Monday, July 25, 2011

मोर का नर्तन कहाँ गया



कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया

दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।

रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया

होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया

बेख़ौफ़ हो के बोलना जब से शुरू किया
सच सुन के मारता था जो संगजन कहाँ गया

फल फूल क्यूँ रहें हैं चमन में बबूल अब
चंपा गुलाब मोगरा चन्दन कहाँ गया

डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया



( ये ग़ज़ल विद्वान अनुज तिलक राज कपूर साहब के साथ हुई जुगलबंदी का नतीजा है )

Monday, July 18, 2011

किताबों की दुनिया - 56

"किताबों की दुनिया" में आपको आज मैं एक ऐसे शायर से मिलवा रहा हूँ जो मुझे अज़ीज़ ही नहीं मेरे मित्र भी हैं. ये मित्रता ऐसी है जो लगभग चार साल पहले फोन पर अचानक हुई पहली ही वार्तालाप में हो गयी. मित्रता की ये ही खूबी है जिस से होनी होती है तुरंत होती है और अगर नहीं होनी होती तो सालों के परिचय के बाद भी नहीं हो पाती. आप इसे एक रासायनिक क्रिया समझ लें जिसमें या तो क्रिया तुरंत होती है या होती ही नहीं. मैंने अंतरजाल की प्रसिद्द इ-पत्रिका 'अनुभूति' पर उनकी ग़ज़लें पहली बार पढ़ीं और मुबारकबाद देने को फोन किया बस फिर क्या था उनकी अपनत्व से भरी आवाज़ ने मुझे उस दिन से जो बांधा तो आज तक बांधे हुए है.

ऐसे बंधन का क्या सुख होता है ये हमसे पूछिए. आप भी अगर श्री आर.पी.घायल जी, जिनकी किताब "लपटों के दरमियाँ" का हम जिक्र करेंगे, से बात करेंगे तो इस बंधन के सुख का अनुभव ले सकेंगे. आईये ज़िन्दगी की लपटों के बीच सुकून के ठन्डे पानी की बौछार सी इस किताब का आनंद लें.


आदमी की भीड़ में अब खो रहा है आदमी
आँख अपनी खोलकर भी सो रहा है आदमी

ज्ञान कहते थे जिसे विज्ञान जब से हो गया
सैंकड़ों मन बोझ ग़म का ढो रहा है आदमी

एक लम्हे की ख़ुशी 'घायल' खरीदी किसलिए
ज़िन्दगी भर की ख़ुशी को रो रहा है आदमी

17 जुलाई 1949 को नालंदा (बिहार) में जन्में 'घायल' साहब मनमौजी किस्म के शायर हैं. वर्षों तक भारतीय रिजर्व बैंक के राजभाषा कक्ष में प्रबंधक की हैसियत से नौकरी करने के बाद रिटायर हो कर अब पटना में बस गए है. शायरी उनके लिए इबादत की तरह है जिसमें वो किसी किस्म का खलल नहीं चाहते. ये ही वजह है के उन्हें सार्वजानिक मंचों पर बहुत कम देखा गया है, अलबत्ता अपने किसी मित्र के घर पर हुई नशिस्त में उन्हें कभी कभार जरूर देखा सुना जा सकता है.

रेत का इक महल बन गयी ज़िन्दगी
रोज ढहने की आदत हमें पड़ गयी

दर्द देने का चस्का जो उनको लगा
दर्द सहने की आदत हमें पड़ गयी

आह को भी नज़र लग न जाए कहीं
छुपके रहने की आदत हमें पड़ गयी

'घायल' साहब लाख छुप के रहें लेकिन उनके चाहने वाले उन्हें ढूंढ ही लेते हैं. कारण स्पष्ट है उनकी शायरी थके मांदे लोगों की रूह को आराम पहुंचाती है.ज़माने के दर्द को समेटे उनकी सीधी सादी बातें पढने सुनने वालों के दिल में आसानी से उतर जाती हैं. 'घायल' साहब ने शायरी के माध्यम से अपने घाव छुपाने का हुनर सीख लिया है.

किसी की आँख में आंसू दिखाई क्यूँ भला देते
जो उसका पासबाँ उसके लिए पत्थर नहीं होता

किसी भी हाल में जन्नत से कम होती नहीं दुनिया
उदासी में अगर डूबा किसी का घर नहीं होता

कभी नफ़रत अगर 'घायल' मुहब्बत में बदल जाती
यकीनन आज दहशत का कहीं मंज़र नहीं होता

घायल साहब ने इस किताब में कहा है " ग़ज़ल मेरे लिए मेरा ईमान और खुदा की इबादत है. मेरा मानना है कि ग़ज़ल का गुलाब तो ज़ज्बे की ज़मीन पर ही खिलता है. ग़ज़ल की पहचान उसकी ग़ज़लियत होती है. महसूस कर कही गयी और सोच कर लिखी गयी ग़ज़ल में फर्क होता है. एहसास की खुशबू में नहाई हुई ग़ज़ल गाई और पढ़ी जाती है जबकि सोचकर लिखी ग़ज़ल सिर्फ पढ़ी जाती है."

इस किताब में उनकी ग़ज़लें एहसास की खुशबू में लिपटी हुई ग़ज़लें हैं इसीलिए उन्हें ना सिर्फ उन्हें पढ़ा गया है बल्कि उन्हें गाया भी गया है. मेरी बात पर यकीन करने के लिए आप बस पटना की प्रसिद्द गायिका रंजना जी की आवाज़ में गाई उनकी ग़ज़लें www.radiosabrang.com पर सुनें और आनंद लें.

उसके लिए तो कुछ नहीं मेरे लिए मगर
देखे बिना भी देखना कितना अजीब था

छू कर गया उसका बदन तो यूँ लगा मुझे
जैसे हवा का झोंका भी मेरा रकीब था

जिसके लिए तरसा किये दुनिया के लोग-बाग़
हैरत उन्हीं को थी के मैं उसके करीब था

इस किताब को 'सरोज प्रकाशन' पटना द्वारा प्रकाशित किया गया है. किताब की प्राप्ति के लिए आपको घायल साहब से उनके मोबाइल न.+919199810038 अथवा उनके मेल rpghayal08@yahoo.com(जिसे उनके द्वारा पढने की सम्भावना अपेक्षा कृत कम है) पर संपर्क कर बधाई देनी होगी और फिर किताब प्राप्ति के लिए पूछना होगा बस.

मेरे मित्र और छोटे भाई श्री नवीन चतुर्वेदी जी जो मुंबई निवासी हैं और छंद शास्त्र के प्रकांड पंडित हैं जिनका अपना बहुत प्रचलित ब्लॉग "समस्या पूर्ती" भी है ने ये नियम बनाया है के मेरी इस श्रृंखला में दिए गए शायरों से वो मोबाइल पर जरूर संपर्क करेंगे. उन्हें इस से जो लाभ मिला उसके बारे में आप स्वयं उनसे उनके मोबाइल न. +919967024593 पर संपर्क कर के पूछ सकते हैं.

मेरा बस आप सब से इतना सा अनुरोध है के अगर आप किताब खरीदने में रूचि नहीं रखते तो कम से कम उन शायरों से बात करके उनकी हौसला अफजाही तो कर ही सकते हैं.

जुता रहता है बैलों की तरह जो खेत में दिन भर
उसी का अपना बच्चा भूख से आंसू बहाता है

बनाये जिसके धागों से बने हैं आज ये कपडे
उसी का तन नहीं ढकता कोई गुड़िया सजाता है

जलाता है बदन कोई हमेशा धूप में 'घायल'
जरा सी गर्मी लगने पर कोई पंखा चलाता है

उम्मीद है मेरी तरह आपको भी घायल साहब की शायरी पसंद आई होगी. ये एक सच्चे सीधे सरल इंसान की सच्ची सीधी सरल शायरी है. इस किताब में जो सन 2004 में प्रकशित हुई थी ,उनकी 72 ग़ज़लें संगृहीत हैं , उनका ग़ज़ल लेखन अभी भी अबाध गति से चल रहा है जल्द ही उनकी दूसरी किताब भी बाज़ार में आ जाएगी. आप उन्हें कभी भी फोन करें एक आध नया शेर उनके पास हमेशा सुनाने को तैयार होता है. उनकी, शायरी के प्रति ऐसी दीवानगी देख कर हैरत होती है. वो पूरी तरह से शायरी को समर्पित इंसान हैं. मेरा सौभाग्य है के मैं उनसे मुंबई में श्री हस्तीमल जी हस्ती जी के घर पर हुई नशिस्त में रूबरू मिल चूका हूँ.

इस से पहले के मैं आपको नमस्कार कहूँ और एक और शायरी की किताब की खोज में जाऊं आपको उनके तीन नाज़ुक से शेर पढवाता चलता हूँ:

कसक तो थी मेरे मन की मगर बैचैन थे बादल
तुझे उस हाल में मैंने फुहारों की तरह देखा

खिले फूलों की पंखुडियां जरा भी थरथराई तो
तेरे होंठों के खुलने के नज़ारों की तरह देखा

मेरी तनहाइयाँ 'घायल' सताने जब लगीं मुझको
तुझे यादों के दरिया में किनारों की तरह देखा


(श्री हस्तीमल जी हस्ती के साथ श्री आर.पी. घायल)

Monday, July 11, 2011

उधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है



इधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
उधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है

पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है

कमी रह गयी होगी कुछ तो कशिश में
सदा लौट कर यूँ ही आती नहीं है

मुझे रास वीरानियाँ आ गयी हैं
तिरी याद भी अब सताती नहीं है

ख़फा है महरबान है कौन जाने
हवा जब दिये को बुझाती नहीं है

रिआया समझदार होने लगी अब
अदा हुक्मरां की लुभाती नहीं है

अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है

गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
कसम जब से मेरी वो खाती नहीं है


(ये ग़ज़ल गुरुदेव पंकज सुबीर जी की मेहरबानी से हुई है )

Monday, July 4, 2011

किताबों की दुनिया - 55

किताब खरीदते वक्त एक बात ज़ेहन में रहती है जो पता नहीं कब किसने कही लेकिन साहब खूब कही कि "एक अच्छी किताब १०० दोस्तों के बराबर होती है, लेकिन एक अच्छा दोस्त पुस्तकालय के बराबर होता है, ईश्वर ने हमें माँ, बाप, भाई, बहन और दूसरे रिश्तेदार चुनने की आजादी नही दी है, लेकिन एक अच्छा दोस्त चुनने की आजादी दी है, आइए अच्छे दोस्त बनाएँ!" दोस्त तो किस्मत से मिलते हैं लेकिन किताबें खोजने से मिल जाती है. दोस्तों के पीठ पीछे से वार करने की कला का उर्दू शायरी में खूब बखान किया गया है लेकिन कभी किसी किताब ने आपसे दगाबाजी की हो ये कभी कहीं कहा गया.

आज की किताब के शायर एक ऐसी शाख्यियत हैं जिनके बारे में बहुत कम पढ़ा सुना गया है. आज के दौर के पाठकों की तो बात ही छोडिये हमारे ज़माने के लोग भी, जो शायरी में थोड़ी बहुत दखल रखते हैं, इनका नाम सुन कर हो सकता है अपना सर खुजलाने लगें. कुछ ऐसे बदनसीब शायर होते हैं जो अपनी ज़िन्दगी में वो मकबूलियत हासिल नहीं कर पाते जो उन्हें मरने के बाद नसीब होती है. वैसे भी गुज़रे वक्त और गुज़रे इंसानों की वंदना हमारे खून में है.

कुछ खास दोस्त अक्सर मुझे कहते हैं कि यार तुम अपनी भूमिका में पकाते बहुत हो सीधे सीधे मुद्दे पर क्यूँ नहीं आते, उन्हें मैं हंस कर जवाब देता हूँ के भाई क्या करूँ ये मुझ पर टी.वी. सीरियलस देखने के शौक का असर है, जो सालों चलने के बावजूद भी असली मुद्दे पर नहीं आते. मजाक को यहीं छोड़ चलिए मुद्दे पर आते हैं:-


आ के पत्थर तो मेरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
(सहन: आँगन , पस-ऐ-दीवार: दीवार के पीछे)

मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे

क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
दीदा-ए-तर : आंसू भरी आँखें, संग : पत्थर

देखते क्यूँ हो 'शकेब' इतनी बलंदी की तरफ
न उठाया करो सर को कि ये दस्तार गिरे
दस्तार: पगड़ी

"मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं " जैसे खुद्दारी से भरे मिसरे लिखने वाले इस शायर का नाम है जनाब "शकेब जलाली" साहब जो 1अक्तूबर 1934 को अलीगड़ के पास एक छोटे से गाँव सद्दत में पैदा हुए और 12 नवम्बर 1966 को याने सिर्फ बत्तीस साल की कम उम्र में इस दुनिया ऐ फानी से रुखसत हो गए. आज इसी शायर की अनमोल शायरी के पहले हिंदी संकलन "दरख़्त पानी के" का जिक्र करेंगे जिसे डायमंड बुक्स वालों ने प्रकाशित किया है.


उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी

जो दिल का ज़हर था काग़ज़ पर सब बिखेर दिया
फिर अपने आप तबियत मिरी संभलने लगी

जहाँ शज़र पे लगा था तबर का ज़ख्म 'शकेब'
वहीँ पे देख ले कोंपल नयी निकलने लगी
तबर: फरसा, कुल्हाड़ी

'शकेब जलाली' जी ने महज़ पंद्रह साल की उम्र से ग़ज़ल कहना शुरू कर दिया था . उन्होंने उर्दू शायरी को नयी दिशा दी जिसे उनके साथ के और बाद के नामचीन शायरों ने अपनाया. उर्दू शायरी हमेशा शुक्र गुज़ार रहेगी जनाब 'अहमद नदीम कासमी' साहब की,जिन्होंने 'शकेब' की शायरी को उनके इंतकाल के छै साल बाद प्रकाशित करवा और उन्हें दुनिया तक पहुँचाया. नदीम साहब की शायरी में 'शकेब' की झलक साफ़ दिखाई देती है

आकर गिरा था कोई परिंदा लहू में तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चटान पर

मलबूस खुशनुमा हैं मगर जिस्म खोखले
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर
मलबूस: वस्त्र

हक़ बात आके रुक सी गयी थी कभी 'शकेब'
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

अफ़सोस आज के दौर में ऐसी शायरी कहीं पढने सुनने को नहीं मिलती. शकेब की शायरी गुलाब के फूलों की टहनी है जिसमें कोमलता है खुशबू है और कांटे हैं. बदायूं उत्तर प्रदेश से अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद शकेब आगे की पढाई के लिए रावलपिंडी चले गए और फिर नौकरी के सिलसिले में लाहौर. अपनी शादी के दस साल बाद किन्हीं अज्ञात कारणों से उन्होंने रेल की पटरियों पर अपना सर रख कर ख़ुदकुशी कर ली. एक अत्यंत प्रतिभाशाली शायर का ये अंत बहुत दुखद था.

न इतनी तेज़ चले सरफिरी हवा से कहो
शज़र पे एक ही पत्ता दिखाई देता है

बुरा न मानिए लोगों की ऐबजोई का
उन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ऐबजोई: दोष ढूंढना

ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है

खालिस याने बिना किसी मिलावट के शायरी पसंद करने वालों के लिए ये किताब किसी नियामत से कम नहीं. इसके हर पन्ने पर शायरी अपने पूरे शबाब पर फैली दिखाई देती है. मिसरे ठिठकने पर मजबूर करते हैं और शेर दांतों तले उँगलियाँ दबाने पर. इस किताब को पढने के बाद हुए असर को लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता इसके लिए आपको इसे पढना ही होगा. किनारे पर बैठ कर लहरें गिनने से समंदर की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता.

मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख

आलम में जिसकी धूप थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
शाहकार: कृति, तब्सिरे: समीक्षाएं

बिछती थीं जिसकी राह में फूलों की चादरें
अब उसकी ख़ाक घास के पैरों तले भी देख

डायमंड बुक्स वालों का इस किताब के प्रकाशन के लिए और श्री सुरेश कुमार का संपादन के लिए शुक्रिया अदा करते हुए मुझे इस सफ़र को न चाहते हुए भी यहीं ख़तम करना होगा. आप अगर इस किताब को खरीदना चाहते हैं तो बराए मेहरबानी 011-51611861-865 पर फोन करें या फिर उन्हें sales@diamondpublication.com पर मेल करें. ‘शकेब’ की शायरी को आपतक पहुँचाने का लालच रोके नहीं रुक रहा सो चलते चलते उनके कुछ मुत्फ़रिक से शेर आप तक पहुंचा रहा हूँ.

आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे
तितलियाँ मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर
***
सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में
***
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाये बहुत
***
दोस्ती का फ़रेब ही खाएं
आओ काग़ज़ की नाव तैरायें
***
जंगल जले तो उनको खबर तक न हो सकी
छाई घटा तो झूम उठे बस्तियों के लोग
***
ढूंढती हैं तिरी महकी हुई जुल्फों की बहार
चांदनी रात के ज़ीने से उतर कर यादें

इस बेजोड़ शायरी की दाद देने के लिए न तो हमारे पास शायर का फोन नंबर है और न ही मोबाइल नंबर और तो और उसका पता भी नहीं है इसलिए चलिए उसे दिल से याद करते हैं और दुआ करते हैं वो ज़िन्दगी के सारे झमेलों से दूर जहाँ है वहाँ सुकून से रहे. आमीन. मजरूह साहब का एक मकबूल शेर याद आ रहा :-

ज़माने ने मारे जवां कैसे कैसे
ज़मीं खा गयी आसमां कैसे कैसे



जनाब शकेब जलाली साहेब