Monday, April 25, 2016

किताबों की दुनिया -123

अगर इंसान सूरज चाँद आदि पर से नज़र हटा कर गैलेक्सी के बाकी तारों की और नहीं देखता तो कैसे पता चलता कि कुछ तारे चाँद सूरज से कई गुना बड़े और विशाल हैं और जिनके सामने हमारे सूरज चाँद भी बौने लगते हैं इसी तरह अगर हम किताबों की दुनिया श्रृंखला में अगर ग़ालिब मीर मज़ाज़ इकबाल आदि की ही चर्चा करते रहते तो न जाने कितने ही अंजान शायरों और उनकी पुख्ता बेमिसाल शायरी से हमारा परिचय न हो पाता। हमें कैसे पता लगता की कोई शायर है जो कहता है कि :-

मोहब्बत में मेरे ज़ज़्बात को ऐसे रसाई दे 
सरापा इश्क कहलाऊं ज़माने को दिखाई दे 
ये जादू है धड़कना दिल का, शेरों में सुनाई दे 
ग़ज़ल सर चढ़ के बोले सारे आलम को दिखाई दे 

दिल के धड़कने के जादू को अपने शेरों में ढालने वाले उस शायर का परिचय आज हम अपनी इस श्रृंखला में करवा रहे हैं जिसकी ग़ज़लें वाकई सर चढ़ के बोलती हैं। ये पुरकशिश व्यक्तित्व और बा-विक़ार सोच वाला शायर निहायत ही शर्मीला इंसान है जो शोहरत के तामझाम से कोसों दूर अपने हाल में मस्त अपनी रचना शीलता में डूबा हुआ है ,उसका कहना है कि :

जांनशीं से दुश्मन तक सारे रिश्तों-नातों को, फेंक दें समंदर में 
लहर लहर बेदारी की हसीं रिदा ओढ़ें, आओ फिर ग़ज़ल कह लें 
रिदा : रज़ाई 

वो कि एक चेहरा है या किताब या दरिया या कोई समंदर है 
नीमबाज़ आँखों में उसकी झाँक कर देखें, आओ फिर ग़ज़ल कह लें 

दर्दनाक चेहरों पर मुस्कुराहटें ओढ़ें, खुद को जा-ब-जा बेचें 
हम 'तपिश' तुम्हें गुज़रा वक़्त मान कर सोचें, आओ फिर ग़ज़ल कह लें

मक्ते में आये तखल्लुस से आप को शायर के नाम का अंदाज़ा तो हो ही गया होगा जिन्हें नहीं हुआ उन्हें बता दूँ कि हमारे आज के शायर हैं 31 मार्च 1949 को जन्में ग़ाज़ियाबाद निवासी जनाब "मौनी गोपाल 'तपिश' " साहब जिनकी किताब "फैसले हवाओं के " का जिक्र हम करने जा रहे हैं, जिसमें उनकी लगभग 50 ग़ज़लें, बहुत से फुटकर शेर ,कुछ नज़्में ,गीत और मुक्त छन्द भी हैं। ज़ाहिर सी बात है यहाँ तो उनकी सिर्फ ग़ज़लों की चर्चा ही होगी : 


ज़रा सी रौशनी महदूद कर दो 
अंधेरों को दिया खलता बहुत है 
महदूद =हद के भीतर 

गिले मुझसे हैं उसको बात दीगर 
मुझे उसने कहीं चाहा बहुत है 

वो मेरा दोस्त है ये सच है लेकिन 
वो तारीफें मेरी करता बहुत है 

ये चोटें ऊपरी दिखती हैं यूँ तो 
वो अंदर तक कहीं टूटा बहुत है 

अपने फेडोरा हैट और फ्रेंच कट दाढ़ी की वजह से दूर से ही पहचान लिए जाने वाले चुंबकीय व्यक्तित्व के स्वामी मौनी साहब की ग़ज़लों का मूल रंग इश्क है। ये ऐसा रंग है जो सभी को अपनी और आकर्षित करता है। उनकी ग़ज़लों के शेर हमारे दिल में सहज ही उतर जाते हैं। वो मोहब्बत से भरे इंसान हैं ,उनका कहना है कि अगर मैं चुप रहा तो मेरी मोहब्बत मेरी निगाहों से ज़ाहिर हो जाएगी , मैं अपनी मोहब्बत के मोतियों को ग़ज़लों में पिरो देता हूँ क्यूंकि ज़िन्दगी में मुहब्बत की जितनी जरुरत है उतनी ही ग़ज़लों को भी मोहब्बत की चाहत है।

