Monday, September 26, 2011

सुखनवर


अगर मैं आपसे पूछूं कि क्या आप जनाब अनवारे-इस्लाम को जानते हैं तो आप में से अधिकांश शायद अपनी गर्दन को ऊपर नीचे हिलाने की बजाय दायें बाएं हिलाएं. आपकी गर्दन को दायें बाएं हिलते देख मुझे ताज़्जुब नहीं होगा. अदब से मुहब्बत करने वालों का यही अंजाम होता देखा है. जो बाज़ार में बैठ कर बिकाऊ नहीं हैं उन्हें भला कौन जानता है ? खुद्दारी से अपनी शर्तों पर जीने वाले इंसान विरले ही होते हैं और ऐसे विरले लोग ही ऐसा शेर कह सकते हैं:-

हमने केवल खुदा को पूजा है
गैर की बंदगी नहीं होती

इस्लाम भाई भोपाल निवासी हैं और एक पत्रिका "सुखनवर "चलाते हैं. अनेक राज्यों से सम्मान प्राप्त और लगभग साठ से ऊपर एडल्ट एजुकेशन की किताबों के लेखक इस्लाम भाई ने फिल्मों और टेलीविजन के धारावाहिकों में लेखन और अभिनय भी किया है. बहुमुखी प्रतिभा के धनि जनाब अनवारे इस्लाम साहब से मुझे गुफ्तगू करने का मौका मिल चुका है, उनसे गुफ्तगू करना ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती को करीब से महसूस करने जैसा है. वो कमाल के शेर कहते हैं और तड़क भड़क से कोसों दूर रहते हैं. आईये आज उनके कुछ अशआर आप को पढवाएं

किसी की मेहरबानी हो रही है ,
मुकम्मल अब कहानी हो रही है .

समंदर को नहीं मालूम शायद ,
हमारी प्यास पानी हो रही है .

वो अपनी माँ को समझाने लगी है ,
मिरी बिटिया सयानी हो रही है .

नहीं आये हैं इसमें दाग़ लेकिन ,
मिरी चादर पुरानी हो रही है .

हर इक शय पर निखार आया हुआ है ,
जवानी ही जवानी हो रही है .

****

दुनिया की निगाहों में ख़यालों में रहेंगे ,
जो लोग तिरे चाहने वालों में रहेंगे .

हमको तो बसाना है कोई दूसरी दुनिया ,
मस्जिद में रहेंगे न शिवालों में रहेंगे .

इक तुम हो कि ज़िंदा भी शुमारों में नहीं हो ,
इक हम हैं कि मरकर भी हवालों में रहेंगे .

ए वक़्त तिरे ज़ुल्मो -सितम सह के भी ख़ुश हैं ,
हम लोग हमेशा ही मिसालों में रहेंगे .

गुल्शन के मुक़द्दर में जो आये नहीं अब तक ,
वो नक्श मिरे पाँव के छालों में रहेंगे .

इस हर फन मौला शख्स से संपर्क के अलग अलग रास्ते आपको बता रहे हैं आपको जो पसंद आये चुन लें लेकिन संपर्क जरूर करें.

पता : सी -16 , सम्राट कालोनी ,अशोका गार्डन ,भोपाल -462023 (म .प्र .)
ई मेल : sukhanwar12@gmail.com
ब्लॉग : http://patrikasukhanwar.blogspot.com/
मोबाइल : 09893663536 फ़ोन : 0755-4055182

अब देखिये उस शख्श को जो जिसके चेहरे पर इत्मीनान है और कलम में जान है याने जनाब अनवारे इस्लाम साहब


Monday, September 19, 2011

किताबों की दुनिया - 60

लीजिये ख़रामा ख़रामा चलते हुए आज किताबों की दुनिया अपने साठवें पड़ाव पर पहुँच गयी है. इंसान जब साठ का होता है तो कहते हैं वो सठिया गया है याने उससे अब कुछ नया प्राप्त करने की सम्भावना क्षीण हो गयी है. देखा भी गया है कि साठ के बाद का व्यक्ति सिर्फ अपने विगत अनुभवों की जुगाली ही करता है, लेकिन "किताबों की दुनिया "श्रृंखला के लिए ये बात उलट है. वो उतरोत्तर जवान हो रही है. अपने साठवें पड़ाव पर इस श्रृंखला में हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक ऐसे युवा शायर की किताब जिसके अशआर आपके साथ हँसते हैं, खेलते हैं, रोते हैं, साँस लेते हैं. इस शायर को पढ़ कर यकीन हो जाता है के उर्दू ग़ज़ल का भविष्य बहुत उज्जवल है. वो लोग, जिन्हें लगता है कि उर्दू शायरी अब दम तोड़ने लगी है, इस किताब को जरूर पढ़ें मुझे यकीन है कि इसे पढने के बाद वो कम से कम इस फ़िक्र से तो ग़मज़दा नहीं ही होंगें. जो शायर

बहुत घुटन है, नयी शायरी जरूरी है
ग़ज़ल के शहर में अब ताजगी जरूरी है

या फिर

चबाते हो उन्हीं थूके हुए निवालों को
नए रदीफ़ नए काफिये तलाश करो

जैसे अनूठे अशआर कह रहा है उसका तहे दिल से इस्तेकबाल मेरे ख़याल से बहुत जरूरी है. ये इस्तेकबाल एक नए शायर का ही नहीं है उस रौशनी का है जो पुराने अँधेरे कमरों को रोशन करने आ रही है. तो आईये आज खुले दिल से बात करते हैं होनहार युवा शायर डा."विकास शर्मा राज़ "की पहली किताब "बारिश खारे पानी की" के बारे में जिसे "लफ्ज़ प्रकाशन" नोएडा द्वारा प्रकाशित किया गया है.


जिस वक्त रौशनी का तसव्वुर मुहाल था
उस शख्स का चिराग़ जलाना कमाल था
तसव्वुर: कल्पना :मुहाल: कठिन

उसके बिसात उलटने से मालूम हो गया
अपनी शिकस्त का उसे कितना मलाल था

अफ़सोस ! अपनी जान का सौदा न कर सके
उस वक्त कीमतों में बला का उछाल था

नए नवेले अंदाज़ में शेर कहने वाले विकास शर्मा राज़ जी ने विज्ञान विषय (रसायन शास्त्र ) में एम्.फिल, पी.एच.डी. किया है और वर्तमान में सोनीपत, हरियाणा में विज्ञान शिक्षक की हैसियत से कार्यरत हैं. वो दुनिया को वैज्ञानिक दृष्टि से देखते हैं और तर्क का प्रयोग करते हुए शेर कहते हैं:

धूप को चांदनी कहा कीजे
वक्त के साथ भी चला कीजे

दरमियाँ पत्थरों के रहना है
अपने लहजे को खुरदुरा कीजे

अपनी सोहबत बड़ी जरूरी है
वक्त कुछ खुद को भी दिया कीजे

विज्ञान के छात्र होने से इंसान के सोचने का तरीका शुष्क नहीं हो जाता बल्कि उसमें और भी कोमलता आ जाती है. राज़ जब भी कोमल अहसास से लबरेज़ शेर कहते हैं तो वो सीधे दिल में घर कर जाते हैं.

निगाहों से उजाला बोलता है
वो चुप रह कर भी क्या क्या बोलता है

नज़र आती है ऐसी रौशनी कब
वो घर पर है दरीचा बोलता है
दरीचा: खिड़की

कोई सहरा कहे तो मान भी लें
बहुत प्यासा हूँ दरिया बोलता है

ग़ज़ल का इतिहास खासा पुराना है पुराने ही वो लफ्ज़ हैं जो उसमें इस्तेमाल होते हैं और तो और इंसानी ज़ज्बात, जैसे दुःख सुख आशा निराशा भी नहीं बदले हैं. आज भी हम उसी बात पर आंसू बहाते या हँसते हैं जिस बात पर सदियों पहले बहाया या हंसा करते थे. ऐसे में कामयाब शायर वोही है जिसे उन्हीं पुरानी बातों या ज़ज्बात को नए अंदाज़ में नए नज़रिए से पेश करने का हुनर आता है. उन्हीं बातों को नए कलेवर में देख हम तालियाँ बजाने लगते हैं. इस हुनर को हासिल करने में उम्र बीत जाया करती है और फिर भी ये हुनर किसी किसी को ही नसीब होता है. ख़ुशी की बात ये है कि विकास राज़ को ये हुनर बहुत कम उम्र में ही हासिल हो गया है.

वो जो डूबा है तो अपनी ही अना के कारण
वो अगर चाहता आवाज़ लगा सकता था

कोशिशें की तो, तअल्लुक को बचने की बहुत
एक हद तक ही मगर खुद को झुका सकता था

अब भी हैरान हूँ क्यूँ उसने बिसात उलटी थी
वो अगर चाहता तो मुझको हरा सकता था

विकास राज़ अपनी शायरी का सारा श्रेय अपने गुरु जनाब "तुफैल चतुर्वेदी" जी को देते हैं. तुफैल साहब जनाब कृष्ण बिहारी "नूर" साहब के शागिर्द रहे हैं उनकी किताब "सारे वर्क तुम्हारे" का जिक्र हम इस श्रृंखला में कर चुके हैं. विकास के नाना प. चन्द्र भान 'मफ्लूक' भी अजीम शायर थे. विकास को शायरी का पहला पाठ जनाब 'नाज़' लायलपुरी साहब ने पढाया. याने शायरी की ये गंगा राज़ के आँगन में हिमालय जैसी बुलंद शख्सियत वाले शायरों से होती हुई उतरी है.

हवा के साथ यारी हो गयी है
दिये की उम्र लम्बी हो गयी है

फ़कत ज़ंजीर बदली जा रही थी
मैं समझा था रिहाई हो गयी है

बची है जो धनक उसका करूँ क्या
तेरी तस्वीर पूरी हो गयी है

मैंने हमेशा कहा है और आज फिर कह रहा हूँ शायर की असली पहचान उसकी छोटी बहर में कही ग़ज़लों से ही मिलती है. शायरी का पूरा अनुभव निचोड़ कर छोटी बहर में खर्च कर देना पड़ता है तब कहीं जा कर एक आध ढंग का शेर हो पाता है. ये ऐसी विधा है जिसे हर कोई अपनाना तो चाहता है लेकिन जिस पर बस किसी किसी का ही चल पाता है. विकास राज़ की इस पहली किताब में अधिकांश ग़ज़लें छोटी बहर में ही हैं. ये उनके गुरुओं का आशीर्वाद ही है जो उनसे छोटी बहर में बेहतरीन अशआर कहलवा गया है. इस विधा में मैं अभी तक विज्ञान व्रत जी को ही श्रेष्ठ मानता आया हूँ.

शमअ कमरे में सहमी हुई है
खिडकियों से हवा झांकती है

जिस दरीचे पे बेलें सजी थीं
जाला मकड़ी वहां बुन रही है

सिर्फ चश्मा उतारा है मैंने
ज़हन में रौशनी हो गयी है

उम्र भर धूप में रहते रहते
ज़िन्दगी सांवली हो गयी है

"तुफैल चतुर्वेदी" साहब ग़ज़लों और व्यंग विनोद की श्रेष्ठ भारतीय पत्रिका " लफ्ज़ "के प्रकाशक और मुख्य संपादक हैं उन्हीं के साथ सह संपादक की हैसियत से 'राज़' लफ्ज़ का काम काज भी सँभालते हैं. तुफैल साहब ने किताब की भूमिका में बहुत ज़ज्बाती होते हुए लिखा है: "मैं अपने दादा उस्ताद स्वर्गीय 'फ्ज़ल अब्बास नक़वी' साहब अपने उस्ताद स्वर्गीय 'कृष्ण बिहारी नूर' के हुज़ूर में जब भी पहुंचूंगा तो इस शान और एतमाद के साथ पहुंचूंगा कि मैंने, उनसे मुझ तक आया इल्म, उनके पोते 'राज़' तक ईमानदारी से पहुंचा दिया है. अगर ये कोई बड़ी बात है तो है और अगर नहीं है तो न सही"

ऐसी प्यास और ऐसा सब्र
दरिया पानी-पानी है

धरती, धूप, हवा, बारिश
दाता कितना दानी है

हमने चख कर देख लिया
दुनिया खारा पानी है

इस किताब की प्राप्ति के लिए आप 'लफ्ज़ प्रकाशन , पी-12, नर्मदा मार्ग, सेक्टर -11 नोएडा -201301 को संपर्क करें या फिर 09810387857 पर फोन करें. राज़ साहब को इस बेहतरीन किताब के लिए 9896551481 पर फोन कर मुबारक बाद जरूर दें. लगभग छियासी ग़ज़लों में से एक भी ग़ज़ल ऐसी नहीं है जिसे यहाँ कोट न किया जा सके लेकिन क्या करें इस पोस्ट की अपनी सीमाएं हैं इसलिए हमें अब यहाँ रुकना होगा . आपके दिल में अच्छी शायरी की प्यास हमने जगा दी है अब इसे बुझाना आपका काम है. आखरी में जनाब मुनव्वर राणा साहब की इस बात के साथ जो मेरे भी दिल की भी आवाज़ है, हम आपसे इज़ाज़त चाहेंगे:"अगर मुझे ईमानदारी से अपनी बात कहने की अनुमति हो तो ये आसानी से कह सकता हूँ कि विकास की ग़ज़लों के चराग़ से मुझ जैसे उम्र की ढलान पर खड़े हुए लोगों की आँखों की रौशनी बढ़ जाती है."

कट न पायी किसी से चाल मेरी
लोग देने लगे मिसाल मेरी

मेरे घर आके मुझको चौंका दे
लॉटरी भी कभी निकाल मेरी

मेरे शेरों को गुनगुनाता है
बंद है जिस से बोलचाल मेरी

Monday, September 12, 2011

डरेगा बिजलियों से क्‍यों शजर वो



छोटी बहर में एक निहायत सीधी सादी ग़ज़ल


हमेशा बात ये दिल ने कही है
तुम्‍हारा साथ हो तो जिंदगी है

उछालो ज़ोर से कितना भी यारों
उछल कर चीज़ हर नीचे गिरी है

किसी के दर्द में आंसू बहाना
इबादत है खुदा की, बंदगी है

डरेगा बिजलियों से क्‍यों शजर वो
जड़ों में जिसकी थोड़ी भी नमी है

उजाले तब तलक जिंदा रहेंगे
बसी जब तक दिलों में तीरगी है

कभी मत भूल कर भी आजमाना
ये बस कहने को ही दुनिया भली है


यहां अटके पड़े हैं आप 'नीरज'
वहां मंजिल सदाएं दे रही है



( बिना गुरुदेव पंकज जी की रहनुमाई के ये ग़ज़ल पूरी नहीं होती )

Monday, September 5, 2011

किताबों की दुनिया - 59

दोस्तों आज आपके साथ चलते चलते इस ब्लॉग को चार साल पूरे हो गए हैं. आपका स्नेह ही वो उर्जा है जो इसे चलाये हुए है.

*********
आज से तैतीस साल पहले याने सन 1978 में एक फिल्म आई थी "गमन" जिसे मुजफ्फर अली साहब ने निर्देशित किया था और जिसमें फारुख शेख और स्मिता पाटिल ने अभिनय.किया था. फिल्म आई, फ़िल्मी हलकों में बहुत चर्चित हुई, लेकिन कुछ खास चली नहीं. "गमन" रोटी रोज़ी की जद्दोजेहद में गाँव से मुंबई आकर टैक्सी चलाने का काम करने वाले एक आम इंसान पर बनी मार्मिक फिल्म थी. आईये इस फिल्म का एक गीत सुनते/देखते हैं:


