ऐ सखी, साजन के आगे ध्यान रहता है कहाँ
तेल चावल में गिरा या सारा आटा दाल में
थाप, थिरकन, झाल, ढोलक, स्वाद, सुर, संगत, सहज
सौंधी मिटटी की महक है उस बदन-चौपाल में
नूर की तख़्ती पे कुदरत की सियाही बूँद भर
दो-जहाँ तहरीर हैं रुख़्सार ऊपर खाल में
तहरीर =लिखित , रुख़्सार =गाल , खाल = तिल
मन मोर मधुर वन में नाचे है पवन चाहे
सावन में सुहागन को सौ बार सजन चाहे
जल-स्त्रोत्र न जल धारा जंगल ही जला सारा
तृष्णा से व्याकुल है क्या मृग-नयन चाहे
तू मुझको पिया चाहे मैं तुझ से जीया चाहूँ
सब रंग रहें रौशन धरती को गगन चाहे
ये और बात कि बिखरा है वो बचाने में
तमाम उम्र लगी एक घर बनाने में
ये और बात कि भूखे रहे तेरे बन्दे
लिखा हुआ था तेरा नाम दाने-दाने में
खुदा क़े घऱ मे वही चन्द लोग थे 'खुर्शीद'
ग़ज़ब की भीड़ लगी थी शराबखाने में
मेरे उसके बीच का रिश्ता इक मजबूर ज़रूरत है
मैं सूखे ज़ज़्बों का ईंधन वो माचिस की तीली सी
देखूं कैसी फसल उगाता है मौसम तन्हाई का
दर्द के बीज की नस्ल है ऊँची , दिल की मिटटी गीली सी
मुझको बाँट के रख देती है धूप-छाँव के खेमों में
कुछ बेग़ैरत सी मसरूफ़ी कुछ फुर्सत शर्मीली सी
बेगैरत = निर्लज्ज
दुनिया की निगाहों में हर चंद खटकते हैं
कांटे से कोई सीखे फूलों को मगन रखना
ये आँख का किस्सा है, वो होंट की जुम्बिश है
इक शहर चिरागों में, फूलों में चमन रखना
उस हिज्र-पशेमाँ ने रातों को दुआ दी है
ख्वाबों में चुभन रखना बिस्तर में शिकन रखना
उर्दू पढ़ने लिखने वाले लोगों में 'खुर्शीद अकबर' साहब का कलाम पसंद करने वालों की अच्छी खासी तादाद है, हिंदी में भी उन्हें पसंद किया जाता है लेकिन ऐसे लोगों की तादाद अपेक्षाकृत कम है , कारण बहुत साफ़ है , उनकी ग़ज़लें हिंदी भाषा में बहुत कम दिखाई देती हैं। वो मुशायरों के लोकप्रिय शायर भी नहीं है हालाँकि मुशायरों में वो शिरकत करते हैं लेकिन सामयीन की दाद बटोरने के लिए अपनी शायरी से समझौता नहीं करते। गूगल महाशय भी उनके बारे में ज्यादा कुछ बताने में कामयाब नहीं हैं। मुझे उम्मीद है कि इस किताब के माध्यम से उन्होंने हिंदी पाठकों के एक बड़े समूह को अपना दीवाना बना लिया होगा।
हम अपने सर के नीचे आस का तकिया नहीं रखते
इन आँखों के कटोरों में कभी शिकवा नहीं रखते
गरीबी झांकती है तह-ब -तह पेबन्द से बाहर
मगर हम जेब पर एहसान का बखिया नहीं रखते
हमारी ये इबादत हाकिम-ऐ-आला को डसती है
कि हम खुदसर जबीं से बाँध कर सजदा नहीं रखते
खुदसर =आज़ाद , विद्रोही। जबीं =पेशानी , माथा। ,
