Monday, May 27, 2024

किताब मिली - शुक्रिया- 2

(ये पोस्ट फेसबुक के मापदंडों के अनुसार लंबी की श्रेणी में आएगी। अत: मेरा अनुरोध है कि इसे सिर्फ़ वही लोग पढ़े जिनके पास समय है और जो शायरी से "बेपनाह" मोहब्बत करते हैं। "बेपनाह" शब्द पर गौर करें मीलार्ड 🙏)

उत्तर प्रदेश का शहर 'रामपुर' जिसके अदब नवाज़ नवाबों के यहां कभी 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'दाग़ देहलवी' और 'अमीर मिनाई' जैसे शायरों ने वज़ीफ़े पाए, जिसका हर दूसरा बाशिंदा या तो शेर कहता या सुनता हुआ मिल जाएगा, जिसकी 'रज़ा लाइब्रेरी' दुनिया भर में मशहूर है उसी शहर 'रामपुर' के एक ऐसे परिवार में जहां शेर ओ सुखन का माहौल था 11 जून 1980 को हमारे आज के शायर का जन्म हुआ।

ढूंढने से ख़ुदा तो मिलता है
किसको मिलता है ये ख़ुदा जाने
*
दर्द घनेरा हिज़्र का सहरा घोर अंधेरा और यादें
राम निकाल ये सारे रावण मेरी राम कहानी से
*
उसके हाथ में ग़ुब्बारे थे फ़िर भी बच्चा गुमसुम था
वो ग़ुब्बारे बेच रहा हो ऐसा भी हो सकता है
*
परिंदों पर न तानो इसको लोगो
ये टहनी थी कमां होने से पहले
*
आगे बढ़ने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं बात करीब 3 साल से ज्यादा पुरानी है, जब मैं अपने ब्लॉग 'नीरज' के लिए जनाब 'सबाहत आसिम वास्ती' साहब की किताब 'लफ्ज़ महफूज़ कर लिए जाएं' पर लिखने की सोच रहा था।मेरी लाख कोशिशें के बावजूद भी जब मुझे जो जानकारी 'वास्ती' साहब के बारे में चाहिए थी वो कहीं से नहीं मिली तो मैंने जनाब 'सालिम सलीम' साहब को अपनी परेशानी बताई, उन्होंने आनन फानन में जनाब  'सय्यद सरोश आसिफ' साहब का नंबर भेजा और कहा की आप इनसे बात कर लें क्योंकि 'वास्ती' साहब सरोश साहब के उस्ताद हैं।

मैं यह बात 'वास्ती' साहब की किताब पर लिखी अपनी पोस्ट पर भी कर चुका हूं और यहां फिर से दोहराना चाहता हूं की 'वास्ती' साहब मेरी नजरों से गुज़री करीब पांच सौ से ज्यादा ग़ज़लों की किताबों में से ऐसे अकेले शायर हैं जिन्होंने अपनी किताब अपने शागिर्द के नाम की है।

तो आइए बिना वक्त जाया किए अब हम 'सय्यद सरोश आसिफ़' की ग़ज़लों की किताब, 'ख़ामोशी का मौसम' जिसे 'रेख़्ता बुक्स' ने प्रकाशित किया है, के सफ़हे पलटें। 

ख़ुशी है ये कि मेरे घर से फोन आया है 
सितम है ये कि मुझे खै़रियत बताना है
*
हमें जला नहीं सकती है धूप हिजरत की
हमारे सर पे ज़रूरत का शामियाना है
*
सभी जन्नत में जाना चाहते हैं 
ये दोज़ख़ के लिए अच्छा नहीं है

'रामपुर' के पास 'शाहाबाद' में शुरुआती स्कूली पढ़ाई के बाद आसिफ़ साहब दिल्ली आ गए और वहां से एमबीए की पढ़ाई मुकम्मल की। कुछ साल दिल्ली में नौकरी करने के बाद सन 2004 में उन्हें दुबई के एक बैंक में नौकरी मिल गई और वो दुबई चले गए। इन दिनों आप अबू धाबी के एक बड़े बैंक में आला अफसर हैं और अबू धाबी में ही रहते हैं। शायरी में दिलचस्पी की वजह से उनकी मुलाकात अबू धाबी के मशहूर डॉक्टर 'सबाहत आसिम वास्ती' साहब से हुई, जिनकी रहनुमाई में उनकी शायरी परवान चढ़ी।

बकौल 'सय्यद सरोश आसिफ़' साहब "अबू धाबी का अदबी माहौल बहुत अच्छा था। यहां की अदबी फ़जा में लोग आपस में मिलकर निशस्तें करते, लिटरेचर पर, नई किताबों पर, किसी शायर की ग़ज़ल पर या अदब की दूसरी किसी सिन्फ़ पर खुलकर गुफ्तगू किया करते थे। अदब को लेकर अबू धाबी में सबकुछ था सिवाय अंतरराष्ट्रीय मुशायरों के। दुबई में जहां लगातार मुशायरे होते थे वहीं आबूधाबी में साल में सिर्फ एक ही बड़ा अंतरराष्ट्रीय मुशायरा होता था और उसमें भी लोकल शायरों को शिरकत का मौका नहीं मिलता था।"

सन 2019 में 'डा. वास्ती' और 'सय्यद सरोश आसिफ़' साहब ने लोकल टैलेंट को बढ़ावा देने, वहां के युवाओं को अपने कल्चर की अलग अलग सिन्फ़ जैसे ड्रामे, अफ़साने, किस्सागोई, खाने, संगीत आदि से रुबरु करवाने की ग़रज़ से 'कल्चरल कारवां' नाम से एक ऑर्गेनाइजेशन का आगाज़ किया जिसमें उन्होंने बहुत बड़ी तादाद मे वहां के अदब नवाज़ लोगों को इसके साथ जोड़ा। इस आर्गेनाइजेशन के तहत आबूधाबी में सन 2022 में गल्फ का पहला 'उर्दू लिटरेचर फेस्टिवल' हुआ जो बेहद कामयाब रहा। ये फेस्टिवल उतनी ही धूमधाम से 2023 में भी हुआ और अब अक्टूबर 2024 में भी होने जा रहा है। इसी फेस्टिवल के तहत हुए मुशायरों में दुनियाभर से आए मशहूर शायरात के साथ आबूधाबी के लोकल शायरों ने भी शिरकत की और सामईन से भरपूर दाद हासिल की ।

वस्ल तो कम उम्री में जान गंवा बैठा
हिज़्र हमारा अमृत पी कर आया है
*
सांस मंजिल से क़ब्ल फूल गई 
तेज चलने का है ये कम ख़मयाज़ा
*
काश खो जाते किसी मेले में हम 
और फिर जी भर के मेला देखते
*
पेड़ पे तुमने इश्क़ लिखा था मेरी बाइक की चाबी से 
पेड़ तो कब का सूख गया वो इश्क़ हरा है जंगल में
*

यूएई में रहने वाले हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी लोग एक साथ मुशायरों में शिरकत करते हैं, मजेदार जुमले पर जोर से कहकहे लगाते हैं, अच्छे शेरों पर जमकर दाद देते हैं और कभी-कभी किसी बात पर ग़मजदा होकर साथ में आंसू भी बहाते हैं। ऊपर वाले का करम है कि उसने कहकहों और आंसू बहाने जैसे काम को सरहदों और मज़हबों में क़ैद नहीं किया बल्कि इनका ताल्लुक दिल से रखा और ये कमबख़्त दिल, किसी भी मुल्क़ या मज़हब के इंसान का हो, एक ही तरह से धड़कता है।

हमको एक और उम्र दे मौला 
लेकिन इस बार आगही के बगैर 
आगही: जागरूकता
*
बच्चे जब स्कूल से वापस आते हैं 
सड़कों का दिल भी बच्चा हो जाता है
*
जीतता हूं जिन्हें मोहब्बत से 
उनको गुस्से में हार जाता हूं
*
दिल की शैतानियों से आजिज़ हूं 
क्यों ये बच्चा बड़ा नहीं होता
*
आसिफ साहब की रहनुमा में में ही पहली बार अबू धाबी में सन 2022 में उर्दू लिटरेचर फेस्टिवल हुआ जिसमें शायरी के अलावा उर्दू ड्रामा अफसाना और किस्सा वीडियो को शामिल किया गया इस कार्यक्रम को बहुत मकबूलियत हासिल हुई ।

