वो रात बहुत ही छोटी थी
जिस रात तू मेरे साथ रहा
*
रावण मेरे अंदर बैठा रहता है
दुनिया यूँ ही पुतला फूंका करती है
*
या रब धागा ढीला रखना
कठपुतली सा नाच रहे हैं
*
मैं तो.. खुद से.. मैं खो बैठी
जब से मैं ने तुमको जाना
*
नींद की गोली देकर तेरी याद को चाहा सो जाए
याद नशे में ऐसा नाची घुंघरू घुंघरू टूटी मैं
*
ढाई आखर शब्द है ये ज़िंदगी
पढ़ते-पढ़ते थक गई आंखें मेरी
*
झुकते झुकते झुकते झुकते
आखिर डाली टूट गई है
*
चाबी अक्सर खो जाती है
ताले लटके रह जाते हैं
*
चांद बुला कर ले आई हूँ
आओ पकड़म पकड़ी खेलें
*
खामोशी है तो ज़लज़ला आने को है कोई
तुमने कभी ठहरा हुआ दरिया नहीं देखा
ये तो हम जानते ही हैं कि दुनिया में मुख्य रूप से दो तरह के लोग होते हैं एक-'अंतर्मुखी' जिसे अंग्रेजी में इंट्रोवर्ट कहते हैं और दूसरे 'बहिर्मुखी' याने एक्सट्रोवर्ट ।हम ये भी जानते हैं कि यह एक व्यक्तिगत लक्षण है जो जन्मजात होता है । एक तो जीवन जीना वैसे ही आसान नहीं होता ऊपर से अगर आप अंतर्मुखी हैं तो अपेक्षाकृत ज्यादा मुश्किल हो जाता है। जब आप बोलते नहीं तो ग़लत या मूर्ख समझ लिए जाते हैं जबकि अधिकतर अंतर्मुखी लोग बहुत संवेदनशील,सोच समझ कर बोलने वाले, गहरे, समझदार और कुशल प्रशासक होते हैं। कुछ लोग जो अपनी भावनाएं अभिव्यक्त नहीं कर पाते वो घुटन के शिकार हो जाते हैं और अंदर ही अंदर छटपटाते हैं । इस छटपटाहट से निज़ात पाने के लोग तरीक़े ढूंढते हैं।
हमारे आज किताबों की दुनिया की शायरा रश्मि शर्मा 'रश्मी' इंट्रोवर्ट याने अंतर्मुखी प्रकृति की हैं, लिहाजा कम बोलती हैं, बहुत संवेदनशील हैं और अपनी ही नहीं दूसरों की पीड़ा से भी परेशान हो जाती हैं । जिंदगी में जो देखती और महसूस करती हैं उसे बोलकर नहीं बल्कि लिखकर अभिव्यक्त करती हैं ।अपनी इसी अभिव्यक्ति को उन्होंने अपनी पहली किताब 'काग़ज पर..!' में दर्ज किया है जो हमारे सामने हैं।
इस किताब को मॉयबुक्स पब्लिकेशन, दिल्ली ने हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित किया है जिसे 9910491424 या 011-49094589 पर फोन कर मँगवाया जा सकता है।ये किताब अमेजन पर भी उपलब्ध है।
चंडीगढ़ साहित्य अकेडमी ने मार्च 2020 में इस किताब के लिए रश्मि जी को पुरुस्कृत भी किया है।
कितना भी पत्थर हो जाओ
कुछ मिट्टी तो बाक़ी होगी
*
कितनी बेकल है ये सड़कें देखो ना
तुमसे मिलने कैसे दौड़ी आती हैं
कूज़ागर जब पटके थपके आंच दिखाये
सारे ऐब निकल जाते हैं मिट्टी के भी
*
उदासी एक घना जंगल है प्यारे
बहुत अंदर गए तो शेर होंगे
*
आ चांद कटोरे में भर लें
आधा तेरा आधा मेरा
*
घर में रहकर हूँ बैरागी
क्यों जाना फिर जंगल वन में
*
बात कल तक थी यही सब कुछ करूं हासिल
आज की ताजा खबर है... थक गई हूं मैं
कौन समझाए कहानी जिंदगी की अब
उलझा उलझा हर बशर है... थक गई हूं मैं
*
चांद तारों से भरा है आसमां
