"दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख्स ने आँखें
रोशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता"
भटकना मेरी आदत नहीं है, ये जानते हुए भी की इंसान को अभी तक जो भी खजाने मिले हैं वो उसके भटकने के कारण ही मिले हैं. दुनिया की सारी विलक्षण खोजें इंसान के भटकने का ही परिणाम हैं. इंसान भटकता नहीं तो क्या उसे हीरे सोना चांदी या अन्य धातुओं की खाने मिलतीं ?समंदर में मोती मिलते? सच्चाई की खोज होती ?नहीं.एक जगह बैठे रहने से कभी कुछ हासिल नहीं होता. जरूरी नहीं की आप हमेशा किसी उद्देश्य को लेकर ही भटकें...निरुद्देश भटकने पर भी खजाने हाथ आ जाते हैं. मैं उसका जीता जागता प्रमाण हूँ. पूछिए कैसे? पूछिए पूछिए क्यूंकि शंका का निवारण जितनी जल्दी हो मानसिक शांति के लिए उतना ही अच्छा है.
आप पूछ रहे हैं सो बताता हूँ. हुआ यूँ की मैंने अपनी एक मात्र उपलब्ध पत्नी के साथ फिल्म
"लव आजकल" देखने का कार्यक्रम बनाया. घर से करीब तीस की.मी. दूर खारघर नामक खूबसूरत उपनगर में मल्टीप्लेक्स है वहीँ गए. जा कर पता चला की जिस शो की टिकट उपलब्ध है वो दो घंटे बाद शुरू होगा. टिकट लिया और दो घंटे बिताने के उद्देश्य से खारघर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. भ्रमण की जगह भटकने का कार्यक्रम कहना अधिक उपयुक्त होगा. हमने अपने दिमाग को पैरों के हवाले किया और वो जिधर उठ गए उधर ही चल पड़े.
बाज़ार में पत्नी श्री एक वस्त्र भण्डार में घुस गयीं और हम उसके बाहर बैठे एक किताब वाले से चौंच लड़ाने लगे. बहुत सी हिंदी अंग्रेजी की नयी पुरानी पत्रिकाओं और उपन्यासों के ढेर के बीच हमें वो दिखाई दी जिसका सपने में भी गुमान नहीं था. हम जिस किताब का जिक्र कर रहें हैं वो अंग्रेजी के उपन्यासों के बीच
"साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं" की मानिंद झाँक रही थी.
भूमिका की लम्बाई को कम करते हुए सीधी बात करते हैं :वो किताब थी हर दिल अजीज़ शायर जनाब
मुनव्वर राना साहेब का एक दम ताज़ा ग़ज़ल संग्रह " नए मौसम के फूल". पेपर बैक संस्करण में ये किताब मात्र एक सौ पच्चीस रुपये की है जिसे दूकानदार ने हमें सौ रुपये में दे दिया. किताब ग़ज़लों का अनमोल खजाना है. अब मुनव्वर राना साहब जैसे शायर की कलम जो शेर निकलेंगे वो हीरे मोतियों से कम थोड़े न होंगे. मैं मानता हूँ की उर्दू या हिंदी ग़ज़ल का प्रेमी उनके बारे में जरूर जानता होगा इसलिए उनकी बात न कर मैं सिर्फ उनकी इस किताब का जिक्र ही करूँगा. मुनव्वर साहब ने
" माँ " पर शेर लिख कर ग़ज़लों की दुनिया को एक नयी रौशनी दी है. जैसे शेर उन्होंने माँ पर कहें हैं वैसे शायरी की इतिहास में कहीं नहीं मिलते. वरिष्ठ साहित्यकार
श्री कन्हैया लाल नंदन कहते हैं की
"मुनव्वर ने माँ को बुलंदियों पर पहुंचाकर साक्षात् पयम्बर का दर्जा दिया है."
इस किताब में भी उनके माँ पर कहे दर्ज़नों लाजवाब शेर हैं लेकिन हम इस चर्चा में उनका जिक्र नहीं करेंगे क्यूँ की उन्होंने
" माँ "पर जो शेर कहें हैं वो उनके प्रशंशकों ने जरूर पढें होंगे, अगर नहीं भी पढ़े तो उन्हें हर कहीं पढ़ सकते हैं. तो आईये किताब के वर्क पलटते हैं और पढ़ते हैं जिंदगी के मुक्तलिफ़ रंगों पर कहे उनके लाजवाब शेर:
ये सलतनत मिली है फ़कीरों से इसलिए
लहजे में गुफ़्तगू में चमक बरक़रार है
मुद्दत से उसने पाँव ज़मीं पर नहीं धरे
पाज़ेब में अभी भी छनक बरक़रार है
वो आइने के सामने जाता नहीं कभी
अच्छा है उसमें थोड़ी सी झिझक बरक़रार है
मुनव्वर साहब जिस कारीगरी, नफासत और बेबाकी से सियासत पर शेर कहते हैं वो कमाल शायरी में बहुत कम देखने को मिलता है. उनके शेर सियासत के कारनामों से दिल में उपजे दर्द को क्या खूब बयां करते हैं :
सियासत बांधती है पाँव में जब मज़हबी घुंघरू
मेरे जैसे तो फिर घर से निकलना छोड़ देते हैं
अगर मंदिर तुम्हारा है अगर मस्जिद हमारी है
तो फिर हम आज से ये अपना दावा छोड़ देते हैं
ये नफरत में बुझे तीरों से हमको डर नहीं लगता
अगर तू प्यार से कह दे तो दुनिया छोड़ देते हैं
शायरी को असरदार बनाने में भाषा का बहुत अहम् रोल होता है. जब शायर रोजमर्रा की छोटी छोटी बातों को एक अलग ही अंदाज़ में पेश करता है तो सुन / पढ़ कर मुंह से बरबस वाह निकल पड़ती है.
सियासत किस हुनर मंदी से सच्चाई छुपाती है
कि जैसे सिसकियों के ज़ख्म शहनाई छुपाती है
ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है
"दिव्यांश पब्लिकेशन्स" एम्.आई.जी. 222 फेस 1 एल.डी.ऐ , टिकैत राय कालोनी,
लखनऊ -226017 , मोबाईल: 9415185960 द्वारा प्रकाशित इस किताब में मुनव्वर साहब की चुनिन्दा एक सौ अठारह ग़ज़लें हैं और सारी की सारी एक से बढ़कर एक.
मुनव्वर जी की अभी अभी हमने
'ग़ज़ल गाँव' ,
'पीपल छाँव', '
सब उसके लिए', '
बदन सराय', 'माँ', 'नीम के फूल', 'जिल्ले ईलाही से', 'बगैर नक्शे का मकान', और 'घर अकेला हो गया' जैसी शायरी की विलक्षण किताबों को पढ़ा ही था की अचानक ये किताब भी पीछे पीछे छप के हमारे सामने आ गयी...कहाँ तो उन्हें ढूंढ ढूंढ कर रिसालों या नेट पर पढना पड़ता था और कहाँ उनके लिखे का खजाना घर बैठे मिल गया. हम पाठकों की तो समझिये किस्मत ही खुल गयी. कम से कम बच्चों के होंटों की हंसी की खातिर
ऐसी मिटटी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
सोचता हूँ तो छलक उठती हैं आँखें लेकिन
तेरे बारे में न सोचूं तो अकेला हो जाऊँ
शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ
मुझे इस किताब के बारे में लिखते समय सबसे बड़ी दुविधा इसमें से आप के लिए शेर छांटने में हुई...मैंने भी ज्यादा दिमाग नहीं लगाया आँख बंद की और पन्ने खोल कर ऊँगली रखता चला गया जिस ग़ज़ल पर ऊँगली रखी गयी उसी में से एक आध शेर पेश कर दिए. ऐसा मैंने हर उस किताब के साथ किया है जिसमें से शेर छांटने में मुझे दुविधा हुई. गंगा जमनी जबान का मजा लेते हुए आप इस किताब को एक सांस में पढ़ सकते हैं.
ये अमीरे शहर के दरबार का कानून है
जिसने सजदा कर लिया तोहफे में कुर्सी मिल गई
मैं इसी मिटटी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिटटी में मिटटी मिल गई
खुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये च्यूंटी मिल गई
आखिर में पाठको मैं वो खबर आपको दे रहा हूँ जिसे जान कर आपकी बांछें खिल जाएँगी. इस किताब के साथ आपको एक
वी.डी.ओ सी.डी. मुफ्त दी गयी है. इस
वी.सी.डी. में
मुनव्वर राना साहब को देखिये अपने दिलकश अंदाज़ में खूबसूरत शेर सुनाते हुए और बरसों बरस इस मंज़र को याद रखिये. ऐसा अनमोल तोहफा आजतक किसी शायरी की किताब के साथ मुझे नहीं मिला है. ये अकेला एक कारण ही बहुत है इस किताब को खरीदने के लिए. अब देर करना ठीक नहीं...इस से पहले की स्टोक ख़तम हो जाये दौड़ पड़िये वरना पछतायेंगे.
बहुत जी चाहता है कैद-ए-जाँ से हम निकल जायें
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है
अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है