Monday, December 21, 2020

किताबों की दुनिया - 221

बच्चे साँस रोके बैठे थे तभी मंच से नाम की घोषणा हुई और उसके बाद जो तालियाँ बजी उन्होंने रुकने का नाम ही नहीं लिया। रूकती भी कैसे ? आखिर ऐसा करिश्मा स्कूल में पहली बार जो हुआ था। लगातार तीसरी बार प्रथम स्थान। आठवीं कक्षा में, नौवीं में और अब दसवीं में भी ।अनवरत बजती तालियों के बीच मुस्कुराता हुआ वो बच्चा मंच पर आया जिसका नाम घोषित करते वक़्त शिक्षक की ख़ुशी का पारावार न था। वो बच्चा इस शिक्षक का ही नहीं स्कूल के हेडमास्टर से लेकर सभी शिक्षकों का चहेता था। सिर्फ़ पढाई में ही नहीं क्रिकेट के मैदान पर जब वो बल्ला ले कर उतरता तो विपक्षी टीम के बॉलर को समझ नहीं आता कि वो उसे कहाँ बॉल डाले जहाँ उसका बल्ला न पहुँच पाये ,कप्तान ये सोच कर परेशान होता कि वो फील्डर कहाँ खड़ा करे ताकि उसके बल्ले से निकली बॉल बाउंडरी पार न कर पाये और जब वो बॉल लेकर ओवर फेंकने जाता तो बल्लेबाज़ अपनी क़िस्मत को कोसता कि कहाँ इसके सामने आ गया। 
वो एक ऐसा बच्चा था जिस पर पूरे स्कूल को गर्व था। स्कूल वालों को तो पक्का यक़ीन था कि अब ग्यारवीं में ये बच्चा टॉप करेगा ही और फिर अगले साल बाहरवीं की बोर्ड परीक्षा में वो मैरिट में आ कर स्कूल का नाम पूरे प्रदेश में रौशन करेगा।  
ग्यारवीं कक्षा में उसके शिक्षकों ने एक मत से उसे साइंस दिलवा दी। शिक्षक चाहते थे कि बच्चा साइंस की पढाई कर इंजिनियर बने जबकि बच्चे का रुझान आर्टस की ओर था। घर और स्कूल वालों के इसरार से बच्चे ने आखिर, बेमन से ही सही, साइंस पढ़ना मंज़ूर किया और क्लास टेस्ट्स में आशा के अनुरूप सबसे आगे रहा। 
वार्षिक परीक्षाएँ सर पर थीं और पढाई पूरे जोर पर, तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। 

खड़े ऊँचाइयों पर पेड़ अक्सर सोचते होंगे 
ये पौधे किस तरह गमलों में रह कर जी रहे होंगे  
*
दहशत के मारे भाग गये दश्त तरफ 
लफ़्ज़ों ने सुन लिया था छपाई का फ़ैसला 
*
बुलन्दियों पे ज़रा देर उसको टिकने दें 
अभी ग़लत है उसे आपका सफल कहना 
*
अफ़सोस, दर्द, टीस, घुटन, बेकली, तड़प 
क्या-क्या पटक के जाती है दुनिया मेरे आगे 
*
आग से शर्त लगाई है तुम्हारे दम पर 
ऐ हवाओं ! न मेरा नाम डुबाया जाए 
*
उसे कुछ इस तरह शिद्दत से ख़ुद में ढूंढता हूँ मैं 
मुसाफ़िर जिस तरह रस्ते में छाया ढूंढते होंगे 
*
रात-भर प्यार हँसी, शिकवे, शिकायत मतलब 
एक कमरे का हंसी ताजमहल हो जाना 
*
बे सबब अपनी  फ़ितरत को बदलने बजाय 
चंद आँखों में खला जाय, यही बेहतर है 
*
रखा था इसलिए काँटों के बीच तूने मुझे 
ऐ मेरी ज़ीस्त ! तुझे इक गुलाब होना था 
*
आँख खुली जब, चिड़िया ने चुग डाले खेत 
अब क्या, अब तो खर्राटे पर रोना था       
 
इस बात को अभी यहीं छोड़ कर चलिए थोड़ा पीछे चलते हैं। राजस्थान के जालोर जिले का एक गाँव है 'सांचोर' जिसका अभी हाल ही में अखबारों में ज़िक्र आया है क्यों कि वहाँ जून 2020 में एक 2.78 किलो का उल्का पिंड बहुत बड़े धमाके साथ गिरा था उसी सांचोर गाँव में 19 सितम्बर 1989 को एक मध्यमवर्गीय परिवार में उस प्रतिभावान बच्चे का जन्म हुआ जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। बच्चे में पढ़ने की भूख उसके पिता को बचपन से ही नज़र आने लगी। ये बच्चा अपनी क्लास की किताबों के अलावा अपने से बड़े भाइयों की क्लास की किताबें खास तौर पर हिंदी की बड़े चाव से पढ़ डालता। 
पिता ने एक बार उसे बाज़ार से राजस्थान पत्रिका द्वारा प्रकाशित बच्चों की पाक्षिक पत्रिका 'बालहँस ' पढ़ने को ला कर दी। इस पत्रिका को पढ़ कर तो जैसे बच्चे में और पढ़ने की भूख बढ़ गयी। पिता के संग जाकर उसने वो दूकान देख ली जहाँ बालहंस के अलावा और दूसरी बच्चों की पत्रिकाऐं जैसे 'नन्दन' ' 'नन्हें सम्राट' आदि मिला करती थीं। पाठ्यपुस्तकों के अलावा अब ये पत्रिकाऐं भी नियमित रूप से पढ़ी जाने लगीं। पत्रिकाएं देख कर बच्चे का मन करता कि उसकी रचनाएँ और फोटो भी ऐसे ही इन पत्रिकाओं में छपे जैसे दूसरे लेखकों के छपती हैं। पत्रिकाओं में छपने की इस प्रबल चाह में बच्चे ने लिखना शुरू किया।      

