Monday, November 30, 2009

बिस्तर ज़मीं को,बांह को तकिया बना लिया




यूं हसरतों का दायरा हद से बढ़ा लिया
खुशियों को जिन्‍दगी से ही अपनी घटा लिया

खुद पर भरोसा था तभी, उसने ये देखिये
दीपक हवा के ठीक मुका‍बिल जला लिया

हम से फकीरों को कहीं जब नींद आ गयी
(महनत कशों को जब कहीं पे नींद आ गयी )
बिस्तर ज़मीं को,बांह को तकिया बना लिया

शिद्दत से है तलाश मुझे ऐसे शख्‍स की
इस दौर में है जिसने भी ईमां बचा लिया

वो ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी क्या बोलिये मियां
औरों से जिंदगी में जो तुमने सदा लिया

मां बाप को न पूछा कभी जीते जी मगर
दीवार पे उन्‍हीं का है फोटो सजा लिया

"नीरज" उसी के नाम से काटें ये ज़िन्दगी
इक बार जिसको आपने दिल में बसा लिया


( गुरुदेव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद बिना, ये ग़ज़ल इस स्वरुप में नहीं आ पाती )

Monday, November 23, 2009

किताबों की दुनिया - 19

ऐ खुदा रेत के सेहरा को समन्दर कर दे
या छलकती हुई आँखों को भी पत्थर कर दे

तुझको देखा नहीं मेहसूस किया है मैंने
आ किसी दिन मेरे एहसास को पैकर* कर दे
पैकर* = आकृति

और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे

बरसों से जब भी जगजीत सिंह जी की आवाज़ में ये ग़ज़ल उनके अल्बम 'ऐ साउंड अफेयर' को सुनता हूँ तो इसे बार बार रीवाइंड कर सुनने को जी करता है . एक तो जगजीत जी की आवाज़ और उसपर ये जादुई अशार मुझे बैचैन कर देते हैं .

इस खूबसूरत ग़ज़ल के शायर हैं जनाब "डा. शाहिद मीर" साहब. आज 'किताबों की दुनिया' श्रृंखला में उन्हीं की बेजोड़ किताब " ऐ समंदर कभी उतर मुझ में " का जिक्र करेंगे. दरअसल इस किताब में मीर साहब के चुनिंदे कलामों का संपादन किया है श्री अनिल जैन जी ने. संपादन क्या किया है गागर में सागर भर दिया है.



पहले तो सब्ज़ बाग़ दिखाया गया मुझे
फिर खुश्क रास्तों पे चलाया गया मुझे

रक्खे थे उसने सारे स्विच अपने हाथ में
बे वक़्त ही जलाया, बुझाया गया मुझे

पहले तो छीन ली मेरी आँखों की रौशनी
फिर आईने के सामने लाया गया मुझे

पद्म श्री "बेकल उत्साही" साहब ने लिखा है " हज़रत जिगर मुरादाबादी की खिदमत में रहता था तो वो बार-बार हिदायत करते 'बेटे, बहुत अच्छे इंसान बनो फिर बहुत अच्छे अशआर कहोगे' सच है कि अच्छा इंसान ही अच्छी सोच से अच्छी बातें करता है. शाहिद इस कसौटी पर खरे उतरते हैं."शाहिद मीर" ने राजस्थान के तपते सहरा, मध्य प्रदेश की ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर रह कर किस क़दर बुलंदियों को छुआ है जहाँ किसी फ़नकार और कलमकार को पहुँचने के लिए एक उम्र सऊबतें झेलकर भी पहुंचना मुश्किल है "

सूखे गुलाब, सरसों के मुरझा गए हैं फूल
उनसे मिलने के सारे बहाने निकल गए

पहले तो हम बुझाते रहे अपने घर की आग
फिर बस्तियों में आग लगाने निकल गए

'शाहिद' हमारी आँखों का आया उसे ख़याल
जब सारे मोतियों के खज़ाने निकल गए

एम.एससी, पी.एच डी. (औषधीय वनस्पति), किये हुए "शाहिद मीर" साहब बाड़मेर राजस्थान के राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में उप प्राचार्य के पद पर काम कर रहे हैं. आपकी 'मौसम ज़र्द गुलाबों का' (ग़ज़ल संग्रह), 'कल्प वृक्ष' (हिंदी काव्य संग्रह) और 'साज़िना' (कविता संग्रह) प्रकाशित हो चुके हैं. उनका कहना है की " विज्ञानं का विद्यार्थी होने की वजह से बौद्धिक स्तर पर किसी एक दृष्टिकोण और वाद को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया."