रात की हम तीरगी क्यों सह रहे
*
बीवी करे शिकवा.. करें मां भी.. करूं मैं क्या
किसको कहूँ किस की सुनूं बांटा हुआ सा मैं
रश्मि जी के पिता डॉक्टर थे जो राजस्थान के गंगानगर जिले के एक गाँव में रहते थे जहाँ एक बड़े से घर के आगे के हिस्से में उनका क्लिनिक था और पीछे रियाइश। रश्मि जी की माताजी रश्मि जी के जन्म के समय अपने पीहर पटियाला आ गयीं। अभी रश्मि जी कुछ दिनों की ही थीं कि उनके दादा जो पंजाब के रामामंडी में डॉक्टर थे अचानक गंभीर रूप से बीमार हो कर बिस्तर पर आ लगे। रश्मि जी की दादी ही अकेले उनकी देखभाल को थीं। ऐसे में रश्मि जी की माताजी ने उनके पिता को अपना सब कुछ बेच-बाच कर फ़ौरन पटियाला आकर रामामंडी में उनके पिता की देखभाल के लिए जाने को लिखा। रश्मि जी के पिता ने अपना बड़ा सा मकान, क्लिनिक आदि तुरंत मात्र 800 रु में बेच, पटियाला की बस पकड़ी। उनके पास इतना समय नहीं था कि वो अधिक पैसों के लिए इंतज़ार करते और वैसे भी लोग ऐसे नाज़ुक मौकों पर मजबूर इंसान की मज़बूरी का फ़ायदा उठाने में परहेज़ नहीं करते। कहने का मतलब ये कि रश्मि जी के पैदा होते ही पूरे परिवार में जलजला आ गया।
पुरानी हिंदी फ़िल्म की अगर ये कहानी होती तो परिवार वालों ने ऐसी बेटी को मनहूस कहना था लेकिन रश्मि जी के माता-पिता बहुत आधुनिक और प्रगतिशील विचारों के थे, उन्होंने रश्मि जी का लालन-पालन बहुत प्यार से किया बल्कि उनका, उनके दो भाइयों के बनिस्पत, अधिक ख़्याल रखा। पिता ने रामामंडी पारिवारिक कारणों से छोड़ अपनी प्रेक्टिस सर्दुलगढ़ में, जो मानसा जिले में है, शुरू कर दी जो धीरे धीरे चल पड़ी। उसी जिले में उनकी माताजी भी सरकारी हॉस्पिटल सर्दूलगढ़ में महिला सेहत कर्मचारी के पद पर काम करने लगीं।। सब कुछ ठीक चल रहा था ज़िन्दगी पटरी पर बिना झटका खाये ,दौड़ रही थी।
घर के साहित्यिक और खुशनुमा माहौल में बच्चे बड़े हो रहे थे। दसवीं की परीक्षा के बाद उन्होंने हायरसेकेंडरी अपनी मौसी के घर रह कर की। उसके बाद जब वो मानसा के एस.डी. कॉलेज से दी गयी फर्स्ट ईयर की परीक्षा के रिजल्ट का इंतज़ार कर रहीं थी तभी उनके पड़ौस में एक छोटे बच्चों का स्कूल खुला जिसमें माँ-पिता को मना कर रश्मिजी पढ़ाने लगीं। उनका इरादा था कि दो तीन महीनों बाद रिजल्ट आने पर वो ये नौकरी छोड़ कर आगे पढ़ने कॉलेज चली जाएँगी। इंसान सोचता कुछ है लेकिन होता कुछ है। तो हुआ ये कि रश्मि जी की माताजी गंभीर रोग की चपेट में आ गयीं जिसका इलाज़ सर्दूलगढ़ जैसी जगह में संभव नहीं था लिहाज़ा उनके पिता उन्हें पटियाला जहाँ उनका मायका था के एक बड़े हस्पताल में इलाज के लिए ले आये। माँ की गैर मौजूदगी में रश्मि जी के नाज़ुक कन्धों पर दो भाइयों के साथ साथ घर की सारी ज़िम्मेदारी भी आ गयी। कॉलेज जाने का सपना, सपना ही रह गया।
बिन मौसम बरसा करता है
रोको इसको.. मोया बादल