जूनियर स्टेट लेवल पर क्रिकेट खेलते रहे 'आसिफ़' साहब जानते हैं कि शेर कहना वैसी ही मेहनत मांगता है जैसी एक क्रिकेटर को परफेक्ट टाइम के साथ स्ट्रेट ड्राइव, कवर ड्राइव, स्क्वेअर ड्राइव या पुल शॉट लगाने के लिए करनी होती है। जरा सी कोताही या जल्दबाजी खिलाड़ी को पवेलियन का रास्ता दिखा देती है वैसे ही कमज़ोर मिसरे, भर्ती के लफ़्ज या सपाट कहन शायर को पहचान नहीं दिलवा सकती। जिस तरह किसी अच्छी शाॅट पर तालियां बजती हैं ठीक वैसे ही, अच्छा शेर भी तालियां बटोरता है।

हाथ ऊपर कर के जब घर को कहा था अलविदा 
तब हमें कब ये ख़बर थी हाथ से घर जाएगा
*
किसी का साथ अच्छा लग रहा है 
मुझे दुनिया बुरी लगने लगी है
*
आवाजों को सोच समझ कर ख़र्च करो
ख़ामोशी का मौसम आने वाला है
*
अब मुझे तैरना सिखाओगे 
अब तो सर से गुज़र गया पानी

'ख़ामोशी का मौसम' किताब आप अमेजॉन से या 'रेख़्ता बुक्स' से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। अशआर पसंद आने पर आप 'सय्यद सरोश आसिफ़' साहब को उनके व्हाट्सएप नंबर +971503053146पर दाद देना ना भूलें।



Friday, May 24, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -1


हुआ यूं कि जैसे ही मैं कल अपनी अलमारी में रखी ग़ज़लों की किताबों पर लिखने की बाबत फेसबुक पर पोस्ट डाली वैसे ही आप सबको लगा कि मैं फिर से "किताबों की दुनिया" श्रृंखला शुरू कर रहा हूं, जबकि मेरा आशय ऐसा बिल्कुल नहीं था। मैं इस बार उन किताबों को बड़े सीधे सादे संक्षिप्त शब्दों में आपके सामने रखूंगा जो मुझे मेरे मित्रों ने बड़े चाव से मुझे भेजी और मैं उनका 

माना कि ग़म के बाद मसर्रत जरूर है
लेकिन जिएगा कौन तेरी बेरुख़ी के बाद
मसर्रत:खुशी
*
किसी का दिल जो मुनव्वर न हो सके उनसे
चमकते चांद सितारों को क्या करे कोई
*
सबने हालत मरीज़ की देखी 
कोई लेकर दवा नहीं आया
*
मयकदे में नमाज़ पढ़ लेंगे
काश साक़ी इमाम हो जाए
*

दरमियाना कद, सलेटी रंग की कमीज, सफेद पजामा, काली अचकन, पैरों में कपड़े के जूते, सर्दी हुई तो सर पर फर वाली टोपी, चेहरे पर उम्र से पड़ी हुई गहरी झुर्रियां, काली गहरी आंखें, बुलंद आवाज़ और होठों पर फीकी सी मुस्कुराहट। ये पहचान थी हमारे आज की शाइर जनाब "नैरंग सरहदी" साहब की जो 6 फरवरी 1912 को पाकिस्तान के जिला डेरा इस्माइल खां के एक कस्बे मंदहरा में जन्मे और 5 फरवरी 1973 को अपना 61 वां जन्मदिन मनाने के चंद घंटे पहले ही इस दुनिया- ए-फ़ानी से कूच कर गये।

उनके बेटे 'नरेश नारंग' साहब उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि 'नैरंग साहब की  अचकन और टोपी यानी उनकी पोशाक कुछ ऐसी थी जिसे बहुत से लोग पसंद नहीं करते थे। लोगों का कहना था कि हिंदू होते हुए भी नैरंग साहब मुसलमानों जैसी पोशाक क्यों पहनते हैं और ऊपर से शायरी भी उर्दू में करते हैं। ऐसी बचकानी सोच वाले तब भी थे, अब भी हैं, खैर!! 'नैरंग सरहद' साहब ऐसी सोच वालों की परवाह नहीं करते थे उन्होंने अपने वसीयतनामा में लिखा था कि "शाइर किसी ख़ास मज़हब का क़ायल नहीं होता। अच्छा अख़लाक़ ही उसका मज़हब होता है। मेरे मरने के बाद मेरा बेटा सर न मुंडवाए और मेरे नाम से किसी मज़हबी आदमी को कुछ देना मेरे अक़ीदे के ख़िलाफ़ होगा।"

