Monday, March 28, 2016

किताबों की दुनिया -121

दहलीज़ मेरे घर की अंधेरों से अट न जाय 
पागल हवा चराग़ से आकर लिपट न जाय 

हमसाये चाहते हैं मिरे घर को फूंकना 
और ये भी चाहते हैं घर उनके लपट न जाय

पा ही गया मैं इश्क़ के मकतब में दाखिला 
दुनिया संभल, कि तुझसे मिरा जी उचट न जाय 

एक दुबले पतले सांवले से लड़के ने, जो दूर से देखने पर किसी स्कूल का विद्यार्थी लगता है, जब ये शेर मुझे सुनाये तो हैरत से मुँह खुला ही रह गया " दुनिया संभल। कि तुझसे मिरा जी उचट न जाय " मिसरा दसों बार दोहराया और अहा हा हा कहते हुए उस से पूछा कि ये शेर किसके हैं बरखुरदार ? जवाब में लड़के ने अपना चश्मा ठीक करते हुए शरमा कर सर झुकाया और बोला " मेरे ही हैं नीरज जी " सच कहता हूँ एक बार तो उसकी बात पे बिलकुल यकीन नहीं हुआ और जब हुआ तो उसे गले लगते हुए मैंने भरे गले से कहा - जियो ! 

तुम्हें जिस पर हंसी आई मुसलसल 
वो जुमला तो अखरना चाहिए था 

वहां पर ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी थी 
उसी कूचे में मरना चाहिए था 

किसी की मुस्कराहट छीन बैठे 
सलीक़े से मुकरना चाहिए था 

समझ आया है ये बीनाई खो कर 
उजालों से भी डरना चाहिए था 

आज 'किताबों की दुनिया' में हम चर्चा कर रहे हैं नौजवान शायर जनाब ' इरशाद ख़ान 'सिकंदर' साहब की किताब 'आंसुओं का तर्जुमा' की जो 2016 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के दौरान मंज़र-ए-आम पर आयी और आते ही छा गयी। लोकप्रियता की नयी मिसाल कायम करने वाली इस किताब के पीछे इरशाद की हर हाल में ज़िंदा रहने और होने की जिद के साथ-साथ ज़िन्दगी के सच्चे खरे तज़ुर्बे छुपे हुए हैं।


फिर उसके बाद सोच कि बाकी बचेगा क्या 
तू सिर्फ कृष्ण भक्ति से रसखान काट दे 

महफ़िल की शक्ल आपने देखी है उस घडी 
दानां की बात जब कोई नादान काट दे 

कमतर न आंकिए कभी निर्धन के अज्म को 
अपनी पे आये पानी तो चट्टान काट दे 

गंगा जमुनी तहजीब की नुमाइंदगी करती इरशाद की ग़ज़लें सीधे पढ़ने सुनने वालों के दिल में उत्तर जाती है। ये तय करना मुश्किल है कि इरशाद उर्दू के शायर हैं या हिंदी के। 8 अगस्त 1983 को जन्मे इरशाद ने शायरी की राह अपने आप चुनी बकौल इरशाद शायरी ऐसी विधा थी जिससे उनके पूरे खानदान में किसी का भी दूर दूर तक कोई नाता नहीं रहा था। पूरे कट्टर धार्मिक परिवेश में पले -बढे इरशाद के पीछे शायरी की बला कब और कैसे पड़ गयी ये उन्हें खुद भी नहीं मालूम। अब उनके नक़्शे कदम पर उनकी छोटी बहन परवीन खान बहुत सधे हुए क़दमों से चल रही है। 

हौसला भले न दो उड़ान का 
तज़करा तो छोड़ दो थकान का 

ईंट उगती देख अपने खेत में 
रो पड़ा है आज दिल किसान का 

मुझमें कोई हीरे हैं जड़े हुए 
सब कमाल है तेरे बखान का 

मैं चराग से जला चराग हूँ 
रौशनी है पेशा खानदान का 

 'लफ्ज़' पत्रिका के संपादक संचालक जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी' साहब ने उर्दू के बेहतरीन युवा शायरों की पूरी खेप तैयार करने में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है और आज भी कर रहे हैं। उनके मार्गदर्शन और उस्तादी में जनाब 'विकास राज' और ' स्वप्निल तिवारी' जैसे बहुत से शायरों ने अपने हुनर को संवारा और धार दी। इन दो शायरों की तरह इरशाद भी खुद फ़ारिगुल-इस्लाह ही नहीं हुए बल्कि बहुत अच्छे शेर कहने वाले कई शायरों की रहनुमाई भी कर रहे हैं। 

कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैंने 
फ़ौरन उस पर तितली आकर बैठ गयी 

रोने की तरकीब हमारे आई काम 
ग़म की मिटटी पानी पाकर बैठ गयी 

वो भी लड़ते लड़ते जग से हार गया 
चाहत भी घर बार लुटा कर बैठ गयी 

तुफैल साहब के अलावा इरशाद की शायरी को सजने संवारने में उर्दू के बहुत बड़े शायर जनाब फ़रहत एहसास और डॉ अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। इरशाद भाई ने इस किताब में अपनी बात कहते हुए लिखा भी है कि "तक़दीर जब-जब मुझे मेरी हार गिनवाती है मैं अपनी जीत के तीन नाम, याने 'तुफैल साहब , फरहत एहसास और जनाब अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब , गिनवाकर तक़दीर की बोलती बंद कर देता हूँ। 

जिस्म दरिया का थरथराया है 
हमने पानी से सर उठाया है 

अब मैं ज़ख्मों को फूल कहता हूँ 
फ़न ये मुश्किल से हाथ आया है 

जिन दिनों आपसे तवक़्क़ो थी 
आपने भी मज़ाक़ उड़ाया है 

हाले -दिल उसको क्या सुनाएँ हम 
सब उसी का किया-कराया है 

प्रसिद्ध शायर 'ज्ञान प्रकाश विवेक' जी ने लिखा है कि 'सिकंदर की ग़ज़लों में सादगी की गूँज हमें निरंतर महसूस होती है , उनकी ग़ज़लों में बड़बोलेपन का कोई स्थान नहीं है। विनम्रता इन ग़ज़लों को ऐसे संस्कार में रचती है कि दो मिसरे कोई शोर नहीं मचाते। शायरी का अगर दूसरा नाम तहज़ीब है तो उसे यहाँ महसूस किया जा सकता है। 

तेरी फ़ुर्क़त का अमृत पिया 
और उदासी अमर हो गयी 
फुरकत -जुदाई 

यूँ हुआ फिर करिश्मा हुआ 
मिटटी ही कूज़ागर हो गयी

मुझको मिटटी में बोया गया 
मेरी मिटटी शजर हो गयी 

इरशाद की शायरी की ये तो अभी शुरुआत ही है हमें उम्मीद है कि आने वाले वक्त में वो और भी बेहतरीन शायर बन के मकबूल होगा, जिसकी शायरी में इश्क के अलावा दुनिया के रंजों ग़म खुशियां मजबूरियां घुटन टूटन बेबसी के रंग भी नुमायां होंगे। उर्दू शायरी को इस नौजवान शायर से बड़ी उम्मीदें जगी हैं. और क्यों न जगें ? जिस शायर की पहली ही किताब चर्चा में आ जाय उस से भविष्य में और अच्छे की उम्मीद बंध ही जाती है। अब इरशाद का मुकाबला खुद इरशाद से होगा उसे अब अपनी हर कहन को अपने पहले कहे से बेहतर कहना होगा ये काम जितना आसान दिखता है उतना है नहीं लेकिन हमें यकीन है कि इरशाद के बुलंद हौसले उसे सिकंदर महान बना कर ही छोड़ेंगे। 

मैं भी कुछ दूर तलक जाके ठहर जाता हूँ 
तू भी हँसते हुए बच्चे को रुला देती है 

ज़ख्म जब तुमने दिए हों तो भले लगते हैं 
चोट जब दिल पे लगी हो तो मज़ा देती है 

दिन तो पलकों पे कई ख्वाब सज़ा देता है 
रात आँखों को समंदर का पता देती है 

इस किताब के प्रकाशन के लिए एनीबुक डॉट कॉम की जितनी तारीफ की जाय कम है। बड़े प्रकाशक जहाँ नए और कम प्रचलित लेखकों कवियों या शायरों को छापने से बचते हैं वहीँ एनीबुक ने न केवल इरशाद खान 'सिकंदर' की किताब को छापा बल्कि बहुत खूबसूरत अंदाज़ में छापा। इसके पीछे 'पराग अग्रवाल' जी - जो इसके करता धर्ता हैं, का शायरी प्रेम झलकता है। किताब की प्राप्ति के लिए आप एनीबुक को उनके हाउस न। 1062 , ग्राउंड फ्लोर , सेक्टर 21 , गुड़गांव पर लिखे या contactanybook@gmail.com पर मेल करें। सबसे आसान है की आप इरशाद भाई को उनके मोबाईल 9818354784 पर बधाई देते हुए किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें या फिर पराग अग्रवाल जी से उनके मोबाईल फोन 9971698930 पर बात कर किताब मंगवा लें। चाहे जो करें लेकिन इस होनहार शायर की किताब आपकी निजी लाइब्रेरी में होनी ही चाहिए। अगली किताब की तलाश से पहले आपको पढ़वाते हैं इरशाद की एक ग़ज़ल के ये शेर 

क्या किसी का लम्स फिर इंसा बनाएगा मुझे 
उसके जाते ही समूचा जिस्म पत्थर हो गया 

कारवां के लोग सारे गुमरही में खो गए
मैं अकेली जान लेकर तनहा लश्कर हो गया 

क्या करूँ ग़म भी छुपाना ठीक से आता नहीं 
 दास्ताँ छेड़ी किसी ने मैं उजागर हो गया

Monday, March 14, 2016

किताबों की दुनिया -120

फागुनी बयार चल रही है। इस पोस्ट के आने तक ठण्ड अलविदा कह चुकी है और होली दस्तक दे रही है। फागुन का महीना ही मस्ती भरा होता है तभी तो इस पर हर रचनाकार ने अपनी कलम चलायी है। आज अपनी बात की शुरुआत फागुन पर कही एक मुसलसल ग़ज़ल के कुछ शेरों से करते हैं :-

धूप पानी में यूँ उतरती है 
टूटते हैं उसूल फागुन में 

चोर बाहर दिलों के आते हैं 
जुर्म करने क़ुबूल फागुन में 

एक चेहरे के बाद लगते हैं 
सारे चेहरे फ़ुज़ूल फागुन में 

चांदनी रात भर बिछाती है 
बिस्तरों पर बबूल फागुन में 

शेरो शायरी के आशिक इस अनूठी काफ़िया पैमाई पर वाह वाह कर उठे होंगे। फागुन की चांदनी रातों में तनहा रहने वालों का ऐसा बेजोड़ चित्रण बहुत कम दिखाई देता है। हुनर वही होता है जिसमें हज़ारों बात दोहराई गयी बात को बिलकुल अलग ढंग से पेश किया जाय। नयी बात कहना आसान है लेकिन उस से पाठक को मुग्ध कर लेना मुश्किल होता है। इस से पहले कि हम आज के शायर और किताब की चर्चा करें ये शेर आपके सामने रखते हैं

दुनिया ने कसौटी पे, ता उम्र कसा पानी 
बनवास से लौटा तो शोलों पे चला पानी 

हर लफ्ज़ का मानी से, रिश्ता है बहुत गहरा 
हमने तो लिखा बादल और उसने पढ़ा पानी 

हम जब भी मिले उससे, हर बार हुए ताज़ा 
बहते हुए दरिया का, हर पल है नया पानी 

इस मोम के चोले में , धागे का सफर दुनिया 
अपने ही गले लग के रोने की सजा पानी 

बहुत साल पहले मुंबई के लोकप्रिय शायर कवि मित्र 'देव मणि पांडे " जी के ब्लॉग पर जब से ये ग़ज़ल पढ़ी थी तब से इस शायर की किताब को ढूंढने की ठान ली थी और साहब कहाँ कहाँ इसे नहीं तलाशा लेकिन असफलता हाथ लगी , शायर के पास भी इसकी कोई प्रति नहीं बची थी। आखिर जहाँ चाह वहां राह की तर्ज़ पर सन 2014 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन की स्टाल पर ये मिल ही गयी। आज हम उसी बेमिसाल शायर जनाब " सूर्यभानु गुप्त " जी की किताब " एक हाथ की ताली " का जिक्र करने जा रहे हैं !


