Monday, March 29, 2021

किताबों की दुनिया - 228


फटी पुरानी सियाह रात की रिदा के लिए 
अभी सुई से मुझे रोशनी गुज़ारनी है 

तमाम उम्र जुदाई की साअते नाजुक
कभी निबाहनी है और कभी गुज़ारनी है 
साअते : समय 

तो क्या यह तय है कि वो फैसला न बदलेगा 
तो क्या यह कै़द मुझे वाकई गुज़ारनी है
*
कोई कुछ भी गुमान कर लेगा 
चुप की चिलमन है गर हमारे बीच
*
बहते बहते एक दरिया से कहीं मिल जाएगा 
बारिशों के बाद पानी बे निशांं होता नहीं 

रोशनी के पैरहन में आ गई ताज़ा महक 
रात में कलियों का खिलना रायगां होता नहीं 
राएगां :व्यर्थ, बेकार

यह ख़्याले ख़ाम कब तक थपकियाँ देता रहे 
जो यहां पर हो रहा है वो कहां होता नहीं

मोअतबर ठहरा वही आबादियों की आंख में 
लफ़्ज़ के चेहरे से जो मानी बयां होता नहीं
*
खुद है मुश्किल पसंद मुश्किल में
उसकी मुश्किल कुशाई ही मुश्किल है 
मुश्किल कुशाई: मुश्किल से निकलना

मंजिलों तक पहुंचने वालों ने 
जो रियाज़त बताई मुश्किल है 
रियाज़त :मेहनत

मुश्किलों से निकल के जान लिया 
मुश्किलों से रिहाई मुश्किल है

आज मौसम कुछ ज्यादा ही खुशग़वार था, यूँ तो नैरोबी में अमूमन मौसम खुशग़वार ही रहता है लेकिन जुलाई से अक्टूबर तक बाकि महीनों से कुछ ज्यादा ठंडा। सूट पहने हुए बुजुर्ग ने अपनी टाई को ठीक किया और अपने लग्ज़री आफ़िस की सीट से उठ कर सामने लगी शीशे की विशाल दीवार से पर्दा हटा कर बाहर देखने लगा। 75 साल की उम्र के बावजूद इस बुजुर्ग़ के चेहरे की चमक नौजवानों को मात कर रही थी। ऑफिस के मेन गेट से बाहर वाली सड़क पर कारें तेजी से आ जा रहीं थी। 'सर आपकी कॉफी' बुजुर्ग की सेकेट्री ने ऑफिस में अंदर आते हुए कहा 'इसे आपकी मेज़ पर रख दूँ ?' बुज़ुर्ग ने बिना चेहरा घुमाये बाहर देखते हुए कहा ,नहीं मुझे यहीं देदो, सुबह से सीट पर बैठे-बैठे थक गया हूँ। सेकेट्री, कॉफी का मग बुज़ुर्ग को पकड़ा कर धीरे से ऑफिस के बाहर चली गयी। मग से उठती कॉफी की खुशबू से उसके ज़ायके का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। बुज़ुर्ग ने हलके से एक सिप लिया और मुस्कुराया। कॉफी बेहद ज़ायकेदार थी। अगला सिप लेते वक्त उसने देखा कि सड़क पर एक बच्चा अपने साथ सूट बूट में चल रहे रोबीली शख़्सियत के एक बुजुर्ग की ऊँगली थामे उछलता हुआ चल रहा है। बुजुर्ग की आँखें बच्चे के साथ चल रहे बुज़ुर्ग पर टिक गयीं। अरे मेरे नाना जान भी बिलकुल ऐसे ही थे। 

'नाना' का ध्यान आते ही बुज़ुर्ग की यादों में सियालकोट की वो कोठी आ गयी जिसके बरामदे की आराम कुर्सी पर उसके नाना हुक्का गुड़गुड़ाते हुए किसी से बतिया रहे थे।'अस्सलाम वालेकुम' नाना ,बुज़ुर्ग जो उस वक़्त 22 साल के नौजवान थे, ने कहा। 'वालेकुम अस्लाम' बरख़ुरदार जीते रहिये। मुबारक़ हो सुना है तुम्हारा पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से बी फार्मेसी का रिजल्ट आया है'। नाना मुस्कुराते हुए बोले। 'जी , ठीक सुना है आपने तभी तो आपके लिए आपकी पसंदीदा मिठाई लाया हूँ ' कहते हुए नौजवान ने पीठ पीछे छुपाया मिठाई का डिब्बा आगे करते हुए कहा। नाना ने एक टुकड़ा मुंह में डाला और मुस्कुराते हुए सामने बैठे शख़्स को देते हुए बोले 'ये नौजवान मेरा नवासा है'। 'नाना ,आप रिजल्ट क्या आया पूछेंगे नहीं ? युवक ने हैरान होते हुए पूछा। 'पहले कभी पूछा है जो आज पूछूँ ?' नाना हँसते हुए बोले। 

अब हैरान होने की बारी नाना के सामने बैठे शख़्स की थी वो नाना की और मुख़ातिब होते हुए बोला  'मियां जमशेद अली राठौर साहब आप पूछेंगे नहीं कि रिज़ल्ट क्या रहा ? 'यार रहमत अली कम से कम मेरा नाम तो पूरा बोला करो बोलो जमशेद अली राठौर पी.एच.डी.। , सियालकोट में जमशेद अली राठौर हज़ारों होंगे लेकिन पी.एच.डी. मैं अकेला हूँ, नाना ठहाका लगाते हुए बोले। 'बेशक बेशक' सकपकाते हुए रहमत साहब ने फ़रमाया 'मैं आइंदा इस बात का ख़्याल रखूँगा। 'मियां रहमत जिस नौजवान का नाना पी.एच.डी हो और जिसके ख़ानदान की निस्बत 'अल्लामा इक़बाल' से हो उस से मैं रिजल्ट पूछूँ ? लानत है , नाना मुस्कुराते हुए बोले 'हमारे यहाँ इम्तिहान का नतीजा नहीं पूछा जाता सिर्फ पोज़ीशन पूछी जाती है,और मैं इसकी शक्ल देख कर बता सकता हूँ कि इसे फर्स्ट पोज़ीशन मिली है  क्यों बरख़ुरदार ? ' ' जी आप ने सही कहा' नौजवान ने कहा। नाना उठे और अपने नवासी को गले लगा लिया। 

याद है वो आशना जो उन्स आंखों में भरे 
राह तकता था किसी की खिड़कियों की ओट से

क्या शरीके ज़ात है कुछ साअतों का आदतन 
देखना मीठी नज़र से तल्ख़ियों की ओट से 

रात चिड़ियां जुगनुओं से क्यों तलब करती रहींं 
कुछ तसल्ली की शुआएं डालियों की ओट से 

मैली मैली इस फिज़ा में चांद भी खदशे में है 
मुश्किलों से झांकता है बादलों की ओट से
*
बस्ती, दरिया, सहरा, जंगल देख चुके तो सीखा है
शब में तन्हा चलते रहना, डर में सोच समझ कर रहना

जानी पहचानी शक्लें हैं देखे भाले से हथियार 
हमला आवर घर वाले हैं, घर में सोच समझ कर रहना
*
फ़क़त तुम्हारा नहीं इसमें मेरा ज़िक्र भी है 
गये दिनों की मोहब्बत को मोअतबर रखना 

वफ़ा की बात मुफ़स्सल बयान करनी है 
अदावतों की कहानी को मुख़्तसर रखना
मुफ़स्सल: विस्तृत, ब्योरे से

मुझे खबर है तुझे आंधियो का खौफ नहीं 
मगर संभाल के अल्फ़ाज़ज का यह घर रखना
*
ज़मींं पे ख़ाक की चादर बिछाने वाले ने 
बुलंदी आंख में रक्खी तो साथ डर भी दिया
*
इस ग़म को ग़मे यार का हासिल न कहो तुम
 ये दायमी ग़म मेरी तबीअत का सिला है
दायमी: चिरस्थाई

