घर जब धीरे-धीरे मरने लगते हैं
दीवारों पर अक्स उभरने लगते हैं
*
मिली है अहमियत सांपों को इतनी
सपेरा विष उगलना चाहता है
*
सिर्फ हंस कर नहीं दिखाओ मुझे
जी रहे हो यकीं दिलाओ मुझे
*
दरिया अपनी गहराई पर फक़्र न कर
मैं तेरी लहरों पर चलने वाला हूं
*
भले ही हाथ जला तेरी लौ बढ़ाते हुए
मगर चराग तू जंचता है जगमगाते हुए
*
मैं उसे पर इल्ज़ाम लगाऊंगा तो कैसे
उसके पास मेरा ही फेंका पत्थर होगा
*
मेरे अपनों ने ही गत ऐसी बनाई मेरी
नब्ज चलती है तो दुखती है कलाई मेरी
ये किताब मैं सामने खोले बैठा हूँ और दिमाग में पाकिस्तान के लाजवब शायर जनाब 'मुनीर नियाज़ी' साहब की नज़्म 'हमेशा देर कर देता हूँ मैं ' घूम रही है. 'मुनीर' साहब का सुनाने का अंदाज़ जानलेवा है , अगर आपने उन्हें सुनाते हुए नहीं देखा तो अभी इसी वक़्त इस लेख पढ़ना बंद करें और यू ट्यूब पर ढूंढ कर उन्हें सुनें, तब आपको समझ आएगा कि देर कर देने से बाद में कितनी पीड़ा होती है. मैंने भी देर की और मैं भी उसी पीड़ा को महसूस कर रहा हूँ। वक़्त के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है की न तो उसे रिवाइंड कर सकते हैं न फारवर्ड। जो बीत गया उसे याद करके या तो दुखी हो सकते हैं या ख़ुश। मैं दुखी हूँ. सच में।
17 फरवरी 2022 की बात है , व्हाट्सएप पर मेसेज आया 'प्रणाम सर जी, अपना पोस्टल एड्रेस भेज दें अपनी किताब भेजनी है।' थोड़ी देर बाद उनका फोन आ गया बोले 'सर जी आप भी हैरान होंगे क्यूंकि मैंने आपसे पोस्टल एड्रेस माँगा है जबकि मुझे याद होना चाहिए था, जब आपके घर के खाने का स्वाद याद है तो पोस्टल एड्रेस भी तो याद होना चाहिए था। वैसे मुझे अगर जयपुर में कहीं छोड़ देंगे तो आपके घर पहुँच जरूर जाऊंगा क्यूंकि वो मोती डूंगरी का गणेश मंदिर मुझे याद है जिसके पास आपका घर है लेकिन पोस्टल एड्रेस ध्यान में नहीं है ' मैंने हँसते हुए कहा कि ' भाई जी अभी तुरंत एड्रेस भेजता हूँ उस से पहले आप अपनी पहली किताब के प्रकाशन की बधाई स्वीकार करें, मैं दुआ करता हूँ की आपकी ऐसी ढेरों किताबें समय समय पर भविष्य में आती रहें।' थोड़ी देर के मौन के बाद वो बोले ' सर जी ढेरों की क्या बात करते हैं दूसरी आ जाये तो गनीमत समझें अब स्वास्थ्य साथ नहीं देता, आप इस पर लिखेंगे तो कृपा होगी।' मैंने झिझकते हुए कहा कि ' भाई आप तो देख ही रहे हैं मैंने पिछले चार सालों से लिखना बंद कर रखा है इसलिए लिखने की गारंटी नहीं देता, हाँ इसे पढूंगा जरूर'। वो बोले 'आप पढ़ेंगे ये ही बहुत है, आप इत्मीनान से पढ़िए फिर बताइये'।
आज जब इस किताब पर लिखने बठा हूँ तो दुःख हो रहा है, मुझे दो साल पहले ये काम करना चाहिए था। 'शेषधर तिवारी' जी की ग़ज़लों की किताब ' तितलियों के रंग' मेरे सामने है लेकिन उस पर मेरा लिखा पढ़ने को शेषधर जी अब हमारे बीच नहीं हैं. इसीलिए मुवोऔर 'मुनीर नियाज़ी' साहब की नज़्म 'हमेशा देर कर देता हूँ मैं' बहुत शिद्दत से याद आ रही है.
