख होता है। शायरी के नाम पर केवल लिखने के लिए लिखना उचित नहीं है। हर विधा का अपना शिल्प और ढंग होता है, केवल नारेबाजी के लिए गलतियों को नए प्रयोग कहना ठीक नहीं है।'

आप मिथिलेश जी को उनके मोबाईल न 9826580013 पर फोन कर जरूर बताएं कि आपको उनकी शायरी कैसी लगीं उनकी शायरी का अंदाज़ कैसा लगा ,यकीन मानें वो स्वस्थ आलोचना को बहुत प्राथमिकता देते हैं और हाँ यदि आपको उनकी शायरी पसंद आयी हो तो आप उन्हें बधाई दें। मैं मिथिलेश का आभारी हूँ क्यूंकि ये पोस्ट मिथिलेश जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी। आखिर में पेश हैं उनकी कुछ और ग़ज़लों से लिए चुनिंदा शेर :
 
मुझे मंदिर की घंटी ने सवेरे प्रश्न पूछा है
कि मस्जिद में जो मीरा का भजन होगा तो क्या होगा

नगर जिसमें सभी पाषाण मन के लोग रहते हैं
मुझे मालूम है मेरा रूदन होगा तो क्या होगा
*
एक जुमले ने नई पौध को भी मारा है
अब न वो लोग, न वैसा है जमाना बाक़ी
*
सर्जना भी अब कहांँ मौलिक रही
जो पढ़ेंगे आप वो साभार है

हम गगन के स्वप्न में खोए रहे
और खिसका जा रहा आधार है
*
ज़ियारत क्या, परस्तिश क्या, अक़ीदत क्या, इबादत क्या
किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा

Monday, November 8, 2021

किताबों की दुनिया - 244

मौसम के घर ये कौनसे मेहमान आ गये 
देहलीज़ पर उतारी हैं पत्तों की चप्पलें  

कितनी नमी है सूनी हवेली में हर तरफ़ 
आया था कौन टांकने अश्क़ों की छागलें 
  *
पत्थरों के दौर को जुग बीते लेकिन 
क्या कहेंगे जो ज़माना सामने है 
*
गले मिल के नाचे है मिट्टी से अक्सर 
है बे-बाक कैसी हवा सीधी-सादी 

समंदर को मैंने तो पत्थर से मारा 
मगर मौज थी बेहया मुस्कुरा दी
*
वक्त की सुर्ख आंखे कहती हैं
 जाने वाले हैं काफिले दिन के 

नींद लेते हुए वो डरते हैं 
ख्वाब के घर बिखर गए जिनके 
*
बैठा बैठा गली में सन्नाटा 
चादरे-शब कुतर रहा है क्या 

खोल कर फेंक दे कबा ए जिस्म 
ऐसे घुट घट के मर रहा है क्या
*
गया है किस तरफ सायों का मेला 
ज़मीं पैरों तले सूनी पड़ी है
*
नगर में भी कहीं उस का न डर हो 
वही जो दश्त में बिखरा पड़ा है 
*
बदन तो फूल से पाए हैं हर किसी ने मगर 
हरेक शख़्श यहाँ खार जान पड़ता है

मुझे लगता है कि इसे मेरी पीढ़ी के लोग भी शायद भूल चुके होंगे, नयी पीढ़ी ने तो शायद इसे सुना भी न हो।  मेरी मुराद सं 1959 में आयी फिल्म 'लव मैरिज' के एक गाने 'टीन कनस्तर पीट पीट कर गला फाड़ के चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान ये गाना है न बजाना' से है। इस गाने के गीतकार शैलेन्द्र, संगीतकार शंकर जयकिशन, गायक मोहम्मद रफ़ी और कलाकार देवानंद को शायद सपने में भी अंदाजा नहीं होगा कि आने वाले समय में शोर और गला फाड़ना ही संगीत का पर्याय बन जाएगा। संगीत का सुरीलापन अब पुरानी बात हो गयी है। सुरीलापन भागदौड़ से नहीं आता उसके लिए पर्याप्त वक़्त और साधना चाहिए। अफ़सोस अब हमारे पास वक़्त ही नहीं है साधना तो बहुत दूर की बात है। अज़ीब सी स्तिथि में हम सब भाग रहे हैं, क्यों ? क्यूंकि हमें बहुत थोड़े वक़्त में बहुत कुछ हासिल करना है और अभी करना है। हमारे पास अपने लिए ही वक़्त नहीं है दूसरे के लिए कहाँ से निकालें ? इसका नतीज़ा आप देख ही रहे हैं, जिस काम को सुकून से करने पर हमें जो ख़ुशी मिलती थी वो अब हासिल नहीं होती। हमारे काम की गुणवत्ता पर असर पड़ा है ,ख़ास तौर पर ललित कलाओं से सम्बंधित कामों पर। 