इश्क मोहब्बत के अफ़साने, राँझा ,मजनू या फ़रहाद 
सब गुल, बूंटे खुशबू वाले लेकिन हैं तलवार के नाम 

साहिल साहिल, मौजें मौजें, तूफाँ तूफाँ सब हमवार 
दरिया-दरिया, कश्ती-कश्ती, सब ठहरे पतवार के नाम 

हंसना-गाना, रोना-धोना, महके, दहके सब एहसास 
मैं तो सब कुछ करना चाहूँ , एक उसी बस प्यार के नाम 

नग्मों की ये रंगा-रंगी, तानें, तोड़े और आलाप 
उसकी थिरकन, उसके ठुमके पायल की झंकार के नाम 

मौनी जी की ग़ज़लें ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे-कड़वे अनुभवों को बहुत ख़ूबसूरती से बयाँ करती हैं। श्री कुंअर बैचैन ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की " मौनी जी का तखल्लुस 'तपिश' उनकी ग़ज़लों में झलकता है। शायरी के लफ़्ज़ों में अगर तपिश न हो तो उसे मरी हुई ही समझो। ये तपिश प्रेम की तपिश है, अध्यात्म की तपिश है, संसार के दुःख-दर्द की तपिश है, आहों की तपिश है, कराहों की तपिश है, बहते हुए गर्म आंसुओं की तपिश है और दुःख के काँटों की चुभन से दुखते हुए ज़ख्मों के जलन की तपिश है। "

तुम्हें ज़िद है अकेले ही चलोगे, सोच कर देखो 
ये कुछ आसां नहीं तन्हाइयाँ बरबाद कर देंगीं 

हमारा क्या कि हम कर जायेंगे दुनिया से कल पर्दा 
तुम्हें इस दर्द की पुरवाइयाँ बरबाद कर देंगी 

पुराने ज़ख्म ऐसे खोल कर रखने से क्या हासिल 
ये अपने पर सितम-आराईयां बरबाद कर देंगी 
सितम-आराईयां=अन्याय पसंदगी 

ग़ज़ल सच्ची कहो, अच्छी कहो, जो दिल को छू जाए 
'तपिश' ये काफ़िया पैमाइयाँ बरबाद कर देंगी 

ईश्वर में विशवास रखने वाले लेकिन उसके नाम से होने वाले आडम्बरों और लूट से आहत मौनी जी ने अपना जीवन ग़ाज़ियाबाद में ही गुज़ारा है। यहीं पले -बड़े-पढ़े और यहीं की इंद्रप्रस्थ पॉवर जनरेशन कम्पनी लिमिटड में 38 वर्ष काम करने के बाद रिटायर हो कर अब परिवार के साथ आनंद का जीवन बिता रहे हैं!"मौसम उदास पथरीले (2003 " ,"जो तुमसे कहा (2007) के बाद "फैसले हवाओं के" उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है जिसका लोकार्पण 2015 मई माह के अंत में स्थानीय रोटरी भवन के हाल में अदबी संगम द्वारा आयोजित किया गया था, कार्यक्रम की अध्यक्षता उर्दू अकेडमी दिल्ली के जनाब डा. खालिद महमूद साहब ने की थी।

मैं बताऊँ तुम्हें जो जानो तुम 
फुरसतें कितनी जानलेवा हैं 

एक लमहा किसी से मिलने का 
मुद्दतें कितनी जानलेवा हैं 

उससे मिलना ,बिछड़ना फिर मिलना 
आदतें कितनी जानलेवा हैं 

सिर्फ इक अक्स सोचते रहना 
चाहतें कितनी जानलेवा हैं 

'जानलेवा हैं' वाले रदीफ़ की ये ग़ज़ल वाकई जानलेवा है. ऐसे अनूठे रदीफ़ और काफिये मौनी साहब ने अपनी इस किताब की ग़ज़लों में सजाएँ हैं कि दिल पढ़ते हुए अश-अश कर उठता है। 'सरवर हसन सरवर' जी ने किताब के फ्लैप पर लिखा है कि " मौनी साहब की शायरी में उनके जज़्बों की पाकीज़गी साफ़-साफ़ नज़र आती है। इंसानी रिश्तों में बिखराव और मआशरे में पाई जाने वाली ना-आसूदगी (असंतोष) व महरूमी पर मलाल के साथ मुस्तकबिल के रोशन और खुशहाल होने की उम्मीद जनाब 'मौनी गोपाल तपिश' साहब के कलाम को हर खासो-आम के दिलों तक पहुंचाती है।

यूँ तो उम्रें बीत जाती हैं किसी की याद में 
एक पल का वास्ता था एक पल गुज़रा नहीं 

सिर्फ तन्क़ीदें न कर, मुझमें कभी जी कर भी देख 
तू कभी शायद कहे, ऐसा ही कर वैसा नहीं 
तन्क़ीदें =आलोचना 

ज़िन्दगी कैसे कटेगी तुझसे बिछुड़ा मैं अगर 
एक ख़दशा हर घडी था, जिससे मैं उबरा नहीं 
ख़दशा = संदेह 

इस बेजोड़ किताब की प्राप्ति के लिए आप "अनुभव प्रकाशन -गाज़ियाबाद " से 09811279368 पर संपर्क कर सकते हैं लेकिन जैसा मैं हमेशा कहता आया हूँ कि बेहतर तो यही रहेगा आप मौनी जी से उनके मोबाईल न 7503070900 पर बात कर उन्हें बधाई दें और इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ लें और जो लोग फ़ोन करने कतराते हैं वो उन्हें mgtapish@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।
मेरा अब इस पोस्ट से अलविदा कहने का वक्त आ गया है लेकिन मलाल ये रह गया है कि मैं मौनी जी के कुछ और बेहतरीन शेर ,उनकी नज़्में , गीत और मुक्त छन्द चूँकि आपको नहीं पढ़वा पा रहा इसलिए गुज़ारिश करता हूँ कि जल्द से जल्द आप इस किताब को मंगवाएं और पढ़ें। मुझे यकीन है कि इसे पढ़ते वक्त आपके दिल से मौनी जी और मेरे लिए दुआएं ही निकलेंगी।
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ते चलें :

ग़म हुए, फिर ग़म हुए, फिर ग़म हुए 
आँख के कोने कभी पुरनम हुए ? 

ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी की बात क्या 
जब भी वो हमसे कभी बरहम हुए 
बरहम = नाराज़ 

इश्क ठहरा फिर चला फिर रुक गया 
फिर वही शिकवे-गिले पैहम हुए 
पैहम = साथ 

तेरी आँखें, तेरे आरिज़, तेरे लब 
ज़िन्दगी में मोजजे हर दम हुए 
 आरिज़ = गाल , मोजजे = चमत्कार

Monday, April 11, 2016

किताबों की दुनिया -122

बहुत पहले की बात है 'दीपक भारतदीप' की लिखी सिंधु -केसरी पत्रिका में एक कविता पढ़ी थी , आज किताबों की दुनिया की इस श्रृंखला में उसी कविता की शुरुआत की इन पंक्तियों से अपनी बात शुरू करते हैं , पूरी कविता तो वैसे भी अब याद नहीं :-

सादगी से कही बात 
किसी को समझ नहीं आती है 
इसलिए कुछ लोग
श्रृंगार रस की चाशनी में डुबो कर सुनाते हैं 
अलंकारों में सजाते हैं 
तो कुछ वीभत्स के विष से डराते हैं 

आज हम उसी सादी सरल और सीधी जबान के उस्ताद शायर और उनकी लाजवाब किताब की चर्चा करेंगे, जो अपने अशआरों को न अलंकारों से सजाता है और ना ही वीभत्स रस से डराता है,जिनके लिए मयंक अवस्थी जी के शेर का मिसरा-ए-ऊला " सादगी पहचान जिसकी ख़ामुशी आवाज़ है " एक दम सटीक बैठता है। धीरज धरिये उनका नाम भी बतातें हैं लेकिन पहले जरा उनके ये शेर देखें :

