दोस्तों आज आपके साथ चलते चलते इस ब्लॉग को चार साल पूरे हो गए हैं. आपका स्नेह ही वो उर्जा है जो इसे चलाये हुए है.
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आज से तैतीस साल पहले याने सन 1978 में एक फिल्म आई थी "गमन" जिसे मुजफ्फर अली साहब ने निर्देशित किया था और जिसमें फारुख शेख और स्मिता पाटिल ने अभिनय.किया था. फिल्म आई, फ़िल्मी हलकों में बहुत चर्चित हुई, लेकिन कुछ खास चली नहीं. "गमन" रोटी रोज़ी की जद्दोजेहद में गाँव से मुंबई आकर टैक्सी चलाने का काम करने वाले एक आम इंसान पर बनी मार्मिक फिल्म थी. आईये इस फिल्म का एक गीत सुनते/देखते हैं:
इस फिल्म के लिए सन १९७९ में संगीतकार
"जयदेव" जी को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरूस्कार दिया गया और इस गीत के लिए गायिका
"छाया गांगुली" को सर्वश्रेष्ठ महिला गायिका का राष्ट्रीय पुरूस्कार मिला. मजे की बात है इस गीत को पकिस्तान की मशहूर गायिका
आबिदा परवीन (http://www.youtube.com/watch?v=y71um-KfgAE&feature=related) और
टीना सानी जी (: http://www.youtube.com/watch?v=qSghQYU_9qc&feature=related) ने भी गाया है.
अफ़सोस
"छाया गांगुली" जी का गीत तो बहुत अधिक चर्चित नहीं हुआ लेकिन इस फिल्म के एक दूसरे गीत ने धूम मचा दी. गीत के बोलों में आम जन को अपनी ही कहानी सुनाई दी. इस मधुर गीत को स्वर दिया था
सुरेश वाडकर जी ने, आईये सुनते/देखते हैं:
पीड़ा को, चाहे वो विरह की हो या घर से दूर हालात से लड़ते हुए इंसान की, इतने खूबसूरत शायराना अंदाज़ में पहले शायद ही कभी किसी फिल्म में बयां किया गया हो. मुलाहिजा कीजिये :
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चांदनी जगमगाती रही रात भर
***
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढें
पत्थर की तरह बेहिसो बेजान सा क्यूँ है
आप सोच रहे होंगे ये क्या हुआ
"किताबो की दुनिया " श्रृंखला में फिल्म की चर्चा कैसे? सही सोच रहे हैं,क्या है कि बात को घुमा फिरा कर कहना ही आजकल फैशन में है. चर्चा शुरू हमने जरूर फिल्म से की है लेकिन बात पहुंचाई है उस शायर तक जिसका नाम है
"शहरयार". आज हम उन्हीं की किताब
"सैरे ज़हां" की चर्चा करेंगे.
डा.अख़लाक़ मोहम्मद खान "शहरयार" साहब की इस किताब की लोकप्रियता को देखते हुए वाणी प्रकाशन वाले 2001 से अब तक इसके तीन संस्करण निकाल चुके हैं लेकिन मांग है के पूरी ही नहीं हो पाती. आज के दौर में शायरी की किताब के तीन संस्करण बहुत मायने रखते हैं. इसकी खास वजह ये है के शहरयार साहब की शायरी उर्दू वालों को उर्दू की और हिंदी वालों को हिंदी की शायरी लगती है.
इस जगह ठहरूं या वहां से सुनूँ
मैं तेरे जिस्म को कहाँ से सुनूँ
मुझको आगाज़े दास्ताँ है अज़ीज़
तेरी ज़िद है कि दरमियाँ से सुनूँ
आगाज़े दास्ताँ : कहानी का आरम्भ
कितनी मासूम सी तमन्ना है
नाम अपना तेरी ज़बां से सुनूँ
शहरयार साहब , जिनका जन्म 16 जून 1936 को बरेली के पास अन्वाला गाँव में हुआ,साहित्य के लिए भारत का सर्वश्रेष्ठ
"ज्ञान पीठ" पुरूस्कार प्राप्त करने वाले उर्दू के चौथे रचनाकार हैं. इनसे पूर्व ये पुरूस्कार प्राप्त करने वाले महान उर्दू शायर
"फ़िराक गोरखपुरी "(किताब :गुले-नगमा, 1969), अफसाना निगार
"कुर्रुतुलैन हैदर" (किताब:आखरी शब् के हमसफ़र, 1989) और शायर
"अली सरदार जाफरी" (उर्दू साहित्य को समृद्ध करने पर,1997) ही हैं. शहरयार साहब को ये पुरूस्कार सन 2008 में दिया गया. इसके पहले सन 1987 में शहरयार साहब को उनकी किताब "ख्वाब का दर बंद है " के लिए "साहित्य अकादमी" पुरूस्कार भी दिया गया.
हवा से उलझे कभी सायों से लड़े हैं लोग
बहुत अज़ीम हैं यारों बहुत बड़े हैं लोग
इसी तरह से बुझे जिस्म जल उठें शायद
सुलगती रेत पे ये सोच कर पड़े हैं लोग
सुना है अगले ज़माने में संगो-आहन थे
हमारे अहद में तो मिटटी के घड़े हैं लोग
संगो-आहन = पत्थर और लोहा (मज़बूत)
शहरयार साहब लगभग एक दशक तक अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में कार्य करने के बाद सन 1996 में उर्दू विभाग के चेयर मैन और अध्यक्ष पद से रिटायर हुए. उसके बाद से वो वहीँ बस गए हैं और अब उर्दू साहित्य की लगातार सेवा अपनी पत्रिका "शेरो-हिकमत " के माध्यम से कर रहे हैं.
शहरयार साहब अपनी शायरी के माध्यम से इंसानी ज़िन्दगी में प्यार और सरोकार भरते हैं. ऐसी कोई हलचल जिस से ज़िन्दगी जीने में बाधा पड़े उनको नागवार गुज़रती है और वो इसका विरोध करते हैं. जीवन मूल्यों में होती लगातार गिरावट उन्हें दुखी करती है.
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं एक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या
उजाड़ते हैं जो नादाँ इसे उजड़ने दो
कि उजड़ा शहर दोबारा बसा नहीं है क्या
प्रसिद्द कथाकार कमलेश्वर कहते हैं
" शहरयार को पढता हूँ तो रुकना पड़ता है...पर यह रूकावट नहीं, बात के पडाव हैं, जहाँ सोच को सुस्ताना पड़ता है- सोचने के लिए. चौंकाने वाली आतिशबाजी से दूर उनमें और उनकी शायरी में एक शब्द शइस्तगी है. शायद येही वजह है कि इस शायर के शब्दों में हमेशा कुछ सांस्कृतिक अक्स उभरते हैं...सफ़र के उन पेड़ों की तरह नहीं हैं जो झट से गुज़र जाते हैं बल्कि उन पेड़ों की तरह हैं जो दूर तक चलते हैं और देर तक सफ़र का साथ देते हैं "
हुआ ये क्या कि खमोशी भी गुनगुनाने लगी
गयी रुतों की हर इक बात याद आने लगी
खबर ये जब से पढ़ी है, ख़ुशी का हाल न पूछ
सियाह रात ! तुझे रौशनी सताने लगी
बुरा कहो कि भला समझो ये हकीक़त है
जो बात पहले रुलाती थी अब हँसाने लगी
आम उर्दू शायरी के दीवानों के लिए शहरयार सिर्फ उस शायर का नाम है जिसने फिल्म उमराव जान के गीत लिखे, उन्हें सामान्यतः मुशायरों में नहीं देखा /सुना गया है .उन्हें शायद मुशायरों में जाना भी पसंद नहीं है. उन्होंने ने
साहित्य शिल्पी में छपे अपने एक साक्षात्कार में कहा है: "इंडिया मे मुशायरों और कवि सम्मेलनों मे सिर्फ चार बाते देखी जाती है- पहली, मुशायरा कंडक्ट कौन करेगा? दूसरी- उसमे गाकर पढ़्ने वाले कितने लोग होगे? तीसरी- हंसाने वाले शायर कितने होंगे और चौथी यह कि औरतें कितनी होगीं? मुशायरा आर्गेनाइज –पेट्रोनाइज करने वाले इन्ही चीजों को देखते है। इसमे शायरी का कोई जिक्र नहीं। हर जगह वे ही आजमाई हुई चीजें सुनाते है। भूले बिसरे कोई सीरियस शायर फँस जाता है, तो सब मिलकर उसे डाउन करने की कोशीश करते है। इसे आप पॉपुलर करना कह लीजिए। फिल्म गज्ल भी बहुत पॉपुलर कर