धुंध ठिठुरन चाय स्वेटर और तुम
मुझको तो इस रुत का चस्का लग गया
किस तरह पीछा छुड़ाऊं चाँद से
क्यों मिरे पीछे ये गुंडा लग गया
बस अभी ही नींद आई है हमें
और साज़िश में सवेरा लग गया
उत्तर प्रदेश का एक जिला है गाज़ीपुर, हो सकता है आप जानते हों लेकिन शायद ये नहीं जानते होंगे कि वहां दुनिया का सबसे बड़ा लीगली अफीम बनाने का कारखाना है जो लगभग दो सो साल पुराना है. आप सोचते होंगे कि ग़ाज़ीपुर तक की बात तो चलो ठीक थी पर ये अफ़ीम वाली बात का क्या औचित्य है ? ठहरिये हम बताते हैं, बात दरअसल ये है कि हमारे आज के शायर की पैदाइश गाज़ीपुर की है और उनकी शायरी अफ़ीम के नशे जैसी है , जो एक बार लग जाय तो छूटता नहीं। हमारे आज के शायर की शायरी में ये तासीर घुट्टी में वहां से मिली मिट्टी से आयी है या किसी और वजह से ये शोध का विषय हो सकता है पर इस में कोई संदेह नहीं कि पाठक पर इसका नशा जब चढ़ता है तो फिर उतरने का नाम नहीं लेता।
खुली आँखें तो देखा हर तरफ थीं
हमारे ख़्वाब से निकली हुई तुम
तुम्हारे बाद मेरे साथ होगी
तुम्हारे लम्स में महकी हुई तुम
है बाहर तेज़ बारिश और घर में
घटाओं की तरह छाई हुई तुम
मैं अपनी आग में 'आतिश' घिरा था
वहीँ नज़दीक थी पिघली हुई तुम
अपने अशआरों में चाँद ,शाम ,याद, नदी ,शब ,नींद, ख़्वाब,सहर, समंदर , साहिल ,झील ,सूरज और दिल आदि लफ़्ज़ों से तिलिस्म रचने वाले हमारे आज के युवा शायर का नाम है स्वप्निल तिवारी 'आतिश' जिनके लिए उनके उस्ताद मोहतरम जनाब तुफैल चतुर्वेदी ने एक जगह लिखा है "स्वप्निल आपकी ग़ज़ल पढ़ना लफ़्ज़ों की पेन्टिंग देखने का ख़ूबसूरत काम है विद्यापति ने भगवान कृष्ण के लिये अपनी एक कविता में कहा है ‘तोहि सरिस तोहि माधव’ यानी माधव तुम्हारी उपमा केवल तुमसे ही दी जा सकती है। वही आपकी ग़ज़ल का हाल है आप कहां से लाते हैं ये लफ़्ज़ ? ? ? ? ?आपके शेर शब्द-चित्र बनाते हैं। सीधे-साधे लफ़्ज़, छोटे-छोटे बिम्ब मगर एक बड़े कोलाज को शक्ल देते हुए।“
आईये हाल ही में प्रकाशित हुई उनकी किताब "चाँद डिनर पर बैठा है " की बात करते हैं जिसने शायरी की दुनिया में धूम मचा दी।
सुना है जलाये गए शहर कल
धुआं तक नहीं लेकिन अखबार में
कहानी वहां है जहाँ मौत ही
नई जान डालेगी किरदार में
अब इनके लिए आँखें पैदा करो
नए ख़्वाब आये हैं बाजार में
संभल कर मिरि नींद को छू सहर
हैं सपने इसी कांच के जार में
लाजवाब शायर और बेहतरीन समीक्षक जनाब मयंक अवस्थी साहब ने उनके बारे में टिप्पणी करते हुए 'लफ़्ज़' के पोर्टल पर लिखा था कि "एक चीज़ काबिले गौर ये भी है कि बेहद जटिल विचारों को भी 'स्वप्निल' की भाषा सुलझा कर आसान कर देती है यही हुनर यही शीशागरी बार बार मुंह से वाह वाह निकलवाती है और इसी तस्वीरी सिफत के लिये ज़माना उनका मुरीद है सबसे कमाल की बात तो ये है कि स्वप्निल के अशार मे हताशा भी धनक रंग मिलती है.
देखते रहने से ही शायद ख़ुदा इक शक्ल ले
सोचता हूँ और ख़ला में देखता रहता हूँ मैं
चुन के रख लेता हूँ वक्फ़ा भीगने का मैं तेरे
बारिशों के बाद उसमें भीगता रहता हूँ मैं
देखकर तुझको पिघलते हैं ग़मों के ग्लेशियर
सामने हो तू तो आँखों तक भरा रहता हूँ मैं
वज्ह अगले पल ही कुछ से और कुछ हो जाती है
क्या बताऊँ किसलिए इतना डरा रहता हूँ मैं
मयंक अवस्थी जी आगे लिखते हैं कि "स्वप्निल कुदरत के जब भी नज़दीक जाते हैं बहुत उजली और बहुत खूबसूरत तस्वीर शेर मे ले कर आते हैं !! गज़लो की अगर मिस इण्डिया प्रतियोगिता हो तो स्वप्निल की ग़ज़लें निश्चित रूप से ये क्राउन पहनेगी !! कहाँ कहाँ के मनाज़िर हैं स्वप्निल के पास !!! और कितने शेडस हैं ??!! सभी एक से बढकर एक !!यह तय है कि लफ़्ज़ स्वप्निल के इख़्तियार में रहते हैं और वो उनसे जैसा चाहते हैं वैसा मआनी निकाल लेते हैं – यह हुनर और फन ईश्वरीय देन भी है और रियाज़ ने इसमें इज़ाफा किया है . उनके खयाल नए नहीं हैं लेकिन जिस खूबी से वो कहते हैं वो काबिले तारीफ है "
शाम होते ही उदासी चल पड़ी चुनने उन्हें
दिन के साहिल पर पड़ी हैं ग़म की मारी मछलियां
दिल के दरिया में जो आयी शाम चारा फेंकने
सतह पर आने लगीं यादों की सारी मछलियां
इक जज़ीरा बस वही सारे समंदर में है पर
ताक में बैठी हुई हैं वां शिकारी मछलियां
6 अक्टूबर 1985 को जन्में मंझले कद और गठीले बदन के स्वप्निल ने बलिया के ऐ एस बी एस इंटर कॉलेज से स्कूलिंग करने के बाद आई. एम्. एस. गाज़ियाबाद से बी एस सी बॉयोटेक की डिग्री हासिल की लेकिन इस क्षेत्र में काम करने की रूचि उनमें पैदा नहीं हुई। नौकरी के बारे उन्होंने सोचा नहीं और अपने दिल की आवाज़ पर वो काम करने लगे जो उन्हें बहुत प्रिय है याने स्वतंत्र लेखन का। फक्कड़ प्रकृति के स्वप्निल पहली नज़र में ही हर किसी को अपने से लगते हैं उनकी चश्मे से झांकती आँखें वो मंज़र देख लेती हैं जो आम इंसान को दिखाई ही नहीं देते। मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं कहूंगा क्यूंकि वो मुझे बहुत प्रिय हैं और उनके बारे में लिखते वक्त मैं अतिरेक से शायद बच न पाऊं इसलिए आईये उनके वो शेर पढ़ते हैं जो उन्हें भीड़ से अलग रख कर स्वप्निल बनाते हैं :
उसका मुझसे यूँ ही लड़ लेना और
घर की चीजों से शिकायत करना
इस से पहले के उसे देखो तुम
ठीक से सीख लो हैरत करना
मेरे ता'वीज़ में जो काग़ज़ है
उस पे लिखा है 'मुहब्बत' करना
किताब की भूमिका में प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक विमल चंद्र पांडेय ने लिखा है कि "जिस तारीक वक़्त में स्वप्निल ग़ज़लें कह रहे हैं, मुनासिब ही है कि उनकी ता'वीज़ में रखे कागज़ पर मोहब्बत करने की नसीहत लिखी हुई है। ये कागज़ दरअस्ल शायर का ज़ेहन है जिसमें वो पूरे जहाँ की मोहब्बतें लेकर फिक्रमंद घूम रहे हैं कि कोई बोट ऐसी भी हो जो समंदर को फतह करे। स्वप्निल की भाषा किसी भी तरह के आग्रह और दबाव से मुक्त है और उनकी ग़ज़लें एक शायर की अवाम से गुफ्तगू वाली आमफ़हम भाषा अख्तियार कर हमारे सामने आती है जो बेहद अपनी सी लगती है "
