हुआ यूं कि जैसे ही मैं कल अपनी अलमारी में रखी ग़ज़लों की किताबों पर लिखने की बाबत फेसबुक पर पोस्ट डाली वैसे ही आप सबको लगा कि मैं फिर से "किताबों की दुनिया" श्रृंखला शुरू कर रहा हूं, जबकि मेरा आशय ऐसा बिल्कुल नहीं था। मैं इस बार उन किताबों को बड़े सीधे सादे संक्षिप्त शब्दों में आपके सामने रखूंगा जो मुझे मेरे मित्रों ने बड़े चाव से मुझे भेजी और मैं उनका
माना कि ग़म के बाद मसर्रत जरूर है
लेकिन जिएगा कौन तेरी बेरुख़ी के बाद
मसर्रत:खुशी
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किसी का दिल जो मुनव्वर न हो सके उनसे
चमकते चांद सितारों को क्या करे कोई
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सबने हालत मरीज़ की देखी
कोई लेकर दवा नहीं आया
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मयकदे में नमाज़ पढ़ लेंगे
काश साक़ी इमाम हो जाए
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दरमियाना कद, सलेटी रंग की कमीज, सफेद पजामा, काली अचकन, पैरों में कपड़े के जूते, सर्दी हुई तो सर पर फर वाली टोपी, चेहरे पर उम्र से पड़ी हुई गहरी झुर्रियां, काली गहरी आंखें, बुलंद आवाज़ और होठों पर फीकी सी मुस्कुराहट। ये पहचान थी हमारे आज की शाइर जनाब "नैरंग सरहदी" साहब की जो 6 फरवरी 1912 को पाकिस्तान के जिला डेरा इस्माइल खां के एक कस्बे मंदहरा में जन्मे और 5 फरवरी 1973 को अपना 61 वां जन्मदिन मनाने के चंद घंटे पहले ही इस दुनिया- ए-फ़ानी से कूच कर गये।
उनके बेटे 'नरेश नारंग' साहब उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि 'नैरंग साहब की अचकन और टोपी यानी उनकी पोशाक कुछ ऐसी थी जिसे बहुत से लोग पसंद नहीं करते थे। लोगों का कहना था कि हिंदू होते हुए भी नैरंग साहब मुसलमानों जैसी पोशाक क्यों पहनते हैं और ऊपर से शायरी भी उर्दू में करते हैं। ऐसी बचकानी सोच वाले तब भी थे, अब भी हैं, खैर!! 'नैरंग सरहद' साहब ऐसी सोच वालों की परवाह नहीं करते थे उन्होंने अपने वसीयतनामा में लिखा था कि "शाइर किसी ख़ास मज़हब का क़ायल नहीं होता। अच्छा अख़लाक़ ही उसका मज़हब होता है। मेरे मरने के बाद मेरा बेटा सर न मुंडवाए और मेरे नाम से किसी मज़हबी आदमी को कुछ देना मेरे अक़ीदे के ख़िलाफ़ होगा।"
अदा हक़ कर दिया है दुश्मनी का
हमारे दोस्तों ने दोस्ती में
कहां है लायके- सोहबत किसी के
न हो जब आदमीयत आदमी में
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दिल में है मेरे हसरतो- अरमान ज़ियादा
अफसोस की घर तंग है मेहमान ज़ियादा
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जब तक कि एक दैरो-हरम का हो फ़ैसला
मेरी जबीं है और तेरा संगे-दर तो है
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एक मंजिल के लिए सैकड़ो रस्ते हैं मगर
देखना ये है कि जाना है कहां से बाहर
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मुल्क के बंटवारे के बाद 1947 में नैरंग साहब रेवाड़ी आ बसे। वहां के हिंदू हाई स्कूल में पहले उर्दू, फ़ारसी और बाद में पंजाबी पढ़ाते हुए, फरवरी 1972 में रिटायर हुए।
मशहूर शायर 'मुंशी तिलोक चंद 'महरूम' के शागिर्द रहे नैरंग साहब ने शायरी बहुत कम उम्र में ही शुरू कर दी थी। उनकी हौसला अफ़ज़ाई 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़' जैसे उस्ताद शायरों ने की।
नैरंग साहब ने रिवाड़ी के गैर शाइराना माहौल में 'बज़्मेअदब' संस्था की नींव रखी जिसमें शायरी में दिलचस्पी रखने वालों को ढूंढ ढूंढ कर जोड़ा गया।
उनकी रहनुमाई में रेवाड़ी में कामयाब मुशायरे होने लगे जिसमें हिंदुस्तान के कई शहरों से बड़े-बड़े शायर शिरकत करने आने लगे। कुंवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' साहब की मौजूदगी में इन मुशायरों ने नई ऊंचाइयां हासिल की।
अफ़सोस, नैरंग साहब की शोहरत की खुशबू एक ख़ास इलाके में सिमट कर रह गई। तंगदस्ती की वजह से लाख चाहने के बावजूद वो अपना दीवान नहीं छपवा सके। उनके इंतकाल के 13 साल बाद 1986 में उनके बेटे 'नरेश' ने उनकी कुछ गजलों का मज्मूआ 'एक था शायर' नाम से छपवाया। मशहूर शायर जनाब 'विपिन सुनेजा 'शायक' उनके कामयाब शागिर्द हुए उन्हीं की बदौलत ये किताब " जिंदगी के बाद " मुझे दस्तयाब हुई ।
विपिन जी जो खुद एक बेहतरीन गायक हैं ने उनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है जिसे यूट्यूब पर सुना जा सकता है।
नैरंग साहब के जीते जी तो सरकार ने उनकी सुध नहीं ली अलबत्ता उनकी मृत्यु के कई साल बाद, रिवाड़ी बस स्टैंड से उनके घर तक जाने वाले रास्ते का नाम 'नैरंग सरहदी मार्ग' रखकर उन्हें इज़्ज़त बख़्शी
इस किताब को आप अमृत प्रकाशन शाहदरा से मंगवा सकते हैं या जनाब विपिन सुनेजा जी से 9991110222 पर संपर्क कर इस किताब के बारे में पता कर सकते हैं।
हर इक मक़ाम है तेरा हर इक तेरी मंज़िल
कोई बता दे कि सजदा कहां-कहां करते
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फ़क़त दीदे-बुतां से कुफ्र का इल्ज़ाम है मुझ पर
जबीं पर मेरी ज़ाहिद देख सजदों का निशां भी है
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मैं जितना यक़ीं करता गया अपने यक़ीं पर
उतना ही गुमां बढ़ता गया अपने गुमां में
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आएगी मेरी याद मेरी ज़िंदगी के बाद
होगी न रोशनी कभी इस रोशनी के बाद
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पसे-हयात यही शे'र होंगे ऐ नैरंग
अलावा इसके तेरी यादगार क्या होगी
3 comments:
2 वर्ष बाद चिट्ठे पर पुँन: आगमन | स्वागत है |
अच्छा लगा
चाहे समीक्षा हो
या फिर पुस्तक परिचय
ब्लॉग गुलज़ार रहना लाजिमी है
सादर वंदन
साधुवाद। सादर प्रणाम अंकल। 🙏🙏
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