इस फिल्म के लिए सन १९७९ में संगीतकार "जयदेव" जी को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरूस्कार दिया गया और इस गीत के लिए गायिका "छाया गांगुली" को सर्वश्रेष्ठ महिला गायिका का राष्ट्रीय पुरूस्कार मिला. मजे की बात है इस गीत को पकिस्तान की मशहूर गायिका आबिदा परवीन (http://www.youtube.com/watch?v=y71um-KfgAE&feature=related) और टीना सानी जी (: http://www.youtube.com/watch?v=qSghQYU_9qc&feature=related) ने भी गाया है.

अफ़सोस "छाया गांगुली" जी का गीत तो बहुत अधिक चर्चित नहीं हुआ लेकिन इस फिल्म के एक दूसरे गीत ने धूम मचा दी. गीत के बोलों में आम जन को अपनी ही कहानी सुनाई दी. इस मधुर गीत को स्वर दिया था सुरेश वाडकर जी ने, आईये सुनते/देखते हैं:


पीड़ा को, चाहे वो विरह की हो या घर से दूर हालात से लड़ते हुए इंसान की, इतने खूबसूरत शायराना अंदाज़ में पहले शायद ही कभी किसी फिल्म में बयां किया गया हो. मुलाहिजा कीजिये :

याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चांदनी जगमगाती रही रात भर

***
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढें
पत्थर की तरह बेहिसो बेजान सा क्यूँ है

आप सोच रहे होंगे ये क्या हुआ "किताबो की दुनिया " श्रृंखला में फिल्म की चर्चा कैसे? सही सोच रहे हैं,क्या है कि बात को घुमा फिरा कर कहना ही आजकल फैशन में है. चर्चा शुरू हमने जरूर फिल्म से की है लेकिन बात पहुंचाई है उस शायर तक जिसका नाम है "शहरयार". आज हम उन्हीं की किताब "सैरे ज़हां" की चर्चा करेंगे.


डा.अख़लाक़ मोहम्मद खान "शहरयार" साहब की इस किताब की लोकप्रियता को देखते हुए वाणी प्रकाशन वाले 2001 से अब तक इसके तीन संस्करण निकाल चुके हैं लेकिन मांग है के पूरी ही नहीं हो पाती. आज के दौर में शायरी की किताब के तीन संस्करण बहुत मायने रखते हैं. इसकी खास वजह ये है के शहरयार साहब की शायरी उर्दू वालों को उर्दू की और हिंदी वालों को हिंदी की शायरी लगती है.

इस जगह ठहरूं या वहां से सुनूँ
मैं तेरे जिस्म को कहाँ से सुनूँ

मुझको आगाज़े दास्ताँ है अज़ीज़
तेरी ज़िद है कि दरमियाँ से सुनूँ
आगाज़े दास्ताँ : कहानी का आरम्भ

कितनी मासूम सी तमन्ना है
नाम अपना तेरी ज़बां से सुनूँ

शहरयार साहब , जिनका जन्म 16 जून 1936 को बरेली के पास अन्वाला गाँव में हुआ,साहित्य के लिए भारत का सर्वश्रेष्ठ "ज्ञान पीठ" पुरूस्कार प्राप्त करने वाले उर्दू के चौथे रचनाकार हैं. इनसे पूर्व ये पुरूस्कार प्राप्त करने वाले महान उर्दू शायर "फ़िराक गोरखपुरी "(किताब :गुले-नगमा, 1969), अफसाना निगार "कुर्रुतुलैन हैदर" (किताब:आखरी शब् के हमसफ़र, 1989) और शायर "अली सरदार जाफरी" (उर्दू साहित्य को समृद्ध करने पर,1997) ही हैं. शहरयार साहब को ये पुरूस्कार सन 2008 में दिया गया. इसके पहले सन 1987 में शहरयार साहब को उनकी किताब "ख्वाब का दर बंद है " के लिए "साहित्य अकादमी" पुरूस्कार भी दिया गया.

