आप में से बहुत से दिल्ली तो जरूर गए होंगे लेकिन शायद कुछ लोग ही महरौली गए हों, महरौली जो क़ुतुब मीनार के पीछे है और जहाँ की भूल भुलैय्याँ , जो अब सरकार द्वारा बंद कर दी गयीं हैं, बहुत प्रसिद्द हैं, सुना है इन भूल भुलैय्यों में जाने के बाद बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है । उसी भूल भुलैय्याँ के पास है "अयन प्रकाशन" जिसे ढूंढना भी कोई कम टेडी खीर नहीं है। इस बार के अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मैं विगत तीस वर्षों से सफलता पूर्वक चल रहे "अयन प्रकाशन" के संस्थापक श्री भूपल सूद जी से मिलने गया जिनसे मिलने की तमन्ना मैं बहुत दिनों से दिल में पाले हुए था. सूद साहब चलती फिरती ग़ज़ल की किताब हैं। जीवन से पूर्ण रूप से संतुष्ट व्यक्ति के चेहरे पर कैसी आभा होती है ये देखने के लिए सूद साहब से मिलना जरूरी है. उनसे मिल कर जो आनंद आया उसे शब्द देना मेरे बस में नहीं लेकिन उनसे मिली किताबों के जखीरे के बारे में कहने को शब्द ढूढने की कोशिश कर रहा हूँ।
पानी को चिंगारी दिखाती हुई एक से बढ़ कर एक उम्दा ग़ज़लों से भरी किताब "अंगारों पर शबनम" का जिक्र आज हम अपनी इस श्रृंखला में करेंगे जिसके शायर हैं जनाब वीरेन्द्र खरे 'अकेला'.
आम बोलचाल की भाषा में कही अकेला जी की सारी ग़ज़लें ही बहुत असरदार हैं। डॉ कुंअर बैचैन जी ने एक वाक्य में इस संग्रह के बारे में सब कुछ कह दिया है " अपने में अकेला और एकदम खरा है कवि वीरेन्द्र खरे 'अकेला' जी का ये संग्रह"
अकेला जी ग़ज़लें परम्परावादी ग़ज़लों के मिजाज़ को निभाते हुए भी अपने कहन के निराले अंदाज़ से ताजगी भरी लगती हैं। कुंअर जी ने ठीक ही कहा है कि "इस संग्रह की ग़ज़लों में कुछ अंगारे दर्शाए गए हैं तो उन पर शबनम बिखेरने का काम भी ये ग़ज़लें कर रही हैं " खुद अकेला जी मानते हैं
18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र) के किशन गढ़ ग्राम में जन्में वीरेन्द्र खरे जी ने अपनी कलम साहित्य की ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग-लेख , कहानी, समीक्षा, आलेख जैसी अनेक विधाओं पर सफलता पूर्वक चलाई है। "अंगारों पर शबनम" उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है जो सन 2012 में प्रकाशित हुआ इस से पूर्व उनके दो संग्रह "बची चौथाई रात" सन 1996 में और "सुबह की दस्तक" सन 2006 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुके हैं।
श्री माणिक वर्मा जी इस किताब के बारे में कहते हैं " बहुत लम्बे अरसे बाद ऐसा ग़ज़ल संग्रह पढने को मिला जिसने मुझे भीतर तक झकझोरा है , हिंदी ग़ज़लों या हिंदी ग़ज़लकारों की अपार भीड़ में श्री वीरेन्द्र खरे सचमुच 'अकेले' हैं " वीरेन्द्र जी को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों पर जबलपुर द्वारा "हिंदी भूषण ", लायंस क्लब द्वारा "छतरपुर गौरव", मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन एवम बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर (मप्र) द्वारा तहलका जैसे अनेको सम्मानों से सम्मानित किया गया है
"अंगारों पर शबनम" में आपको अकेला जी की ऐसी अनूठी एक सौ एक ग़ज़लें पढने को मिलेंगी। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप अयन प्रकाशन के श्री भूपल सूद जी से उनके मोबाइल 09818988613 पर संपर्क करें और अकेला जी को, जो अभी छत्रसाल नगर के पीछे पन्ना रोड छतरपुर (मप्र ) में रहते हैं, उनकी विलक्षण ग़ज़लों के लिए उनके मोबाइल 09981585601 पर बधाई दे सकते हैं।
बहुत से ऐसे शेर हैं जो मैं यहाँ चाहता हूँ आपको पढ़वाऊं लेकिन समयाभाव के चलते नहीं पढवा पा रहा। अगर ऊपर दिये शेरो को पढ़ कर आपकी और पढने की प्यास जग गयी है तो देर किस बात की, उठाइये अपना मोबाइल और इस किताब की प्राप्ति के लिए प्रयास शुरू कर दिजिये. चलते चलते अकेला जी की एक ग़ज़ल के चंद शेर और आपकी खिदमत में पेश हैं जिनमें रूमानियत क्या खूब झलक रही है :-
अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
न जाने लोग भी क्या क्या अदाकारी दिखाते हैं
यकीनन उनका जी भरने लगा है मेज़बानी से
वो कुछ दिन से हमें जाती हुई लारी दिखाते हैं
डराना चाहते हैं वो हमें भी धमकियाँ देकर
बड़े नादान हैं पानी को चिंगारी दिखाते हैं
पानी को चिंगारी दिखाती हुई एक से बढ़ कर एक उम्दा ग़ज़लों से भरी किताब "अंगारों पर शबनम" का जिक्र आज हम अपनी इस श्रृंखला में करेंगे जिसके शायर हैं जनाब वीरेन्द्र खरे 'अकेला'.
