Monday, August 31, 2009

फूल तितली रंग खुशबू



गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने अपने ब्लॉग पर एक तरही मुशायरे का आयोजन किया था जिसमें बहुत से नामी गिरामी शायरों ने अपने बेमिसाल कलामों के साथ शिरकत की, उसी मुशायरे में खाकसार ने भी अपनी ग़ज़ल भेजी जिसे उसमें कुछ नए शेर जोड़ कर यहाँ पेश किया जा रहा है.

मुस्कुरा कर डालिए तो इक नज़र बस प्यार से
नर्म पड़ते देखिये दुश्मन सभी खूंखार से

नाम तो लेता नहीं मेरा मगर लगता है ये
रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से

फूल तितली रंग खुशबू जल हवा धरती गगन
सब दिया रब ने नहीं पर हम झुके आभार से

जो दिया था आपने, लौटा रहा है ये वही
किसलिए फिर कर रहे इतना गिला संसार से

दूर से भी दूर है वो पास से भी पास है
आप पर है आप करते याद किस अधिकार से

जब तलक है पास कीमत का पता चलता नहीं
आप उनसे पूछिए जो दूर हैं परिवार से

ज़िन्दगी में यूँ सभी से ही मिली खुशियाँ मगर
जो बिताये साथ तेरे दिन थे वो त्यौहार से

पीठ से मासूम की, लादा हुआ बस्ता हटा
दब रहीं किलकारियां हैं देख उसके भार से

झूठ कहने का हुनर 'नीरज' अगर सीखा नहीं
आप सहरा में नज़र आओगे फिर गुलज़ार से

Monday, August 24, 2009

किताबों की दुनिया -15


फौलादी इच्छा लेकर तू होजा खडा भूमि पर सीधा
पत्थर वाले समझ रहे हैं तुझको कच्चा काँच रामधन

खालिस नहीं चला करता है थोडा झूठ सीख ले पगले
झेल नहीं पायेगी दुनिया तेरा इतना साँच रामधन

आज जिक्र है श्री "राम सनेही लाल शर्मा 'यायावर' " जी की हिंदी ग़ज़लों की किताब "सीप में समंदर" का जिसे कलरव प्रकाशन १२४७/८६ शांति नगर, त्रि नगर, दिल्ली ने प्रकाशित किया है और जिसके " 'सुमन बुक सप्लायर्स" ८६, तिलक नगर बाई पास रोड फिरोजाबाद ने, वितरण की जिम्मेदारी संभाली है.



किताब अपने कलेवर से इतना आकर्षित नहीं करती जितना की अपने कथ्य की विविधता से. स्नेही जी ने इस किताब में हिंदी की लगभग साठ ग़ज़लों में अनूठे रदीफ़ प्रयोग किये हैं.

भूख बिठाकर घर में उसका यार हुआ है घूरे लाल
जैसे कोई पढ़ा हुआ अखबार हुआ है घूरे लाल

बिना काम के गुज़र रही ज़िन्दगी बिना उद्देश्य यहाँ
जैसे कोई दफ्तर का इतवार हुआ है घूरे लाल

इसे उठा कर लड़ना है तो धार धरो, तैयार करो
बिना धार की जंग लगी तलवार हुआ है घूरे लाल

श्री राम निवास शर्मा 'अधीर' जी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं की "डा.यायावर जी की ग़ज़लों में प्रेम है,किन्तु वह अकर्मण्य वासना के घेरे से मुक्त है,वेदना भी है, किन्तु वह यंत्रणा कक्ष में घुटने वाली नहीं है. इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी ग़ज़लों में जहाँ सुरमई सांझ की उदासी है, वहीँ रेशमी भोर का उजास भी है. "

जो संबोधन आस पास हैं
आम नहीं हैं, बहुत खास हैं

तुम तो पूरा महाकाव्य हो
हमीं अधूरा उपन्यास हैं

अधर आपके गंगा जल, हम
युग युग की अनबुझी प्यास हैं

हम तो कोरा भोजपत्र हैं
कुछ भी लिखिए आप व्यास हैं

जीवन में हम सब की समस्याएं लगभग एक सी हैं, इन्हीं समस्याओं पर सभी शायरों और कवियों ने अपनी कलम चलाई है, एक से ही विषय होते हुए भी किसी बात को कहने का और उसे महसूस करने का अंदाज़ ही उन्हें एक दूसरे से अलग करता है. इस किताब में एक ग़ज़ल है जिसमें रामसनेही जी ने अपने नाम को ही रदीफ़ की तरह इस्तेमाल किया है और क्या खूब किया है:

कबीरा की चादर को बैठे क्यूँ सीते हो रामसनेही
बाहर भरे-भरे हो पर भीतर रीते हो रामसनेही

भोर उदासी, दुपहर कुंठा, सांझ ढले सूनापन मन का
रोज-रोज इतने विष पी कर भी जीते हो रामसनेही

बौने पाँव, अँधेरे पथ हैं, इच्छाएं आकाश चूमती
तन से मृग हो किन्तु कर्म से तुम चीते हो रामसनेही

डा.यायावर की ग़ज़लों का केनवास काफी विस्तृत है. व्यक्ति से लेकर साहित्य, संस्कृति, समाज, परिवार, देश, अर्थ तंत्र, धर्म, शिक्षा, राजनीती, आतंक आदि विषयों पर उनके शेर कमाल का प्रभाव पैदा करते हैं. उन्होंने अपनी दार्शनिक सोच को भारतीय संस्कारों के तहत अपने शेरों में रूपायित किया है.

आंसू, पीडा, कलम, प्रतिष्ठा ओ' ईमान दुकानों पर
मत पूछो, क्या क्या देखा हमने सामान दुकानों पर

शो केसों में धरे धरे क्यूँ तलवारों में बदल गए
आदि ग्रन्थ, रामायण, गीता और कुरान दुकानों पर

धूप, चांदनी कैद करेंगे अपनी अपनी मुठ्ठी में
लेकर बैठे हैं कुछ पागल ये अभियान दुकानों पर

सन 1949 में जन्में डा.राम सनेही लाल शर्मा 'यायावर' जी एम् ऐ, पी एच डी., डी.लिट हैं और एस. आर. के. स्नातकोत्तर महाविद्यालय फिरोजाबाद के हिंदी विभाग में रीडर के पद पर काम कर रहे हैं. आपकी गीत ग़ज़ल मुक्तक,व्यंग रचनाओं ,हायकू, लघु कथाओं एवम दोहों की बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. पाठक उनसे मोबाईल न. 094123 16779 या उनके ई-मेल dr_yayavar@yahoo.co.in पर संपर्क कर इस पुस्तक की प्रति मंगवाने का आसान तरीका पूछ सकते हैं.

संत्रास, वेदना, कुंठाएं, सपने, भ्रम और निराशाएं
जर्जर पुतले की साँसों में है कितनी ठेलमठेल यहाँ

हर ऋषि के लिए सलीब नई हर पाखंडी को शिव मंदिर
हर नयी व्यवस्था गढ़ जाती है 'यायावर' को जेल यहाँ

इस से पहले की हम आपके लिए कोई नयी किताब ढूढने निकलें चलिए 'यायावर' जी की इस किताब की एक ग़ज़ल के शेर और सुनाते चलते हैं.

पीर तुम्हारी पतिव्रता है
इसे न झटको यायावर जी

साँसों की कड़वी कुनैन है
चुपके गटको यायावर जी

Monday, August 17, 2009

गीत बारिश के गाइये साहब

तेरह अगस्त की रात के बारह बज कर तीन मिनट हुए थे जब मोबाईल की घंटी बजी...घडी में चौदह तारिख आ चुकी थी...हंसते हुए पाबला जी लाइन पर थे...उसके ठीक चार मिनट के बाद कुश की खिड़की के रास्ते से फेंकी हुई बधाई की टोकरी सीधी खोपडी से आ टकराई, फलस्वरूप प्यार से उभरे हुए गूमड़ को छू कर मुझे एहसास हो गया था की अगली सुबह से क्या होने वाला है लेकिन इतना कुछ होगा इसका अनुमान नहीं था. मेरे अनुज और गुरु पंकज सुबीर जी ने जहाँ एक ग़ज़ल और लता जी द्वारा गाये और पंडित नरेन्द्र शर्मा जी द्वारा रचित गीत से मुझे स्नेह सिक्त किया वहीँ पाबला जी ने डंके की चोट पर सब को मेरे जन्म दिन के बारे में सूचित कर दिया.

मैं दिल से आभारी हूँ आप सब का जिन्होंने मुझे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी शुभ-कामनाएं दीं और मेरे एक साधारण से दिन को अपने स्नेह से असाधारण बना दिया. इस अवसर पर आदरणीय महावीर शर्मा जी का लन्दन से, अमेरिका से दीदी सुधा धींगरा जी और भाई राकेश खंडेलवाल जी का फोन किसी आर्शीवाद से कम नहीं था . मुझे डाक्टर अनुराग और प्रिय गौतम एवं रवि कान्त जी से पहली बार बात करने का अवसर प्रदान करने वाला ये दिन कभी नहीं भूलेगा .नन्हीं बहिन कंचन चौहान की खिलखिलाती आवाज़ मुझे हमेशा खुश रहने को प्रेरित करती रहेगी .

लीजिये अब प्रस्तुत है एक ताज़ा ग़ज़ल




झूठ को सच बनाइये साहब
ये हुनर सीख जाइये साहब

खाक भी डालिये शराफत पर
आप दौलत कमाइये साहब

भूख से बिलबिलाते लोगों को
कायदे मत सिखाइये साहब

खार पर तितलियाँ नहीं आतीं
फूल सा मुस्कुराइये साहब

दीजिये खाद जब तलक फल दे
वरना आरी चलाइये साहब

तेज तपती हुई दुपहरी में
गीत बारिश के गाइये साहब

दर्द की इंतिहा परखने को
चोट अपनों से खाइये साहब

आप कहते हैं जो उसे 'नीरज'
आचरण में भी लाइये साहब



( इस ग़ज़ल को गुरुदेव पंकज जी का स्नेह प्राप्त हुआ है )

Monday, August 10, 2009

वंदना

(ये एक टाईम पास पोस्ट है...इसे सीरियसली ना लें)

राम शरण जी पिछले पांच साल से मेरी शरण में हैं...इस से पहले तीस साल किसी और की शरण में थे...वो ऐसी महान विभूति हैं जो हमेशा किसी न किसी के चरणों में ही जीवन व्याप्त करती है...उनकी एक और खूबी है की वे जिसके चरणों में रहते हैं उसकी निरंतर वंदना करते रहते हैं...ऐसा उन्होंने मुझे खुद तो नहीं बताया लेकिन मेरे विश्वस्त सूत्रों से ये जानकारी मुझे मिल गयी ...पिछले पांच सालों से वे मुझे रिझाने का भागीरथी प्रयास करते आ रहे हैं...मैं उन्हें हमेशा कहता हूँ की राम शरण जी आप का काम ही आपको उचित स्थान दिलाएगा...उस पर ध्यान दीजिये...लेकिन आदतानुसार उनका ध्यान मेरी वंदना पर अधिक रहता है...आखिर उनका पिछला तीस साल का तजुर्बा उन्हें और कोई काम करने ही नहीं देता...उन्हें लगता है की मैं उन्हें पथ भ्रष्ट कर रहा हूँ....वंदना से उनके अब तक के सारे काम होते आये हैं अब मैं उन्हें कह रहा हूँ की वंदना मत कीजिये तो भला वो मांनेगे? आप उनकी जगह होते तो क्या मानते....सच सच बताईयेगा.