हवा से उलझे कभी सायों से लड़े हैं लोग
बहुत अज़ीम हैं यारों बहुत बड़े हैं लोग

इसी तरह से बुझे जिस्म जल उठें शायद
सुलगती रेत पे ये सोच कर पड़े हैं लोग

सुना है अगले ज़माने में संगो-आहन थे
हमारे अहद में तो मिटटी के घड़े हैं लोग
संगो-आहन = पत्थर और लोहा (मज़बूत)

शहरयार साहब लगभग एक दशक तक अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में कार्य करने के बाद सन 1996 में उर्दू विभाग के चेयर मैन और अध्यक्ष पद से रिटायर हुए. उसके बाद से वो वहीँ बस गए हैं और अब उर्दू साहित्य की लगातार सेवा अपनी पत्रिका "शेरो-हिकमत " के माध्यम से कर रहे हैं.

शहरयार साहब अपनी शायरी के माध्यम से इंसानी ज़िन्दगी में प्यार और सरोकार भरते हैं. ऐसी कोई हलचल जिस से ज़िन्दगी जीने में बाधा पड़े उनको नागवार गुज़रती है और वो इसका विरोध करते हैं. जीवन मूल्यों में होती लगातार गिरावट उन्हें दुखी करती है.

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या

मैं एक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या

उजाड़ते हैं जो नादाँ इसे उजड़ने दो
कि उजड़ा शहर दोबारा बसा नहीं है क्या

प्रसिद्द कथाकार कमलेश्वर कहते हैं " शहरयार को पढता हूँ तो रुकना पड़ता है...पर यह रूकावट नहीं, बात के पडाव हैं, जहाँ सोच को सुस्ताना पड़ता है- सोचने के लिए. चौंकाने वाली आतिशबाजी से दूर उनमें और उनकी शायरी में एक शब्द शइस्तगी है. शायद येही वजह है कि इस शायर के शब्दों में हमेशा कुछ सांस्कृतिक अक्स उभरते हैं...सफ़र के उन पेड़ों की तरह नहीं हैं जो झट से गुज़र जाते हैं बल्कि उन पेड़ों की तरह हैं जो दूर तक चलते हैं और देर तक सफ़र का साथ देते हैं "

हुआ ये क्या कि खमोशी भी गुनगुनाने लगी
गयी रुतों की हर इक बात याद आने लगी

खबर ये जब से पढ़ी है, ख़ुशी का हाल न पूछ
सियाह रात ! तुझे रौशनी सताने लगी

बुरा कहो कि भला समझो ये हकीक़त है
जो बात पहले रुलाती थी अब हँसाने लगी

आम उर्दू शायरी के दीवानों के लिए शहरयार सिर्फ उस शायर का नाम है जिसने फिल्म उमराव जान के गीत लिखे, उन्हें सामान्यतः मुशायरों में नहीं देखा /सुना गया है .उन्हें शायद मुशायरों में जाना भी पसंद नहीं है. उन्होंने ने साहित्य शिल्पी में छपे अपने एक साक्षात्कार में कहा है: "इंडिया मे मुशायरों और कवि सम्मेलनों मे सिर्फ चार बाते देखी जाती है- पहली, मुशायरा कंडक्ट कौन करेगा? दूसरी- उसमे गाकर पढ़्ने वाले कितने लोग होगे? तीसरी- हंसाने वाले शायर कितने होंगे और चौथी यह कि औरतें कितनी होगीं? मुशायरा आर्गेनाइज –पेट्रोनाइज करने वाले इन्ही चीजों को देखते है। इसमे शायरी का कोई जिक्र नहीं। हर जगह वे ही आजमाई हुई चीजें सुनाते है। भूले बिसरे कोई सीरियस शायर फँस जाता है, तो सब मिलकर उसे डाउन करने की कोशीश करते है। इसे आप पॉपुलर करना कह लीजिए। फिल्म गज्ल भी बहुत पॉपुलर कर रहे है। पर बहुत पापुलर करना वल्गराइज करना भी हो जाता है बहुत बार। इंस्टीट्यूशन मे खराबी नहीं, पर जो पैसा देते है, वे अपनी पसद से शायर बुलाते है। गल्फ कंट्रीज मे भी जो फाइनेंस करते है, पसद उनकी ही चलती है। उनके बीच मे सीरियस शायर होगे तो मुशकिल से तीन चार और उन्हे भी लगेगा जैसे वे उन सबके बीच आ फँसे है। जिस तरह की फिलिंग मुशायरो के शायर पेश करते है, गुमराह करने वाली, तास्तुन, कमजरी वाली चीजें वे देते है, सीरियस शायर उस हालात मे अपने को मुश्किल मे पाता है।"

