Monday, July 26, 2010

किताबों की दुनिया - 34

चलो ऐसा करें इस बार अब ऐसा नहीं करते
किसी भी बात पर दिन-रात यूँ सोचा नहीं करते

ये बादल क्यूँ नहीं बरसे, वो सूरज क्यूँ नहीं निकला
बड़ों के बीच में बेसाख्ता बोला नहीं करते

ये कर देंगे, वो कर देंगे कि हर सूरत बदल देंगे
इरादा अब भी रखते हैं मगर दावा नहीं करते

अगर आप किताबों की दुनिया के नियमित पाठक हैं तो जिस शायर का जिक्र मैं आज करने जा रहा हूँ उसके नाम से जरूर परिचित होंगे. डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित जिन किताबों का जिक्र इस श्रृंखला में मैंने किया है उन में से अधिकांश में इनका नाम है. इन्होने ने देश विदेश के प्रसिद्द शायरों के कलाम को देवनागरी में संकलित कर हम शायरी के दीवानों के लिए अनोखा काम किया है. आप ठीक समझे ये हैं जनाब " सुरेश कुमार " जिन्होंने शाहिदा हसन, मंजूर हाश्मी, डा.शाहिद मीर, परवीन शाकिर, नासिर काज़मी आदि के कलाम आप तक पहुंचाए हैं. सुरेश जी खुद भी बहुत उम्दा शायर हैं उनकी इस बेमिसाल शायरी से रूबरू करवाती है उनकी किताब " उदासियों से घिरा चाँद "



मुझको तनहाई भी अब इस तरह परखती है
मोम का जिस्म लिए धूप में निकलती है

तब उमीदों के धुंधलके ही काम आते हैं
ज़िन्दगी दुःख के अंधेरों से जब गुज़रती है

दिन में रहती है उदासी अलग-अलग मुझसे
शाम होते ही अंधेरों-सी टूट पड़ती है

सुरेश जी की अधिकाँश ग़ज़लें बाकि शायरों की तरह इश्क परस्त हैं इसलिए उनमें आपको यादें, रातें, नींद, ख्वाब, तनहाई, अँधेरा, उदासी, फूल तितलियाँ तो मिलेंगी ही साथ ही ज़माने के जुल्मो सितम की दास्ताँ भी मिलेगी. जो बात आपको सुरेश जी का दीवाना बना देगी है वो है उनके कहन की सादगी और रवानी:

जब भी फूलों के पास होती हैं
तितलियाँ, तितलियाँ नहीं होतीं

चाँद-सूरज भी कब भले लगते
उनसे गर दूरियां नहीं होतीं

कुछ न कहना है कुछ न सुनना है
प्यार में बोलियाँ नहीं होतीं


सुरेश जी की ग़ज़लें चौंकाती नहीं है बल्कि हमारे आसपास की गतिविधियों पर नज़र रखती हुई चलती हैं. कहीं हमारी कमजोरियों के अँधेरे पथ को आशा का दीपक जला आलोकित करती हैं तो कहीं डूबती भरोसे की नाव को फिर से सहारा दे कर पार लगाती हैं. इन ग़ज़लों में भले ही उर्दू की ग़ज़लों सा सौन्दर्य नज़र ना आये लेकिन ये अपनी बात आप तक पहुँचाने में शक्षम हैं.

पुकारें उसको, सांकल खटखटायें
कि दरवाज़े को छू कर लौट आयें

ग़मों का एक गुब्बारा बनायें
उसे फिर आसमानों में उड़ायें

उसे जब चाहे मुठ्ठी में दबा लें
मगर क्यूँ मान सूरज का घटायें

परिंदे अब तलक सोये हुए हैं
चलो उस पेड़ की शाखें हिलाएं


दिलचस्प बात ये है कि इस किताब में जहाँ सुरेश जी की एक सौ दस ग़ज़लें हैं वहीँ उनके कुछ चुनिन्दा गीत, हाइकु और त्रिवेनियाँ भी हैं. कविताओं में विशेष रूप से 'दादी की आँखें, एक ऐसी विलक्षण कविता है जो पत्थर दिल इंसान की आँखें भी भिगो दे. कविता थोड़ी लम्बी है इसलिए उसे इस पोस्ट में पढवाना संभव नहीं है लेकिन मेरी गुज़ारिश है के उस कविता को हर संवेदनशील व्यक्ति को जरूर पढना चाहिए. चलिए कविता न सही आपको उनकी एक आध त्रिवेणी और हाइकु पढवा देता हूँ:
हाइकु

घटा हो जाएँ
सूनी सूनी आँखों में
आओ छा जाएँ
***
मेघों के आंसू
नीचे यादों की नदी
पानी में पानी
***

त्रिवेनियाँ

लोग होते रहे इधर से उधर
मैं तो फिर भी बहुत संभल के रहा
कौन सी चीज़ थी ठिकाने पर
***
दरख़्त क्या हैं किसी को पता नहीं कुछ भी
हमारे दौर को किस नाम से पुकारोगे
सिवाय ज़ख्मों के जिसमें हरा नहीं कुछ भी

इस किताब को आप डायमंड बुक्स ने प्रकाशित किया है जिसे आप सीधे उनसे 011-51611861 नंबर पर फोन करके या फिर उनकी वेब साईट www.diamondpublication.com पर लोग इन करके मंगवा सकते हैं. वैसे डायमंड बुक्स लगभग सभी पुस्तक विक्रेताओं के यहाँ उपलब्ध होती हैं. मिलते है एक नयी किताब के साथ एक पखवाड़े के बाद.

Monday, July 19, 2010

कोयले की आंच पे रोटी




तन्‍हाई की रातों में न तुम याद यूं आओ
हारूंगा मुझे मुझसे ही देखो न लडाओ

तुम राख करो नफरतें जो दिल में बसी हैं
इस आग से बस्ती के घरों को न जलाओ

बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ

किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ

ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ

बचपन की तुम्‍हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ

पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ

Monday, July 12, 2010

किताबों की दुनिया - 33

आज की किताब के बारे में बात करने के पीछे दो कारण हैं पहला तो ये के इस किताब की शायरा उस मशहूर शायरा की कज़िन हैं जो बहुत मकबूल हुईं और जिनका जिक्र हम पहले अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में कर चुके हैं और दूसरा ये के अब देश में बारिशों का दौर शुरू हो चुका है और इस किताब के शीर्षक का ताल्लुक भी बारिश से है.

हम आपको शायरी की किताब के बारे में बताने आये हैं न के पहेलियों में उलझाने के लिए, इसलिए आप का अधिक वक्त न लेते हुए बता देते हैं के आज जिस शायरा का जिक्र हम कर रहे हैं उनका नाम है " शाहिदा हसन" जिनका वतन पाकिस्तान है लेकिन जिनकी शायरी दुनिया भर में हर शायरी के दीवाने के दिल में बसी हुई है. इनकी कज़िन परवीन शाकिर थीं जो इनसे सिर्फ दो या तीन साल ही बड़ी थीं. दोनों ने एक की कालेज में तालीम हासिल की और दोनों ने ही अंग्रेजी भाषा में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. आज हम शाहीदा जी किताब " शाम की बारिशें" का जिक्र करेंगे.


शाहिदा जी परवीन जी की बहन जरूर हैं लेकिन दोनों की शायरी में बहुत फर्क है दोनों की शायरी के रंग और खुशबू जुदा हैं. हमारा इरादा इन दोनों की शायरी के भेद को खंगालना नहीं है बल्कि सिर्फ और सिर्फ शाहिदा जी और उनकी इस किताब के बारे में बात करना ही है.

दिल इतना बोझिल होता है
बैठे - बैठे ढह जाती हूँ

चढ़ती हैं जब शाम की लहरें
रेत की सूरत बह जाती हूँ

तेरे आंसू कैसे झेलूं !
अपने दुःख तो सह जाती हूँ

शाहिदा जी की शायरी का अन्तः स्वर प्रेम है. उनका माना है के ज़िन्दगी के सुख या दुःख इस एक शब्द के होने न होने से जुड़े हैं. प्रेम के इर्द गिर्द रची बसी होने के कारण उनकी शायरी बहुत पसंद की गयी और आसानी से सुनने पढने वाले उनके प्रशंशकों की ज़बान पर चढ़ गयी.

ख़ुशी के अश्क हो जाने का डर है
ख़ुशी में ग़म समो जाने का डर है

हुई है याद के सहरा में बारिश
दिलों में रंज बो जाने का डर है

इसी मिटटी में खिलना चाहती हूँ
इसी मिटटी में सो जाने का डर है

किसी को खो के मिलना देखती क्या
किसी के मिलके खो जाने का डर है

स्त्री होने के नाते उनकी शायरी में स्त्रियों की व्यथा का चित्रण भी देखने को मिलता है. जिस तन लागे वो तन जाने वाली बात आप शाहिदा जी की शायरी में स्पष्ट देख सकते हैं क्यूँ की स्त्रियों की व्यथा का सही चित्रण शायरों के बस की बात नहीं है. उसके लिए स्त्री होना जरूरी है तभी वो ऐसे दिलकश शेर कह पाती हैं :

किसी घर से मुझको उठाया गया
किसी घर में लाकर बिठा दी गयी

जहाँ जी में आया है रक्खा मुझे
जहाँ से भी चाहा हटा दी गयी

बहलने की ख़्वाहिश अगर दिल ने की
मैं झूले में रख कर झुला दी गयी

इसी अलग से अंदाज़ की उनकी एक और बेजोड़ ग़ज़ल के चंद शेर देखें और महसूस करें के शाहिदा जी किस ख़ूबसूरती और सादगी से अपनी बात हम आप तक बेरोकटोक पहुंचाती हैं. कहन का ये हुनर ही अच्छे और बहुत अच्छे फनकार में फर्क महसूस करवा देता है.

सलामत रहे दिल तो जिंदा रहूँ
बदन सिर्फ जिंदा नहीं चाहिए

जिन्हें दूर तक साथ देना न हो
उन्हें साथ चलना नहीं चाहिए

बहुत टूट कर याद आते हैं लोग
कभी खुद से मिलना नहीं चाहिए

शायरी का सबसे बड़ा हुनर होता है कम लफ़्ज़ों में बात कहना और वो भी इसतरह के पढने सुनने वाले के सीधे दिल पर असर करे. छोटी बहर में जैसा मैं पहले भी कहता आया हूँ शेर कहना तलवार की धार पर चलने जैसा मुश्किल काम होता है. एक छोटा सा भरती का लफ्ज़ सारे शेर यहाँ तक के ग़ज़ल का मज़ा भी किरकिरा कर सकता है इसलिए छोटी बहर में लफ्ज़ बहुत एतियाद से चुनने पड़ते हैं और उन्हें सही जगह पर पिरोना भी पड़ता है तभी ग़ज़ल या शेर असरदार हो सकता है. मेरी बात पर यकीन दिलाने को प्रस्तुत हैं शाहिदा जी की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद शेर:

मेरे पहलू में खोला
तेरी यादों ने बिस्तर

दुःख की तितली बैठी है
रातों की फुलवारी पर

नींद की ख्वाइश से पहले
पलकें हो जाती हैं तर

कितने अच्छे लगते हैं
दिल को मीठे-मीठे डर

लिक्खे इक-इक सांस तुझे
महका जाए सारा घर

अपनी लाजवाब शायरी की बदौलत शाहिदा जी ने बहुत से राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार एवं सम्मान जीते हैं जिनमें नयी दिल्ली में दिया गया फनी बदायुनी अवार्ड और निशाने एजाज़ अवार्ड जो उन्हें कोलंबस अमेरिका में दिया गया प्रमुख हैं. शाहिदा जी को ह्यूस्टन टेक्सास के मेयर द्वारा वहां की मानद नागरिकता भी प्रदान की गयी है.
अपनी शायरी का परचम उन्होंने डेनमार्क , नोर्वे, अमेरिका, कनाडा, चीन, मिडल ईस्ट, सिंगापूर, इरान, भारत और नेपाल आदि देशों में सफलता पूर्वक फहराया है.

उजला-उजला रखती हूँ हर चीज़ को मैं फिर भी
अक्सर मिटटी में ये सारा घर अट जाता है


यादों की आंधी का क्या है जब भी आती है
इतने पत्ते झड़ते हैं रस्ता पट जाता है


अपने दादा पर ही गया है मेरा बेटा भी
पहले सच कहता है फिर उस पर डट जाता है

"डायमंड बुक्स" द्वारा प्रकाशित इस किताब में शाहिदा जी की एक सौ बीस ग़ज़लें दर्ज की गयीं हैं जो उनके "एक तारा है सिरहाने मेरे" और " यहाँ कुछ फूल रक्खें हैं" ग़ज़ल संग्रह में से ली गयीं हैं. श्री सुरेश कुमार द्वारा संकलित और देवनागरी लिपि में पहली बार प्रकाशित ये पुस्तक यूँ तो हर बड़े शहर के बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट पर मिल सकती है लेकिन फिर भी इसे प्राप्त करने के लिए आप 011-41611861 नंबर पर फोन कर सकते हैं या उनकी वेब साईट www.dpb.in से आवश्यक सूचना प्राप्त कर सकते हैं.

आयी हूँ किसलिए मैं यहाँ ये नहीं सवाल
जाना है किस तरफ़ को मुझे ये सवाल है

पहले तुझे नसीब थी अब खुद को हूँ नसीब
मेरा हुनर था वो, तो ये तेरा कमाल है

ये तो आप भी मानेगे के इस किताब में दिए लगभग छै- सात सौ शेरों में महज़ 18-20 शेर छांटना कितना मुश्किल काम है , इस के चलते कुछ बेहतरीन शेर ना चाहते हुए भी छूट जाते हैं,क्या करूँ ? ये मेरी मजबूरी है लेकिन शायद इसका एक फायदा भी है वो ये के हो सकता है मेरे यहाँ दिए शेरों से अतृप्त हुआ कोई प्यासा अपनी प्यास बुझाने और तृप्त होने के लिए इस किताब को खरीदने की योजना बना ले और खरीद भी ले. ये ही तो इस श्रृंखला उद्धेश्य है.

तो अब आखिर में चलते चलते एक अलग से काफिये रदीफ़ वाली ग़ज़ल के चंद शेर पढवाता हूँ उम्मीद हैं पसंद आयेंगे.

जो कुछ पहचानना मुमकिन नहीं हो
भला क्या फायदा देखें न देखें

जो सारे झूट ही सच लग रहे हैं
पड़ेगा फर्क क्या, बोलें न बोलें

यहाँ हैं एक से अहवाल* सबके (*अहवाल = समाचार)
किसी का हाल अब पूछें न पूछें




Monday, July 5, 2010

पूजा की थाली हो गई


बात सचमुच में निराली हो गईं
अब नसीहत यार गाली हो गई

ये असर हम पर हुआ इस दौर का
भावना दिल की मवाली हो गई

डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियां
वो समझ पूजा की थाली हो गई

तय किया चलना जुदा जब भीड़ से
हर नज़र देखा, सवाली हो गयी

कैद का इतना मज़ा मत लीजिये
रो पड़ेंगे, गर बहाली हो गयी

थी अमावस सी हमारी ज़िन्दगी
मिल गये तुम, तो दिवाली हो गयी

हाथ में क़ातिल के ‘‘नीरज’’ फूल है
बात अब घबराने वाली हो गई