बुज़ुर्ग कॉफी का मग लिए ऑफिस में करीने से लगे ख़ूबसूरत सोफे पे बैठ गए. यादों का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ तो उसने रुकने का नाम ही नहीं लिया। बी-फार्मा  करने के बाद नौजवान ने पाकिस्तान की फार्मेसी कंपनियों में मुलाज़मत की लेकिन दिल को तसल्ली नहीं मिली। हर जगह करप्शन का बोल बाला दिखा। नौजवान के वालिद मोहतरम मोहम्मद बशीर बट सियालकोट में डिप्टी सैटलमेंट कमिश्नर थे हज़ारों को उन्होंने प्लाट एलाट किये, अगर वो चाहते तो अपने अपने रिश्तेदारों को एक नहीं कई प्लाट दिला देते लेकिन नहीं न उन्होंने अपने लिए कोई प्लाट लिया न अपने किसी रिश्तेदार को दिलवाया। ऐसे वालिद की औलाद का करप्शन से कोई नाता कैसे हो सकता था। पढ़े लिखे नाना, एम ऐ पास वालिद और बी ऐ पास वालिदा ने उनकी तरबियत में ईमानदारी घोट कर मिला दी थी। नौजवान को अच्छे से याद है जब एक दिन उनके वालिद ने उन्हें कहा था कि "बरख़ुरदार वसीम बट ज़िन्दगी में कितनी भी मुश्किलें आयें ,सह लेना लेकिन याद रखना जब कभी मुँह में लुक्मा डालो वो हलाल का हो, लफ्ज़ सच का हो और अमल में दियानतदारी हो।" वो दिन है और आज का दिन वसीम ने वालिद की इस सीख का हमेशा पालन किया है। 

ये मेरी तारीख़ का तारीक पहलू बन गया 
मैं रहा ग़ाफिल उसी से जो मेरे नज़दीक था 

रात भर अहबाब मेरे दिल को बहलाते रहे 
एक चेहरे की कमी थी वरना सब कुछ ठीक था
*
मैं एक उम्र से तेरे दिलो दिमाग़ में हूं 
मुझे कुबूल न कर मेरा एअतेबार तो कर
*
पुर सुकूं कितना था वो जब फ़ासले थे दरमियां 
रंग फीका पड़ गया अब कुर्बतों के ख़ौफ़ से 
कुर्बत: निकटता 

जब सरे महफ़िल अना की मुफ़्त सौगातेंं बटींं 
बा वफ़ा सारे अलग थे रंजिशों के ख़ौफ़ से 

ना गहानी सानहों के हो गए वह भी शिकार 
घर से जो बाहर न निकले हादसों के ख़ौफ़ से
ना गहानी सानहे: अचानक होने वाली दुर्घटना
*
कैसी मुश्किल में आ गया है वो 
जिसको आसानियाँ समझनी हैंं 

बस्तियों की चहल-पहल देखूं 
घर की वीरानियां समझनी हैंं 

मुझको खुद से तो आशनाई हो 
अपनी नादानियां समझनी हैंं
*
जब अंधेरों ने पुकारा घर से बस हम ही गये 
अब उजालों ने बुलाया है तो हमसाये गए
हमसाये: पड़ौसी

वालिद की अचानक हुई वफ़ात से नौजवान वसीम पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। आठ छोटे बड़े भाई बहनों को उन्हीं का सहारा था। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और तब तक राहत की सांस नहीं ली जब तक उन्होंने अपनी सारी जिम्मेवारियां पूरी नहीं कर लीं। 

सं 1974 में अचानक किस्मत ने करवट ली और वो पाकिस्तान छोड़ कर कीनिया के नैरोबी शहर में आ गए। बुज़ुर्ग, जो अब वसीम बट वसीम के नाम से पूरे कीनिया में जाने जाते हैं, कॉफी के मग को गौर से देखते हुए फिर यादों के गलियारों में गश्त करने लगते हैं। उन्हें नैरोबी में बिताये शुरू के संघर्ष के दिन अच्छे से याद हैं जब एक अजनबी शहर में अपने पाँव जमाने के लिए रात दिन कितनी जद्दोजहद की थी। कोशिशों का नतीजा अच्छा निकला उन्होंने दो साल की अथक मेहनत के बाद 'ग्लोब फार्मेसी' के नाम से कम्पनी खोली और 1977 में पूर्वी अफ्रीका में इंजेक्शन बनाने का पहला कारखाना लगाया। 

ईमानदारी सच्चाई और दयानतदारी के चलते कारोबार में बरकत होने लगी। इसी दौरान वसीम साहब को शायरी का शौक चढ़ा। यूँ शायरी वो सियालकोट में सं 1973 से ही करने लगे थे लेकिन एक बार नैरोबी में जब उनके पाँव जम गए और घर के सभी लोग खुशहाल ज़िन्दगी जीने लगे तो ये शौक़ परवान चढ़ता गया। नतीज़तन उनकी शायरी की पहली किताब 'धनक के सामने' सं 2001 में लाहौर से प्रकाशित हुई। इस किताब ने दुनिया भर में फैले उर्दू प्रेमियों को बहुत प्रभावित किया।  देश विदेश में फैले उर्दू साहित्य के आलोचकों ने इस किताब पर प्रशंसात्मक लेख लिखे जिनमें जयपुर के जनाब फ़राज़ हामिदी भी शामिल हैं। फ़राज़ साहब को वसीम साहब की शायरी पढ़ कर ख़्याल आया कि इसे उन लोगों तक भी पहुँचाया जाना चाहिए जो उर्दू नहीं पढ़ सकते लिहाज़ा उन्होंने इस किताब का हिंदी में लिप्यांतरण किया और फिर अपनी इस ख़्वाइश का इज़हार करते हुए वसीम साहब से फोन पर इस किताब को हिंदी में प्रकाशित करने की इज़ाज़त मांगी जो वसीम साहब ने ख़ुशी से दे दी। नवम्बर 2008 में अदबी दुनिया पब्लिकेशन जयपुर से इसका प्रकाशन हुआ।नवम्बर 2008 में अदबी दुनिया पब्लिकेशन जयपुर से इसका प्रकाशन हुआ। अफ़सोस की बात है कि अब अदबी दुनिया प्रकाशन में अब ये किताब उपलब्ध नहीं है , आपकी किस्मत बुलंद हो तो हो सकता है आपको ये किसी बड़ी लाइब्रेरी में मिल जाए। 


मुझे यह वहम था हमसाये पानी लाएंगे 
मैं वरना घर में लगी आग बुझने क्यों देता 

पुरानी सोच की सादा हथेलियों पे कभी 
नए खयाल की मेंंहदी लगाने क्यों देता
*
जो रो रहे थे, वो पत्ते थे, ख़्वाब थे, क्या थे 
मैं कच्ची नींद से जागा तो चल रही थी हवा 

उसी मुक़ाम से अपनी उड़ान तेज़ हुई
कि जिस मुक़ाम पे लहजा बदल रही थी हवा
*
बस एक बात मेरी उसको नापसंद रही 
कि मेरी सोच का एक ज़ाविया अलग सा है

खुशी की दस्तकें मुझसे ही क्यों गुरेज़ां हैं 
लिखा जो दर पे है शायद पता अलग सा है
*
मैं अपने आप को अक्सर झिड़क भी देता हूं 
तभी तो मुझसे मेरी बात बनती जाती है 

वही दरख़्त है अब भी सफेद फूलों का
मगर तने से वो तहरीर मिटती जाती है 

ये आसमान तो सदियों से अपना दुश्मन था 
जमींं भी पांव तले से निकलती जाती है
*
इतनी सारी राहतों को अब न भेजो एक साथ 
सुख को सहने की अनोखी आदतें होने तो दो