हर लम्हा ज़िन्दगी के पसीने से तंग हूँ 
मैं भी किसी कमीज़ के कॉलर का रंग हूँ 

रिश्ते गुज़र रहे हैं लिए दिन में बत्तियां
मैं बीसवीं सदी की अँधेरी सुरंग हूँ 

मांझा कोई यकीन के काबिल नहीं रहा 
तन्हाइयों के पेड़ से अटकी पतंग हूँ 

पद्य प्रेमियों के लिए 144 पृष्ठ की इस किताब में क्या नहीं है ? इस पतली सी किताब में वो सब कुछ है जिसे पाठक पढ़ना चाहते हैं जैसे गीत ,त्रिपदियाँ ,चतुष्पदियां ,हाइकू , दोहे ,मुक्त कवितायेँ और ग़ज़लें ! चूँकि हम अपनी इस श्रृंखला में सिर्फ ग़ज़लों की बात करते हैं इसलिए बाकि की विधाओं में लिखी रचनाएँ पढ़ने के लिए आपको पुस्तक पढ़नी होगी। खुशखबरी ये है कि अब शायद ये पुस्तक वाणी प्रकाशन पर उपलब्ध है। गुप्त जी की कुल जमा 22 ग़ज़लें ही इस किताब में है और सारी की सारी ऐसी कि सभी आप तक पहुँचाने का मन हो रहा है लेकिन ये संभव नहीं इसलिए आप थोड़े को बहुत मान कर संतोष करें

दिल में ऐसे उत्तर गया कोई 
जैसे अपने ही घर गया कोई 

एक रिमझिम में बस , घडी भर की 
दूर तक तर-ब -तर गया कोई 

दिन किसी तरह कट गया लेकिन 
शाम आई तो मर गया कोई 

इतने खाए थे रात से धोखे 
चाँद निकला कि डर गया कोई 

22 सितम्बर, 1940 को नाथूखेड़ा (बिंदकी), जिला : फ़तेहपुर में जन्में सूर्यभानु जी अपना जीवन मुंबई में ही गुज़ार रहे हैं। आपने 12 वर्ष की उम्र से ही कविता लेखन आरम्भ कर दिया था. पिछले 50 वर्षों के बीच विभिन्न काव्य-विधाओं में 600 से अधिक रचनाओं के अतिरिक्त 200 बालोपयोगी कविताएँ प्रमुख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं । विलक्षण प्रतिभा के इस लेखक की एक मात्र किताब "एक हाथ की ताली " उनके लेखन के आरम्भ से 40 सालों बाद प्रकाशित हुई है। अपने नाम और प्रतिष्ठा के प्रति इतनी घोर उदासीनता बहुत कम देखने सुनने को मिलती है। उनका संत स्वभाव ही शायद इसका मूल कारण रहा है, तभी तो ऐसे अद्भुत शेर कहने वाला शायर अपने समकालीनों की तरह मकबूल नहीं हुआ।

अपने घर में ही अजनबी की तरह 
मैं सुराही में इक नदी की तरह 

किस से हारा मैं ये मेरे अंदर 
कौन रहता है ब्रूसली की तरह 

मैंने उसको छुपा के रक्खा है 
ब्लैक आउट में रौशनी की तरह 

बर्फ गिरती है मेरे चेहरे पर 
उसकी यादें हैं जनवरी की तरह 

जिन लोगों ने धर्मयुग पढ़ा है वो सूर्यभानु गुप्त जी को भूल नहीं सकते। धर्मवीर भारती जी ने उनकी बहुत सी ग़ज़लें नियमित रूप से धर्मयुग में प्रकाशित कीं थी , इसके अलावा वो कादंबरी, नवनीत जैसी और भी बहुत सी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल संग्रह "साये में धूप" से पहले आये " एक हाथ की ताली " की ग़ज़लें अपने नए अनूठे अंदाज़ और ताज़गी से जन जन के दिलों पर राज कर रहीं थीं।आपने उनके काफ़िया पैमाई के नमूने तो ऊपर देखे ही हैं अब पढ़ें ये ग़ज़ल जिसमें उन्होंने रदीफ़ में कमाल किया है :-