बहुत हुआ कि हक़ीक़त की छत पे आ जाओ 
भरी है तुमने अभी तक उड़ान काग़ज़ पर 
*
हैरत है पीपल की शाख़ों से कैसे अरमां 
पतले-पतले धागों में आ कर बँध जाते हैं 
*
पेशानी पर बोसा तेरी चाहत का 
दिल पर कितने जंतर-मंतर करता है 
*
हर इक जगह तलाशते हैं अपना आदमी 
कहने को जात-पात से हैं कोसो दूर हम 
*
अजब-सा ख़ौफ़ है बस्ती में तारी 
शहर को धर्म का दौरा पड़ा है 
*
नाज़ुक मन पर रंग हज़ारों चढ़ते हैं 
दिल से दिल की जब कुड़माई होती है 
*
ज़्यादा सहूलतों के हैं नुक्सान भी ज़्यादा 
साये बड़े तो होंगे ही परबत के मुताबिक़ 
*
कुछ नहीं मुझ में कहीं भी कुछ नहीं है 
पर 'नहीं' में भी तेरी मौजूदगी है 
*
अगरचे छाँव है तो धूप भी है 
कई रंगों में कुदरत बोलती है 
*
 हर क़दम पर हादसों का डर सताता है यहाँ 
ज़िन्दगी है हाइवे का इक सफ़र अनमोल जी  
   
ग्यारवीं में बच्चे ने पहली कविता लिखी जो, कि जैसा उस उम्र का तकाज़ा होता है, थोड़ी रोमांटिक थी, लिहाज़ा उसने किसी को नहीं दिखाई। फिर देश प्रेम से ओतप्रोत एक कविता लिखी जो हर किसी को पढ़वाने लायक थी। बच्चा चाहता था कि इस कविता को वो अपने पिता को दिखाए क्यूंकि उन्हीं की प्रेरणा से ही उसने लेखन शुरू किया था। बच्चा अपनी इस कविता को पिता को दिखाता उस से पहले ही पिता बीमार हो गये। बच्चे ने सोचा कि दो तीन दिन बाद जब पिता ठीक हो जायेंगे तब दिखायेगा लेकिन 'तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी'    
पिता  के अचानक इस तरह दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद जैसे बच्चे के पाँवों तले से ज़मीन ही ख़िसक गयी। घर में एक मात्र वो ही कमाने वाले थे लिहाज़ा उनके जाने के बाद घर की माली हालात बिगड़ गयी। गंभीर आर्थिक संकट मुँह बाए खड़ा हो गया। ग्यारवीं की परीक्षाएँ सर पर थीं लेकिन मातमपुर्सी के रस्मो रिवाज़ के चलते बच्चा उन दिनों एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाया जिन दिनों उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। नतीज़ा वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था।  प्रथम श्रेणी में पास होने की उम्मीद में पढ़ने वाले बच्चे की सप्लीमेंट्री आयी। आकाश नापने के ख़्वाब देखने वाले परिंदे के मानों पर ही कतरे गये। 

लेखन छूटा, स्कूल छूटा, पढाई छूटी लेकिन हिम्मत और हौंसला नहीं छूटा। बच्चे ने परिवार को आर्थिक सम्बल देने के लिए गाँव में अपनी परचूनी की छोटी सी दूकान खोल ली और साथ ही ख़ाली वक़्त में प्राइवेटली बारहवीं की परीक्षा की तैयारी की और पास हुआ।           

चाय का कप, ग़ज़ल, तेरी बातें 
कैसे अरमान पलने लगते हैं 
*
जो फेंकी ज़िन्दगी ने यार्कर थी 
उस अंतिम गेंद पर छः जड़ चुका हूँ 
*
दफ़्तर, बच्चे ,बीवी, साथी, रिश्ते-नाते, दुनियादारी 
सबके सबको खुश रख पाना इतना तो आसान नहीं है 
*
बहुत आसान है मुश्किल हो जाना 
बहुत मुश्किल है पर आसान होना 
*
बहुत मासूम है दिल गर बिछड़ जाये कोई अपना 
फ़लक पर नाम का उसके सितारा ढूंढ लेता है 
*
आदमी बनने की ख़ातिर छटपटाता वो रहा 
रब समझ कर तुम इबादत उम्र भर करते रहे 
*
पीठ से खंज़र ने करली दोस्ती 
और फिर  बदला अधूरा रह गया 
*
समंदर हो कि मौसम हो या फिर लाचार इंसां हो 
कहाँ समझे जहां वाले किसी की ख़ामोशी की हद 
*
 ख़त के लफ़्ज़ों के बीच मैं खुद को 
उसकी टेबल पे छोड़ आया हूँ 
*
थोड़ा अच्छा होना, होता है अच्छा  
वरना मँहगी पड़ जाती अच्छाई है   