ये वक्त लम्बे दिनों का है सो ये रातें अब
बढ़ा रही है उदासी ही रातरानी की
तिरा ख्याल हुआ कैनवस पे मेहमाँ
कल
तमाम रंगों ने मिलजुल के बेज़बानी की
गुनाहे-इश्क किया और कोई सज़ा न हुई
जरूर तुम ने सुबूतों से छेड़खानी की
"चाँद डिनर पर बैठा है " किताब का साइज भी उसमें छपी ग़ज़लों की तरह अलग और दिलकश है "एनीबुक" ने इस किताब को जिसमें स्वप्निल की लगभग 150 से अधिक ग़ज़लें हैं ,बहुत ही आकर्षक अंदाज़ में प्रकाशित किया है। इसके पहले संस्करण के तुरंत बाद दूसरे संस्करण का मन्ज़रे आम पर आना इसकी लोकप्रियता का ठोस प्रमाण है। सबसे पहले ये किताब उर्दू में प्रकाशित हो कर धूम मचा चुकी है इसका हिंदी संस्करण तो बहुत महीनों बाद प्रकाशित हुआ। इसमें छपी लगभग सभी ग़ज़लें ऐसी हैं जिन्हें बार बार पढ़ने का, उनमें डूब जाने का मन करता है, अगर मुझे इस पोस्ट की लम्बाई और आपके कीमती वक्त का ध्यान नहीं होता तो यकीनन उनकी सभी ग़ज़लें आपको यहीं पढ़वा देता।
कोई मौसम हो ये फबता है तुझपर
तेरा ये पैरहन माँ ने सिया क्या
नए पत्ते ने पूछा है चमन से
ख़िज़ाँ का भी यही है रास्ता क्या
है पुर-असरार तेरी मुस्कराहट
तिरा ही नाम है मोनालिसा क्या
जड़ा है मुस्कुराता चाँद इसमें
तो फिर ये रात है शिव की जटा क्या
'स्वप्निल' और उन जैसे आज के बहुत से युवा शायरों की शायरी ताज़ी हवा के झौंके जैसी है। मेरी गुज़ारिश है कि बुजुर्ग शायरों को उन्हें आज शायरी में हो रहे बदलाव को समझने लिए और नए शायरी सीखने वाले युवाओं को लफ्ज़ बरतने का हुनर सीखने के लिए ,पढ़ना चाहिए। बदलाव जरूरी है वो चाहे ज़िन्दगी में हो चाहे शायरी में। बदलाव बिना साहस और हौंसले के लाया नहीं जा सकता और जिनमें साहस और हौंसले की कमी है वो लीक पर ही चलते रहते हैं बिना अपने पदचिन्ह छोड़े। स्वप्निल और उनके हमराह कई युवा शायर शायरी में बदलाव ला रहे हैं जो काबीले तारीफ़ है।
सूत हैं घर के हर कोने में
मकड़ी पूरी बुनकर निकली
ताज़ादम होने को उदासी
लेकर ग़म का शॉवर निकली
जब भी चोर मिरे घर आये
एक हंसी ही ज़ेवर निकली
'स्वप्निल' ,जो इनदिनों मुंबई में रहते हुए फिल्मों के लिए स्क्रीनप्ले और गीत लिख रहे हैं ,को सोशल मिडिया से जुड़े लोग तो पढ़ते ही आये हैं अब उनकी किताब आने से वो लोग जो सोशल मिडिया से नहीं जुड़े हैं ,भी उन्हें पढ़ सकते हैं. एक बात तो है कम्यूटर लैपटॉप या मोबाइल पर ग़ज़ल पढ़ने का वो मज़ा नहीं आता जो हाथ में किताब लेकर पढ़ने में आता है। अगर आप को शायरी से जरा सी भी मोहब्बत है तो देर मत कीजिये एनीबुक के पराग अग्रवाल से उनके मोबाइल न 9971698930 पर संपर्क कीजिये और किताब हासिल करने का आसान तरीका पूछिए, ये नहीं करना चाहते तो अमेजन से मंगवा लीजिये और हाँ स्वप्निल को उनके मोबाइल न 9425624247 पर बधाई देना मत भूलिए। मन तो नहीं कर रहा लेकिन अगली किताब की तलाश में निकलना ही पड़ेगा ,चलते चलते स्वप्निल की पहचान बन चुके उनके ये अशआर पढ़वाता चलता हूँ :-
अक्स मिरा आईने में
लेकर पत्थर बैठा है
उसकी नींदों पर इक ख़ाब
तितली बन कर बैठा है
रात की टेबल बुक करके
चाँद डिनर पर बैठा है