अदा हक़ कर दिया है दुश्मनी का
हमारे दोस्तों ने दोस्ती में

कहां है लायके- सोहबत किसी के 
न हो जब आदमीयत आदमी में
*
दिल में है मेरे हसरतो- अरमान ज़ियादा 
अफसोस की घर तंग है मेहमान ज़ियादा
*
जब तक कि एक दैरो-हरम का हो फ़ैसला
मेरी जबीं है और तेरा संगे-दर तो है
*
एक मंजिल के लिए सैकड़ो रस्ते हैं मगर
देखना ये है कि जाना है कहां से बाहर
*
मुल्क के बंटवारे के बाद 1947 में नैरंग साहब रेवाड़ी आ बसे। वहां के हिंदू हाई स्कूल में पहले उर्दू, फ़ारसी और बाद में पंजाबी पढ़ाते हुए, फरवरी 1972 में रिटायर हुए।

मशहूर शायर 'मुंशी तिलोक चंद 'महरूम' के शागिर्द रहे  नैरंग साहब ने शायरी बहुत कम उम्र में ही शुरू कर दी थी। उनकी हौसला अफ़ज़ाई 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़' जैसे उस्ताद शायरों ने की। 

नैरंग साहब ने रिवाड़ी के गैर शाइराना माहौल में 'बज़्मेअदब' संस्था की नींव रखी जिसमें शायरी में दिलचस्पी रखने वालों को ढूंढ ढूंढ कर जोड़ा गया। 

उनकी रहनुमाई में रेवाड़ी में कामयाब मुशायरे होने लगे जिसमें हिंदुस्तान के कई शहरों से बड़े-बड़े शायर शिरकत करने आने लगे। कुंवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' साहब की मौजूदगी में इन मुशायरों ने नई ऊंचाइयां हासिल की।

अफ़सोस, नैरंग साहब की शोहरत की खुशबू एक ख़ास इलाके में सिमट कर रह गई। तंगदस्ती की वजह से लाख चाहने के बावजूद वो अपना दीवान नहीं छपवा सके। उनके इंतकाल के 13 साल बाद 1986 में उनके बेटे 'नरेश' ने उनकी कुछ गजलों का मज्मूआ 'एक था शायर' नाम से छपवाया। मशहूर शायर जनाब 'विपिन सुनेजा 'शायक' उनके कामयाब शागिर्द हुए उन्हीं की बदौलत ये किताब " जिंदगी के बाद " मुझे दस्तयाब हुई ।

विपिन जी जो खुद एक बेहतरीन गायक हैं ने उनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है जिसे यूट्यूब पर सुना जा सकता है। 

नैरंग साहब के जीते जी तो सरकार ने उनकी सुध नहीं ली अलबत्ता उनकी मृत्यु के कई साल बाद, रिवाड़ी बस स्टैंड से उनके घर तक जाने वाले रास्ते का नाम 'नैरंग सरहदी मार्ग' रखकर उन्हें इज़्ज़त बख़्शी 

इस किताब को आप अमृत प्रकाशन शाहदरा से मंगवा सकते हैं या जनाब विपिन सुनेजा जी से 9991110222 पर संपर्क कर इस किताब के बारे में पता कर सकते हैं।

हर इक मक़ाम है तेरा हर इक तेरी मंज़िल 
कोई बता दे कि सजदा कहां-कहां करते
*
फ़क़त दीदे-बुतां से कुफ्र का इल्ज़ाम है मुझ पर 
जबीं पर मेरी ज़ाहिद देख सजदों का निशां भी है
*
मैं जितना यक़ीं करता गया अपने यक़ीं पर
उतना ही गुमां बढ़ता गया अपने गुमां में
*
आएगी मेरी याद मेरी ज़िंदगी के बाद 
होगी न रोशनी कभी इस रोशनी के बाद
*
पसे-हयात यही शे'र होंगे ऐ नैरंग 
अलावा इसके तेरी यादगार क्या होगी