Monday, February 29, 2016

किताबों की दुनिया -119

ऐ सखी, साजन के आगे ध्यान रहता है कहाँ 
तेल चावल में गिरा या सारा आटा दाल में 

थाप, थिरकन, झाल, ढोलक, स्वाद, सुर, संगत, सहज 
सौंधी मिटटी की महक है उस बदन-चौपाल में 

नूर की तख़्ती पे कुदरत की सियाही बूँद भर 
दो-जहाँ तहरीर हैं रुख़्सार ऊपर खाल में 
तहरीर =लिखित , रुख़्सार =गाल , खाल = तिल 

रुमानियत से भरे इन शेरों को पढ़ कर आप जरूर आह या वाह कर रहे होंगे। रुमानियत और शायरी का शुरू से ही चोली दामन का साथ रहा है , धीरे धीरे वक्त के साथ इंसान की जीने के लिए की गयी जद्दोजहद शायरी का विषय बनी। आज के दौर में इस तरह के नाज़ुक मिज़ाज़ शायरी जरा कम ही पढ़ने सुनने को मिलती है। आज लोगों में प्रेयसि के गालों पे तिल देखने तक का वक्त नहीं है उस पर शेर कहना तो दूर की बात है। आगे बढ़ें उस से पहले रुमानियत से लबरेज़ जरा ये शेर भी पढ़ते चलें

मन मोर मधुर वन में नाचे है पवन चाहे 
सावन में सुहागन को सौ बार सजन चाहे 

जल-स्त्रोत्र न जल धारा जंगल ही जला सारा 
तृष्णा से व्याकुल है क्या मृग-नयन चाहे 

तू मुझको पिया चाहे मैं तुझ से जीया चाहूँ 
सब रंग रहें रौशन धरती को गगन चाहे 

जनाब हमारी आज की "किताबों की दुनिया " श्रृंखला में किसी ऐसी किताब का जिक्र नहीं हो रहा जिसमें सिर्फ रुमानियत भरी है बल्कि ऐसी किताब का जिक्र हो रहा है जिसमें पांच खंड हैं और हर खंड का अपना अलग मिज़ाज़, रंग और तासीर है। तो आईये शुरू करते हैं हिंदी में पहली बार छप रहे उर्दू के जाने माने शायर जनाब "खुर्शीद अकबर " की ग़ज़ल के अनछुए लहज़े की असर अंगेज़ किताब " जमीं आसमां से आगे " की चर्चा :



ये और बात कि बिखरा है वो बचाने में 
तमाम उम्र लगी एक घर बनाने में 

ये और बात कि भूखे रहे तेरे बन्दे 
लिखा हुआ था तेरा नाम दाने-दाने में 

खुदा क़े घऱ मे वही चन्द लोग थे 'खुर्शीद' 
ग़ज़ब की भीड़ लगी थी शराबखाने में 

 शायरी में सहजता बहुत जरूरी होती है , शायर जो बात कहना चाहता है वो सीधी पाठक तक पहुंचनी चाहिए तभी उसका असर होता है। भारी भरकम शब्दों का दार्शनिक अंदाज में सहारा लेकर शायरी के माध्यम से कही बात नक्कादों मतलब समीक्षकों को या फिर बहुत पहुंचे हुए लोगों को भले पसंद आ जाय लेकिन मुझ जैसे आम पाठक के सर से बहुत ऊपर निकल जाती है। खुर्शीद साहब की ग़ज़लों के शेर मुझ जैसे आम पाठक के लिए तो हैं हैं साथ ही उर्दू साहित्य के नए नवेले अंदाज़ से रूबरू भी करवाते हैं।

मेरे उसके बीच का रिश्ता इक मजबूर ज़रूरत है 
मैं सूखे ज़ज़्बों का ईंधन वो माचिस की तीली सी 

देखूं कैसी फसल उगाता है मौसम तन्हाई का 
दर्द के बीज की नस्ल है ऊँची , दिल की मिटटी गीली सी 

मुझको बाँट के रख देती है धूप-छाँव के खेमों में 
कुछ बेग़ैरत सी मसरूफ़ी कुछ फुर्सत शर्मीली सी 
बेगैरत = निर्लज्ज 

मैंने इस किताब की चर्चा अलग अलग खण्डों के हिसाब से न कर सभी खण्डों को मिला कर की है , खंड के हिसाब से चर्चा तो बहुत लम्बी हो जाती जो शायद पाठकों के सब्र का इम्तिहान लेती। मुझे मालूम है कि आज सबके पास समय की कमी है फिर भी आप अपने इतने कम समय में से कुछ समय मेरी पोस्ट को दे रहे हैं ये क्या कम बात है ? मो. खुर्शीद आलम अन्सारी जिनका कलमी नाम खुर्शीद अकबर है 5 जुलाई 1959 में मिल्की चक, बरबीघा ,जिला शेखपुरा बिहार में पैदा हुए। आपने राजनीति विज्ञानं एवं उर्दू साहित्य में ऍम.ऐ करने के बाद सन 1975 से शायरी की शुरुआत कर दी।

दुनिया की निगाहों में हर चंद खटकते हैं 
कांटे से कोई सीखे फूलों को मगन रखना 

ये आँख का किस्सा है, वो होंट की जुम्बिश है 
इक शहर चिरागों में, फूलों में चमन रखना 

उस हिज्र-पशेमाँ ने रातों को दुआ दी है 
ख्वाबों में चुभन रखना बिस्तर में शिकन रखना 

उर्दू पढ़ने लिखने वाले लोगों में 'खुर्शीद अकबर' साहब का कलाम पसंद करने वालों की अच्छी खासी तादाद है, हिंदी में भी उन्हें पसंद किया जाता है लेकिन ऐसे लोगों की तादाद अपेक्षाकृत कम है , कारण बहुत साफ़ है , उनकी ग़ज़लें हिंदी भाषा में बहुत कम दिखाई देती हैं। वो मुशायरों के लोकप्रिय शायर भी नहीं है हालाँकि मुशायरों में वो शिरकत करते हैं लेकिन सामयीन की दाद बटोरने के लिए अपनी शायरी से समझौता नहीं करते। गूगल महाशय भी उनके बारे में ज्यादा कुछ बताने में कामयाब नहीं हैं। मुझे उम्मीद है कि इस किताब के माध्यम से उन्होंने हिंदी पाठकों के एक बड़े समूह को अपना दीवाना बना लिया होगा। 

हम अपने सर के नीचे आस का तकिया नहीं रखते
इन आँखों के कटोरों में कभी शिकवा नहीं रखते

गरीबी झांकती है तह-ब -तह पेबन्द से बाहर 
मगर हम जेब पर एहसान का बखिया नहीं रखते 

 हमारी ये इबादत हाकिम-ऐ-आला को डसती है 
कि हम खुदसर जबीं से बाँध कर सजदा नहीं रखते 
खुदसर =आज़ाद , विद्रोही। जबीं =पेशानी , माथा। , 

 उर्दू लिपि में अकबर साहब की ग़ज़लों की किताबें "मुन्दर खिलाफ है" ,"बदन कश्ती ,भंवर ख्वाहिश "," फ़लक़ पहलू " बहुत मकबूल हो चुकी हैं ये दोनों किताबें अमेज़न पर उपलब्ध भी हैं। ग़ज़लों के अलावा उनकी आलोचनात्मक किताब "एक भाषा :दो लिखावट ,दो अदब" भी बहुत चर्चित हुई है। उन्हें उनके पहले ग़ज़ल संग्रह पर "बिहार उर्दू अकादमी पुरूस्कार" , दूसरे ग़ज़ल संग्रह पर " भारतीय साहित्यकार संसद, समस्तीपुर का पुरूस्कार, साहित्य साधना सम्मान , बिहार उर्दू अकेडमी द्वारा अदबी खिदमात अवार्ड आदि अनेक पुरुस्कारों से नवाज़ा गया है। उनकी रचनाएँ उर्दू हिंदी की मुख्य पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं। 

रहता हूँ दूर दूर ही दरिया बदन से मैं 
ज़ालिम से मेरी प्यास का रिश्ता निकल न जाय 

खुशरंग तितलियों के त'आक़ुब में देखना 
आँखों में जो है रंग जरा सा निकल न जाय 
त'आक़ुब=पीछा करना 

 दुश्मन के बाद सामने आएगा कोई और 
फिर उसके बाद अपना कबीला निकल न जाय 

दोहा ,कतर आदि देशों की यात्रा के दौरान अपने कलाम से लोगों के दिलों में बस जाने वाले खुर्शीद अकबर साहब की 156 बेहतरीन ग़ज़लों की इस किताब को "खुशबू-रंग', "शोआ'अ-रंग (रौशनी-रंग)", एहतिजाज़-रंग (विद्रोह-रंग) , "कशिश-रंग" और " ग़ज़ल-रंग " के शीर्षक से पांच खण्डों में बाँट कर यश पब्लिकेशन दिल्ली द्वारा छापा गया है। किताब की प्राप्ति के लिए आप यश पब्लिकेशन को उनके ई मेल yash _publication @hotmail . com पर लिख सकते हैं या उन्हें 011 - 9899938522 अथवा 9910189445 पर सम्पर्क कर सकते हैं। 

छनन-पाज़ेब खुशबू की झनन-झनकार बाजे 
हवा हौले थिरकती है चमन-साकार बाजे 

अगन भी वो पवन भी वो नयन भी वो सजन भी 
रग-ऐ-जाँ पास अनहद नाद की तकरार बाजे 

बड़े मासूम हैं नयना से नयना पूछते हैं 
सबा के पाँव में घुँघरू है या तलवार बाजे 
सबा=पुरवैया 

बदन की नाव भव-सागर भंवर के बीच डोले 
धिनाधिन ध्यान-धुन इस पार से उस पार बाजे 

सबसे बेहतर तो ये रहेगा कि आप खुर्शीद अकबर साहब को, जो बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं, उनके घर "आरज़ू मंज़िल , शीशमहल कॉलोनी ,आलमगंज, पटना -800007 (बिहार) के पते पर चिठ्ठी लिखें या उनसे उनके मोबाइल न. 9431095707 या 9631629952 पर सम्पर्क करें और किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। किताब आने पर किसी शांत सी जगह पर इत्मीनान और फुर्सत से बैठें और आहिस्ता आहिस्ता एक एक ग़ज़ल को पढ़ते हुए उसका भरपूर आनंद लें। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले अकबर साहब की एक और ग़ज़ल के ये शेर भी आपको पढ़वाते चलते हैं :- 

मेरे आंसू को जुगनू बोलती है 
मेरी तहज़ीब उर्दू बोलती है 

मुहब्बत सो गयी ऊंचे घरों में 
अभी गलियों में खुशबू बोलती है 

जुबाँ क्या जानती है इसके आगे 
भरे नयना को जादू बोलती है 

ग़ज़ल क्या चीज़ है खुर्शीद अकबर 
सुना है चश्म -ए- आहू बोलती है 
 चश्म-ए-आहू = हिरण की आॅंख

Monday, February 15, 2016

किताबों की दुनिया - 118

वहाँ हैं त्याग की बातें, इधर हैं मोक्ष के चर्चे 
ये दुनिया धन की दीवानी इधर भी है उधर भी है 

हुई आबाद गलियाँ, हट गया कर्फ्यू , मिली राहत 
मगर कुछ कुछ पशेमानी इधर भी है उधर भी है 

हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग सा है 
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है 

किताबों की दुनिया श्रृंखला के हमारे आज के शायर "ज्ञान प्रकाश विवेक" हिन्दी के उन चंद शायरों में शुमार किए जाते हैं जिनमें उर्दू शायरी की रवानी भी है और हिन्दी कविता की सामाजिकता पक्षधरता भी। ,हम आज उनकी किताब "गुफ्तगू अवाम से है " का जिक्र करेंगे। पाठकों को ये भी बता दूँ कि ज्ञान जी ग़ज़ल विधा में ही श्रेष्ठ नहीं हैं वरन उनकी कलम कहानी और साहित्य के अन्य क्षेत्रों में भी अपना लोहा मनवा चुकी है।


हरेक शख्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगो 
मैं सोचता हूँ कि खोलूं दुकान किसके लिए 

ग़रीब लोग इसे ओढ़ते-बिछाते हैं 
तू ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए 

बड़ी सरलता से पूछा है एक बच्चे ने 
अगर ये शहर है , तो फिर मचान किसके लिए 

 एक जमाने में जब कमलेश्वर लिंक ग्रुप की पत्रिका “गंगा” का संपादन कर रहे थे तो उन्होंने पत्रिका के संपादकीय में ज्ञान प्रकाश विवेक की ग़ज़लें उसी तरह प्रकाशित की थीं जिस तरह से सारिका पत्रिका के दौर में उन्होंने संपादकीय में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें छापी थीं। उस दौर में गंगा पढ़नेवालों की स्मृतियों में ज्ञान प्रकाश जी के ऐसे शेर बचे होंगे :-

मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है 
मुंसिफ कहता है जुर्माना लगा रहेगा 

लाठी, डामर, चमरोधा, बीड़ी का बण्डल 
साथ ग़रीबी का नज़राना लगा रहेगा 

बहुत जरूरी है थोड़ी सी खुद्दारी भी 
भेड़ बना तो फिर मिमियाना लगा रहेगा 

30 जनवरी 1949 को बहादुरगढ़, हरियाणा में जन्में ज्ञान जी का नाम हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत कुमार के साथ लिया जाता है। उनके ग़ज़ल संग्रह "धूप के हस्ताक्षर" , "आँखों में आसमान" और "इस मुश्किल वक्त में " प्रकाशित हो कर धूम मचा चुके हैं. "गुफ्तगू अवाम से है " ग़ज़ल संग्रह सन 2008 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ था और अब तक याने सात आठ साल बाद भी उतना ही लोकप्रिय है। संग्रह पढ़ते हुए इसकी इतनी बड़ी लोकप्रियता का अंदाज़ा अपने आप लगने लगता है। संग्रह की सभी 66 ग़ज़लें पाठकों को आप बीती सी लगती हैं। सुगम सरल भाषा की ये ग़ज़लें पढ़ते सीधे पाठक के दिल में उत्तर जाती हैं और येही शायर की सबसे बड़ी कामयाबी है। 

पहाड़ों पर चढ़े तो हाँफना था लाज़मी लेकिन 
उतरते वक्त भी देखीं कई दुश्वारियां हमने 

किसी खाने में दुःख रक्खा , किसी में याद की गठरी 
अकेले घर में बनवायीं कई अलमारियां हमने 

सजाया मेमना, चाकू तराशा, ढोल बजवाये 
बलि के वास्ते निपटा लीं सब तैयारियां हमने 

लुधियाना के प्रसिद्ध शायर मुफ़लिस साहब ज्ञान जी के लिए क्या खूब फरमाते हैं जनाब " ज्ञान प्रकाश 'विवेक' “जी की ग़ज़लें पढ़ना हमेशा ही अपने आप में एक अनुभव रहता है आसान और सादा अल्फाज़ में भी संजीदा खयालात के इज़हार में महारत रखने वाले अदब और सकाफत को एक ख़ास मुक़ाम पर पहुंचाने वाले इस अज़ीम शाइर 'विवेक' जी न सिर्फ चर्चित बल्कि एक स्थापित साहित्यकार हैं बल्कि ग़ज़लियात की दुनिया में एक पुख्ता दस्तखत के तौर पर भी तस्लीम किये जाते हैं।

बस और कुछ न किया मैंने एक उम्र के बाद 
पिता की जेब से पैसे चुराना छोड़ दिया 

हवाएँ पूछती फिरती हैं नन्हें बच्चों से 
ये क्या हुआ कि पतंगे उड़ाना छोड़ दिया 

अगर बड़े हों मसाइल तो रंजिशें अच्छी 
ज़रा सी बात पे मिलना-मिलाना छोड़ दिया 

दस से अधिक कहानी संग्रह तीन से अधिक उपन्यास दो कविता संग्रह और एक आलोचनात्मक पुस्तक के रचयिता ज्ञान जी को हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा तीन बार पुरुस्कृत किया जा चुका है इसके अलावा सन 2000 में उन्हें राजस्थान पत्रिका द्वारा सर्वश्रेष्ठ कथा सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है. दिसंबर 2014 को सहारनपुर में साहित्यिक संस्था 'समन्वय' की ओर से जीपीओ रोड पर हुए समारोह में उन्हें 25 वें सारस्वत सम्मान से सम्मानित किया गया। ज्ञान प्रकाश जी का कहना है कि हिंदी ग़ज़ल अपने दमखम अपनी हलचल और वैभव के साथ मौजूद है और हमेशा मौजूद रहेगी।