रहे है। पर बहुत पापुलर करना वल्गराइज करना भी हो जाता है बहुत बार। इंस्टीट्यूशन मे खराबी नहीं, पर जो पैसा देते है, वे अपनी पसद से शायर बुलाते है। गल्फ कंट्रीज मे भी जो फाइनेंस करते है, पसद उनकी ही चलती है। उनके बीच मे सीरियस शायर होगे तो मुशकिल से तीन चार और उन्हे भी लगेगा जैसे वे उन सबके बीच आ फँसे है। जिस तरह की फिलिंग मुशायरो के शायर पेश करते है, गुमराह करने वाली, तास्तुन, कमजरी वाली चीजें वे देते है, सीरियस शायर उस हालात मे अपने को मुश्किल मे पाता है।"
न खुशगुमान हो उस पर तू ऐ दिले-सादा
सभी को देख के वो शोख़ मुस्कुराता है
जगह जो दिल में नहीं है मेरे लिए न सही
मगर ये क्या कि भरी बज़्म से उठाता है
अजीब चीज़ है ये वक्त जिसको कहते हैं
कि आने पाता नहीं और बीत जाता है
शहरयार साहब की अब तक चार प्रसिद्द किताबें उर्दू में शाया हो चुकी हैं उनकी सबसे पहली किताब सन १९६५ में "इस्मे-आज़म", दूसरी १९६९ में " सातवाँ दर", तीसरी १९७८ में "हिज्र के मौसम" और चौथी १९८७ में " ख्वाब के दर बंद हैं" प्रकाशित हुई. उर्दू के अलावा देवनागरी में भी उनकी पांच किताबें छप कर लोकप्रिय हो चुकी हैं.सैरे-जहाँ किताब की सबसे बड़ी खूबी है के इसमें उनकी चुनिन्दा ग़ज़लों के अलावा निहायत खूबसूरत नज्में भी पढने को मिलती हैं. वाणी प्रकाशन वालों ने इसे पेपर बैक संस्करण में छापा है जो सुन्दर भी है और जेब पर भारी भी नहीं पड़ता.
जो कहते थे कहीं दरिया नहीं है
सुना उनसे कोई प्यासा नहीं है
दिया लेकर वहां हम जा रहे हैं
जहाँ सूरज कभी ढलता नहीं है
चलो आँखों में फिर से नींद बोएँ
कि मुद्दत से तुझे देखा नहीं है
इस किताब की हर ग़ज़ल यहाँ उतारने लायक है लेकिन मेरी मजबूरी है के मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाउँगा. अगर आपको ऐसी नज्में और ग़ज़लें पढनी हैं जो दिलो दिमाग को सुकून पहुंचाएं, हमारे चारों और के हालात पर, ज़िन्दगी पर रौशनी डालें तो ये किताब .आपके पास होनी चाहिए. वाणी प्रकाशन वालों का पता मैं यूँ तो अब तक न जाने कितनी बार इस श्रृंखला में दे चुका हूँ लेकिन अगर आप पीछे मुड़ कर देखने में विश्वास नहीं रखते तो यहाँ एक बार फिर दे देता हूँ :वाणी प्रकाशन:21-ऐ दरियागंज, नयी दिल्ली, फोन:011-23273167 और इ-मेल:
vaniprakashan@gmail.com
नाम अब तक दे न पाया इस तअल्लुक को कोई
जो मेरा दुश्मन है क्यूँ रोता है मेरी हार पर
बारिशें अनपढ़ थीं पिछले नक्श सारे धो दिए
हाँ तेरी तस्वीर ज्यों की त्यों है दिले-दीवार पर
आखरी में देखते सुनते हैं वो गीत जिसने शहरयार साहब के नाम को हिन्दुस्तान के घर घर में पहुंचा दिया. आज तीस साल बाद भी जब ये गीत कहीं बजता है तो पाँव ठिठक जाते हैं. इस गीत में रेखा जी की लाजवाब अदाकारी,आशा जी की मदहोश करती आवाज़,खैय्याम साहब का संगीत और शहरयार साहब के बोल क़यामत ढा देते हैं.