उर्दू लिपि में अकबर साहब की ग़ज़लों की किताबें "मुन्दर खिलाफ है" ,"बदन कश्ती ,भंवर ख्वाहिश "," फ़लक़ पहलू " बहुत मकबूल हो चुकी हैं ये दोनों किताबें अमेज़न पर उपलब्ध भी हैं। ग़ज़लों के अलावा उनकी आलोचनात्मक किताब "एक भाषा :दो लिखावट ,दो अदब" भी बहुत चर्चित हुई है। उन्हें उनके पहले ग़ज़ल संग्रह पर "बिहार उर्दू अकादमी पुरूस्कार" , दूसरे ग़ज़ल संग्रह पर " भारतीय साहित्यकार संसद, समस्तीपुर का पुरूस्कार, साहित्य साधना सम्मान , बिहार उर्दू अकेडमी द्वारा अदबी खिदमात अवार्ड आदि अनेक पुरुस्कारों से नवाज़ा गया है। उनकी रचनाएँ उर्दू हिंदी की मुख्य पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।
रहता हूँ दूर दूर ही दरिया बदन से मैं
ज़ालिम से मेरी प्यास का रिश्ता निकल न जाय
खुशरंग तितलियों के त'आक़ुब में देखना
आँखों में जो है रंग जरा सा निकल न जाय
त'आक़ुब=पीछा करना
दुश्मन के बाद सामने आएगा कोई और
फिर उसके बाद अपना कबीला निकल न जाय
दोहा ,कतर आदि देशों की यात्रा के दौरान अपने कलाम से लोगों के दिलों में बस जाने वाले खुर्शीद अकबर साहब की 156 बेहतरीन ग़ज़लों की इस किताब को "खुशबू-रंग', "शोआ'अ-रंग (रौशनी-रंग)", एहतिजाज़-रंग (विद्रोह-रंग) , "कशिश-रंग" और " ग़ज़ल-रंग " के शीर्षक से पांच खण्डों में बाँट कर यश पब्लिकेशन दिल्ली द्वारा छापा गया है। किताब की प्राप्ति के लिए आप यश पब्लिकेशन को उनके ई मेल yash _publication @hotmail . com पर लिख सकते हैं या उन्हें 011 - 9899938522 अथवा 9910189445 पर सम्पर्क कर सकते हैं।
छनन-पाज़ेब खुशबू की झनन-झनकार बाजे
हवा हौले थिरकती है चमन-साकार बाजे
अगन भी वो पवन भी वो नयन भी वो सजन भी
रग-ऐ-जाँ पास अनहद नाद की तकरार बाजे
बड़े मासूम हैं नयना से नयना पूछते हैं
सबा के पाँव में घुँघरू है या तलवार बाजे
सबा=पुरवैया
बदन की नाव भव-सागर भंवर के बीच डोले
धिनाधिन ध्यान-धुन इस पार से उस पार बाजे
सबसे बेहतर तो ये रहेगा कि आप खुर्शीद अकबर साहब को, जो बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं, उनके घर "आरज़ू मंज़िल , शीशमहल कॉलोनी ,आलमगंज, पटना -800007 (बिहार) के पते पर चिठ्ठी लिखें या उनसे उनके मोबाइल न. 9431095707 या 9631629952 पर सम्पर्क करें और किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। किताब आने पर किसी शांत सी जगह पर इत्मीनान और फुर्सत से बैठें और आहिस्ता आहिस्ता एक एक ग़ज़ल को पढ़ते हुए उसका भरपूर आनंद लें। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले अकबर साहब की एक और ग़ज़ल के ये शेर भी आपको पढ़वाते चलते हैं :-
मेरे आंसू को जुगनू बोलती है
मेरी तहज़ीब उर्दू बोलती है
मुहब्बत सो गयी ऊंचे घरों में
अभी गलियों में खुशबू बोलती है
जुबाँ क्या जानती है इसके आगे
भरे नयना को जादू बोलती है
ग़ज़ल क्या चीज़ है खुर्शीद अकबर
सुना है चश्म -ए- आहू बोलती है
चश्म-ए-आहू = हिरण की आॅंख