Monday, December 27, 2021

किताबों की दुनिया - 247

ये मैं हूंँ और ये मैं हूंँ ये एक मैं ही हूंँ 
मगर ख़लीज सी इक दरमियान देखता हूंँ 
ख़लीज: अंतर खाड़ी

कहांँ-कहाँ नई ता'मीर की ज़रूरत है 
सो तेरी आंँखों से अपना जहान देखता हूंँ 
ता'मीर :निर्माण 

मेरा चराग़-ए-बदन नूर-बार होता है 
तेरी हवा को अ'जब मेहरबान देखता हूंँ 
नूर-बार: रोशनी बरसाने वाला 

ये मैं यक़ीन की किस इंतहा पे आ पहुंँचा
कि अपने चारों तरफ़ बस गुमान देखता हूंँ
*
ये आस्ताना-ए-हसरत है हम भी जानते हैं 
दिया जला दिया है और सलाम कर लिया है 
आस्ताना-ए-हसरत :कामना की चौखट
*
जूते चटख़ाते हुए फिरते थे सड़कों गलियों 
हमने कब शहर-ए-मोहब्बत में मशक़्क़त की थी 

आयतें अब मिरी आंँखों को पढ़ा करती हैं 
मैंने बरसों किसी चेहरे की तिलावत की थी 
तिलावत: पढ़ना
*
था ही क्या अपना जिसे अपना बनाए रखते 
जान सी चीज़ थी वो भी तो तुम्हारी निकली
*
बदन की प्यासी सदाओं ने ख़ुदकुशी कर ली 
मैं जी रहा हूंँ किसी याद की रिफ़ाक़त में 
रिफ़ाक़त :दोस्ती, साथ 

ख़ुदा, नमाज़ें ,दुआएँ, ये चिल्ले नज़्र-ओ-नियाज़ 
मैं ए'तिबार गँवाता रहा मोहब्बत में 
नज़्र-ओ-नियाज़ :चढ़ावा

मैं जयपुर शहर में रहता हूं जयपुर अपनी बहुत सी दूसरी विशेषताओं के अलावा विशालकाय किलों के लिए भी प्रसिद्ध है । ये किले जयपुर और उसके आप पास की पहाड़ियों पर बने हैं, शहर के बीचो-बीच सिटी पैलेस बना हुआ है । बचपन में मेरे पिता मुझे उंगली पकड़कर इन महलों में घुमाने ले जाते थे और मैं उनकी विशाल दीवारें, बड़े बड़े दालान, ढेरों कमरे, नक्काशी दार खंबो पे टिकी बारहदरी, संगमरमर के फर्श, मूर्तियां, फव्वारे, बेशुमार झरोखे, महराबें, गुंबद वगैरह देख हैरान हो जाता। थोड़ी ही देर के बाद मैं वहाँ से बाहर निकलने को छटपटाने लगता क्योंकि वहाँ की हर चीज मुझे लार्जर दैन लाइफ लगती लेकिन मैं वहाँ लाइफ मिस करता। कोई महल कितना भी बड़ा या खूबसूरत हो आप उसमें बहुत देर तक रह नहीं सकते जबकि एक या दो कमरे के किसी भी घर में रहने से जी नहीं भरता। महल को देखने वालों की कतार लगती है जबकि घर का दरवाजा हर किसी के लिए नहीं खुलता और अगर किसी के लिए खुलता है तो पूरे मन से खुलता है। महल पर हमेशा किसी बाहरी हमलावर का डर रहता है इसलिए उसकी हिफाज़त के लिए पूरी फ़ौज़ रखनी पड़ती है। घर को ऐसा कोई डर नहीं होता, इसीलिए घर में सुकून महसूस होता है ।

कुछ लोग महल की तरह होते हैं दिखने में लार्जर दैन लाइफ लेकिन भीतर से खोखले और ठंडे। हमेशा डरे डरे, हर किसी से आशंकित, चौकन्ने, सावधान, रूखे ,अधिकतर लोगों से दूरी बनाये हुए। अपनी छवि को बनाये रखने की ख़ातिर किसी भी हद तक गिरने को आमादा। चमचों की एक बड़ी सी फ़ौज़ हमेशा उनको अपने इर्द-गिर्द चाहिए जो उन्हें बड़े और महान होने का हमेशा अहसास दिलाती रहे। कुछ लोग घर की तरह होते हैं सरल, सहज, जिंदादिल, मोहब्बत और अपनेपन से लबरेज़ ,हर किसी को गले लगाने को तैयार, निडर। हमारे आज के शायर दूसरी श्रेणी के हैं। किसी भी आम घर की तरह।

जब मैंने आज के शायर से पूछा कि आप अपनी ज़िन्दगी का कोई ऐसा अहम वाक़या बताएं जिसने आपके जीने का ढंग बदल दिया हो तो उन्होंने जो जवाब दिया वो कुछ यूँ था ' ज़िन्दगी का हर लम्हा आपको तब्दील करता रहता है, हर लम्हा जो है आपको सिखाता रहता है, एक दार्शनिक ने कहा भी था कि आप एक दरिया में दुबारा क़दम नहीं रख सकते , दरिया भी तब्दील हो जाता है आप भी तब्दील हो जाते हैं। तब्दीली का जो एक मुसलसल प्रोसेस है वो जारी रहता है ये होता है कि फौरी तौर पर आप उसे महसूस नहीं कर पाते कि इस लम्हे में आप कितना तब्दील हुए किस हद तक तब्दील हुए इसलिए कि ठहराव जैसी कोई चीज तो होती नहीं है। ठहराव भी जो होता है एक मुसलसल रवानी होता है। हम एक खास तरह की सिचुएशन में रहते हैं और ये जो सिचुएशन भी बहुत ही पैराडाक्सिकल (विरोधाभासी ) किस्म की होती है। छोटा छोटा वाक़या भी आपके ऊपर कैसा गहरा असर डाल देता है बाज़-औकात आपको पता ही नहीं चलता आप सीखते हैं आपके जीने का ढंग बदलता है आपके सोचने समझने का अंदाज़ बदलता है। हाँ ये जरूर होता है कि कोई अचानक एक वाकया हो जाता है जो आपको बदल देता है आप उस बदलाव को महसूस करने लगते हैं। जैसे आपका कोई बहुत अज़ीज़ जिससे आपको बेपनाह मुहब्बत हो अचानक आप को हमेशा के लिए तन्हा छोड़ कर चल दे तो उसकी कमी आपको बहुत डिस्टर्ब कर देगी। ज़िन्दगी के म'आनी वो बिलकुल तब्दील हो जाते हैं। हमारे अंदर जो एक ज़िंदा रहने की जो ख्वाइश है वो कैसे कैसे शक्लें बदलती है कौन कौन से रंगों में आती है कौन कौन से पैकर में आती है ,सोचने लग जाता हूँ। इन बातों से मैं परेशान भी होता हूँ कोशिश करता हूँ इन्हें अपनी शायरी में ढालूँ , पता नहीं मैं इसमें कितना कामयाब हो पाता हूँ।

लगता यही है नूर के रथ पर सवार हूँ 
आंखों ने तेरी मुझको वो रसते सुझाए हैं
*
जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है तन्हाई के चूल्हे पर 
अफ़्सुर्दा है जान-ओ-दिल का तुम बिन घर संसार बहुत
अफ़्सुर्दा: दुखी
*
तेरे जमाल के जौहर को ताब देता था 
मेरा नशेब तुझे आबशार करता हुआ 
नशेब : ढलान,  आबशार: झरना
*
अ'जीब भेद है खुलकर भी कुछ नहीं खुलता 
सो आस्माँ को तेरा इस्तिआ'रा करता हूं
गस्तिआरा: रूपक
*
याद दिल में भँवर सा बनाती रही
दर्द सहरा था आंखों में जलता रहा
*
जमने देता ही नहीं मुझको सुकूत-ए-शब में 
बहता रहता है तेरी याद का झरना साईं 
सुकूत ए शब:  रात की स्तब्धता
*
 हांँ मुझे है फ़राग़ जख़्मों से 
हांँ मुझे आपकी जरूरत है
फ़राग़: छुटकारा
*
नोच रही है रूह के रेशे रेशे को 
एक ख्वाहिश थी रफ़्ता रफ़्ता चील हुई
*
ये किस ज़मीन पर मेरे क़दम पड़े 
वो क्या ग़ुबार था कि मैं निखर गया 

लिपट के रो रही हैं मुझसे हैरतें 
मलाल था कि रायगाँ सफ़र गया
रायगाँ: बेकार, व्यर्थ

हमारे आज के शायर का नाम जानने से पहले आईये पढ़ते हैं कि उसके बारे में अपनी तरह के अकेले, अलबेले, फक्कड़ और बेहद मशहूर शायर जनाब 'शमीम अब्बास' साहब क्या कहते हैं।
 
शमीम साहब फरमाते हैं कि "ना बहुत मोटे तगड़े, ना बहुत लंबे चौड़े,ना बहुत गोरे चिट्टे, ना बहुत दुबले-पतले, ना बहुत साँवले हर मामले में दरमियाना, दरमियाना क़द, दरमियाना रंग, दरमियाना काठी, इक हल्की सी मुस्कान लिए चेहरा, सजे सँवरे बाल, बहुत कायदे से और नफासत के साथ ज़ेबतन किये हुए कपड़े, खुश गुफ़्तार, खुश इख़लाख़ हद ये है कि गर्मागर्म बहस के दौरान भी एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर घर किये रहती है, मुसलसल तारी रहती है । शायर तो अच्छा है ही बाकी आदमी बहुत अच्छा है, मुझे बहुत अच्छा लगता है। सिर्फ एक मामले में मुझे उससे जलन है, हसद है वो ये कि वो लड़कियों के कॉलेज में प्रोफेसर है बाकी सब ठीक है। मैं ये सब इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि वो मेरा बहुत अच्छा दोस्त है वो मेरे ख्याल से 99 फीसद लोगों का अच्छा दोस्त है ये उसकी शख़्शियत की खूबी है कि जिससे मिलता है वो शख़्स उससे मुत्तासिर होता है, उसे चाहने लगता है।"

हमारे आज के शायर हैं जनाब 'अमीर हमज़ा साक़िब' जिनकी जनाब 'शमीम अब्बास' साहब से मुलाक़ात बरसों पहले मुम्ब्रा के एक मुशायरे में हुई थी। मुशायरे में सुनाये 'अमीर' के क़लाम को उन्होंने भरपूर दाद से नवाज़ा और मुशायरा ख़त्म होने पर 'अमीर' को एक कोने में ले जाकर उनसे मुशायरे में पढ़े उनके एक ख़ास शेर को फिर से सुनाने को कहा। 'अमीर' के शेर को गौर से सुनकर उन्होंने अमीर से कहा की अगर मुनासिब समझें तो इस शेर को कुछ अलग ढंग से कह कर देखें। 'अमीर' ने शमीम साहब की बात मानते हुए वही शेर जब कुछ अलग ढंग से कह कर उन्हें फोन पर सुनाया तो वो बहुत खुश हुए और ढेरों दुआएं दीं। तब से लेकर उन दोनों के बीच पनपा अपनापा आज तक क़ायम है। शमीम साहब के 'अमीर' के बारे में ऊपर जो आपने जुमले पढ़ें हैं, उसके बाद हमारे पास 'अमीर हमज़ा साक़िब' की शख़्शियत के बारे में कहने को और कुछ खास नहीं बचता।

उनकी ग़ज़लों की देवनागरी में रेख़्ता बुक्स,नोयडा, उत्तरप्रदेश द्वारा छपी किताब 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है', हमारे सामने है। ये किताब आप अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवा सकते हैं। 


इक आग इश्क़ की लिए फिरये तमाम उम्र 
किसने कहा था हाथ शरारों में डालिए

ये कौन फूल फूल खिला शाख़-शाख़ पर 
मैं ख़ाक छानता रहा किस की हवा लिए
*
यूं तो सब जल जाएगा 
दिल की लौ कम करते हैं 

अंदर से जो ख़ाली हैं 
'साक़िब' हम हम करते हैं
*
मेरा पता ठिकाना कहांँ जुज़ मेरे सिवा 
मेरी तलाश क्या कि अभी गुम-शुदा हूंँ मैं
*
तिरे ख्य़ाल के जब शामियाने लगते हैं 
सुख़न के पांँव मिरे लड़खड़ाने लगते हैं 

मैं दश्त-ए-हू की तरफ़ जब उड़ान भरता हूंँ 
तेरी सदा के शजर फिर बुलाने लगते हैं
दश्ते हू: वीराना

ये गर्द है मिरी आंखों में किन ज़मानों की 
नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं
*
जब उसका अक्स नहीं हम तो क्या जरूरी है 
कि जो भी उसने किया हू-ब-हू किया जाए
*
मैं भी तो उस पे जांँ छिड़कता हूंँ 
ग़म अगर एहतिराम करता है

आगे बढ़ने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं, पीछे याने आज से यही कोई 34-35 साल पहले। मुंबई के पास भिवंडी की अंबेडकर लाइब्रेरी में बैठा लाइब्रेरियन देखता था कि एक लड़का अक्सर लाइब्रेरी में आता है, अलमारी से कोई किताब निकालता है और करीब चार-पांच घंटे उस किताब में सर दिए चुपचाप पढ़ता रहता है और लिखता रहता है ।लाइब्रेरियन के लिए, एक 15-16 साल के लड़के की इस क़दर किताबों से मोहब्बत देख कर, हैरान होना लाज़मी था क्योंकि उसने इस उम्र के लड़कों को ज़्यादातर सड़कों पर क्रिकेट, फुटबॉल खेलते या आवारागर्दी करते ही देखा था ।पहले तो उसने समझा इस उम्र के दूसरे पढ़ाकू लड़कों की तरह ये भी किसी रोमांटिक या जासूसी उपन्यास को पढ़ने लाइब्रेरी आता होगा पर एक दिन जब वो अपनी उत्सुकता पर काबू नहीं रख पाया तो उसने लड़के से पूछ ही लिया कि ,बरखुरदार क्या पढ़ रहे हो'? लड़के ने हौले से हाथ में पकड़ी किताब जब उन्हें दिखाई तो लाइब्रेरियन साहब को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ , वो हैरान रह गए। अब आप ही बताएं कि ज़नाब 'फ़ैज अहमद फ़ैज' साहब की किताब 'दस्ते सबा' एक कमसिन उम्र के लड़के के हाथ में देखकर भला कौनसा पढ़ा लिखा इंसान हैरान नहीं होगा ? लड़के ने मुस्कुराते हुए लाइब्रेरियन साहब को बताया कि उसे फैज़ साहब बेहद पसंद हैं और ये किताब वो सातवीं मर्तबा पढ़ रहा है।

मजे की बात तो ये हुई कि दसवीं के इम्तिहान के एक परचे में जब 'आपका पसंदीदा शायर' पर लिखने का सवाल आया तो इस लड़के ने जवाब में फ़ैज पर न सिर्फ़ लम्बा लेख लिखा बल्कि साथ में 'दस्ते-सबा' में छपी बहुत सी ग़ज़लें और नज्में भी लिख दी जिसे पढ़ कर कॉपियां चैक करते वक्त एगज़ामिनर ने भी दाँतों तले उँगली दबा ली क्योंकि फ़ैज के बारे में इतना तो उन्हें भी पता नहीं था।

लाइब्रेरियन ने लड़के की पढ़ने की लगन को देखकर एक बार अपने असिस्टेंट को कहा कि 'उस टेबल पर बैठे लड़के को देख रहे हों मियाँ, एक दिन वो अपना और भिवंडी का नाम पूरी दुनिया में रौशन करेगा और ज़िन्दगी में बेहतरीन शख़्स बनेगा।' लाइब्रेरियन की पहली बात सच हुई ये तो पता नहीं लेकिन इस लड़के जिसका नाम 'अमीर' है को जानने वाले उसके बारे में कही दूसरी बात से जरूर इत्तफ़ाक़ रखेंगे।

निहाल यादों की चाँदी में शब, तो दिन सारा 
किसी के ज़िक्र का सोना उछालने में गया
*
दिल-ओ-दिमाग़ मुअ'त्तर तुम्हारे नाम से है 
तो फिर ये बू-ए-शिकायत कहांँ से आती है 
मुअ'त्तर :सुगंधित
*
जुनूँ पे इससे बुरा वक़्त और क्या होगा 
कि जान छूट गई तेरे जाँ-निसारों की 

जनाब आप तो ले बैठे घर के दुखड़े को 
हुजूर बात थी सहरा की रेगज़ारों की 

तुम्हारा रंग न आना था सो नहीं आया 
धनक सजाते रहे लाख इस्तिआ'रों की
*
जाने किस जुर्म में माख़ूज़ वो जिंदानी है 
जो भी आता है वो जंजीर हिला जाता है
माख़ूज़: पकड़ा गया, जिंदानी: क़ैदी
*
टहनियाँ दिल की बेलिबास हुईं 
आस के पंछी उड़ गए सारे

दीद  इज़्हार क़ुर्ब लम्स विसाल
 हल नहीं होते मस्अले सारे

कैसी इम्काँ थे अपने यारों में 
वक्त बदला बदल गए सारे
इम्काँ: सँम्भावना
*
ज़हर पीना दुर-ए-नायाब लुटाते रहना 
जर्फ़ कब मुझको मयस्सर है समंदर तुझ सा
दुर-ए-नायाब: अमूल्य रत्न, जर्फ़: पात्र

28 अप्रैल 1971 को भिवंडी में पैदा हुए 'अमीर हमज़ा साक़िब' दरअसल आज़मगढ़ के पास के छोटे से गाँव के हैं। उनके वालिद बेहतरीन शायर जनाब अताऊर रहमान 'अता', कारोबार के सिलसिले में भिवंडी आए और फिर यहीं के हो कर रह गये। 'अमीर' अम्बेडकर लाइब्रेरी में रखी शायरी की किताबें पढ़ते पढ़ते खुद भी शेर कहने की कोशिश करने लगे। वालिद साहब की उँगली पकड़ कर शेर कहने का सलीका सीखा और उन्नीस साल की उम्र से बाक़ायदा शायरी करने लगे। मुशायरों और नशिस्तों में शिरकत भी करने लगे लेकिन ये सिलसिला लम्बा नहीं चल पाया। 

मुशायरों के लिये शायरी करना सरकारी या गैरसरकारी संस्थान में नौकरी करने जैसा काम है। जैसे नौकरी में मातहत की पूरी कोशिश बॉस को खुश करने की होती है क्योंकि उसे नाराज़ करके उसकी तरक्की नहीं हो सकती ठीक वैसे ही मुशायरे के शायर सामईन को खुश करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं चाहे उसके लिए उन्हें पढ़ते वक्त नौटंकी करनी पड़े या गायकी। शायर का सिर्फ़ एक ही मक़सद होता है, सामईन की वाहवाही और तालियाँ बटोरना। जो ज्यादा बटोर पाता है वो ही लम्बे वक्त तक मंच पर टिका रहता है और ज़्यादा पैसा कमा पाता है। वाहवाही और तालियों की चाहत में शायरी हाशिये पर धकेल दी जाती है। ये बात सभी शायरों पर लागू नहीं होती लेकिन ज़्यादातर पर होती है। एक बात तो मैं यकीन से कह सकता हूँ कि अब मुशायरे के मंच से बेहतरीन शायरी पढ़ने वाले शायरों के दिन लद गए हैं. अलबत्ता कुछ नौजवान शायर बहुत खूब कह रहे हैं और मंच से अच्छी शायरी पढ़ने की हिम्मत भी कर रहे हैं लेकिन वो भी हज़ारों की भीड़-भाड़ वाले बड़े मज़मेनुमा मुशायरों में कामयाब नहीं हो पाते। यही कारण है कि मुशायरों में आठ दस घंटे का वक्त खपाने के बाद बड़ी मुश्किल से आपके हाथ दो या तीन ऐसे शेर हाथ आते हैं जो आपके ज़हन में कुछ देर तक टिके रह सकें। इतने वक्त में तो आप किसी किताब या रिसाले को पढ़ कर घर बैठे ही बहुत कुछ हासिल कर सकते है। अमीर ने कुछ वक्त तक तो मुशायरे के मंचों को देखा और आखिर में उकता कर मुशायरों से तौबा कर ली । शायरी करना 'अमीर' की मज़बूरी नहीं बल्कि खुद से गुफ़्तगू करने का एक जरिया है।