शायरी भी उनमें से एक है। रातोंरात लोकप्रियता के शिखर को छू लेने की हमारी कामना के चलते जल्दबाज़ी में हम दोयम दर्ज़े की शायरी करने लगे हैं। सोशल मीडिया के विस्फोट का असर ये हो रहा है कि जिस रफ़्तार से नित रोज नए शायर पैदा हो रहे हैं उसी रफ़्तार से वो गुमनामी के अँधेरे में खो रहे हैं। 

हमारे आज के शायर उस पीढ़ी के हैं जब शायरी इबादत की तरह की जाती थी। उस्ताद की जूतियाँ उठाई जाती थीं और एक एक मिसरे पर महीनों काम किया जाता था, बावजूद इसके सालों में वो कोई एक ऐसा शेर कह पाते थे जो लोगों के जेहन में जगह बना ले। उस दौर के शायर अपने दीवान की संख्या की वज़ह से नहीं बल्कि अपने कहे किसी एक शेर और कभी कभी तो सिर्फ एक मिसरे की वज़ह से बरसों लोगों के ज़ेहन में रहते थे।

मैं अंधेरों की कैद से छूटा 
तो उजालों से डर गया साहिब
*
ख़ार पत्थर चटान जैसा वो 
ख़ाक पानी गुलाब जैसा मैं 

कौन से रुख़ चलूँ नहीं मालूम 
हो गया हूंँ हवा का झोंका मैं 
*
मोम कागज़ कपास ऐसा मैं 
धूप शोला ग़ुबार बार ऐसा तू 

क्यों ना ख़ुद में ही ढूंढले सब कुछ
देखता क्या है ऐसे नक़्शा तू
*
सबके चेहरों की किताबें पढ़ चुका 
आरज़ू है एक दिन खुद को पढ़ूँ 

रहना होगा कब तलक गूँगा मुझे 
कब तलक बहरों की नगरी में रहूंँ
*
उसे कर दी वापस तो क्या हो गया 
उसी ने तो दी थी उसी की तो थी
*
आँखें तो आंँखें ही है 
कितना है बारिश का ज़ोर 

फिर सूरज की खूँटी से 
टूटी है किरनों की डोर

जोधपुर के मास्टर सिकंदर शाह 'ख़ुशदिल' के घर समझो शहनाइयाँ सी बजीं जब उनके यहाँ 10 फ़रवरी 1956 को एकलौता बेटा पैदा हुआ। मास्टर साहब ने बड़े प्यार से उसका नाम रक्खा 'सरफ़राज़' याने कि वो जो सम्मानित हो। उन्हें उम्मीद थी कि बेटा पढ़ लिख कर अपना और खानदान का नाम गौरवान्वित करेगा। उनकी उम्मीद पूरी तो हुई लेकिन किसी और वज़ह से। सरफ़राज़ साहब के वालिद जोधपुर से लगभग 80 की मी दूर खारिया मीठापुर गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे। 'सरफ़राज़' का बचपन उसी गाँव की गलियों में खेलते कूदते बीता। उसी स्कूल से जहाँ उनके वालिद साहब पढ़ाते थे सरफ़राज़ की पढाई का आगाज़ हुआ। कक्षा चार तक सब कुछ ठीक था तभी वालिद साहब का ट्रांसफर जोधपुर हो गया तो वो जोधपुर के प्राइमरी स्कूल में दाख़िल हुए और कक्षा पाँच भी पास कर ली। आगे की पढाई के लिए उनका दाखिला उस मिडिल स्कूल में हुआ जिस स्कूल में उनके पिता नहीं पढ़ाते थे। गाँव के स्कूल से पढ़ा बच्चा जोधपुर शहर के मिडिल स्कूल में जा कर बाकी बच्चों से घुलमिल नहीं सका। वालिद भी पहले की तरह उनके साथ स्कूल में नहीं थे। स्कूल में उनकी और किसी ने विशेष ध्यान भी नहीं दिया  इस सब के चलते वो कक्षा छठी क्लास में फेल हो गए। पढाई से मन उचट गया लेकिन वालिद की मर्ज़ी की वजह से अगले साल छठी की परीक्षा फिर से दी और उस में पास हुए। इसी तरह  उसी स्कूल से जैसे तैसे आठवीं तक पढाई भी कर ली। नौवीं कक्षा में उन्होंने जोधपुर के 'महात्मा गांघी स्कूल में दाखिला' लिया। बड़ा स्कूल था मुश्किल पढाई थी भी कोर्स की किताबों में मन नहीं लगता था नतीजा वो नौवीं की वार्षिक परीक्षा में फेल हो गए। फेल होने का कोई अफ़सोस भी उन्हें नहीं हुआ, मज़े की बात ये है कि सरफ़राज़ साहब आज भी अपनी छठी और नवीं क्लास में फेल होने के किस्से जोरदार ठहाके लगाते हुए सुनाते हैं।    