न खुशगुमान हो उस पर तू ऐ दिले-सादा
सभी को देख के वो शोख़ मुस्कुराता है

जगह जो दिल में नहीं है मेरे लिए न सही
मगर ये क्या कि भरी बज़्म से उठाता है

अजीब चीज़ है ये वक्त जिसको कहते हैं
कि आने पाता नहीं और बीत जाता है

शहरयार साहब की अब तक चार प्रसिद्द किताबें उर्दू में शाया हो चुकी हैं उनकी सबसे पहली किताब सन १९६५ में "इस्मे-आज़म", दूसरी १९६९ में " सातवाँ दर", तीसरी १९७८ में "हिज्र के मौसम" और चौथी १९८७ में " ख्वाब के दर बंद हैं" प्रकाशित हुई. उर्दू के अलावा देवनागरी में भी उनकी पांच किताबें छप कर लोकप्रिय हो चुकी हैं.सैरे-जहाँ किताब की सबसे बड़ी खूबी है के इसमें उनकी चुनिन्दा ग़ज़लों के अलावा निहायत खूबसूरत नज्में भी पढने को मिलती हैं. वाणी प्रकाशन वालों ने इसे पेपर बैक संस्करण में छापा है जो सुन्दर भी है और जेब पर भारी भी नहीं पड़ता.

जो कहते थे कहीं दरिया नहीं है
सुना उनसे कोई प्यासा नहीं है

दिया लेकर वहां हम जा रहे हैं
जहाँ सूरज कभी ढलता नहीं है

चलो आँखों में फिर से नींद बोएँ
कि मुद्दत से तुझे देखा नहीं है

इस किताब की हर ग़ज़ल यहाँ उतारने लायक है लेकिन मेरी मजबूरी है के मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाउँगा. अगर आपको ऐसी नज्में और ग़ज़लें पढनी हैं जो दिलो दिमाग को सुकून पहुंचाएं, हमारे चारों और के हालात पर, ज़िन्दगी पर रौशनी डालें तो ये किताब .आपके पास होनी चाहिए. वाणी प्रकाशन वालों का पता मैं यूँ तो अब तक न जाने कितनी बार इस श्रृंखला में दे चुका हूँ लेकिन अगर आप पीछे मुड़ कर देखने में विश्वास नहीं रखते तो यहाँ एक बार फिर दे देता हूँ :वाणी प्रकाशन:21-ऐ दरियागंज, नयी दिल्ली, फोन:011-23273167 और इ-मेल: vaniprakashan@gmail.com

नाम अब तक दे न पाया इस तअल्लुक को कोई
जो मेरा दुश्मन है क्यूँ रोता है मेरी हार पर

बारिशें अनपढ़ थीं पिछले नक्श सारे धो दिए
हाँ तेरी तस्वीर ज्यों की त्यों है दिले-दीवार पर

आखरी में देखते सुनते हैं वो गीत जिसने शहरयार साहब के नाम को हिन्दुस्तान के घर घर में पहुंचा दिया. आज तीस साल बाद भी जब ये गीत कहीं बजता है तो पाँव ठिठक जाते हैं. इस गीत में रेखा जी की लाजवाब अदाकारी,आशा जी की मदहोश करती आवाज़,खैय्याम साहब का संगीत और शहरयार साहब के बोल क़यामत ढा देते हैं.