Monday, December 3, 2018

ज़िस्म तक ही अगर रहे महदूद

अच्छा !!!आपने क्या समझा की "किताबों की दुनिया " श्रृंखला को विराम दे दिया तो आपको मुझसे छुट्टी मिल गयी? -वाह जी वाह -ऐसे कैसे ? कितने भोले हो आप ? लीजिये एक ग़ज़ल झेलिये - न न लाइक करने या कमेंट की ज़हमत मत उठायें -पढ़ लें ,यही बहुत है।


 मुझको कोई अलम नहीं होता
जो तुम्हारा करम नहीं होता
अलम =दुःख, दर्द

 ज़िस्म तक ही अगर रहे महदूद
तो सितम फिर सितम नहीं होता
महदूद=सीमित 

 तू नहीं याद भी नहीं तेरी
 हादसा क्या ये कम नहीं होता 

 उसकी आँखों में झांक कर सोचा 
क्या यही तो इरम नहीं होता 
इरम =स्वर्ग 

 मेरी चाहत पे हो मुहर तेरी
 प्यार में ये नियम नहीं होता 

 कहकहों को तरसने लगता हूँ 
जब मेरे साथ ग़म नहीं होता 

 इश्क 'नीरज' वो रक़्स है जिसमें 
पाँव उठने पे थम नहीं होता

Monday, November 26, 2018

किताबों की दुनिया - 205

बारहा ऐसा हुआ है याद तक दिल में न थी
 बारहा मस्ती में लब पर उनका नाम आ ही गया 
*** 
खाइयेगा इक निगाहे-लुत्फ़ का कब तक फ़रेब
 कोई अफसाना बना कर बदगुमाँ हो जाइये 
***
 फिर मिरी आँख हो गयी नमनाक 
फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है 
नमनाक =नम
 ***
 कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी 
कुछ मुझे भी खराब होना था 
*** 
इश्क़ का ज़ौके-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
 हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए
 ज़ौके-नज़ारा =देखने की चाह 
*** 
मये-गुलफ़ाम भी है ,साज़े-इशरत भी है साक़ी भी
 मगर मुश्किल है आशोबे-हक़ीक़त से गुज़र जाना
 मये-गुलफ़ाम=फूल जैसी सुंदर शराब, साजे-इशरत =सुख संगीत,आशोबे-हक़ीक़त=वास्तविकता की पीड़ा
 ***
 हुस्न को कर न दे ये शर्मिंदा
 इश्क से ये ख़ता भी होती है 
*** 
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
 कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है 
*** 
छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना
 तिरे शादाब होठों की मगर कुछ और है साकी 
*** 
आँख से आँख जब नहीं मिलती
 दिल से दिल हमकलाम होता है 

  जो लोग उर्दू शायरी से वाकिफ़ हैं उन्हें तो इन शेरों को पढ़ कर शायर के नाम का अंदाज़ा हो ही गया होगा लेकिन जो सिर्फ रस्मन शायरी से मोहब्बत करते हैं उन्हें शायद अभी तक कुछ पता न चला हो। कोई बात नहीं आखिर हम किस मर्ज़ की दवा हैं ? हम बताते हैं, लेकिन थोड़ी देर में। आपने ऊपर शेर पढ़े ही होंगे ,ज़ाहिर सी बात है ऐसे बेमिसाल शेर कहने वाले को सुनने वाले भी खूब मिलते होंगे। ये तब की बात है जब सोशल मिडिया का कुछ अता-पता नहीं था. कुछ लोग दोस्ती का वास्ता देकर उनसे सुनते होंगे तो कुछ उन्हें शराब पिला कर। 5 दिसम्बर 1955 की भयंकर सर्दी वाली इस मनहूस रात में शराबखाने की छत पे जो लोग इस शायर को घेर कर बैठे हैं वो इनके दोस्त नहीं हैं सिर्फ सुनने वाले हैं जो इन्हें शराब के एक के बाद दूसरा जाम पिला रहे हैं और बदले में इनसे दिलकश शेर और जबरदस्त जुमले सुन सुन कर खुश हो रहे हैं, तालियाँ बजा रहे हैं। रात गहरा रही है ठंडी हवा के साथ ओस भी गिरनी शुरू हो गयी है और शराब भी ख़तम हो चली है लिहाज़ा ये लोग एक एक करके धीरे धीरे वहां से खिसक रहे हैं , दोस्त होते तो वहां ठहरते और शायर को अपने साथ ले जाते लेकिन तमाशबीनों को सिर्फ तमाशे से मतलब होता है तमाशा दिखने वाले से नहीं। एक आध ने यूँ ही पूछ लिया मियाँ घर नहीं चलोगे तो जवाब मिला कि प्याले में कुछ बूँदें बची हैं हलक़ से उतार लें तो चलेंगे , कब प्याले की शराब ख़तम हुई और कब शराब के नशे ने पीने वाले को अपने आगोश में लिया किसी को ख़बर नहीं। शायर उस ठंडी रात को एक फटी पुरानी अचकन और ढीला ढाला पायजामा पहने शराबखाने की छत पर तनहा पड़ा रहा। सुबह जब उसे किसी ने देखा तो वो अकड़ा पड़ा था ,उसे तुरंत हस्पताल पहुँचाया गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।शायर के दिमाग की नस फट गयी थी।

कुछ तुझको ख़बर है हम क्या क्या ए शोरीशे-दौरां भूल गये 
वो जुल्फें-परीशां भूल गये, वो दीदा-ए-गिरियां भूल गये 
शोरीशे-दौरां=संसार के उपद्रव, जुल्फें-परीशां=बिखरे केश ,दीदा-ए-गिरियां=रोती आँखें 

 अब गुलसे नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं 
ऐ फ़स्लें- बहारां रुख़सत हो हम लुत्फ़े-बहारां भूल गये 

 सब का तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके 
सब के तो गरेबाँ सी डाले अपना ही गरेबाँ भूल गये 
मुदावा =इलाज़ 

 शराब और इश्क़ ये दो ऐसी महामारियां हैं जिन्होंने किसी भी दूसरी बीमारी से ज्यादा शायरों की जान ली है। और दूसरी बिमारियों का तो फिर भी इलाज़ संभव है लेकिन इन दो में से किसी भी एक बीमारी से बच निकला थोड़ा मुश्किल है और कहीं ये दोनों एक साथ हो जाएँ तो फिर बचना ना-मुमकिन है. आप इतिहास उठा कर देखें तो पाएंगे कि ज़्यादातर शायरों या अति संवेदनशील लोगों को ये दोनों बीमारियां पता नहीं क्यों एक साथ ही होती हैं ? शराब और इश्क़ दोनों ही कभी आपको पूरी तरह तृप्त नहीं कर पाते इसीलिए एक अधूरापन एक प्यास हमेशा ज़ेहन में रहती है और यही कारण है कि इनकी गिरफ़्त में आया इंसान फिर बाहर नहीं आ पाता। इस अधूरेपन को पूरा करने की चाह में खुद पूरा हो जाता है। ये विषय व्यापक है इसलिए यहाँ चर्चा योग्य नहीं है ,इसे यहीं छोड़ते हैं और वापस अपने शायर की और लौटते हैं जो अब 'है' से 'था' में बदल चुका है। इंसान दरअस्ल मृतकों को पूजता है। सारी दुनिया में अधिकतर मौकों पर देखा गया है कि जब कोई इंसान मौजूद है तो उसके काम को न सराहना मिलती है न तवज्जोह लेकिन उसके इस दुनिया से रुख़्सत होते ही हमें अचानक उसमें छुपे सारे गुण बल्कि कुछ ऐसे गुण भी जो शायद उसमें थे ही नहीं, नज़र आने लगते हैं।कल तक जिसका नाम लेने में हमारी ज़बान लड़खड़ाने लगती थी उसके जाते ही हम उसी ज़बान से उसकी शान में कसीदे पढ़ने लगते हैं। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा कब तक होता रहेगा -पता नहीं। हमारे शायर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

 तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाखुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं

 इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदके
 जहाँ से चाहता हूँ, तुमको देखता हूँ मैं
 हिजाब =पर्दा

 बताने वाले वहीँ पर बताते हैं मंज़िल
 हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं

 चलिए बात वहां से शुरू करते हैं जहाँ से शुरू होनी चाहिए याने फैज़ाबाद के रुदौली कस्बे से जहाँ के चौधरी सिराज उल हक़ के यहाँ 19 अक्टूबर 1911 को जो बेटा पैदा हुआ उसका नाम रक्खा गया असरार उल हक़। सिराज उल हक़ उस इलाक़े के पहले ज़मींदार थे जिन्होंने वक़ालत जैसी उच्च शिक्षा प्राप्त की और ज़मींदारी पर सरकारी नौकरी को तरज़ीह दी। परिवार में जहाँ पुराने नियम कायदे माने जाते थे वहीँ नयी सोच को भी अपनाया जाता था। प्राथमिक शिक्षा के बाद हर पढ़े लिखे बाप की तरह सिराज साहब की तमन्ना थी कि असरार इंजीनियर बने लिहाज़ा उन्होंने असरार को आगरा के सेंट जांस कॉलेज में साइंस पढ़ने भेज दिया। अब साहब यूँ तमन्नाएँ पूरी होने लगें तो हर बाप का बेटा इंजिनियर डॉक्टर तो क्या टाटा बिरला अम्बानी न बन जाये ? आप लाख कोशिश करें होता वही है जो मंज़ूर-ए-खुदा होता है।'असरार' आगरा आ तो गए लेकिन दोस्ती कर बैठे फानी बदायूनी, जज़्बी और मैकश अकबराबादी जैसे शायरों से। बस फिर क्या था शायरी के कीड़े ने तो उन्हें काटा ही साथ ही शराब का भी चस्का लग गया। इंजीनियरिंग की पढाई धरी की धरी रह गयी, हज़रत साइंस में फेल हो गये। पिता, जिनका ट्रांसफर तब अलीगढ़ हो गया था, ने जब ये सुना तो अपना सर पीट लिया और असरार को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला दिलवा दिया वो भी आर्ट्स में। असरार को जैसा माहौल चाहिए था वैसा ही अलीगढ आ कर मिला और उनका शायरी का हुनर निखरने लगा। इस शहर में उनका राब्ता मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार जाफ़री, सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर जैसे नामचीन शायरों से हुआ।यहीं उन्होंने अपना तख़ल्लुस 'शहीद' से बदल कर 'मजाज़' रख लिया। आज हम प्रकाश पंडित साहब द्वारा सम्पादित किताब 'मजाज़' आप के सामने ले आये हैं।