नहीं चल पाउँगा मैं साथ उसके 
ये दुनिया बेसबब ज़िद पर अड़ी है 

हवा ने फाड़ दी तस्वीर लेकिन 
अभी इक कील सीने में गड़ी है 

मियां इस शहर में किस को है फुर्सत 
हमारी लाश खुद जाकर गड़ी है 

निकल आया अँधेरे में कहाँ मैं 
मिरी परछाईं बिस्तर पर पड़ी है 

शायर का नाम बताने से पहले शुक्रिया करना चाहूंगा एक बेहतरीन शायर छोटे भाई समान "अखिलेश तिवारी " जी का जिनके सौजन्य से इस बाकमाल शायर की शायरी से रूबरू का मौका मिला। हमारे आज के शायर हैं 1954 शाहजहाँपुर उ.प्र. में जन्में जनाब "सरदार आसिफ खां "जिनकी किताब "पत्थर में कोई है" की चर्चा हम करेंगे। 


अगर चेहरा बदलने का हुनर तुमको नहीं आता 
तो फिर पहचान की परची यहाँ जारी नहीं होती 

समंदर से तो मज़बूरी है उसकी, रोज़ मिलना है 
बहुत चालाक है लेकिन नदी, खारी नहीं होती 

हवा की शर्त हम क्यों मानते क्यों इस तरह दबते 
हमें गर सांस लेने की ये बीमारी नहीं होती 

सरदार आसिफ उस शायर का नाम है जिसे चाहे अब तक वो शोहरत न मिली हो जिसके वो हकदार हैं लेकिन उनकी शायरी आम शायरी से बिलकुल अलग है। बकौल जनाब इफ़्तेख़ार अमाम साहब "आसिफ न पुरानी शायरी करता है न जदीद बल्कि इसका तो अपना एक अलग रास्ता है जिसे सोच-शायरी का नाम दिया जा सकता है।" अपनी शायरी के प्रति उदासीन इस शख्श ने न जाने क्यों अपनी कुछ ग़ज़लें फाड़ दीं जला दीं या खो दीं अगर उन्हें आज जांच परख कर छापा जाता तो हिंदी /उर्दू अदब में बड़ा इज़ाफ़ा हो सकता था।

घर पे हमारे नाम की तख्ती नहीं लगी 
शोहरत की शक्ल ही हमें अच्छी नहीं लगी 

ऊँगली को एक खार ने ऐसा दिया है ज़ख्म 
आँगन में फिर गुलाब की टहनी नहीं लगी 

बच्चे सभी उदास हैं क्या खोलें मुठ्ठियाँ 
शायद किसी के हाथ वो तितली नहीं लगी 

क्या कह रहे हैं आप उसे छू के आये हैं ? 
ज़िन्दा हैं कैसे आपको बिजली नहीं लगी 

बी. एस.सी , एम. ऐ. ,बी.एड करने के बाद आसिफ साहब शाहजहाँपुर में कई वर्षों तक शिक्षक रहे और फिर पी. सी.एस. के इम्तिहान पास कर जिला अधिकारी पद पर टिहरी गढ़वाल में नियुक्त हुए। बाद में इसी पद पर देहरादून ,ग़ाज़ियाबाद , इटावा ,बदायूं , बिजनौर और मुरादाबाद जनपद में कार्यरत रहे। 1983 में प्रोन्नत होकर सहारनपुर मंडल के उपनिदेशक (पंचायती राज) पद पर नियुक्त हुए और वर्तमान में उपनिदेशक (पंचायती राज) मुरादाबाद के पद के साथ साथ उपनिदेशक (समाज कल्याण) मुरादाबाद मण्डल का कार्य भार भी संभाल रहे हैं।

हो हल्ला कर रहा था बहुत अपनी प्यास का 
देखा जो मेरा हाल तो सहरा हुआ ख़मोश 

क्या फिर खंडर में रात किसी ने किया क़याम 
है इक चिराग ताक में रखा हुआ ख़मोश 

पहचानने लगेगी उसे जल्द ही वह भीड़ 
इक शख्श है जो कोने में बैठा हुआ ख़मोश 

इस कोने में बैठे ख़मोश शख्श को भीड़ ने पहचाना और खूब पहचाना क्योंकि ये शख्श बामक़सद शायरी करता है , किसी को सामने रख कर, मुशायरे या कवि सम्मेलन की तालियां और वाह वाह को ध्यान में रखते हुए शायरी नहीं करता। वो बहुत इमानदारी से फरमाते हैं कि " मैं बहुत पढ़ा लिखा आदमी भी नहीं हूँ कि जो चाहे जब चाहूँ लिख लूँ। मैं खालिस इल्हाम हूँ , मैंने भाषाई कुंठाओं को तोड़ कर ग़ज़ल रुपी एक अहम विद्या को नि :तांत व्यक्तिगत तौर पर समझने परखने का प्रयास किया है "

हैं मयकदे में आप, मुझे क्यों हो ऐतराज़ 
दुःख यह हुआ कि आप का बेटा भी साथ है 

बेवा हुई तो आना पड़ा उसको माँ के घर 
ग़ुरबत है , वो है ,छोटा सा बच्चा भी साथ है 

हालां कि उसके कब्र में लटके हुए हैं पाँव 
लेकिन नए मकान का नक्शा भी साथ है 

"पत्थर में कोई है" से पहले आसिफ साहब का देवनागरी में पहला ग़ज़ल संग्रह 'दरिया-दरिया रेत " के बाद उर्दू में "चाँद काकुल और मैं " एवं 'डूबते जज़ीरे" ग़ज़ल संग्रह मंज़र-ऐ-आम पर आ कर मकबूल हो चुके हैं। जितना उन्होंने लिखा है उसका छोटा सा अंश ही उनकी इन चार किताबों पाया है। इसके अलावा उनकी दो संग्रह देवनागरी और उर्दू में अभी शाया होने को हैं। किडनी की बीमारी से लड़ते हुए उन्होंने अपनी शायरी पर उस परेशानी की आंच नहीं आने दी और लगातार लिखते रहे हैं।

किसी का पाँव जल सकता है भाई 
दिया क्यों रख दिया है रौशनी में 

यही तो जब्र मुझ पर हो रहा है 
किसी को देखना होगा किसी में 

परी वरना तिरी ऊँगली पे नाचे 
कमी कुछ है तिरी जादूगरी में 

अज़ानें शोर कितना कर रही हैं 
ख़लल पड़ने लगा है बंदगी में 

हिंदी उर्दू के बीच पुल का काम करती उनकी ग़ज़लें आम इंसान की उसी की ज़बान में कही गयी ग़ज़लें हैं। आसिफ साहब कम छपते हैं मगर हिंदी उर्दू के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें आती रहती हैं। हिंदी के 'संवेद' और उर्दू के 'शबखून जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी कई कई ग़ज़लें एक साथ छपी हैं। इसके अलावा इंतेसाब , अलअंसार, तहरीके अदब, बज़्में सुखन, सुख़नवर आदि पत्रिकाओं में लगातार इनकी ग़ज़लें छपती हैं। पाठकों का एक बड़ा वर्ग उनकी नयी ग़ज़लों के के इंतज़ार में पलक पांवड़े बिछाए रहता है। 'शायर' में इनकी शायरी के ऊपर मुकम्मल गोशा छपा है।

जो माथे पर तुम्हारे बल पड़ा है 
तो क्या क़द में कोई तुमसे बड़ा है 

मैं अब सूरज को सर पर रख चुका हूँ 
मिरा साया कहीं मुर्दा पड़ा है 

अगर आँखों में रहना सीख जाये 
तो क़तरा भी समंदर से बड़ा है

'पत्थर में कोई है' ग़ज़ल संग्रह सन 2013 में "राही प्रकाशन" शाहजहाँपुर से प्रकाशित हुआ है जिसे आप 'काकुल हाउस बिजलीपुरा शाहजहाँपुर , सेठी बुक स्टाल , बिजनौर या इमरान बुक डिपो ,419 मटिया महल , जामा मस्जिद ,दिल्ली कर मंगवा सकते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई जानकारी देने में मैं सक्षम नहीं हूँ। आईये अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले पढ़ते आसिफ साहब की एक ग़ज़ल के ये बेजोड़ शेर :

तेरा तिलिस्म अब भी है दीवारो-दर में कैद 
लगता है जैसे अब भी मिरे घर में कोई है

यादों के फूल हैं कि दरीचे की चांदनी 
कहती है गहरी नींद कि बिस्तर में कोई है 

हालाँकि उसने गौर से देखा नहीं मुझे 
शक उसको हो गया है कि पत्थर में कोई है