बच्चे की पढ़ने की ललक देखिये कि घोर आर्थिक तंगी होने के बावज़ूद उसने अपनी दूकान पर नियमित अख़बार मँगवाना शुरू दिया क्यूँकि अख़बार के साथ अलग अलग दिन विशेष परिशिष्ट जो आते थे। परचूनी की दूकान से थोड़ी बहुत आमदनी होने लगी। धीरे धीरे कहावत 'हिम्मत ए मर्दां मदद ए ख़ुदा' सच होने लगी। मुश्किल हालात ने बच्चे को मानसिक रूप से मज़बूत बनाया और अपने पाँव पर खड़े होने का हुनर तो सिखाया लेकिन आगे क्या करना है ये समझाने वाला न कोई घर में था न गाँव में । बच्चे ने अपनी समझ के अनुसार सरकारी नौकरी पाने के लिए  बी.ऐ. में अंग्रेज़ी विषय लिए, पास हुआ लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिली। एक दिन अपनी दूकान किसी सौंप कर वो एक प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ाने की नौकरी करने लगा। स्कूल में नौकरी इसलिए की ताकि पढ़ने लिखने का मौका मिलता रहे।कुछ समय बाद अपना एक छोटा सा कोचिंग सेंटर खोल लिया जो चल निकला। जिंदगी ढर्रे पर लौटने लगी। 
तभी सं 2009 के अंत में आमिर खान की फ़िल्म आयी 'थ्री इडियट्स ' जिसे देख बच्चे को एहसास हुआ कि वो जो कर रहा है उसे जीना नहीं कहते। ज़िन्दगी में अगर अपने सपने साकार करने का प्रयास न किया तो जीना व्यर्थ है। सपना था लेखक बनने का। सन 2010 इस बच्चे के जीवन में टर्निंग प्वाइंट बन कर आया। अपने सपने साकार करने ये लिए इस बच्चे ने अपने जमे -जमाये काम के साथ-साथ गाँव भी छोड़ दिया।   
सपनों को साकार करने की धुन में जोख़िम उठाने वाला ये बच्चा आज हिंदी ग़ज़ल के आकाश में एक चमकता सितारा है जो के.पी.अनमोल के नाम से जाना जाता है।  इन्हीं की ग़ज़लों की क़िताब 'कुछ निशान कागज़ पर' हमारे सामने है जिसे 'किताबगंज प्रकाशन' ने प्रकाशित किया है। ये ग़ज़लें पाठक के दिल पर निशान छोड़ने में सक्षम हैं।
 

खूब ज़रूरी हैं दोनों 
झूठ ज़रा-सा ज़्यादा सच 
*
ख़ुद को बना सका न मैं सौ कोशिशों के बाद 
और उसने एक बार में छू कर बना दिया 
*
सवाल ये नहीं है लौट कैसे आया वो 
सवाल ये है कि वो लौट कैसे आया है 
*
कुछ रोज़ कोई मेरा भी ज़िम्मा सँभाल ले 
तंग आ चुका हूँ अब तो मैं खुद को सँभाल कर   
*
कुछ न मन का कर सकें, ये वक़्त की कोशिश रही 
काम मन के ही मगर हम, ख़ासकर करते रहे    
               
अनमोल जी ने गाँव छोड़ जोधपुर का रुख़ किया जहाँ उन्हें एक स्वस्थ साहित्यिक माहौल मिला। जोधपुर में स्वतंत्र लेखन के साथ कम्पीटीटिव परीक्षाओं की तैयारी भी चलने लगी। जोधपुर के वरिष्ठ साहित्यकारों के सानिध्य से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। इतना सब होने के बावज़ूद अनमोल जी को अपनी मंज़िल का रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था। तभी उनके जीवन में आये एक शख़्स ने उन्हें हिंदी में एम.ऐ. करने की सलाह दी। इस सलाह से जैसे मंज़िल का रास्ता आलोकित हो गया। हिंदी शुरू से अनमोल जी का प्रिय विषय रहा था। उन्होंने हिंदी में सिर्फ़ प्रथम श्रेणी से एम. ऐ ही नहीं किया बल्कि कॉलेज में टॉप भी किया। 
व्यक्तिगत कारणों से वो 2014 में जोधपुर से रुड़की आ गए और फिर यहीं के हो कर रह गए। रुड़की में उन्होंने वेब डिजाइनिंग का कोर्स किया और फिर उसी को पेशा बना लिया। वेब डिजाइनिंग से उनकी भौतिक जरूरतें पूरी होती हैं लेकिन अपनी मानसिक ज़रूरीयात को वो 'हस्ताक्षर' वेब पत्रिका निकाल कर पूरा करते हैं। पिछले पाँच से अधिक वर्षों से लगातार प्रकाशित  'हस्ताक्षर' हिंदी की प्रतिष्ठित वेब पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुकी है। इस अनूठी मासिक वेब पत्रिका में आप हिंदी में साहित्य की लगभग सभी विधाओं को पढ़ सकते हैं।  यदि आप किसी विधा में लिखते हैं तो अपना लिखा प्रकाशन के लिए भेज भी सकते हैं। हस्ताक्षर वेब पत्रिका का अपना एक विशाल पाठक समूह है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। 

जीवन में अब अनमोल वो काम करते हैं जिसे उनका दिल चाहता है। थ्री ईडियट्स फिल्म की टैग लाइन की तरह उनके जीवन में अब 'आल इज वैल' है।

