Wednesday, March 19, 2008

मूरखता के दोहे


होली का हास्य से भी सम्बन्ध है इसी लिए प्रस्तुत हैं मूरखता के दोहे...अगर आप को लगे की ये दोहे आप की ही बात कर रहे हैं तो समझिए लिखना सार्थक हुआ.

होली के त्योहार पे सब का मन हरषाय
कीचड गोबर से बचे वो मूरख कहलाय

मूरख ढ़ूंढ़न मैं चला, हुआ बहुत हैरान
हर कोने मूरख मिला अपनी छाती तान

जो तोकू मूरख कहे कह उसको विद्वान्
तू मूरख बच जाएगा उसकी जाए जान

मूरख वाणी बोलिए, समझ न कोई पाय
श्रोता सुन पागल बने वक्ता सर खुजलाय


मूरख की इस देश में बड़ी निराली शान
पढ़ना लिखना छोड़ के नेता बना महान


काल बने सो आज बन आज बने सो अब
जिल्लत से बच जायेंगे मूरख बन कर सब


मूरख के गुण पर गधा खूब रहा इतराय
पिटने से डरता नहीं मन की करता जाय


मूरख की भाषा कभी नीरज गयी न व्यर्थ
सुन कर सभी लगा रहे अपने अपने अर्थ

Monday, March 17, 2008

एक बौनी बूँद

(लेखिका: "दिव्या माथुर")


एक बौनी बूँद ने
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा
बाकि बूँदें भी
देखा देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का मुक्की
लगा लटकी
क्षण भर के लिए
लम्बी हुईं
फ़िर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूंदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी



"सती हो गया सच"

तुम्हारे छोटे मंझले
और बड़े झूठ
उबलते रहते थे मन में
ढूध पर मलाई सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हे
पर आज उफन के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार कर गए
तुम मेरी ओट लिए
साधू बने खड़े रहे
झूठ कि चिता पर
सती हो गया सच



"पहला झूठ"

जली हुई रुई की बत्ती
बड़ी आसानी से जल जाती है
नई बत्ती
जलने में बड़ी देर लगाती है
आसान हो जाता है
रफ्ता रफ्ता
है बस पहला झूठ ही
मुश्किल से निकलता



"बिवाई"

सावन कि रुत आयी जी
छेड़े है पुरवाई जी
लौट आयी चुपचाप हवा
कोई ख़बर कब लाई जी
ज़र्द हुआ पत्ता पत्ता
आँख मेरी पथराई जी
सूखे पत्ते सी डोलूँ
अक्ल मेरी बौराई जी
सब में मैं उसकी छब देखूं
हँसते लोग लुगाई जी
याद आए वो यूँ जैसे
दुखती पाँव बिवाई जी
जहाँ थे बिछुड़े वहीं मिलेंगे
आँगन कब्र खुदाई जी



लेखिका परिचय

विलक्षण प्रतिभा की धनी "दिव्या माथुर साहिबा" १९८५ से भारतीय उच्चायोग से जुड़ी हैं और १९९२ से नेहरू केन्द्र यू. के. में वरिष्ट कार्यक्रम अधिकारी की हैसियत से काम कर रही हैं. दिव्या जी की कई कविता और कहानियो की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. आप का नाम "इक्कीसवीं सदी की महान स्त्रियाँ" की सूची में भी दर्ज किया जा चुका है.अनेकानेक पुरुस्कारों से नवाजी जा चुकी दिव्या जी कम शब्दों में गहरी बात कहने की कला में दक्ष हैं. दिव्या जी की अनुमति से उनकी कुछ रचनाएँ मैं अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ.

Monday, March 10, 2008

चाँद आशा का


मुम्बई में रहते उसकी भाषा से परिचित होना जरूरी हो जाता है। सोचा क्यों नहीं मुम्बईया भाषा को काफिये में इस्तेमाल किया जाए. एक प्रयोग ही सही. मुम्बईया भाषा में "ला" का अर्थ "हुआ" से है जैसे "थकेला" याने थका हुआ। आप ग़ज़ल पढिये और अगर आनंद आए तो लीजिये.

गर जवानी में तू थकेला है
साँस लेकर भी फ़िर मरेला है

सच बयानी की ठान ली जबसे
हाल तब से ही ये फटेला है

ताजगी मन में आ न पायेगी
गर विचारों से तू सड़ेला है

हो ज़रूरत तो ठीक है प्यारे
बे-ज़रूरत ही क्यों खटेला है

रात काली हो बेअसर ग़म की
चाँद आशा का गर उगेला है

लोग सीढ़ी है काम में लेलो
पाठ बचपन से ये रटेला है

दिल भिखारी से कम नहीं उसका
ताज जिसके भी सर सजेला है

रोक पाओगे तुम नहीं "नीरज"
वो गिरेगा जो फल पकेला है

(वक्त कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता, ये मेरी 51वीं पोस्ट है )

Wednesday, March 5, 2008

वो ही काशी है वो ही मक्‍का है


देखने में मकां जो पक्का है
दर हकीकत बड़ा ही कच्चा है

ज़िंदगी कैसे प्यारे जी जाए
ये सिखाता हरेक बच्चा है

छाँव मिलती जहाँ दुपहरी में
वो ही काशी है वो ही मक्का है

जो अकेले खड़ा भी मुस्काये
वो बशर यार सबसे सच्चा है

जिसको थामा था हमने गिरते में
दे रहा वो ही हमको धक्का है

आप रब से छुपायेंगे कैसे
जो छुपा कर जहाँ से रख्खा है

जब चले राह सच की हम "नीरज"
हर कोई देख हक्का बक्का है

{ग़ज़ल पर इस्लाह के लिए भाई पंकज सुबीर को धन्यवाद}

Saturday, March 1, 2008

साथ गर अपने चले साया नहीं



कह दिया वो साफ जो भाया नहीं
तीर हम ने पीठ पर खाया नहीं

अर्थ जीवन में कहाँ बचता बता
साथ गर अपने चले साया नहीं

तोड़ दी हर शाख पहले पेड़ की
काट डाला बोल कर छाया नहीं

सिर्फ़ सूली क्यों बनी सच के लिए
कोई पाया जान ये माया नहीं

खोट था जिसमें वोही दौड़ा किया
पर खरा ही यार चल पाया नहीं

हाथ फैलाने पे ही तुमने दिया
उसपे दावा ये की तरसाया नहीं

दिल लगाये किस तरह रब से बशर
प्यार का गर गीत ही गाया नहीं

आँख से आंसू अगर नीरज गिरें
रोक पाएं ये हुनर आया नहीं