कोर्स की किताबों से जो तालीम हमें स्कूल कॉलेजों में जा कर मिलती है वो बहुत जरूरी है लेकिन जो तालीम हमें ज़िन्दगी की किताब से मिलती है वो सबसे अहम् होती है। मैंने बहुत से पढ़े लिखे बड़ी बड़ी डिग्रीधारी लोगों को ऐसी मूर्खता पूर्ण बातें करते सुना है कि जिसे तथाकथिक महा मूर्ख व्यक्ति भी सुन कर अपना सर पकड़ ले। भले ही सरफ़राज़ साहब ने कोर्स की किताबें नहीं पढ़ीं लेकिन उनकी रूचि पढ़ने में जरूर रही। उन्होंने हिंदी में छपी ढेरों साहित्यिक किताबों और पत्रिकाओं को खूब दिलचस्पी से पढ़ा। 'सारिका' 'धर्मयुग' 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' 'रविवार' 'दिनमान' आदि पत्रिकाओं के वो नियमित पाठक रहे। 

किसे पता था कि नवीं क्लास की परीक्षा में फेल लेकिन ज़िन्दगी की क्लास में पास सरफ़राज़ कभी 'सरफ़राज़ शाकिर' के नाम से शायरी की दुनिया में अपना एक अलग मुकाम बनाएगा और हम उसकी किताब 'बादलों से किरन' की चर्चा अपनी किताबों की दुनिया में करेंगे।   


और तो किसके पीछे मैं जाता 
चल दिया एतबार के पीछे
*
जितने मंजर थे साहिल पर 
सब पानी में उल्टे निकले 
*
मौजें उलट-पुलट उसे करती रही मगर 
तिनका था एक झील में, जो तैरता रहा
*
झलकता है बाहर अंधेरा मेरा 
कोई रोशनी से भरा मुझ में है
*
जुड़ते जुड़ते ही टूट जाता है 
आदमी क्या कोई खिलौना है 

करवटें जिस पर ले रही है हवा 
झील है या कोई बिछौना है
*
न जाने ऐसा किस को ढूंँढ़ना था 
खुद अपने आप को गुम कर दिया हूंँ
*
ख़ामुशी गुफ़्तगू से अच्छी है 
तीर रक्खे रहो कमान के पास
*
अंँधेरा तआक़ुब में मेरे रहा 
मैं काग़ज़ पर लिखता गया रोशनी 
तआक़ुब: पीछा करने में

मेरा घर सुलगता रहा आग में 
कोई देखता रह गया रोशनी

आप ही बतायें यदि चौदह पंद्रह साल के बच्चे को उसका पिता कहे कि 'बेटा क्यूंकि तेरा पढाई लिखाई की तरफ जरा भी रुझान नहीं है इसलिए तेरी पढाई पर कुछ भी खर्च करना बेकार है कल से तेरा स्कूल जाना बंद, अब तू आज़ाद है' तो वो क्या करेगा ? सीधा सा जवाब है -आवारगी। घर का इकलौता लाड़ला बच्चा बेलगाम घोड़े की तरह जोधपुर की सड़कों पर अपने जैसे ही आवारा दोस्तों के साथ सारा सारा दिन इधर उधर घूमता रहता। लोगों ने जब उनके वालिद को इस बारे में समझाया तो उन्होंने सोचा कि लड़के को किसी काम-काज में लगा दिया जाय ताकि इसकी आवारगी भी कम हो और घर में चार पैसे भी आएं। अब आठवीं पास या यूँ कहें कि नवीं फेल बच्चे को कोई अफसर की नौकरी तो देगा नहीं लिहाज़ा उसे कभी पी.डबल्यू डी. में ,कभी वाटर वर्क्स में तो कभी बिजली विभाग में या फिर एयर फ़ोर्स में दिहाड़ी मज़दूर की हैसियत से मजदूरी वाला काम करना पड़ता। एक दिन उन्हें एयर फ़ोर्स में केजुएल वर्कर की नौकरी मिल गयी, तब सरफ़राज़ साहब लगभग बीस साल के होंगे। दो साल बाद उनके काम में दिलचस्पी,लगन और मेहनत की बदौलत याने 1978 में उन्हें मिलिट्री के गैरिसन इंजीनियर ऑफिस में परमानेंट वर्कर की नौकरी मिल गयी। यूँ समझिये कि उनकी लॉटरी खुल गयी क्यूंकि गैरिसन इंजीनियर के ऑफिस की नौकरी सेन्ट्रल गोवेर्मेंट की नौकरी होती है। इस नौकरी के मिलते ही सरफ़राज़ साहब की ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी। ज़िन्दगी में सुकून सा आ गया। यही वो वक़्त था जब वो तुकबंदी करने लगे।