अचानक टेबल पर पड़े फोन की घंटी बजने से बुज़ुर्ग वसीम बट साहब की यादों का सिलसिला टूटा। कॉफी का मग टेबल पर रखते हुए फोन उठाया और धीरे से बोले 'हैलो वसीम दिस साइड' दूसरी तरफ सेकेट्री थी बोली 'कल शाम चार बजे केन्या उर्दू सेंटर के सदस्य आपकी सदारत में एक मीटिंग करना चाहते हैं उनको आपसे मंज़ूरी चाहिए ,क्या बोलूं ? वसीम साहब ने एक पल सोचा और कहा 'मंज़ूरी देदो'। सन 1992 में जब वसीम साहब ने केन्या उर्दू सेंटर की बुनियाद रक्खी तो किसी ने नहीं सोचा था कि ये सेंटर चलेगा, क़ामयाबी तो दूर की बात है। ये सेंटर आज भी चल रहा है और यहाँ बच्चों को उर्दू की बाक़ायदा तालीम देने के लिए क्लासेस चलाई जाती हैं। जिसके अपने मुल्क़ के बच्चों में उर्दू पढ़ने लिखने का शौक धीरे धीरे कम होता जा रहा है वहीँ एक ऐसे मुल्क़ में जहाँ उर्दू न बोली जाती है न समझी ये शख़्स पिछले 30 सालों से बच्चों को इसे सिखाने के लिए सेंटर चला रहा है। उर्दू सेंटर की तरफ़ से समय पर होने वाले सेमीनार, ड्रामा और मुशायरे उर्दू ज़बान को केन्या में ज़िंदा रखे हुए हैं। मीर ग़ालिब इक़बाल और फैज़ पर हुए ख़ास प्रोग्राम आज भी केन्या वासियों की याद में ताज़ा हैं। 

सच की मशअल हाथ में है आंधियों की ज़द में हूं 
दुश्मनों से लड़ रहा हूं दोस्तों की ज़द में हूं 

सर छुपाना था मुकद्दम हादसों को भूलकर 
आईनोंं की छत चुनी थी किरचियों की ज़द में हूँ 
मुकद्दम: पुराने

क्या जरूरी है कि जो मैं चाहता हूं वो मिले 
रोशनी का घर बनाकर जुल्मतों की ज़द में हूँ
*
उलझनों से अब रिहाई सोचते हो, देख लो 
गर्दनों में निस्बतों की भारी जंजीरे भी हैं 
निस्बत: लगाव
*
बे ख़बर आराम की चादर लपेटे सो गए 
जागते बिस्तर में तन्हा बा ख़बर मुश्किल में है

वसीम साहब  के बारे में इफ़्तेख़ार आरिफ़ साहब ने लिखा है कि ' वसीम बट्ट की शायरी के अशआर पढ़ते वक़्त ये ख़्याल भी नहीं आता कि वो कितने अर्से से वतन और एहले वतन से दूर हैं।  ऐसा मालूम होता है कि उनके अशआर का इलाक़ा अपने मुले सुख़न की मानूस और आशाना सरहदों ही में कहीं वाक़ेअ है। अपनी ज़मीने निकालना और नए ख्यालो नये मिज़ाज की शायरी करना वसीम की तख़्लीक़ी सुरवत मंदी की मोतबर गवाहियाँ हैं।' 
जनाब अमजद इस्लाम अमजद साहब लिखते हैं कि ' मेरे इल्म के मुताबिक़ वसीम अफ्रीक़ा के पहले ऐसे साहिबे दीवान शाइर हैं जिनका कलाम पूरे एतेमाद के साथ और बगैर किसी रिआयत के हम अस्र शाइरी के नुमाइन्दा नमूनों के साथ रखा जा सकता है। 
लाख कोशिशों के बावजूद मुझे वसीम साहब का कलाम इंटरनेट पर हिंदी लिपि में कहीं नहीं मिला और तो और 'रेख़्ता' की साइट पर भी वो मुझे कहीं नज़र नहीं आये जहाँ हज़ारों छोटे बड़े शायरों का क़लाम पढ़ा जा सकता है। उनके बारे में कोई जानकारी भी कहीं से हासिल नहीं हो पायी। लिहाज़ा किताब में जो जानकारियां थीं उन्हीं को कल्पना का सहारा ले कर आपके सामने पेश किया है। 
आखिर में उनके कुछ और शेर आपको पढ़वाता हूँ :   

तेरी चश्मे तर में रहना 
जैसे एक सफ़र में रहना 

सब दीवारें रोशन करके 
डर के पस मंज़र में रहना 

मेरी तन्हाई की रौनक 
दीमक का इस दर में रहना 

आंखों पर इक पट्टी बांधे 
ख़्वाबों के बिस्तर में रहना
*
अपने नाम से पहले कोई नाम लिखा 
फिर उस काग़ज़ पर दिन भर का काम लिखा 

जलती रेत के रेज़े कितने बेकल थे 
धूप की तख़ती पर जब लफ़्ज़े आराम लिखा 
*
बजा के अपने ठिकाने से हट के रहता है 
मगर ये दर्द है आख़िर पलट के रहता है 

वो शख़्स जिस की हदें दूरियों से मिलती हैं 
अजीब बात है दिल में सिमट के रहता है 
*
ये मोअजिज़ा भी दिखाते हैं अब हुनर वाले 
भले न आग लगे पर धुआं बना लेना

ग़मों की धूप में ताजा हवा जरूरी है 
खुशी के घर में जरा खिड़कियां बना लेना








Monday, March 15, 2021

किताबों की दुनिया - 227

जब कलम ने तालियों की चाह में लिक्खी ग़ज़ल 
तब किताबों से निकलकर मीर ने रोका मुझे 

चंद सिक्कों की खनक पर डगमगाया जब कभी 
पर्स में रक्खी तेरी तस्वीर ने रोका मुझे 

बोलते लब रोक ना पाए मेरे क़दमों को तब 
मौन आंखों से छलकते नीर ने रोका मुझे
*
जवाबों से दो चार होना सरल है 
कठिन है निकलना सवालों से होकर
*
आंसू पीकर हंँस देने को 
सचमुच में हँसना समझूँ क्या

तुम कहती हो प्यार है मुझसे 
मुझको है उतना समझूं क्या
*
सियासी लोग बहरे तो न थे पर 
उन्हें हर लब पे ताला चाहिए था
*
वो जवानी और थी जो सर कटाना चाहती थी 
ये जवानी सिर्फ़ अपना सर बचाना चाहती है
*
खुद को खुद में ढूँँढना होगा सरल 
तू अगर साँँचों में ढलना छोड़ दे
*
तब मुझे आभास होता है स्वयं की जीत का 
जब किसी जलते दिये से हार जाती है हवा

'कहिये क्या परेशानी है' ?डॉक्टर ने चश्मा आँखों पर ठीक करते हुए अपना पैड निकाल कर पूछा। 'डॉक्टर साहब यूँ तो कोई परेशानी नहीं है बस कभी सर में तेज दर्द होता है ,कभी हल्का धुंधला दिखाई देने लगता है और रात में कभी कभी नाक से पानी आ जाता है।' डॉक्टर ने ध्यान से बात सुनी फिर सामने बैठे मरीज से कहा कि 'देखिये आपको इस पानी का सेम्पल टेस्ट करवाना पड़ेगा।' जवाब मरीज की पत्नी ने दिया 'डॉक्टर साहब नाक से आये पानी की वजह से रात में जब तकिया गीला हो जाता है तब पता लगता है, ऐसे में सेम्पल कैसे लें ? ये थोड़े पता चलता है कि कब पानी आएगा।' डॉक्टर ने पैड पर कुछ लिख कर उस कागज़ को फाड़ कर मरीज को देते हुए कहा ' ये डायगनोस्टिक सेंटर का नाम पता है आप वहां चले जाएँ वो अपने आप सेम्पल ले लेगा, जब रिपोर्ट आ जाये तो मुझे दिखा दें। ' मरीज की पत्नी के चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा 'आप कोई टेंशन न लें, सब ठीक होगा।' डॉक्टर के इस तरह दिए कथन से कब किसी भारतीय पत्नी की चिंता कम हुई है जो अब होती ? पति की बीमारी से चिंतित पत्नी तब तक चिंतित रहती है जब तक वो पूर्ण रूप से ठीक नहीं हो जाता।

डायगनोस्टिक सेंटर से आयी रिपोर्ट को देख कर इस बार डॉक्टर ने चश्मा उतार कर टेबल पर रखते हुए मरीज से कहा कि 'आपकी नाक से सेरीबो स्पाइनल फ्लूइड (सी एस एफ )आ रहा है।' स्त्रियों का सिक्स्थ सेंस ग़ज़ब का होता है इसी के चलते मरीज की पत्नी समझ गयी कि मामला गड़बड़ है,तुरंत घबराते हुए पूछा ' सेरीबो स्पाइनल फ्लुइड ? ये ठीक तो हो जायेंगे न ?' डॉक्टर ने, जितना वो सहज हो सकता था सहज होते हुए, कहा ' जी बिल्कुल ठीक हो जायेंगे' .मरीज ने सहजता से पूछा कि ये बीमारी आखिर है क्या ?' डॉक्टर ने अपने पैड पर दिमाग का स्केच बनाया और समझाने लगा कि 'देखो हमारे सर में एक झिल्ली होती है जिसमें ये लिक्विड भरा रहता है ,किसी कारणवश अगर झिल्ली में कहीं दरार आ जाये या उसमें छोटा सा छेद हो जाए तो वो लिक्विड नाक के रास्ते बाहर आने लगता है।' पत्नी ने आधी बात ही सुनी और वो सुबकने लगी। मरीज अलबत्ता शांत भाव से डॉक्टर की बात सुनता रहा आखिर में डॉक्टर ने कहा कि 'मैं ये दवा आपको लिख कर देता हूँ इसे एक हफ्ते तक लगातार लें और फिर मुझसे मिलें '। मरीज ने उत्साह से दवाएं लेनी शुरू कीं  और एक हफ़्ता इसी उम्मीद में बीत गया कि आज नहीं तो कल डॉक्टर की दी हुई दवाऐं असर दिखाऐंगी ही। 

अफ़सोस कि हफ्ता बीतने के बाद भी मरीज की दशा में जरा भी फर्क नहीं पड़ा। नाक से पानी जैसे द्रव का बहना और पत्नी का चिंतित रहना बदस्तूर जारी रहा।  
               
जरा सा भी तो खारापन नहीं देता है बादल को 
समंदर खुश है नदियों से मिली सौगात को लेकर 
*
वृक्ष के देवत्व को स्वीकार करके जो चला था 
वह प्रगति रथ आ चुका है लौह निर्मित आरियों तक
 
वक्त रहते छोड़ दो कुंठा घृणा के रास्तों को 
अन्यथा यह ले चलेंगे मानसिक बीमारियों तक 

हमने उन हाथों में खंजर और तमंचे दे दिए हैं 
जो पहुंचना चाहते थे रंग और पिचकारियों तक
*
अनसुनी करना नहीं बेटी की उस आवाज को तुम 
जो तुम्हें खामोश रहकर कुछ बताना चाहती है
*
एक से दिखते हैं खुशियाँँ हो या मातम 
आदमी भी शामियाने हो न जाएंँ

जो शरारत सीख ना पाए अभी तक 
डर है वो बच्चे सयाने हो न जाएँँ
*
छले जाने से बचना भी सरल था 
महज़ इनकार करना सीख लेते 

दुखों में गर सुखों को ढूंढना था 
उन्हें स्वीकार करना सीख लेते
*
बहुत होता सरल अपनी अना से दूर हो जाना 
अगर आता हमें रसख़ान मीराँँ सूर हो जाना

मोहब्बत में कभी ना हाथ अपना आजमाएं वे 
जिन्हें बर्दाश्त ना होगा बिखर कर चूर हो जाना

एक हफ्ते के बाद डाक्टर ने कुछ और टेस्ट करवाए और आखिर में कहा कि इस झिल्ली का छेद बंद करने के लिए हमें आपका ऑपरेशन करना पड़ेगा। ये दवाओं से ठीक होने वाला केस नहीं है। बहुत रेयर है। डॉक्टर ने पत्नी की और देख कर कहा कि 'आपको हिम्मत रखनी होगी, घबराने से काम नहीं चलेगा। ये ऑपरेशन के बाद बिल्कुल ठीक हो जायेंगे भरोसा रखें।' स्त्री, जिसे हम कमज़ोर मानते हैं विपरीत परिस्थितियों में वज्र सी मज़बूत भी हो जाती है। पत्नी ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा ' डॉक्टर साहब मुझे आप पर और अपने ईश्वर पर अटूट विश्वास है ,इन्हें कुछ नहीं होगा। आप ऑपरेशन की तारीख़ पक्की करें। 

ऑपरेशन टेबल पर लेटे मरीज़ का चेहरा ढक दिया गया है। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा सिर्फ सुनाई दे रहा है। औपचारिकता के लिए कोई फॉर्म भरा जा रहा है। डॉक्टर किसी से कह रहा है कि लिखिए "मरीज का नाम 'अश्विनी त्रिपाठी , जन्म तिथि दस अगस्त 1978, स्थान बाराँ -राजस्थान। क्यों ठीक है न अश्विनी बाबू ?" 'जी डॉक्टर साहब सही जानकारी है ' अश्विनी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। 'तो शुरू करें अश्विनी जी ?' आवाज़ आयी। ' जी करिये , मैं ठीक हूँ 'अश्विनी ने जवाब दिया। एनेस्थीसिया लगते ही अचानक अश्विनी के कानों में सूं की आवाज़ आने लगी आँखें मुंदने लगीं और बाहर की आवाज़ें आनी बंद हो गयीं । बाहरी दुनिया से नाता टूटते ही अंदर का संसार जाग गया। अश्विनी को अपना बाराँ का घर दिखाई देने लगा जिसके आँगन में वो भाग रहा है उसके पीछे उसकी तीन बड़ी बहनें भाग रही हैं लेकिन वो किसी की पकड़ में नहीं आ रहा । चारों खिलखिला रहे हैं। तीन बहनों का छोटा प्यारा एक मात्र भाई 'अश्विनी', पूरे घर का लाडला है। शैतान मगर पढाई लिखाई में होशियार ,तेज तर्रार बच्चा।            

जिसे झोपड़ी ही महल लग रही थी 
वो इंसाँँ महल को महल लिख न पाया 
*
प्यार में अभिव्यक्तियों का दौर है 
प्यार में एहसास कम है इन दिनों
*
पास आने पर लगा कुछ दूरियां हैं लाज़मी 
दूर रहकर दूर रहना भी कहां अच्छा लगा
*
भूख को कुछ रोटियां मिल जाएँँ बस 
उसको क्या गीता से या कुरआन से 

छोड़ दो सम्मान की आशा अगर 
तुमको को जीना है यहाँ सम्मान से
*
शिव के जैसा भोलापन ना हो जिसमें 
विष को अंगीकार नहीं कर सकता है 

तन के भीतर देख नहीं पाता है जो 
वो मन पर अधिकार नहीं कर सकता है
*
हर सियासत की गली में यह विरोधाभास है 
श्वेत वस्त्रों को पहनने आदमी काले गए
कुछ ख़ताएं भी जरूरी है यहाँँ 
हर ख़ता को ना सुधारा कीजिए
*
न पूछो तिजोरी बता ना सकेगी 
ख़जाने का डर ख़ुद खजाने से पूछो