मैं उससे कम ही मिलता हूँ, सुना है मैंने लोगों से
ज़ियादा मेल हो तो दूरियां आती ही आती हैं
कुसूर उसका नहीं, गर वो खुदा खुद को समझता है
जो दौलत हो तो ये खुशफहमियां आती ही आती हैं
अगर बत्तीस हो सीना, पुलिस के काम का है तू
ज़माने भर की तुझको गालियाँ आती ही आती हैं
आम बोलचाल की भाषा में कही अकेला जी की सारी ग़ज़लें ही बहुत असरदार हैं। डॉ कुंअर बैचैन जी ने एक वाक्य में इस संग्रह के बारे में सब कुछ कह दिया है " अपने में अकेला और एकदम खरा है कवि वीरेन्द्र खरे 'अकेला' जी का ये संग्रह"
इस तरह से बात मनवाने का चक्कर छोड़ दे
देख तू सीधी तरह से मेरा कॉलर छोड़ दे
झूठ मक्कारी तजें नेताजी मुमकिन ही कहाँ
नाचना गाना- बजाना कैसे किन्नर छोड़ दे .
न्याय की खातिर वो अपना सर कटा भी ले मगर
घर की ज़िम्मेदारियों को किसके सर पर छोड़ दे
अकेला जी ग़ज़लें परम्परावादी ग़ज़लों के मिजाज़ को निभाते हुए भी अपने कहन के निराले अंदाज़ से ताजगी भरी लगती हैं। कुंअर जी ने ठीक ही कहा है कि "इस संग्रह की ग़ज़लों में कुछ अंगारे दर्शाए गए हैं तो उन पर शबनम बिखेरने का काम भी ये ग़ज़लें कर रही हैं " खुद अकेला जी मानते हैं
इक नए ही लिबास में है ग़ज़ल
ये 'अकेला' का काम है कि नहीं
18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र) के किशन गढ़ ग्राम में जन्में वीरेन्द्र खरे जी ने अपनी कलम साहित्य की ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग-लेख , कहानी, समीक्षा, आलेख जैसी अनेक विधाओं पर सफलता पूर्वक चलाई है। "अंगारों पर शबनम" उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है जो सन 2012 में प्रकाशित हुआ इस से पूर्व उनके दो संग्रह "बची चौथाई रात" सन 1996 में और "सुबह की दस्तक" सन 2006 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुके हैं।
काम है जिनका रस्ते-रस्ते बम रखना
उनके आगे पायल की छमछम रखना
जो मैं बोलूं आम तो वो बोले इमली
मुश्किल है उससे रिश्ता कायम रखना
दौलत के अंधों से उल्फ़त की बातें
दहके अंगारों पर क्या शबनम रखना
श्री माणिक वर्मा जी इस किताब के बारे में कहते हैं " बहुत लम्बे अरसे बाद ऐसा ग़ज़ल संग्रह पढने को मिला जिसने मुझे भीतर तक झकझोरा है , हिंदी ग़ज़लों या हिंदी ग़ज़लकारों की अपार भीड़ में श्री वीरेन्द्र खरे सचमुच 'अकेले' हैं " वीरेन्द्र जी को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों पर जबलपुर द्वारा "हिंदी भूषण ", लायंस क्लब द्वारा "छतरपुर गौरव", मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन एवम बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर (मप्र) द्वारा तहलका जैसे अनेको सम्मानों से सम्मानित किया गया है
अज़ब नशा है मेरे मुल्क में लड़ाई का
मिला न कोई तो आपस में भाई भाई लड़े
कहाँ-कहाँ से न उधड़ा कसा कसा कुरता
जवानी तुझसे कहाँ तक कोई सिलाई लड़े
जो हमने दोस्ती की है, तो दोस्ती की है
जो हम लड़ाई लड़े हैं,तो बस लड़ाई लड़े
मैले गमछों की पीडाएं
क्या समझेगी उजली टाई
राहे उल्फत संकरा परबत
और बिछी है उस पर काई
सुनकर वो मेरी सब उलझन
बोला मैं चलता हूँ भाई
हाले दिल मत पूछ 'अकेला'
कुआँ सामने, पीछे खाई
बहुत से ऐसे शेर हैं जो मैं यहाँ चाहता हूँ आपको पढ़वाऊं लेकिन समयाभाव के चलते नहीं पढवा पा रहा। अगर ऊपर दिये शेरो को पढ़ कर आपकी और पढने की प्यास जग गयी है तो देर किस बात की, उठाइये अपना मोबाइल और इस किताब की प्राप्ति के लिए प्रयास शुरू कर दिजिये. चलते चलते अकेला जी की एक ग़ज़ल के चंद शेर और आपकी खिदमत में पेश हैं जिनमें रूमानियत क्या खूब झलक रही है :-
नज़र हमारी वहीँ पे जा के अटक रही है
वो गीले बालों को उँगलियों से झटक रही है
ख़फा-ख़फा रूख़ पे हल्की-हल्की सी मुस्कुराहट
ये पतझड़ों में कली कहाँ से चटक रही है
तुम्हारे चेहरे पे हैं अलामात 'ना-नुकुर' के
अगरचे 'हाँ' में तुम्हारी गर्दन मटक रही है