तेरा मेरा नाम लिखा था जिन पर तूने बचपन में
उन पेड़ों से आज भी तेरे हाथ की खुशबू आती है

जिस मिटटी पर मेरी माँ ने पैर धरे थे ऐ 'शाहिद'
उस मिटटी से जन्नत के बागात की खुशबू आती है

उर्दू ज़बान की मिठास, कहने का निराला ढंग और सोच की नयी ऊँचाइयाँ आपको इस किताब को पढ़ते हुए जकड लेंगी. "बशीर बद्र" साहब ने "मीर" साहब के लिए ऐसे ही नहीं कहा की " कायनात के बहुत से रंग ज़र्द मौसमों और सुर्ख़ गुलाबों के पैकरों में हमारे सामने ब राहे-रास्त नहीं आते बल्कि उन खूबसूरत अल्फाज़ के शीशों में अपनी झलक दिखाते हैं, जिनमें "शाहिद मीर" ने खुद को तहलील कर रखा है."

चिलमन-सी मोतियों की अंधेरों पे डालकर
गुज़री है रात ओस सवेरों पे डालकर

शायद कोई परिंदा इधर भी उतर पड़े
देखें तो चंद दाने, मुंडेरों पे डालकर

आखिर तमाम सांप बिलों में समां गए
बदहालियों का ज़हर सपेरों पे डालकर

डायमंड बुक्स, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक को आप फोन न.011-41611861 या फेक्स न.011-41611866 पर सूचित कर मंगवा सकते हैं, अथवा उनकी वेब साईट www.dpb.in या मेल आई.डी. sales@diamondpublication.com पर लिख कर भी संपर्क कर सकते हैं. आप कुछ भी करें लेकिन यदि आप उर्दू शायरी के कद्रदां हैं तो ये किताब आपके पास होनी ही चाहिए.

उजले मोती हमने मांगे थे किसी से थाल भर
और उसने दे दिए आंसू हमें रूमाल भर

उसकी आँखों का बयां इसके सिवा क्या कीजिये
वुसअतें* आकाश सी, गहराईयाँ पाताल भर
वुसअतें*= फैलाव

आप जब तक इस 95 रु.मूल्य की किताब में प्रकाशित 149 ग़ज़लों का लुत्फ़ लें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में, खुदा हाफिज़ कहने से पहले ये शेर भी पढ़वाता चलता हूँ आपको :

जिस्म पर ज़ख्म तीर वाले हैं
हम सलामत ज़मीर वाले हैं

ज़ायका लब पे सूखी रोटी का
सामने ख्वान* खीर वाले हैं
ख्वान* = बर्तन

आत्मा उनकी है अँधेरे में
जो चमकते शरीर वाले हैं


Monday, November 16, 2009

छोटी सी मुस्कान भिडू


मुंबई के लोग जितने दिलचस्प हैं उतनी ही दिलचस्प है उनकी भाषा. ये भाषा जो न मराठी है और ना ही हिंदी ये अजीब सी भाषा है, जिसका भारतीय संविधान में दी गयी भाषा सूची में कोई जिक्र नहीं है लेकिन इसे बोलने सुनने में जो आनंद मिलता है उसे बयां नहीं किया जा सकता. ये दिल से बोली जाती है और दिल से ही सुनी जाती है.

आज की ग़ज़ल उसी भाषा में कही गयी है ,जिसे मुंबई वाले दिन रात बोलते नहीं थकते. उम्मीद है भाषा विद इस प्रयोग से नाराज़ नहीं होंगे, क्यूँ की ग़ज़ल की भाषा अगर रोज मर्रा वाली हो तो उसका मजा ही कुछ और है. जो लोग भाषा का आनंद नहीं उठाना चाहते वो ग़ज़ल में कही गयी बातों का आनंद लें. मतलब आनंद लेने से है जैसे भी हो लें.
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रदीफ़ में भिडू शब्द प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है दोस्त, मित्र, सखा...


बे-मतलब इन्सान भिडू
होता है हलकान भिडू

अख्खा लाइफ मच मच में
काटे वो, नादान भिडू


प्यार अगर लफड़ा है तो
ये लफड़ा वरदान भिडू


कैसे हम बिन्दास रहें
ग़म लाखों, इक जान भिडू


बात अपुन की सिंपल है
दे, फिर ले सम्मान भिडू


जब जी चाहे टपका दे
रब तो है इक डान भिडू

फुल टू मस्ती में गा रे
तू जीवन का गान भिडू


सब झगडे खल्लास करे
छोटी सी मुस्कान भिडू

जीवन है सूखी रोटी
तू 'मस्का-बन' मान भिडू

'मस्का-बन' मुंबई वासियों का बहुत प्रिय आहार है...इसमें दो पाव के बीच, जिसे 'बन' कहते हैं खूब सारा मख्खन (मस्का) लगा के खाया जाता है...मुंबई के हर गली नुक्कड़ पर आपको इसका ठेला मिल जायेगा....

'खोखा' 'पेटी' ले डूबी
हम सब का ईमान भिडू

('खोखा' 'पेटी' मुम्बईया जबान में एक करोड़ रूपये और एक लाख रूपये के लिए प्रयुक्त प्रचिलित शब्द हैं.)

'नीरज' उसकी वाट लगा
जो दिखलाये शान भिडू



(इस ग़ज़ल को गुरुदेव पंकज सुबीर का आर्शीवाद प्राप्त है)

Monday, November 9, 2009

रंगोली सजाओ...रे

"स्टेलनेस मेरा ही यू.एस.पी. हो, ऐसा नहीं है। आप कई ब्लॉगों पर चक्कर मार आईये। बहुत जगह आपको स्टेलनेस (स्टेनलेस से कन्फ्यूज न करें) स्टील मिलेगा| लोग गिने चुने लेक्सिकॉन/चित्र/विचार को ठेल^ठेल (ठेल घात ठेल) कर आउटस्टेण्डिंग लिखे जा रहे हैं।

असल में हम लोग बहुत ऑब्जर्व नहीं कर रहे, बहुत पढ़ नहीं रहे। बहुत सृजन नहीं कर रहे। टिप्पणियों की वाहियात वाहावाहियत में गोते लगा रिफ्रेश भर हो रहे हैं!"

ज्ञान भईया ने अपने ब्लॉग में सात नवम्बर को प्रकाशित पोस्ट पर उक्त पंक्तियाँ लिखीं, तभी दिल ने कहा प्यारे तुम भी तो ये ही सब कुछ कर रहे हो अपने ब्लॉग पर. याने अपनी एक आध ग़ज़ल और बीच बीच में किताबों की जानकारी ठेल रहे हो...कुछ और भी करो यार. तभी इस पोस्ट को लिखने का ख्याल आया. उम्मीद है सुधि पाठकों का जायका बदलने में ये पोस्ट थोडी बहुत सहायक होगी.



यूँ तो दिवाली कब की जा चुकी, लेकिन उसकी खुमारी अभी तक बरकरार है. पिछले दिनों यूँ ही शाम घर से लोनावला घूमने निकल गए. घूमते घूमते वहां के टाऊन हाल जा पहुंचे जहाँ रंगोली स्पर्धा का बोर्ड लगा हुआ था. रंगोली आप समझते हैं न अरे वोही जिसे बंगाल में 'अल्पना' , बिहार में 'अरिपना, राजस्थान में 'मांडना', गुजरात, महाराष्ट्र और कर्णाटक में 'रंगोली' , उत्तर प्रदेश में 'चौक पुराना' केरल और तमिल नाडू में 'कोलम' और आन्ध्र प्रदेश में 'मुग्गु' के नाम से पुकारा जाता है. जिसमें गुलाल, रंगीन मिटटी, संगमरमर के रंगीन चूरे के मिश्रण से फर्श पर चित्रकारी की जाती है .ये प्रथा बहुत पुरानी है. उत्सुकता हमें अन्दर खींच ले गयी. एक बड़े से हाल में जब वहां उकेरी हुई रंगोलियों को देखा तो मुंह खुले का खुला ही रह गया. आप लोगों ने शायद इस से पहले इस तरह की रंगोली देखी हो लेकिन मेरे लिए ये पहला मौका था.

आयीये देखते हैं उन्हीं प्रर्दशित रंगोलियों में से कुछ के चित्र जो मैंने अपने मोबाईल कैमरे से खींचे खास तौर पर आपके लिए, पसंद ना आयें तो दोष मेरे मोबाईल को दें मुझे नहीं.

(चित्रों पर क्लिक करने से आप इस कला की बारीकियां शायद अच्छे से पकड़ पायें)

सबसे पहले देखते हैं हाल में घुसते ही नज़र आने वाले दृश्य को


आगे बढ़ने पर परम्परागत रूप को प्रर्दशित करती हुई ये रंगोली देख ठिठकने को मजबूर होना पड़ा. रंग संयोजन और आकर्षक डिजाईन देख बरबस हाथ ताली बजाने लगे.


तभी दायें हाथ नज़र पड़ी तो मुंह खुला का खुला रह गया. ये चित्र बहुत आकर्षक था. देखिये लड़की की चुम्बकीय आँखें और लहराते बाल...और दाद दीजिये इस कलाकार की कलाकारी को.


थोडा आगे बढ़ते ही दिखाई दिया सिर्फ दो रंगों से सजी अद्भुत रंगोली . ईंट के बुरादे और काले रंग के माध्यम से साक्षात् चाणक्य स्वरुप चित्र देख कर मेरा सर कलाकार के आदर में झुक गया.


