Monday, July 29, 2013

खोलिए आँख तो सवेरा है


बंद रखिए तो इक अँधेरा है 
खोलिए आँख तो सवेरा है 

सांप यादों के छोड़ देता है 
शाम का वक्त वो सँपेरा है 

फ़ासला इक बहुत जरूरी है 
यार के भेष में बघेरा है 

ताजपोशी उसी की होनी है 
मुल्क में जो बड़ा लुटेरा है 

मरहला है सरायफानी ये 
चार दिन का यहाँ बसेरा है 

रूह बेरंग क्यों ना हो साहब 
हर कोई जिस्म का चितेरा है 

शाम दर पे खड़ी है ऐ 'नीरज' 
अब समेटो जिसे बिखेरा है



(मयंक भाई आपके मिडास टच को सलाम )

Monday, July 15, 2013

किताबों की दुनिया - 84


आज की किताब का जिक्र करने से पहले चलिए थोड़ी सी अर्थ हीन भूमिका बाँधी जाय .अर्थ हीन इसलिए के इसके बिना भी किताब की बात की जा सकती है . हुआ यूँ की इस बार जयपुर प्रवास के दौरान वहां के दैनिक भास्कर अखबार में एक छोटी सी खबर छपी जिसमें सूचना थी की मुंबई के ख्याति प्राप्त शायर श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी से जयपुर के शायर लोकेश साहिल 'आर्ट कैफे' में बैठ कर बातचीत करेंगे। जयपुर में कोई आर्ट कैफे भी है ये भी तब तक पता नहीं था . खैर !! किसी तरह हमने आर्ट कैफे का पता किया और पहुँच गए .

सुरेन्द्र जी ने लोकेश जी से ढेरों बातें की और अपनी ग़ज़लें भी सुनाईं। जयपुर में इस तरह की अनोपचारिक बातचीत का ये अपने आप में अनोखा कार्यक्रम था. कार्यक्रम के बाद सुरेन्द्र जी से बातचीत हुई और उन्होंने मेरी रूचि और पुस्तकों के प्रति अनुराग देख कर उसी वक्त अपनी कुछ किताबें मुझे भेंट में दे दीं . उन्हीं किताबों के ज़खीरे में से एक ताज़ा छपी किताब " ये समंदर सूफियाना है " का जिक्र आज हम करेंगे।


खुदाया इस से पहले कि रवानी ख़त्म हो जाए
रहम ये कर मेरे दरिया का पानी ख़त्म हो जाए

हिफाज़त से रखे रिश्ते भी टूटे इस तरह जैसे
किसी गफलत में पुरखों की निशानी ख़त्म हो जाए

लिखावट की जरूरत आ पड़े इस से तो बेहतर है
हमारे बीच का रिश्ता जुबानी ख़त्म हो जाए

हज़ारों ख्वाइशों ने ख़ुदकुशी कुछ इस तरह से की
बिना किरदार के जैसे कहानी ख़त्म हो जाए

बकौल सुरेन्द्र उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत कविताओं से की और फिर वो कवि सम्मेलनों में बुलाये जाने लगे. मंचीय कवियों की तरह उन्होंने ऐसी रचनाएँ रचीं जो श्रोताओं को गुदगुदाएँ और तालियाँ बजाने पर मजबूर करें. ज़ाहिर है ऐसी कवि सम्मेलनीय रचनाओं ने उन्हें नाम और दाम तो भरपूर दिया लेकिन आत्म संतुष्टि नहीं . साहित्य के विविध क्षेत्रों में हाथ आजमाने के बाद अंत में ग़ज़ल विधा में वो सुकून मिला जिसकी उन्हें तलाश थी.

फैसलों में अपनी खुद्दारी को क्यूँ जिंदा किया
उम्र भर कुछ हसरतों ने इसलिए झगडा किया

मुझसे हो कर तो उजाले भी गुज़रते थे मगर
इस ज़माने ने अंधेरों का फ़क़त चर्चा किया 

मैंने जब खामोश रहने की हिदायत मान ली
तोहमतें मुझ पर लगा कर आपने अच्छा किया
  
कुछ नहीं हमने किया रिश्ता निभाने के लिए
अब जरा बतलाइये कि आपने क्या क्या किया

मूलतः अजमेर निवासी सुरेन्द्र जब फिल्मों में किस्मत आजमाने के लिए मुंबई लिए रवाना हुए तो परिवार और इष्ट मित्रों ने उन्हें वहां के तौर तरीकों से अवगत करवाते हुए सावधान रहने को कहा. मुंबई नगरी के सिने संसार में अच्छे साहित्यकारों की जो दुर्गति होती है वो किसी से छुपी नहीं. सुरेन्द्र ने मुंबई जाने से पहले किसी भी कीमत पर साहित्य की सौदेबाजी न करने का दृढ निश्चय किया.

मुंबई प्रवास के आरंभिक काल में उन्हें अपने इस निश्चय पर टिके रहने में ढेरों समस्याएं आयीं लेकिन वो अपने निश्चय पर अटल रहे.

खिज़ाओं के कई रिश्ते जुड़े हैं जिस्म से मेरे
मगर मैं रूह के भीतर की वीरानी से डरता हूँ

कभी कुनबे के आगे हाथ फैलाता नहीं हूँ मैं
मैं बचपन से ही माँ की हर पशेमानी से डरता हूँ

मुझे रंगों को छू कर देखने की है बुरी आदत
मगर मैं तितलियों की हर परेशानी से डरता हूँ

मुंबई की फिल्म नगरी में दक्ष साहित्यकारों की रचनाओं को खरीद कर या उनसे लिखवा कर अपने नाम से प्रसारित करने वाले मूर्धन्य साहित्यकारों की भीड़ में सुरेन्द्र को एक ऐसा शख्स मिला जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. उस अजीम शख्स को हम सब गुलज़ार के नाम से जानते हैं.

अपनी एक किताब में सुरेन्द्र कहते हैं " ज़िन्दगी में पहली बार महसूस हुआ कि फ़िल्मी कैनवास पर कोई रंग ऐसा भी है जो दिखता ही नहीं महसूस भी होता है. गुलज़ार साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व ने मुझे बेइन्तेहा प्रभावित किया "

तेरी आँखों में मैंने अश्क अपने क्या रखे
तूने समंदर को जरा सी देर में कतरा बना डाला

कभी बादल, कभी बारिश, कभी उम्मीद के झरने
तेरे अहसास ने छू कर मुझे क्या क्या बना डाला

तेरी मौजूदगी ने जख्म पर जब उँगलियाँ रक्खीं
तो मैंने दर्द अपना और भी गहरा बना डाला

सुरेन्द्र और उनकी की शायरी के बारे में गुलज़ार साहब फरमाते हैं "सुरेन्द्र की ग़ज़लों में बदन से रूह तक पहुँचने का ऐसा हुनर मौजूद है जिसे वो खुद सूफियाना रंग कहते हैं मगर मेरा मानना है कि वे कभी कभी सूफीज्म से भी आगे बढ़ कर रूहानी इबादत के हकदार हो जाते हैं. कभी वे कबायली ग़ज़लें कहते नज़र आते हैं तो कभी मौजूदा हालातों पर तबसरा करते ! मुझे हमेशा येही लगा कि मेरी ही शक्ल का कोई शख्स सुरेन्द्र में भी साँसे लेता है "

मुझे मेरी तरह के दूसरे दरिया से तू मिलवा
कि हर कतरे में जिसके इक समंदर सांस लेता हो

जुदा होकर मैं तुझसे यूँ तो जिंदा हूँ मगर ऐसे
कि जैसे जिस्म से काटा हुआ सर साँस लेता हो
  
बनाओ अब कहीं ऐसी इबादतगाह कि जिसमें
दरो दीवार का हर एक पत्थर सांस लेता हो

सुरेन्द्र की ग़ज़लों का पूरा कैनवास देखने के लिए ये बहुत जरूरी है के हम उनकी बाकी सभी किताबों याने "दर्द-बे-अंदाज़", "वक्त के खिलाफ","अंदाज़े बयां और ", "आसमाँ मेरा भी था" , "अंजाम खुदा जाने ", "कोई एहसास बच्चे की तरह" और " कोई कच्चा मकान हो जैसे" को भी पढ़ें. सिर्फ एक किताब को पढ़ कर हम उनकी शायरी की गहराई का अंदाजा नहीं लगा पाएंगे.

"ये समंदर सूफियाना है " और उनकी बाकी अधिकाँश किताबें जयपुर के बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं.


बड़े अंदाज़ से वो बोलता है
मगर खुद को कहाँ वो खोलता है

चखे तो शहद सा लगता है मीठा
ज़हर भी इस तरह से घोलता है

उफनता वो नहीं है दूध जैसे
मगर भीतर बहुत वो खौलता है

हुनर आया है जबसे बोलने का
बहुत खामोश हो कर बोलता है

अगर इस पोस्ट ने आपके मन में सुरेन्द्र की और भी ग़ज़लें पढने की प्यास जगाई है तो इन पुस्तकों की प्राप्ति के लिए बोधि प्रकाशन जयपुर को 098290-18087 पर संपर्क करें या फिर सीधे सुरेन्द्र को उनके मोबाईल न. 09829271388 पर बधाई देते हुए उनसे इन किताबों की प्राप्ति के लिए गुज़ारिश करें. आप उन्हें ghazal1681@yahoo.co.in पर मेल भी लिख सकते हैं. मुझे पूरी उम्मीद है वो अपने सच्चे पाठकों को निराश नहीं करेंगे.

अगली किताब की खोज पर जाने से पहले लीजिये सुरेन्द्र की एक और खूबसूरत ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें और फिर एक विडियो देखें जिसे खाकसार ने उनके जयपुर कार्यक्रम के दौरान अपने मोबाइल की मदद से बनाया था :
यादों के घर लौट के जाना मुश्किल है
दरवाज़े फिर से खुलवाना मुश्किल है

उनसे भी मैं जुदा नहीं हो पाता हूँ
जिनसे मेरा साथ निभाना मुश्किल है

रूह में चाहे वो ही साँसे लेता हो
लेकिन उसको तो छू पाना मुश्किल है

जो रहते हर वक्त दिलों में लोगों के
ऐसे लोगों का मर जाना मुश्किल है

Monday, July 1, 2013

अलग राहों में कितनी दिलकशी है



ज़ेहन में आपके गर खलबली है 
बड़ी पुर-लुत्फ़ फिर ये ज़िन्दगी है 
पुर लुत्फ़ : आनंद दायक 

अजब ये दौर आया है कि जिसमें 
गलत कुछ भी नहीं,सब कुछ सही है 

मुसलसल तीरगी में जी रहे हैं 
ये कैसी रौशनी हमको मिली है 
मुसलसल :लगातार : तीरगी : अँधेरा 

मुकम्मल खुद को जो भी मानता है 
यकीं मानें बहुत उसमें कमी है 

जुदा तुम भीड़ से हो कर तो देखो 
अलग राहों में कितनी दिलकशी है

समंदर पी रहा है हर नदी को 
हवस बोलें इसे या तिश्नगी है 
तिश्नगी : प्यास 

नहीं आती है 'नीरज' हाथ जो भी 
हरिक वो चीज़ लगती कीमती है