 हंस दिए वो मेरे रोने पर मगर 
उनके हंस देने में भी इक राज़ है 

 छुप गए वो साजे-हस्ती छेड़ कर 
अब तो बस आवाज़ ही आवाज़ है 

 सारी महफ़िल जिसपे झूम उट्ठी 'मज़ाज'' 
वो तो आवाज़े-शिकस्ते-साज़ है 

 अलीगढ़ के गर्ल्स कॉलेज में उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को तकिये के नीचे रख कर सोने वाली लड़कियों की तादाद भी कोई कम नहीं थी.अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मजाज़ के कलाम की तूती बोलने लगी। गर्ल्स कॉलेज से उन्हें बुलावे आते वो जाते, तब उनके और लड़कियों के बीच एक पर्दा तान दिया जाता, जिसके पार मजाज़ अपना कलाम तरन्नुम से पढ़ते और लड़कियां चूँकि उन्हें देख नहीं पाती थीं लिहाज़ा उनका अपने ज़ेहन में तसव्वुर करतीं और आहें भरतीं। शायरी सुनाने के बाद लड़कियां उनको वापस जाते हुए क्लास की खिड़कियों से देखतीं और दूर से बलाएँ लेतीं। मजाज़ की शख़्शियत ही ऐसी थी कि जिसे देख कर उन पर कुर्बान होने को दिल करे। बचपन में, जैसा की बहन "हमीदा" ने एक जगह लिखा है, "'मजाज़' बड़े सरल स्वभाव का निर्मल हृदय का व्यक्ति था | जागीरी वातावरण में स्वामित्य की भावना माँ के दूध के साथ मिलती है परन्तु मजाज़ में इस तरह का कोई भाव नहीं था | दूसरों की चीज को अपने प्रयोग में नहीं लाना और अपनी चीज दूसरों को दे देना उसकी आदत रही | इस के अतिरिक्त वह शुरू से ही सौंदर्य प्रेमी भी था | कुटुंब में कोई सुन्दर स्त्री देख लेता तो घंटो उसके पास बैठा रहता | खेल कूद, खाने पीने तक की सुध नहीं रहती।

 लाख छुपते हो मगर छुप के भी मस्तूर नहीं 
तुम अजब चीज़ हो, नज़दीक नहीं, दूर नहीं 
मस्तूर =छुपे हुए 

 ज़ुर्रते-अर्ज़ पे वो कुछ नहीं कहते लेकिन 
हर अदा से ये टपकता है कि मंज़ूर नहीं 

 हाय वो वक़्त कि जब बे-पिये मदहोशी थी 
हाय ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं 
मख़्मूर=नशा 

 मजाज़ की इश्किया शायरी अलीगढ़ में ज्यादा नहीं चल पायी क्यूंकि जल्द ही वो डॉ. अशरफ, मख़्दूम ,अख्तर रायपुरी, सबत हसन, सरदार जाफ़री, जज्बी और ऐसे दूसरे समाजवादी साथियों और इंकलाबी तरक्की पसंद शायरों की सोहबत में शामिल हो गये। ऐसे माहौल में मजाज ने ’इंकलाब’ जैसी नज्म बुनी। मजाज़ उन चंद शायरों में शामिल हैं जिन्होंने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नया मोड़ दिया है. तरक्कीपसंद शायरों के लिए मुहब्बत और माशूका की खूबसूरती के बयान से अधिक समाज में गैर-बराबरी और भेदभाव का मसला अधिक बड़ा था. यहाँ से मजाज़ की शायरी ने अलग सी करवट ली और उनकी मशहूरी अलीगढ़ की सीमाओं से निकल कर पूरे हिंदुस्तान में हो गयी। उन्हें उर्दू शायरी का कीट्स कहा जाने लगा। इन्हीं दिनों दिल्ली के ऑल इण्डिया रेडियो से एक पत्रिका निकालने का ऐलान हुआ और असिस्टेंट एडिटर की पोस्ट पर काम करने के लिए मजाज़ के पास इंटरव्यू का बुलावा आया। मजाज़ नौकरी करने की नियत से अलीगढ़ छोड़ दिल्ली चल दिए ,ये सं 1935 की बात है। ।

ख़ुद दिल में रहके आँख से पर्दा करे कोई 
हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई 

 तुमने तो हुक्मे-तर्के-तमन्ना सुना दिया 
किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई 

 मुझको ये आरज़ू वो उठाएं नक़ाब ख़ुद 
उनको ये इन्तिज़ार तक़ाज़ा करे कोई 

 दिल्ली के इंटरव्यू में सफलता मिली और ऑल इण्डिया रेडियो की पत्रिका 'आवाज़' में उन्हें असिस्टेंट एडिटर की नौकरी मिल गयी। नौकरी तो एक साल ही चल पायी क्यूंकि पत्रिका के संपादक मंडल से उनकी बनी नहीं ,लेकिन दिल्ली में किसी के साथ शुरू हुआ इश्क मरते दम तक मजाज़ के साथ चिपका रहा। मजाज़ की शायरी के प्रशंसक दिल्ली में यूँ तो ढेरों थे लेकिन एक ख़ातून जिनका नाम - छोड़िये नाम में क्या रखा है -जो शादीशुदा थीं उन पर और उनकी की शायरी पर बुरी तरह से फ़िदा हो गयीं। उसके खाविंद शायर तो नहीं थे लेकिन काफी पैसे वाले बिजनेसमैन थे। खातून को मजाज़ और उनकी शायरी बेइंतिहा पसंद थी लेकिन इतनी भी नहीं कि वो अपना भरापूरा महल नुमा घर छोड़ कर मजाज़ की झोपड़ी में ज़िन्दगी गुज़ार देतीं. मजाज़ तो इस बात को समझते थे लेकिन उनका दिल नहीं। पत्रिका छोड़ने के बाद दिल्ली में रहने का कोई सबब तो था नहीं इसलिए वो खुद तो लखनऊ चले आये लेकिन दिल वहीँ दिल्ली में छोड़ आये। लखनऊ में मजाज़ दिन-रात उस दिल्ली वाली के तसव्वुर में खोये रहते और अपना ग़म शराब में घोल कर पीते रहते।मजाज़ की उस वक्त की गयी शायरी उर्दू की बेहतरीन इश्किया शायरी में शुमार होती है। उन्होंने अपने ग़म को ज़माने के ग़म से जोड़ दिया। शराब की लत इस कदर बढ़ी कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है। इतना सबकुछ होने के बावजूद मजाज़ की ज़िंदादिली हमेशा कायम रही। कॉफी हॉउस हो या शराब खाने, मजाज़ के दिलचस्प जुमलों और चुटकुलों को सुन सुन कर ,लोगों के ठहाकों से गूंजते रहते। ये शायरी और ज़िंदादिली ही उस मनहूस रात उनकी मौत की वज़ह बनी। 1939 में सिब्ते हसन ,सरदार जाफरी और मजाज़ ने मिलकर ’नया अदब’ का सम्पादन किया जो आर्थिक कठिनाईयों की वजह से ज्यादा दिन तक नहीं चल सका।

 चारागरी सर आँखों पर इस चारागरी से क्या होगा
 दर्द की अपनी आप दवा है , तुमसे अच्छा क्या होगा

 वाइज़े-सादालौह से कह दो छोड़ उक़्वा की बातें
इस दुनिया में क्या रक्खा है, उस दुनिया में क्या होगा
वाइज़े-सादालौह से =सरल स्वाभाव वाले धर्मोदेशक से , उक़्वा=परलोक

 तुम भी 'मज़ाज' इंसान हो आखिर लाख छुपाओ इश्क अपना 
ये भेद मगर खुल जाएगा ये राज़ मगर अफ़शा होगा 
अफ़शा=प्रकट

 "नया अदब" पत्रिका के बंद होने के बाद मजाज़ सड़क पर थे. पिता की पेंशन से घर बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था इसलिए मजाज़ को एक लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन की नौकरी करनी पड़ी। नौकरी के साथ साथ शराब और शायरी दोनों चलते रहे .'अख़्तर शीरानी' 'मजाज़' साहब के पसंददीदा शायर थे। उनके अचानक हुए इन्तेकाल ने मजाज़ को पागल सा कर दिया था। वो दौर अजब दौर था जब शायरों में कमाल की दोस्ती और भाईचारा हुआ करता था कोई धड़ेबंदी नहीं होती थी सब एक दूसरे की दिल खोलकर तारीफ करते और मौका मिलने पर टांग भी खींचते। एक दूसरे के घर बेतकल्लुफी से ठहरते हंसी मज़ाक और संजीदा गुफ़्तगू करते। आज हमें ये सब सोच के जरूर हैरत होती है क्यूंकि आज के शायरों के बीच जो रस्साकशी चल रही है उस पर कुछ न कहा जाए तो ही बेहतर है। 'मजाज़' के दोस्तों में जैसा पहले बताया जोश मलीहाबादी, प्रकाश पंडित , जां निसार अख़्तर, साहिर लुधियानवी, सरदार ज़ाफ़री , फैज़ अहमद फैज़, फ़िराक गोरखपुरी सज़्ज़ाद ज़हीर, मंटो, कृशन चन्दर , इस्मत चुगताई जैसे लोग थे। जोश से उनकी दोस्ती बेमिसाल थी। इस सब दोस्तों के बावजूद मजाज़ तन्हा थे। अधूरे इश्क़ बल्कि एकतरफा इश्क़ ने उन्हें कहीं न छोड़ा। घरवालों द्वारा उनकी तन्हाई को कम करने की तमाम कोशिशें नाकामयाब रहीं। जो लोग कभी मजाज़ को अपना दामाद बनाने के लिए आगे पीछे घूमा करते थे वही उनसे कनारा कर गए। कौन एक शराबी और कड़के शायर के साथ अपनी बेटी का रिश्ता करता ?

 बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तिरी जुल्फ़ों का पेचो-ख़म नहीं है

 बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है

 मिरी बर्बादियों का हम-नशीनों
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

 मजाज़ को कभी किसी दुश्मन की जरुरत नहीं पड़ी उनकी दुश्मनी खुद अपने आप से ही रही। उन्हें दो बार नर्वस ब्रेकडाउन हुआ लेकिन घरवालों की तीमारदारी से वो ठीक हो गए। आखिरी दिनों में उनपर पागलपन के दौरे पड़ने लगे और उन्हें रांची के पागल खाने में भर्ती करवा दिया जहाँ उनकी मुलाकात मशहूर इंकलाबी शायर 'काज़ी नज़रुल इस्लाम ' से हुई वो भी वहीँ भर्ती थे। कहते हैं उन्होंने क़ाज़ी साहब को पहचान लिया और उनसे कहा कि आप ऐसे चुप क्यों हैं ? चलिए हम लाहौर चलते हैं जो अब विदेशी ज़मीन है लेकिन पागलखाने तो वहां भी होंगे ही।" दुनिया के दो सबसे ज़हीन और कमाल के लोग और दोनों ही पागलखाने में। बकौल हयातुल्ला अंसारी ' दिल में इक हूक उठती है कि काश ! जिस तरह हुआ ,उस तरह न होता। काश !! दुनिया इससे बेहतर होती !! काश!! वो ऐसी होती कि 'मज़ाज' उसमें जी सकता। जी सकता और हंस सकता और नग्में गा सकता '

इक अर्ज़े-वफ़ा भी कर न सके, कुछ कह न सके, कुछ सुन न सके 
यां हमने ज़बां ही खोली थी , वां आँख झुकी शरमा भी गए

रूदादे-ग़मे-उल्फ़त उनसे हम क्या कहते, क्योंकर कहते 
इक हर्फ़ न निकला होठों से और आँख में आंसू आ भी गए 
रूदादे-ग़मे-उल्फ़त=प्रेम के दुखों की कहानी  

उस महफ़िले-कैफ़ों-मस्ती में, उस अंजुमने-इर्फ़ानी में 
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए, छलका भी गए 
 अंजुमने-इर्फ़ानी में=ज्ञानियों की महफ़िल में ,जाम-ब-कफ़=प्याला हाथ में लिए 

 फैज़ साहब ने मजाज़ पर लिखा है कि ' मजाज़ की इन्क़िलाबियत आम इंकलाबी शायरों से अलग है। आम इंकलाबी शायर इन्किलाब के मुताल्लिक गरजते हैं , ललकारते हैं , सीना कूटते हैं, इन्किलाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते ---वो सिर्फ इन्किलाब की हौलनाकी को देखते हैं उसके हुस्न को नहीं पहचानते। ये इन्किलाब का प्रगतिशील नहीं प्रतिक्रियात्मक तसव्वुर है। मजाज़ सच्चे मायनों में प्रगतिशील शायर था' शब्दों के साथ असाधारण कौशल, अति-उत्तम छंद, एक साहित्यिक उपज जिसमें न सिर्फ़ प्रेम-लीला है बल्कि इंक़लाब का नारा भी है. ऐसे शायर का इस प्रकार यूँ अंधकार में खो जाना, हमारी चूक है. इसे साहित्य के साथ नाइंसाफी का नाम दीजिए, मजाज़ के साथ बेईमानी का, बात बराबर है. मजाज़ के इस दुनिया से रुख़्सत होने के 53 साल बाद भारत सरकार ने उनपर एक डाक टिकट जारी किया। 2016 में उनपर फीचर फिल्म भी बनी जो न बनती तो भी मजाज़ की लोकप्रियता पे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अली सरदार ज़ाफ़री साहब द्वारा उन पर दूरदर्शन के लिए बनाया सीरियल 'कहकशां' जरूर देखा जा सकता है।

 तुझी से तुझे छीनना चाहता हूँ
 ये क्या चाहता हूँ ये क्या चाहता हूँ 

 ख़ताओं पे जो मुझको माइल करे फिर 
सज़ा और ऐसी सज़ा चाहता हूँ 
माइल =प्रवृत

 तुझे ढूंढता हूँ तिरी जुस्तजू है 
मज़ा है कि ख़ुद गुम हुआ चाहता हूँ 

 सुना है एक बार सिने स्टार नरगिस जो उनकी बहन सफ़िया की सहेली थीं उनसे मिलने आयी और ऑटोग्राफ मांगे - ये सच है -उस वक्त अदीबों की क़द्र हुआ करती थी, आज ये बात जरूर अजूबा लग सकती है -खैर ! उन्होंने नरगिस जो सफ़ेद दुपट्टा ओढ़े हुए थीं को ऑटोग्राफ दिया और अपनी मशहूर नज़्म की दो लाइने भी साथ में लिख दीं - "तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन , तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था". ये पूरी नज़्म तरक्कीपसंद शायरी की मिसाल बन चुकी है। आप को बताता चलूँ कि बाद में सफ़िया की शादी शायर जां निसार अख़्तर साहब से हुई जिनके बेटे जावेद अख़्तर साहब का नाम तो आप सब ने सुना ही होगा। जी हाँ !! मजाज़ पद्म भूषण जावेद अख़्तर साहब के मामू थे। एक बार पंडित नेहरू अलीगढ़ यूनिवर्सिटी तशरीफ़ लाये और पूछा की क्या अलीगढ यूनिवर्सिटी का अपना कोई तराना है ? वो किसी भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए ये बात जब मजाज़ तक पहुंची तो दूसरे ही दिन उन्होंने 'ये मेरा चमन ये मेरा चमन , मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ' लिखा जिसे वहां अब भी गाया जाता है।

 क्यों जवानी की मुझे याद आई 
मैंने इक ख़्वाब सा देखा क्या था 

 हुस्न की आँख भी नमनाक हुई 
इश्क को आपने समझा क्या था 

 इश्क ने आँख झुका ली वरना
 हुस्न और हुस्न का पर्दा क्या था

 मजाज़ जैसे शायर पर इतने कम शब्दों में नहीं लिखा जा सकता उन्हें पूरा जानने के लिए आपको उनका लिखा पढ़ना होगा। शबे ताब , आहंग और साज़े नौ उनकी चर्चित किताबें हैं. मजाज़ की पूरी ज़िंदगी इक अधूरी ग़ज़ल है , वो तमाम उम्र अपने ज़ख्मों से खेलते रहे। मजाज़ की ग़ज़लें तो कम हैं लेकिन उनकी नज़्में और गीत कमाल के हैं और ये सभी आपको इस किताब में जिसकी बात आज हम कर रहे हैं में मिलेंगे जिनमें 'आवारा' 'किस से मोहब्बत है' , 'इन्किलाब', 'मज़बूरियां', बोल! री धरती बोल ! 'रात और रेल' ! 'दिल्ली से वापसी ', नौजवान ख़ातून से ', और 'नन्ही पुजारिन ' बार बार पढ़ने लायक हैं। इस किताब का पेपर बैक संस्करण सं 2018 में राजपाल एंड संस्- 1590 मदरसा रोड, कश्मीरी गेट दिल्ली -110006 ने सं 2018 में प्रकाशित किया है। ये किताब अमेज़न से भी ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर और पढ़ते हैं :

 कभी साहिल पे रह कर शौक़ तूफानों से टकराएं
कभी तूफां में रह कर फिक्र है साहिल नहीं मिलता

 ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
 ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

 ये क़त्ले-आम और बे-इज़्न क़त्ले-आम कहिये
 ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता
 बे-इज़्न=बिना इजाज़त, बिस्मिल =घायल

 मजाज़ साहब पर की गयी कोई बात उनकी इस अमर नज़्म के बिना पूरी नहीं हो सकती जिसे दुनिया भर के न जाने कितने गायकों ने अपने अपने अंदाज़ में इसे गाया है , पूरी नज़्म पढ़ने के लिए आप किताब खरीदिये , बानगी के लिए यहाँ पढ़िए :

 शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं
 जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं 
 ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
 ऐ ग़मे -दिल क्या करूँ , ऐ वहशते-दिल क्या करूँ ! 

Monday, November 19, 2018

किताबों की दुनिया - 204

मिला था एक यही दिल हमें भी आप को भी 
सो हम ने इश्क रखा, आपने ख़ुदा रक्खा
 *** 
है इंतज़ार उसे भी तुम्हारी खुशबू का 
हवा गली में बहुत देर से रुकी हुई है
 *** 
बीच में कुछ भी न हो यानी बदन तक भी नहीं 
तुझसे मिलने का इरादा है तो यूँ है मेरा 
*** 
ये कैसे मलबे के नीचे दबा दिया गया हूँ 
मुझे बदन से निकालो मैं तंग आ गया हूँ 
*** 
ये तो अच्छा किया तन्हाई की आदत रक्खी 
तब इसे छोड़ दिया होता तो अब क्या करते 
*** 
तिरे होने न होने पर कभी फिर सोच लूँगा 
अभी तो मैं परेशां हूँ खुद अपनी ही कमी से
 *** 
फैसला लौट के आने का है दुश्वार बहुत 
किस से पूछूँ वो मुझे भूल चुका है कि नहीं 
*** 
जरा आंसू रुकें तो मैं भी देखूं उसकी आँखों में 
उदासी किस कदर है और पशेमानी कहाँ तक है 
*** 
जो रात बसर की थी मिरे हिज़्र में तूने 
उस रात बहुत देर तिरे साथ रहा मैं 
***
 धूल नज़र में रह गई उसको विदाअ कर दिया 
और उसी गुबार में, उम्र गुज़ार दी गयी 

 इस से पहले कि हम आगे बढ़ें मुझे बताएं कि क्या आपने कभी www.greeniche.com पर क्लिक किया है ? आप इसके बारे में कुछ जानते हैं ? यदि हाँ तो अपना समय बचाएं और नीचे दिए शेरों पर जाएँ और यदि नहीं तो जो बता रहा हूँ उसे जरा गौर से पढ़ें। ये जो वेब साइट है इसका लोगो है "पैशन फार लाइफ़" याने "ज़िन्दगी से मुहब्बत" और ये वेब साइट कैनेडा की एक मशहूर कंपनी की है जो हेल्थ केयर प्रोडक्ट बनाती है जिसमें विटामिन्स और सप्लीमेंट्स, नेचरल हेल्थ फ़ूड, स्किन और बालों की केयर के प्रोडक्ट्स आदि शामिल हैं । ये कंपनी बहुत पुरानी नहीं है लेकिन इसने कैनेडा में बहुत सी बरसों पुरानी कंपनियों , जो इसी प्रकार के प्रोडक्ट बनाती आ रही हैं ,के पैर बाज़ार से उखाड़ दिए हैं। ये कंपनी अपनी क़्वालिटी के चलते कैनेडा ही नहीं पूरी दुनिया में अपना नाम कमा रही है और तेजी से आगे बढ़ रही है। आप सोच रहे होंगे कि मैं इस पोस्ट की आड़ में कहीं इस कंपनी का प्रचार तो नहीं कर रहा हूँ, तो जवाब है जी नहीं। मैं सिर्फ हमारे आज के शायर की पहचान इस कंपनी के माध्यम से करवा रहा हूँ जो इसकी सफलता के पीछे हैं।

 रात के पिछले पहर पुरशोर सन्नाटों के बीच 
तू अकेली तो नहीं ऐ चश्मे-तर मैं भी तो हूँ 

 खुद-पसंदी मेरी फ़ितरत का भी वस्फ़े-ख़ास है 
बेखबर तू ही नहीं है, बेख़बर मैं भी तो हूँ 

 यूँ सदा देता है अक्सर कोई मुझमें से मुझे 
तुझको ख़ुश रक्खे ख़ुदा यूँ ही मगर मैं भी तो हूँ 

