Monday, October 21, 2013

राह तयकर इक नदी सी


( एक पुरानी ग़ज़ल नए पाठकों के लिए ) 

 कब किसी के मन मुताबिक़ ही चली है जिन्दगी 
राह तयकर इक नदी सी, ख़ुद बही है जिन्दगी 

ये गुलाबों की तरह नाज़ुक नहीं रहती सदा 
तेज़ काँटों सी भी तो चुभती कभी है जिन्दगी 

मौत से बदतर समझ कर छोड़ देना ठीक है 
ग़ैर के टुकड़ों पे तेरी, गर पली है ज़िन्दगी 

बस जरा सी सोच बदली, तो मुझे ऐसा लगा 
ये नहीं दुश्मन, कोई सच्ची सखी है ज़िन्दगी 

जंग का हिस्सा है यारो, जीतना या हारना 
ख़ुश रहो गर आख़िरी दम तक, लड़ी है जिन्दगी 

मोल ही जाना नहीं इसका, लुटा देने लगे 
क्या तुम्हें ख़ैरात में यारो मिली है जिन्दगी ? 

जब तलक जीना है "नीरज", मुस्कुराते ही रहो 
क्या ख़बर हिस्से में अब कितनी बची है जिन्दगी

Monday, October 7, 2013

किताबों की दुनिया - 87


सुब्हों को शाम, शब को सवेरा नहीं लिखा
हमने ग़ज़ल लिखी है क़सीदा नहीं लिखा

ख़त यूँ तो मैंने लिक्खा है तफ़सील से उन्हें
लेकिन कहीं भी हर्फ़े-तमन्ना नहीं लिखा

जिससे फ़क़त अमीरों के चेहरे दमक उठें
      उस रौशनी को मैंने उजाला नहीं लिखा     

उर्दू शायरी के दीवानों और मुशायरों का लुत्फ़ उठाने वालों के लिए जनाब 'मंसूर उस्मानी' साहब का नाम अनजाना नहीं है . मंसूर भाई अपनी निजामत से किसी भी मुशायरे को बुलंदियों पर पहुँचाने का दम-ख़म रखते हैं। वो उन चंद शायरों में से हैं जिनका   कलाम पाठकों को पढने में उतना ही मज़ा देता है जितना सामयीन को मुशायरे के मंच से उन्हें सुनने में।

आज हम उन्हीं की देवनागरी में छपी किताब " अमानत " का जिक्र अपनी इस श्रृंखला में करेंगे।     

रखिये हज़ार कैद अमानत को इश्क की 
लेकिन ये अश्क बन के छलकती जरूर है

जाने वो दिल के ज़ख्म हैं या चाहतों के फूल
रातों को कोई चीज महकती जरूर है

'मंसूर' ये मिसाल भी है कितनी बेमिसाल
चिलमन हो या नक़ाब सरकती जरूर है

इस किताब में बहुत से शायरों ने मंसूर साहब की शायरी और शख्शियत के बारे में बात की है, इसी क्रम में डा . उर्मिलेश की लिखी बात आप सब को पढवाना चाहता हूँ वो लिखते हैं : मंसूर साहब की ग़ज़लें माचिस की उन तीलियों की तरह हैं,  जिनसे आप कान ख़ुजाने का मज़ा भी ले सकते हैं और वक्त पड़ने पर इनसे आग जलाने का काम भी ले सकते हैं, लेकिन आग लगाने का काम ये नहीं करतीं .   

आवारगी ने दिल की अजब काम कर दिया
ख्वाबों को बोझ, नीदों को इल्ज़ाम कर दिया

कुछ आंसू अपने प्यार की पहचान बन गए
कुछ आंसूंओं ने प्यार को बदनाम कर दिया

जिसको बचाए रखने में अजदाद बिक गए
हमने उसी हवेली को नीलाम कर दिया
अजदाद= पूर्वज

मंसूर साहब की शायरी के बारे में जनाब मुनव्वर राना साहब ने भी क्या खूब कहा है : 'मंसूर साहब की शायरी महबूब के हाथ  पर रखा रेशमी रुमाल नहीं है। मजदूर की हथेलियों के वो छाले हैं, जिनसे मेहनत और ईमानदारी की खुशबू आती है।  उन्होंने ग़ज़ल को महबूब से गुफ्तगू करना नहीं सिखाया बल्कि अपनी ग़ज़ल को हालात से आँख मिलाने का हुनर सिखाया है .    