इस किताब की भूमिका वो अपनी शायरी के हवाले से लिखते हैं कि ' शेर कहते वक़्त मैं मुकम्मल न सही मगर एक बे-ख़बरी में जरूर होता हूँ।लफ्ज़ और उनकी पुर-असरारियत (रहस्मयता ) मुझे हैरत में डालती है। लफ़्ज़ों के इम्कानात (संभावनाएं )को खंगालना ,उन्हें नए मआ'नी-ओ-मफ़ाहीम (अर्थ-भाव) देना किसी तख़्लीक़ी (रचनात्मक ) एडवेंचर से कम नहीं। मैं एक सफर पर निकला हूँ , तख़्लीक़ी एडवेंचर के सफर पर। इस सफर में मेरे हाथ क्या आएगा नहीं जानता। अलबत्ता ये जानता हूँ कि इस सफर में रायगानी (व्यर्थता )मेरा मुकद्दर नहीं होगी।

मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़-ओ-सुर्ख़  
गोरे बदन पे उसके भी नीला निशान था

ज़िंदगी हाय तआ'कुब तेरा 
आख़िरी बस का सफ़र हो जैसे 
तआ'कुब: पीछा करना

दस्तरस में वो नहीं है मेरी 
शे'र कहने का हुनर हो जैसे 

फिर कठिन और कठिन और कठिन 
सांँस पनघट की डगर हो जैसे
*
क्या आस्माँ उठाते मोहब्बत में जबकि दिल 
तार-ए-निगह में उलझी हुई इक पतंग था
*
मिले न तुम ही न हम और ही किसी के हुए
यही बचा है कि अब अपने ही अ'दू हो जाएंँ
अ'दू: दुश्मन
*
रहे कहीं भी कहीं दूर मुझसे तू छुप जाए 
मेरे ख़यालों में चेहरा तेरा दमकता है 

ये ज़िस्म-ओ-रूह की गहराइयों में उतरेगा 
ये दर्द वो नहीं आंखों से जो छलकता है 

गुनाहगार न बन दिल मेरे ख़ुदा के लिए 
ख़याल-ए-यार का दामन कोई झटकता है

तुम्हारा लुत्फ़-ओ-करम हम फ़क़ीर लोगों पर 
किसी गरीब की छत की तरह टपकता है
*
पत्थर पड़े हैं राह के बे-ख़ानुमाँ-ख़राब
अब शहर में कोई भी दिवाना नहीं है क्या
बे-ख़ानुमाँ: बेघर
*
ये ख़्वाब रक्खेगा बेदार मुझको बरसों तक 
तिरी गली में मैं अपना मकान देखता हूँ

'अमीर' साहब ने भिवंडी से ग्रेजुएशन करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए मैसूर यूनिवर्सिटी को चुना और वहां से उर्दू में एम.ऐ. किया। नेट की परीक्षा दी और 'मीर तकी मीर' पर रिसर्च कर पी.एच डी की डिग्री हासिल की। इन दिनों आप भिवंडी के जी.एम. मोमिन वीमेन्ज़ कॉलेज के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर काम कर रहे हैं। पढ़ने लिखने के बेहद शौक़ीन 'अमीर' साहब को संगीत से भी दीवानावार मुहब्बत है। इसकी मोहब्बत में गिरफ्तार हो कर उन्होंने बाकायदा हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की तालीम जौनपुर के उस्ताद मोहम्मद हुसैन साहब से हासिल की। वक़्त की कमी के चलते वो संगीत में महारत तो हासिल नहीं कर सके लेकिन अब भी जब मूड होता है तो किसी न किसी राग को छेड़ कर उसमें डूबने की कोशिश करते हैं। संगीत के अलावा उनकी फिल्मों में भी बेहद दिलचस्पी है। शायरी तो खैर उनकी पहली मोहब्बत जैसी है। 

'अमीर' साहब ने जनाब 'मीर तकी मीर' साहब को जब पढ़ा तो उनके रवैये में तब्दीली आयी और उनकी फ़िक्र का मरकज़ जदीदियत की जगह इश्क हो गया। चीजों को रोमांटिसाइज करना और उसमें मिस्ट्री पैदा करना उनका दिलचस्प मश्ग़ला रहा है।'अमीर' अपनी शायरी हवाले से फरमाते हैं कि ' अपनी शायरी के ताल्लुक से मुझे किसी भी तरह की कोई खुशफ़हमी तो नहीं है बस ये है कि मुझे शेर कहने का जो अमल है उसमें लुत्फ़ आता है। लफ़्ज़ों को जानना, चीजों को उलट-पलट कर देखना और देखने का जो अपना जो एक तरीका है कि मैं हाल को भी माज़ी के तनाज़ुर (प्रेस्पेक्टिव ) में देखने की कोशिशें करता हूँ। लफ्ज़ उनके म'आनी और लफ्ज़ और म'आनी के दरमियान जो एक रिश्ता है जिसको , नून मीम राशिद साहब ने 'रिश्ता हाय आहन' कहा है तो ये लफ्ज़ और म'आनी के दरम्यान जो एक आहनी रिश्ता और जब वोही आहनी रिश्ता किसी शेर में आकर सय्याल (तरल, बहने वाला) हो जाता है उसमें सय्यालियत पैदा होती है तो ये तमाम चीजें मेरे लिए बड़ी मिस्टीरियस सी लगती हैं और मैं उसी मिस्ट्री में जीना पसंद करता हूँ। उसी रिश्ते पर गौर करता रहता हूँ। चीजों को माज़ी में देखने की कोशिश करता हूँ। कभी तवारीख़ का हिस्सा बन जाता हूँ कभी किसी क़िरदार में ढल जाता हूँ। फ़ितरत जो है वो मुझे बहुत मुत्तासिर करती है। फ़ितरत अपनी तरफ़ बुलाती है। जो रंग हैं, जो खुशबुएँ हैं, जो रौशनी है, लफ्ज़ हैं, म'आनी है , इंसानी रिश्ते हैं उन रिश्तों के दरमियान जो बदलती हुई नवीयतें हैं वो आपको मेरी शायरी के मरकज़ में ख़ुसूसन मिल जाएँगी।

अपनी शायरी के आगाज़ के लगभग 15 साल बाद 'अमीर' साहब का पहला मजमुआ सन 2014 में 'मौसम-ए-कश्फ़' के नाम से देहलीज़ पब्लिकेशन से शाया हुआ और बेहद मक़बूल हुआ। उसके करीब 5 साल बाद सन 2019 में देवनागरी में रेख़्ता द्वारा पब्लिश हुआ उनका दूसरा मजमुआ 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है' शायरी पढ़ने वालों को बहुत पसंद आ रहा है। उनकी शायरी 'रेख़्ता की साइट पर भी उपलब्ध है। मेरी सभी शायरी प्रेमियों से गुज़ारिश है कि अगर आप संजीदा शायरी पसंद करते हैं तो आपकी निजी लाइब्रेरी में उनकी ये किताब जरूर होनी चाहिए। आप 'अमीर' साहब को उनके खूबसूरत क़लाम के लिए 9890250473 पर फोन कर मुबारक़बाद दे सकते हैं।

आख़िर में पेश हैं उनकी इसी किताब से लिए कुछ और शेर :

आगही खून चूस लेती है 
छोड़िए जो हो बा-ख़बर रहिए
आगही: ज्ञान
*
'मीर' साहब से पूछिए जा कर
इ'श्क़ बिन क्या अदब भी आता है

मैं उसे गुनगुनाए जाता हूं 
वो मुझे भूल भूल जाता है
*
सुराग़ अपना मिले कहां से 
तुम्हारी दुनिया के हो चुके हैं
*
दिल के मैदाँ में खेल जारी है 
उसकी आंँखों का मेरे आंँसू का
ये दुनिया हाथ बांँध सामने थी 
मगर मैं आसमांँ को तक रहा था
*
जिसे तुम दिल हमारा कह रहे हो
भरी बरसात की सूनी गली है
*
तुम्हारी याद पर है जोर अपना 
ये दुनिया आज़माई जा चुकी है
*
तेरी आहट से मुझ में दूर तलक 
एक जंगल सा फैल जाता है 

कुफ्र है हिज्र का तसव्वुर भी 
आसमाँ कब जमीं से बिछड़ा है





Monday, December 6, 2021

किताबों की दुनिया - 246

दूर ही से चमक रहे हैं बदन
सारे कपड़े कुतर गया सूरज

पानियों में चिताएँ जलने लगीं
नद्दियों में उतर गया सूरज

साजिशें ऐसी की चरागों ने
वक्त से पहले मर गया सूरज
*
दुनिया है जंगल का सफर
लक्ष्मण जैसा भाई दे

सोने का बाजार गिरा
मिट्टी को मँहगाई दे
*
सब ने रब का नाम लिखा तावीजों पर
लेकिन मैंने अपनी मांँ का नाम लिखा
*
घर के लोगों का मान कर कहना
अपनी हस्ती मिटा रहा हूंँ मैं
*
अपने चेहरे का कुछ ख्याल नहीं
सिर्फ शीशे बदल रहे हैं लोग