 फ़्लैश बैक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए चलिए जरा पीछे लौटें।18 फ़रवरी 1968 का दिन है कराची के एक नामी डाक्टर के घर के रौनक देखते ही बन रही है। सबके चेहरे पे खिली ख़ुशी देख अंदाज़ा हो रहा है कि कोई बहुत अच्छी खबर है, जी बिलकुल सही। अच्छी खबर ये है कि डाक्टर साहब के यहाँ बेटा हुआ है. मिठाई बांटी जा रही है, गीत गाये जा रहे हैं। दो साल बाद डाक्टर साहब काम के सिलसिले में लीबिया चले जाते हैं पूरे परिवार के साथ और वहां पूरे 9 साल रहते हैं। ये बच्चा अब थोड़ा बड़ा हो गया है जिसे लीबिया में इंग्लिश मीडियम स्कूल न होने के कारण कराची भेज दिया गया है। कराची से स्कूलिंग करने के बाद उसने टी.जे. साइंस कॉलेज कराची से ग्रेजुएशन किया। पाकिस्तान में ग्रेजुएशन के करने के बाद कैरियर के लिए कोई बहुत ज्यादा ऑप्शन नहीं थे। क्या किया जाय इसी सोच में जब ये हज़रत अपने दोस्त के साथ कार में घर जा रहे थे तो दोस्त ने एक जगह कार रोक कर उन्हें कहा कि आप बैठे मैं सामने के कॉलेज से एम.बी ऐ. के लिए एक फार्म ले आता हूँ। एम,बी.ऐ की डिग्री को उस वक्त तक बहुत कम स्टूडेंट जानते थे। दोस्त के साथ इन हज़रत ने भी फार्म भर दिया , दोस्त तो परीक्षा में रह गए लेकिन ये चुन लिए गए।

 हमारे साथ जब तक दर्द की धड़कन रहेगी 
तिरे पहलू में होने का गुमाँ बाक़ी रहेगा 

 बहुत बे-ऐतबारी से गुज़र कर दिल मिले हैं 
बहुत दिन तक तकल्लुफ़ दर्मियाँ बाक़ी रहेगा

 रहेगा आसमाँ जब तक जमीं बाक़ी रहेगी 
जमीं क़ायम है जब तक आसमाँ बाक़ी रहेगा 

 एम,बी.ऐ. के बाद ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो यूनिवर्सिटी कराची से एम्. एस. किया और एक मल्टीनेशनल हेल्थ केयर कंपनी से जुड़ गए। इस तरह की कंपनियां किसी को कुछ नया करने की आज़ादी नहीं देती। लिहाज़ा इन का मन इस काम से उखड़ने लगा। बड़ी कंपनी की शानदार नौकरी को छोड़ने का निर्णय आसान नहीं था लेकिन इन्होने लिया और एक छोटी लोकल कम्पनी में काम करने लगे जहाँ उन्हें अपने हिसाब से काम करने की आज़ादी थी। सभी कंपनियाँ अपने प्रोडक्ट के प्रमोशन के लिए डॉक्टर्स को गिफ्ट्स दिया करती हैं। इस शख़्स ने जिसका नाम 'इरफ़ान सत्तार' है, प्रोडक्ट प्रमोशन का नया तरीक़ा सोचा। उन्होंने नामचीन शायरों जैसे ग़ालिब मीर आदि के सौ चुनिंदा शेरों की खूबसूरत बुकलेट छपवायी और वितरित कीं। उनके इस प्रयास को बहुत सराहना मिली। एक नयी फैक्ट्री के उद्घाटन के लिए उन्होंने बजाय किसी नेता या अफसर को बुलाने के पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ को बुलाया जो उस समय लिया गया एक बहुत बड़ा कदम था. हमारे यहाँ तो ये अभी भी मुमकिन नहीं है। ऐसे अलग सोच वाले प्रतिभाशाली शख़्स ने जब कलम उठाई तो ग़ज़ब ढा दिया।

 पहले जो था वो सिर्फ तुम्हारी तलाश थी 
लेकिन जो तुमसे मिल के हुआ है ,ये इश्क है 

 क्या रम्ज़ जाननी है तुझे अस्ले-इश्क की 
जो तुझमें इस बदन के सिवा है ,ये इश्क है 
रम्ज-भेद ,सिवा=अधिक  

जो अक़्ल से बदन को मिली थी वो थी हवस 
जो रूह को जुनूं से मिला है, ये इश्क है 

 पाकिस्तान में आगे बढ़ने के लिमिटेड मौकों और माहौल को देखते हुए इरफ़ान सत्तार साहब ने कैनेडा बसने का इरादा किया। कैनाडा में ज़िन्दगी दो तरह से गुज़ारी जा सकती थी पहली किसी बड़ी कंपनी में नौकरी करके और दूसरी अपनी कंपनी खोल के। दूसरा रास्ता क्यूंकि बहुत मुश्किल था लिहाज़ा इरफ़ान साहब ने आदतन वही चुना। उनकी मेहनत लगन और अलग ढंग की सोच ने नई कंपनी को कुछ ही सालोँ में कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया। उनके प्रोडक्ट्स की डिमांड कैनेडा में तो है ही अमेरिका मिडल ईस्ट भारत पाकिस्तान के अलावा चीन में भी खूब हो रही है। अपने बेहद व्यस्त शेड्यूल में से सत्तार साहब शायरी के लिए वक्त निकाल लेते हैं। जैसे उनके हेल्थ प्रोडक्ट बहुत अलग हट के हैं वैसे ही उनकी शायरी भी बेहद दिलकश और खास है। उर्दू में इरफ़ान साहब की दो किताबें शाया हो चुकी हैं हिंदी में छपी उनकी किताब "ये इश्क है" जिसमें उन दो किताबों से चुनिंदा ग़ज़लें ली गयीं हैं आज हमारे सामने है।महेन कुमार सानी और नदीम अहमद काविश ने किताब का सम्पादन किया है, उसी में से पेश हैं कुछ चुनिंदा ग़ज़लों के शेर :



 तेरी याद की खुशबू ने बाहें फैला कर रक़्स किया 
कल तो इक एहसास ने मेरे सामने आकर रक़्स किया 

 पहले मैंने ख़्वाबों में फैलाई दर्द की तारीक़ी
 फिर उसमें इक झिलमिल रौशन याद सजा कर रक़्स किया 

 रात गए जब सन्नाटा सरगर्म हुआ तन्हाई में 
दिल की वीरानी ने दिल से बाहर आ कर रक़्स किया 

 इरफ़ान सत्तार साहब की शायरी और टॉक शो के यू ट्यूब पर वीडियो देखते-सुनते हुए यकीन होता है कि इरफ़ान साहब के पास एक बिलकुल अलहदा लेकिन साफ़ सोच है। ये शख़्स अपनी बात कहने में ख़तरनाक हद तक ईमानदार, सच्चा और नेक है। पाकिस्तान के ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों को अपनी शायरी से दीवाना बना देने वाले जनाब जॉन ऐलिया साहब उनके उस्ताद हैं. इस किताब में उनकी लगभग 100 से ज्यादा ग़ज़लें संग्रहित की गयीं हैं जो पाठकों को देर तक अपनी गिरफ्त से बाहर नहीं आने देती। मैं सोचता हूँ की अपनी अपनी बकबक को कुछ देर के लिए रोक कर आप तक उनके चुनिंदा अशआर पहुंचाऊं तो लीजिये मैं एक तरफ हो जाता हूँ अब आप हैं और इरफ़ान साहब का कलाम है :

 गुज़र रहा है तू किस से गुरेज़ करता हुआ
 ठहर के देख ले ऐ दिल कहीं ख़ुशी ही न हो

 वो आज मुझसे कोई बात कहने वाला है
मैं डर रहा हूँ कि ये बात आख़िरी ही न हो

 अजीब है ये मिरी ला-तअल्लुक़ी जैसे
 जो कर रहा हूँ बसर मेरी ज़िन्दगी ही न हो
***
 मैं तुझसे साथ भी तो उम्र भर का चाहता था
सो तुझ से अब गिला भी उम्र भर का हो गया है

 मिरा आलम अगर पूछे तो उनसे अर्ज़ करना
 कि जैसा आप फ़रमाते थे वैसे हो गया है

 मैं क्या था और क्या हूँ और क्या होना है मुझको
मिरा होना तो जैसे इक तमाशा हो गया है
***
वो इक रोजन कफ़स का जिसमें किरनें नाचती थीं
मिरी नज़रें उसी पर थीं रिहा होते हुए भी

 मुझे तूने बदन समझा हुआ था वरना मैं तो
तिरी आगोश में अक्सर न था होते हुए भी

मुसलसल क़ुर्ब ने कैसा बदल डाला है तुझको
 वही लहज़ा वही नाज़ो-अदा होते हुए भी
मुसलसल क़ुर्ब =लगातार नज़दीकी
 ***
हमें तुम्हारी तरफ रोज़ खींच लाती थी
 वो एक बात जो तुमने कभी कही ही नहीं

 वो एक पल ही सही जिसमें तुम मयस्सर हो
 उस एक पल से जियादा तो ज़िन्दगी भी नहीं

 हज़ार तल्ख़ मरासिम सही प' हिज़्र की बात
 उसे पसंद न थी और हमने की भी नहीं
 तल्ख़ मरासिम=कड़वे रिश्ते , हिज़्र -जुदाई
 ***
धूप है उसकी मेरे आँगन में
 उसकी छत पर है चांदनी मेरी

 जाने कब दिल से आँख तक आ कर
 बह गयी चीज़ क़ीमती मेरी

 क्या अजब वक्त है बिछुड़ने का
 देख रूकती नहीं हंसी मेरी

 तेरे इंकार ने कमाल किया
 जान में जान आ गयी मेरी
 ***
एक मैं हूँ जिसका होना हो के भी साबित नहीं
 एक वो है जो न हो कर जा-ब-जा मौजूद है

 ताब आँखें ला सकें उस हुस्न की, मुम्किन नहीं
 मैं तो हैराँ हूँ कि अब तक आइना मौजूद है

 एक पल फ़ुर्सत कहाँ देते हैं मुझको मेरे ग़म
 एक को बहला दिया तो दूसरा मौजूद है

 अब देखिये ग़ज़लें तो इस किताब में जैसा मैंने बताया 100 से ऊपर हैं और सभी ऐसी हैं जिन्हें यहाँ पढ़वाने का मन है लेकिन आप भी जानते हैं और मैं भी कि ये संभव नहीं. इन ग़ज़लों को पढ़ना तभी संभव है जब ये किताब आपके पास हो और इसे अपने पास रखने के लिए आपको ऐनी बुक्स G -248 ,2nd फ्लोर , सेक्टर -63 नोएडा-201301 को लिखना होगा या www. anybook. org की साइट पे जाना होगा , सबसे आसान तो ये होगा कि आप श्री पराग अग्रवाल जो ऐनी बुक्स के कर्त्ता धर्ता है और खुद भी बेमिसाल शायर हैं , को उनके मोबाईल न 9971698930 पर संपर्क करें। पराग को आप बधाई दें जिनका शायरी प्रेम ही उनसे ऐसी अनमोल शायरी की किताबों को मंज़र-ए-आम पर लाने की हिम्मत पैदा करता है, वरना आज के युग में भला कौन जान बूझ कर ऐसा जोखिम लेगा ? कितने लोग शायरी की किताबें पढ़ते हैं और वो भी ऐसी मयारी शायरी की किताब ? मेरे दिल से पराग के लिए हमेशा दुआएं निकलती हैं। ये किताब अमेजन पर भी ऑन लाइन उपलब्ध है। आप किताब मंगवाइये और चलते चलते उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पढ़िए :

