Monday, February 28, 2011

ज़हर पाया है अक्सर, खूबसूरत आबगीने में



जियें खुद के लिये गर हम, मजा तब क्या है जीने में
बहे औरों की खातिर जो, है खुशबू उस पसीने में

है जिनके बाजुओं में दम, वो दरिया पार कर लेंगे
बहुत मुमकिन है डूबें वो, जो बैठे हैं सफीने में

ये कैसा दौर आया है, सरों पर ताज है उनके
नहीं मालूम जिनको फर्क, पत्थर औ' नगीने में

हमारे दोस्तोँ की महरबानी इक छलावा है
ज़हर पाया है अक्सर खूबसूरत आबगीने में

गए तुम दूर जब से, दिल ये कहता है करो तौबा
मज़ा आता नहीं, खुद ही उठा कर ज़ाम पीने में

लगाये टकटकी हम राह पर बैठे रहे सदियों
सुना था लौट आएगा, वो ज़ालिम इक महीने में


सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में


सफीने: कश्ती , नाव
आबगीने: शराब की छोटी कांच की सुन्दर बोतलें

Monday, February 21, 2011

किताबों की दुनिया - 46

फ़ाक़ाकशी में जी रहे हैं लोग आजकल
पूरा ही साल तो कोई, रमजान नहीं है
***
गडरिये हो गए हैं, इन दिनों सब मौलवी पण्डे
उतारी जा रही है, आदमी की ऊन सड़कों पर

जीवन में हम सब फूल देख कर खुश होते हैं. फूल जिन्हें हम अपने घर के गमले में , पास के बाग़ में या फिर चित्रों में देखते हैं. कुछ फूल ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते और वो फूल हमारे द्वारा देखे गए फूलों से किसी मायने में कम नहीं होते बल्कि कुछ फूल तो अत्यधिक सुन्दर होते हैं. ये फूल जिन्हें बनफूल कहा जाता है बन में खिलते हैं अपने आस पास के वातावरण को अपनी खुशबू से महकाते हैं और अपनी ख़ूबसूरती से मुग्ध करते हैं और फिर वहीँ झड़ कर गिर जाते हैं. इन फूलों को कोई फरक नहीं पड़ता के इन्हें किसी ने देखा या नहीं देखा ये फूल अपनी ख़ुशी से खिलते हैं और महकते हैं. मुझे सत्तर के दशक में आयी जीतेन्द्र साहब की फिल्म "बनफूल" का ये गीत याद आ रहा है " मैं जहाँ चला जाऊं बहार चली आये, महक जाए राहों की धूल मैं बनफूल...."

आज हम जिस शायर का जिक्र करने जा रहे हैं वो एक बनफूल ही है , पुरुस्कारों और तालियों की पहुँच से दूर अपने हाल में मस्त:

सिर्फ किताबें पढ़-पढ़ करके टेप सरीखे बजते लोग
अब दुनिया में कहाँ बचे हैं, सीधे सादे ज्ञानी लोग

मिनरल वाटर के आगे अब गंगाजल की कौन बिसात
ब्रेड और मख्खन के मारे, भूल गए गुड़ धानी लोग

आज के युग में गुड धानी की बात करने वाले अनूठे शायर हैं जनाब प्रमोद रामावत "प्रमोद" जिनकी किताब "सोने का पिंजरा " का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं.प्रमोद जी की शायरी में आप तल्ख़ मगर सच्ची बातों को बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया हुआ पायेंगे. परिस्तिथियों से लड़ते हुए वो जीवन में मुहब्बत और इज्ज़त तलाशते रहे और इसी की तलाश में लफ्ज़ उनकी शायरी में ढलने लगे .वो इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं "ग़ज़ल में मुझे अपनी मंजिल नज़र आ गयी. मेरी अतृप्त प्यास मुझे ग़ज़ल के दरिया के नजदीक ले आयी. बस फिर यहाँ से उठ न सका. मेरी पीडाओं का आकाश, अशआर बनकर झरता रहा."


सोने का पिंजरा बनवाकर, तुमने दाना डाला दोस्त
हम तो थे नादान पखेरू, अच्छा रिश्ता पाला दोस्त

हम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही
तुमने पर अखबार बना कर, हम को खूब उछाला दोस्त

लोग वतन तक खा जाते हैं, इसका इसे यकीन नहीं
मान जाएगा, तू ले जाकर दिल्ली इसे दिखा ला दोस्त

दुनिया के रंगों में छुपी स्याही, मुस्कुराहटों के पीछे के आंसूं ,रिश्तों की आड़ में मतलब परस्ती, पीठ पीछे मखौल उड़ाने वालों की भीड़ आपको प्रमोद जी की शायरी में अपने पूरे तेवर और धार के साथ नज़र आएगी. वो खुद कहते हैं " जैसे जैसे मुझे दुनिया दारी समझ में आती गयी शेर शिराओं में दौड़ने लगे. ग़ज़ल धमनियों का लहू हो गयी."

आईने बनकर खड़े हो जाओ, उनके सामने
फिर नहीं, उठ पायेंगे, वो हाथ पत्थर के लिए

मजलिसें, तो सिर्फ नक्कालों की हो कर रह गयीं
अब कोई मौक़ा नहीं, बेबाक शायर के लिए

आपके गुलदान में यूँ, आपका चेहरा दिखा
इक कबूतर मार डाला, सिर्फ इक पर के लिए

बकौल प्रमोद जी " मुल्क के हालात, सियासत दां लोगों की मक्कारी और लूटे पिटे लोगों की बेचारगी ने मेरी ग़ज़लों को पनपने के लिए ज़मीन दी. जहाँ शोषण व्यापारियों का, बेईमानी राजनीतिज्ञों का और रिश्वत खोरी अफसरों का ईमान हो जाए उस मुल्क में जिंदा रहने के हालात किस तरह पैदा किये जा सकते हैं? तीखी ग़ज़लें मेरा परिचय बनती गयीं. आंसुओं और सिसकियों के तर्जुमे ही मेरे लेखन का मकसद रह गया."

एक रिश्ता है हंसी का, आंसुओं के साथ
जिस तरह रातें जुड़ी हैं, जुगनुओं के साथ

कौन ज्यादा पुर ख़तर पहचानना मुश्किल
जब से नेता जा मिले हैं, साधुओं के साथ

फिर वोही मक्कार चेहरे, वोट मांगेंगे
आप दरवाज़े पे रहिये, झाडुओं के साथ

आईये आपको प्रमोद जी की किताब तक पहुँचने का रोचक किस्सा भी सुनाता चलूँ. हुआ यूँ के दिसंबर की अंतिम तारीख़ को ब्लोग्स खंगालते हुए अचानक नज़र "असुविधा" नमक ब्लॉग पर अटक गयी जहाँ रामावत जी की चार ग़ज़लें पोस्ट की गयीं थीं. ग़ज़लों से प्रभावित हो कर मैंने उनके परिचय में दिए मोबाईल नम्बर से उन्हें संपर्क किया. उनसे उनकी शायरी और किताब की बात की. रामावत जी ने अपनी बातों और विचारों से मुझे बहुत प्रभावित किया. उन्होंने अपने एक मित्र समीर यादव जी का जिक्र किया और कहा के वो आपसे किताब को लेकर शीघ्र बात करेंगे. समीर जी भी अपना एक ब्लॉग "मनोरथ" चलाते हैं. समीर जी का फोन आया और वो भी मेरी तरह रामावत जी की शायरी के प्रशंशक निकले. रामावत जी चूँकि कम्यूटर आदि से दूर रहते हैं इसलिए जन संपर्क के लिए उनका काम समीर जी देखते हैं. समीर जी ने अगले दो दिनों में मुझे रामावत जी की किताब कोरियर से भेज दी जिसे आज मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूँ.

सत्य कहने की ज़रुरत अब नहीं है दोस्तों
झूठ को गाली बको तुम, देवता हो जाओगे

तुम तरक्की के लिए. आगे बढ़ो या मत बढ़ो
तुम तो बस पीछे धकेलो, क्या से क्या हो जाओगे

प्यास को पानी दिखा कर, तुम गरजना जोर से
फिर बिना बरसे चले जाना, घटा हो जाओगे

आपको यदि ये किताब चाहिए तो वो ही सब करना पड़ेगा जो मैंने किया है तब आप भी मेरी तरह प्रमोद जी की ग़ज़लों की आनंद सरिता में डुबकी लगा पायेंगे. काम जितना लगता है उस से भी अधिक आसान है आप सबसे पहले प्रमोद जी को उनके मोबाईल न. 09424097155 पर बधाई दें और फिर उनके मित्र और शुभ चिन्तक श्री समीर जी को उनके इ-मेल आ.इ डी. sameer.yadav@gmail.com पर एक छोटी सी मेल डाल दें . मुझे विश्वाश है जैसे समीर जी ने जैसे मुझे निराश नहीं किया आपको भी नहीं करेंगे. आज के युग में प्रमोद जी और समीर जी जैसे मोहब्बत से भरे इंसान भी इस दुनिया में बसते हैं इसका यकीन आपको उनसे बातचीत करके ही हो सकेगा.

लोग जाने क्यूँ समंदर हो गए हैं
शख्स कोई भी नदी जैसा नहीं लगता


फूलने फलने लगीं कालीन की नस्लें
एक भी कुनबा दरी जैसा नहीं लगता

उम्र भर आंसू पिये शायद इसी से अब
प्यास में भी तिश्नगी जैसा नहीं लगता

आज की किताब का जिक्र यहीं पर समाप्त करते हुए चलते हैं हम किसी दूसरे अलबेले शायर की किताब की तलाश में. आप तब तक रामावत जी को फोन करिया ना...इतना भी क्या हिचकिचा रहे हैं?

Monday, February 14, 2011

जब बसेरा थी गुफा


(पेश हैं निहायत सीधी सच्ची बातें इस सीधी सादी गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल में)

देश के हालात बदतर हैं, सभी ने ये कहा
पर नहीं बतला सका, कोई भी अपनी भूमिका

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

झूठ, मक्कारी, कमीनी हरकतें अखबार में
रोज पढ़ते हैं सुबह, पर शाम को देते भुला

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है
फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता


छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा

Monday, February 7, 2011

किताबों की दुनिया - 45

मेरे पीछे जमाना पड़ गया तो?
कहीं सबसे निभाना पड़ गया तो ?

हमें हंसने की आदत है ग़मों में
ख़ुशी में मुस्कुराना पड़ गया तो?

जिसे तुम भूल जाना चाहते हो
उसे सचमुच भुलाना पड़ गया तो?

किताबों की दुनिया श्रृंखला शुरू करते वक्त मैंने एक अलिखित नियम ये बनाया था कि मैं किसी भी शायर की दो किताबों का जिक्र नहीं करूँगा. लेकिन आपतो जानते ही हैं, हर नियम का अपवाद भी होता है तो फिर ये नियम अपवाद से कैसे बचता? आज जिस शायर का जिक्र कर रहा हूँ उसके बारे में सोचते ही उम्र के तीस पैंतीस साल कम हो जाते हैं. जवानी के वो दिन याद आते हैं जिन दिनों दुनिया में काले और सफ़ेद के आलावा बाकि सब रंग दिखाई देते थे.

इस हर दिल अजीज़ शायर के बारे में पहले लिख चुका हूँ इसलिए और अधिक न लिखते हुए सीधे उस किताब का जिक्र करता हूँ जो इनकी पहली किताब की तरह ही विलक्षण है.

किताब का शीर्षक है "आसमान से आगे" और शायर है..."राजेश रेड्डी" जो किताब की पहली ग़ज़ल से ही पाठक पर अपना जादू चलाना शुरू कर देते हैं:


न जाने कितनी सारी बेड़ियों को
पहन लेते हैं हम गहना समझ कर

समुंदर के खजाने मुन्तज़िर थे
हमीं उतरे नहीं गहरा समझ कर

भंवर तक हमको पहुँचाया उसी ने
जिसे थामे थे हम तिनका समझ कर

भला हो "वाणी प्रकाशन" का जिन्होंने राजेश की लगभग एक सौ दस ग़ज़लों का खज़ाना उनके चाहने वालों तक किताब की शक्ल में छाप कर दिया है. राजेश की पहली किताब "उड़ान" का तीसरा संस्करण प्रकाशन में है और कोई हैरत नहीं यदि ये किताब भी उसी के पद चिन्हों पर चलती हुई लोकप्रियता के नए आयाम स्थापित करे. आसान गाई जाने वाली बहरों से सजी राजेश की ग़ज़लें अपने पाठक के साथ तुरंत तारतम्य बना लेती हैं.

रावण के ज़ुल्म सहके अदालत में राम की
सीता खड़ी हुई है गुनाहगार की तरह

हमको जहाँ-जहाँ भी नयी सोच ले गयी
दुनिया वहाँ-वहाँ मिली दीवार की तरह

मैं कब उन्हें बुलाता हूँ आते हैं खुद-ब-खुद
ग़म भी हैं मेहरबाँ मेरे अशआर की तरह

निदा फ़ाज़ली साहब ने इस किताब की भूमिका में एक कमाल की बात लिखी है "राजेश की ग़ज़लें पढ़ते हुए मार्क ट्वैन की बात याद आती है. उसने एक लेख में लिखा था -अगर ज़ेहन संतुलित हो तो हर वस्तु में सौन्दर्य होता है और अगर ये संतुलन न हो तो सुन्दर से सुन्दर वस्तु भी गुस्सा जगा सकती है.राजेश में अपनी ग़ज़ल में सामाजिक विरोधाभासों के प्रति क्रोध प्रगट करते हुए भी अपने कवि-ज़ेहन का संतुलन नहीं खोया और यह खूबी उनकी ग़ज़लों को ग़ज़लों की भीड़ में एक अलग पहचान देती है. "

झांकना अपने गिरेबाँ में नहीं आया उसे
जिसके दिल में आ गया पत्थर उठाने का ख़याल

चाहते तो हम भी हैं दरबार में जाना मगर
पाँव को रोके हुए है सर झुकाने का ख़याल

सोना-चांदी, हीरे-मोती, गहने-जेवर की हवस
दिल में क्यूँ टिकता नहीं मिटटी में जाने का ख़याल

राजेश यूँ तो उम्र में मुझसे दो साल छोटे हैं लेकिन अकल और समझदारी में सौ साल बड़े...जब से मैंने उन्हें जाना तब से ही धीर गंभीर प्रकृति का पाया...जयपुर में हमारे नाट्य दल का वो नेता हुआ करते थे...उनके लिखे और निर्देशित किये नाटकों में मुझे साथ काम करने का मौका मिला. शायरी का दामन राजेश ने स्कूल के दिनों से ही शायद पकड़ लिया था जिसे उसने आज तक नहीं छोड़ा है. अब इतने गहरे और लम्बे रिश्ते में मिठास तो भरपूर होनी ही है. राजेश की ग़ज़लें हम से बात करती लगती हैं, हमें अपना दोस्त बना लेती हैं और दोस्ती का हक़ निभाते हुए अपनी ख़ुशी और परेशानियाँ बांटती चलती हैं...

