"जिस का डर था बेदर्दी वो ही बात हो गई...."जी नहीं मैं आप को "मिल गए नैना से नैना ओये क्या बात हो गई..." वाला गाना सुनाना नहीं चाहता, मैं तो ये कह रहा हूँ की एक डर जो दिल में था की एक न एक दिन तो इस काव्य संध्या की रोचक श्रृखला का अंत होना ही है वो बात अब हो गई है. अब भाई ये तो विधि का नियम है जो शुरू हुआ है उसका अंत तो होना ही है लेकिन एक के अंत से दूसरे का जन्म होता है, ये भी तो नियम है. काव्य श्रृखला समाप्त हुई तो क्या हुआ क्या पता कोई और नई श्रृंखला कहीं जन्म लेने की प्रक्रिया से गुजर रही हो...
चलिए अधिक दार्शनिकता ना बघारते हुए सीधे वहां चलते हैं जहाँ श्रोता अवाक् हैं ये देख कर की वागीश सारस्वत जी जिन्होंने अभी अपनी रचना का पाठ किया था, अचानक तेजी से मंच की और दुबारा क्यूँ बढ़ रहे हैं. आप भी इस बात से सर न खुजलायें क्यूँ की देखिये वो आमंत्रित कर रहे हैं इस काव्य संध्या के विलक्षण संचालक श्री देव मणि पाण्डेय जी को रचना पाठ के लिए...
परिचय: अत्यधिक मिलनसार, विनम्र और वाकपटु श्री देव मणि पाण्डेय देश भर में होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों में एक जाना पहचाना नाम है. आप उस विभाग में हिन्दी अधिकारी के पद पर हैं जिस विभाग के नाम से अच्छे खासे लोगों की घिघ्गी बंध जाती है, जी हाँ सही पहचाना--" आयकर विभाग".
मुस्कुराते हुए देव मणि साहेब ने जो एक बार अपने विशेष अंदाज में अपनी रचनाओं का पाठ शुरू किया तो श्रोता मन्त्र मुग्ध सुनते ही रहे...उन्होंने अपनी काव्य यात्रा का आगाज़ उस शाम से किया जिसने हम सब को एक सूत्र में पिरो दिया था....याने आज काव्य संध्या की शाम.
छ्म छ्म करती गाती शाम
चांद से मिलने निकली शाम.
उडती फिरती है फूलों में
रंग बिरंगी तितली शाम.
आंखों में सौ रंग भरे
आज की निखरी निखरी शाम.
अलग अलग हैं सबके ख्वाब
सबकी अपनी अपनी शाम.
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सावन आया धूल उड़ाता रिमझिम की सौग़ात कहां
ये धरती अब तक प्यासी है पहले सी बरसात कहां.
मौसम ने अगवानी की तो मुस्काए कुछ फूल मगर
मन में धूम मचाने वाली ख़ुशबू की बारात कहां.
खोल के खिड़की दरवाज़ों को रोशन कर लो घर आंगन
चांद सितारे लेकर यारो फिर आएगी रात कहां.
भूल गये हम हीर की तानें क़िस्से लैला मजनूं के
दिल में प्यार जगाने वाले वो दिलकश नग़्मात कहां.
ख़्वाबों की तस्वीरों में अब आओ भर लें रंग नया
चांद, समंदर, कश्ती, हमतुम,ये जलवे इक साथ कहां.
ना पहले से तौर तरीके ना पहले जैसे आदाब
अपने दौर के इन बच्चौं में पहले जैसी बात कहां.
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ना हंसते हैं ना रोते हैं
ऐसे भी इंसा होते हैं.
दुख में रातें कितनी तन्हा
दिन कितने मुश्किल होते हैं.
खुद्दारी से जीने वाले
अपने बोझ को खुद ढोते हैं.
सपने हैं उन आंखों में भी
फुटपाथों पर जो सोते हैं
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दिल के ज़ख्मों को क्या सीना
दर्द न हो तो फिर क्या जीना
प्यार नहीं तो बेमानी हैं
काबा , काशी और मदीना .
महलों वालों क्या समझेंगे
क्या मेहनत,क्या धूल पसीना .
तुम बिन तनहा है हर लम्हा
रीता रीता , साल - महीना
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श्रोता कहाँ उन्हें जाने देना चाहते थे...देव मणि जी भी मूड में थे लेकिन समय मूड में नहीं था...घड़ी की सुईयां अपनी रफ्तार से बढ़ रही थीं...समय को शायरी की समझ कहाँ...खुश्क, संवेदनहीन, भागने, दौड़ने वाले और गणित में उलझे हुओं को शायरी से वैसे भी कोई नाता नहीं रहता...
और अब अंत में बहुत आदर से बुलाया जा रहा है आज की हमारी विशेष मेहमान देवी नागरानी जी को :
परिचय: हिन्दी और सिन्धी दोनों भाषाओँ में समान रूप से लिखने वाली देवी नागरानी वर्तमान में न्यू जर्सी अमेरिका में शिक्षिका हैं, इनकी लगभग चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.हाल ही में प्रकाशित पुस्तक "दिल से दिल तक " है जिसका विमोचन कुछ माह पूर्व मुंबई में हुआ था.
देवी नागरानी जी, जिन्हें मैं स्नेह से दीदी कहता हूँ, ने अपनी मीठी और सुरीली आवाज में जब गा कर अपनी ग़ज़लें सुनाईं तो श्रोता झूम उठे.
