मेरे पीछे जमाना पड़ गया तो?
कहीं सबसे निभाना पड़ गया तो ?
हमें हंसने की आदत है ग़मों में
ख़ुशी में मुस्कुराना पड़ गया तो?
जिसे तुम भूल जाना चाहते हो
उसे सचमुच भुलाना पड़ गया तो?
किताबों की दुनिया श्रृंखला शुरू करते वक्त मैंने एक अलिखित नियम ये बनाया था कि मैं किसी भी शायर की दो किताबों का जिक्र नहीं करूँगा. लेकिन आपतो जानते ही हैं, हर नियम का अपवाद भी होता है तो फिर ये नियम अपवाद से कैसे बचता? आज जिस शायर का जिक्र कर रहा हूँ उसके बारे में सोचते ही उम्र के तीस पैंतीस साल कम हो जाते हैं. जवानी के वो दिन याद आते हैं जिन दिनों दुनिया में काले और सफ़ेद के आलावा बाकि सब रंग दिखाई देते थे.
इस हर दिल अजीज़ शायर के बारे में पहले लिख चुका हूँ इसलिए और अधिक न लिखते हुए सीधे उस किताब का जिक्र करता हूँ जो इनकी पहली किताब की तरह ही विलक्षण है.
किताब का शीर्षक है
"आसमान से आगे" और शायर है
..."राजेश रेड्डी" जो किताब की पहली ग़ज़ल से ही पाठक पर अपना जादू चलाना शुरू कर देते हैं:
न जाने कितनी सारी बेड़ियों को
पहन लेते हैं हम गहना समझ कर
समुंदर के खजाने मुन्तज़िर थे
हमीं उतरे नहीं गहरा समझ कर
भंवर तक हमको पहुँचाया उसी ने
जिसे थामे थे हम तिनका समझ कर
भला हो
"वाणी प्रकाशन" का जिन्होंने राजेश की लगभग एक सौ दस ग़ज़लों का खज़ाना उनके चाहने वालों तक किताब की शक्ल में छाप कर दिया है. राजेश की पहली किताब
"उड़ान" का तीसरा संस्करण प्रकाशन में है और कोई हैरत नहीं यदि ये किताब भी उसी के पद चिन्हों पर चलती हुई लोकप्रियता के नए आयाम स्थापित करे. आसान गाई जाने वाली बहरों से सजी राजेश की ग़ज़लें अपने पाठक के साथ तुरंत तारतम्य बना लेती हैं.
रावण के ज़ुल्म सहके अदालत में राम की
सीता खड़ी हुई है गुनाहगार की तरह
हमको जहाँ-जहाँ भी नयी सोच ले गयी
दुनिया वहाँ-वहाँ मिली दीवार की तरह
मैं कब उन्हें बुलाता हूँ आते हैं खुद-ब-खुद
ग़म भी हैं मेहरबाँ मेरे अशआर की तरह
निदा फ़ाज़ली साहब ने इस किताब की भूमिका में एक कमाल की बात लिखी है
"राजेश की ग़ज़लें पढ़ते हुए मार्क ट्वैन की बात याद आती है. उसने एक लेख में लिखा था -अगर ज़ेहन संतुलित हो तो हर वस्तु में सौन्दर्य होता है और अगर ये संतुलन न हो तो सुन्दर से सुन्दर वस्तु भी गुस्सा जगा सकती है.राजेश में अपनी ग़ज़ल में सामाजिक विरोधाभासों के प्रति क्रोध प्रगट करते हुए भी अपने कवि-ज़ेहन का संतुलन नहीं खोया और यह खूबी उनकी ग़ज़लों को ग़ज़लों की भीड़ में एक अलग पहचान देती है. "
झांकना अपने गिरेबाँ में नहीं आया उसे
जिसके दिल में आ गया पत्थर उठाने का ख़याल
चाहते तो हम भी हैं दरबार में जाना मगर
पाँव को रोके हुए है सर झुकाने का ख़याल
सोना-चांदी, हीरे-मोती, गहने-जेवर की हवस
दिल में क्यूँ टिकता नहीं मिटटी में जाने का ख़याल
राजेश यूँ तो उम्र में मुझसे दो साल छोटे हैं लेकिन अकल और समझदारी में सौ साल बड़े...जब से मैंने उन्हें जाना तब से ही धीर गंभीर प्रकृति का पाया...जयपुर में हमारे नाट्य दल का वो नेता हुआ करते थे...उनके लिखे और निर्देशित किये नाटकों में मुझे साथ काम करने का मौका मिला. शायरी का दामन राजेश ने स्कूल के दिनों से ही शायद पकड़ लिया था जिसे उसने आज तक नहीं छोड़ा है. अब इतने गहरे और लम्बे रिश्ते में मिठास तो भरपूर होनी ही है. राजेश की ग़ज़लें हम से बात करती लगती हैं, हमें अपना दोस्त बना लेती हैं और दोस्ती का हक़ निभाते हुए अपनी ख़ुशी और परेशानियाँ बांटती चलती हैं...
जिसे भी देखिये नाराज़ है इस दौरे-हाज़िर से
मगर इस दौरे-हाज़िर से बगावत कौन करता है
बना लेते हैं अपनी-अपनी जन्नत को सभी दोज़ख़
मगर दोज़ख़ से पैदा अपनी जन्नत कौन करता है
कोई दैरो-हरम में जाये या बाहर रहे उनसे
उसे मालूम है उसकी इबादत कौन करता है
खुदा का घर बचाने के लिए लड़ते हैं सब लेकिन
जो घर बन्दों के हैं उनकी हिफ़ाज़त कौन करता है
इस किताब में प्रस्तुत ग़ज़लों के रदीफ़ काफिये नए और चौंकाने वाले हैं. सबसे खास बात जो मुझे इस संकलन में नज़र वो ये कि सारी की सारी ग़ज़लें निहायत सीधी साधी जबान में कही गयीं हैं याने लफ़्ज़ों के मानी जानने के लिए हमें कहीं इधर उधर नहीं देखना पड़ता. आप बस ग़ज़ल पढ़ें और वो सीधे बिना किसी रोकटोक के आप के दिल में उतर जायेगी. आसान लहजे में अपनी बात कहने का हुनर राजेश को आता है और क्या खूब आता है:
बहुत आसान है हर बात को मुश्किल बना देना
बहुत मुश्किल मगर लहजे की आसानी में रहना है.
क़फ़स से अपनी आज़ादी पे क्या खुशियाँ मनाऊं मैं
मुझे बाहर भी सैय्यादों की निगरानी में रहना है
रहूँ मैं दश्त में या शहर में, क्या फर्क पड़ता है
मुझे तो उम्र भर अपनी ही वीरानी में रहना है
जैसा के मैंने पहले ही आपको बताया है इस किताब को वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है जिसका पता ठिकाना मैंने अपनी पिछली कई पोस्ट्स में दिया है लेकिन आपकी पिछली पोस्ट्स न देखने की आदत को भलीभांति जानते हुए मैं यहाँ उसे फिर से दे देता हूँ. वाणी प्रकाशन का पता है: 21-ऐ, दरियागंज, नयी दिल्ली, फोन न.011-23273167/23275710,इ-मेल:
vaniprakashan@gmail.com और वेब साईट
www.vaniprakashan.com है.
वैसे एक बात बता दूं जिसने मन में किताब खरीदने की ठान ली हो वो मेरे द्वारा यहाँ दिए पते ठिकाने का मोहताज़ नहीं होता किसी न किसी तरह से खरीद ही लेता है और भाई जिसने किताब नहीं खरीदने का फैसला कर लिया है उसके लिए मैं बार बार किताब पाने की जगह बतलाता रहूँ तब भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा...खैर ये तो अलग बात है लेकिन मेरी आपसे सिर्फ इतनी सी गुज़ारिश है के यदि आप अच्छी और सच्ची शायरी को पसंद करते हैं तो ये किताब आपके पास होनी चाहिए. जीवन में जो उतार-चढाव आते हैं उन के दौरान तठस्थ रहने में ये आपकी मदद करेगी.
आंसुओं वाली हर बात को छोटा करके
मुस्कुरा लेते हैं हालात को छोटा करके
वक्त खुद आपके क़दमों में झुका आएगा
देखिये वक्त की औकात को छोटा करके
अश्क आँखों में तरसते हैं बरसने के लिए
लोग अब जीते हैं ज़ज्बात को छोटा करके
किताबों की दुनिया का आज का एपिसोड हम यहीं समाप्त करते हैं...और निकलते हैं आपके लिए एक नयी किताब की तलाश में...आप किस्मत वाले हैं लेकिन हमें तो भाई किताबें तलाशनी पड़ती हैं हमें कौन बताता है के फलाँ जगह से फलाँ शायर की किताब खरीदो...मिलते हैं जल्द ही एक नयी किताब और शायर के साथ.