मैं तेरे लम्स की शिद्दत से कहीं जी न उठूं
मेरी तस्वीर को सीने से लगाने वाले
*
देखने का सही नजरिया रख
चांद छोटा बड़ा नहीं होता
*
उम्मीद हमसे आपकी बेजा नहीं मगर
जां है नहीं तो कोई कैसे जांनिसार हो
*
आईने की साफ़गोई देख कर
हम हुए राज़ी संवरने के लिए
*
मेरे आंगन में धूप आती है ऐसे
कि जैसे वो नवेली ब्याहता है
हवा फिरती है हर सू पागलों सी
कि जैसे उसका बेटा लापता है
*
तारीफ़ों के पुल के नीचे
मतलब का दरिया बहता है
'शेषधर' जी से मेरा राब्ता लगभग दस-बारह साल पहले हुआ। ये सोशल मिडिया के शुरुआत के दौर की बात है तब मैं और वो याने दोनों ग़ज़ल लेखन, उम्र के उस दौर में सीख रहे थे जब लोग लिखना पढ़ना छोड़ कर मंदिर मस्जिद की शरण में चले जाते हैं. हम दोनों को ही किस्मत से मार्गदर्शन के लिए मिले जनाब 'मयंक अवस्थी' और 'द्विजेन्द्र द्विज' साहब। बाद में मुझे श्री 'पंकज सुबीर, जी ने अपनी शरण में लिया और शेषधर जी 'आदिक भारती' जी से भी दिशा निर्देश प्राप्त करने लगे।
जैसा की आम तौर पर होता है रेस में एक साथ दौड़ते बहुत से बच्चे हैं लेकिन आगे दमखम वाले ही निकलते हैं। मुझे ये स्वीकार करने से कोई गुरेज़ नहीं है कि जहाँ मैं चंद कदम चल कर हाफने लगा वहीँ 'शेषधर' जी छलांगे लगाते हुए बहुत आगे निकल गए. मुझे अपनी सीमाएं पहले से पता लग गयीं इसलिए मैंने लेखन से अधिक रूचि पढ़ने में ली और ढेरों किताबें पढ़ी, उन पर लिखा और बरसों लिखा।
'शेषधर' जी ने लिखा ही नहीं बल्कि नए लिखने वालों को बहुत प्रोत्साहन भी दिया, उनकी मदद की. वो हमेशा दूसरों की मदद को आगे रहते और सबके लिए हमेशा उपलब्ध रहते। वो एक बेहद नेक और सच्चे शायर थे ,दुनिया दारी उन्हें न कभी आयी न उन्होंने खुद को बेचने का हुनर सीखा। सच कहूं तो आज सोशल मिडिया और मुशायरे के मंचों पर धूम मचा रहे शायर उनके सामने कहीं नहीं टिकते। उन्होंने 'सुख़नवर इंटरनेशनल' की स्थापना अपने कुछ हमख़याल मित्रों के साथ मिल कर की. इस के अंतर्गत वो देश के विभिन्न शहरों में मुशायरों का आयोजन करते थे और उस शहर तथा आसपास के युवा शायरों को श्रोताओं के सामने आने का मौका देते थे । आज जहाँ कोई किसी को आगे नहीं आने देता वहां बिना किसी स्वार्थ के दूसरों को आगे लेन जैसा काम करना बहुत बड़ी बात है. अगस्त 2019 में उन्होंने 'सुख़नवर इंटरनेशनल' का बारवां आयोजन जयपुर में किया था और उसके आयोजन की जिम्मेदारी मुझे सौंपी. उस वक्त वो एक गंभीर बीमारी से लगभग सोलह साल लड़ने के बाद थोड़ा ठीक हुए ही थे. वो तब अस्वस्थ नहीं थे लेकिन पूर्ण रूप से स्वस्थ भी नहीं थे।उस हाल में भी उनकी ऊर्जा युवाओं को मात करने वाली थी।
हमारी बज़्म में आ कर तो देखें
चरागों के तले भी रौशनी है
वो अक्सर इन मुशयरों में अपने कलाम का आगाज़ इस शेर से करते थे :
आप शायर हैं शायरी करिये
हम सुख़नवर हैं मश्क करते हैं
चरागों के तले भी रौशनी है
वो अक्सर इन मुशयरों में अपने कलाम का आगाज़ इस शेर से करते थे :
आप शायर हैं शायरी करिये
हम सुख़नवर हैं मश्क करते हैं
जानते हैं ख़ामियां हैं अपनी फ़ितरत में बहुत
लेकिन अब इस उम्र में तो हम सुधरने से रहे
*
तुम्हारी क़ैद में रहना मुझे आराम ही देगा
बशर्ते तुम करो मंज़ूर ख़ुद ज़ंजीर हो जाना
*
ये न हो जख़्म दिल का भर जाए
और तू जह्न से उतर जाए
*
जिसे जो रास आये, रास्ता कर ले इबादत का
अक़ीदत पर कभी छींटाकशी अच्छी नहीं लगती
*
जो शाख़े समरदार है दीवार के उस पार
वो मेरे मुक़द्दर में नहीं है तो नहीं है
*
अश्क आंखों में न हो और खुशी भी छलके
हार जाओगे, कभी शर्त लगा कर देखो
*
मेरे सीने पर रख कर पांव बढ़ जा
तेरी मंज़िल नहीं मैं रास्ता हूं
'शेषधर' जी का जन्म 16 जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के छोटे से गाँव उदयकरनपुर में हुआ. उनके पिता जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यपक थे और पढ़ने में विशेष रूचि रखते थे।वो शेषधर जी को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करते. उनकी प्रेरणा से 'शेषधर' जी में बचपन से ही पढ़ने लिखने की रूचि जागृत हो गयी. छोटी उम्र से ही वो कविता लिखने लगे। उनके लेखन का स्तर देख उनके पिता बनारस से छपने वाले हिंदी अखबार 'आज' को उनकी रचनाएँ भेजते जिस में वो छपती। अखबार में छपी रचना को देख शेषधर जी और उनके पिता गौरवान्वित महसूस करते। हाई स्कूल के बाद उन्होंने गणित विषय में बी.एस सी पास की और इसी दौरान कालेज की लाइब्रेरी में पड़ी डाक्टर कुंअर बैचैन और गोपाल दास 'नीरज' जी की लिखी लगभग सभी किताबें पढ़ डालीं। इन दोनों की कविताओं से प्रभावित होकर लिखी उनकी कविताएँ तब की शीर्ष मैगजीन ' धर्मयुग' में छपने लगीं। 'धर्मयुग' से मिले पच्चीस रुपये के चेक उन्हें अनमोल लगते.
बी.एस सी. के बाद उन्होंने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया और 1977 में बीटेक (यांत्रिकी) की डिग्री हासिल की। इंजिनीयरिंग की कठिन पढाई और उसके बाद स्टील अथॉरटी आफ इंडिया की नौकरी के चलते उनसे लिखने लिखाने का सिलसिला छूट गया। नौकरी की बंदिशें उन्हें आयीं लिहाज़ा मात्र चार साल के बाद स्टील अथॉरटी ऑफ इंडिया जैसी शानदार सरकारी नौकरी छोड़ वो प्रयागराज में खुद का व्यवसाय करने लगे। इससे उनकी झुझारू और अपने उसूलों के साथ समझौते न करने की प्रवृति का पता चलता है। लगभग चालीस वर्षों तक वो सफलतापूर्वक अपने व्यवसाय को चलाते रहे।
सन 2011 से एक गंभीर बीमारी ने शेषधर जी को अपने गिरफ्त में ले लिया जिसके चलते उनके परिवार जन ने उन्हें अपना व्यवसाय बंद करने का आग्रह किया। उसके बाद शेषधर जी ने अपना पूरा समय साहित्य को समर्पित कर दिया। सन 2019 के बाद वो फिर गंभीर रूप से बीमार पड़े और बिस्तर पकड़ लिया। प्रयागराज जहाँ वो बरसों रहे छोड़ कर उन्होंने अपने स्थाई निवास उदयकरनपुर जाने का निर्णय लिया लेकिन उसे क्रियान्वित 18 जून 2023 को ही कर पाए। उनके जीवन का निर्णय आखिर बहुत भरी पड़ा। अपने ही पैतृक घर में अपनों की उपेक्षा, तिरस्कार और लगतार किये गए अमानवीय व्यवहार से वो टूट गए और 29 सितम्बर 2024 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 18 जून 2023 से लेकर 25 अगस्त 2024 तक के अपने उदयकरनपुर गाँव के पैतृक घर में बिताये समय और वहां उन पर हुए अत्याचार को शेषधर जी ने फेसबुक पर डाली अपनी अंतिम पोस्ट में विस्तार से बयाँ किया है। इसे पढ़कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति खून के आंसू रो देगा। एक अच्छे और सच्चे इंसान के साथ उसके अपने और समाज कितना दुर्व्यवहार कर सकते हैं इसकी कल्पना बिना उस पोस्ट को पढ़े नहीं की जा सकती। उस पोस्ट का लिंक ये है अगर आप भी पढ़ना चाहें तो क्लिक करें.