सबसे पहले उन्होंने अपनी ग़ज़लों के कुछ शेर सुनाये...आप देखें:
मुहब्बत की ईंटें न होती जो उस में
तो रिश्तों की पुख्ता ईमारत न होती
*
उस से कुछ इस तरह हुआ मिलना
मिलके कोई बिछुड़ रहा जैसे
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तेगों से वार करते वो मुझ पर तो गम न था
लफ्जों के तीर चीर के मेरा जिगर गए
कुरुक्षेत्र है ये जिंदगी रिश्तों की जंग है
हम हौसलों के साथ हमेशा गुजर गए
*
मुस्काते मंद मंद हैं हर इक सवाल पर
हर इक अदा जवाब की कितनी है लाजवाब
*
फूलों की सोहबतों ने यूँ आदत बिगाड़ दी
भूली मैं कैसे खार चुभा था यहीं कहीं
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वो खड़ी है बाल खोले आईने के सामने
एक बेवा का संवारना और सजना भी है क्या
*
डोली तो मेरे ख्वाब की उठ्ठी नहीं मगर
यादों में गूंजती हुई शहनाईयां रहीं
बचपन तो छोड़ आए थे, लेकिन हमारे साथ
ता-उम्र खेलती हुई अमराईयाँ रहीं
चाहत खुलूस प्यार के रिश्ते बदल गए
जज़्बात में न आज वो गहराईयाँ रहीं
*
दौलत को तिरे दर्द की रख्खा सहेज कर
मोती कभी पलकों से गिराए नहीं हमने
आई जो तेरी याद तो लिखने लगी ग़ज़ल
औरों को गीत रोके सुनाये नहीं हमने
**
जरा सोच लो दोष देने से पहले
क्या इक हाथ से कोई ताली बजी है
*
अनबन ईंटों में कुछ हुई होगी
यूँ न दीवार वो गिरी होगी
पुख्ता होंगीं कहाँ से दीवारें
कुछ मिलावट कहीं रही होगी
तेरी उंगली उठी किसी पे अगर
कोई तुझ पर भी तो उठी होगी
*
जैसे ही देवी जी ग़ज़लें सुना के मुडीं श्रोता खड़े हो कर उनके सम्मान में तालियाँ बजाने लगे...हर ताली और और की पुकार कर रही थी....लेकिन अब तक तो आप जान ही चुके होंगे की समय बहुत बलवान हो चुका था...शाम रात में ढल चुकी थी और दूर मुंबई से आए महमानों को घर लौटने की जल्दी अब उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी...इस तरह एक यादगार काव्य संध्या अपने खूबसूरत मुकाम पर आख़िर पहुँच ही गयी और जिसका डर था बेदर्दी वही बात हो ही गयी....
इस काव्य संध्या की अद्भुत यात्रा में मुझे बहुत से सहयात्री मिले कुछ जो अंत तक मेरे साथ रहे लगातार मेरा हौसला बढ़ते रहे और कुछ जो बीच बीच में आ कर मुझे सँभालते रहे पूछते रहे की भाई कोई तकलीफ तो नहीं है ना, है तो बताओ हम मदद करते हैं, बढ़िया चल रहे हो चलते रहो.
मेरा फ़र्ज़ बनता है की मैं सर्व श्री अभिषेक ओझा जी, अमर ज्योति जी, अनिता जी, अनुराग जी, अनूप शुक्ल जी, अशोक पाण्डेय जी, बवाल जी, भावेश झा जी, चंद्र कुमार जैन जी, दीपक जी, फिरदौस खान जी, ज्ञान दत्त पाण्डेय जी, गौतम जी, हर्षद जंगला जी, जीतेन्द्र भगत जी, कंचन सिंह जी, कुश जी, लावण्या जी, मनीष कुमार जी, महेंद्र मिश्रा जी, मकरंद जी, मीत जी, मिनाक्षी जी, मुमुक्ष जी,नजर महमूद जी, नीतिश राज जी, पल्लवी जी, परमजीत बलि जी, पारुल जी, गुरुदेव पंकज सुबीर जी, रंजना भाटिया जी, राज भाटिया जी, रक्षंदा जी, रश्मि प्रभा जी, रंजन जी, रविकांत जी, सचिन मिश्रा जी, सीमा जी, शोभा जी, सुशील कुमार जी, स्मार्ट इंडियन जी, स्वाति जी, श्रद्धा जी, भाई शिव कुमार मिश्र जी, ताऊ रामपुरिया जी, उड़न तश्तरी महाराज( समीर लाल जी), विजय मुदगिल जी, वीनस जी, विपिन जिंदगी जी, योगेन्द्र मुदगिल जी और जाकिर अली जी.( वो सब भी भी जो चुपचाप आए और मेरा कन्धा थपथपा कर चले गए) को इस सहयोग के लिए आदर सहित नमन करूँ.
आप सोच रहे होंगे की भाई शिव ने जिस कुरता धारी शायर (याने की मैं ) के आने और अपनी शायरी सुनाने की बात की थी, वो कहाँ है? उसका नंबर कब आएगा? जो आप को बता दूँ की मेरे मन में आईडिया आया की जब मैंने वो ग़ज़ल, जिसे काव्य संध्या में सुनाया था, अपने ब्लॉग पर पहले से ही लगा रखी है तो उसे दुबारा यहाँ फ़िर से पढ़वाने में क्या तुक...??
आप इस बात को सुन कर शरमाते सकुचाते हुए कहिये ना "वाट एन आईडिया सर जी..."
और मैं फ़िर अभिषेक बच्चन की तरह सर को झटका देकर मुस्कुरा कर अपनी टांग हिलाता हूँ...
चलते चलते एक शेर मेरी अगली ग़ज़ल से:
जब तलक जीना है "नीरज" मुस्कुराते ही रहो
क्या ख़बर हिस्से में अब कितनी बची है जिन्दगी