 माहौल मेरे घर का बदलता रहा, सो अब 
 मेरे मिज़ाज़ का तो ज़रा सा नहीं रहा 

 मैं चाहता हूँ दिल भी हक़ीक़त पसंद हो 
 सो कुछ दिनों से मैं इसे बहला नहीं रहा 

 वैसे तो अब भी खूबियां उसमें हैं अनगिनत 
 जैसा मुझे पसंद था , वैसा नहीं रहा

Monday, November 12, 2018

किताबों की दुनिया - 203

तुझको शैतान के हो जायेंगे दर्शन वाइज़ 
डालकर मुंह को गिरेबाँ में कभी देखा है 
*** 
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी करना कोई आसाँ न था
 हज़्म करके ज़हर को करना पड़ा आबे-हयात
 *** 
हज़ार शुक्र कि मायूस कर दिया तूने 
ये और बात कि तुझसे भी कुछ उमीदें थीं
 *** 
तू एक था मेरे अशआर में हज़ार हुआ
 इस इक चिराग से कितने चिराग़ जल उट्ठे 
*** 
जो ज़हरे-हलाहल है अमृत भी वही नादाँ 
मालूम नहीं तुझको अंदाज़ ही पीने के 
***
 मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह देदे 
तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के
 *** 
मौत का भी इलाज़ हो शायद
 ज़िन्दगी का कोई इलाज़ नहीं 
*** 
वो आलम और ही है जिसमें मीठी नींद आ जाये 
ग़मो-शादी में सोने के लिए रातें नहीं होतीं 
ग़मो-शादी =ग़मी और ख़ुशी 
*** 
अगर मुमकिन हो तो सौ-सौ जतन से 
अज़ीज़ो ! काट लो ये ज़िन्दगी है 
*** 
कुछ नहीं वो निगाहें मगर 
बात पहुँचती है कहाँ-से-कहाँ 

 साल 1982 ,काफी ठण्ड थी , जनवरी में दिल्ली में होती ही है ,तभी तो सुबह के दस बजे तक भी लोग कहीं न कहीं दुबके पड़े थे माहौल सुस्ती से भरा हुआ था कि एम्स में सरगर्मियां अचानक बढ़ गयीं। अफ़रातफ़री का सा माहौल हो गया। एम्स आप जानते ही होंगें दिल्ली का सबसे बड़ा सरकारी हस्पताल है । डाक्टर नर्से और दूसरे सभी विभाग के लोग कमरा नंबर 104 जो वी आई पी रूम था की और दौड़ रहे थे। तभी एम्स के रजिस्ट्रार मिस्टर सिंह धड़धड़ाते हुए कमरे में घुसे, उनके साथ ही आठ दस लोग भी। उन लोगों ने आते ही तुरतफुरत कमरे के परदे बदल दिए, सारा सामान करीने से सजा दिया और बैड पर बैठे बुजुर्ग को उठाकर, पलंग पर बिछी बैडशीट, तकिये के गिलाफ, कम्बल आदि बदल दिए और बुजुर्ग को भी हॉस्पिटल की और से नयी पोषक पहना दी गयी।ये काम आधे घंटे में निपट गया। बुजुर्ग इन सब हरकतों से परेशान नज़र आ रहे थे आखिर गुस्से में बोले 'कोई मुझे बताएगा की ये सब क्या हो रहा है ?' सिंह साहब ने बड़े आदर से जवाब दिया सर प्राइम मिनिस्टर श्रीमती इंदिरा गाँधी साहिबा आप से मिलने आ रही हैं।

 मोहब्बत में मेरी तन्हाइयों के हैं कई उनवाँ 
तेरा आना, तेरा मिलना, तेरा उठना, तेरा जाना 
उनवाँ =शीर्षक 
*** 
कुछ आदमी को हैं मज़बूरियां भी दुनिया में 
अरे वो दर्दे-मोहब्बत सही, तो क्या मर जाएँ ? 
*** 
गरज़ की काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त 
वो तेरी याद में हो या तुझे भुलाने में 
*** 
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है 
नई-नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी 
*** 
मैं देर तक तुझे खुद ही न रोकता लेकिन
 तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है 
***
 ये ज़िन्दगी के कड़े कोस, याद आता है 
तेरी निगाहे-करम का घना-घना साया 
*** 
शबे-विसाल के बाद आईना तो देख जरा 
तेरे जमाल की दोशीज़गी निखार आई 
शबे-विसाल=मिलान की रात , जमाल की=सौंदर्य की , दोशीज़गी =कौमार्य
 *** 
हम क्या हो सका मोहब्बत में 
खैर तुमने तो बेवफ़ाई की 
*** 
आज आँखों में काट ले शबे-हिज़्र
 ज़िंदगानी पड़ी है सो लेना 
*** 
रहा है तू मेरे पहलू में इक ज़माने से
 मेरे लिए तो वही ऐन हिज़्र के दिन थे
 हिज़्र के=जुदाई के 

 प्राइम मिनिस्टर किसी बुजुर्ग से मिलने हॉस्पिटल आये मतलब वो कोई खास ही शख़्स होगा वरना कौन किसे मिलने आता है ? हॉस्पिटल में इसी बात को लेकर खुसुरपुसुर सी हो रही थी कि ऐसा बुजुर्ग है कौन ? दोपहर ठीक एक बजकर पद्रह मिनिट पर इंदिरा जी कमरे में दाखिल हुईं और आते ही दोनों हाथ जोड़ते हुए बोलीं -नमस्कार जी। बुजुर्ग ने बिस्तर पर बैठे बैठे सर ऊपर किया और पूछा कौन ? आंखों में मोतिया बिंद उतर आने की वजह से शायद वो चेहरा पहचान नहीं पाए होंगे। किसी ने उनके कान में कहा ' इंदिरा जी आयी हैं ' . बुजुर्ग की आँखों में आंसू छलछला आये बोले 'बेटी इंदिरा मैं ठीक हूँ , मैंने सिगरेट भी छोड़ दी है ज़िन्दगी में पहली बार'. इंदिरा जी हँसते हुए बोली 'लेट इट भी द फर्स्ट एन्ड लास्ट टाइम' फिर पूछा 'आपको यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है न ?' बुजुर्ग ने कहा -नहीं, बिलकुल नहीं , तुम्हारी वजह से मेरा यहाँ बहुत ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन बेटी यहाँ जो गरीब हैं ,बेसहारा हैं अगर उनका भी ऐसे ही इतना ही ख्याल रखा जाय तो ही जवाहर जी के हिंदुस्तान का सपना साकार होगा। बेटी मेरी एक बात गौर से सुनो 'गो टू द पुअरेस्ट ऑफ दी पुअर'. इंदिरा जी ने उनकी इस बात को गांठ बांध लिया और बाद में इंदिरा जी का बयान अखबार में छपा जिसमें उन्होंने अपनी पार्टी के अधिकारीयों को मुखातिब करते हुए कहा था कि 'गो टू द पुअरेस्ट ऑफ दी पुअर '

 रश्क है जिस पर ज़माने भर को है वो भी तो इश्क 
कोसते हैं जिसको वो भी इश्क ही है , हो न हो 

 आदमियत का तकाज़ा था मेरा इज़हारे-इश्क 
भूल भी होती है इक इंसान से, जाने भी दो 

 यूँ भी देते हैं निशान इस मंज़िले-दुश्वार का 
जब चला जाए न राहे-इश्क में तो गिर पड़ो 

 अब तक तो आपको इस बात का अंदाज़ा हो ही गया होगा कि जिस बुजुर्ग की हम बात कर रहे हैं वो और कोई नहीं उर्दू अदब के कद्दावर शायर जनाब 'फ़िराक गोरखपुरी' हैं। फ़िराक जिनका नाम 'रघुपति सहाय' था गोरखपुर की बाँसगाँव तहसील के बनवारपार गाँव में 28 अगस्त 1896 को पैदा हुए थे। इनके पिता गोरखपुर और आसपास के जिलों में सबसे बड़े दीवानी के वकील थे लिहाज़ा घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी। एक विशाल कोठी लक्ष्मी भवन जो आज भी मौजूद है में दर्जनों नौकर चाकरों के बीच वो अपने विशालकाय परिवार के साथ रहते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। स्कूली पढाई गोरखपुर के विभिन्न स्कूलों करने के बाद आगे की पढाई के लिए वो इलाहबाद आ गए 1918 में बी.ऐ की परीक्षा देने के बाद वो स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। सं 1930 में आगरा विश्विद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी में एम् ऐ किया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्हें बिना कोई अर्ज़ी दिए ही इलाहबाद युनिवेर्सिटी में अंग्रेज़ी के उस्ताद की हैसियत से नौकरी मिल गयी. सं 1959 में फ़िराक विश्वविद्यालय से रिटायर हुए लेकिन यू.जी.सी ने इन्हें रिसर्च प्रोफ़ेसर नियुक्त कर दिया जिस पर वो 1966 तक काम करते रहे।

 वो चुपचाप आँसू बहाने की रातें 
वो इक शख़्स के याद आने की रातें

 शबे-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम 
तिरे हुस्न के रसमसाने की रातें 