कांधों पे सब खुदा को उठाए फिरे मगर
बंदों का एहतराम किसी ने नहीं किया

अखबार कह रहे हैं कि लाशें हैं सब गलत
बस्ती में कत्ले-आम किसी ने नहीं किया

'मंसूर' ज़िन्दगी की दुहाई तो सबने दी
   जीने का इंतज़ाम किसी ने नहीं किया   

एक मार्च 1954 को जन्में और मुरादाबाद में बसे मंसूर साहब ने उर्दू में एम ए करने के बाद शायरी से नाता जोड़ लिया। अपनी बाकमाल शायरी का लोहा उन्होंने जेद्दाह , सऊदी अरब, कनाडा, नेपाल, अमेरिका, दुबई, पकिस्तान,मैक्सिको आदि देशों के विभिन्न शहरों में हुए मुशायरों में शिरकत कर मनवाया है। शायरी की लगातार खिदमत करने के लिए उन्हें उ प्र उर्दू अकादमी सम्मान, हिंदी-उर्दू  सम्मान ( लखनऊ ), रोटरी इंटर नेशनल एवार्ड, संस्कार भारती सम्मान आदि अनेको सम्मानों से नवाज़ा गया   है।


चाहना जिसको फ़कत उसकी इबादत करना
वरना बेकार है रिश्तों की तिजारत करना

एक ही लफ्ज़ कहानी को बदल देता है
कोई आसां तो नहीं दिल पे  हुकूमत करना

अपने दुश्मन को भी साये में लिए बैठे हैं
     हमने पाया है विरासत में मुहब्बत करना     

हिंदी भाषी पाठक वाणी प्रकाशन, दरिया गंज,दिल्ली (फोन :+91-11-23273167 ) का ,इस और इस जैसी अनेक उर्दू शायरों की किताबें हिंदी में प्रकाशित करने के लिए, हमेशा आभार मानेंगे. इस किताब में मंसूर साहब की सौ से अधिक ग़ज़लों के अलावा उनके बहुत से फुटकर शेर, कतआत और दोहे भी शामिल किये गए हैं। मंसूर साहब को आप उनके मोबाईल 9897189671 पर फोन कर ऐसी अनूठी शायरी के लिए दाद दें और किताब प्राप्ति का रास्ता भी पूछ लें .   

जब ऐसी किताब हाथ लगती है तो उसमें से शेर छांटना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो जाता है , जिन ग़ज़लों के शेर आप तक नहीं पहुंचा पाता वो मेरी कलम रोक के पूछती हैं हम में क्या कमी थी ये बताओ ?

इन अमीरों से कुछ नहीं होगा
हम ग़रीबों को हुकमरानी दे

क्या तमाशा है यार दुनिया भी
आग अपना दे , गैर पानी दे

याद आयें ग़म ज़माने के
शाम ऐसी भी इक सुहानी दे  

चलते चलते आईये अब पढ़ते हैं मंसूर साहब के चंद खूबसूरत शेर  :-

हमारा प्यार महकता है उसकी साँसों में
बदन में उसके कोई ज़ाफ़रान थोड़ी है
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ज़िद पे आये तो क़दम रोक लिए है तेरे
हम से बेहतर तो तेरी राह के पत्थर निकले
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दामन बचा के लाख कोई मौत से चले
पाज़ेब ज़िन्दगी की खनकती ज़रूर है
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इश्क़ इज़हार तक नहीं पहुंचा
शाह दरबार तक नहीं पहुंचा
मेरी क़िस्मत कि मेरा दुश्मन भी
मेरे मेयार तक नहीं पहुंचा
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बाज़र्फ़ दुश्मनों ने नवाज़ा है इस क़दर
कमज़र्फ़ दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही
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मुहब्बत का मुक़द्दर तो अधूरा था,अधूरा है
कभी आंसू नहीं होते, कभी दामन नहीं होता
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सच पूछिये तो उनको भी हैं बेशुमार ग़म
जो सब से कह रहे हैं कि हम खैरियत से हैं
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