Monday, April 25, 2011

फिर परिंदा चला उड़ान पे है


फिर परिंदा चला उड़ान पे है
तीर हर शख्स की कमान पे है

फ़स्ल की अब खुदा ही खैर करे
पासबाँ आजकल मचान पे है

तब बदलना नहीं ग़लत उसको
जब लगे रहनुमां थकान पे है

हैं निगाहें बुलन्दियों पे मेरी,
क्या हुआ पाँव गर ढलान पे है

धार शमशीर पर करो अपनी
ज़ुल्म का दौर फिर उठान पे है

शहर के घर में यूं तो सब कुछ है’
पर सुकूँ, गाँव के मकान पे है

बात “नीरज” तेरी सुनेंगे सभी
जब तलक चाशनी ज़बान पे है

Monday, April 18, 2011

किताबों की दुनिया - 50

"किताबों की दुनिया" श्रृंखला की ये पचासवीं कड़ी है. जब ये श्रृंखला शुरू की थी तो सपने में भी गुमान नहीं था के ये श्रृखला इस मुकाम तक पहुंचेगी. आज की भागमभाग वाली ज़िन्दगी में शायरी के लिए चाह के भी वक्त निकालना मुश्किल काम है. शायरी भीमसेन जोशी जी के विलंबित ख्याल गायन जैसी है जिसका लुत्फ़ उठाने के लिए आपके पास मन में सूकून और तसल्ली चाहिए जो आजकल कहीं किसी के पास दिखाई नहीं देती. इस सब के बावजूद आप पाठकों ने अब तक इस श्रृंखला का साथ दिया इसे पढ़ा और पसंद किया अतः इसे पचासवीं पायदान तक पहुँचाने के साथ साथ मेरी लाइब्रेरी को समृद्ध बनाने का श्रेय भी आपको ही जाता है. इस श्रृंखला के कारण ही मेरा व्यक्तिगत रिश्ता चंद बेहतरीन शायरों से बन सका जिसे मैं अपने जीवन की एक बड़ी उपलब्धि मानता हूँ. ये श्रृंखला आगे बढेगी या यहीं रुक जायेगी इसका जवाब देना अभी मुश्किल है.

आज हम अपनी बात की शुरुआत इन बेहतरीन शेरों से करते हैं:


अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी
कि लोग अपनी ही परछाइयों से लड़ने लगे

जो मंजिलें हैं तिरी, सर तुझी को करनी हैं
गिला न कर के तिरे हमसफ़र बिछड़ने लगे

तिरी तलब की ये रातें, ये ख़्वाब कैसे हैं
कि रोज़ नींद में हम तितलियाँ पकड़ने लगे

नींद में तितलियाँ पकड़ने वाले हमारे आज के शायर हैं मरहूम जनाब " मख्मूर सईदी " साहब जिनकी एक निहायत छोटी लेकिन लाजवाब शायरी की किताब "घर कहीं ग़ुम हो गया" का जिक्र हम कर रहे हैं. भला हो वाग्देवी प्रकाशन वालों और नन्द किशोरे आचार्य साहब का जिन्होंने मशहूर शायर जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब की मदद से पहली बार मख्मूर साहब का लाजवाब कलाम हिंदी पाठकों तक पहुँचाया है.


कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां

बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ी कि सेहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मिया

सुलतान मोहम्मद खां, मख्मूर सईदी , ३१ दिसंबर १९३४ में टोंक राजस्थान में पैदा हुए और 3 मार्च 2010 की शाम जयपुर में लम्बी बीमारी झेलते हुए इस दुनिया-ऐ-फानी से रुखसत हो गए. मख्मूर साहब ने शायरी इबादत की तरह की, किसी ओहदे या मकबूलियत को हासिल करने के लिए नहीं. उन्हें पढ़ते सुनते देख कर ऐसा लगता था जैसे कोई फकीर खुदा को पुकार रहा है. अपने दौर के शायरों में उनकी अलग पहचान थी :

भीड़ में है मगर अकेला है
उसका कद दूसरों से ऊंचा है

अपने अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तनहा हूँ वो भी तनहा है

खुद से मिल कर बहुत उदास था आज
वो जो हंस हंस के सबसे मिलता है

मख्मूर साहब को साहित्य अकादमी के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, दिल्ली और राजस्थान की उर्दू अकेदामियों ने भी सम्मानित किया. देश भर में होने वाले मुशायरों में ही नहीं विदेशों में भी उन्हें बहुत आदर के साथ शिरकत का न्योता भेजा जाता. उन्होंने भारत के अलावा और अमेरिका, पाकिस्तान दुबई, आबुधाबी की भी यात्रा की और उर्दू शायरी के चाहने वालों को अपने अशआरों से नवाज़ा.

न रस्ता न कोई डगर है यहाँ
मगर सबकी किस्मत सफ़र है यहाँ

जबां पर जिसे कोई लाता नहीं
उसी लफ्ज़ का सबको डर है यहाँ

न इस शहरे-बेहिस को सहरा कहो
सुनो ! इक हमारा भी घर है यहाँ
शहरे-बेहिस : संवेदना शून्य नगर

हवाओं की उंगली पकड़ कर चलो
वसीला यही मोतबर है यहाँ
वसीला: माध्यम, मोतबर : विश्वसनीय

घर कहीं ग़ुम हो गया
किताब एक गुटके की तरह है जिसे आप आसानी से अपनी जेब में रख सकते हैं और जब जरूरत पड़े पढ़ कर अपनी रूह को सुकून पहुंचा सकते हैं. इस किताब में उनकी लगभग पचपन ग़ज़लों के अलावा सत्तर के करीब नज्में भी संकलित हैं. "गागर में सागर" वाले कथन को अगर प्रत्यक्ष में अनुभव करना हो तो इस किताब को पढ़ें. मात्र पच्चीस रुपये कीमत की इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर वालों को vagdevibooks@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना

पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना

अजब क्या है अगर मख्मूर तुम पर यूरिशे-ग़म^ है
हवाओं की तो आदत है चिरागों से ख़फ़ा रहना

^यूरिशे-ग़म: दुखों का हमला

नन्द किशोर आचार्य जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं "मख्मूर साहब की शायरी आधुनिक है लेकिन आधुनिकतावादी नहीं है, वो परंपरा को अपने में उपजाती है , पर परम्परावादी नहीं है, वह सामाजिक आत्मीयता के गहरे अनुभव से गुज़रती है, पर प्रगतिवादी नहीं है. इसीलिए वो सीधे अपने अन्दर के पाठक को संबोधित है न कि किसी आलोचना समुदाय को."
कहीं पे ग़म तो कहीं पर ख़ुशी अधूरी है
मुझे मिली है जो दुनिया बड़ी अधूरी है

तिरे ख़याल से रोशन तो हैं दिलों के उफ़क़
जो तू नहीं है तो ये रौशनी अधूरी है
उफ़क़: क्षितिज

अगर कोई तिरी दीवानगी पे हँसता है
तो ग़ालिबन तिरी दीवानगी अधूरी है

हमारे बीच अभी आया नहीं कोई दुश्मन
अभी ये तिरी मिरी दोस्ती अधूरी है

उम्मीद है मख्मूर साहब की शायरी की बानगी आपको पसंद आई होगी. आप वाग्देवी वालों से इस किताब को मंगवाने की आसान सी प्रक्रिया से गुजरिये, इस बीच हम चलते हैं एक और किताब की तलाश में, अगर मिल गयी तो फिर हाज़िर होंगे और अगर नहीं मिली तो जय राम जी की...चलते चलते ये शेर भी पढ़ते चलिए क्या पता इन्हें पढ़ कर ही इस किताब को खरीदने की चाह आपके दिल में पैदा हो जाए:

नज़र के सामने कुछ अक्स झिलमिलाये बहुत
हम उनसे बिछुड़े तो दिल में ख्याल आये बहुत

थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत

मिटी न तीरगी 'मख्मूर' घर के आँगन की
चिराग हमने मुंडेरों पे यूँ जलाए बहुत

मखमूर साहब साहित्य अकादमी पुरूस्कार ग्रहण करते हुए

Monday, April 11, 2011

यादों के सब दरख़्त हरे, काट जब दिये

देवानंद साहब की सदा बहार फिल्म "हम दोनों" रंगीन अभी हाल ही में सिनेमा हाल के बड़े परदे पर देखने के बाद "मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया" गीत ज़ेहन में बस गया, उसी तुफैल में ये ग़ज़ल हुई, इस ग़ज़ल को उस गीत को याद करते हुये गुनगुनाइए शायद आनंद आये

