हर ख़ुशी क़दम चूमे कायनात की उसके
रास आ गईं जिसको सुहबतें फ़क़ीरों की
सूर, जायसी, तुलसी और कबीर, ख़ुसरो को
बेबसी से तकती हैं दौलतें अमीरों की
जिस्म की सजावट में रह गए उलझ कर जो
रूह तक नहीं पहुंची फ़िक्र उन हक़ीरों की
हक़ीर : तुच्छ
*
वो अरमाँ अब तो निकलेंगे रहे जो मुद्दतों दिल में
ख़ुदा के फ़ज़्ल से चलने लगा मेरा क़लम कुछ-कुछ
मेरे एहसास पर भी छा गई वहदानियत देखो
मुझे भी आ रही है अब तो ख़ुशबू-ए-हरम कुछ कुछ
वहदानियत: ईश्वर के एक होने का सिद्धांत
*
बला की शोख़ है सूरज की एक-एक किरन
पयामे ज़िंदगी हर इक किरन की ख़ुशबू है
गले मिली कभी उर्दू जहांँ पे हिंदी से
मेरे मिज़ाज में उस अंजुमन की ख़ुशबू है
*
रोएंँगे तन्हाई में
क़ुर्बत में तो हंसलें हम
क़ुर्बत:सामीप्य
छोटी छोटी चीज़ों से
बच्चों जैसे बहलें हम
*
जिसकी फ़ितरत थी हमेशा से सताइश करना
क्या पता कैसे उसे आ गया साज़िश करना
सताइश: तारीफ़
नब्बे के दशक की एक ख़ुशनुमा सुबह। महालक्ष्मी रेसकोर्स मुंबई में एक शख़्स पीच कलर की टी शर्ट और ख़ाकी पैंट पहने मॉर्निंग वॉक पर है। चलते हुए लोगों से मुस्कुरा कर बातें करते हुए घोड़ों की पीठ पर प्यार से धौल जमाते हुए और जॉकियों की भीड़ में क़हक़हे लगाते हुए इसे रोज़ देखा जा सकता है। वॉक के बाद घोड़ों के ट्रेनर और जॉकियों से गप्पे लगाते हुए ये शख़्स वहीं के मशहूर गैलोप रेस्टॉरेंट में नाश्ता करता है। रेसकोर्स ही नहीं दुनिया के हर कोने में ग़ज़ल का शायद ही कोई ऐसा दीवाना हो जो इसे न जानता हो। इस हरदिल अज़ीज़ शख़्स का नाम जगजीत सिंह है जो घुड़दौड़ का आशिक़ है। आज गैलोप में ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं है ,जगजीत सिंह साहब दो तीन दोस्तों के साथ अपनी पसंद की टेबल पर जा बैठे हैं। उनकी नज़रें अभी हाल ही में खरीदे घोड़े पर हैं जिसे ट्रेनर अपने हिसाब से दौड़ा रहा है। तभी एक लम्बा दुबला पतला इंसान टेबल पर आ कर जगजीत सिंह साहब से कहता है 'देख लेना सर, जल्द ही आपका घोड़ा रेस जीतेगा।' जगजीत साहब ने मुस्कुराते हुए उस शख़्स की और देख कर कहा 'आपके मुँह में घी शक्कर हुज़ूर लेकिन आपकी तारीफ़ ?' जवाब में उस लम्बे दुबले पतले शख़्स ने कहा कि सर आपके सवाल का जवाब अपने दो शेर में देने की गुस्ताख़ी कर रहा हूँ :
यूँ तो लोगों के बीच रहता हूँ
पर हक़ीक़त में मैं अकेला हूँ
मुझको दुनिया 'रक़ीब' कहती है
क्या बताऊँ किसी से मैं क्या हूँ
'अरे वाह वाह !! सुभानअल्लाह आप तो ग़ज़ब के शायर हैं, बैठिये कुछ और भी सुनाइए'। जगजीत साहब चहकते हुए बोले।' जी नहीं, मैं गैलोप का एडमिनिस्ट्रेशन देखता हूँ बहुत दिनों से आपसे बात करना चाहता था लेकिन हिम्मत ही नहीं हो रही थी आज पता नहीं कैसे अचानक अपने आपको रोक नहीं पाया उस शख़्स ने शर्माते हुए जवाब दिया। इस पर जगजीत जी ने हँसते हुए कहा 'अरे नहीं नहीं आज तो आप मेरे साथ बैठिए, मैं आपको चाय बना कर पिलाता हूँ फिर आप अपने दोस्त अहबाब से कहना कि मैं वो शायर हूँ जिसे जगजीत जी ने अपने हाथों से चाय बना कर पिलाई' उस दिन के बाद से इस शख़्स का जगजीत जी के साथ एक आत्मीय रिश्ता सा बन गया।
अक़्ल पर पत्थर हमारी पड़ गए हैं इसलिए
ख़ुद समझते ही नहीं औरों को समझाते हैं हम
लुत्फ़ आता है सितम तक़दीर के सहकर बहुत
मेहरबाँ तक़दीर होती है तो घबराते हैं हम
*
रस्मन हैं साथ-साथ वो चाहत नहीं है अब
रिश्तों में पहले जैसी तमाज़त नहीं है अब
तमाज़त: गर्मी की शिद्दत, तीव्रता
*
ख़ुदा को दैरो-हरम में कब से, तलाश करते हैं उसके बंदे
हर एक ज़र्रे के लब पे ख़ालिक़ की चारसू बंदगी मिलेगी
जहाने फ़ानी में रस्मे उल्फ़त का ख़्वाब लेकर 'रकी़ब' आया
नहीं पता था, नहीं ख़बर थी, यहांँ भी बेगानगी मिलेगी
*
कुछ को तो शबो-रोज़ कमाने की पड़ी है
पानी की तरह कुछ को बहाने की पड़ी है
झुकती ही चली जाए कमर बोझ से फिर भी
मुफ़लिस को अभी और उठाने की पड़ी है
*
गर्दिश ए वक़्त ख़ुद ही पशेमान हो
राहे पुरख़ार से यूंँ गुज़र जाइए
*
उम्र भर जो रहे देखते आईना
आईने से उन्हें आज परहेज़ है
*
डसा है सांंप ने अक्सर किसी को
मुक़द्दर में किसी के सीढ़ियांँ हैं
आप सोच रहे होंगे कि इस घटना का ज़िक्र ज़रूर इस शख़्स ने ख़ूब नमक मिर्च लगा कर लोगों से किया होगा क्यूंकि ये कोई साधारण घटना नहीं है। नब्बे के दशक में जगजीत साहब की तूती बोलती थी। उनके कॉन्सर्ट के टिकटों की कालाबाज़ारी हुआ करती थी और जिसके हाथ टिकट आ जाता वो अपने आप को ख़ुश-क़िस्मत समझता। उनके नए रेकार्डों और कैसेटों के आते ही ख़रीदारों की भीड़ लग जाती थी। जिसकी एक झलक पाने को लोग घंटों इंतज़ार करते थे ऐसे जगजीत सिंह आपको ख़ुद चाय बना कर ऑफर करें क्या ये साधारण बात है ? नहीं हरगिज़ नहीं लेकिन शायद आप इस शख़्स को अच्छे से नहीं जानते। इस स्वभाव से शर्मीले शख़्स ने जिसे लोग 'सतीश शुक्ला 'रक़ीब' के नाम से जानते हैं इस बात का ज़िक्र शायद ही एक आध जने से किया होगा। मुझे से भी इन्होंने अचानक एक दिन मेरे साथ खोपोली जाते हुए कार में इस घटना का ज़िक्र बेहद सरसरी तौर पर किया था तब तक जगजीत साहब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह चुके थे और ताकीद भी की थी कि ये बात हर किसी को न बतायें क्यूंकि लोग विश्वास नहीं करेंगे और बातें बनाएंगे।
आज हम उन्हीं सतीश शुक्ला 'रक़ीब' साहब के पहले ग़ज़ल संग्रह "सुहबतें फ़क़ीरों की" को पढ़ रहे हैं और आपसे शेयर भी कर रहे हैं। इस सजिल्द किताब को 'भारतीय साहित्य संग्रह' नेहरू नगर, कानपुर ने सन् 2021 अगस्त में प्रकाशित किया है। ये किताब अमेज़न पर ऑन लाइन उपलब्ध है इसे आप प्रकाशक से 7007810944 पर फ़ोन कर के भी मँगवा सकते हैं।
बनकर जो उड़ा भाप तो बरसात में लौटा
इक बूंद हूँ पानी की समंदर में मिला हूँ
हंँस-हंँस के सितम अपनों के झेले हैं मुसलसल
रिश्तो की अज़िय्यय का सफ़र काट रहा हूँ
अज़िय्यत :यातना
*
नहीं कुछ गिला कि तूने मुझे ठोकरों पे रक्खा
मगर आरज़ू यही है कि गले का हार होता
*
है ज़रूरी इबादत में दिल भी झुके
बेसबब सर झुकाने से क्या फ़ायदा
*
सुनो ए जुगनुओ तुम जाओ जा के सो जाओ
मेरे नसीब में है जागरण ख़ुदा के लिए
रक़ीब ख़ार सिफ़त लोग मुश्तइल होंगे
न छेड़ ज़िक्रे-गुले ख़ंदा-ज़न ख़ुदा के लिए
*
शेख़ हम होंगे जुदा वादा बिरहमन यार का
जब मुझे भगवान या तुझको ख़ुदा मिल जाएगा
*
देर से जाऊंँगा दफ़्तर तो कटेगा वेतन
वो इसी डर से मुझे जल्दी जगा देते हैं
क्यों न बीमार के हक़ में हों दुआएं भी 'रक़ीब'
कुछ तबीब ऐसे हैं जो सिर्फ़ दवा देते हैं
तबीब: चिकित्सक
*
अल्लाह इस अज़ाब से हम को बचाए रख
बनती बिगाड़ सकता है एहसासे कमतरी
हंँस-हंँस के सितम अपनों के झेले हैं मुसलसल
रिश्तो की अज़िय्यय का सफ़र काट रहा हूँ
अज़िय्यत :यातना
*
नहीं कुछ गिला कि तूने मुझे ठोकरों पे रक्खा
मगर आरज़ू यही है कि गले का हार होता
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है ज़रूरी इबादत में दिल भी झुके
बेसबब सर झुकाने से क्या फ़ायदा
*
सुनो ए जुगनुओ तुम जाओ जा के सो जाओ
मेरे नसीब में है जागरण ख़ुदा के लिए
रक़ीब ख़ार सिफ़त लोग मुश्तइल होंगे
न छेड़ ज़िक्रे-गुले ख़ंदा-ज़न ख़ुदा के लिए
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शेख़ हम होंगे जुदा वादा बिरहमन यार का
जब मुझे भगवान या तुझको ख़ुदा मिल जाएगा
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देर से जाऊंँगा दफ़्तर तो कटेगा वेतन
वो इसी डर से मुझे जल्दी जगा देते हैं
क्यों न बीमार के हक़ में हों दुआएं भी 'रक़ीब'
कुछ तबीब ऐसे हैं जो सिर्फ़ दवा देते हैं
तबीब: चिकित्सक
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अल्लाह इस अज़ाब से हम को बचाए रख
बनती बिगाड़ सकता है एहसासे कमतरी
चुंबकीय व्यक्तित्व के स्वामी सतीश शुक्ला जी से मेरी पहचान मुंबई की नशिस्त की दौरान सन् 2009 में हुई थी। मुझे वो पुराने क्रिकेट खिलाड़ी सलीम दुर्रानी जैसे लगे जो दर्शकों की फ़रमाइश पर छक्का जड़ दिया करते थे। पहली नज़र में ही मैं उनकी सादा और शालीन शख़्सियत का क़ायल हो गया। मुंबई जैसे महानगर में इस क़दर दूसरों के लिए प्यार और आदर से भरा इंसान मिलना मुश्किल है।
चार अप्रेल 1961 को लख़नऊ में सतीश जी का जन्म हुआ। पिता सिविल इंजिनियर होने के साथ साथ अच्छे तैराक और कवि भी थे। उर्दू लिपि (नस्तलीक़ ) से भी वाक़िफ़ थे उर्दू शायरी की किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे। जिस मोहल्ले में घर था वो मोहल्ला मुस्लिम बहुल था सिर्फ़ 5-7 हिन्दू परिवार रहते थे। मोहल्ले में उनके घर के पास ही मस्जिद थी और मस्जिद से पांच मकान आगे शिव मंदिर। पाँच वक़्त की अज़ान और सुबह-शाम आरती की घंटियों की आवाज़ का असर सतीश जी के दिल-ओ-दिमाग़ में कुछ इस तरह घर कर गया कि उन्हें पूजा, अर्चना और नमाज़ में कोई फ़र्क़ ही महसूस नहीं होता। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहज़ीब उनमें रच बस गयी, यही कारण है कि उनकी ग़ज़लें उर्दू प्रेमियों को भी अच्छी लगती हैं और हिंदी के आशिक़ों को भी। सन् 1980-81 में अलीगढ़ के संक्षिप्त प्रवास के दौरान ही उर्दू शायरी उनकी ज़िन्दगी अहम हिस्सा बन गयी जो मुंबई आ कर परवान चढ़ी।
मुझे लगता है कि सतीश जी की कुंडली में कुछ चक्कर है तभी वो एम.ए., बी.एड. और कम्यूटर में डी.सी.पी.एस. की डिग्रियाँ हासिल करने के बावज़ूद कहीं टिक कर नौकरी कर नहीं पाए। फ़तेहगढ़, उत्तर प्रदेश के एस.जी.एन.डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता की नौकरी छोड़ छाड़ के ये मुंबई चले आये और यहीं के हो कर रह गए। मुंबई में भले ही उन्होंने रोज़गार के लिए ख़ूब पापड़ बेले लेकिन हार नहीं मानी। ज़िन्दगी की जद्दोजहद को वो अपनी शायरी में ढालते रहे। शायरी की बदौलत ही मुंबई में उनके चाहने वालों की तादाद में ख़ूब इज़ाफ़ा हुआ।
होठों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती
जीने की उन्हें कोई अदा तक नहीं आती
मुश्किल से महीने में बचाता है वो जितना
उतने में तो खांँसी की दवा तक नहीं आती
पछतायेगा मज़लूम पर ज़ालिम न जफ़ा कर
क़ुदरत की तो लाठी की सदा तक नहीं आती
*
है ज़रूरी बहुत समझ लेना
बंदगी क्या है और ख़ुदा क्या है
है अमानत ये ज़िंदगी उसकी
ये बतायें कि आपका क्या है
दिल किसी का कभी नहीं रखता
इक मुसीबत है, आईना क्या है
*
बता सको तो बताओ ये क़ाफ़िले वालों
कि तुमसे पहले यहांँ पर क़याम किसका था
*
बस ख़ुदा का शुक्र कह कर टाल देता है हमें
हाल जब भी पूछते हैं इस दिले-बिस्मिल से हम
कुछ तो है, जो कुछ नहीं तो, फिर ये उठता है सवाल
पास रहकर दूर क्यों हैं दोस्तो मंज़िल से हम
*
रिश्ता गुलों से है न गुलिस्तांँ से रब्त है
गुलशन में जी रहे हैं मगर ख़ार की तरह