अश्विनी को ऑपरेशन टेबल पर लेटे हुए याद आ रहा है कि उसकी रूचि विज्ञान विषय में थी जो कि आज भी उतनी ही है । उसका सपना था कि या तो वो डॉक्टर बने या इंजीनियर, इसलिए उसने ग्यारवीं में साइंस विषय लिए थे। बाराँ क्यूंकि छोटी जगह है इसलिए कोचिंग के लिए घर वालों ने उसे पास ही के शहर 'कोटा' भेजने का निर्णय लिया था। 'कोटा' जैसा कि सब जानते हैं पूरे भारत में मेडिकल और इंजिनीयरिंग की कोचिंग के लिए विख्यात है। यहाँ कोचिंग लिए बच्चों का देश के प्रसिद्ध इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में दाखिला होता हैं। अश्विन ने डॉक्टर बनने का सपना आँखों में पाले जी तोड़ पढाई की। 'कोटा' में बहुत से बच्चे ऐसे ही सपने आखों में लिए पढ़ते हैं लेकिन उन सबके सपने पूरे नहीं होते। अश्विनी जैसे बहुत से बच्चे एक आध प्रतिशत से रह जाते हैं। अश्विन उन बच्चों में से नहीं था जो असफलता से निराश हो जाते हैं। उसने कोशिश पूरी की लेकिन अगर मंज़िल नहीं मिली तो कोई बात नहीं। एक रास्ता बंद होने से जीवन नहीं रुकता। उसे याद है वो कोटा से खाली हाथ लेकिन बुलंद हौसलों से वापस बाराँ लौटा। बी एस सी की फिर उसके बाद बी एड और प्राइवेट स्कूल में ग्यारवीं बाहरवीं के बच्चों को साइंस पढ़ाने लगा। 

तभी सरकारी स्कूलों में नए अध्यापकों की नियुक्तियों की घोषणा हुई। अश्विनी ने अप्लाई किया और उसका सलेक्शन हो गया। उसे घर से लगभग 80 की मी दूर एक सरकारी स्कूल में सेकिंड ग्रेड साइंस अध्यापक के पद पर नियुक्ति का पत्र मिला। सरकारी नौकरी, चाहे घर से दूर ही मिले, छोड़नी नहीं चाहिए। अश्विनी बाराँ छोड़ वहीँ रहने लगा जहाँ स्कूल था लेकिन घर के पास के किसी स्कूल में ट्रांसफर के प्रयास उसने जारी रखे। प्रयास सफल हुए और उसका ट्रांसफर घर से लगभग 16 की.. मी. दूर सरकारी स्कूल में हो गया। जीवन सहज गति से चलने लगा ,इसमें मिठास घोलने को साथ मिला पत्नी के रूप में मिली मित्र का, जिसने उसके घर को दो जुड़वाँ बच्चों की किलकारियों से भर दिया।  
      
साइंस के साथ साथ अश्विनी की रूचि हिंदी भाषा में भी थी। जब वो छोटा था तो फ़ुरसत के पलों में पिता उसे अपनी गोद में बिठा कर सूरदास, तुलसी, मीरा, कबीर आदि के पद सुना कर समझाते थे। पिता के समझाने का अंदाज़ और कवियों के शब्द उस पर जादू कर देते उसे लगता ये सिलसिला कभी खत्म न हो पिता यूँ ही समझाते रहें और वो मुग्ध हो कर सुनता रहे।धीरे धीरे हिंदी में उसकी रूचि पद्य की और अधिक होती गयी । वो घर में आने वाली अख़बार और पत्रिकाओं में छपी कवितायें बहुत मनोयोग से पढता, उन्हें गुनगुनाता और मन ही मन कवितायेँ रचने लगता। बाद में जब भी उसे पढ़ाने से फ़ुरसत मिलती वो अपने मन की भावनाएँ कागज़ पर उतारने लगता। उसने देखा है कि जो लोग अपनी भावनाएँ व्यक्त नहीं कर पाते वो कुंठित हो जाते हैं और जो कर पाते हैं वो सहज रहते हैं, शांत रहते हैं। अश्विनी अपनी कवितायेँ अब अपने यार दोस्तों और साहित्य प्रेमी वरिष्ठ जन को सुनाने लगा। यार दोस्त उसकी रचनाएँ सुन कर तालियाँ बजाते और बड़े बुजुर्ग पीठ थपथपाते,कहीं कोई कमी देखते,तो बताते।       
 कि जिस मसअले पर सियासत टिकी है 
उसी को सियासत ने टाला हुआ है 

कहीं हैं मयस्सर निवाला न इसको 
कहीं खुद बदन ही निवाला हुआ है
*
 इसे इक मुकम्मल ग़ज़ल हम बना लें 
यह जीवन हमारा महज़ काफ़िया है 

बुझो आग बुझती है जैसे हवन की 
जलो जैसे मंदिर में जलता दिया है
*
जबकि उनसे पूछ कर दीपक जलाया है अभी 
ये अंधेरे भर रहे हैं फिर हवा के कान क्यूँ
*
पहुंचना है हमें सद्भावना के शीर्ष तक लेकिन 
डगर जाती है काई से सने दुर्गम ढलानों से 

तिरंगा भी दुखी है रंग बँटते देखकर अपने 
मगर उम्मीद है उसको वतन के नौजवानों से
*
जो पौध चाहती है दरख़्तों में बदलना 
उस पर किसी दरख़्त की छाया न कीजिए 

गर चाहते हैं आप ये रिश्ते बचे रहें 
आईना बन के सामने आया न कीजिए 
*
साँँचा- ए- इंसानियत तो हम सभी के पास है 
पर कोई राजी नहीं होता पिघलने के लिए

पढ़ना और पढ़ाना अश्विनी के जीवन के अभिन्न अंग बन गए।कविताओं, दोहों, मुक्तकों ,छंदों आदि से गुजरती हुई अश्विनी की काव्य यात्रा ग़ज़ल तक आ पहुंची। ग़ज़ल के शिल्प के जादू ने अश्विनी को मंत्र मुग्ध कर दिया। ग़ज़ल में सिर्फ दो मिसरों में गहरी बात कहने का जो ये फ़न है वो जितना दिखाई देता है उतना सरल है नहीं। अश्विनी को पता चल गया था कि ढंग का एक शेर कहने में पसीने आ जाते हैं और पसीने बहा कर भी ढंग का शेर हो जाए तो गनीमत समझें । ग़ज़ल का शिल्प समझने और शेर को कहने के अंदाज़ को समझने के लिए अश्विनी ने किताबों का सहारा लिया ,उन्हें अपना गुरु बनाया। धीरे धीरे उसने ग़ज़लें कहनी शुरू कीं। वो हर वक़्त शायरी में डूबा रहने लगा। स्कूल जाते वक्त रस्ते में अगर कोई मिसरा उसके दिमाग में आ जाता तो वो अपनी मोटर साइकिल सड़क के एक किनारे रोक कर अपनी कॉपी निकालता उसमें लिखता और फिर आगे बढ़ता। ये सिलसिला लगभग रोज ही होने लगा। वो अपनी ग़ज़लें पहले मित्रों को सुनाता फिर उस्तादों को और जब उसे यकीन हो जाता कि वो कुछ ढंग का कह पा रहा है तब ही उसे फेयर कर कॉपी में लिखता। 

बाराँ ही नहीं बल्कि उसके आसपास होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उसे बुलाया जाने लगा। 'कोटा' के राष्ट्रीय स्तरीय कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी वो शिरकत करने लगा। उसकी रचनाएँ देश की प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं जैसे 'समकालीन भारतीय साहित्य,हंस . वागर्थ , पाखी , मधुमती आदि में प्रकाशित होने लगीं। आकाशवाणी कोटा से उसकी ग़ज़लें प्रसारित हुईं। अश्विनी की पहचान 'बाराँ' से निकल कर पहले 'कोटा' और फिर पूरे देश में होने लगी।             

छाँव याद है पेड़ों की, फल याद रहे 
भूल गए हम बीजों की कुर्बानी को
*
जब भी मां-बाप से कहता हूं शहर आने को 
तब वो मिट्टी उठा माथे से लगा लेते हैं
*
वो इक पौधा जो पत्थर पर उगा है
न जाने क्या सिखाना चाहता है
*
महका करती हैं वो हिज़्र की रातें भी 
याद तेरी जब कस्तूरी हो जाती है
*
जो कि ख़ुशहाली मुझे ताउम्र ना दे पाएगी 
वो समझ मुझको महज बदहालियों में आ गई
*
तब भ्रमर से पुष्प का मकरंद ही खतरे में था 
आजकल तो पुष्प की हर पंखुरी ख़तरे में है
*
जिस पीपल ने जितना ज़्यादा ताप सहा 
वो उतनी ही ज़्यादा छाया करता है
*
कभी भी जो पिघल पाते नहीं है 
किसी साँँचे में ढल पाते नहीं है 

समंदर को भी कमतर आँँकते हैं
कुएँ से जो निकल पाते नहीं हैं 

बदलना चाहते हैं हम ज़माना 
मगर खुद को बदल पाते नहीं है

अश्विनी के विचारों का ये सिलसिला तब टूटा जब उसे अचानक डॉक्टर की आवाज़ सुनाई दी 'बधाई हो ,इनका ऑपरेशन सफल हुआ है'।  उसके बाद पत्नी का भीगे स्वर में कहना 'धन्यवाद डॉक्टर साहब मैंने कहा था न कि मुझे आप पर और मेरे ईश्वर पर पूरा भरोसा है 'सुनाई दिया। ठीक तभी अश्विनी के कानों में दोनों बच्चों की आवाज़ आयी 'कैसे हो पापा' और अश्विनी ने कोशिश कर आँखें खोल दीं। उसने पत्नी और दोनों बच्चों को पास खड़े मुस्कुराते देखा और माँ की आँखों से टपकते आँसुओं को देखा फिर धीरे से अपना हाथ माँ के हाथ पर रख दिया। 'आपको एक हफ्ते बाद घर भेज देंगे ,घर पर ही अब आपको लम्बा आराम करना है ,समझे अश्विनी जी' डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा और कमरे से बाहर चला गया।  

घर पर काम ही क्या था सिवाय पढ़ने लिखने के। इस अवसर का भरपूर फायदा उठाया अश्विनी जी ने। अपनी पुरानी लिखी ग़ज़लों को एक बार फिर से पढ़ा जहाँ उचित लगा उन्हें ठीक किया और कुछ नयी ग़ज़लें भी कही। मित्रों और घरवालों ने इन ग़ज़लों को प्रकाशित करवाने का प्रस्ताव दिया और इस तरह 'अश्विनी त्रिपाठी' जी की पहली ग़ज़लों की किताब 'हाशिये पर आदमी' मंज़र-ऐ-आम पर आयी। 

इस किताब को जिसमें अश्विनी जी की 84 ग़ज़लें है को 'बोधि प्रकाशन जयपुर' ने प्रकाशित किया है।  इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के 'मायामृग' जी से 9829018087 पर संपर्क कर सकते हैं। भले ही अश्विनी जी की ये ग़ज़लें सीधी सरल भाषा में कही गयी हैं लेकिन इनका पाठक के सीधे दिल में उतर जाने की क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इन ग़ज़लों के लिए आप अश्विनी जी को उनके मोबाईल न 8890628632 पर संपर्क कर बधाई दे सकते हैं। एक शायर के लिए उसके पाठकों से मिली प्रशंसा से बढ़ कर और कुछ नहीं होता।     
आखिर में पेश हैं इस किताब से लिए उनके कुछ और शेर :     


 बच्चे पढ़ना सीखे तब से 
अखबारों से डर लगता है 

माँँ कहती है झुकना सीखो 
जब चौखट पर सर लगता है
*
लोभ धोखा जालसाज़ी दिख रहे हैं वर्क़ पर 
आज खिसका जा रहा है हाशिए पर आदमी 

जिंदगी की अब ग़ज़ल कहना बहुत आसाँँ नहीं 
हर तरफ अटका पड़ा है काफ़िए पर आदमी
*
जिस दिन उस से आंखें चार नहीं होतींं 
उस दिन जाना पड़ता है मयखाने में 

तन से तन की दूरी कितनी कमतर है 
उम्र गुज़र जाती है मन तक जाने में 

मेरे भीतर इक भोला सा बच्चा है 
मर जाता हूँँ उसको रोज़ बचाने में
*
इंसानों को सिर्फ़ डराना ठीक नहीं 
डर अक्सर हथियारों से मिलवाता है




Monday, March 1, 2021

किताबों की दुनिया - 226

सुख़न-सराई कोई सहल काम थोड़ी है 
ये लोग किस लिए जंजाल में पड़े हुए हैं 
*
किसी किसी को है तरबीयते-सुख़नसाज़ी 
कोई कोई है जो ताज़ा लकीर खींचता है 
*
शेर वो लिख्खो जो पहले कहीं मौजूद न हो 
ख़्वाब देखो तो ज़माने से अलग हो जाओ 

शायरी ऐसे झमेलों से बहुत आगे है 
इस नए और पुराने से अलग हो जाओ 
*
लफ़्ज़ अहसास का अलावो है 
शायरी इज़्तिराब से है मियाँ 
इज़्तिराब:बेचैनी 
*
लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं है बात 
जब तक सुख़न में लज़्ज़ते-सोज़े-दुरूँ न हो 
 लज़्ज़ते-सोज़े-दुरूँ : भीतर की पीड़ा का स्वाद 
*
हम क़ाफ़िया-पैमाई के चक्कर में पड़े हैं 
है सिन्फ़े-सुख़न क़ाफ़िया-पैमाई से आगे     
 
"ये बहुत ख़ुशी की बात है कि इन दिनों ग़ज़लें खूब लिखी जा रही हैं। इस विधा की लोकप्रियता  का ग्राफ ऊपर ही जाता जा रहा है। उर्दू हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओँ में भी इस विधा पर खूब काम हो रहा है। ग़ज़ल, जैसा की हज़ारों बार पहले भी कहा गया है जितनी दिखाई देती है उतनी आसान विधा है नहीं। यही कारण है कि इस दौर में आयी हुई ग़ज़ल लेखन की सुनामी में अधिकतर ग़ज़लें साधारण या अतिसाधारण की श्रेणी में आती हैं। ग़ज़लकार कोई नयी बात पैदा कर नहीं पा  रहे। कारण ये है कि आजकल कल हर कोई अपना क़लाम दूसरे को सुना कर ख़िसक जाने की फ़िराक में रहता है , न तो वो किसी दूसरे को सुन कर खुश हैं न पढ़ कर। पढ़ना तो जैसा छूट ही गया है। ऊपर दिए शेर क़ामयाब ग़ज़ल कहने के लिए जरूरी बातों की ओर इशारा करते हैं। सवाल ये है कि ऐसा शेर कहा कैसे जाय जिसका मफ़हूम ओर ज़मीन पहले से न बरती गयी हो ? जवाब है कि जिस तरह कुदरत अपने आप को कभी नहीं दोहराती कुछ वैसा ही शायरी में भी करना होगा। हर दिन सूरज उगता है , सवेरा होता है, चिड़ियाएँ चहचहाती हैं रात होती है चाँद निकलता है, हवा चलती है लेकिन फिर भी हर दिन, हर रात नई लगती है। हर पल नया  होता है। कहीं कोई दोहराव नहीं जबकि यूँ कुछ भी बदला नज़र नहीं आता।"ये बात हमारे आज के शायर ने एक इंटरव्यू में कही थी। आप इन हज़रात की शायरी को पढ़ते वक्त महसूस करेंगे कि उन्होंने ग़ज़ल के बारे में जो शेर कहें हैं उन्हें अपनी ग़ज़लों में बहुत हद तक उतारा भी है। 
पाकिस्तान के युवा शायर जनाब दिलावर अली 'आज़र' का नाम हिंदी पाठकों के लिए शायद नया हो क्यूंकि उनकी ग़ज़लें हिंदी में बहुत कम छपी हैं .उनकी ग़ज़लों की हिंदी में जो पहली किताब मंज़र-ऐ-आम पर आयी है वो है "आँखों में रात कट गयी " जिसका लिप्यंतरण और संपादन किया है जाने माने युवा शायर 'इरशाद ख़ान 'सिकंदर' ने और जिसे 'मायबुक सलेक्ट पब्लिशिंग ने अपनी 'नायाब बुक सीरीज़' के अंतर्गत प्रकाशित किया है। इस किताब को आप 9910482906 पर मायबुक से संपर्क कर मंगवा सकते हैं या फिर इरशाद भाई से उनके मोबाइल 098183 54784 पर मंगवाने का आसान तरीका पूछ सकते हैं। 