सरफ़राज़ साहब के खून में शायरी के जरासीम या कीटाणु पैदा होते ही आ गए थे क्यों की उनके पिता जनाब 'सिकंदर शाह 'खुशदिल' तो अपनी शायरी की वज़ह से पूरे हलके में मशहूर थे ही उनके दादा और परदादा का भी शायरी में खासा दबदबा रहा था। पुरखों से विरासत में मिले इस गुण का असर उनमें अब दिखाई देने लगा था। डाक्टर का बेटा डाक्टर या वकील का बेटा वकील या अभिनेता का बेटा अभिनेता तो बन सकता है लेकिन शायर का बेटा शायर ही बने ये कम ही देखने में आया है। शायरी किसी को सिखाई नहीं जा सकती ये आपके अंदर होती है। उस्ताद अपनी इस्लाह से उसे तराश सकते हैं बस।

ज़र्द पत्तों को हवाएं छू गईं 
टूटना उनका भी वाजिब हो गया

मैं बहुत बरसा हूंँ बादल की तरह 
और फिर मिट्टी में ग़ाइब हो गया
*
वो एक ख़ुशबू जो अंदर समाई है मेरे 
मैं दर-ब-दर उसे बेकार भागता देखूंँ

वो अपने घर के अज़ीज़ों के साथ रहता है 
मगर कहीं न कहीं उसको गुमशुदा देखूंँ
*
हवा के आगे आगे चल रहा है 
हरिक तिनका मेरे जैसा लगे है
*
ज़माने से तो डर मुझे कुछ न था 
मुझे ख़ोफ़ तो मेरे अंदर का था

निकाली है सूरज ने फिर से ज़बीं 
घना सा अंधेरा तो शब भर का 
*
आप-अपने से डर न जायें कहीं 
ताक़ से आईना हटा लीजे 

खुद से मिलने का रास्ता ढूंँढें 
आप अपनी अना गिरा लीजे 

अकलमंदी इसी में है शाकिर 
जाहिलों से भी मशवरा लीजे

सरफ़राज़ साहब की तुकबंदियों को सुन कर जब उनके दोस्त, अहबाब दाद देने लगे तो उन्हें लगने लगा कि वो एक पुख्ता शायर हो चुके हैं जिनकी ग़ज़लों को कोई भी अखबार या पत्रिका वाले छापने को तैयार हो जाएंगे। इसी ग़लतफहमी के चलते वो एक दिन अपनी एक ग़ज़ल लिए 'जलते दीप' अखबार के दफ़्तर पहुँच गए जहाँ उनके वालिद के तालिबे-इल्म याने शिष्य और उरूज़ के उस्ताद जनाब सुशील व्यास बैठे हुए थे। दोनों एक दूसरे को जानते थे इसलिए सरफ़राज़ साहब ने अखबार के दफ्तर में अपने आने का मक़सद बताते हुए उन्हें अपनी ग़ज़ल दिखाई जिसे देख कर व्यास जी ने कहा 'मियाँ साहबज़ादे क्या मास्टर साहब ने आपको मीटर नहीं सिखलाये ?' 'मीटर ? ये क्या होता है ?' सरफ़राज़ चौंकते हुए बोले। मुस्कुराते हुए व्यास जी ने कहा कि 'बरखुरदार अपने घर जाओ और वालिद से ग़ज़ल का व्याकरण सीखो, जब अच्छे से सीख लो तो ग़ज़ल कहने की कोशिश करना।'