ज़रा सा मुस्कुराने लग गये हैं 
मगर इसमें ज़माने लग गये हैं 

जवां उस दम हुईं रूहें हमारी 
बदन जब चरमराने लग गये हैं 

बस इक ताबीर के चक्कर में मेरे 
कई सपने ठिकाने लग गये हैं 

मुसलसल अश्क़ , बेचैनी उदासी 
मेरे ग़म अब कमाने लग गये हैं 

इस 'ऑल इज वैल' के पीछे कितना संघर्ष छुपा है इसका किसी को अंदाज़ा नहीं है। अनमोल जी के जीवन की कहानी हमें प्रेरणा देती है कि ऊपर वाले के दिए इस जीवन को हमें अपने हिसाब से अपनी ख़ुशी से जियें। ऊपर वाला माना बहुत ही कम लोगों को सब कुछ तश्तरी में परोस कर देता है लेकिन सबको एक चीज बहुतायत में देता है वो है 'हिम्मत'। अफ़सोस बहुत कम लोग ऊपर वाले के दिए इस गुण को अपनाते हैं। अपने सपनों को साकार करने में संघर्ष करना पड़ता है और जो हिम्मत से संघर्ष करता है उसे मंज़िल मिलती ही है।  
अनमोल जी की बचपन से छपने की चाह ने ही उन्हें आज इस मुकाम पर ला खड़ा किया है। 'कुछ निशान कागज़ पर ' से पहले उनका एक ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' भी छप चुका है। हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़ल कारों जैसे श्री ज़हीर कुरेशी, ज्ञान प्रकाश विवेक , हरेराम समीप , अनिरुद्ध सिन्हा आदि ने उनकी ग़ज़लों को अपने ग़ज़ल संकलन में शामिल किया है उन पर आलोचनात्मक लेख लिखे हैं , ये बात युवा ग़ज़लकार के लिए किसी भी बड़े ईनाम से कम नहीं है।
हिंदी ग़ज़ल पर अनमोल जी के लिखे आलोचनात्मक लेख बहुत चर्चित हुए हैं । उनकी ग़ज़लें देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में निरंतर प्रमुखता से स्थान पाती हैं। दूरदर्शन राजस्थान और आकाशवाणी से भी उनकी ग़ज़लें प्रसारित हुई हैं। इसके अलावा उनकी ग़ज़लें , न्यूज़ीलैंड की 'धनक', केनेडा की 'हिन्द चेतना', सऊदी अरब की 'निकट', आयरलैंड की 'एम्स्टेल गंगा' और न्यूयार्क की 'NASKA; जैसी लोकप्रिय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। सहज सरल भाषा में गहरी बात व्यक्त करने में सक्षम ये ग़ज़लें पढ़ते सुनते वक़्त सीधे दिल में उतर जाती हैं। 
  
मृदु भाषी अनमोल जी आज जहाँ हैं, वहाँ बहुत खुश हैं और संतुष्ट हैं यही तो एक सफल जीवन की उपलब्धी होती है। 

इतना सब कुछ मिल जाने पर भी अनमोल जी को अपनी पहली रचना अपने पिता को न सुना पाने का ग़म अभी भी सालता है। वो इस बात का ज़िक्र करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं। हमें यकीन है कि चाहे वो अब उनके आसपास मौज़ूद नहीं हैं लेकिन जहाँ भी हैं आज अपने बेटे को इस मुक़ाम पर देख कर खुश होते होंगे। अनमोल की कामयाबी के पीछे उनके पिता की अदृश्य दुआओं का ही हाथ है। आज वो जो हैं उनकी दी हुई तरबियत का ही नतीज़ा हैं। 
अनमोल जी को उनके उज्जवल भविष्य के लिए आप उनके मोबाईल न. 8006623499 पर शुभकामनायें देते हुए उनसे इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ सकते हैं। 
आईये अंत में उनकी ग़ज़ल ये शेर पढ़वाता चलता हूँ।         

ये क्यों सोचूँ किसी ने क्या कहा है 
मेरे जीने का अपना फ़लसफ़ा है 

बहुत गहरी ख़ामोशी ओढ़ मुझमें 
समंदर दूर तक पसरा पड़ा है 

मेरी नज़रों से देखो तुम अगर तो 
इसी दीवार में इक रास्ता है 

नदी बहती है कितना दर्द लेकर 
किनारों को कहाँ कुछ भी पता है

Monday, December 7, 2020

किताबों की दुनिया - 220

ये जो मौजूद है इसी में कहीं 
इक ख़ला है तुझे नहीं मालूम 

तब कहाँ था वो अब कहाँ पर है 
पूजता है ! तुझे नहीं मालूम 

इश्क़ खुलता नहीं किसी पर भी 
दायरा है ! तुझे नहीं मालूम 

रोते-रोते ये क्या हुआ तुझको 
हँस पड़ा है ! तुझे नहीं मालूम 

जिस किताब का ज़िक्र हम करने जा रहे हैं उसके शायर के बारे में किताब के फ्लैप पर क्या  लिखा है आइये सबसे पहले वो पढ़ते हैं। "पहली बात कि ये इस शायर की शायरी में जब मुहब्बत दाख़िल होती है तो पूरी कायनात में फूल खिलने लगते हैं। गुस्सा फूटता है तो बदला नहीं बेबसी होती है। जब ये शायर हैरत के संसार में दाख़िल होता है तो पाठक भी हैरतज़दा हो जाते हैं और सबसे बड़ी बात ये कि ये बने बनाये ढर्रे पर नहीं चलना चाहता और ख़ुद ही सब अनुभव करना चाहता हैं। 
सबसे ख़ास बात ये शायर बहुत ईमानदारी से शायरी करता हैऔर जैसा कि इस किताब भूमिका में लिखा है 'ईमानदार शायरी यूँ ही अवाम को बैचैन करने वाली होती है। ये कुछ-कुछ ठहरे पानी में कंकर, बल्कि भारी पत्थर फेंकने का काम है। ज़ाहिर है पानी उछलेगा आवाज़ होगी और छींटे पड़ेंगे तो लोग मार से बचने की कोशिश ही करेंगे, मगर ईमानदार शायरी से कैसे बचा जा सकता है ? बंद कमरे के दरवाज़ों, दीवारों को पार कर सुनने की शक्ति पर दस्तकें ही नहीं देती अपितु हथौड़े बजाती है। "      
    
उसे भी ज़िद थी कि माँगूँ तो सब जहाँ देखे   
दराज़ मैं भी कहाँ हाथ करने वाला था   
दराज़ : फैलाना 

खुली हुई थी बदन पर रूवां रूवां आँखें 
न जाने कौन मुलाक़ात करने वाला था 

मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी 
चिराग़ जैसे कोई बात करने वाला था 