शाम है दोस्तों से मिलने की
ले के ख़ंजर निकल रहे हैं लोग
*
वो गौतम बुद्ध का हामी नहीं है
मगर घर से निकलना चाहता है

'मैंने तुम्हारी बल्लेबाज़ी देखी वाह वाह क्या खूब बैटिंग करते हो मियाँ, ज़िंदाबाद'। इंदौर के एक क्लब मैच में लंच टाइम पर आये सलामी बल्लेबाज़ से एक बुजुर्ग ने कहा। 'तारीफ़ के लिए बहुत शुक्रिया आप जैसे बुजुर्ग कद्रदानों से तारीफ़ सुनकर अच्छा लगता है' युवा बल्लेबाज़ ने जवाब दिया। थोड़ी देर बाद लंच पैकेट हाथ में लिए वो युवा उस बुजुर्ग के पास आकर बैठ गया और बोला 'लगता है आप क्रिकेट के पुराने खिलाड़ी हैं मेरी बल्लेबाज़ी में कोई कमी हो तो बताएं।' बुजुर्ग मुस्कुराये और बोले देखो मियाँ कभी कभी तुम शॉट खेलने में जल्दबाज़ी कर जाते हो ,भले ही उस शॉट से तुम्हें बाउंडरी मिले लेकिन देखने वाले को मज़ा नहीं आता। शॉट वो होता है जो बिना अतिरिक्त प्रयास के खेला जाय जिसे अंग्रेजी में कहते हैं 'एफर्टलेस शॉट' इस शॉट को खेलने के लिए आपकी टाइमिंग और बल्ले का एंगल खास रोल अदा करता है। एफर्टलेस शॉट एक खूबसूरत शेर की तरह है जो सीधा पढ़ने सुनने वाले के दिल में जा बसता है और पढ़ने सुनने वाला अपने आप वाह कहते हुए तालियाँ बजाने पर मज़बूर हो जाता है।' युवा बल्लेबाज़ का मुँह खुला का खुला रह गया वो बोला 'हुज़ूर आज पहली बार मुझे किसी ने क्रिकेट और शायरी के आपसी रिश्ते को समझाया है। आप थोड़ा और खुल कर बताएं। ' बुजुर्ग मुस्कुराये और बोले 'तुम शायरी करते हो ?' 'जी नहीं -कभी कोशिश की थी फिर छोड़ दी , मैं अलबत्ता कहानियां लिखता हूँ। ' युवा ने कहा। अच्छा तो कभी अपनी कोई शायरी मुझे सुनाना या पढ़वाना , ये रहा मेरा पता, बुजुर्ग ने जेब से एक कार्ड युवा को देते हुए कहा 'जी जरूर , मैं आपसे मिलने जरूर आऊंगा लेकिन अभी थोड़ा वक़्त है तो आप क्रिकेट के हवाले से शायरी पे और रौशनी डालें।' युवा ने कहा और लंच पैकेट एक तरफ रख दिया।

बुजुर्ग ने एक नज़र खाली मैदान पे डाली और फिर कुछ सोचते हुए बोले 'देखो कोई मफ़हूम या विषय या कोई बात तुम्हारे दिमाग में आयी तो समझो ये क्रिकेट बाल है जो किसी ने तुम्हारी और फेंकी अब तुम्हें लफ़्ज़ों के बल्ले से इसे सुनने पढ़ने वालों के दिल में उतारना है याने चौका या छक्का लगाना है। तो बल्ले का याने लफ़्ज़ों का इस्तेमाल इस सहजता से करो की मफ़हूम जब लफ़्ज़ों में पिरोया जाय तो मज़ा आ जाए। मफ़हूम को जबरदस्ती ठूंसे गए लफ़्ज़ों में मत बांधो याने बल्ले को तलवार की तरह मत चलाओ उसे इस सलीके से बल्ले से टकराने दो की मफ़हूम खुद बखुद सामईन के दिल तक पहुँच जाये याने बाउंड्री पार कर ले। बल्लेबाज़ी और शेर गोई में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। सहजता होनी चाहिए। जितनी सहजता होगी बल्लेबाज़ी उतनी ही पुख्ता होगी और शेर उतना ही पुर असर होगा।

उम्र की अलमारियों में एक दिन
हम भी दीमक की ग़िज़ा हो जाएंगे
ग़िज़ा: भोजन
*
जो भाइयों में थी वो मोहब्बत चली गई
गेहूं की सौंधी रोटी से लज़्जत चली गई

विरसे में जो मिली थी वो तलवार घर में है
लेकिन लहू में थी जो हरारत, चली गई
*
कभी पैरों में अंगारे बंधे थे
मगर अब बर्फ़ बालों में मिलेगी

मैं मंजिल हूं न मंजिल का निशां  हूं
वो ठोकर हूं जो रास्तों में मिलेगी
*
ये बिखरी पत्तियां जिस फूल की हैं
वो अपनी शाख पर महका बहुत है

समंदर से मुआफ़ी चाहते हैं
हमारी प्यास को क़तरा बहुत है
*
लोग उसको देवता की तरह पूजने लगे
जिस आफ़ताब ने मेरी बीनाई छीन ली

होटल में चाय बेचते फिरते हैं वो ग़रीब
जिन मोतियों से वक्त ने सच्चाई छीन ली
*
मेरे लबों में कोई ये सूरज निचोड़ दे
तंग आ चुका हूं अपने अंधेरे मकान से

हम जिस युवा की बात कर रहे हैं उसका जन्म 15 जून 1944, कन्नौज यू पी, जो पहले डिस्ट्रिक्ट फर्रुख्खाबाद में था, में हुआ। यहाँ मैं बताता चलूँ कि कनौज अपने इत्र के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। कनौज से लखनऊ होते हुए ये युवा आखिर में इंदौर आ कर बस गया। इंदौर शहर में ही उसने अपनी पूरी तालीम हासिल की। इंदौर के वैष्णव पॉलिटेक्निक कॉलेज से मेकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और दिसंबर 1964 से बॉयलर डिपार्टमेंट में सरकारी मुलाजमत करने लगा। पूरे 40 साल मुलाजमत करने के बाद सन 2004 में रिटायर हो गया।

अधिकतर इंसान रिटायरमेंट को अपनी ज़िन्दगी का आखरी मुकाम समझ लेते हैं जो कि उम्र के हिसाब से हर नौकरी पेशा को हासिल होती ही है लेकिन उम्र कुछ लोगों के लिए सिर्फ एक नंबर है ऐसे इंसान रिटायर भले हो जाएँ अंग्रेजी वाले 'टायर' कभी नहीं होते याने कभी थकते नहीं ,कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। वैसे भी जो इंसान अपनी ज़िन्दगी में बढ़िया खिलाड़ी रहा हो वो उम्र से कभी नहीं हारता। ये युवा आज 77 साल की उम्र में जेहनी तौर पर उतना ही जवान है जितना उस वक़्त था जब उसके बैट से क्रिकेट बॉल टकरा कर सनसनाती हुई बाउंड्री पार कर जाया करती थी। पहली फुर्सत में वो आज भी टीवी या मोबाईल पर क्रिकेट मैच देखने से नहीं चूकता। .
 
इस दिल से युवा शायर का नाम है जनाब 'तारिक़ शाहीन' जिनकी ग़ज़लों की किताब 'कड़वा मीठा नीम' आज हमारे सामने है जिसे रेडग्रैब बुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने प्रकाशित किया है। ये किताब आप अमेजन या फ्लिपकार्ट से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। मेरा मशवरा है कि इस ख़ूबसूरत क़िताब को हिंदी पाठकों के लिए मंज़र-ऐ-आम पर लाने के लिए जनाब पराग अग्रवाल साहब को उनके मोबाइल न 9971698930 पर संपर्क कर शुक्रिया अदा करें और जनाब तारिक़ शाहीन साहब को लाज़वाब शेरों के लिए उनके मोबाईल न 9893253546 पर संपर्क कर मुबारक़बाद जरूर दें। 


सिर्फ दो गज़ ज़मीं हूँ सिमटूँ तो
और फैलूँ तो आसमां हूंँ मैं

मुझको खुद में तलाश कीजेगा
तुम जहांँ हो वहांँ-वहांँ हूंँ मैं
*
मौत सारी अनासिर उड़ा ले गई
देखती रह गई जिंदगी साहिबों

और आगे बढ़ा हूंँ कड़ी धूप में
जब भी बढ़ने लगी तिश्नगी साहिबों
*
लो हो चुका तैयार मेरा घर मेरा आँगन
अब काम तुम्हारा है बढ़ो आग लगाओ
*
मुझे पसंद नहीं सेज के गुलाबी फूल
ये काली रात, सियाह नाग दे तो बेहतर है

तमाम उम्र कहीं जंगलों में कट जाए
ये जिंदगी मुझे बैराग दे तो बेहतर है
*
सबक उससे कोई ले दोस्ती का
जो दुश्मन पर भरोसा कर रहा था
*
जो जल रही थी खोखले नारों के दरमियां
उन मशअलों को वक्त की आंधी निगल गई