तुम्हारी प्रार्थना के शब्द हैं थके हारे 
सजा के देखिये कमरे में ख़ामुशी मेरी 

मुझे भँवर में डुबोकर सिसकने लगता है 
बहुत अजब है समंदर से दोस्ती मेरी 

खड़ा हूँ मश्क लिए मैं उजाड़ सहरा में 
किसी की प्यास बुझाना है बंदगी मेरी 

वाणी प्रकाशन, 21 -ए , दरियागंज नयी दिल्ली, से उनके फोन न 011 -23273167 पर संपर्क करके या उन्हें vaniprkashan @gmail.com पर मेल से पूछ कर इस किताब की प्राप्ति की सकती है। आप चाहें तो ज्ञान जी को उनके स्थाई पते : 1875 सेक्टर -6 , बहादुरगढ़ 124507 पर पत्र लिखें या उन्हें 09813491654 पर संपर्क करके पुस्तक प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें मर्ज़ी आपकी है मेरी तो सिर्फ इतनी सी गुज़ारिश है कि आप इस विलक्षण प्रतिभा के धनी शायर की शायरी का लुत्फ़ लें :

ज़िंदा रहने का हुनर उसने सिखाया होगा 
जिसने आंधी में चरागों को जलाया होगा 

तू जरा देख जमूरे की फटी एड़ी को 
उसको रोटी के लिए कितना नचाया होगा 

थाप ढोलक की, डली गुड की, दिया मिटटी का 
खूब त्योंहार ग़रीबों ने मनाया होगा 

66 ग़ज़लों के बेजोड़ संग्रह से सिर्फ कुछ के शेर आप तक पहुँचाना निहायत ही मुश्किल काम है जनाब लेकिन क्या किया जाय पूरी किताब तो आप तक पहुंचे नहीं जा सकती मेरा काम तो सिर्फ खूबसूरत मंज़िल तक जाने वाले रास्ते की झलक दिखाना ही है मंज़िल तक पहुँचने के लिए चलना तो आपको ही पड़ेगा। पोस्ट की लम्बाई का बहाना बनाते हुए आपसे विदा होने से पहले ज्ञान जी की एक और ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते चलते हैं और बताते हैं कि कैसे ज्ञान जी का कलाम अजीब नहीं सबसे जुदा और दिलकश है : 

तेरे अश्क जलते हुए दिये,तेरी मुस्कुराहटें चाँदनी 
 मैं तुझे कभी न समझ सका, तेरी दास्तान अजीब है 

यहाँ मुद्दतों से खड़ा हूँ मैं ,यही सोचता कि कहाँ हूँ मैं 
यहाँ सबके घर में दुकान है , यहाँ हर मकान अजीब है 

नहीं मौसमों का गिला इसे, नहीं तितलियों से शिकायतें 
तेरे बंद कमरे का जाने मन, तेरा फूलदान अजीब है 

मुझे इल्म है मेरे दोस्तों मेरा तुम मज़ाक उड़ाओगे 
मैं बिना परों का परिंद हूँ कि मेरी उड़ान अजीब है

Monday, February 1, 2016

किताबों की दुनिया -117

मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरफ़ कुछ यूँ बुलाती है 
किसी मेले में कुल्फी जैसे बच्चों को लुभाती है 

क़बीलों की रिवायत , बंदिशें , तफ़रीक़ नस्लों की 
मुहब्बत इन झमेलों में पड़े तो हार जाती है 
तफ़रीक़ : भेदभाव 
किसी मुश्किल में वो ताकत कहाँ जो रास्ता रोके 
मैं घर से जब निकलता हूँ तो माँ टीका लगाती है 

बच्चों को कुल्फी जैसे लुभाने की बात करने वाला शायर यकीनन उस्ताद ही होगा। किस सहजता से इस बाकमाल शायर ने अपनी बात पढ़ने वालों तक पहुंचा दी है। ऐसी दिलकश शायरी का हुनर उस्तादों की सोहबत और लगातार की गयी मेहनत के बिना आना असंभव है। हमारे आज के शायर हुनर मंद मेहनती तो हैं ही अपने काबिल उस्तादों के चहेते भी हैं।

दिखाते ही नहीं जो मुद्दतों तिश्नालबी अपनी 
सुबू के सामने आकर वो प्यासे टूट जाते हैं 

किसी कमज़ोर को मज़बूत से चाहत यही देगी 
कि मौजें सिर्फ छूती हैं , किनारे टूट जाते हैं 

गुज़ारिश अब बुजुर्गों से यही करना मुनासिब है 
ज़ियादा हों जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं 

असली शायर वो ही है जो अपने वक्त की अच्छी बुरी बातें सही ढंग से सबके सामने रखे। ज्यादा उम्मीद से बच्चों के टूट जाने की बात आज के दौर की तल्ख़ सच्चाई है और इस सच्चाई को बेहद शायराना अंदाज़ से शेर में पिरोया गया है ! ऐसे ढेर सी ग़ज़लें और लाजवाब शेर समेटे जिस किताब " वाबस्ता ' का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं उसके शायर हैं जनाब 'पवन कुमार' साहब !