क़िताब 'सरहद के आर-पार की शायरी ' शीर्षक के अंतर्गत छपने वाली सीरीज जिसके बारे में आप पहले पढ़ चुके हैं में दो शायर होते हैं एक भारत से दूसरे पाकिस्तान से। इस बार भारतीय शायर हैं जनाब 'तुफ़ैल चतुर्वेदी' साहब जिनकी बेहतरीन शायरी के अलावा इस किताब में आप उनकी लिखी लाजवाब भूमिका भी पढ़ सकते हैं उन्होंने ने ही अपनी और पाकिस्तानी शायर की शायरी के संपादन की जिम्मेवारी भी उठाई है। पाकिस्तानी शायर हैं जनाब 'रफ़ी रज़ा' साहब जिनकी उर्दू ग़ज़लों का लिप्यांतरण नौजवान शायर 'इरशाद खान 'सिकंदर' साहब ने किया है।  
आज हम पाकिस्तानी शायर 'रफ़ी रज़ा' की शायरी और उनकी ज़िन्दगी पर थोड़ी बहुत बात करेंगे। थोड़ी बहुत इसलिए कि उनकी शायरी पर ही इतनी लम्बी बात हो सकती है कि जिसे समेटने में अच्छी-ख़ासी मोटी क़िताब भी छोटी पड़े। 
रफ़ी रज़ा साहब का नम्बर तुफ़ैल साहब ने दिया और रफ़ी साहब से अपने बारे में मुझे बताने की सिफ़ारिश सिकंदर भाई ने की, मैं दोनों का शुक्रगुज़ार हूँ क्यूंकि उनके सहयोग के बिना ये पोस्ट संभव नहीं थी। 
पाकिस्तान में चिनाब नदी के किनारे 'रबवह' (रबवा) जो पंजाब प्रोविंस में है में 9 अक्टूबर 1962 को मोहम्मद रफ़ी का जन्म हुआ। ये नाम उनकी ख़ाला ने बहुत इसरार करके रखवाया जो भारत के विलक्षण और लोकप्रिय गायक 'मोहम्मद रफ़ी' की जबरदस्त प्रशंसक थीं। बाद में मोहम्मद नाम कहीं पीछे छूट गया और सिर्फ़ रफ़ी रह गया। रज़ा तखल्लुस भी उन्होंने बाद में रखा। अहमदिया जमात में पैदा हुए रफ़ी रज़ा का जीवन आसानी भरा नहीं रहा। यहाँ ये बताना जरूरी हो जाता है कि अहमदिया इस्लाम का एक संप्रदाय है। इसका प्रारंभ मिर्ज़ा गुलाम अहमद (1835-1908) के जीवन और शिक्षाओं से हुआ। अहमदिया आंदोलन के अनुयायी गुलाम अहमद को मुहम्मद साहब के बाद एक और पैगम्बर (दूत) मानते हैं जबकि इस्लाम में पैगम्बर मोहम्मद ख़ुदा के भेजे हुए अन्तिम पैगम्बर माने जाते हैं। दुनिया भर के दूसरे मुसलमान इन्हें काफ़िर मानते है। इनके हज करने पर भी प्रतिबंध है। सन 1974 में अहमदिया संप्रदाय के मानने वाले लोगों को पाकिस्तान में एक संविधान संशोधन के जरिए गैर-मुस्लिम करार दे दिया गया था । एक मुस्लिम देश में ग़ैर-मुस्लिम माने जाने वाले समुदाय की क्या हालत होती है ये वही समझ सकता है जिसने इसे भुगता है।     .

  
दुख का इलाज ढूंढ रहा था बहाव में 
रो-रो के मैंने और दुखा ली हुई है आँख 
*
जाते-जाते न मुड़ के देख मुझे 
शाम के वक़्त शाम होने दे 
*
ये जो कनारे-चश्म तड़प सी है, रंज है 
ऐ दिल ! यक़ीन कर अभी रोया नहीं गया 
*
मैं बुझाता हूँ किसी इश्क़ में मर्ज़ी से अगर 
जा चमकता है कहीं और सितारा मेरा 
*
मैं शाख़े-उम्र पे बस सूखने ही वाला था 
लिपट गया कोई आकर हरा-भरा मुझसे 
*
इल्म ख़ुद भी बड़ी मुसीबत है 
इससे बढ़ कर वबाल है ही नहीं 
*
उसको अंदाज़ा मिरी प्यास का फिर 
रेत को पानी पिलाने से हुआ 
*
दुश्मन से ही लड़ा है अभी ख़ुद से तो नहीं 
मैदाने-कार-ज़ार में आया नहीं है तू 
 मैदाने-कार-ज़ार : युद्ध स्थल 
*
तू ने नफ़रत से मिरी जान तो क्या लेनी थी 
मैं यही काम मुहब्बत से किए जाता हूँ 

एक चलना है कि खिंचता ही चला जाता हूँ 
एक रुकना है कि ताकत से किए जाता हूँ  
 
रबवह(रबवा) में उन्होंने पहले 'तालीम उल--इस्लाम' स्कूल और फिर कॉलेज से ऍफ़ एस सी तक की तालीम हासिल की। तालीम के साथ-साथ देश दुनिया में फैले मज़हबों के बारे में भी जानकारी की। आठवीं क्लास तक आते-आते वो इस्लाम की तारीफ़ पढ़ चुके थे। 
पढ़ने का शौक रफ़ी साहब को दीवानगी की हद से आगे तक था। ये शौक़ उन्हें अपनी वालिदा से मिला। स्कूल की किताबों के अलावा वो जो जहाँ कहीं कुछ भी लिखा मिलता उसे बहुत दिलचस्पी से पढ़ते चाहे वो सौदा सुलफ़ के साथ आये कागज़ पर लिखा हो या दवाओं के साथ आये रैपर पर। दवाओं के रैपर पढ़ पढ़ कर तो उन्हें बहुत सी दवाओं के फार्मूले तक याद हो गए थे जो अमूमन मेडिकल सेल्स रिपेरजेंटेटिव को भी याद नहीं हुआ करते।
ऍफ़ एस सी करने के बाद वो रबवह छोड़ कर इंस्ट्रूमेंटेशन इंजिनीयरिंग के कोर्स के लिये, जो तीन साल का था, सरगोधा के पॉलिटेक्निक कॉलेज में पढ़ने चले गये। ये कोर्स तीन की जगह चार साल में पूरा हुआ ,क्यों ? इसके पीछे की कहानी ये बताती है कि किसी भी मुल्क में  डिक्टेटरशिप लागू होने पर आम इंसान की ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ता है। डिक्टेटर को जो वो सोचता है उसे लागू करने की पूरी आज़ादी होती है वो अपनी भलाई के लिए कुछ भी कर गुजरने से गुरेज़ नहीं करता। उसे अवाम की कोई परवाह नहीं होती। ये 'जिया उल हक़' के शासन काल की बात है। तक्षिला के पॉलिटेक्निक कॉलेज में कुछ लड़कों ने जिया के ख़िलाफ़ बग़ावत की तैयारी के लिए हथियार कॉलेज के एक कमरे में छुपाने शुरू कर दिए। ये बात फ़ौजियों को किसी तरह पता चल गयी। जिया उल हक़ तक जब ये ख़बर पहुंची तो उसने, बजाय एक तक्षिला के पॉलिटेक्निक कॉलेज पर एक्शन लेने के, देश के सभी पॉलिटेक्निक कॉलेजों पर एक्शन ले लिया और उन्हें एक साल के लिए बंद कर दिया। इस तुग़लकी निर्णय से पूरे मुल्क़ के बेक़सूर छात्रों का जिनका इस बग़ावत से दूर दूर का भी रिश्ता नहीं था ,पूरा एक साल ख़राब हो गया। 
इंस्ट्रूमेंटेशन की पढाई के साथ साथ रफ़ी साहब ने प्राइवेटली बी. ऐ. की डिग्री जिसमें उर्दू एडवांस और लिटरेचर एडवांस के साथ साथ फ़ारसी भी शामिल थी , हासिल कर ली। इस तरह उन्हें उर्दू साहित्य की अच्छी खासी जानकारी हो गयी।         
       