चांँद अपने केंचुली में कहीं दूर जा छुपा
सूरज उगा तो रात की नागिन कुचल गई

रिटायरमेंट के बाद जो मज़े का काम उनके साथ हुआ वो बिरलों के साथ ही हुआ होगा। हुआ यूँ कि उनके एक दोस्त थे जो नवभारत टाइम्स में पत्रकार थे और काँग्रेस के बड़े नेता भी थे वो अक्सर शाहीन साहब से उर्दू की तालीम हासिल किया करते थे। शाहीन साहब की उर्दू ज़बान और उर्दू साहित्य पर पकड़ के क़ायल थे। उन्हीं दिनों जब शाहीन साहब सरकारी नौकरी से रिटायर हुए भारत सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ इन्फॉर्मेशन और ब्रॉडकास्टिंग की तरफ फ़िल्म सेंसर बोर्ड के मेंबरस की नियुक्तियाँ हो रही थीं चुनाचे उनके दोस्त ने उन्हें फिल्म सेंसर बोर्ड का मेंबर बनवा दिया। शाहीन साहब की फिल्मों में बचपन से रूचि थी। उनके फिल्मों पर लिखे लेख इंदौर के अखबारों में नियमित छपते थे। तो ये हुआ न मज़े का काम फ़िल्में देखो और मेंबर बनने की फीस अलग से सरकार से लो। एक पंथ दो काज वाली बात हो गयी। उस दौरान उन्होंने 'एक था टाइगर जैसी' बड़ी छोटी 103 फ़िल्में अपने कार्यकाल में पास कीं। किसी वजह से वो सेंसर बोर्ड का काम छोड़ तो आये लेकिन खाली नहीं बैठे या यूँ कहें कि उनकी क़ाबलियत ने उन्हें ख़ाली नहीं बैठने दिया। तभी उनके पास आधार कार्ड डिपार्टमेंट से ऑफर आया और वो वेरिफायर की हैसियत से आधार कार्ड से जुड़ गए और लगभग पाँच-सात साल तक जुड़े रहे। इसके अलावा उन्होंने मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड की हाई -स्कूल और हायर-सेकेंडरी स्कूल कोर्स की विभिन्न विषयों पर लगभग 16 किताबें लिखीं जो बोर्ड में कई साल चलीं।

अब आप ही बताएँ, है कोई ऐसा शख़्स आपकी निगाह में जो रिटायरमेंट के बाद इस क़दर अलग अलग कामों में मसरूफ़ रहा हो ? मैं ये तो नहीं कहूंगा कि इसतरह मसरूफ़ रहने वाले वो वाहिद इंसान थे लेकिन ये जरूर कहूंगा कि ऐसे इंसान आपको बहुत ही कम मिलेंगे। यही कारण है कि जब भी आप उनसे गुफ़तगू करें आपको लगेगा किसी कॉलेज में पढ़ने वाले युवा लड़के से बतिया रहे हैं क्यूंकि उनकी आवाज़ में वो ही ख़ुनक और जोश है जो युवाओं में होता है।   .     
जब भी बुझते चराग़ देखे हैं
अपनी शोहरत अजीब लगती है

आग मिट्टी हवा लहू पानी
ये इमारत अजीब लगती है

जिंदगी ख़्वाब टूटने तक है
ये हक़ीक़त अजीब लगती है
*
सूली पे चढ़ा है तो कभी ज़हर पिया है
जीने की तमन्ना में वो सौ बार मरा है

दिन रात किया करता है पत्थर को जो पानी
फ़ाक़ों के समंदर में वही डूब रहा है
*
लगायें कब तलक पैवंद साँसें
ये चादर अब पुरानी हो गई है
*
उसी को जहर समझते हैं मेरे घरवाले
वो आदमी जो मुझे देवता सा लगता है

न जाने कौन मुझे छीन ले गया मुझसे
अब अपने आप में कोई ख़ला सा लगता है

मैं हर सवाल का रखता हूं इक जवाब मगर
कोई सवाल करे तो बुरा सा लगता है
*
जुगनूओं की तरह सुलग पहले
क़र्ब की दास्तान तब लिखना
क़र्ब :पीड़ा, तकलीफ़

शायरी की तरफ़ शाहीन साहब का कोई विशेष झुकाव नहीं था अलबत्ता कहानियां खूब लिखते जो इंदौर के बड़े अखबारों में छपतीं। एक बार हुआ यूँ कि उन्होंने एक 5 शेरों से सजी ग़ज़ल कही और उस पर इस्लाह लेने के लिए इंदौर के एक बड़े उस्ताद के यहाँ पहुँच गए। उस्ताद तो उस्ताद होते हैं और बड़े उस्तादों का तो कहना ही क्या। बड़े उस्ताद अपने शागिर्दों से घिरे हुए थे लिहाज़ा उन्होंने कोई दो घंटे के इंतज़ार के बाद शाहीन साहब को अपने पास बुलाया और उनकी कही ग़ज़ल को सरसरी तौर पर देख कर कहा कि 'बरखुरदार इस ग़ज़ल को मेरे पास रख जाओ मैं इसे फुर्सत में इत्मीनान से इसे देखूँगा। अब तुम कल शाम को आना फिर इस पर बात करेंगे।' शाहीन साहब दूसरे दिन धड़कते दिल से शाम को उस्ताद के यहाँ पहुँच गए। उस्ताद ने उन्हें ग़ज़ल देते हुए कहा कि 'बरखुरदार इस ग़ज़ल को ध्यान से पढ़ो और समझो'। शाहीन साहब उन्हें सलाम करके उठे और बाहर आकर जब अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो माथा ठनक गया। उस ग़ज़ल में शेर तो 5 ही थे लेकिन उन 5 शेरों में साढ़े चार शेर उस्ताद के थे सिर्फ एक मिसरा ही शाहीन साहब का था। उसी वक़्त शाहीन साहब ने उस कागज़ के, जिस पर ग़ज़ल लिखी हुई थी, टुकड़े टुकड़े किये और नाली में फेंक कर क़सम खाई कि अब कभी ग़ज़ल नहीं कहेंगे।

इंसान सोचता कुछ है होता कुछ है। शाहीन साहब की कहानियां, फिल्मों और स्पोर्ट पर लेख जिस अख़बार में नियमित छपते थे उसके मालिक उर्दू के क़ाबिल विद्वान् जनाब अज़ीज इंदौरी साहब थे। एक बार अज़ीज़ साहब को किसी काम से कहीं जाना पड़ गया तो वो शाहीन साहब से बोले कि मियां मुझे आज काम है मैंने सादिक़ इंदौरी साहब से कह दिया है कि वो अखबार की मेन हैडिंग आ कर लगा देंगे तुम बाकी पेपर सेट कर देना। सादिक़ साहब को भी आने में देर हो गयी तो शाहीन साहब ने अखबार की मेन हैडिंग भी खुद ही लगा दी और धड़कते दिल से सादिक़ साहब का इंतज़ार करने लगे। ये उनकी सादिक़ साहब से पहली मुलाक़ात होने वाली थी। थोड़ी देर के बाद जब सादिक़ साहब ने आ कर अखबार देखा तो बहुत खुश हुए बोले 'यार! तुम तो बहुत हुनरमंद इंसान हो, ऐसा करो कि अखबार की हेडिंग यही रहने दो बस तुम इस लफ्ज़ को वहाँ से हटा कर यहाँ रख दो। शाहीन साहब ने ऐसा ही किया और देखा कि इस छोटे से लफ़्ज़ों के हेरफेर से हेडिंग किस क़दर असरदार हो गयी है। उन्हें बरसों पहले क्रिकेट मैदान पर लफ़्ज़ों को बरतने के बारे में कही बुजुर्ग की बात फ़ौरन याद आ गयी उन्होंने सादिक़ साहब को गौर से देखते हुए कहा हुज़ूर आपको मैंने कहीं देखा है। सादिक़ साहब मुस्कुराये और बोले' जी जनाब हम बरसों पहले एक बार मिल चुके हैं क्रिकेट के मैदान पर जहाँ अपनी शायरी और क्रिकेट को लेकर गुफ़तगू हुई थी। मैं तो तुम्हें पहली नज़र में ही पहचान गया था क्यूंकि तुम्हारी बैटिंग से मैं बहुत मुत्तासिर हुआ था।

सादिक़ साहब ने अखबार की हैडलाइन की एक बार फिर से तारीफ़ करते हुए अचनाक जब शाहीन साहब से पूछा कि क्या तुम शायरी करते हो मियां तो शाहीन साहब तपाक से बोले 'लानत भेजिए शायरी को'। सादिक़ साहब ने हैरानी से पूछा 'भाई तुम शायरी के नाम से इतने भन्नाये हुए क्यों हो? बरसों पहले जब ये सवाल मैंने तुमसे किया था तब भी तुम झल्ला गए थे।बात क्या है जरा खुल कर बताओ।' थोड़ी ना-नुकर के बाद जब शाहीन साहब ने अपनी दास्ताँ सुनाई तो सादिक़ साहब हँसते हुए बोले 'बड़े खुद्दार आदमी हो यार, वैसे तुम इस्लाह के लिए जिसके पास गए थे वो मेरा शागिर्द है। तुम ऐसा करो कि अगर तुम्हें याद हो तो वही ग़ज़ल मुझे लिख के दो। शाहीन साहब ने उन्हें ग़ज़ल दे दी। दूसरे दिन वो ग़ज़ल सादिक़ साहब शाहीन साहब को वापस देते हुए बोले 'यार तुम्हारी ग़ज़ल के सभी शेर बढ़िया हैं उनमें कहीं कुछ करने की गुंजाईश नहीं है बस एक मिसरे में मैंने इस लफ्ज़ को वहाँ से हटा कर यहाँ कर दिया है बस। तुम तो लिखा करो मियां। कभी कहीं परेशानी आ जाये तो मेरे पास बेतकल्लुफ़ हो कर चले आया करो। इस बात से शाहीन साहब बेहद खुश हुए। ऐसा उस्ताद जिसे मिल जाय तो फिर कौन है जो अपने आपको ग़ज़ल कहने से रोक पायेगा ? लिहाज़ा उन्होंने ग़ज़लें कहना शुरू कर दिया।

अब समंदर वहां करे सजदे
हमने दामन जहांँ निचोड़े हैं

हर तरफ हैं हुजूम सायों का
आदमी तो जहांँ में थोड़े हैं
*
ये है माला वो है दार
जैसी गर्दन वैसा हार
दार: फांसी

सूखी मिट्टी इत्र हुई
पानी आया पहली बार

ये गुर है खुश रहने का
एक ख़मोशी सौ इज़हार
*
मैं संग हो के पहुंँचा था जब उसके सामने
वो मुझको आईने की तरह देखता रहा
*
जाने अपनी बूढ़ी मांँ से मुझको यह क्यों ख्वाहिश है
वो मुझको मेले में ढूंढे और कहीं खो जाऊंँ मैं
*
पांँव पत्थर किए देते हैं ये मीलों के सफ़र
और मंजिल का तक़ाज़ा है कि चलते रहना