         
इल्म जितना भी हो कम पड़ता है इंसानों को 
रिज़्क़ जितना भी हो बटने के लिए होता है 
*
मेरी तन्हाई ने पैदा किए साये घर में 
दीवार कोई दर से नमूदार हुआ 

आज की रात गुज़ारी है दिये ने मुझमें 
आज का दिन मिरे अंदर से नमूदार हुआ 
*
उसके होंठों को नहीं आँख को दी है तर्जीह 
प्यास को प्यास बुझाने से अलग रक्खा है 
*
फेंक कर संगे-ख़मोशी किसी दीवाने ने 
गुनगुनाती हुई नद्दी का रिदम तोड़ दिया 

मेरे रस्ते के अलावा भी कई रस्ते थे 
क्यों क़दम रख के मिरा नक़्शे-क़दम तोड़ दिया 
*
अब मुझको एहतिमाम से कीजे सपुर्दे-ख़ाक 
उकता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं 
*
हद्दे-अदब की बात थी हद्दे-अदब में रह गयी 
मैंने कहा कि मैं चला उसने कहा कि जाइए 
*
इक तिरा साथ तिरा क़ुर्ब मिले पलभर को 
यार खिलने को कहाँ फूल नहीं खिल सकते 
क़ुर्ब : निकटता 
*
मैं जो यारों की मुहब्बत में बिछा जाता हूँ 
मेरी दरवेश तबीयत मुझे ले डूबेगी 

'हसन अब्दाल' जी हाँ यही नाम है पाकिस्तान के उस शहर का जहाँ के एक छोटे से मोहल्ले सख़ी नगर के निवासी जनाब बशीर अहमद साहब के यहाँ 12 सितम्बर 1984 को दिलावर बशीर ने आँखें खोली जिसे अदब की दुनिया दिलावर अली 'आज़र' नाम से पहचानती है। दिलावर साहब पर बात करने से पहले चलिए जरा सी हसन अब्दाल शहर के बारे में बात कर ली जाय। पता नहीं क्यों लेकिन मुझे लगता है कि ज़्यादातर पाठकों ने शायद 'हसन अब्दाल' का नाम ही न सुना हो। इस शहर के बारे में मैं इसलिए बताना चाहता हूँ कि किसी भी शायर के क़लाम में उस जगह और वहाँ के माहौल का असर जरूर होता है जहाँ उसने बचपन और जवानी बिताई हो।'हसन अब्दाल' एक बहुत ही खूबसूरत शहर है। दिलावर अली साहब का बचपन 'गुनगुनाती हुई नदियों, बहते हुए झरनों , साफ़ पानी के तालाबों और सरसब्ज़ शादाब पहाड़ों के दरमियान बीता। इस शहर में सिख्खों का बेहद खूबसूरत और प्रसिद्ध गुरुद्वारा 'पंजा साहिब' है जिसके परिसर के अन्दर और बाहर लगभग दो सौ सिख परिवार सैंकड़ो सालों से मुसलमानों के बीच शांति से रह रहे हैं। हिन्दू और बौद्ध के लिए के लिए महत्वपूर्ण केन्द्र, सदियों पुराने विश्व प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय के अवशेष भी इसके निकट ही मिले थे। हसन अब्दाल में सिख गुरु श्री गुरु नानक देव जी के अलावा मुग़ल बादशाह अकबर और औरंगज़ेब के ठहरने के भी प्रमाण मिलते हैं।    

दिलावर अली की ग़ज़लें प्रकृति के नज़ारे, इंसानी ज़ज़्बात और एहसासात की मुकम्मल तर्जुमानी करती हैं।         
        
इस क़बीले में कोई इश्क़ से वाक़िफ़ ही नहीं 
लोग हँसते हैं मिरी चाक-गिरेबानी पर 
*
वो समझता है कि बेचैन हूँ मिलने के लिए 
और मैं वक़्ते-मुलाक़ात बदल सकता हूँ 
*
साँस की धार से कटता रहा धारा दिल का 
ज़िन्दगी हिज्र के दौरान सज़ा बनती गयी 
हिज्र : जुदाई 
*
देखता हूँ मैं उसे ख़ुद से जुदा होते हुए 
सोचता हूँ वो मिरे साथ कहाँ तक जाता 
*
वो मुझे देखता रहे और मैं 
देखना देखता रहूँ उसका 
*
झाँक कर देखता नहीं कोई 
फूल खिलते हैं रायगाँ मुझमें 
रायगाँ : व्यर्थ 
*
ख़ुदा का शुक्र आईना मिला है 
किसी ने शक्ल पहचानी हमारी 
*
सब अपने अपने ताक़ में थर्रा के रह गये 
कुछ तो कहा हवा ने चराग़ों के कान में 
*
ये जिस वजूद पे तुम नाज़ कर रहे हो मियाँ 
यही वजूद बहुत रायगाँ निकलता है 
*
फिर भी ख़ामोश ही रहता हूँ मैं अपने घर में 
बात सुनते हैं अगरचे दरो-दीवार मिरी  

दिलावर अपने स्कूली दिनों से ही ग़ज़लें कहने लगे थे याने जब से उन्होंने होश संभाला। वो कहते हैं कि 'बचपन खुशियों से भरपूर हुआ करता था। असली ख़ुशी तब तक ही रहती है जब तक आपके पास शऊर नहीं है। शऊर जब भी आता है तो बचपन की सारी चीजें आपसे छिन जाती हैं। मुझे जब शऊर आया तो मैं बचपन की वो शरारतें, जैसे नदी किनारे से केंकड़े पकड़ कर छोटी बहनों के हाथ में ये कह कर पकड़ाना कि ले तेरे लिए नदी किनारे से रंगीन पत्थर लाया हूँ  और उनका केंकड़ा देख कर डर मारे उछलना , दोस्तों को धक्का दे कर नदी में गिरा कर हँसना, लोगों की खड़ी साइकिलों की हवा निकाल देना, भूल कर संजीदा हो गया। मैं उन सब सवालों के ज़वाब ढूंढने लगा जो शऊर आने के बाद आते हैं और जिनका जवाब आसानी से नहीं मिलता। लड़कपन में दिल की बात किससे कहें कौन समझेगा सोच कर मैंने बात करने को शायरी का सहारा लिया। मेरी शायरी पढ़ कर कुछ लोग मेरी दिल की बात समझ लेते हैं कुछ नहीं। 
पहले अपने स्कूल और फिर कॉलेज की लाइब्रेरी से मुहब्बत हद दर्ज़े की हो गयी। शायरी की किताबें पढ़नी शुरू की तो बहुत से सवालों के जवाब खुद ब खुद मिलने लगे। मीर का दीवान कई कई बार पढ़ डाला। हर बार शेरों के माने नए मिलने लगे। शायरी पढ़ने का एक जूनून सा तारी हो गया। हर वक्त उसी के नशे में रहता। ये देख घर वाले परेशान हो गये।  शायर का जो तसव्वुर आम लोगों के दिल में ऐसा ही है -बिखरे बाल, शराब और मोहब्बत में ग़र्क़ इंसान जो अक्सर फ़ाक़े करता है, इसलिए घर वालों का परेशां होना जायज़ था । घर वाले सोचने लगे कि ये अपनी ज़िन्दगी में बैलेंस कैसे बिठा पायेगा ? लिहाज़ा मुझे शायरी से इतर कुछ करने की सलाह दी जाने लगी पर जब देखा कि मुझ पर कोई बात असर नहीं कर रही तो मुझे मेरे हाल पे छोड़ दिया।     

दरमियाँ कोई नहीं कोई नहीं कोई नहीं 
तुम हमारे हम तुम्हारे रास्ते में रास्ता 
*
इसमें खुलते हैं बहुत पेच मगर आख़िर तक 
ये मुहब्बत है मुहब्बत नहीं खुलती साईं 
*
अजीब रात उतारी गयी मुहब्बत पर 
हमारी आँखें, तुम्हारे चराग़ जलते हैं 
*
यानी इस ख़्वाब को ताबीर नहीं कर सकते 
गोया इस ख़्वाब को मिस्मार करोगे साहब 
मिस्मार : ध्वस्त 
*
उम्र गुज़ारी मुन्तज़िरी में तब जा कर मालूम हुआ 
वस्ल की साअत हिज्र से बढ़कर जी लरज़ाने वाली है 
मुन्तज़िरी: इंतज़ार , साअत : घड़ी 
*
मैं जान लूँगा कि अब साँस घुटने वाला है 
हरे दरख़्त से जब शाख़ कट रही होगी 
*
दोस्त देखे जा रहे हैं ताकि तन्हाई मिटे 
साँप ढूंढे जा रहे हैं आस्तीनों के लिये 
*
तुमने दीवार से भी सर नहीं फोड़ा जाकर 
जानेवाले पसे-दीवार चले जाते हैं 
*
रोता है कौन अपनी रउनत से  हार कर 
अपने किये पे आप ही शर्मिंदा कौन है 
रउनत: घमंड 
*
वो एक पल कि जो गुज़रा तिरी मईयत में 
उस एक पल में मिरी उम्र कटने वाली है 

किसे ख़बर थी जहाँ में कि जिस्म की खुशबू 
बिखरने वाली नहीं है सिमटने वाली है 

दिलावर साहब किसी एक को अपना उस्ताद नहीं बनाया। शायरी उन्होंने किताबें पढ़ कर सीखी। उस्ताद रिवायती शायरों से लेकर जदीद शायरों को पूरे दिल से पढ़ा। नतीज़ा ये हुआ कि उनकी शायरी में निख़ार आता गया। अपने से सीनियर शायरों की इज़्ज़त करते हुए उनसे राबता क़ायम किया और अपने क़लाम की बेहतरी के लिए उनसे मशवरा लेने में कभी गुरेज़ नहीं किया। अपने बराबर के और अपने से छोटे शायरों से दोस्ताना व्यवहार रखा उनसे भी मशवरा लेने में झिझके नहीं। धीरे धीरे पहले पूरे पाकिस्तान में और फिर पकिस्तान के बाहर भी उनकी शायरी की चर्चा होने लगी और उनके प्रशंसक बढ़ने लगे। उनका पहला ग़ज़ल संग्रह 'पानी' सं 2013 में मंज़र-ऐ-आम पर आया जिसे आलोचकों ने बहुत पसंद किया और उसे पिछली तीन दहाइयों में आये किसी नौजवान शायर का सबसे मज़बूत और मुकम्मल संग्रह माना। इसके ठीक तीन साल बाद उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह 'माख़ज़' प्रकाशित हुआ जो पहले वाले संग्रह से बहुत अधिक प्रसिद्ध हुआ। इस ग़ज़ल संग्रह को आलोचकों और सीनियर शायरों ने दिलावर 'आज़र' का दूसरा नहीं क़दम क़रार दिया। 

पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब ज़फर इक़बाल साहब ने लिखा कि 'दिलावर अली आज़र की शायरी से गुज़रते हुए आधुनिक उर्दू ग़ज़ल पर मेरा ईमान और पुख़्ता हो गया है , शेर कहते तो बहुत से और भी हैं मगर शेर को शेर बनाना किसी किसी को ही आता है ये शायर मुझे चंद ही दूसरों के साथ अगली पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है इसका लहजा दोषमुक्त और आत्मविश्वास का ज़ज़बा आश्चर्यजनक है। इसकी ग़ज़लें ताज़गी और तासीर का एक ऐसा झोंका है जिसने आसपास का सारा वातावरण सुगन्धित कर दिया है इस शायरी ने मुझे ख़ुशी से भर दिया है।' 

दोस्त तो दोस्त है दुश्मन भी बराबर का चुनो 
हु-ब-हू हम नज़र आते हैं अदू में अपने   
अदू : दुश्मन 

एक वो प्यास जो बुझती है सुबू से अपनी 
एक ये आग जो होती है सुबू में अपने 
सुबू : मदिरा पात्र 
*
 देखता कोई नहीं आँख उठा कर मुझको
फ़ायदा क्या है मुझे चाक-गिरेबानी से 
*
हमी को वो किसी इमकान में नहीं रखता  
हम ऐसे लोग जो होते भी हैं फ़क़त उस के  
*
वो हमेशा ही ख़सारे में रहा है जिसने 
फ़ैसला करके मुहब्बत में नज़र सानी की 

तेरी आसानी ने मुश्किल में मुझे डाल दिया 
मिरी मुश्किल ने तिरे वास्ते आसानी की 
उसकी आँखें देखने वालो तुम पर वाजिब है 
शुक्र करो इस दुनिया में कुछ अच्छा देख लिया 
*
पहले धुंदला दिए नक़ूश मिरे 
फिर मुझे आइना दिखाया गया 
नक़ूश : निशान 
*
वो ज़ख़्म जिस्म पे आया नहीं अभी जिसके 
कुरेदने को ये नाख़ुन सँभाल रक्खा है 
*
जो समझता हो उसे बारे-दिगर क्या कहना 
फ़ायदा कोई नहीं बात के दोहराने में 
बारे-दिगर : दोबारा 


हसन अब्दाल छोड़ कर अब कराची आ बसे दिलावर अली 'आज़र' की मौजूदगी के बिना पाकिस्तान में अब कोई मुशायरा मुकम्मल नहीं माना जाता। युवाओं में बेहद लोकप्रिय दिलावर 'आज़र' की दोनों किताबों पर गवर्मेंट सादिक़ अजर्टन कॉलेज से 2013 में , यूनिवर्सिटी ऑफ़ लाहौर पाकपटन से 2017 में , जी सी यूनिवर्सिटी फ़ैसलाबाद से 2018 में शोध पत्र प्रकाशित किये जा चुके हैं।  उनकी तीसरी किताब 'कीमिया' का उनके सभी पाठकों को बेसब्री से इंतज़ार है। 

दिलावर 'आज़र' को 2013 में लफ्ज़ अदबी अवार्ड और 2016 में बाबा गुरु नानक जी अदबी अवार्ड से नवाज़ा गया है। किताब 'आँखों में रात कट गयी में' आज़र साहब की 127 ग़ज़लें संग्रहित हैं ,उनकी शायरी का पूरा लुत्फ़ लेने के लिए आपको उनकी इस किताब को मंगवा कर पढ़ना होगा।    
 
जाने क्या रम्ज है कि पिंजरे में 
आजकल फड़फड़ा नहीं रहे तुम 
रम्ज : संकेत 
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कमाल ये है मुझे देखती हैं वो आँखें 
मलाल ये है उन्हें देखना नहीं आता 
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शह्र में कोई नहीं जिसको दुआ दी जाये 
सो मिरी उम्र दरख्तों को लगा दी जाये 
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आँख में नींद के रस्ते से उतरता है सराब 
ख़्वाब तो प्यास बढ़ाने के लिये होते हैं 
सराब : मृगतृष्णा 
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तमाम उम्र की जिसमें थकान उतरेगी 
वो एक लम्हा भी शायद तुम्हारे ध्यान से है