" मोती मानुष चून" ये तीन शब्द पढ़ते ही हमें रहीम दास जी के दोहे " रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून , पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून " का स्मरण हो आता है और ये स्वाभाविक भी है क्यों कि हमने अब तक इन तीन शब्दों को इस दोहे के अलावा शायद ही कभी कहीं और पढ़ा हो। हमें पता ही नहीं था कि किसी अलबेले शायर ने इन तीन शब्दों को न केवल अपनी ग़ज़ल के एक शेर में ख़ूबसूरती से पिरोया है बल्कि इसी शीर्षक से अपनी ग़ज़लों की एक किताब भी प्रकाशित करवाई है।
अब जिस शायर ने रहीम दास जी के दोहे की एक पंक्ति के टुकड़े को किताब का शीर्षक देने का साहस किया है वो यकीनन कोई आम शायर तो हो ही नहीं सकता। जरूर उसमें रहीम की तरह बेबाक हो कर अपनी बात कहने की कुव्वत होगी, रहीम ही की तरह समाज को कुछ नया कुछ अच्छा समझाने की चाहत होगी और रहीम ही की तरह उसकी भाषा ऐसी होगी जो आम जन मानस की हो याने उसकी अपनी हो, सहज हो ,सरल हो. हम आज 'किताबों की दुनिया ' श्रृंखला में चर्चा करेंगे ग़ज़लों की किताब " मोती मानुष चून ' की जिसके शायर हैं जनाब "देवेन्द्र आर्य" साहब।
देवेन्द्र आर्य का जन्म 18 जून 1957 में गोरखपुर में हुआ. गोरखपुर विश्विद्यालय से ही देवेन्द्र ने इतिहास में एम. ए. किया। पिछले ग्यारह वर्षों में उनकी ग़ज़लों की चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। "मोती मानुष चून" देवेन्द्र जी की चौथी ग़ज़लों की किताब है, इस से पूर्व उनकी ग़ज़लों की ये तीन किताबें "किताब के बाहर (किताब महल , इलाहबाद ), ख्वाब ख्वाब ख़ामोशी (शिल्पायन, दिल्ली ) और उमस (अभिदा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर ) प्रकाशित हो चुकी हैं. ग़ज़लों अलावा उनके गीतों के संकलन "खिलाफ जुल्म के (सहकारी प्रकाशन -सिलसिला ), धूप सिर चढ़ने लगी (राजेश प्रकाशन -दिल्ली) , सुबह भीगी रेत पर ( शैवाल प्रकाशन - गोरखपुर) और आग बीनती औरतें (किताब महल -इलाहबाद) भी प्रकाशित हुए हैं।
देवेन्द्र जी के ये तेवर अदम गौंडवी साहब की याद दिलाते हैं लेकिन उनकी ग़ज़लों की अपनी एक अलग पहचान है , अलग राह है , अलग सोच है इसीलिए वो भीड़ में भी अकेले खड़े नजर आ जाते हैं। ग़ज़ल के एक बहुत बड़े उस्ताद मुज़फ्फर हनफ़ी साहब फरमाते हैं कि
"गजल बड़ी अजीब विधा है, बिलकुल छुई-मुई जैसी. जहाँ इसके साथ किसी ने अनुचित व्यवहार किया और यह लाजवंती की भाँती अपने आप में सिमटी. आज रचनाकार हिन्दी, मराठी, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी तो क्या फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन, जापानी आदि भाषाओँ में भी गज़ल कह रहे हैं. जहाँ तक हिंदी का सवाल है मेरे स्वर्गीय मित्र दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त गिनती के दो-चार कवि गण ही गज़ल की नजाकतों को सहार पाए हैं. और मुझे स्वीकार करते हुए प्रसन्नता है कि देवेन्द्र आर्य उनमें से एक हैं."
हनफ़ी साहब देवेन्द्र जी की ग़ज़लों के बारे में आगे कहते हैं कि " देवेन्द्र की गज़ल लाजवंती जैसी सिमटी न हो कर चंचल तितली की तरह परों को फैला कर थिरकती है. इन ग़ज़लों में भाषा के साथ रचनात्मक बर्ताव की निराली शान देखी जा सकती है. अपने रोजमर्रा के संवेदनशील अनुभवों को सरल स्वभाव वरन गहरे चिंतन में संजो कर देवेन्द्र आर्य ने अपनी गज़ल को गज़ल भी रखा है और उर्दू गज़ल से मुख्तलिफ भी कर लिया है. यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है. उन्हें इसकी दाद मिलनी चाहिए "
देवेन्द्र जी ने किताब की भूमिका में अपने हवाले से बहुत दिलचस्प और काम की बात कही है जो सभी शायरों पर भी लागू होती है वो कहते है कि " ग़ज़ल इंसानियत की आँख का पानी है. आब हो या हया या खुद्दारी या मौलिकता एक तरह की आतंरिक नमी है जो आभा बनके चेहरे पर चमकती है और जिसके बिना मोती मानुष और चून निरर्थक हैं, निर्जीव हैं। पानीदार होना पानी में रहना और किसी का पानी न उतारना तीनो अन्तर्वस्तु एक ही हैं। " इस किताब की ग़ज़लें पढ़ते वक्त लगता है कि ये रहीम के 'पानी' को बचाने मददगार हैं।
'मोती मानुष चून' में देवेन्द्र जी की मार्च 2009 के बाद कही ग़ज़लों में से 105 ग़ज़लें संकलित की गयीं जो कहन के अंदाज़ और कथ्य की नवीनता के कारण बार बार पढ़ी जा सकती हैं। कुछ ग़ज़लों में जो काफिये और रदीफ़ के साथ प्रयोग किये गए हैं वो बहुत दिलचस्प और लीक से हट कर हैं। ये प्रयोग देवेन्द्र जी के साहस के प्रतीक हैं। उन्होंने ग़ज़ल के मापदंडों को बरकरार रखते हुए नया कुछ कर गुजरने की ठानी है।
आज इंटरनेट मोबाइल के इस दौर में ग़ज़ल की लोकप्रियता में जबरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है। यूँ लगता है मानो जितने ग़ज़ल कहने वाले हैं उतने ही सुनने वाले भी हैं।अक्सर देखा गया है कि जहाँ जिस चीज की बहुतायत से आमद हुई है वहीँ उसकी क़द्र और गुणवत्ता में कमी हुई है। ग़ज़लकार तो बहुत हो गए लेकिन या तो वो सदियों से कही गयी, भुगती गयी, सुनी गयी बातों की जुगाली कर रहे हैं या सिर्फ शुद्ध रूप से तुक्केबाज़ी। इस भीड़ में सिर्फ वो ग़ज़लकार अपनी पहचान बना पा रहे हैं जो ग़ज़ल के मूलरूप से उसके नियम कायदे से छेड़ छाड़ किये बिना उसमें नवीनता पैदा करने की ईमानदार कोशिश में लगे हैं। देवेन्द्र आर्य यकीनन उनमें एक हैं जो अपनी पहचान बनाये रखने में कामयाब हैं।
केन्द्र सरकार के मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार तथा उ. प्र. हिन्दी संस्थान के विजयदेव नारायण साही पुरस्कार से सम्मानित देवेन्द्र जी अभी पूर्वोत्तर रेलवे, गोरखपुर में मुख्य वाणिज्य निरीक्षक के पद पर कार्यरत हैं। देवेन्द्र जी को आप उनकी ग़ज़लों के लिए उनके मोबाइल 09794840990 अथवा 07408774544 पर या उनसे इ-मेल devendrakumar.arya1@gmail.com पर संपर्क कर उन्हें बधाई सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए जैसाकि पूर्व में भी बताया है अयन प्रकाशन के श्री भूपल सूद साहब से 09818988613 पर संपर्क कर सकते हैं।
अब 105 बेहतरीन ग़ज़लों में से कुछ अशआर छाँट कर आपतक पहुँचाने का काम है तो मुश्किल लेकिन जो काम आसान हो उसे करने में मज़ा भी क्या है ?जब तक आप जैसे पाठक मौजूद हैं हम ये मजे उठाते रहेंगे।
किताब में देवेन्द्र जी की कुछ मुसलसल ग़ज़लें भी शामिल हैं उनमें उर्दू और औरत पर कही उनकी मुसलसल ग़ज़ल कमाल हैं। इस पहले कि आप से रुखसत हुआ जाय चलिए औरत वाली मुसलसल ग़ज़ल के कुछ अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :-
दिल में एक तन्हाई घर करने लगी
बस गयी जब घर-गृहस्थी जिस्म की
रूह की महफ़िल तभी सज पाती है
जब उजड़ जाती है बस्ती जिस्म की
मोती मानुष चून में से क्या है ये
जल गयी जल में ही हस्ती जिस्म की
दिनन के फेर हैं, चुप बैठ देखिये रहिमन
समय बसाने के पहले उजाड़ देता है
ये मुफलिसी है कि अज्ञान है कि कमज़र्फ़ी
ये क्या है, वो मुझे जब देखो झाड़ देता है
लगा न बैठे कोई शेरो-शायरी दिल से
अदब दिमाग़ का नक्शा बिगाड़ देता है
हमारा होना न होना है फ़ायदे से जुड़ा
दरख़्त अपने ही पत्तों को झाड़ देता है
खिलाफ जुल्म के कविता बयान है कि नहीं
अगर नहीं है तो फिर बेज़बान है कि नहीं
सवाल ग्राम-सभा, ब्लाक ,बीडीओ के तो हैं
मगर एजेंडे में भूखा किसान है कि नहीं
चलो ये मान लिया जनविरोधी है फिर भी
हलफ़ उठाने को एक संविधान है कि नहीं
"गजल बड़ी अजीब विधा है, बिलकुल छुई-मुई जैसी. जहाँ इसके साथ किसी ने अनुचित व्यवहार किया और यह लाजवंती की भाँती अपने आप में सिमटी. आज रचनाकार हिन्दी, मराठी, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी तो क्या फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन, जापानी आदि भाषाओँ में भी गज़ल कह रहे हैं. जहाँ तक हिंदी का सवाल है मेरे स्वर्गीय मित्र दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त गिनती के दो-चार कवि गण ही गज़ल की नजाकतों को सहार पाए हैं. और मुझे स्वीकार करते हुए प्रसन्नता है कि देवेन्द्र आर्य उनमें से एक हैं."
क्या क्या न हुआ देश में गांधी तेरे रहते
क्या होता अगर देश में गांधी नहीं होते
अब कौन भला पेड़ों को दुलरा के सुलाता
और कौन जगाता जो ये पंछी नहीं होते
स्कूल यूनिफार्म सा घर हो गया होता
बच्चे जरा नटखट जरा पाजी नहीं होते
कुछ टोल फ्री नंबर हैं मुसीबत के समय में
हम फ़्लैट हैं और फ़्लैट पड़ौसी नहीं होते
मैं कहूँ और वह सुने, ना भी कहूँ तो भी सुने
बंदगी किस काम की , कहनी पड़े अपनी रज़ा
खदबदाहट, खिलखिलाहट, तिलमिलाहट और बस
शायरी क्या है, खुद अपनी आहटों का सिलसिला
ज़िन्दगी कविता है जिसका फ़न यही है दोस्तों
अनकहा कहना मगर कहके भी रहना अनकहा
जीत पाने का सलीका खुद-ब -खुद मिट जाएगा
छीन ली जाएँगी जब भी हार की संभावना
तोड़ देती है ज़रा सी चूक ,हलकी सी चुभन
चाहना पर तुम किसी को टूट कर मत चाहना
स्वाद और आस्वाद में क्या फर्क है क्या साम्य है
कविता लिखने से नहीं कमतर है आटा सानना
शुरू तो हुई थीं विरासत की बातें
मगर छिड़ गई हैं सियासत की बातें
शराफ़त की बातें, नफ़ासत की बातें
लुटेरों के मुंह से हिफाज़त की बातें
मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे
सुनी जा रही हैं रियासत की बातें
मुझे भी मज़ा है , कमाई उसे भी
समझता है हाथी महावत की बातें
बचेगी कितनी जमीं हम से आपसे यारो
हमारे बच्चों का जीवन उसी से तय होगा
ये फोरलेन की बातें बहुत हुई अब तक
नए विकास का नक्शा गली से तय होगा
हमारे मुल्क का मेयार क्या है, कितना है
अमीरी से नहीं ये मुफलिसी से तय होगा
साथ में होके भी जब कोई न हो
सोचिये कैसा लगेगा आपको
या तो फ्रीज़र में, नहीं तो सीधे फिर
आँच पर रखता है संबंधों को वो
बस यही अंतर है माँ और बाप में
बाप के संग रास्ते भर चुप रहो
चाहते हो शायरी में गर निखार
बाल बच्चों को भी थोड़ा वक़्त दो
किताब में देवेन्द्र जी की कुछ मुसलसल ग़ज़लें भी शामिल हैं उनमें उर्दू और औरत पर कही उनकी मुसलसल ग़ज़ल कमाल हैं। इस पहले कि आप से रुखसत हुआ जाय चलिए औरत वाली मुसलसल ग़ज़ल के कुछ अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :-
मैके में पी का घर, पी के घर पीहर
औरत की फितरत में होते दो-दो घर
यहाँ रहो तो वहां की चिंता मथती है
वहाँ जाओ तो लगता यहीं पे थे बेहतर
शौहर भी क्या किस्मत लेकर आते हैं
खाए-पीए, उठे, चले आये दफ़्तर
आंसू जैसे मौन हो गयी हो भाषा
हँसी कि जैसे मक्खन सूखी रोटी पर
छाँव भी है, ईंधन भी है और फल भी है
औरत है या चलता फिरता एक शजर
सारे ईश्वर मर्दों की पैदाइश हैं
काश! हुई होती कोई औरत ईश्वर