दरो-दीवार जहांँ जान के दुश्मन हो जायें
और उसी घर में जो रहना हो, तो कैसे रहना
*
कोई आए मुझे बाहर निकाले
मैं अपने आप से तंग आ गया हूंँ

तारिक़ साहब बेहद प्राइवेट इंसान हैं। शोहरत से कोसों दूर अपने में ही मस्त रहने वाले इंसान।  यही कारण है कि उन्हें मुशायरों के मंच पर बहुत ही कम देखा गया है। नशिस्तों में भी उनकी शिरकत ज्यादा नहीं होती। जनाब कीर्ति राणा साहब अपने ब्लॉग में उनके बारे में लिखते हैं कि इंदौर के खजराना में रहने वाले शायर तारिक शाहीन शायरी में तो माहिर माने जाते हैं लेकिन जोड़-तोड़, जमावट के फन में कमजोर ही हैं वरना क्या वजह है कि उर्दू का एक नामचीन शायर उम्र की 76वीं पायदान पर कदम रख दे और उर्दू अदब तो ठीक खजराना तक में हलचल ना हो । अपनी शायरी से देश-विदेश में शहर का नाम रोशन करने वाले शायर का हीरक-जयंती वर्ष दबे पैर निकलने की हिमाकत तभी कर सकता है जब कोई लेखक-शायर सिर्फ रचनाकर्म से ही ताल्लुक रखेउनका तखल्लुस है तारिक यानी अलसुबह के अंधेरे में चलने वाला मुसाफिर, शायद यही वजह है कि उनकी शायरी का सुरूर तो दिलोदिमाग पर चढ़ता है लेकिन इस बड़ी सुबह के मुसाफिर पर नजरें इनायत नहीं हुईं।

 इंदौर में उनके सबसे क़रीब दोस्त थे, मरहूम शायर जनाब राहत इंदौरी साहब जिनकी जब तक वो हयात रहे मुशायरों के मंच पर तूती बोला करती थी। शाहीन साहब आज भी उन्हें याद करते हुए उदास हो जाते हैं वो कहते हैं की राहत जैसी खूबियाँ मैंने बहुत कम इंसानों में देखी हैं।      

एम पी उर्दू अकादमी, भोपाल ने उन्हें 'शादाँ इंदौरी अवार्ड से , जान-चेतना अभियान ने बहुसम्मान से और बज़्मे-गौहर हैदराबाद ने मोअतबर शायर अवार्ड से नवाज़ा है। नवभारत’ में उर्दू सफा (पेज) का संपादन करने से पहले ‘शाखें’ नाम से रंगीन त्रैमासिक निकाल चुके हैं जो 22 देशों में जाती थी और दुनियाभर के फनकार इसमें छपा करते थे। उनकी अपनी रचनाएँ  जर्मन, पाक, अमेरिका, स्वीडन, लंदन आदि देशों की पत्रिकाओं में निरंतर छपती रही हैं। 

आखिर में पेश है उनके कुछ और चुनिंदा शेर :

एक आदमी था हम जिसे इंसान कह सकें
गुम हो चुका है भीड़ में वो आदमी जनाब

सूरज के साथ शहर का चक्कर लगाइए
आ जाएगी समझ में अभी ज़िंदगी जनाब
*
उस पर हंँसू कि अश्क बहाऊंँ मैं दोस्तों
शर्मिंदा हो रहा है मेरा घर उजाड़ के
*
तोड़ दो ताज की तामीर के हर मंसूबे
तुमको मालूम नहीं दस्ते-हुनर कटते हैं

हमने उस शहर के माहौल में ऐ दोस्त मेरे
इस तरह काटे हैं दिन जैसे कि सर कटते हैं
*
वो शनासा तो नहीं है कि पलट आएगा
अजनबी वक्त़ को आवाज लगाऊंँ कैसे
*
बहुत खुश हो, तुम अपनी जिंदगी से
मियां क्यों लंतरानी कर रहे हो

ख़ुदा रक्खे तुम्हें मेरे चरागों
हवा पर, हुक्मरानी कर रहे हो
*
जो शख़्श भी ज़माने की नज़रों में आ गया
चेहरे पे उसने दूसरा चेहरा लगा लिया
*
कोई पत्थर न था सलीक़े का
आईना किस के रूबरू करते

Monday, November 22, 2021

किताबों की दुनिया - 245

यह तब्सिरा शिकायतें बेकार हैं मियांँ 
ये मान लो कि खेलती है खेल जिंदगी
*
मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई 
जब बच्चों को हंसते देखा आंखों ने आराम किया 

पापों के साए में खुद को यूंँ जीवित रखते हैं हम 
घट भरने की बारी आई सीधा तीरथ धाम किया

उसकी माया वो ही जाने इसका मतलब यू समझो 
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया
*
चाहे वे जिसको खरीदें, भोग लें या फेंक दें 
इश्तहारों से टँगे हैं हम सभी दीवार पर
*
राधिका-सी ज़मीं रक्स करने लगे 
बादलों बांँसुरी तो बजाया करो
*
तब हर इक घर में सदाक़त का जनाज़ा उतरा
झूठ से लिपटे हुए सुबह जो अख़बार गए
सदाक़त: सच्चाई
*
मैं आइने से मुखातिब हूँ ख़ूब तन के खड़ा
मेरा ये अक्स मगर क्यों झुका-झुका ही लगे
*
तेरे आगे मैं ठहरा हूँ
बिल्कुल ड्रेसिंग टेबल जैसा

रिश्तों का आखेट हुआ है
घर लगता है जंगल जैसा

शायद आप जानते हों लेकिन बहुत से लोग नहीं जानते कि बैतूल जिले के गाँव मलाजपुर के एक मंदिर में पिछले 400 सालों से भूत भगाने के लिए मेला लगता है जिसमें दूर दूर से लोग अपने परिजनों, मित्रों की दिमागी बीमार का इलाज़ करवाने ये सोच कर आते हैं कि इन पर किसी भूत-प्रेत का साया है। मज़े की बात है कि ऐसे लोगों का दावा है कि इस तरह के मरीज़ वहां जा कर  ठीक भी हो जाते हैं। एक बात और इस मंदिर में आरती के समय बजते शंख की आवाज़ के साथ मंदिर के प्रांगण में बसने वाले कुत्ते अपना सुर भी मिलाते हैं। ये आरती रोजाना शाम को होती है।  आप पूछेंगे कि किताबों की दुनिया में मलाजपुर का ज़िक़्र क्यों ? आपके इस सवाल का कोई सीधा जवाब भी मेरे पास नहीं है मलाजपुर का ज़िक्र तो मैंने इसलिए किया क्यूंकि इसके मात्र 40 की.मी. दूर गाँव गोराखार है जहाँ 15 जुलाई 1981 को एक स्कूल अध्यापक के घर जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया मिथिलेश पूरा नाम मिथिलेश वामनकर। अब चूँकि गोराखार में ऐसा कुछ उल्लेखनीय नहीं है लिहाज़ा उसके पास के गाँव का ज़िक्र कर लिया। मिथिलेश जी की प्रारम्भिक शिक्षा गोराखार गाँव के आंगनबाड़ी केंद्र से ही हुई। इसी गाँव से उन्होंने पहली दूसरी कक्षा की पढाई भी की फिर पिता का स्थानांतरण लगभग 500 की मी दूर बस्तर के बवई गाँव में हो गया तो आगे की शिक्षा फिर बस्तर के अलग अलग गाँवों के अलग अलग स्कूलों में हुई।    
.          
आज मिथिलेश वामनकर की ग़ज़लों की किताब 'अँधेरों की सुबह' अभी हमारे सामने है। इस किताब को अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद ने सं 2016 को प्रकाशित किया था। ये किताब अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ध है।


आसान लग रहा है अगर तय सफ़र मियांँ 
तो जिंदगी ये आपकी समझो उतार पर 

वादा लिया कि ख़वाब हकीक़त करोगे तुम 
यूं बोझ रख दिया है किसी होनहार पर
*
अजब है लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे 
मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते हैं
*
अब सिसकते हैं अकेले में विष के प्याले 
आजकल तो कहीं शंकर नहीं देखे जाते

राह कैसी है हमें हश्र पता है लेकिन 
इश्क़ में मील के पत्थर नहीं देखे जाते
*
कि चूल्हे भी जिनके घरों में जल नहीं पाते 
उन्हें तहज़ीब रख कर बोलना क्या इक तराजू से 

ज़रा सोचो कि उसका भी भला क्या हौसला होगा 
अभी जो मेढकों को तोल आया इक तराजू से
*
क़ुरबतें घटाती हैं हर नजर की बिनाई 
ज्यूँ तले चरागों के रौशनी नहीं मिलती
*
अब तो मुकम्मल ज़िदगी हर एक को मिलते नहीं 
जो हाथ में है रोटियांँ तो पांव में जंजीर है

लो क़त्ल भी मेरा हुआ क़ातिल मुझे माना गया 
तफ्तीश भी मेरी हुई मुझको मिली ताज़ीर है 
ताज़ीर: दंड ,सजा

बस्तर को याद करते हुए मिथिलेश जी लिखते हैं कि 'बस्तर में गुजरा मेरा बचपन मेरी यादों में आज भी जस का तस है। घने जंगल, छोटे छोटे गांव, घासफूस वाले घर, धूल भरी गांव की गलियाँ, साइकिल पर बैठकर पापा के साथ हाट जाना, पापा का नदी तैरकर दूसरे तट तक मुझे ले जाना फिर दूसरी बार मे साइकिल लाना, लालाजी की किराने की टपरी से मीठी गोली मिलना जिससे पूरे होंठ लाल हो जाते थे, पत्तल बनाने के लिए जंगल से पत्ते लाना, घर की बाड़ी से सब्जियाँ तोड़ना, वो भीमा, लक्ष्मी दीदी, ओट्टी चाचा, शोभा दीदी, कितनी सादगी थी उन लोगों में, उस हवा में, उन गांवों में, उन जंगलों में। और कितना कुछ है। बस्तर मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है। 