जब जब पलकें बंद करूँ कुछ चुभता है 
आँखों में इक ख्वाब सजा कर देख लिया 

बेतरतीब सा घर ही अच्छा लगता है 
बच्चों को चुपचाप बिठा कर देख लिया 

कोई शख्स लतीफा क्यों बन जाता है 
सबको अपना हाल सुना कर देख लिया 

बेतरतीब सा घर वाला शेर मेरे दिल के बहुत करीब है , बच्चों पर बहुत से शेर पढ़ें हैं लेकिन ऐसा शेर बहुत कम नज़र से गुज़रा है जिसमें बच्चों की शैतानियों का लुत्फ़ उठाने की बात इस सलीके से की गयी हो। आप सोच रहे होंगे की ऐसे कमाल के शेर कहने वाले शायर आखिर हैं क्या ? चलिए बता देते हैं ,खूबसूरत पर्सनेलिटी के स्वामी श्री पवन कुमार जी का जन्म मैनपुरी उत्तर प्रदेश में 8 अगस्त 1975 को हुआ याने इस हिसाब से वो बहुत युवा शायर हैं। बी एस सी , लॉ ग्रेजुएशन -सेंट जॉन्स कालेज ,आगरा से करने के बाद उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (I A S ) की परीक्षा सं 2008 में उत्तीर्ण की और तब से वो उ प्र संवर्ग में सेवा रत हैं।

उतरा है खुदसरी पे वो कच्चा मकान अब 
लाज़िम है बारिशों का मियाँ इम्तिहान अब 
खुदसरी - मनमानी 

कुर्बत के इन पलों में यही सोचता हूँ मैं 
कुछ अनकहा है उसके मिरे दर्मियान अब 
कुर्बत - सामीप्य , नजदीकी 

याद आ गयी किसी के तबस्सुम की इक झलक 
है दिल मेरा महकता हुआ ज़ाफ़रान अब 

नौकरी के सिलसिले में एक बार पवन जी का बरेली के मीरगंज कस्बे जाना हुआ जहाँ उनकी मुलकात जनाब 'अकील नोमानी' साहब से हुई , बकौल पवन जी " जनाब अकील नोमानी के साथ पहली मुलाकात से ही एक अजीब सा अज़ीज़ाना राब्ता कायम हो गया जो आज तक जारी-ओ-जारी है ! आज ये मज़मूआ 'वाबस्ता' अगर आपके हाथों में और आपकी नज़रों के सामने है तो इसका सबसे बड़ा श्रेय जनाब 'अकील नोमानी' को ही है। " अब अकील साहब पवन जी के बारे में क्या फरमाते हैं ये भी पढ़ लें " पवन कुमार एक खुशमिज़ाज इंसान , ज़िम्मेदार सरकारी अफसर और मोहतात लबोलहजे के शायर हैं। मुझे उनकी शायरी से भी कुर्बत हासिल है और अक्सर उनके किसी न किसी शेर ने ठहर कर मुझे गैरोफिक्र की दावत भी दी है।“

उदास रात के चौखट पे मुन्तज़िर आँखें 
हमारे नाम मुहब्बत ने ये निशानी की 

तुम्हारे शहर में किस तरह ज़िन्दगी गुज़रे 
यहाँ कमी है तबस्सुम की , शादमानी की 
शादमानी : ख़ुशी 