ए वाइज़ा तू ख़ुदा की तरफ़ से है ही नहीं 
इसीलिए तिरा लहजा डपटने वाला है 
वाइज़ा : धर्मोपदेशक 
*
डर रहा था मैं गहरी खाई से 
पाँव फिसला तो मेरा डर निकला 
*
तो क्या दुआएँ करूँ सानहों के होने की 
गले मिले हैं सभी सानहे के होने  से 
सानहों : दुर्घटनाओँ 
*
जिसकी जुबां का ज़ख्म मिरी रूह तक गया 
कौन उससे पूछता तिरी तलवार है कहाँ 
*
तू मिल रहा है मुझसे मगर आग है किधर 
मिट्टी को क्या करूँ मैं ,मुझे जान चाहिये 
*
वो रौशनी मिरी बीनाई ले गयी पहले 
फिर उसके बाद मिरा देखना मिसाल हुआ 
*
ख़ुदा का नाम लिया और फिर भरा सागर 
लो मैं शराब को ख़ुद ही हराम करने लगा 
*
बहुत दिनों से ख़मोशी थी चीख़ कर टूटी 
जो ख़ौफ़ था मिरे अंदर दहाड़ कर निकला 
*
महक रही है कोई याद गुफ़्तगू की तरह 
सुलग सुलग के अगरबत्ती जल रही है कोई  
*
वो पहली मुहब्बत चली आती है बुलाने 
वो पहला ख़सारा मुझे रुकने नहीं देता 
ख़सारा : घाटा 


रफ़ी साहब को खेल कूद में बेहद दिलचस्पी थी। स्कूली दिनों में वो तकरीबन हर खेल की टीम में शिरक़त करते और टीम को जिताते लेकिन उनके इस हुनर को किसी खास टूर्नामेंट के वक़्त ,सिफ़ारिशी बच्चों की ख़ातिर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता। जब भी स्कूल के बाहर कोई टीम भेजनी होती उसमें उनकी जगह किसी रसूख़दार बच्चे का नाम होता। ये भेदभाव दुनिया भर में खेलों में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी में कहाँ नहीं होता? रफ़ी साहब इस बात को जानते थे लेकिन जब ये भेदभाव वो अपने साथ जरूरत से ज्यादा होते देखते तो इस नाइंसाफी पर खून के घूँट पी कर रह जाते। उन्होंने टीम वाले खेलों को छोड़ उन खेलों की तरफ़ रुख़ किया जिसमें आप अकेले अपने दमखम पर हिस्सा लेते हैं जैसे एथेलेटिक्स और खूब मैडल जीते। 
आठवीं जमात से रफ़ी साहब को लिखने का शौक़ परवान चढ़ा। उन्हें लगा कि कहानियाँ लिखने से ग़ज़लें और नज़्म लिखना आसान है। इसके लिए उस्ताद की तलाश शुरू हुई, कुछ मिले भी लेकिन वहां भी जब उन्होंने दोयम दर्ज़े के शायरों को वाह वाही पाते और उस्ताद को उनकी हौसला अफ़ज़ाही करते देखा तो उस्ताद की तलाश बंद कर दी और किताबों का सहारा लिया। किताबों को अपना उस्ताद बनाया उन्हीं से उरूज़ सीखा और ग़ज़ल में लफ्ज़ बरतने का सलीका भी। आज वो जिस मुकाम पर हैं वो अपने इस पढ़ने की आदत की वज़ह से ही हैं।  
उन्होंने अपनी ग़ज़ल सं 1979 में कही जो लाहौर के उस रिसाले में छपी जो अहमीदियों में बहुत मक़बूल था। बाद में उनकी ग़ज़लें बग़ावती तेवर वाली थीं जो जिया की हुकूमत के ख़िलाफ़ थीं लेकिन किस्मत से फ़ौजियों की नज़रों से बच गयीं वरना उन दिनों बग़ावत करने और शासक के ख़िलाफ़ लिखने वालों को उठा कर जेल में डाल दिया जाता था। 
धीरे धीरे वो पहले छोटी छोटी नशिस्तों में और फिर मुशायरों में ग़ज़लों में पढ़ते पढ़ते मक़बूल होते तो होते गए लेकिन उन्हें ये मकबूलियत थोथी लगी। उन्हें  ये बात समझ में आने लगी कि अगर शायरी की दुनिया में अपना नाम पुख़्ता तौर पर दर्ज़ करवाना है तो वो लिखना पड़ेगा जो सबसे अलग हो। चौंकाने वाली शायरी कुछ वक्त आपको वाह वाही दिला देती है लेकिन उसके बाद उसका कोई वजूद नहीं रह जाता। 