पापा की मास्टरी और तबादले चलते रहे और मैं भी कई स्कूलों में पढ़ता रहा, नए नए दोस्तों से मिलता रहा। 1989 में पापा का चयन डिप्टी कलेक्टर के पद पर हुआ तो हम घास फूस वाले घर से सीधे बंगले में पहुंच गए। गाँव छूट गए और कस्बानुमा नगरों के नए स्कूलों में दाखिल होते गए। इस दौरान पापा छत्तीसगढ़ की छोटी छोटी तहसीलों में रहें जहां के सरकारी स्कूलों में मेरी पढ़ाई हुई। जब मैं मिडिल स्कूल पहुँचा तो थोड़ी बहुत तुकबंदी शुरू कर दी थी। सातवीं में पहली बार मेरी एक कविता स्थानीय अखबार में छप गई।

फिर क्या था, खुद को साहित्य के क्षेत्र पदार्पित मानते हुए काव्य लिखना और साहित्य पढ़ना शुरू हो गया। चूंकि पापा खुद अच्छे कवि है इसलिए घर में किताबों की कमी थी नहीं। लेकिन मेरा साहित्यक अध्ययन कविता से नहीं बल्कि उपन्यासों से आरंभ हुआ। आठवीं कक्षा में प्रेमचंद के अधिकांश उपन्यास पढ़ चुका था। दसवीं कक्षा तक तो अज्ञेय, नागर, यशपाल, मोहन राकेश, श्रीलाल शुक्ल, रेणु, प्रसाद, चतुरसेन आदि के उपन्यास पढ़ चुका था लेकिन उस उम्र में सर्वाधिक प्रभावित हुआ था धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता से। उस उपन्यास का असर कई महीनों तक रहा। अपने आसपास चंदर, सुधा, बिनती खोजते रहता। कभी खुद को चंदर मानकर कहीं सुधा की कल्पना में खोया रहता तो कभी बिनती से मिलने को आतुर हो जाता।

दिखे जो नींद में यारो वो सपने हो नहीं सकते 
ये वो शै है, कभी जो आपको सोने नहीं देती

खुशी आई है घर में तो यक़ीनन साथ ग़म होगा 
कभी साया अलग खुद रौशनी होने नहीं देती
*
अगर लफ़्जों की ज्यादा पत्तियां बिखरी हुई होंगी 
तो मतलब के समर हमको दिखाई दे नहीं सकते 

खुदा ने भूल जाने की अजब दौलत तो बख़्शी है 
मगर फिर भी सभी बस याद रखने में लगे रहते
*
क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी 
ये परबतों पे दाल गलाने की बात है

खुद ही उतर के आएंगे तारे ज़मीन पर 
बस आसमां से चांद हटाने की बात है
*
खुशियां मिले तभी तक क़दमों में आसमां है 
हमने ग़मों को पाया सिर पे ज़मीन जैसे
*
आज उफ़क तक सरसों देखी दिल बोला 
नीली चूनर पीला लहंगा बढ़िया है

बूँदों की बारात दुआरे से बोली 
खेतों का हरियाला बन्ना बढ़िया है
*
लहू से आज नहा कर जो लौट आया है 
गया था शख्स़ शरीफों का घर पता करने

बेहद रोचक अंदाज़ में अपने बारे में आगे बताते हुए मिथिलेश जी लिखते है 'वो उम्र के सबसे रोमांचित करने वाले दिन थे। हार्मोनल बदलाव अपना करिश्मा दिखा रहे थे और मैं डायरी पर डायरी भर रहा था। उन सालों में खूब लिखा। कितना सार्थक लिखा ये नहीं पता। लेकिन लिखा खूब। हार्मोन्स प्रेम कवितायें लिखवाते थे और औपन्यासिक पठन के प्रभाव से सामाजिक यथार्थवादी कविताएँ भी लिखने लगा था। गीत सर्वाधिक प्रिय विधा थी उन दिनों। इधर जगजीत सिंह की ग़ज़लों की कैसेट्स ने शायरी से जोड़ दिया तो बशीर बद्र साहब की दीवानगी रही। इस कला प्रेम ने पढ़ाई पर असर डाला जरूर लेकिन पता नहीं कैसे दसवीं में गणित और विज्ञान में अच्छे नम्बर आ गए और उस समय की प्रचलित परम्परा अनुसार हायर सेकेंडरी में गणित लेना और इंजीनियर बनना तय हो गया। यद्यपि यह निर्णय मेरे अलावा बाकी सबने लिया था जिसमें घर परिवार समाज सभी सम्मिलित थे। नैतिक दबाव ऐसा था कि मेरे पास ना कहने की गुंजाइश ही नहीं थी। 

इस दौरान जगदलपुर और दंतेवाड़ा से ग्यारहवीं बारहवीं कक्षा पूरी की और इंजीनियरिंग के इंट्रेंस की तैयारी के लिए भिलाई चला गया। वहां अकेला रहता था तो पढ़ाई के साथ साथ कविताई भी खूब चली। उन दिनों इंजीनियरिंग में आई टी ब्रांच का बड़ा जोर था लेकिन मेरे टेस्ट में इतने ही नम्बर आते थे कि मुझे सिविल मिल सके। मुझे सिर्फ आई टी इंजीनियर बनना था। आई टी इंजीनियरिंग का सपना पूरा नहीं हो सका।   आखिर हार मानकर मुझे वापस दंतेवाड़ा जाकर बी एस सी करनी पड़ी। दंतेवाड़ा से 50 किलोमीटर दूर किरंदुल कॉलेज में प्रवेश लिया और बैलाडीला किरंदुल के लौह अयस्क वाले  लाल हरे मनोरम पहाड़ों में खोता रहा। लेखन का आलम ये था कि मुझे सेकेंडियर में इसलिए सप्लीमेंट्री आई क्योंकि तब मैं अपना उपन्यास "लौह घाटी में चांद" लिख कर रहा था।
वो उपन्यास कॉलेज के सफल असफल प्रेम प्रसंगों और बस्तर में व्याप्त शोषणकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध युवाओं के आक्रोश पर आधारित था जो कभी प्रकाशित नहीं हो सका। उस उपन्यास को कई दोस्तों ने पढ़ा और उसमें खुद का चरित्र पाकर बहुत खुश भी होते थे। सब आज भी याद करते हैं। 

हमारे पांव चिपके जा रहे हैं 
नदीम उनकी गली चुंबक हुई क्या 
नदीम: मित्र 

अचानक ही ग़ज़ल फिर हो गई है
हमारी वेदना सर्जक हुई क्या
*
किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने 
हुआ पराजित ये गांव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है 

मुआवजे हो तमाम लेकिन वही ख़सारा वही हक़ीक़त 
ज़मीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है
*
तीर बूंँदों के भला, क्या आपको आए मज़ा 
भीग जाने का हुनर तो जानती है छतरियांँ

जेब में है वज़्न कितना, ये ज़माना देखता
फूल कितना खिल गया है, देखती हैं तितलियाँ
*
कहीं बुत परस्ती कहीं हैं ज़ियारत, तिज़ारत हुई है कहीं मज़हबों की 
शिवाला बहुत है, मिली मस्जिदें भी, मगर आदमी में अक़ीदत नहीं है 
ज़ियारत: प्रार्थना,  तिज़ारत: व्यापार
*
उसे भी तो ज़रा दिल से निकालो 
मिटाया नाम जिसका डायरी से
*
लगे फिर से बँधाने को नई जो आस अच्छे दिन 
असल में कर रहे जैसे कोई उपहास अच्छे दिन

ग़रीबी में दिखाते जो किसी को भूख के जलवे 
अमीरी में वही लगते, हमें उपवास अच्छे दिन

जब मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ अलग हुए तो पापा ने मध्यप्रदेश चुना और हम मध्यप्रदेश आ गए। पहले पापा की हरदा पोस्टिंग हुई फिर  छिंदवाड़ा। जब मैं छिंदवाड़ा में था वहीं से बी एस सी फाइनल किया और जैसे तैसे साइंस ग्रेजुएट हो गया। इन्ही दिनों दुष्यन्त कुमार का ग़ज़ल संग्रह साये में धूप हाथ लगा। अब मुझे ग़ज़लें लिखने से कोई नहीं रोक सकता था। मैंने खूब ग़ज़लें लिखी।  100 से अधिक ग़ज़लों का एक दीवान तैयार हो गया। इस दौरान एक इंटरनेट कैफे में थोड़ा बहुत काम कर जेब खर्च लायक कुछ कमाई करने लगा था। उल्लेखनीय है कि पॉकेट मनी मांगना हमारे घर मे अपराध की श्रेणी में आता था। इंटरनेट से संपर्क हुआ तो वेब डिजायनिंग सीख ली। खुद से थोड़ी बहुत html लेंग्वेज भी सीख ली। उन दिनों इंटरनेट जानने वालों में अंधों में काना राजा था मैं। बड़े उत्साह से भोपाल में एम सी ए करने का सपना लेकर पापा से बात करने की कोशिश की मगर बात नहीं बनी।खैर। सौभाग्य से इसके बाद पापा का ट्रांसफर भोपाल हुआ तो  मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।