 फुहारें-सी नग्मों की पड़ती हो जैसे 
कुछ उस लब से सुनने-सुनाने की रातें 

 मुझे याद है तेरी हर सुबह-रुख़्सत
 मुझे याद हैं तेरे आने की रातें 

 फ़िराक की शायरी में निखार इलाहबाद जा कर आया जब उनका संपर्क प्रोफ़ेसर 'नासरी, साहब से हुआ। नासरी साहब ने न केवल उनकी ग़ज़लों में संशोधन किया बल्कि उर्दू शायरी के नियमों पर नियमपूर्वक लेक्चर भी दिए और इस तरह उनके दिल में जल रही शायरी की ज्वाला को विधिवत भड़का दिया। फ़िराक साहब के सबसे प्रिय शिष्य और साये की तरह उनके साथ रहने वाले 'रमेश चंद्र द्विवेदी' साहब ने उनके बारे में लिखा है कि ' बहुत से दृश्य, वस्तुएं, विचार, कहानियां और घटनाएं उन्हें ध्यानमग्न कर देते थे और उनकी दशा एक समाधिस्त योगी की तरह हो जाती थी. वो वस्तुओं को देख आत्मविभोर हो जाया करते थे। प्रकृति का प्रत्येक दृश्य, गाँव की पगडंडियां, हरे भरे खेत, अमराइयाँ, बाग़ बगीचे, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, हवा और बारिश, रात और दिन का हर पल, वनस्पति संसार, तारों भरी रात और सन्नाटा, पहाड़ उनकी चोटियां और घाटियां, स्त्री-पुरुष और बच्चे, अंडे सेते हुए और अपने बच्चों को दाना चुगाते हुए पक्षी, तालाब में तैरती और जीवन-उमंग से उछलती हुई मछलियां,पशुओं के शिशुओं की कूदफाँद और अपने बच्चों को ढूढ़-पान कराते हुए पशु, घर-गृहस्ती के सामान, निर्माण कार्य में रत मजदूर, खेतों में दौड़ता हुआ पानी आदि फ़िराक की चेतना को जागरूक करते बल्कि उसे और भी समृद्ध और भरपूर बना देते'. आज हम उनकी लाजवाब किताब 'सरगम' की बात करेंगे जिसमें फ़िराक साहब ने अपनी पसंद की 120 ग़ज़लों से ज्यादा का चयन किया है।


 जिन्हें शक हो वो करें और खुदाओं की तलाश 
हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं 

 तेरी रूदादे-सितम का है बयाँ नामुमकिन 
फायदा क्या है मगर यूँ ही ज़रा कहते हैं 

 औरों का तजुर्बा जो कुछ हो मगर हम तो ' फ़िराक' 
तल्खी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं 
तल्खी-ए-ज़ीस्त =जीवन की कटुता

 फ़िराक जैसी शख़्सियत को किसी एक लेख या किताब में समेटना बहुत मुश्किल काम है। इतनी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति बहुत कम हुए हैं। उन पर बहुत से लेख और किताबें लिखी गयीं हैं जिनमें प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी साहब की किताब "इंतिखाब -फ़िराक गोरखपुरी" लाजवाब है। चलिए फिर से लौटते हैं उनके जीवन प्रसंगों पर। स्वतंत्रता संग्राम में कूदने के एवज में अंग्रेजी सरकार ने उन्हें आगरा जेल में डाल दिया जहाँ वो लगभग दो साल रहे। इस जेल में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ बहुत से काव्य प्रेमी भी बंद थे। फ़िराक साहब जेल की बालकोनी से ताजमहल को निहारा करते और ग़ज़लें कहा करते। और तो और उन्होंने जेल में बाकायदा हर हफ्ते मुशायरा रखना शुरू कर दिया जिसमें मिसरा-ऐ-तरही पर ग़ज़लें पढ़ी जातीं। ये साप्ताहिक मुशायरा बाकायदा 10-12 हफ़्तों तक लगातार चलता रहा बाद में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दो साल की जगह जेल की अवधि को घटा कर ढेड़ साल कर दिया गया, जब फ़िराक जेल से बाहर आये तो पाया कि उनके घर की आर्थिक दशा बहुत खराब है। पिता तो लम्बी बीमारी के बाद जेल जाने से पहले ही गुज़र चुके थे जेल के दौरान उनके जवान भाई को भी टी.बी. ने अपना शिकार बना लिया था। इसी दौरान जवाहर लाल नेहरू उनके घर ठहरने आये और फ़िराक साहब के बिना कुछ कहे ही सारा माज़रा समझ गए। उन्होंने फ़िराक से इलाहबाद में कांग्रेस पार्टी के अंडर सेकेट्री के पद पर काम करने की पेशकश की। फ़िराक ने उनका कहा माना और ढाई सौ रूपए माहवार की पगार पर इलाहबाद में कांग्रेस पार्टी के अंडर सेकेट्री के पद पर काम करने लगे।

 मैंने सोचा था तुझे इक काम सारी उम्र में 
वो बिगड़ता ही गया, ऐ दिल, कहाँ बनता गया  

मेरी घुट्टी में पड़ी है हो के हल उर्दू जबाँ 
जो भी मैं कहता गया हुस्ने-बयाँ बनता गया 
हल=घुलमिल कर 

 वक्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए
 एक तेरा ग़म कि गंजे-शायगां बनता गया 
 गंजे-शायगां=बहुमूल्य खज़ाना 

 वो लोग जो उर्दू जबाँ को एक खास मज़हब के लोगों की बपौती मानते हैं फ़िराक की शायरी को बर्दाश्त नहीं कर पाते। फ़िराक साहब ने ये सिद्ध किया कि उर्दू भी बाकि दूसरी ज़बानों की तरह एक ज़बान है जिसे कोई भी बोल सकता है लिख या पढ़ सकता है ,इसके लिए किसी ख़ास मज़हब का होना जरूरी नहीं। ये देखा गया है कि जब आप किसी की बराबरी नहीं कर पाते तो उसकी बुराई करने लगते हैं। यूँ किसी की तारीफ़ करने से कोई महान नहीं हो जाता और किसी की बुराई करने से कोई बुरा नहीं हो जाता। लोगों ने फ़िराक साहब के शेरों को काने, लूले और लंगड़े साबित करने की कोशिश की लेकिन जब वो कामयाब नहीं हो पाए तो उन्होंने उनके व्यक्तिगत जीवन पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया। ये बात सच है कि फ़िराक साहब का गृहस्त जीवन शांत नहीं था। पत्नी की बदसूरती और उनके अधिक पढ़े लिखे न होने का मलाल उन्हें जीवन भर सालता रहा। दरअसल फ़िराक बचपन से ही खूबसूरती के दीवाने थे अच्छी और दिलकश चीज़ें और मंज़र उन्हें आकर्षित करते थे। कुरूप महिलाओं की गोद में जाते ही वो रोने लगते। जब स्वयं की पत्नी उन्हें बदसूरत मिली तो वो इस सदमे को सहन नहीं कर पाए ,पत्नी को लेकर उनके मन में आदर नहीं था लेकिन उन्होंने कभी उनकी अवहेलना नहीं की। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। फ़िराक साहब को दो बेटियां और एक बेटा इसी पत्नी से मिला। उनके और उनकी पत्नी के संबंधों पर लिखी रमेश चंद्र द्विवेदी जी की किताब 'कोयला भई न राख़' पठनीय है। लोग उनके सामने बोलने में भी कतराते थे क्यूंकि फ़िराक साहब मुंहफट होने की हद तक स्पष्टवादी और कलमफट होने की हद तक साहित्य योद्धा थे। 

मैं आस्माने मुहब्बत से रुख्सते-शब हूँ
 तिरा ख़्याल कोई डूबता सितारा है 

कभी हयात कभी मौत के झरोखे से 
कहाँ-कहाँ से तेरे इश्क ने पुकारा है 

 बयाने-कैफ़ियत उस आँख का हो क्या जिसने 
हज़ार बार जिलाया है और मारा है

 फ़िराक ने 1923 से 1927 तक कांग्रेस के अंडर सेकेट्री पद पर काम करने के बाद गाँधी जी से गोरखपुर में जनजागरण पैदा करने की अनुमति मांगी जिसे गाँधी ने सहर्ष प्रदान कर दिया। गोरखपुर में चलने वाली सभी राष्ट्रीय आन्दोलनों की बागडोर फ़िराक साहब ने अपने हाथ में ले ली। फ़िराक का मौलिक चिंतन ग़ज़ब का था। वो अपनी रोजमर्रा की बातचीत में ऐसे वाक्य बोल जाते थे जो बड़े से बड़े शिक्षित लोगों को चौंका देते थे। उनके वाक्यों ने, भाषणों और लेखों ने अंग्रेजी हकूमत के दिल में भय उपजा दिया। उन्होंने फ़िराक की सभाओं और लेखों पर पाबन्दी लगा दी। गोरखपुर छोड़ वो 1930 से इलाहबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाने लगे। उनका लेक्चर सुनने के बाद विद्यार्थी ये अनुभव करने लगता था कि वो लाइब्रेरी हज़्म करके उठा है। वो बच्चों से कहते 'सोचो चिंतन करो मनन करो सोचो विचारो' फ़िराक अपने अनूठे सेन्स ऑफ ह्यूमर के चलते पूरी यूनिवर्सिटी के सबसे चहेते अध्यापक थे। फ़िराक तुलसीदास जी को विश्व का सबसे बड़ा कवि मानते थे उन्होंने एक बार कहा था कि रामचरितमानस पढ़ कर मैं राम का तो नहीं लेकिन तुलसीदास जी का पुजारी जरूर बन गया हूँ।

 ये तो नहीं कि ग़म नहीं 
हाँ मेरी आँख नम नहीं

 मौत अगरचे मौत है 
मौत से ज़ीस्त कम नहीं 

 अब न ख़ुशी की है ख़ुशी 
ग़म भी अब तो ग़म नहीं 

 कीमते हुस्न दो जहाँ 
कोई बड़ी रकम नहीं 

 बहुत कम लोग जानते हैं कि फ़िराक ने उर्दू के अलावा हिंदी और अंग्रेजी में भी किताबें लिखी हैं। उन्हें उनकी उर्दू किताब 'गुले नग्मा' जिसमें उनकी अधिकांश रचनाएँ संगृहीत हैं , पर साहित्य अकादमी और बाद में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया था। फ़िराक साहब को बातें करने का बेहद शौक था और वो घंटों बिना किसी और को मौका दिए किसी भी विषय पर पूरी ऑथरिटी से बोल सकते थे। उनके जैसे ज़हीन वक्ता बहुत कम हुए हैं। सुना है कि इलाहबाद के कॉफी हाउस में जब वो दोपहर बाद जाया करते थे तो वहां बैठे सभी लोग उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी बातें सुनते। लगभग 630 ग़ज़लों के अलावा नज़्मों, रुबाइयों और कतआत के रचयिता फ़िराक साहब को उनके सैंकड़ों शेरों जो अब क्लासिक का दर्ज़ा पा चुके हैं के कारण बरसों बरस याद रखा जायेगा। एक नयी उर्दू ज़बान को को अपनी ग़ज़लों में ढालने वाले फ़िराक आखिर 3 मार्च 1982 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत फरमा गए। फ़िराक उर्दू साहित्य की वो शख़्शियत थे जिसकी भरपाई आने वाले सालों में तो नामुमकिन लगती है. उनके साथ के और बाद के शायरों ने फिर वो भारत के हों या पाकिस्तान के उनकी स्टाइल को खूब कॉपी किया है। पाकिस्तान के लोकप्रिय शायर 'नासिर काज़मी' फ़िराक साहब के बहुत बड़े दीवाने थे।

 भरम तेरे सितम का खुल चुका है
 मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ 

 तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस 
कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ 

 मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है 
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ 

 'सरगम' जिसे राजपाल एन्ड सन्स 1590 मदरसा रोड कश्मीरी गेट दिल्ली -6 ने प्रकाशित लिया था को आप उनसे 011-23869812 पर फोन करके मंगवा सकते हैं , ये किताब अमेजन पर ऑन लाइन भी उपलब्ध है। इसमें आपको फ़िराक साहब की कुछ ऐसी ग़ज़लें भी पढ़ने को मिलेंगी जो अमूमन कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। कुछ ग़ज़लों में तो 15-20 से भी ज्यादा शेर हैं। इन ग़ज़लों को पढ़ते हुए आप फ़िराक साहब को बहुत अधिक तो नहीं लेकिन थोड़ा बहुत समझ सकते हैं। उन्हें समझने के लिए आपको उनकी सारी याने हिंदी अंग्रेजी और उर्दू में लिखी किताबें पढ़नी पड़ेंगी तब कहीं जा के हो सकता है की आपको उनके लेखन की गहरायी का अंदाज़ा हो पाए। लीजिये आखिर में पेश है फ़िराक साहब की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल जिसे ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह और उनकी पत्नी चित्रा सिंह ने गा कर अमर कर दिया ,के ये शेर :

 बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं 

 तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में 
 हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं 

 खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता 
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं

Monday, November 5, 2018

किताबों की दुनिया - 202

दरिया की ज़िन्दगी पर सदके हज़ार जानें 
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना 
*** 
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मज़बूरी 
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई 
सिवा=ज्यादा
 *** 
हर एक मकाँ में कोई इस तरह मकीं है 
पूछो तो कहीं भी नहीं देखो तो यहीं है 
*** 
हाँ, हाँ, तुझे क्या काम मेरे शिद्दते ग़म से ? 
हाँ, हाँ, नहीं मुझको तेरे दामन की हवा याद 
*** 
निगाहों में कुछ ऐसे बस गए हैं हुस्न के जलवे 
कोई महफ़िल हो लेकिन हम तेरी महफ़िल समझते हैं 
*** 
मजबूरी-ऐ-कमाले मुहब्बत तो देखना 
जीना नहीं कबूल , जिए जा रहा हूँ मैं
 *** 
क्या बताऊँ, किस कदर ज़ंज़ीरे पा साबित हुए 
चंद तिनके जिनको अपना आशियाँ समझा था मैं 
*** 
काँटों का भी हक़ है आखिर 
कौन छुड़ाए अपना दामन 
*** 
यह है इश्क की करामत यह कमाले शायराना 
अभी बात मुंह से निकली अभी हो गयी फ़साना
 *** 
मुहब्बत की बातें मुहब्बत ही जाने 
मुअम्मे नहीं हैं ये समझाने वाले 
मुअम्मे =गुत्थी 

 अलीबाबा पेड़ के पीछे खड़ा सब देख रहा था। उसने चोरों के सरदार ने गुफा के दरवाज़ा को खोलने के लिए जो बोला था वो भी रट लिया। जब चोर गुफा से बाहर आकर वापस चले गए तो वो पेड़ के पीछे से निकला ,गुफा के सामने खड़ा हुआ और बोला "खुल जा सिम सिम " दरवाज़ा खुला अलीबाबा अंदर गया और उसके बाद उसने जो देखा उसे देख उसकी जो हालत हुई होगी उसे मैं समझ सकता हूँ। इतना विशाल खज़ाना उसके सामने था। ऊपर वाले के दिए दो हाथों से वो जितना उठा सकता था उसने उस ख़ज़ाने से हिस्सा उठाया और चल दिया। मैं भी तो वोही कर रहा हूँ आज। सारे ख़ज़ाने को एक साथ न उठा पाने का जो मलाल अलीबाबा को उस वक्त हुआ होगा वो मुझे अब हो रहा है। ये किताब जो मेरे सामने है उस ख़ज़ाने से कम नहीं ,इसमें इश्क के बेजोड़ हीरे, हुस्न की चमचमाती सोने की अशर्फियाँ ,शराब के पन्ने की तरह खूबसूरत ज़ेवर ग़म के सच्चे मोतियों की मालाओं के ढेर और न जाने क्या क्या है। दिल तो मेरा भी यही कर रहा है कि सारे का सारा खज़ाना आपके कदमों पे धर दूँ लेकिन मजबूरी है, अकेला इतना बोझ उठा नहीं सकता। जो जितना उठा पाया हूँ आपके सामने है :

 हुस्न की जल्वागरी से है मुहब्बत का जुनूँ 
शमा रोशन हुई , पर लग गए परवानों के
 *** 
मुझको शिकवा है अपनी आँखों से 
तुम न आए तो नींद क्यों आई ? 
*** 
आपस में उलझते हैं अबस शेखो-बिरहमन 
काबा न किसी का है न बुतखाना किसी का 
अबस =बेकार 
*** 
इश्क जब तक न कर चुके रुसवा 
आदमी काम का नहीं होता
 *** 
तौबा तो कर चुका था मगर इसका क्या इलाज
 वाइज़ की ज़िद ने फिर मुझे मजबूर कर दिया 
*** 
जुनूने मुहब्बत यहाँ तक तो पहुंचा
 कि तर्के मुहब्बत किया चाहता हूँ 
*** 
हाय ये मजबूरियां महरूमियाँ नाकामियां 
इश्क आखिर इश्क है तुम क्या करो हम क्या करें 
*** 
कमाले हुस्न की का आलम दिखा दिया तूने
 चिराग़ सामने रख कर बुझा दिया तूने
 *** 
यूँ दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आखिर 
या दर्द ने करवट ली या तुमने इधर देखा 
*** 
हुदूद कूचा-ए-महबूब हैं वही से शुरू 
जहाँ से पड़ने लगे पाँव डगमगाए हुए 

 चलिए 19 वीं शातब्दी के शुरूआती दौर में चलते हैं यही कोई 1910 के आसपास, किसी मोहल्ले में मुशायरा चल रहा है आधी रात का वक्त होगा , एक नामचीन शायर साहब अपना कलाम उछल उछल कर पढ़ रहे हैं दाद के लिए हाथ फैलाये हुए हैं लेकिन सामिईन उन्हें उखाड़ने को कमर कसे बैठे हैं , शायर मुशायरे के आर्गेनाइजर की और मुख़ातिब हो कर धीरे से कहते हैं कैसे ज़ाहिल गँवार लोगों को मुझे सुनने को बुलाया हुआ है आपने। कोई शेर उनके पल्ले ही नहीं पड़ रहा , इस से तो मैं अगर गधों को सुनाता तो कम से कम दुम तो हिलाते। आर्गेनाइजर धीरे से बोलै शुक्र कीजिये सामिईन में गधे नहीं हैं वरना हो सकता है दुलत्तियाँ चलाने लगते। मुशायरा उखड चुका था ,तभी एक नौजवान नशे में धुत्त लड़खड़ाता हुआ मंच की और बढ़ा। उसकी बेतरीब बढ़ी दाढ़ी और महीनों से कंघी को तरसती हुई लम्बी जुल्फें देख कर लगता था जैसे वो किसी पागलखाने से सीधा चला आया है। नौजवान को तेजी से माइक की तरफ आता देख वो शायर साहब तो फ़ौरन खिसक लिए लेकिन आर्गेनाइजर की बांछे खिल उठीं। नौजवान ने गला साफ़ किया और लाजवाब तरन्नुम में ये कलाम पढ़ा :

 दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं 
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं 

 गुलशन परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़ 
काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं 

 यूँ ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर 
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं 

 अब इसके बाद क्या हुआ ,आप तो समझदार हैं जान ही गए होंगे। सामिईन ने और किसी को पढ़ने ही नहीं दिया ,ये नौजवान सारा मुशायरा लूट के ले गया। सच तो ये है कि ऐसा कोई भी मुशायरा किसी को याद नहीं जिसमें इन हज़रत ने पढ़ा हो और उसे लूट न ले गए हों। मुशायरा लूटने का ये सिलसिला इस शायर की मौत के बाद ही ख़तम हुआ। तो चलिए आज इसी शायर की बात करते हैं जिसने उर्दू शायरी को हुस्न और इश्क के नए पाठ पढ़ाये। इनकी शायरी में हुस्न और इश्क की धीमी धीमी आंच पर इंकलाब और नए नज़रियात की आहट सुनाई देती है। 6 अप्रेल 1890 में मुरादाबाद में जन्में इस शायर का नाम है अली सिकंदर जो उर्दू शायरी के फ़लक पर आफ़ताब की चमक रहा है और आने वाले वक्त में भी इसी आब के साथ चमकता रहेगा ,हम इस शायर को "जिगर मुरादाबादी" के नाम से जानते हैं। उनकी ग़ज़लों के संकलन की जिस किताब "मेरा पैगाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुंचे " की हम बात कर रहे हैं ,उसे "किताब घर" प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है।


 आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं 
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं 

 हाय रे मजबूरियां तरके मुहब्बत के लिए
 मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूँ मैं 

 मेरी हिम्मत देखना मेरी तबियत देखना 
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं

 जिगर को शायरी विरासत में मिली थी। उनके पिता मौलाना अली 'नज़र' तो शायर थे ही उनके दादा हाफिज मोहम्मद 'नूर' भी शायर थे। जैसा कि अमूमन होता है उस दौर में कोई कोई शायर ही खाते-पीते घर के होते थे जबकि अधिकांश की माली खस्ता ही होती थी।आज भी वैसे कोई खास फ़र्क नहीं पड़ा है जो सच्चे और अच्छे शायर हैं उनकी हालत खस्ता ही है, हाँ जो शायरी को बेचने के हुनर से वाकिफ़ हैं उन्हें कोई कमी नहीं। जिगर के परिवार वाले ये हुनर नहीं जानते थे इसलिए किसी तरह गुज़ारा करते रहे। ऐसे माहौल में जिगर की शिक्षा ढंग से नहीं हो पायी ,वो कुछ साल ही मदरसे गए बाद में घर पर ही फ़ारसी सीखी। जिगर का ये मानना था कि शायरी के लिए किसी स्कूल कॉलेज की डिग्री लेना जरूरी नहीं। जिगर साहब ने तो बिना डिग्री के बेहतरीन शायरी कर ली लेकिन उनकी इस बात को उनके बाद के बाकि शायरों ने भी गले बांध लिया और आज भी आपको इस सोच के शायर मिल जायेंगे जो मुशायरों के मंचों पर धूम मचा रहे हैं लेकिन अगर उनसे उनकी डिग्री पूछेंगे तो बगलें झांकते नज़र आएंगे। जिगर ने माना कि अधिक पढाई नहीं की लेकिन उन्होंने ज़िन्दगी के तल्ख़ तजुर्बों से बहुत कुछ सीखा और उन्हीं तजुर्बों को अपनी शायरी में ख़ूबसूरती से ढाला।अब आपके पास अगर तजुर्बे भी ना हों सिर्फ दूसरों की नक़ल करने का हुनर आता हो तो अपनी नौटंकी से मंचों पे आप बेशक तालियां पिटवा लेंगे लेकिन मंच से हटते ही आपको याद रखने वाला कोई नहीं होगा।

 हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं 
 हमसे ज़माना खुद है ज़माने से हम नहीं 

 यारब ! हुजूमे दर्द को दे और वुसअतें 
 दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं 
 हुजूमे=भीड़, वुसअतें=फैलाव 

 ज़ाहिद कुछ और हो न हो मैखाने में , मगर 
 क्या कम ये है कि फ़ितना-ए-दैरो हरम नहीं 

 जिगर की ज़िन्दगी में अगर झांकेंगे तो आपको दो बातें खास तौर पे मिलेंगी पहली मयनौशी और दूसरी आशिकी। जिगर ने या तो शराब पी या इश्क किया और दोनों ही काम करने में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं की। ज़नाब इश्क फरमाते नाकामयाब होते तो शराब में गर्क हो जाते और शायरी करने लगते, शायरी करते तो किसी न किसी को उनसे इश्क हो जाता जो थोड़े दिन चलता और जिगर साहब फिर से शराब से नाता जोड़ लेते। फक्कड़ तबियत कुछ मिला तो ठीक न मिला तो भी ठीक। पढ़े लिखे होते तो कहीं नौकरी भी मिलती ,दुबले पतले मरियल से बदसूरत चेहरे वाले जिगर को कोई ढंग का काम किसी ने दिया ही नहीं इसलिए जब जो काम मिला कर लिया और पेट की आग बुझा ली। जनाब ने स्टेशन स्टेशन घूम के चश्मे बेचने का काम भी किया है। ये ही मरियल दुबला-पतला बदसूरत इंसान बकौल शौक़त थानवी "जब मुशायरे में तरुन्नम से अपना कलाम पढ़ते तो दुनिया के सबसे हसीन और दिलकश इंसान नज़र आने लगते।चेहरे पर मासूमियत छा जाती " इसी मासूमियम के चलते हसीनाएं उन्हें अपना दिल दे बैठतीं जिसे कबूल करने में जिगर साहब कभी कोताही नहीं बरतते।

 मुहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं 
 कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं 

 ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं 
 वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं 

 जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है 
 वफ़ा करके भी हम तो शर्मा रहे हैं 

 जिगर साहब एक बार आगरे की तवायफ़ 'वहीदन' से इश्क कर बैठे , लोगों ने समझाया कि मियां अपनी हैसियत तो देखें कहाँ आप और कहाँ वो लेकिन कहते हैं न कि प्यार अँधा होता है और जिगर साहब का प्यार तो जनम से अँधा था , नहीं माने। वही हुआ जो होना था 'वहीदन' का धंधा जब ठप्प होने लगा तो उन्होंने कड़के जिगर साहब को बाहर का रास्ता दिखा दिया। दिल तो टूटना ही था ,टूटा और जिगर शराब पी कर ग़म गलत करते हुए शायरी करने लगे। ये किस्सा फिर से दोहराया गया सुना है मैनपुरी की गायिका 'शीरज़न' जिस तेजी से उनपे फ़िदा हुईं उतनी ही तेजी से रुखसत भी हो गयीं। यहाँ ये भी बता दें कि मशहूर ग़ज़ल गायिका अख़्तरी बाई फैज़ाबादी उर्फ़ बेग़म अख़्तर ने भी उन्हें शादी का पैगाम भेजा था जिसे जिगर साहब ने न जाने क्या सोच के ठुकरा दिया। बेग़म अख़्तर साहिबा ने जिगर की बहुत सी ग़ज़लों को बहुत दिलक़श अंदाज़ में अपनी खनकती आवाज़ में गाया है। अगर हम अली सरदार ज़ाफ़री साहब की उन पर बनी डाक्यूमेंट्री पे यकीन करें तो इस तरह के किस्सों के लगातार चलते रहने की वज़ह से उनकी बीवी उन्हें छोड़ अपनी बहन के पास गौंडा चली गयी। गौंडा निवासी शायर जनाब 'असगर गौंडवी' जिगर के जिगरी दोस्त थे उन्हीं की बीवी जिगर साहब की बीवी की बड़ी बहन थी। 'असगर' साहब की सोहबत से जिगर की शायरी हुस्न-ओ-इश्क की गिरफ़्त से निकल कर गमें-दौरां की नुमाइंदगी करने लगी। जिगर की असली पहचान इसी बदलती शायरी की वजह से है।

 कभी हुस्न की तबियत ना बदल सका ज़माना
 वही नाज़े बेनियाज़ी वही शाने ख़ुसरुवाना
 ख़ुसरुवाना=शाहाना 

 मेरी ज़िन्दगी तो गुज़री तेरे हिज़्र के सहारे 
 मेरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना 

 मैं वो साफ़ ही न कह दूँ है जो फ़र्क मुझ में तुझमें 
 तेरा दर्द दर्दे तन्हा मेरा ग़म ग़मे ज़माना 

 जिगर बेतहाशा शराब पीते थे ये तो आपको बता ही चुके हैं ,मुशायरों में लोग लड़खड़ाते हुए जिगर साहब को बड़ी मुश्किल से पकड़ कर माइक के सामने लाते थे ,माइक के सामने आते ही उनकी लड़खड़ाहट बेहतरीन तरुन्नम की ओट में दब जाती और वो मुशायरा लूट कर ही उठते। जिगर के दौर में ही बहुत से शायरों ने जिगर के लिबास हुलिए और तरन्नुम की नक़ल करके नाम कमाने की कोशिश की लेकिन जिगर जैसा बनना आसान नहीं था। लोग समझते हैं कि जिगर शराब पी कर ही ग़ज़लें कहते हैं जबकि हकीकत जिगर साहब ने कुछ यूँ बयाँ की है : " ये ख्याल कि जब मैं शराब पीता था तो बहुत अच्छे शेर कहता था ग़लत है, एक साथ दो महबूब नहीं हो सकते जो इंसान शराब में कभी पानी मिलाने का रवादार न हो वो भला अपने ऊपर शेर मुसल्लत कर सकता है ?एक बात ये भी है कि मैं शेर उस वक्त कहता था जब शराब छोड़ देता था। दो-दो तीन-तीन- महीने से एक बूँद नहीं पीता था और उसी ज़माने में ग़ज़ल कहता था। शराब पी कर सिर्फ दो या तीन ग़ज़लें कहीं हैं " मेरा ख्याल है कि उन सभी शायरों को जो सोचते हैं कि शायरी और शराब का रिश्ता अटूट है जिगर साहब की इस बात को ज़ेहन में रखना चाहिए।

 एक लफ्ज़ मुहब्बत का अदना ये फ़साना है 
 सिमटे तो दिले आशिक़, फैले तो ज़माना है 

 ये इश्क नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे 
 इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

 आँसू तो बहुत से हैं आँखों में जिगर ,लेकिन 
 बिंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है 

 फिर हुआ यूँ कि एक दिन जिगर साहब ने शराब से तौबा कर ली और मरते दम तक उसे छुआ तक नहीं। ये करिश्मा कैसे हुआ ये तो पता नहीं शायद उनके अज़ीज़ दोस्त असगर साहब के इसरार के कारण या फिर बीवी के दुबारा घर लौट आने के कारण ,कारण कुछ हो, नतीजा सही रहा। बेतरतीब जिगर अब सलीके से रहने लगे.उन्होंने ग़ज़ल को एक नई ज़िन्दगी बक्शी। उनकी ग़ज़लें मदहोशी और रंगीनी के छलकते हुए सागर हैं उनमें किस्म-किस्म के ज़ज़्बात जलवागर हैं जिनका मुताअला ज़िन्दगी के नशे को गहरा कर देता है ,कायनात के हुस्न में इज़ाफ़ा हो जाता है और ज़िन्दगी एक नए रूप में नज़र आने लगती है। उनके कलाम के सैंकड़ों अशआर ऐसेहैं जिनमें ज़िन्दगी और वक्त के धड़कनों की आवाज़ें सुनाई देती हैं। आने वाली नस्लें और तारीख़ जिगर को भुला नहीं सकती। जिगर पर लिखने बैठे तो लिखते ही चले जाएँ लेकिन बात ख़तम न हो लेकिन हम ऐसा कर नहीं सकते मजबूरी है इसलिए। सं 1958 में उन्हें उनकी किताब "आतिशे गुल " पर साहित्य अकादमी का पुरूस्कार दिया गया। उसके 2 साल बाद उर्दू जगत का ये चमकता हुआ सितारा 9 सितम्बर 1960 को अस्त हो गया।

 पाँव उठ सकते नहीं मंज़िले-जाना के ख़िलाफ़ 
 और अगर होश की पूछो तो मुझे होश नहीं 

 कभी उन मद भरी आँखों से पिया था एक जाम 
 आज तक होश नहीं होश नहीं होश नहीं 

 अपने ही हुस्न का दीवाना बना फिरता हूँ 
 मेरी आगोश को अब हसरते आगोश नहीं

 जिगर साहब ने खुद तो फिल्मों के लिए गाने नहीं लिखे लेकिन उनकी ग़ज़लों से मुत्तासिर हो कर बहुत से नामी गीतकारों ने गीत लिखे जैसे 'अजी रूठ कर अब कहाँ जाइएगा' ,'निगाहें मिलाने को जी चाहता है ', उनके ख्याल आये तो आते चले गए ---वगैरह। अब बात करते हैं किताब की तो जैसा मैंने शुरू में ही बता दिया था कि इस लाजवाब किताब को 'किताबघर प्रकाशन अंसारी रोड दरियागंज दिल्ली ने प्रकाशित किया है। आप उनसे 011-23266207 या 23255450 पर फोन करके पूछ सकते हैं। ख़ुशी की बात ये है कि ये किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है इसलिए आप इसे आसानी से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये रहा लिंक : https://www.amazon.in/Mera-Paigaam-Muhabbat-Jahan-Pahunche/dp/8170168058 इस किताब में जिगर साहब की 200 ग़ज़लें संग्रहित हैं जो बार बार पढ़ने लायक हैं। सोचिये मत तुरंत आर्डर करिये और शायरी के इस दिलकश समंदर में गोते लगाइये। आखिर में पेश हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

 दिल को सुकून रूह को आराम आ गया 
 मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया 

 दीवानगी हो, अक्ल हो, उम्मीद हो कि यास 
 अपना वही है वक्त पे जो काम आ गया 
 यास =निराशा 

 ये क्या मक़ामे इश्क है ज़ालिम कि इन दिनों 
 अक्सर तेरे बग़ैर भी आराम आ गया