करती है हर घड़ी मिरे दिल में शुमारे-उम्र 
क़िस्तों में क़ैद से यूँ रिहा हो रहा हूँ मैं 
शुमारे-उम्र : उम्र की गिनती  
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बदन थमाते हुए ये नहीं बताया था 
तमाम उम्र ये कोहे-गिराँ पकड़ना है 
कोहे-गिराँ : भारी पहाड़ 
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ये सूरज बुझ रहा है जो उफ़क़ में 
मुझे अपनी कहानी लग रही है 
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एक इस उम्र का ही काटना काफ़ी नहीं क्या 
इश्क़ का बोझ मिरी जाँ पे इज़ाफ़ी नहीं क्या 
इज़ाफ़ी : अतिरिक्त 
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तुम मिल गए तो देखो तुम्हारी ख़ुशी को फिर 
चारों तरफ़ से दुख ने हिफाज़त में ले लिया 
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सब्ज़ होने से हक़ीक़त तो नहीं बदलेगी 
लाख इतराए मगर अस्ले-शजर मिट्टी है 
अस्ले-शजर : पेड़ की वास्तविकता 
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अब बोलने लगा हूँ ज़मीं के ख़िलाफ़ भी 
मुझको बना रहा है निडर इतना आसमान 
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नतीजा कुछ भी निकले कुछ तो निकले 
मुसलसल इम्तिहाँ का क्या किया जाये 
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सुनने से तो ख़ुशबू का तअल्लुक़ भी नहीं है 
क्यों बात वो करता है महकने के बराबर 
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 ये फड़फड़ाता हुआ शोला खोल दे कोई 
बंधा चराग़ से क्यों आग का परिंदा है 

इंस्ट्रूमेंटेशन के बाद उनकी दिलचस्पी इलेक्ट्रॉनिक्स की और हुई इसलिए उन्होंने इलेक्टॉनिक्स के क्षेत्र में तालीम हासिल की और पाकिस्तान में जब कम्यूटर आया तो वो उस इंडस्ट्री के साथ जुड़ गए। ये उनकी ज़िन्दगी का टर्निंग प्वाइंट था क्यूंकि इसी इंडस्ट्री ने उन्हें कैनेडा में बसने और नौकरी का मौका दिया और वो पाकिस्तान से कैनडा शिफ्ट हो गए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कम्यूटर कंपनियों में काम करते करते वो जल्द ही उकता गए और फ़ार्मेसी की और मुड़ गए  लेकिन वहां भी उनका मन ज़्यादा देर तक नहीं टिका । बेचैनी की हालत में किसी ने उन्हें 'एंटोमोलोजी' का कोर्स करने की सलाह दी। एंटोमोलोजी आप जानते होंगे कि इंसेक्ट्स और उनके इंसान के साथ संबंध का विज्ञान है। केनेडा की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से उन्होंने एंटोमोलोजी का कोर्स किया और वो अभी उसी से जुड़ी इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं। 
ये सब करने के साथ साथ शायरी का सफ़र भी लगातार चलता रहा। शायरी में उन्होंने अपनी मेहनत से अपनी जगह बनाई।  रफ़ी साहब का मानना है कि आप जो कुछ भी करें दिल से करें और सबसे अलग करने की सोचें। पगडंडियों पर चलने वालों के पाँव के निशान उस पर ज़्यादा देर तक नहीं रह पाते, यदि आप अपने पाँव के निशान छोड़ना चाहते हैं तो आपको अलग रास्ते पर ही चलना होगा। एक पिटे हुए धारे से खुद की शायरी को अलग रखना बेहद मुश्किल काम है। रफ़ी साहब चाहते हैं कि उनकी शायरी पढ़ कर लोग पहचान लें कि ये क़लाम रफ़ी रज़ा का है। 

मिरे मिज़ाज को बख़ियागरी नहीं आती 
तअल्लुक़ात का धागा उधड़ता रहता है 
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खिड़की से देखते हुए क्यों पीछे हट गईं 
क्या रौशनी गली की बुझाने लगी हो तुम 
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सिमटने की कोई हद पार कर आया हूँ क्या मैं 
जो अब मेरा बिखर जाना ज़रूरी हो गया है 
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कहना तो था कि ख़ुश हूँ तुम्हारे बग़ैर भी  
आँसू मगर कलाम से पहले ही गिर गया 
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सोचते रहने में अंदाज़ा नहीं था मुझको 
सोचते रहने में मुहलत ने निकल जाना है 
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न जाने किसको ज़रुरत पड़े अँधेरे में 
चराग़ राह में देखा था घर नहीं लाया 
*
सर उठाता हूँ तो ढह जाता हूँ 
कोई दीवार हूँ मिट्टी की तरह 