मायूस सरफ़राज़ घर लौटे और अपने वालिद साहब को पूरी दास्तान सुनाई जिसे सुन कर वो बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने समझाया कि शायरी बेकारों-नाकारा क़िस्म के लोगों का काम है शाइर बदनाम, बीमार और लाचार होते हैं। वालिद चाहते थे कि उनका इकलौता बेटा इस झमेले न पड़े लेकिन बेटे के खून में मौजूद शायरी के कीटाणु उसे इस सलाह को न मानने को उकसा रहे थे।बेटे की ज़िद के सामने वालिद ने घुटने टेक दिए और उन्हें ग़ज़ल के उरूज़ की बारीकियाँ समझानी शुरू कर दीं। अपने साथ वो उन्हें मुशायरों में ले जाने लगे ताकि उनकी शायरी की समझ में इज़ाफ़ा हो। धीरे धीरे मुशायरे के आयोजक कभी कभी उनको भी अपना कलाम पढ़ने का मौका देने लगे।

जोधपुर के इस्हाक़िया स्कूल के बाहर 31 दिसंबर 1979 को मुस्लिम यूथ कॉर्नर ने एक शानदार मुशाइरे का आयोजन किया जिसमें सरफ़राज़ साहब भी अपने वालिद साहब शिरक़त के लिए पहुंचे। मुशाइरे की निज़ामत की बागडोर जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब को सौंपी गयी। सरफ़राज़ साहब ने जब अपना नंबर आने पर ग़ज़ल पढ़ी तो निज़ाम साहब उनके वालिद से बोले 'वाह मास्टर सैय्यद सिकंदर शाह खुशदिल को मैं मुबारकबाद पेश करता हूँ कि उनके साहबज़ादे ने उम्दा ग़ज़ल सुना कर दिल खुश कर दिया। खुशदिल साहब जहाँ सोलवीं सत्रहवीं सदी की बातें करते हैं वहां उनके बेटे शाकिर ने इक्कीसवीं सदी की बात कर कमाल कर दिया।मुशाइरे के बाद निज़ाम साहब सरफ़राज़ साहब की पीठ थपथापे हुए बोले बेटे ऐसी कितनी ग़ज़लें हैं तुम्हारे पास उन्हें लेकर मेरे पास आ जाओ। दूसरे दिन सुबह सवेरे सरफ़राज़ साहब के दौलतखाने पहुँच गए। निज़ाम साहब ने उन्हें अपना शागिर्द क़बूल किया और यहाँ से सरफ़राज़ साहब का शेरी सफर शुरू हुआ।

बात बढ़ सकती है शोलों की तरह 
तिनके मत रखो शरर के सामने
*
क्या फलों से भरा हुआ था मैं 
रख दिया उसने क्यूँ हिला के मुझे
*
तेरा हिस्सा हूँ ये तस्लीम, लेकिन 
समंदर में जज़ीरे की तरह हूँ
*
अंधेरों में भटका नहीं था मगर 
वो क्यूँ हो गया है उजालों में गुम 

कोई उसको पहचानेगा किस तरह 
हो पहचान जिस की हवालों में गुम
*
मैं अपने आप में इक घोंसला हूँ
परिंदा मेरे अंदर बोलता है 

उसी को आईना कहते हैं शायद 
वही जो सब के मुंँह पर बोलता है
*
रह गए सब उलट-पुलट हो कर 
लोग सारे किताब लगने लगे 

देखते-देखते बिखर जायें 
घर के बच्चे गुलाब लगने लगे
*
जैसा मैं कल था आज भी वैसा ही हूंँ जनाब 
लौटा हूंँ मैं उधर से ज़माना जिधर गया

निज़ाम साहब ने, जैसे पारस पत्थर लोहे को सोने में बदल देता है वैसे ही, सरफ़राज़ शाह साहब को सरफ़राज़ 'शाकिर' बना दिया। एक बार का ज़िक्र है पद्मश्री कालिदास गुप्ता रिज़ा साहब जिन्होंने ग़ालिब पर ग़ज़ब का काम किया है जोधपुर पधारे। निज़ाम साहब उनसे मिलने 'घूमर' होटल गए और वहाँ शाकिर साहब को भी बुलवा लिया। कालीदास गुप्ता साहब ने शाकिर साहब से कहा कि मियाँ शाकिर आज आप मुझे वो ग़ज़लें सुनाओ जिसे आपके उस्ताद ए  मोहतरम ने न देखा सुना हो। किसी भी शागिर्द के लिए ये मुमकिन नहीं होता कि वो उस्ताद को दिखाए बगैर अपना क़लाम मंज़र-ए-आम पर लाये। सरफ़राज़ साहब सकपकाए और निज़ाम साहब की और देखा,उस्ताद मुस्कुराये और गर्दन हिला कर इजाजत देदी। शाकिर साहब ने अपनी दो ग़ज़लें कालीदास साहब को सुनाईं जिसे सुन कर वो झूमते हुए निज़ाम साहब से बोले कि 'अरे निज़ाम मुबारक़ हो यार 'शाकिर' शायर हो गया।' उस्ताद के सामने किसी के द्वारा शागिर्द की तारीफ़ सुन कर शागिर्द तो खुश होता ही है उस्ताद की छाती भी गर्व से चौड़ी हो जाती है। उस्ताद के लिए उसका शागिर्द उसकी अपनी औलाद से कम हैसियत नहीं रखता। आज के दौर में उस्ताद-शागिर्द की ये परम्परा धीरे धीरे ख़तम होती जा रही है। 

'शाकिर' साहब यूँ तो देश की मशहूर अखबारों रिसालों में छपते रहे हैं मुशायरों में शिरक़त भी करते रहे हैं आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी आते रहे हैं लेकिन बावजूद इसके उन्हें वो मुक़ाम हासिल नहीं हो पाया जिसके वो हक़दार थे। सीधी सादी तबियत के मालिक और हर हाल में खुश रहने की आदत की वजह से वो अपने आपको बाजार में बेचने का हुनर नहीं सीख पाए। वैसे भी मक़बूलियत और मयार का आपस में कोई रिश्ता नहीं है। ऐसे बहुत से शायर हैं जिनकी शायरी में मयार ढूंढें नहीं नहीं मिलता लेकिन वो बहुत मक़बूल हैं। निदा फाज़ली और हबीब कैफ़ी साहब उनकी शायरी के बड़े प्रशंसकों में से रहे हैं।  

आप फुरसत में उनसे उनके मोबाईल न 9649810520 पर संपर्क करें. उनको तो आपसे बात करके ख़ुशी होगी ही आप भी निराश नहीं होंगे। ऐसे सरल मोहब्बत से भरे इंसान जिनके पास आपके लिए हमेशा वक़्त हो आजकल गुफ़्तगू के लिए कहाँ मिलते हैं। ये किताब जिसमें शाकिर साहब की 107 ग़ज़लों के अलावा कुछ लाजवाब दोहे भी हैं सं 2005 में अनुराधा आर्ट्स जोधपुर ने नरेंद्र आडवाणी और अनुराधा आडवाणी के सहयोग से प्रकाशित की थी। अब ये किताब बाजार में उपलब्ब्ध है या नहीं इसकी सूचना आपको सरफ़राज़ साहब ही दे पाएंगे। 

उनका अपना एक यू ट्यूब चैनल भी है जिसे ज़ाहिर है उनके बच्चों ने ही लॉंच किया होगा जिसके एक विडिओ में वो जोधपुर की किसी झील के किनारे पड़े पत्थरों और चट्टानों पर देव आनंद की तरह टोपी पहन कर चलते हुए अपनी शायरी सुनाते नज़र आते हैं। आप देखें और उसका मज़ा लें। विडिओ का लिंक ये रहा https://youtu.be/oOFqFEs4JBM

आखिर में उनके कुछ फुटकर शेर आपको और पढ़वाता चलता हूँ।       

चला हूँ साथ मैं दुनिया के बरसों 
अब अपने साथ चलना चाहता हूंँ 

उतरने दो उतरती है तो सर पर 
मैं कब साये में पलना चाहता हूंँ
*
तुझको लिखता है खुद को पड़ता है 
आदमी बा-कमाल है अल्लाह 

जिंदगी और किसको कहते हैं 
मौसमों की मिसाल है अल्लाह
*
जाने किसने ख़ाक से बांधा मुझे 
खुलने वाला हूंँ हवा सा मैं कोई

मेरे अंदर जंगलों का वास है 
और उसमें क़ाफ़िला सा मैं कोई

शक्ल सूरत हूंँ वगरना हर तरफ़ 
कुछ भी न होता ख़ला सा मैं कोई
*
रोशनी है, तो रोशनी से है 
वरना अंधा मकान है, है क्या 

कायनात तेरी और मेरा वजूद 
नुक्ते का सा निशान है, है क्या
*
रोक मत मुझ को यूंँ ही बहने दे 
थम गया तो निशान छोडूंँगा