अपनी शायरी के हवाले से सतीश जी ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि 'माया नगरी मुंबई में मेहनत मज़दूरी करके जीवन यापन करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए किसी उस्ताद का गंडाबंद शागिर्द बन कर रह पाना तो मुमकिन नहीं हुआ सिर्फ़ कुछ बुज़ुर्ग मित्रों की रहनुमाई हासिल हुई जिनमें सर्वप्रथम श्री गणेश बिहारी 'तर्ज़' साहिब , कृष्ण बिहारी 'नूर' साहिब क़मर जलालाबादी साहिब, नक़्श लायलपुरी साहिब, इब्राहिम 'अश्क' साहिब, आरिफ़ अहमद साहिब ओबैद आज़म आज़मी साहिब और सादिक़ रिज़वी साहिब वो नाम हैं जिन्होंने न सिर्फ़ ख़्याल और अरूज़ के ऐतबार से मेरी काविशों पर नज़र रखी बल्कि बेशुमार लोगों से बड़ी आत्मीयता से परिचय भी कराया। सतीश जी 'तर्ज़' साहब को अपना उस्ताद मानते थे और उनका ज़िक्र अक्सर मुझसे किया करते थे। 'तर्ज़' साहब की 'किताब से मेरा परिचय भी उन्होंने ही करवाया जिस पर मैंने अपने ब्लॉग पर लिखा भी था। 'तर्ज़' साहब की याद में इस्कॉन मंदिर मुंबई, जहाँ सतीश जी सहायक प्रबंधक पर कार्यरत हैं, के हॉल में सतीश जी द्वारा कराये गए मुशायरे का मैं चश्मदीद गवाह हूँ जिसमें मुंबई के नामी शायरों ने शिरक़त की थी।
सतीश जी को मुंबई और मुंबई के बाहर बहुत से पुरुस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है और ये सिलसिला मुसलसल जारी है। उनकी रचनाएँ शाइर, द उर्दू टाइम्स, बे-बाक (उर्दू ), जहाँनुमा (उर्दू), नया दौर (उर्दू), अदबी देहलीज़ ,ग़ज़ल के बहाने, अरबाबे क़लम छंद प्रभा, गीत गागर जैसी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी हैं और छप रही हैं। आकाशवाणी-प्रसार भारती मुंबई के संवादिता चैनल से काव्यपाठ का प्रसारण भी हो चुका है। जल्द ही उनका दूसरा काव्य संग्रह 'अभी सीख रहा हूँ' मंज़र-ऐ-आम पर आने वाला है उसके लिए मैं उन्हें अग्रिम बधाई देता हूँ। आप भी सतीश जी को उनके वर्तमान और आने वाले ग़ज़ल संग्रह के लिए उन्हें 9892165892 पर फ़ोन कर के बधाई दे सकते हैं।
सतीश जी के जीवन का सम्बल उनकी विदुषी पत्नी अनुराधा और मेधावी बेटी सागरिका हैं जो हर परिस्थिति में उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी नज़र आती हैं।
फ़ज़ाओं में जो तल्ख़ी है जलाकर ख़ाक कर डालो
बुझाओ फिर उसे ऐसे न हो कोई शरर पैदा
सिवाए ख़ार के हासिल न होगा कुछ बबूलों से
शजर ऐसे लगाओ जिनपे हों मीठे समर पैदा
*
कम पड़े जब हाथ मेरे मांँ का आंँचल मिल गया
है सितमगर भी पशेमाँ ज़ुल्म अब ढाए कहांँ
*
दूरियांँ कम कीजिए करते नहीं क्यों
जाने कब से कह रहा है शामियाना
धूप, बारिश और हवा के ज़ुल्म सारे
मुस्कुरा कर सह रहा है शामियाना
*
दिल ही मेरा तोड़ा है सोचता हूंँ यारों ने
शुक्र है ख़ुदा मेरे सर मेरा सलामत है
*
पूछूँगा मैं लुक़मान से ये रोज़े-क़यामत
कैसा है मरज़ इश्क़, दवा क्यों नहीं आती
*
मैं तुझे डूबने नहीं दूंगा
सिर्फ़ कहने को एक तिनका हूंँ
*
दूरी भी रही और नहीं दूर रहे हम
ये साथ गुज़ारे हुए लम्हों का असर था
*
दौलत का चंद रोज़ में यूं जादू चल गया
कल तक जो आदमी था वो पत्थर में ढल गया।