खोल से अपने मैं निकलता हूँ 
धान-सा कूटता है सन्नाटा 

एक दिन भीगता है मेले में 
साल भर सूखता है सन्नाटा 

खुद को खुद ही पुकार कर देखो 
किस क़दर गूंजता है सन्नाटा 

खत्म होते ही हर महाभारत 
खैरियत पूछता है सन्नाटा 

मुंबई महानगर में सूर्यभानु गुप्त और जावेद अख़्तर ने साथ-साथ अपना सफ़र शुरु किया था। जावेद को मंज़िलें मिलीं । सूर्यभानु गुप्त को आज भी मंज़िलों की तलाश है। शायर बनना कितना मुश्किल काम हैं, इसे बताने के लिए उनका ही एक शेर देखें :

 जो ग़ालिब आज होते तो समझते 
ग़ज़ल कहने में क्या कठनाइयाँ हैं 

हालाँकि उनकी ढेरों रचनाएँ गुजराती , उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी में अनूदित हो चुकी हैं लेकिन लोकप्रियता के जिस शिखर पर उन्हें होना चाहिए था वो वहां कभी नहीं पहुंचे । इस संत स्वभाव के व्यक्ति को शायद अपने आपको बेचने की कला नहीं आती होगी । ख़ामोशी से अपना काम करने वाले इस बेजोड़ शायर की एक लम्बी ग़ज़ल के ये शेर देखें :

कंघियां टूटती हैं शब्दों की 
साधुओं की जटा है ख़ामोशी 

इक तबस्सुम से पार हों सदियाँ 
गोया मोनालिज़ा है ख़ामोशी 

घर की एक-एक चीज़ रोती है 
बेटियों की विदा है ख़ामोशी 

दोस्तों खुद तलक पहुँचने का 
मुख़्तसर रास्ता है ख़ामोशी 

ढूंढ ली जिसने अपनी कस्तूरी 
उस हिरन की दिशा है ख़ामोशी 

सूर्यभानु जी की ग़ज़लें किसी विशेषता का ठप्पा लगा कर शो रूम में नहीं सजतीं, वो बिना किसी स्कूल विशेष का प्रतिनिधित्व किये अपनी पहचान आप बनाती हैं। ये शायर की दूरदृष्टि और रचना शिल्प ही है जो अस्सी नब्बे के दशक में कही गयी इन ग़ज़लों को आज भी ताज़ा रखे हुए है। भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर। और परिवार पुरस्कार (1995 ), मुम्बई द्वारा सम्मानित गुप्त की एक ग़ज़ल इन शेरों को पढ़वाते हुए अब हम आपसे विदा लेते हैं।

हमारी दुआ है की गुप्त जी स्वस्थ रहते हुए शतायु हों और यूँ ही अपने अनूठे सृजन से हमें नवाज़ते रहें। जो पाठक उन्हें बधाई देना चाहे वो उन्हें उनके इस पते पर " सूर्यभानु गुप्त, 2, मनकू मेंशन, सदानन्द मोहन जाधव मार्ग, दादर (पूर्व), मुम्बई – 400014, दूरभाष : 022-24137570 " संपर्क कर सकते हैं।

सुबह लगे यूँ प्यारा दिन 
जैसे नाम तुम्हारा दिन 

पेड़ों जैसे लोग कटे 
गुज़रा आरा-आरा दिन 

उम्मीदों ने टाई सा 
देखी शाम , उतारा दिन 

रिश्ते आकर लौट गए 
 हम-सा रहा कुंवारा दिन