हद हो गई जब आज मेरे इंतज़ार की
बाहर निकल के मैंने ही दर खटखटा लिए
*
कौड़ियों के भाव तो बिकना नहीं है
इसलिए नीलाम होना चाहता हूं
*
तैरती लाशों को जब देखा तो आया ये ख़्याल
ज़िंदगी भर जिस्म को बस बोझ सांसों का मिला
*
तितलियों के रंग से ख़ाइफ़ हैं बच्चे आजकल
मज़हबी तालीम का उन पर असर तो देखिए
ख़ाइफ़: भयभीत
*
ख़बर लेता है वो औरों से मेरी
बुरा तो है मगर उतना नहीं है
'शेषधर' जी की ग़ज़लों पर श्री द्विजेन्द्र द्विज जी ने लिखा है कि ' उनके शेर ज़िन्दगी के किसी भी शोबे में अपूर्णता से काम लेने वालों पर बेहद करारा तंज़ हैं। विभिन्न प्रचलित बहरों में कहने के नयेपन व् अलग अलग दृष्टिकोण के साथ ग़ज़लें कहने वाले इस शायर के पास बड़ी से बड़ी बात को आसान से आसान और आमफहम शब्दों में कहने की आसानी है।'
प्रसिद्ध ग़ज़लकार 'विजय स्वर्णकार' जी ने इस किताब में लिखा है कि ' ग़ज़ल के तमाम पहलुओं को पूरा सम्मान देते हुए उसके रंग-रूप को और निखारना और इस खूबी से निखारना कि वो वर्तमान परिदृश्य में सभी सुधि जनों का धयान आकर्षित कर सके ये इस ग़ज़ल संग्रह में शेषधर जी ने कर दिखाया है। बेजोड़ शिल्प इन ग़ज़लों की विशिष्टता है। पंक्तियों में शब्द संयोजन की दुर्लभ कलाकारी है और जहां एक ओर संवेदनाओं का लबालब सागर है तो दूसरी ओर तार्किकता की ठोस जमीन भी है। '
शेषधर जी को ग़ज़ल के शिल्प की जानकारी देने वाले और मार्गदर्शन करने वाले हम दोनों के ही प्रारंभिक गुरु प्रिय 'मयंक अवस्थी' जी ने लिखा है कि ' शेषधर जी ने ऐसे मिसरे और और ऐसे ऐसे शेर कहे जिनको सुनकर कोई विश्वास ही नहीं करेगा इस व्यक्ति ने ग़ज़ल उस आयु में सीखना आरम्भ किया जब लोगों के अवकाश प्राप्ति की उम्र होती है। उनकी ग़ज़लों की भाषा में एक परिष्कृत और परिमार्जित शिष्ट और भद्र व्यक्ति हमेशा ही संवाद में उपस्थित है। '
सोनीपत निवासी देश के प्रसिद्ध शायर जनाब ''आदिक भारती' जो 'शेषधर' जी की ग़ज़ल यात्रा के हमेशा मार्गदर्शक बने रहे, लिखते हैं कि ' सटीक और सार्थक शायरी का दूसरा नाम तिवारी जी हैं। लफ़्ज़ों का तालमेल मिसरों में रवानी और मज़मून की बेसाख़्तगी पुख़्तगी और बेबाकी जो उनके अशआर में नज़र आती है वो बहुत कम देखने को मिलती है।'