रफ़ी साहब का मानना है कि "एक नयी धारा या सोच या तर्ज़, जिसे कबूलियत भी मिले बल्कि क़बूलियते आम मिले, को शायरी में पैदा करना बहुत मुश्किल काम है क्यूंकि यदि अलग करने की फ़िक्र में आप शायरी की जुबान या उसकी स्टाइल या डिक्शन बदल देते हैं तो फिर उसकी तासीर कम हो जाने का डर रहता है। उर्दू ग़ज़ल का मसअला ये है बल्कि ख़ासियत ये है कि इसे तग़ज़्ज़ुल के बगैर क़ुबूलियत नहीं मिलती। तग़ज़्ज़ुल का मतलब ऐसे है जैसे जब आपको भूख़ लगती है और आपको खाना दिखाया जाता है तो उस खाने की खुशबू से उसको देखने से आपके मुँह में स्लाइवा बनना शुरू हो जाता है जिसे राल टपकना भी कहते हैं । ग़ज़ल में तग़ज़्ज़ुल वो राल ही है जो श्रोता सुनने से पहले खुद को तैयार करते हुए अपने ज़ेहन को एक खास रौ में ले के आता है एक ख़ास माहौल उसके ज़ेहन में होता है वो उसी को एक्पेक्ट करता और उसी पर रिएक्ट करता है। याने भर पेट खाने के बावजूद खाने को देखते रहने और उसे लगातार खाने को दिल करे। जिसे खा कर वो कहे कि अहा स्वाद आ गया। ये स्वाद ही तग़ज़्ज़ुल है। स्वाद जो आपके सेंसेस को जगा दे।  बासी फ़ीका अधपका  खाना सिर्फ़ बेहद भूखा इंसान ही खा सकता है। भरपेट इंसान को तो उसे देखना भी गवारा नहीं होगा खाना तो दूर की बात है ।  देखिये दुनिया भर में मसाले वही होते हैं नमक मिर्च हल्दी धनिया आदि उनका अनुपात ही खाने में स्वाद लाता है , ये अनुपात सीखना ही असली हुनर है।  
 अपनी शायरी में जो ये स्वाद याने तग़ज़्ज़ुल पैदा कर लेता है वो क़ामयाब हो जाता है।
शायरी सहज होनी चाहिए ,बहती हुई सी ,रवानी लिए हुए। चौंकाने वाली शायरी की उम्र लम्बी नहीं होती चाहे उसे कितनी भी मक़बूलियत मिली हो। कामयाबी के लिए एक बात ये भी है कि अपनी शायरी में आप मुश्किल लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से परहेज़ करें। उन्होंने अपनी शायरी में उन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल भी किया है  जिनमें फ्लो नहीं होता जैसे पछाड़ उखाड़ झाड़ आदि और इसे लोगों ने इसे पसंद भी किया।       
      
कौन कहता है कि ईमान से डर लगता है 
मुझको अल्लाह के दरबान से डर लगता है 

ग़ैर के डर का वो अंदाज़ा लगा सकता है 
जिस मुसलमां को मुसलमान से डर लगता है 

झाँकते क्यों नहीं ख़ुद अपने गिरेबान में आप 
आप को अपने गिरेबान से डर लगता है 

कल  सुनी गुफ़्तगू हैवानों की छुपा कर मैंने 
सभी कहते थे कि इंसान से डर लगता है 

रफ़ी साहब ने कुछ अलग किस्म की शायरी करने के लिए अपने साथ के और पुराने शायरों को पढ़ना शुरू किया और उनपर आलोचनात्मक लेख भी लिखने लगे। आलोचना में उन्होंने बहुत ईमानदारी से काम किया और आलोचना करते वक्त ये नहीं देखा कि शायरी उनके दोस्तों की है या दुश्मनों की। कुछ तो मज़हबी पाखण्ड के विरोधी विचारों के कारण और कुछ आलोचना में सच कहने के कारण उनके दुश्मनों की तादाद दोस्तों से बहुत ज़्यादा हो गयी। इससे उनकी सोच में बिल्कुल भी फ़र्क नहीं पड़ा। वो साफ़ तौर पर सबसे  कहते भी हैं कि फलाँ शख़्स की शायरी में मुझे ये कमी नज़र आ रही है यदि आप मेरी दलील से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते तो तो कोई बात नहीं आप बताएं कि मैं कहाँ ग़लत हूँ और यदि आप साबित करते हैं कि मैं ग़लत हूँ तो मुझे अपनी ग़लती मानने में कोई ऐतराज़ नहीं है लेकिन होता इसके उलट है लोग आलोचना से तिलमिला जाते हैं और व्यक्तिगत बातों पर कीचड़ उछालना शुरू  कर देते हैं। रफ़ी साहब ऐसी लोगों और उनकी बातों से घबराते नहीं हैं बिना डरे अपनी बात पुख्ता ढंग से कहते हैं। 
तुफ़ैल साहब ने किताब की भूमिका में लिखा भी है कि "ग़लत को ढोल बजा कर सबके सामने लाना इसलिए भी ज़रूरी है कि ऐसा न किया जाये तो दुरुस्त के साथ सदियों से होती आयी नाइंसाफ़ी बंद नहीं हो पायेगी। ये विरोध बड़े पैमाने पर लोगों में उलझन पैदा करता है। कान-पूँछ लपेट कर कूँ कूँ करते हुए किसी तरह ज़िन्दगी जीने वाले लोग ग़ुर्राने वाला लहजा नापसंद तो करेंगे ही।" 
रफ़ी साहब शायरी के अलावा एक्टिविस्ट भी हैं और बेहद ज़रूरतमंदों की मदद के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं।उर्दू में उनके दो ग़ज़ल संग्रह '  सितारा लकीर छोड़ गया' और 'इतना आसमान' प्रकाशित हो चुके हैं. देवनागरी में पहली बार राजकमल प्रकाशन ने उनकी शायरी को इसे प्रस्तुत किया है। आप अगर शायरी याने अच्छी और भीड़ से अलग किस्म की शायरी पढ़ने में रूचि रखते हैं तो ये क़िताब आपके पास जरूर होनी चाहिए जो कि अमेजन से ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। 
चलते चलते आईये पढ़ते उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद शे'र:        

जहाँ रोना था रो सके न वहाँ 
इसी ख़ातिर इधर उधर रोये 

लोग रोये बिछड़ने वालों पर 
और हम ख़ुद को ढूँढ़ कर रोये 

कोई चारा बचा नहीं होगा 
वर्ना क्यों मेरे चारागर रोये 
चारागर : चिकित्सक 

है ख़ुदा जब कि हर जगह मौजूद 
छुपछुपा कर कोई किधर रोये   





( ये पोस्ट रफ़ी रज़ा साहब के कैनेडा से भेजे वाइस मैसेज पर आधारित है )