फिर आयी बारी उस चित्र की जिसे देख आँखें धन्य हुईं...आकाश पर उड़ते परिंदों को देखती युवती के इस चित्र ने अजब उदासी का समां बाँध दिया. हैरत हुई की कैसे इन नाज़ुक पलों को घूसर रंगों से कलाकार ने पकड़ लिया .


बात यहीं ख़तम हो जाती तो ठीक था लेकिन एक छोटे से कोने में कप प्याली में पढ़ी चाय के चित्र ने ग़ज़ब ढा दिया. कलाकार की कलाकारी ही थी की इस सामान्य से चित्र को उसने अपने कौशल से नयनाभिराम बना दिया.


ग्रामीण परिवेश और उसी वेशभूषा में इस वृद्ध के चित्र पर आप कुछ कहना चाहेंगे, मैं तो कह नहीं पाऊंगा क्यूँ की मेरी तो बोलती ही इसे देख कर बंद हो गयी थी.



सुधि पाठको पहले से आगाह कर दूं की अगले दो चित्र आपको तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देंगे. क्यूँ इन चित्रों में रंग संयोजन तो कमाल का है ही लेकिन जो भाव हैं वो बस अद्भुत हैं.

पहला चित्र है एक लड़की जिसके बाल बिखरे बिखरे से हैं...आँखें आपसे कुछ कह रही हैं...इतना बोलता चित्र वो भी रंगों के माध्यम से फर्श पर बनाना एक चमत्कार ही है.


दूसरा चित्र है इंतज़ार रत युवती का. टकटकी लगाये आँखें...उदास चेहरा...ढीले लटके हाथ...बेताबी...हताशा...उफ्फ्फ...इन सब को शेड्स डाल कर इस खूबसूरती से चित्रित किया गया था की बस आँखें वहां से हिलने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं...


अगला चित्र प्रेम की पराकाष्ठा के प्रतीक राधा और कृष्ण का था...आँखें शायद बूंदी शैली जैसी थीं...मैं क्षमा चाहूँगा अगर कहीं ये बात गलत साबित हुई तो क्यूँ की मैं चित्रकला विशेषग्य नहीं हूँ एक साधारण दर्शक हूँ और इन रंगोलियों को देखने का मेरा दृष्टिकोण भी एक साधारण दर्शक का ही है. जो विशेषग्य हैं वो ही शायद इन चित्रों में निहित कला की ऊचाईयों या कमियों को समझ सकते हैं


यूँ तो इस प्रदर्शनी में पचास से अधिक रंगोलियाँ प्रर्दशित थीं लेकिन मेरे लिए सबको दिखाना यहाँ संभव नहीं है, इसलिए चलते चलते आखरी चित्र दिखा कर विदा लेता हूँ.



मुझे मालूम पढ़ा की ये सभी चित्रकार लोनावला के आसपास बसे छोटे छोटे गाँव के कलाकारों के द्वारा ही उकेरे गए हैं. कला किसी जगह या परिवेश की मोहताज़ नहीं मैं अपनी इस पोस्ट के माध्यम से उन अनाम चित्रकारों के और अश्वमेघ क्लब के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ , जिन्होंने बिना जे जे स्कूल आफ आर्ट्स या बड़ी डिग्री का सहारा लिए इतनी खूबसूरत चित्रकारी या रंगोली प्रदर्शन से मेरी एक शाम रंगीन कर दी. मुझे उम्मीद है इस आभार प्रदर्शन में आप भी मेरा साथ देंगे.

Monday, November 2, 2009

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

दीपावली के पावन पर्व पर इस बार गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने धमाकेदार तरही मुशायरे का आयोजन किया. जिसमें देश विदेश के जाने माने माँ सरस्वती के उपासकों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. इस मुशायरे में शिरकत करना ही अपने आपमें कम सम्मान की बात नहीं थी. आप सुधि पाठकों के लिए मैं , जो मेरी ग़ज़ल को वहां नहीं पढ़ पाए, यहाँ एक बार फिर प्रस्तुत करता हूँ .




दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें
तम सभी के दिलों से मिटाते रहे

हर अमावस दिवाली लगे आप जब
पास बैठे रहें, मुस्कुराते रहें

प्यार बासी हमारा न होगा अगर
हम बुलाते रहें वो लजाते रहें

बात सच्ची कही तो लगेगी बुरी
झूठ ये सोच कर क्यूँ सुनाते रहें

दर्द में बिलबिलाना तो आसान है
लुत्फ़ है, दर्द में खिलखिलाते रहें

भूलने की सभी को है आदत यहाँ
कर भलाई उसे मत गिनाते रहें

सच कहूँ तो सफल वो ग़ज़ल है जिसे
लोग गाते रहें गुनगुनाते रहें

हैं पुराने भी 'नीरज' बहुत कारगर
पर तरीके नये आजमाते रहें