जिसे भी देखिये नाराज़ है इस दौरे-हाज़िर से
मगर इस दौरे-हाज़िर से बगावत कौन करता है

बना लेते हैं अपनी-अपनी जन्नत को सभी दोज़ख़
मगर दोज़ख़ से पैदा अपनी जन्नत कौन करता है

कोई दैरो-हरम में जाये या बाहर रहे उनसे
उसे मालूम है उसकी इबादत कौन करता है

खुदा का घर बचाने के लिए लड़ते हैं सब लेकिन
जो घर बन्दों के हैं उनकी हिफ़ाज़त कौन करता है

इस किताब में प्रस्तुत ग़ज़लों के रदीफ़ काफिये नए और चौंकाने वाले हैं. सबसे खास बात जो मुझे इस संकलन में नज़र वो ये कि सारी की सारी ग़ज़लें निहायत सीधी साधी जबान में कही गयीं हैं याने लफ़्ज़ों के मानी जानने के लिए हमें कहीं इधर उधर नहीं देखना पड़ता. आप बस ग़ज़ल पढ़ें और वो सीधे बिना किसी रोकटोक के आप के दिल में उतर जायेगी. आसान लहजे में अपनी बात कहने का हुनर राजेश को आता है और क्या खूब आता है:

बहुत आसान है हर बात को मुश्किल बना देना
बहुत मुश्किल मगर लहजे की आसानी में रहना है.

क़फ़स से अपनी आज़ादी पे क्या खुशियाँ मनाऊं मैं
मुझे बाहर भी सैय्यादों की निगरानी में रहना है

रहूँ मैं दश्त में या शहर में, क्या फर्क पड़ता है
मुझे तो उम्र भर अपनी ही वीरानी में रहना है

जैसा के मैंने पहले ही आपको बताया है इस किताब को वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है जिसका पता ठिकाना मैंने अपनी पिछली कई पोस्ट्स में दिया है लेकिन आपकी पिछली पोस्ट्स न देखने की आदत को भलीभांति जानते हुए मैं यहाँ उसे फिर से दे देता हूँ. वाणी प्रकाशन का पता है: 21-ऐ, दरियागंज, नयी दिल्ली, फोन न.011-23273167/23275710,इ-मेल:vaniprakashan@gmail.com और वेब साईट www.vaniprakashan.com है.

वैसे एक बात बता दूं जिसने मन में किताब खरीदने की ठान ली हो वो मेरे द्वारा यहाँ दिए पते ठिकाने का मोहताज़ नहीं होता किसी न किसी तरह से खरीद ही लेता है और भाई जिसने किताब नहीं खरीदने का फैसला कर लिया है उसके लिए मैं बार बार किताब पाने की जगह बतलाता रहूँ तब भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा...खैर ये तो अलग बात है लेकिन मेरी आपसे सिर्फ इतनी सी गुज़ारिश है के यदि आप अच्छी और सच्ची शायरी को पसंद करते हैं तो ये किताब आपके पास होनी चाहिए. जीवन में जो उतार-चढाव आते हैं उन के दौरान तठस्थ रहने में ये आपकी मदद करेगी.

आंसुओं वाली हर बात को छोटा करके
मुस्कुरा लेते हैं हालात को छोटा करके

वक्त खुद आपके क़दमों में झुका आएगा
देखिये वक्त की औकात को छोटा करके

अश्क आँखों में तरसते हैं बरसने के लिए
लोग अब जीते हैं ज़ज्बात को छोटा करके

किताबों की दुनिया का आज का एपिसोड हम यहीं समाप्त करते हैं...और निकलते हैं आपके लिए एक नयी किताब की तलाश में...आप किस्मत वाले हैं लेकिन हमें तो भाई किताबें तलाशनी पड़ती हैं हमें कौन बताता है के फलाँ जगह से फलाँ शायर की किताब खरीदो...मिलते हैं जल्द ही एक नयी किताब और शायर के साथ.