2003 में हम भोपाल आये। भोपाल में एम सी ए में प्रवेश से सम्बंधित जानकारी लेने के दौरान एक दिन बेरोजगार आंखों को मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का विज्ञापन नज़र आया। बड़े बड़े अफसरों वाली परीक्षा ने ध्यान खींचा। विज्ञापन देखा तो फॉर्म भरने की अंतिम तिथि दो दिन बाद थी। तत्काल फॉर्म भरा और रुचि अनुसार इतिहास विषय का चयन कर लिया। प्री की परीक्षा पास हो गया। मुख्य परीक्षा के लिए इतिहास के साथ दूसरा विषय लेना था फिर रुचि अनुसार हिंदी साहित्य लिया। तैयारी में लग गया। मेंस के पेपर अच्छे गए लेकिन रिजल्ट आने में बहुत साल लगे। उस दौरान दिल्ली आई ए एस की कोचिंग करने चला गया। लेकिन दो बार प्री निकलने के बाद भी मेंस में असफल हो जाता था। वो बहुत खीझ भरे दिन थे। मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का रिजल्ट नहीं आ रहा था और upsc क्रेक करना बूते का नहीं लग रहा। बेरोजगारी के वो दिन बड़े कष्ट वाले थे। खुद पर जितना गुस्सा उन दिनों आया उतना न उससे पहले आया, न उसके बाद।हां उन दिनों लेखन अवश्य चला और ब्लॉग भी खूब लिखे। 

वापस भोपाल आकर कोई बिजनेस करने का मन बनाया। पुस्तैनी गांव गोराखार में स्टोन क्रशर की तैयारी में लग गया। कई दफ्तरों के चक्कर लगाए। ये 2007 की बात है।

उसी साल मप्र पीएससी की मेंस का रिजल्ट आ गया। मैं सफल हुआ । फिर साक्षात्कार की तैयारी में लग गया।  मेरा चयन वाणिज्यिक कर अधिकारी में हो गया। अब नई नौकरी, ट्रेनिंग, नए नए दायित्व ट्रान्सफर पोस्टिंग आदि में दो तीन साल गुजर गए। इस बीच एक नया बखेड़ा हो गया। मेरा विवाह हो गया। वो भी अंतरजातीय प्रेम विवाह। यानी फुल फैमिली ड्रामा। सारी मान मनौवल का सिलसिला तब रुका जब एक बेटी का पिता बन गया। इन सब के कारण लेखन में कमी आई लेकिन प्रेमिका कम पत्नी ने सदैव लिखने के लिए प्रेरित किया और रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजने लगातार कहती रही। इसी बीच मेरी दो ग़ज़लें एक साझा संकलन में प्रकाशित हो गई तो फिर से मेरी लिखने की इच्छा जागृत हुई। अब जो ग़ज़लें लिखता था वो समाचार पत्रों में प्रकाशित भी होती थी। अब इस छपास ने मुझे और लिखने के लिए प्रेरित किया। फिर ग़ज़लों का अंबार लगने लगा। खुद को शायर घोषित कर स्थानीय आयोजनों में ग़ज़ल पाठ भी करने लगा। 

प्रमोशन पाकर असिस्टेंट कमिश्नर हो गया तो शायरी में रौब भी जुड़ गया और आयोजन में अतिथि के तौर पर बड़े ठाठ से जाता था। लेकिन खोखले शायर वाला रौब अधिक दिन नहीं चल सका।  जब नेट के माध्यम से अरूज़ की जानकारी मिली तो समझ आया ग़ज़ल लिखते नहीं कहते हैं। अब अपनी औकात समझ आई। अपनी तथाकथित ग़ज़लों के ढेर को परे किया और अनुशासित रूप से नेट और किताबों के माध्यम से अरूज़ का अभ्यास करने लगा। लगभग तीन साल तक यह अभ्यास जारी रहा। 2014 में ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट से जुड़ा और वहीं काव्य की विभिन्न विधाओं का अभ्यास करने लगा। गुणीजनों का सानिध्य पाकर कुछ कुछ शायरी समझ आने लगी। इस दौरान जो ग़ज़लें कही वो 2016 में प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह अंधेरों की सुबह में संग्रहित हैं। इसके बाद जैसे जैसे शायरी समझ आती गई, ग़ज़ल कहना कम होता गया। फिर छंदों और गीतों की तरफ मुड़ा। बहुत दोहे लिखे और दोहा संग्रह का संपादन भी किया। आलोचना विधा ने आकर्षित किया तो दुष्यन्त की ग़ज़लों के शिल्प पर लिखा। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई। एक गीत संकलन प्रकाशनाधीन है। आजकल इतिहास पर कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।

मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई 
जब बच्चों को हंँसते देखा आंँखों ने आराम किया 

पापों के साए में खुद को यूं जीवित रखते हैं हम 
घट भरने की बारी आई, सीधा तीरथ धाम किया
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ये तब्सिरा शिकायतें बेकार है मियांँ 
ये मान लो कि खेलती है खेल ज़िंदगी 
तब्सिरा: आलोचना

एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने 
बात करता है जमाने से वही नेचर की
*
चाहे जिसकी जमीन पर कहिये 
शे'र अपने बयाँ से उठता है 

जो कि ममता हमेशा बरसाए 
अब्र वो सिर्फ माँ से उठता है
*
अगर दिल में ठिकाना है तो क़दमों को खबर कर दो 
ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं 

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे 
चलो तुमको हम अपने गांँव के बरगद दिखाते हैं
*
अगर दे तो मुअज्ज़िज़ फितरतन खुद्दार दुश्मन दे 
मेरे क़द का नहीं होगा तो मतलब दुश्मनी का क्या?
*
विधान जब से उड़ानों के हक़ में पारित है 
नियम भी साथ बना एक, पर कुतरने का


जब मैंने उनके उस्ताद के बारे में पूछा तो उन्होंने लिखा कि मैं अपनी ग़ज़लें ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट पर पोस्ट करता था जहां कई उस्तादों की इस्लाह मिल जाती थी। दरअसल उस वेबसाइट पर सीखने सीखने की एक स्वस्थ्य परंपरा में सभी अभ्यासी भी थे और उस्ताद भी। सभी एक दूसरे की कमियाँ बताकर ग़ज़लों को ठीक कर लेते थे। जितना मैंने अरूज़ पढ़ा था और जो वेबसाइट पर अरूज़ के हवाले से इस्लाह मिली उसी के आधार पर लगा कि अब ग़ज़लें व्याकरण के हिसाब से काफी हद तक सही कह रहा हूँ। ये तो हुई कला पक्ष की बात लेकिन भाव पक्ष के संबंध में अभी ठोस कुछ कह नहीं सकता।
 
भोपाल के हिंदी भवन, स्वराज भवन, दुष्यन्त कुमार संग्रहालय आदि में हुए कवि सम्मेलनों में रचना पाठ का अवसर मिला है। मैंने "ओपन बुक्स ऑनलाइन भोपाल चैप्टर" नाम से एक संस्था बनाई थी जिसमें प्रतिमाह आयोजन होते थे। इस संस्था के अध्यक्ष स्वर्गीय जहीर कुरैशी साहब थे और मैं महासचिव। ज़हीर साहब का एक लंबे अरसे तक आशीष मिला। एक बड़े शायर की सादगी का गवाह रहा हूँ। उनके घर भी घंटों बैठा करते और ग़ज़ल से शुरू हुई चर्चा साहित्यिक दुनिया से समाज और राजनीति तक कब पहुंच जाती थी, पता ही नहीं चलता था। जहीर साहब मुझे उत्साहित करने के लिए अक्सर कहते थे मिथिलेश जी आप कभी कभी बड़ा शेर कह जाते हैं। उन जैसे बड़े शायर का स्नेह मिलना बड़ी बात थी मेरे लिए।
 
पसंदीदा शायरों के बारे में पूछने पर उन्होंने मुझे लिखा 'मुझे शायरों में ग़ालिब और दुष्यन्त बहुत पसंद है। ग़ालिब मुग्ध कर लेते हैं और दुष्यन्त झिंझोड़ देते हैं। ग़ालिब अपने समय से आगे के शायर थे और दुष्यन्त अपने समय के प्रामाणिक दस्तावेज।'

वर्तमान में हो रही शायरी पर उनकी टिप्पणी बहुत उल्लेखनीय है वो 'आजकल जो वास्तव में शायरी हो रही है वह तो बहुत बढ़िया है। शायर अपने समय को अभिव्यक्त करने के लिए नए प्रतीक, नए बिम्ब गढ़ रहा है और उनकी शायरी युगबोध से भरपूर दिखाई देती है। लेकिन जहां शायरी के नाम पर कुछ भी लिखा, पढ़ा और छापा जा रहा है वहां थोड़ा दुख होता है। शायरी के नाम पर केवल लिखने के लिए लिखना उचित नहीं है। हर विधा का अपना शिल्प और ढंग होता है, केवल नारेबाजी के लिए गलतियों को नए प्रयोग कहना ठीक नहीं है।'

आप मिथिलेश जी को उनके मोबाईल न 9826580013 पर फोन कर जरूर बताएं कि आपको उनकी शायरी कैसी लगीं उनकी शायरी का अंदाज़ कैसा लगा ,यकीन मानें वो स्वस्थ आलोचना को बहुत प्राथमिकता देते हैं और हाँ यदि आपको उनकी शायरी पसंद आयी हो तो आप उन्हें बधाई दें। मैं मिथिलेश का आभारी हूँ क्यूंकि ये पोस्ट मिथिलेश जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी। आखिर में पेश हैं उनकी कुछ और ग़ज़लों से लिए चुनिंदा शेर :
 
मुझे मंदिर की घंटी ने सवेरे प्रश्न पूछा है
कि मस्जिद में जो मीरा का भजन होगा तो क्या होगा

नगर जिसमें सभी पाषाण मन के लोग रहते हैं
मुझे मालूम है मेरा रूदन होगा तो क्या होगा
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एक जुमले ने नई पौध को भी मारा है
अब न वो लोग, न वैसा है जमाना बाक़ी
*
सर्जना भी अब कहांँ मौलिक रही
जो पढ़ेंगे आप वो साभार है

हम गगन के स्वप्न में खोए रहे
और खिसका जा रहा आधार है
*
ज़ियारत क्या, परस्तिश क्या, अक़ीदत क्या, इबादत क्या
किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा