Monday, August 20, 2012

आंखें करती हैं बातें



मैं राजी तू राज़ी है
पर ग़ुस्‍से में क़ाज़ी है

आंखें करती हैं बातें
मुंह करता लफ्फाजी है

जीतो हारो फर्क नहीं
ये तो दिल की बाज़ी है

तुम बिन मेरे इस दिल को
दुनिया से नाराजी है

कड़वा मीठा हम सब का
अपना अपना माजी है

सब में रब दिखता जिसको
वो ही सच्चा हाजी है

दर्द अभी कम है ‘नीरज’
चोट अभी कुछ ताज़ी है


( ये ग़ज़ल गुरु देव पंकज सुबीर जी का मिडास टच लिए हुए है )

Monday, August 6, 2012

किताबों की दुनिया -72

छोटे गाँव कस्बों की तो बात ही छोड़ दें बड़े बड़े शहरों में भी अच्छी शायरी की किताब खोजना रेगिस्तान में पानी खोजने से भी कठिन काम है. सस्ती शायरी के संस्करण भले की रेलवे की बुक स्टाल या एक आध दुकान पर मिल जाएँ लेकिन अगर आप वाकई उम्दा शायरी के शौकीन हैं तो ऐसी किताब को खोजने के लिए आपको दर दर भटकना पड़ेगा. ये बात मैं सिर्फ अपने अनुभव से बता रहा हूँ इसलिए गलत भी हो सकता हूँ क्यूँ कि अनुभव हम सब के अलग अलग हो सकते हैं.

जयपुर में एक "
लोकायत प्रकाशन" है, जहाँ हिंदी की उन किताबों का ढेर है जिन पर मिटटी की परतें चढ़ी रहती हैं, वहां किताबें स्टील के रैक्स के अलावा फर्श पर भी बिखरी पड़ी रहती हैं. लोकायत की डबल दुकान पर एक साधारण सी टेबल के पीछे एक अति साधारण कुर्सी पर चश्मा लगाये बैठे उसके करता धर्ता शेखर जी हमेशा मुझे देखते ही मुस्कुरा कर कहते हैं " आईये सर फिरे नीरज जी"

उनका कहना सही है क्यूँ की आज के युग में कोई भी पढ़ा लिखा इंसान ऐसी साधारण सी दुकान पर किताबें ढूँढने और खरीदने नहीं जाता और अगर किताब हिंदी में हो तो मान के चलिए कि वो इंसान सर फिर ही होगा. किताबों की खोज के दौरान मैंने हर दुकान और बड़े बड़े माल में सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा की किताबों को ही बिकते देखा है.

लोकायत पर किताब की खोज करते और धूल फांकते हुए मेरी नज़र जिस किताब पर पढ़ी उसी का जिक्र हम आज अपनी किताबों की दुनिया की श्रृंखला में करने जा रहे हैं:

हम भी होशियार न थे प्यार भी पागल की तरह
बात फैली है तेरे आँख के काजल की तरह

चार सू सैले हवा* भी है संभलना भी है
ज़ीस्त भी है तेरे उड़ते हुए आँचल की तरह
चार सू सैले हवा:: चारों और हवा के झोंके
ज़ीस्त: ज़िन्दगी

रात सी रात है बरसात है तन्हाई है
कूकता है मेरे दिल में कोई कोयल की तरह

आज की किताब है " आवाज़ चली आती है" और शायर हैं मरहूम जनाब " शाज़ तमकनत" साहब. हिंदी पाठकों के लिए शायद ये नाम अंजाना हो लेकिन दकन में इनका नाम बहुत इज्ज़त से लिया जाता है. शाज़ साहब उर्दू के उन चन्द शायरों में शुमार किये जाते हैं जिन्होंने उर्दू साहित्य में नया इज़ाफा किया है. वो जिस कदर अपने समय में एकांत प्रिय रहे और अपनी ज़िन्दगी के उतार चढ़ावों से गुज़रते हुए शायरी को अपना ओढना-बिछौना बनाया, शायद ही कोई और शायर इस बांकपन के साथ नज़र आता है.



क्या खबर थी कि तेरे बाद ये दिन आयेंगे
आप ही रूठेंगे हम आप ही मन जायेंगे

ज़िन्दगी है तो बहरेहाल गुज़र जायेगी
दिल को समझाया था कल आज भी समझायेंगे

सुबह फिर होगी कोई हादिसा याद आएगा
शाम फिर आएगी फिर शाम से घबराएंगे

31 जनवरी 1933 को हैदराबाद में शाज़ तमनकत साहब का जन्म हुआ. उस वक्त उर्दू शायरी का वहां बोलबाला था. शाज़ साहब को अपनी माँ से बे इन्तहा मोहब्बत थी लेकिन बचपन में ही उनका साया अचानक सर से उठने पर वो टूट गए. उसी टूटन ने शाज़ साहब के भीतर उस शायर को पैदा किया जिसने आगे चल कर इंसान की ज़िन्दगी और समाज के दर्द को अपनी शायरी के विशाल दामन में समेटा. कालेज की पढाई ख़तम होते होते शाज़ साहब की गिनती हैदराबाद के नामवर शायरों में होनी लगी. फ़िराक गोरखपुरी जैसे शायर ने उनके बारे में कहा कि " शाज़ की शायरी मोहब्बत की शायरी है. इनके लफ़्ज़ों की महक दूर से पहचानी जा सकती है."

कुछ रात ढले होती है आहट दरे दिल पर
कुछ फूल बिखर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

मत पूछ नकाबों से तू यारी है हमारी
हम चेहरों से डर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

हर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
हर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

शाज़ साहब का पहला मजमुआ "तराशीदा" 1966 में शाया हुआ उसके बाद 1973 में " बयाज़े शाम" और 1977 में "नीम ख़्वाब". शाज़ साहब ने कम लिखा लेकिन जो लिखा वो उन्हें अमर कर गया. शाज़ साहब ने वारंगल से अध्यापन कार्य शुरू किया और कुछ समय वो पूना भी रहे. पूना में उन्होंने पूना कालेज आफ आर्ट्स के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्य किया. पूना छोड़ते समय वहां "जश्न-ऐ-शाज़ " बड़ी धूम धाम से मनाया गया जिसमें सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, जाँ निसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी और साहिर लुधियानवी जैसे मशहूर शायरों ने शिरकत की. शायर तो शायर इस कार्यक्रम में शिरकत के लिए मुंबई से दिलीप कुमार, वहीदा रहमान और सुनील दत्त साहब भी खिंचे चले आये. शाज़ साहब की शायरी की लोकप्रियता का आलम ये था कि उनकी रचनाओं को बेग़म अख्तर, फरीदा खानम, रईस खान बारसी, विट्ठल राव,गुलाम फ़रीद साबरी और हरिहरन जैसे गायकों ने अपनी आवाज़ दी.

जिस से बेज़ार रहे थे वही दर क्या कुछ है
घर की दूरी ने ये समझाया कि घर क्या कुछ है

रात भर जाग कर काटे तो कोई मेरी तरह
खुद-ब-खुद समझेगा वो पिछला पहर क्या कुछ है

जैसे किस्मत की लकीरों पे हमें चलना है
कौन समझेगा तेरी रहगुज़र क्या कुछ है

शाज़ साहब की शायरी आम आदमी के दिल की आवाज़ है . हिंदी में उनकी रचनाओं का ये पहला संकलन है जिसे शशि नारायण स्वाधीन साहब ने सम्पादित किया है और वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. वाणी प्रकाशन दिल्ली के बारे में पूरी जानकारी आपको इस श्रृंखला में बहुत जगह मिलेगी इसलिए उसे मैं यहाँ नहीं दे रहा. इस किताब के लिए आप वाणी प्रकाशन से संपर्क कर सकते हैं.

ख्याल आते ही कल शब् तुझे भुलाने का
चिराग बुझ गया जैसे मेरे सिरहाने का

करीब से ये नज़ारे भले नहीं लगते
बहुत दिनों से इरादा है दूर जाने का

मैं और कोई बहाना तलाश कर लूँगा
तू अपने सर न ले इल्ज़ाम दिल दुखाने का

जिस ज़माने में शाज़ साहब ने शायरी शुरू की वो ज़माना उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों के इस्तेमाल का ज़माना था. शाज़ साहब ने उसमें सादगी डाली और आम भाषा के लफ़्ज़ों का खूबसूरत इस्तेमाल किया. ये ही उनकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण बना. अपनी ज़बान में अपनी बात सुन कर आम इंसान उनकी शायरी का दीवाना हो गया.

कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे

अब एक दिन की जुदाई भी सह नहीं सकते
जुदा रहे हैं तो बरसों जुदा रहे तुमसे

हर एक शख्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूँ जहाँ फासला रहे तुमसे

18 अगस्त 1985 की सुबह हैदराबाद के शाह अली बंद मोहल्ले के असर अस्पताल के कमरा न. 21 में शाज़ साहब ने हमेशा के लिए अपनी आँखें मींच लीं. हैदराबाद में शायरी के एक युग का अंत हो गया. उर्दू की शायरी जिसमें हिंदी का छायावाद, रहस्यवाद और प्रयोगवाद का हल्का हल्का रंग शाज़ साहब के ज़रिये अदब में एक ऐसी तस्वीर बना चूका था जिसकी कूची शाज़ साहब के हाथों में थी. उनके जाने से ये रंग बिखर गए उन्हीं रंगों को फिर से इस किताब में समटने की कोशिश की गयी है.

प्यासा हूँ रेगज़ार* में दरिया दिखाई दे
जो हाल पूछ ले वो मसीहा दिखाई दे
रेगज़ार: रेगिस्तान

पड़ती है सात रंगों की तेरे बदन पे धूप
जो रंग तू पहन ले वो गहरा दिखाई दे

क्या क्या हकीकतों पे है परदे पड़े हुए
तू है किसी का और किसी का दिखाई दे

इस किताब में ऐसे एक नहीं सैंकड़ों शेर हैं जिन्हें मैं यहाँ कोट करना चाहता हूँ...लेकिन ये मेरी मजबूरी है के मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ. ग़ज़लों के अलावा इस किताब में शाज़ साहब की कुछ चुनिन्दा नज्में भी पढने को मिलती हैं. शाज़ साहब के अपने दोस्त शायरों के साथ लिए गए फोटो इस किताब में चार चाँद लगा देते हैं. मेरी शायरी के सभी दीवानों से गुज़ारिश है कि आप अपनी अलमारी में इस किताब को जरूर शामिल करें. अगली किताब की खोज में निकलने से पहले मैं आपको ये शेर पढवा कर विदा लेता हूँ -

शिकन शिकन तेरी यादें हैं मेरे बिस्तर की
ग़ज़ल के शेर नहीं करवटें हैं शब् भर की

फिर आई रात मेरी सांस, रूकती जाती है
सरकती आती हैं दीवारें फिर मेरे घर की

निबाह करता हूँ दुनिया से इस तरह अय ''शाज़"
कि जैसे दोस्ती हो आस्तीन -ओ -खंज़र की