वैसे सच्ची बात तो ये है की उनकी वंदना से मुझे अपने बारे में गलत फ़हमी भी होने लगी है. मुझे लगने लगा है की वो मेरे बारे में जो कहते हैं शायद सच है. मैं उनके कहे अनुसार सर्वगुण संपन्न हूँ.उन्होंने ही मेरी प्रतिभा और महानता को पहचाना है. किसी ने कहा है की झूठ अगर बार बार बोला जाये तो वो सच लगने लगता है. कुछ भी हो राम शरण जी ने मेरी कमजोरी को भांप लिया है तभी तो वो बे-धड़क जब चाहे मेरे केबिन में दुआ सलाम करने चले आते हैं.
मैंने दिमाग को काम में लेना ही बंद कर दिया क्यूँ की दिमाग कभी मुझे फटकार लगाता है तो कभी मेरी नासमझी पर हँसता है

वो मेरे पास क्या काम करते हैं या ये पूछें की उनका काम क्या है तो मेरे लिए इस बात का जवाब देना जरा मुश्किल है क्यूँ की आप उन्हें जो भी काम देंगे वो नहीं करेंगे . उनका एक मात्र उद्देश्य उस काम को किसी और के गले में डाल कर मस्त घूमने का है और काम हुआ या नहीं हुआ इसकी सूचना मुझे दे कर वंदना में लीन होने का है.

एक दिन वो मेरी केबिन में आये और हाथ जोड़ कर खड़े हो गए...ये उनकी चिर परिचित मुद्रा थी इसलिए मैंने बिना अपना सर कम्पूटर की स्क्रीन से उठाये पूछा
"कहिये राम शरण जी कैसे आये?"
उन्होंने अपना गला साफ़ किया और जितनी मिठास अपनी बात में ला सकते थे ला कर कहा
"सर आपने सुना है लोग क्या कह रहे हैं?"
"किस बारे में?"
"आपके बारे में में सर"
"मेरे बारे में?" अब मैंने सर उठा लिया, बात मेरी जो हो रही थी
"क्या कह रहे हैं?" मैंने जितनी लापरवाही बात में लाई जा सकती ला कर कहा.जिज्ञासा दर्शाने का अर्थ था उनके भाव बढ़ाना.
"आप को कोई फर्क नहीं पढता क्या सर"
"किस बात से" .
"लोग आपके बारे में जो कह रहे हैं उस से सर"
"क्या कह रहे हैं राम शरण जी सीधे सीधे बताईये पहेलियाँ बुझाने का वक्त मेरे पास नहीं है" मैंने खीजते हुए कहा.
" ये ही की आपका एक ब्लॉग है सर" उन्होंने गर्दन झुका कर कहा.
"ब्लॉग?" मैंने हैरानी से कहा.
"जी सर जिसमें आप शायरी लिखते हैं"
"आप को किसने कहा?"
"किसने? किसने नहीं कहा ये पूछिए सर."
"फिर?"
"फिर क्या मत पूछिए सर. आप मुझे बताईये ना की क्या आपका कोई ब्लॉग है? लोगों की बातों में कोई दम नहीं है ना सर...आप एक बार ना कह दें सर फिर देखिये मैं इन सब का क्या हाल करता हूँ...आप का चरण दास हूँ सर..." राम शरण जी वंदना के मूड में आ चुके थे.
"ब्लॉग है तो इसमें क्या बुराई है ? आप बेकार परेशां हो रहे हैं." मैंने कहा.
मुझे अपनी ही बात में कोई दम नहीं आ रहा था. राम शरण जी की नज़रों से मैं गिर चूका था.
राम शरण जी गर्दन झुकाए खड़े रहे.
"क्या हुआ? आप ऐसे क्यूँ खड़े हैं?"
"सर आप कह दीजिये की लोग जो कह रहे हैं सब झूठ है"
"अरे इसमें झूठ कहने जैसा क्या है? ब्लॉग है तो है..." मैं कुछ मुस्कुराता हुआ बोला.
"अच्छा सर मान लेते हैं की आपका ब्लॉग है लेकिन आप उसमें शायरी थोडी ना लिखते हैं"
"शायरी ही लिखते हैं राम शरण जी, हाँ कभी कभार शायरी की किताबों के बारे में भी लिख देते हैं...क्यूँ?"
"शायरी की किताबों के बारे में भी ?" राम शरण जी चौंके.
"आपकी परेशानी क्या है राम शरण जी सीधे सीधे बताईये ना" मैंने लगभग झुंझलाते हुए कहा.
राम शरण जी कुछ नहीं बोले बस सर झुका कर केबिन से बाहर चले गए.
तीन दिनों तक जब उनके दर्शन नहीं हुए तो मैंने लोगों से पता लगवाया. पता चला की वो आये ही नहीं हैं काम पर तबियत ठीक नहीं है. चौथे रोज वो मेरे केबिन में सर झुकाए खड़े थे.
"क्या हुआ आप कहाँ रहे तीन दिन?"
"सदमें में"
"सदमें में?" मैं चौंका..."सब कुशल तो है?"
"कुशल नहीं है सर..."
"क्या हुआ है"
"क्या नहीं हुआ? हमारी धारणा का कचरा हो गया सर.."
"कौनसी धारणा?"
"आपके बारे में की गयी धारणा...आप हम को गलत सिद्ध कर दिए सर"
मैंने प्रश्न चिन्ह निगाहों से उनकी और देखा
"हम सोचते थे की हमारा तो जीवन ही धन्य हो गया जो इतने कर्मठ इंसान के पास काम करने का मौका हमें भगवान् दिए हैं. जब भी आपको देखते कम्पूटर स्क्रीन पर नजरें जमाये ही देखते. हमेशा कुछ सोचते टाईप करते देखते. सभी को कहते फिरते थे हम की ये कंपनी जो इतना मुनाफा कमा रही है वो हमारे साहब की मेहनत की वजह से है. हम हमेशा सब को आप जैसा बनने की सलाह दिया करते थे सर लेकिन...लेकिन..अब सर मेरा ट्रांसफर कहीं दूसरी जगह करवा दीजिये" राम शरण जी सुबकते हुए बोले.
"ट्रांसफर? क्यूँ ?अचानक?"
"अचानक नहीं सर हम आपकी बहुत इज्ज़त करते हैं सर, आप को कर्मठ मानते हैं सर..हम तीन दिनों तक सोचते रहे सर, तब कहीं आपको बदनामी से बचाने का बस येही एक हल निकला...हमारा यहाँ से ट्रांसफर.
"बदनामी? कैसी बदनामी? आप कहना क्या चाहते हैं राम शरण जी?"
"सर अगर हम आपके पास ही काम करते रहे तो लोग जो कहना शुरू कर देंगे उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे.
"क्या कहना शुरू कर देंगे?" मैंने पूछा
वो हिचकिचाए...बोलने का प्रयास किया फिर रुक गए.
"अरे बोलिए बोलिए राम शरण जी घबराईये मत." मैंने हिम्मत बंधाते हुए कहा.
"सर वो कहेंगे...वो कहेंगे..."
"हाँ हाँ बोलो बोलो क्या कहेंगे?"

" एक निठ्ठले का बॉस भी निठ्ठला "

इस से पहले की मैं कुछ कहता राम शरण जी केबिन से तेजी से निकल गए.

मैं तब से सोच में बैठा हूँ क्या करूँ ? निठ्ठला की पदवी ग्रहण कर ब्लॉग पर शायरी करता रहूँ या फिर राम शरण जी को अपनी ही शरण में रक्खे रहने के लिए इसे बंद कर दूं? आप मेरी जगह होते तो क्या करते बताईये न? प्लीज. :))

Monday, August 3, 2009

रात-दिन घंटियाँ बजाने से




गीत बचपन के वे सुहाने से
गुनगुनाओ किसी बहाने से

बातें सच्ची कभी -कभी यारो
झूठ लगती हैं फुसफुसाने से

हौंसले कातिलों के बढ़ते हैं
बाँध के हाथ गिड़गिड़ाने से

रब कभी कुछ नहीं दिया करता
रात-दिन घंटियाँ बजाने से

याद एहसान कौन रखता है
फायदा भूल जा गिनाने से

मायने ही न जो समझ पाए
बात बचिए उसे सुनाने से

इश्क भी बोझ सा लगे 'नीरज'
हर घडी यार को मनाने से


{"आदरणीय गुरु देव प्राण शर्मा जी का आर्शीवाद प्राप्त ग़ज़ल "}