कल खेल जीतने का हुनर जो सिखा गया
हमको नियम बदल के वही तो हरा गया

दुश्मन ने वार जब किया, ललकार के मुझे
नज़रों से दोस्तों को मेरी वो गिरा गया

यादों के सब दरख़्त हरे, काट जब दिये
आंखों से मेरी रूठ के सावन ,चला गया

ढाए जो ज़ुल्म सैंकड़ों वो तो भुला दिये
अहसान एक जब किया उसको जता गया

दस्तूर कुछ जहां का निभाया यूँ यार ने
फूलों की बात करके वो काँटा चुभा गया

लोगों की सोच हो गई उल्टी समय के साथ,
कल का लुटेरा आज है नेता चुना गया

गूंगा समझ के जिसपे सितम ढाते सब रहे
चीखा वो एक रोज तो सबको हिला गया

(हमारे प्रिय भाई गौतम को एक माह की छुट्टी मिली थी घर जाने के लिए ये शेर उसे और उस जैसे हमारे फौजी भाइयों को समर्पित है,जो छुट्टियों पर घर जाते हैं)

बस एक माह की मिली छुट्टी थी फौज से
कुछ और तिश्नगी को महीना बढ़ा गया

(गुरुदेव पंकज सुबीर जी की रहनुमाई में कही गयी ग़ज़ल)

Monday, April 4, 2011

किताबों की दुनिया - 49

बेज़रूरत सही, पहचान तो कर लें अपनी
या'नी ख़ुद को कभी आईना दिखाया जाए

नोच लें चाँद को, सूरज को बहा कर रख दें
ये तमाशा भी ज़माने को दिखाया जाए

शे'र गोई की है ता'रीफ़ बस इतनी 'पाशी'
अपने एहसास को लफ़्ज़ों में सजाया जाए

एहसास को लफ़्ज़ों में सजाने की कला, ख़ुद को आईना दिखाने की हिम्मत,चाँद को नोचने और सूरज को बहाने का ज़ज्बा बहुत कम किस्मत वालों को नसीब होता है,उन्हीं चंद किस्मत वालों में से एक हैं हमारी आज की "किताबों की दुनिया" श्रृंखला के शायर मरहूम जनाब "कुमार पाशी” साहब जिनकी किताब "तुम्हारे नाम लिखता हूँ" का हम जिक्र करेंगे।


हर शख्स यहाँ दर्द के रिश्ते में बंधा है
सब दूर सही फिर भी जुदा कोई नहीं है

अब काट दिए पाँव हर इक शख्स के उसने
इस शहर में अब उस से बड़ा कोई नहीं है

"पाशी" जी अजब बज़्म है ये नक्दो-नज़र* की
आलिम** तो हैं सब लिख्खा-पढ़ा कोई नहीं है

नक्दो-नज़र*=आलोचना वाली आँखों **आलिम=विद्वान

कुमार पाशी साहब ४ जुलाई १९३५ को पाकिस्तान के बग़दाद उल ज़दीद में पैदा हुए थे , विभाजन के बाद भारत आये ,पहले जयपुर और बाद में दिल्ली में बस गए जहाँ १७ सितम्बर १९९२ को उनका देहावसान हुआ. आधुनिक उर्दू शायरी का जिक्र उनके बिना अधूरा है. उन्होंने मुशायरों में ही नहीं उर्दू शायरी के गंभीर पाठकों और आलोचकों के बीच अपनी अलग पहचान बना ली. आप उनकी शायरी की शैली में नया पन और प्रतीकों में अनूठा पन पायेंगे।

उसके बदन की धूप का आलम न पूछिए
जलता हो जिस तरह कोई जंगल कपास का

है आँधियों का ज़ोर चमकती है बर्क भी
और हम बनाये बैठे हैं इक घर कपास का

गर्मी है जैसे धूप में उसके ही जिस्म की
और चांदनी में नूर है उसके लिबास का

शायरी में सबसे मुश्किल काम नई नई बहरों, काफियों और रदीफ़ों का चुनाव करना है क्यूँ की बरसों से लिखी जा रही इस विधा में अपनी बात को अलग ढंग से कहना आसान काम नहीं है. ये बात सिर्फ शायरी पर ही लागू नहीं होती बल्कि ज़िन्दगी के हर मोड़ पर नवीनता की तलाश करना भी बहुत मुश्किल काम है, इस बात को अपनी एक ग़ज़ल में पाशी साहब ने मौलिक अंदाज़ में समझाया है:

जो कुछ नज़र पड़ा, मेरा देखा हुआ लगा
ये जिस्म का लिबास भी पहना हुआ लगा

जो शे'र भी कहा वो पुराना लगा मुझे
जिस लफ्ज़ को छुआ वही बरता हुआ लगा

दिल का नगर तो देर से वीरान था मगर
सूरज का शहर भी मुझे उजड़ा हुआ लगा

वाग्देवी प्रकाशन –बीकानेर से प्रकाशित इस किताब में पाशी साहब की लगभग अस्सी ग़ज़लें और लगभग साठ नज्में हैं जिनका चयन श्री नन्द किशोर आचार्य जी ने शीन काफ निजाम साहब के साथ मिल कर किया है. इस पुस्तक की प्राप्ति के लिए आप वाग्देवी प्रकाशन को vagdevibooks@gmail.com पर मेल लिख सकते हैं।

तू अपने चारों तरफ़ मौत का अँधेरा लिख
पर उसके गिर्द शिगूफे खिला,उजाला लिख
शिगूफे: कलियाँ

बला की प्यास है दम तोड़ते हैं बेबस लोग
जो हो सके तो मुकद्दर में उनके दरिया लिख

क्यों अपनी ज़ात के जंगल में खो गया 'पाशी'
कभी तो ख़ुद से निकल, दूसरों का किस्सा लिख

जैसा मैं हमेशा कहता आया हूँ छोटी बहर में अपनी बात मुकम्मल तौर पर कहना मुश्किल होता है , सतसई के दोहों की तरह जो "देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर" लेकिन शायर की असली पहचान भी इसी से बनती है. इस किताब में पाशी साहब की छोटी बहर में बहुत अधिक ग़ज़लें तो नहीं हैं लेकिन जो हैं वो कमाल की हैं:

लोग जुरअत कभी दिखाते नहीं
आइनों से नज़र मिलाते नहीं

जानते हैं खरे न उतरेंगे
इसलिए ख़ुद को आजमाते नहीं

खौफ तारी है इस कदर ग़म का
अब ख़ुशी में भी मुस्कुराते नहीं

याद रखते हैं अपने हर ग़म को
हम किसी दोस्त को भुलाते नहीं

यूँ तो पाशी साहब ज्यादातर अपनी कहानियों, कविताओं ,नज्मों के लेखन के लिए जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने ग़ज़ल के फन को भी अपने हुनर से खूब निखारा है. इंसान की त्रासदियों को उन्होंने जानदार लफ्ज़ दिए हैं, कहन की सरलता और सहजता उनके अशआरों को पढने सुनने वालों से सीधा राबता बिठा लेती है, उन्हें तब उनके ये अशआर अपनी ही आप बीती से लगने लगता हैं :

वो हुक्मे-ज़बाँबंदी* लगाने भी न देगा
पर दिल की कोई बात सुनाने भी न देगा

देगा वो दुआएं भी कि साया रहे मुझ पर
राहों में मगर पेड़ उगाने भी न देगा

कह देगा न अब याद करूँ मैं उसे 'पाशी'
जब भूलना चाहूँ तो भुलाने भी न देगा
हुक्मे-ज़बाँबंदी = अभियक्ति पर पाबन्दी की आज्ञा

इस छोटी सी प्यारी सी किताब में इतनी अच्छी ग़ज़लें हैं....इतनी अच्छी ग़ज़लें हैं...के क्या कहूँ ? जी करता है इस पोस्ट को बढ़ाता जाऊं और आपको सुनाता...अररर माफ़ कीजियेगा पढवाता जाऊं...क्यूँ कि मुझे ये संदेह है के इस पोस्ट को पढने वाले सभी सुधि पाठक इस पुस्तक को खरीदने की योजना बनायेंगे...अगर मेरा संदेह गलत है तो यकीन मानिए मेरे लिए इस से अधिक ख़ुशी की कोई बात हो ही नहीं सकती. पोस्ट की लम्बाई और आपके कीमती समय को ध्यान में रखते हुए आपसे अगली किताब की चर्चा तक विदा लेता हूँ...

भूलेंगे न हम उनका करम, उन की इनायत
हम ज़ख्म को रख्खेंगे हरा, सोच लिया है

अब उस से किसी तौर हमारी न निभेगी
ढूढेंगे कोई और खुदा, सोच लिया है

चुपचाप से हम देखेंगे जाते हुए उन को
लेकिन न उन्हें देंगे सदा, सोच लिया है