मोया: मरा हुआ...पंजाबी में प्यार से दी गाली
जाने किस बैरी धोबी ने
रगड़ रगड़ कर धोया बादल
*
बंद लिफाफा चूम लिया है
क्या जाने किसकी पाती है
*
बारहा आंख दीद को तरसे
इश्क़ में है अभी कमी जानो
*
सच की हर दवा की एक्सपायरी गई
रोज़ गोली झूठ की निगल रही हूं मैं
*
पानी में बनती परछाई
पानी ही से कट जाती है
आंसू आंखों में चलते हैं
सांस गले में अट जाती है
*
हर गली लुट रही है कोई सीता
रस्मी रावण जलाया जा रहा है
*
अकेला छोड़ दो मुझको यही बेहतर है तूफ़ाँ में
मुसाफिर जो ज़ियादा हों सफ़ीना डूबता भी है
*
जिसने जी चाहा सुनाया है मुझे अक्सर यहां
तू मगर जब चुप रहा तो मैं पशेमाँ सी हुई
दिन-रात पढ़ने, खेलने और अपने में मस्त रहने वाली रश्मि जी के लिए जीवन में अचनाक आई इस तब्दीली ने गहरा असर डाला और वो उदास रहने लगीं। अपनी उदासी को उन्होंने एक कॉपी के पन्नों पर चुपचाप कविता लिख कर अभिव्यक्त करना शुरू किया। ये उनके लेखन की शुरुआत थी हालाँकि रश्मिजी ने इस बात की जानकारी किसी को नहीं दी। स्कूल में पढ़ाने के साथ साथ घर का काम निपटाते हुए रश्मि जी ने आगे की पढ़ाई प्राइवेटली जारी रखी। सेकण्ड ईयर पास करने के बाद उन्होंने सरकार द्वारा चाइल्ड डवलेपमेंट प्रोजेक्ट के तहत आंगनबाड़ी योजना के लिए नौकरी के लिए आवेदन दिया और सलेक्ट होने पर राजपुरा ट्रेनिंग सेंटर में चार महीने की ट्रेनिंग में गयीं। इस गर्ल्स हॉस्टल में हुए उनके अच्छे और बुरे अनुभवों पर अलग से एक किताब लिखी जा सकती है। आंगनबाड़ी की नौकरी के दौरान ही उनकी शादी हो गयी। ससुराल पटियाला में था और आंगनबाड़ी केंद्र दूर पीहर के गाँव में, कुछ दिन तो किसी तरह नौकरी चली लेकिन दो नावों में सवार होना मुमकिन नहीं था इसलिए आख़िर उन्होंने वो नौकरी छोड़ दी।
मुश्किलों ने रश्मि जी का पीछा नहीं छोड़ा। माताजी की तबियत फिर से ख़राब हो गयी ऐसे में रश्मि जी के पापा अपने घर की ज़िम्मेदारी बेटे-बहू को सौंप कर उन्हें फिर सर्दूलगढ़ से पटियाला ले आये जहाँ के एक हॉस्पिटल में उन्हें भर्ती करा दिया। पिता अकेले उन्हें नहीं संभाल सकते थे लिहाज़ा माताजी की सेवा की जिम्मेदारी रश्मि जी ने उठा ली। वो रोज सारे घर वालों का खाना बना कर अपनी छोटी सी बेटी को गोद में उठाये सारा दिन अपनी माँ जी के पास हॉस्पिटल रहतीं और शाम को वहां से लौट कर फिर से घर के कामों में जुट जातीं। इसी बीच उनके ससुर जी को हार्ट अटैक आ गया और ससुर भी हॉस्पिटल में भर्ती हो गए। पूरा घर अस्त-व्यस्त हो गया।
ये विपदा किसी तरह टली तो उसके कुछ ही वक्त के बाद पटियाला में तूफानी बारिश के चलते बाढ़ आ गयी। घग्गर नदी के अत्यधिक घुमावदार होने से अक्सर उसके किनारे पड़ने वाले गाँव-शहरों में बाढ़ आना सामान्य बात है लेकिन 1988 में आई बाढ़ बहुत खतरनाक थी। रश्मि जी के ससुराल वालों की कोठी शहर के अपेक्षाकृत नीचे वाले इलाके में थी लिहाज़ा सारा घर 10 फिट गहरे पानी से घिर गया। पूरे परिवार ने, जिसमें रश्मि जी की 6 माह की बेटी भी थी, पूरी रात छत पर बने एक छोटे से कमरे में गुज़ारी। दो दिन बाद सरकारी नाव की सहायता से उन्हें बचाया गया। किसी फ़िल्म या टीवी पर समाचार देख कर इस तरह की बाढ़ में फंसे परिवार की समस्याओं का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। वो रात रश्मिजी कभी नहीं भूल पातीं। चार-पाँच दिन बाद पानी उतरने पर जब परिवार वाले अपने घर वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि पूरा घर साँप के छोटे छोटे बच्चों से भरा पड़ा था और दीवारों पर कनख़जूरे रेंग रहे थे।
ऐसा ही मंज़र 1993 में आई बाढ़ में भी नज़र आया ब्लकि सन 1988 में आई बाढ़ से भी अधिक ख़तरनाक।
कितनी तन्हा तन्हा हूँ मैं
कितने खाली खाली हो तुम
कांटों से भी याराना है
ऐसे कैसे माली हो तुम
*
मुख़ालिफ़ को देना मुहब्बत
बहुत ख़ूबसूरत सज़ा है
*
सबको तुझसे ही मिलना है
तुझसे फिर मिलवाये कौन
होश में आना पागलपन है
पगले को समझाएं कौन
*
पैर की पाज़ेब कितनी क़ैद है
दूर जब ढोलक बजे तो सोचना
मौत दस्तक दे के आती है कहाँ
जिंदगी आवाज़ दे तो सोचना
*
जाने कैसा अजब ख़ज़ाना है यह मेरा ख़ालीपन
जितना जितना बाँटा मैं ने उतना लौटा खालीपन
*
बिन मोहब्बत तू किस काम की ज़िंदगी
मैंने तुझको बहुत जी लिया...तख़लिया
वास्ता दोस्ती का न देना कभी
हंस के कह दूंगी मैं शुक्रिया तख़लिया
देवानंद साहब की मशहूर फ़िल्म 'हमदोनो' में साहिर साहब के लिखे एक कालजयी गीत की ये पंक्ति शायद आपको याद हो कि ' जहाँ में ऐसा कौन है कि जिसको ग़म मिला नहीं ' रश्मि जी इसकी अपवाद नहीं। ग़म, तकलीफ़ और मुश्किलें जीवन का अहम हिस्सा हैं, ये अलग बात है कि किसी किसी को ऊपरवाला ये सब बहुतायत में देता है। कुछ लोग इनसे बिना लड़े ही हार मान लेते हैं और कुछ, रश्मि जी की तरह कमर कस कर इनका डट कर मुकाबला करते हैं। हारना जीतना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना लड़ना। लड़ना तो हर हाल में आपको ही होता है लेकिन ये लड़ाई थोड़ी आसान तब हो जाती है जब विपरीत परिस्थितियों में आपके परिवार वाले और मित्र आपके पीछे खड़े होते हैं। रश्मिजी इस मामले में ख़ुशक़िस्मत रहीं कि मुश्किल की घड़ियों में उन्हें अपने माता-पिता, पति और समस्त ससुराल वालों का भरपूर साथ मिला।
रश्मिजी को जीवन में निष्क्रिय हो कर घर बैठना बिल्कुल पसंद नहीं था इसलिए वो हमेशा नौकरी करने की उधेड़बुन में रहतीं। पति के पंजाब युनिवेर्सिटी चंडीगढ़ में ट्रांसफर होने पर वो पटियाला छोड़ चंडीगढ़ में बस गयीं और नौकरी की तलाश करने लगीं। घर के पास ही एक छोटे बच्चों का स्कूल था जिसमें वो बहुत कम तनख़्वाह पर काम करने लगीं। धीरे धीरे अपनी मेहनत और लगन से वो न सिर्फ़ स्कूल के कर्ताधर्ताओं में बल्कि बच्चों में भी बहुत लोकप्रिय हो गयीं। अब वो उसी स्कूल में वाइस प्रिंसिपल के पद पर काम कर रही हैं। वो इस स्कूल को और स्कूल वाले उन्हें अपना समझते हैं। उनके द्वारा पढ़ाये हुए बच्चों ने पढाई के अलावा अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भी अपना और स्कूल का नाम रौशन किया।
स्कूल में पढ़ाने के साथ साथ रश्मि जी ने अपना एक कोचिंग सेंटर भी खोला इसके अलावा टपरवेयर और एवोन के उत्पाद की मार्केटिंग भी की, आई सी आई सी आई प्रू लाइफ़ इंशोरेंस इंसोरेंस तथा बिरला सन लाइफ़ के प्रतिनिधि के रूप में भी काम किया और तो और जब मौका और जरूरत पड़ी तो चंडीगढ़ में अपने नए घर को बनाने के दौरान पति के साथ मिल कर ईंटों से भरे ट्रक की सारी ईंटों को एक एक कर पहली मंज़िल तक पहुंचाने की मेहनत भी की। इससे उनकी कभी हार न मानने वाली जुझारू प्रवृति का अंदाजा भी लगता है ।
इस सब के दौरान उनका लेखन भी साथ साथ चलता रहा। उनकी रचनाएँ चंडीगढ़ से प्रकाशित ' चंडीगढ़ डाइजेस्ट' में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहीं यहाँ तक कि उन्हें डाइजेस्ट वालों ने अपने सम्पादकीय मंडल में शामिल होने की पेशकश भी की जिसे उन्होंने अपने संकोची स्वभाव के कारण ठुकरा दिया।
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वस्ल की बारिश पल भर हो तो सदियों तक भी
हिज्र की मिट्टी को महकाया जा सकता है
एक उदासी थोड़े आंसू कुछ तन्हाई
इन से कब तक काम चलाया जा सकता है
*
जाने कितने चेहरे औढ़ लिए हैं मैंने
थक जाता है अक्स उठाता घर का शीशा
मेरे अंदर से मैं कब की निकल चुकी हूँ
झूठा है.. मुझ को बहलाता.. घर का शीशा
*
उतना बोझिल होगा रस्ता
जितनी भारी होगी गठरी
खट्टा मीठा सब रख बैठी
यादों की अलमारी गठरी
*
मां होती तो कह देती मैं
फिर से गूंधो मेरी मिट्टी
मुझ में कुछ महका महका है
मुझ में है कुछ तेरी मिट्टी
कूज़ागर का दोष नहीं कुछ
थी मेरी रेतीली मिट्टी
*
छत पर मैं और चांद सितारे
थी वो रात बहुत पहले की
क्या कहते हो .. हंसती हूँ मैं
हाँ ये बात बहुत पहले की
आख़िर उनकी ज़िंदगी में भागदौड़, परेशानियां और मुश्किलें धीरे धीरे कम होने लगीं। बच्चे बड़े हो गये।उनका कॉलेज न जा पाने का मलाल बच्चों ने दूर कर दिया। बिटिया ने देवीलाल यूनिवर्सिटी सिरसा से एम.एस.सी की और फिर पी.एच.डी की डिग्री हासिल की ,बेटा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए न्यूजीलैंड चला गया । जहाँ अब उसकी खुद की कम्पनी है । उनकी बेटी जो आज असिस्टेंट प्रोफ़ेसर है और लिखती भी हैं ,ने, उन्हें बताया कि वो इंटरनेट पर शायरी.कॉम साईट पर अपनी रचनाएं पोस्ट किया करें। इस तरह रश्मि जी का इंटरनेट से परिचय हुआ जिसके माध्यम से बाद में उन्हें बहुत से अच्छे रचनाकार मिले। इन में प्रमुख थे जनाब विकास राणा साहब। शायरी.कॉम साइट किसी कारण से विकास राणा सहित बहुत से सदस्यों ने छोड़ दी उनमें रश्मि जी भी थीं।
इसके बाद विकास जी ने रश्मि जी के अलावा विपुल कुमार , वीनीत आशना, तरकश प्रदीप,कुणाल सिफर, अमित बजाज , निर्मल आर्य और विजय शंकर मिश्रा जैसे बहुत से प्रतिभाशाली युवा व अनुभवी रचनाकारों के साथ मिल कर 'हिंदवी' नाम से साइट बनाई जो इंटरनेट पर बहुत लोकप्रिय है और जिसके हज़ारों फॉलोअर हैं ।' हिंदवी' ने अपने बैनर तले अलग अलग स्थानों पर कामयाब साहित्यिक आयोजन किये हैं जिसमें देश के प्रसिद्ध रचनाकारों ने हिस्सा लिया है। 'हिंदवी' से जुड़ने के बाद रश्मि जी के लेखन के स्तर में अप्रत्याशित सुधार आया।पंकज सिजवाली 'उफ़क़' साहब और विपुल जी ने उन्हें ग़ज़ल लेखन के लिए जरूरी बातों की विस्तार से जानकारी दी। 'कुणाल सिफर' जो अब उनके दामाद भी हैं ने हर क़दम पर उन्हें सहारा दिया। आज वो जिस मुकाम पर हैं वो अपनी अथक मेहनत और हिंदवी के सदस्यों के सहयोग से हैं।
'रश्मि' जी की लोकप्रियता का आलम ये है कि कुछ समय पूर्व अपनी न्यूजीलैंड यात्रा के दौरान जब उन्होंने वहां की प्रसिद्ध कवयित्री 'प्रीता व्यास' जी से संपर्क साधा तो 'प्रीता' जी ने उन्हें न्यूजीलैंड में होने वाले एक कवि-सम्मेलन में बतौर चीफ गेस्ट आमंत्रित किया जहाँ उनकी रचनाओं ने न्यूजीलैंड निवासियों को मंत्र मुग्ध कर दिया। 'प्रीता व्यास' जी ने अपनी मधुर आवाज़ में हाल ही में रश्मिजी की एक लाजवाब ग़ज़ल को यू ट्यूब पर डाला है जो सुनने लायक है।
रश्मि जी इन दिनों अपनी पंजाबी ग़ज़लों की किताब को अंतिम रुप देने में व्यस्त हैं। हम दुआ करते हैं कि उनकी 'काग़ज पर...' किताब के लोकार्पण का सपना जो कोरोना के चलते संभव नहीं हो पाया उनकी पंजाबी ग़ज़लों की किताब आने पर जरूर पूरा हो ।
कहते हैं कि ग़ज़ल कहना आसान नहीं होता और सरल सीधी ज़बान में कहना तो बहुत ही कठिन होता है लेकिन रश्मि जी ने इस कठिन काम को अपने हुनर से साधा है। उनकी ग़ज़ल़ें उन्हीं की तरह सीधी, सरल और इमानदार हैं जो पढ़ते/सुनते वक्त सीधे दिल में उतर जाती हैं। आप रश्मि जी को उनकी इन बेहद खूबसूरत ग़ज़लों के लिए 9815605163 पर फोन कर बधाई देना न भूलें।
आखिर में उनकी किताब से लिए चंद और शेर आपकी नज़र हैं..
मन से उठ आंखों तक आया
बूंद बना फिर ढलका कोहरा
मैंने आंचल में भर रक्खा
इसका उसका सब का कोहरा
किस कोहरे की बात करें हम
मौसम का या मन का कोहरा
*
मैं बहुत सोचने लगी हूं ना
ये भी तो सोच ही रही हूं ना
छू के देखो मुझे बताओ फिर
मैं यहाँ से चली गई हूँ ना
*
एक उदासी लिपटी छत के पंखे से
और कमरे में घूम रहा है सन्नाटा
पहले शोर मचा फिर हाहाकार हुई
लेकिन आखिर जीत गया है सन्नाटा
*
मैंने जब इक आंख बनाई काग़ज़ पर
उसने आंख में नहर बहाई काग़ज़ पर
दिल का हाल लिखा चिट्ठी में पढ़ लेना
दिल पर एक लकीर लगाई काग़ज़ पर
पहलू में आ बैठ करूंँ तस्वीर तमाम
देख जरा अपनी तन्हाई काग़ज़ पर
***