उसे बताये बिना उम्र भर रहे उसके 
किसी ने ऐसे मुहब्बत की पासबानी की 

शायरी के शुरूआती दौर में उनके मित्र 'मनीष शुक्ल , जी ने उनकी बहुत हौसला अफ़ज़ाही की। मनीष खुद बहुत उम्दा शायर हैं , उनकी किताब "ख्वाब पत्थर हो गए " का जिक्र आप हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला में पढ़ चुके हैं। याद न आ रहा हो या दुबारा पढ़ना चाहें तो इस लिकं पे क्लिक करें http://ngoswami.blogspot.in/2013_01_01_archive.html . 'मनीष शुक्ल ' जी के अलावा जनाब 'वसीम बरेलवी' साहब से भी उनका राब्ता है और आज भी वो उनसे बहुत कुछ सीखते हैं। मेरा ये मानना है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और जो इंसान सीखना छोड़ देता है उसकी तरक्क़ी वहीँ रुक जाती है।

खुला रहता है दरवाज़ा सभी पर 
तुम्हारा दिल है या बारहदरी है 

वही मसरूफ़ दिन बेकैफ लम्हे 
इसी का नाम शायद  नौकरी है 
बेकैफ : आनंद रहित 

भटकना भी नहीं बस में हमारे 
जिधर देखो तुम्हारी रहबरी है 

इस किताब पर रिजर्व बैंक अधिकारी जनाब 'मयंक अवस्थी' साहब जिनकी उर्दू शायरी पर कमाल की पकड़ है ने कहा है कि " पवन कुमार की ग़ज़लों के आँचल में इनकी गोद में और पलकों में इत्मीनान की वो धरती और वो आसमान इस आसानी से विस्तार ले जाता है कि आप खुद बहुत मुतमईन हो कर अपने आप को इनके हवाले कर देते हैं। पवन कुमार के शेर आपके शेर बन कर आपकी जुबान पर अपना रास्ता तय करते मिलते हैं। इनकी ग़ज़लों की एक खासियत यह भी है कि तमाम मुश्किलों झंझावातों के बावजूद उनके यहाँ एक उम्मीद की लौ निरंतर जलती सुलगती रौशनी देती मिलती है "

यूँ तो हरपल इन्हें भिगोना ठीक नहीं 
फिर भी आँख का बंज़र होना ठीक नहीं 

हर आंसू की अपनी कीमत होती है 
छोटी छोटी बात पे रोना ठीेक नहीं 

बेहतर कल की आस में जीने की खातिर 
अच्छे खासे आज को खोना ठीक नहीं 

आकर्षक कलेवर और आकार में छपी इस किताब की भूमिका में मशहूर शायर जनाब "शीन काफ निज़ाम' कहते हैं पवन की ग़ज़लें पढ़ कर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने अहसास को सलीके से अलफ़ाज़ देने की कोशिश की है " शीन काफ निज़ाम साहब की ये बात पाठक द्वारा किताब के वर्क पलटते हुए और उन पर शाया अलफ़ाज़ से रूबरू होते हुए महसूस की जा सकती है।

लहरों को भेजता है तकाज़े के वास्ते 
साहिल है कर्ज़दार समंदर मुनीम है 

वो खुश कि उसके हिस्से में आया है सारा बाग़ 
मैं खुश कि मेरे हिस्से में बादे -नसीम है 

साया है कम तो फ़िक्र नहीं क्यों कि वो शजर 
ऊँचाई की हवस के लिए मुस्तक़ीम है 
मुस्तक़ीम - सीधा खड़ा हुआ 

 'वाबस्ता' में पवन जी की करीब 50 ग़ज़लें और करीब 35 नज़्में शामिल हैं। इस किताब को 'प्रकाशन संस्थान , 4268 -B /3 , अंसारी रोड , दरियागंज , नयी दिल्ली -द्वारा छापा गया है। किताब प्राप्ति के लिए या तो आप प्रकाशन संस्थान को उनके फोन :011 -23253234 पर संपर्क करें, उन्हें info @prakashansansthan .com पर मेल करें या फिर वर्तमान में सहारनपुर में जिलाधिकारी के पद पर कार्यरत पवन जी को सीधा उनके मोबाईल न 09412290079 पर संपर्क करें और किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ लें। अगली किताब की तलाश पे निकलने से पहले लीजिये पढ़िए इस किताब में दी गयी एक ग़ज़ल के ये शेर :

ख्वाब गिरते ही टूट जाते हैं 
कैसी फिसलन है तेरी राहों में 

शाम चुपचाप आके बैठ गयी 
तेरे जलवे लिए निगाहों में 

ऐसी तकदीर ही न थी वरना 
हम भी होते किसी की चाहों में