(लेखिका: "दिव्या माथुर") एक बौनी बूँद ने
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा
बाकि बूँदें भी
देखा देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का मुक्की
लगा लटकी
क्षण भर के लिए
लम्बी हुईं
फ़िर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूंदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी
"सती हो गया सच"
तुम्हारे छोटे मंझले
और बड़े झूठ
उबलते रहते थे मन में
ढूध पर मलाई सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हे
पर आज उफन के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार कर गए
तुम मेरी ओट लिए
साधू बने खड़े रहे
झूठ कि चिता पर
सती हो गया सच
"पहला झूठ"
जली हुई रुई की बत्ती
बड़ी आसानी से जल जाती है
नई बत्ती
जलने में बड़ी देर लगाती है
आसान हो जाता है
रफ्ता रफ्ता
है बस पहला झूठ ही
मुश्किल से निकलता
"बिवाई"
सावन कि रुत आयी जी
छेड़े है पुरवाई जी
लौट आयी चुपचाप हवा
कोई ख़बर कब लाई जी
ज़र्द हुआ पत्ता पत्ता
आँख मेरी पथराई जी
सूखे पत्ते सी डोलूँ
अक्ल मेरी बौराई जी
सब में मैं उसकी छब देखूं
हँसते लोग लुगाई जी
याद आए वो यूँ जैसे
दुखती पाँव बिवाई जी
जहाँ थे बिछुड़े वहीं मिलेंगे
आँगन कब्र खुदाई जी
लेखिका परिचय
विलक्षण प्रतिभा की धनी "दिव्या माथुर साहिबा" १९८५ से भारतीय उच्चायोग से जुड़ी हैं और १९९२ से नेहरू केन्द्र यू. के. में वरिष्ट कार्यक्रम अधिकारी की हैसियत से काम कर रही हैं. दिव्या जी की कई कविता और कहानियो की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. आप का नाम "इक्कीसवीं सदी की महान स्त्रियाँ" की सूची में भी दर्ज किया जा चुका है.अनेकानेक पुरुस्कारों से नवाजी जा चुकी दिव्या जी कम शब्दों में गहरी बात कहने की कला में दक्ष हैं. दिव्या जी की अनुमति से उनकी कुछ रचनाएँ मैं अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ.