जब कलम ने तालियों की चाह में लिक्खी ग़ज़ल
तब किताबों से निकलकर मीर ने रोका मुझे
चंद सिक्कों की खनक पर डगमगाया जब कभी
पर्स में रक्खी तेरी तस्वीर ने रोका मुझे
बोलते लब रोक ना पाए मेरे क़दमों को तब
मौन आंखों से छलकते नीर ने रोका मुझे
*
जवाबों से दो चार होना सरल है
कठिन है निकलना सवालों से होकर
*
आंसू पीकर हंँस देने को
सचमुच में हँसना समझूँ क्या
तुम कहती हो प्यार है मुझसे
मुझको है उतना समझूं क्या
*
सियासी लोग बहरे तो न थे पर
उन्हें हर लब पे ताला चाहिए था
*
वो जवानी और थी जो सर कटाना चाहती थी
ये जवानी सिर्फ़ अपना सर बचाना चाहती है
*
खुद को खुद में ढूँँढना होगा सरल
तू अगर साँँचों में ढलना छोड़ दे
*
तब मुझे आभास होता है स्वयं की जीत का
जब किसी जलते दिये से हार जाती है हवा
'कहिये क्या परेशानी है' ?डॉक्टर ने चश्मा आँखों पर ठीक करते हुए अपना पैड निकाल कर पूछा। 'डॉक्टर साहब यूँ तो कोई परेशानी नहीं है बस कभी सर में तेज दर्द होता है ,कभी हल्का धुंधला दिखाई देने लगता है और रात में कभी कभी नाक से पानी आ जाता है।' डॉक्टर ने ध्यान से बात सुनी फिर सामने बैठे मरीज से कहा कि 'देखिये आपको इस पानी का सेम्पल टेस्ट करवाना पड़ेगा।' जवाब मरीज की पत्नी ने दिया 'डॉक्टर साहब नाक से आये पानी की वजह से रात में जब तकिया गीला हो जाता है तब पता लगता है, ऐसे में सेम्पल कैसे लें ? ये थोड़े पता चलता है कि कब पानी आएगा।' डॉक्टर ने पैड पर कुछ लिख कर उस कागज़ को फाड़ कर मरीज को देते हुए कहा ' ये डायगनोस्टिक सेंटर का नाम पता है आप वहां चले जाएँ वो अपने आप सेम्पल ले लेगा, जब रिपोर्ट आ जाये तो मुझे दिखा दें। ' मरीज की पत्नी के चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा 'आप कोई टेंशन न लें, सब ठीक होगा।' डॉक्टर के इस तरह दिए कथन से कब किसी भारतीय पत्नी की चिंता कम हुई है जो अब होती ? पति की बीमारी से चिंतित पत्नी तब तक चिंतित रहती है जब तक वो पूर्ण रूप से ठीक नहीं हो जाता।
डायगनोस्टिक सेंटर से आयी रिपोर्ट को देख कर इस बार डॉक्टर ने चश्मा उतार कर टेबल पर रखते हुए मरीज से कहा कि 'आपकी नाक से सेरीबो स्पाइनल फ्लूइड (सी एस एफ )आ रहा है।' स्त्रियों का सिक्स्थ सेंस ग़ज़ब का होता है इसी के चलते मरीज की पत्नी समझ गयी कि मामला गड़बड़ है,तुरंत घबराते हुए पूछा ' सेरीबो स्पाइनल फ्लुइड ? ये ठीक तो हो जायेंगे न ?' डॉक्टर ने, जितना वो सहज हो सकता था सहज होते हुए, कहा ' जी बिल्कुल ठीक हो जायेंगे' .मरीज ने सहजता से पूछा कि ये बीमारी आखिर है क्या ?' डॉक्टर ने अपने पैड पर दिमाग का स्केच बनाया और समझाने लगा कि 'देखो हमारे सर में एक झिल्ली होती है जिसमें ये लिक्विड भरा रहता है ,किसी कारणवश अगर झिल्ली में कहीं दरार आ जाये या उसमें छोटा सा छेद हो जाए तो वो लिक्विड नाक के रास्ते बाहर आने लगता है।' पत्नी ने आधी बात ही सुनी और वो सुबकने लगी। मरीज अलबत्ता शांत भाव से डॉक्टर की बात सुनता रहा आखिर में डॉक्टर ने कहा कि 'मैं ये दवा आपको लिख कर देता हूँ इसे एक हफ्ते तक लगातार लें और फिर मुझसे मिलें '। मरीज ने उत्साह से दवाएं लेनी शुरू कीं और एक हफ़्ता इसी उम्मीद में बीत गया कि आज नहीं तो कल डॉक्टर की दी हुई दवाऐं असर दिखाऐंगी ही।
अफ़सोस कि हफ्ता बीतने के बाद भी मरीज की दशा में जरा भी फर्क नहीं पड़ा। नाक से पानी जैसे द्रव का बहना और पत्नी का चिंतित रहना बदस्तूर जारी रहा।
जरा सा भी तो खारापन नहीं देता है बादल को
समंदर खुश है नदियों से मिली सौगात को लेकर
*
वृक्ष के देवत्व को स्वीकार करके जो चला था
वह प्रगति रथ आ चुका है लौह निर्मित आरियों तक
वक्त रहते छोड़ दो कुंठा घृणा के रास्तों को
अन्यथा यह ले चलेंगे मानसिक बीमारियों तक
हमने उन हाथों में खंजर और तमंचे दे दिए हैं
जो पहुंचना चाहते थे रंग और पिचकारियों तक
*
अनसुनी करना नहीं बेटी की उस आवाज को तुम
जो तुम्हें खामोश रहकर कुछ बताना चाहती है
*
एक से दिखते हैं खुशियाँँ हो या मातम
आदमी भी शामियाने हो न जाएंँ
जो शरारत सीख ना पाए अभी तक
डर है वो बच्चे सयाने हो न जाएँँ
*
छले जाने से बचना भी सरल था
महज़ इनकार करना सीख लेते
दुखों में गर सुखों को ढूंढना था
उन्हें स्वीकार करना सीख लेते
*
बहुत होता सरल अपनी अना से दूर हो जाना
अगर आता हमें रसख़ान मीराँँ सूर हो जाना
मोहब्बत में कभी ना हाथ अपना आजमाएं वे
जिन्हें बर्दाश्त ना होगा बिखर कर चूर हो जाना
एक हफ्ते के बाद डाक्टर ने कुछ और टेस्ट करवाए और आखिर में कहा कि इस झिल्ली का छेद बंद करने के लिए हमें आपका ऑपरेशन करना पड़ेगा। ये दवाओं से ठीक होने वाला केस नहीं है। बहुत रेयर है। डॉक्टर ने पत्नी की और देख कर कहा कि 'आपको हिम्मत रखनी होगी, घबराने से काम नहीं चलेगा। ये ऑपरेशन के बाद बिल्कुल ठीक हो जायेंगे भरोसा रखें।' स्त्री, जिसे हम कमज़ोर मानते हैं विपरीत परिस्थितियों में वज्र सी मज़बूत भी हो जाती है। पत्नी ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा ' डॉक्टर साहब मुझे आप पर और अपने ईश्वर पर अटूट विश्वास है ,इन्हें कुछ नहीं होगा। आप ऑपरेशन की तारीख़ पक्की करें।
ऑपरेशन टेबल पर लेटे मरीज़ का चेहरा ढक दिया गया है। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा सिर्फ सुनाई दे रहा है। औपचारिकता के लिए कोई फॉर्म भरा जा रहा है। डॉक्टर किसी से कह रहा है कि लिखिए "मरीज का नाम 'अश्विनी त्रिपाठी , जन्म तिथि दस अगस्त 1978, स्थान बाराँ -राजस्थान। क्यों ठीक है न अश्विनी बाबू ?" 'जी डॉक्टर साहब सही जानकारी है ' अश्विनी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। 'तो शुरू करें अश्विनी जी ?' आवाज़ आयी। ' जी करिये , मैं ठीक हूँ 'अश्विनी ने जवाब दिया। एनेस्थीसिया लगते ही अचानक अश्विनी के कानों में सूं की आवाज़ आने लगी आँखें मुंदने लगीं और बाहर की आवाज़ें आनी बंद हो गयीं । बाहरी दुनिया से नाता टूटते ही अंदर का संसार जाग गया। अश्विनी को अपना बाराँ का घर दिखाई देने लगा जिसके आँगन में वो भाग रहा है उसके पीछे उसकी तीन बड़ी बहनें भाग रही हैं लेकिन वो किसी की पकड़ में नहीं आ रहा । चारों खिलखिला रहे हैं। तीन बहनों का छोटा प्यारा एक मात्र भाई 'अश्विनी', पूरे घर का लाडला है। शैतान मगर पढाई लिखाई में होशियार ,तेज तर्रार बच्चा।
जिसे झोपड़ी ही महल लग रही थी
वो इंसाँँ महल को महल लिख न पाया
*
प्यार में अभिव्यक्तियों का दौर है
प्यार में एहसास कम है इन दिनों
*
पास आने पर लगा कुछ दूरियां हैं लाज़मी
दूर रहकर दूर रहना भी कहां अच्छा लगा
*
भूख को कुछ रोटियां मिल जाएँँ बस
उसको क्या गीता से या कुरआन से
छोड़ दो सम्मान की आशा अगर
तुमको को जीना है यहाँ सम्मान से
*
शिव के जैसा भोलापन ना हो जिसमें
विष को अंगीकार नहीं कर सकता है
तन के भीतर देख नहीं पाता है जो
वो मन पर अधिकार नहीं कर सकता है
*
हर सियासत की गली में यह विरोधाभास है
श्वेत वस्त्रों को पहनने आदमी काले गए
*
कुछ ख़ताएं भी जरूरी है यहाँँ
हर ख़ता को ना सुधारा कीजिए
*
न पूछो तिजोरी बता ना सकेगी
ख़जाने का डर ख़ुद खजाने से पूछो
अश्विनी को ऑपरेशन टेबल पर लेटे हुए याद आ रहा है कि उसकी रूचि विज्ञान विषय में थी जो कि आज भी उतनी ही है । उसका सपना था कि या तो वो डॉक्टर बने या इंजीनियर, इसलिए उसने ग्यारवीं में साइंस विषय लिए थे। बाराँ क्यूंकि छोटी जगह है इसलिए कोचिंग के लिए घर वालों ने उसे पास ही के शहर 'कोटा' भेजने का निर्णय लिया था। 'कोटा' जैसा कि सब जानते हैं पूरे भारत में मेडिकल और इंजिनीयरिंग की कोचिंग के लिए विख्यात है। यहाँ कोचिंग लिए बच्चों का देश के प्रसिद्ध इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में दाखिला होता हैं। अश्विन ने डॉक्टर बनने का सपना आँखों में पाले जी तोड़ पढाई की। 'कोटा' में बहुत से बच्चे ऐसे ही सपने आखों में लिए पढ़ते हैं लेकिन उन सबके सपने पूरे नहीं होते। अश्विनी जैसे बहुत से बच्चे एक आध प्रतिशत से रह जाते हैं। अश्विन उन बच्चों में से नहीं था जो असफलता से निराश हो जाते हैं। उसने कोशिश पूरी की लेकिन अगर मंज़िल नहीं मिली तो कोई बात नहीं। एक रास्ता बंद होने से जीवन नहीं रुकता। उसे याद है वो कोटा से खाली हाथ लेकिन बुलंद हौसलों से वापस बाराँ लौटा। बी एस सी की फिर उसके बाद बी एड और प्राइवेट स्कूल में ग्यारवीं बाहरवीं के बच्चों को साइंस पढ़ाने लगा।
तभी सरकारी स्कूलों में नए अध्यापकों की नियुक्तियों की घोषणा हुई। अश्विनी ने अप्लाई किया और उसका सलेक्शन हो गया। उसे घर से लगभग 80 की मी दूर एक सरकारी स्कूल में सेकिंड ग्रेड साइंस अध्यापक के पद पर नियुक्ति का पत्र मिला। सरकारी नौकरी, चाहे घर से दूर ही मिले, छोड़नी नहीं चाहिए। अश्विनी बाराँ छोड़ वहीँ रहने लगा जहाँ स्कूल था लेकिन घर के पास के किसी स्कूल में ट्रांसफर के प्रयास उसने जारी रखे। प्रयास सफल हुए और उसका ट्रांसफर घर से लगभग 16 की.. मी. दूर सरकारी स्कूल में हो गया। जीवन सहज गति से चलने लगा ,इसमें मिठास घोलने को साथ मिला पत्नी के रूप में मिली मित्र का, जिसने उसके घर को दो जुड़वाँ बच्चों की किलकारियों से भर दिया।
साइंस के साथ साथ अश्विनी की रूचि हिंदी भाषा में भी थी। जब वो छोटा था तो फ़ुरसत के पलों में पिता उसे अपनी गोद में बिठा कर सूरदास, तुलसी, मीरा, कबीर आदि के पद सुना कर समझाते थे। पिता के समझाने का अंदाज़ और कवियों के शब्द उस पर जादू कर देते उसे लगता ये सिलसिला कभी खत्म न हो पिता यूँ ही समझाते रहें और वो मुग्ध हो कर सुनता रहे।धीरे धीरे हिंदी में उसकी रूचि पद्य की और अधिक होती गयी । वो घर में आने वाली अख़बार और पत्रिकाओं में छपी कवितायें बहुत मनोयोग से पढता, उन्हें गुनगुनाता और मन ही मन कवितायेँ रचने लगता। बाद में जब भी उसे पढ़ाने से फ़ुरसत मिलती वो अपने मन की भावनाएँ कागज़ पर उतारने लगता। उसने देखा है कि जो लोग अपनी भावनाएँ व्यक्त नहीं कर पाते वो कुंठित हो जाते हैं और जो कर पाते हैं वो सहज रहते हैं, शांत रहते हैं। अश्विनी अपनी कवितायेँ अब अपने यार दोस्तों और साहित्य प्रेमी वरिष्ठ जन को सुनाने लगा। यार दोस्त उसकी रचनाएँ सुन कर तालियाँ बजाते और बड़े बुजुर्ग पीठ थपथपाते,कहीं कोई कमी देखते,तो बताते।
कि जिस मसअले पर सियासत टिकी है
उसी को सियासत ने टाला हुआ है
कहीं हैं मयस्सर निवाला न इसको
कहीं खुद बदन ही निवाला हुआ है
*
इसे इक मुकम्मल ग़ज़ल हम बना लें
यह जीवन हमारा महज़ काफ़िया है
बुझो आग बुझती है जैसे हवन की
जलो जैसे मंदिर में जलता दिया है
*
जबकि उनसे पूछ कर दीपक जलाया है अभी
ये अंधेरे भर रहे हैं फिर हवा के कान क्यूँ
*
पहुंचना है हमें सद्भावना के शीर्ष तक लेकिन
डगर जाती है काई से सने दुर्गम ढलानों से
तिरंगा भी दुखी है रंग बँटते देखकर अपने
मगर उम्मीद है उसको वतन के नौजवानों से
*
जो पौध चाहती है दरख़्तों में बदलना
उस पर किसी दरख़्त की छाया न कीजिए
गर चाहते हैं आप ये रिश्ते बचे रहें
आईना बन के सामने आया न कीजिए
*
साँँचा- ए- इंसानियत तो हम सभी के पास है
पर कोई राजी नहीं होता पिघलने के लिए
पढ़ना और पढ़ाना अश्विनी के जीवन के अभिन्न अंग बन गए।कविताओं, दोहों, मुक्तकों ,छंदों आदि से गुजरती हुई अश्विनी की काव्य यात्रा ग़ज़ल तक आ पहुंची। ग़ज़ल के शिल्प के जादू ने अश्विनी को मंत्र मुग्ध कर दिया। ग़ज़ल में सिर्फ दो मिसरों में गहरी बात कहने का जो ये फ़न है वो जितना दिखाई देता है उतना सरल है नहीं। अश्विनी को पता चल गया था कि ढंग का एक शेर कहने में पसीने आ जाते हैं और पसीने बहा कर भी ढंग का शेर हो जाए तो गनीमत समझें । ग़ज़ल का शिल्प समझने और शेर को कहने के अंदाज़ को समझने के लिए अश्विनी ने किताबों का सहारा लिया ,उन्हें अपना गुरु बनाया। धीरे धीरे उसने ग़ज़लें कहनी शुरू कीं। वो हर वक़्त शायरी में डूबा रहने लगा। स्कूल जाते वक्त रस्ते में अगर कोई मिसरा उसके दिमाग में आ जाता तो वो अपनी मोटर साइकिल सड़क के एक किनारे रोक कर अपनी कॉपी निकालता उसमें लिखता और फिर आगे बढ़ता। ये सिलसिला लगभग रोज ही होने लगा। वो अपनी ग़ज़लें पहले मित्रों को सुनाता फिर उस्तादों को और जब उसे यकीन हो जाता कि वो कुछ ढंग का कह पा रहा है तब ही उसे फेयर कर कॉपी में लिखता।
बाराँ ही नहीं बल्कि उसके आसपास होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उसे बुलाया जाने लगा। 'कोटा' के राष्ट्रीय स्तरीय कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी वो शिरकत करने लगा। उसकी रचनाएँ देश की प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं जैसे 'समकालीन भारतीय साहित्य,हंस . वागर्थ , पाखी , मधुमती आदि में प्रकाशित होने लगीं। आकाशवाणी कोटा से उसकी ग़ज़लें प्रसारित हुईं। अश्विनी की पहचान 'बाराँ' से निकल कर पहले 'कोटा' और फिर पूरे देश में होने लगी।
छाँव याद है पेड़ों की, फल याद रहे
भूल गए हम बीजों की कुर्बानी को
*
जब भी मां-बाप से कहता हूं शहर आने को
तब वो मिट्टी उठा माथे से लगा लेते हैं
*
वो इक पौधा जो पत्थर पर उगा है
न जाने क्या सिखाना चाहता है
*
महका करती हैं वो हिज़्र की रातें भी
याद तेरी जब कस्तूरी हो जाती है
*
जो कि ख़ुशहाली मुझे ताउम्र ना दे पाएगी
वो समझ मुझको महज बदहालियों में आ गई
*
तब भ्रमर से पुष्प का मकरंद ही खतरे में था
आजकल तो पुष्प की हर पंखुरी ख़तरे में है
*
जिस पीपल ने जितना ज़्यादा ताप सहा
वो उतनी ही ज़्यादा छाया करता है
*
कभी भी जो पिघल पाते नहीं है
किसी साँँचे में ढल पाते नहीं है
समंदर को भी कमतर आँँकते हैं
कुएँ से जो निकल पाते नहीं हैं
बदलना चाहते हैं हम ज़माना
मगर खुद को बदल पाते नहीं है
अश्विनी के विचारों का ये सिलसिला तब टूटा जब उसे अचानक डॉक्टर की आवाज़ सुनाई दी 'बधाई हो ,इनका ऑपरेशन सफल हुआ है'। उसके बाद पत्नी का भीगे स्वर में कहना 'धन्यवाद डॉक्टर साहब मैंने कहा था न कि मुझे आप पर और मेरे ईश्वर पर पूरा भरोसा है 'सुनाई दिया। ठीक तभी अश्विनी के कानों में दोनों बच्चों की आवाज़ आयी 'कैसे हो पापा' और अश्विनी ने कोशिश कर आँखें खोल दीं। उसने पत्नी और दोनों बच्चों को पास खड़े मुस्कुराते देखा और माँ की आँखों से टपकते आँसुओं को देखा फिर धीरे से अपना हाथ माँ के हाथ पर रख दिया। 'आपको एक हफ्ते बाद घर भेज देंगे ,घर पर ही अब आपको लम्बा आराम करना है ,समझे अश्विनी जी' डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा और कमरे से बाहर चला गया।
घर पर काम ही क्या था सिवाय पढ़ने लिखने के। इस अवसर का भरपूर फायदा उठाया अश्विनी जी ने। अपनी पुरानी लिखी ग़ज़लों को एक बार फिर से पढ़ा जहाँ उचित लगा उन्हें ठीक किया और कुछ नयी ग़ज़लें भी कही। मित्रों और घरवालों ने इन ग़ज़लों को प्रकाशित करवाने का प्रस्ताव दिया और इस तरह 'अश्विनी त्रिपाठी' जी की पहली ग़ज़लों की किताब 'हाशिये पर आदमी' मंज़र-ऐ-आम पर आयी।
इस किताब को जिसमें अश्विनी जी की 84 ग़ज़लें है को 'बोधि प्रकाशन जयपुर' ने प्रकाशित किया है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के 'मायामृग' जी से 9829018087 पर संपर्क कर सकते हैं। भले ही अश्विनी जी की ये ग़ज़लें सीधी सरल भाषा में कही गयी हैं लेकिन इनका पाठक के सीधे दिल में उतर जाने की क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इन ग़ज़लों के लिए आप अश्विनी जी को उनके मोबाईल न 8890628632 पर संपर्क कर बधाई दे सकते हैं। एक शायर के लिए उसके पाठकों से मिली प्रशंसा से बढ़ कर और कुछ नहीं होता।
आखिर में पेश हैं इस किताब से लिए उनके कुछ और शेर :
बच्चे पढ़ना सीखे तब से
अखबारों से डर लगता है
माँँ कहती है झुकना सीखो
जब चौखट पर सर लगता है
*
लोभ धोखा जालसाज़ी दिख रहे हैं वर्क़ पर
आज खिसका जा रहा है हाशिए पर आदमी
जिंदगी की अब ग़ज़ल कहना बहुत आसाँँ नहीं
हर तरफ अटका पड़ा है काफ़िए पर आदमी
*
जिस दिन उस से आंखें चार नहीं होतींं
उस दिन जाना पड़ता है मयखाने में
तन से तन की दूरी कितनी कमतर है
उम्र गुज़र जाती है मन तक जाने में
मेरे भीतर इक भोला सा बच्चा है
मर जाता हूँँ उसको रोज़ बचाने में
*
इंसानों को सिर्फ़ डराना ठीक नहीं
डर अक्सर हथियारों से मिलवाता है
41 comments:
गजलकार अश्विनी जी के बारे में मर्मस्पर्शी किस्सागोई के साथ गजल पढ़ना सोने पे सुहागा जैसा लगा, धन्यवाद!
त्रिपाठी जी की पहली ग़ज़लों की किताब 'हाशिये पर आदमी' के सफल प्रकाशन पर हार्दिक बधाई!
किताबों की दुनिया-227
ब्लॉग मोहतरम जनाब नीरज गोस्वामी जी ,जिन का काम सिर्फ शायरी और शायरों को ख़ास ओ आम तक पहुंचाना है। वो इस काम को मुसलसल जारी रखे हुए हैं प्रमात्मा उनको सेहतयाबी चेहरे पे शहाबीऔर हयात में उम्र दराज़ी अता करें। अब बात करते हैं जनाब अश्विन त्रिपाठी जी मजमुआ कलाम ज़ेरे क़िताबत "हाशिये पर आदमी"ये ग़ज़लों का एक इंतिहाई ख़ूबसूरत गुलदस्ता है बहुत दिनों बाद मीर के स्कूल का कोई विद्यार्थी मिला है जब वो कहता है:-
1चंद सिक्कों की खनक पर डगमगाया जब कभी
पर्स में रखी तेरी तस्वीर ने रोका मुझे
2अनसुनी करना नहीं बेटी की उस आवाज़ को तुम
जो तुम्हें ख़ामोश रह कर कुछ बताना चाहती है
3कुछ ख़ताएं भी ज़रूरी है यहां
हर ख़ता को न सुधारा जाए
अश्विनी त्रिपाठी जी के ये शेर पढ़ कर मुझे अब्बास ताबिश जी का ये शेर कहना पड़ेगा:-मेरे अल्फ़ाज़ में अहसास की शिद्दत तोबा
शेर लिखता हूं तो काग़ज़ से धुआं उठता है
लाजवाब शायरी दिली मुबारकबाद पेश करता हूं प्रमात्मा उनको तमाम शुहरतों से नवाज़ दे और उम्र दराज करें आप दोनों हज़रात को मेरा सलाम। कोई लफ़्ज़ ग़लत लिखा गया हो या ग़लत बयानी हो गई हो तो मुआफी चाहूंगा। शुक्रिया
सागर सियालकोटी
लुधियाना
हमेशा की तरह बहुत खूबसूरत रिव्यू
कई वर्ष पहले मैं त्रिपाठी जी से बारां में 'सारस' (साहित्य रसिक समिति) के एक कार्यक्रम में मिला हूँ। आलोचक के रूप में वहाँ पर उन की पहचान बन चुकी थी। उन का ग़ज़लकार रूप देख कर अच्छा लगा। पुस्तक के लिए भी उन्हें मेरी आत्मीय बधाई। आप ने अपने लेख में शाइर की दुर्लभ बीमारी से भी परिचय करवाया और लेख में नाटकीयता का रंग भी भर कर इसे अधिक रोचक व पठनीय बना दिया। यह बात सच भी है कि शाइरी तभी परवान चढ़ती है जब जीवन में नाटकीय उतार-चढ़ाव सुख-दुःख के एहसासात के रूप में प्रविष्ट होते हैं।
अनिल अनवर
जोधपुर
बहुत आभार नीरज जी 🙏
आपने मेरी पुस्तक को इस योग्य समझा 🙏🙏
बहुत आभार आपका 🙏🙏
बहुत आभार सागर साहब का 🙏🙏
बहुत बहुत शुक्रिया अनिल अनवर साहब 🙏🙏
तन से तन की दूरी कितनी कमतर है
उम्र गुज़र जाती है मन तक जाने में.
बहुत ही नफ़ासत और ख़ूबसूरती से अपनी बात को सबकी की तरह रखने में माहिर है भाई अश्विनी कुमार त्रिपाठी..... आपकी पेशकश का तो जवाब ही नहीं सर.... मुबारकबाद
शायर अशोक नज़र
आदरणीय नीरज जी ! नमस्कार !
आप स्वयम् में एक मापदंड हैं ! आपका लिखा बार - बार पढ़ता हूँ ---- फैन हूँ आपका !
शुभास्ते सन्तु पन्थानः !
लाजवाब शायरी है अश्विनी जी की।
विज्ञान व्रत
दिल्ली
बहुत ही बढ़िया
आर.पी.घायल
पटना
भाई साहब
अश्विनी त्रिपाठी के ग़ज़ल संग्रह हाशिये पर आदमी और स्वयं अश्विनी जी बारे में आप द्वारा किसी फिल्मी कहानी के फ्लैश बैक में चले जाने वाले ख़ास अंदाज़ से लुत्फ़ अनदोज़ हुआ। बार बार आपकी विशिष्ट पारिवारिक शैली की चर्चा भी अब एक तरह का दुहराव ही मालूम पड़ेगी।लेकिन यहां आपकी तलाश,शायर के साथ आत्मीय बर्ताव और उससे जुड़ाव रखते हुए उसकी ग़ज़लों और उनमें से मूल्यवान शेरो को तलाशने में किये गए आपके श्रम का उल्लेख दुहराव के खतरे उठाते हुए भी रेखांकित करना लाज़मी समझता हूं।शायर अश्विनी त्रिपाठी और उनकी ग़ज़लों को शुभकामनाएं। आपके लिए सिर्फ़ इतना की ये कारनामा आपके लिए नया नहीं मगर अल्लाह करे ज़ोरे क़लम और ज़ियादा
अखिलेश तिवारी
जयपुर
बहुत शानदार आलेख
आपकी लेखन शैली में जीवन परिचय तो जीवंत हो उठता है कमाल की लेखनी है आपकी🌹🌹🌹🌹🌹
नरेंद्र निर्मल
पता नहीं क्यों पर कभी कभी किताबों की दुनिया को पढ़ते हुए ऐसा लगता है की बस नीरज जी सामने बैठे है और बोले जा रहे है या फिर जो कुछ उनका लिखा पढ़ रहे है वो सब या तो हम ने साथ में जी लिया है या फिर सब कुछ हमारे ही सामने हो रहा है और मूक दर्शक बने उसे देख और समझ रहे है
अब यहाँ देखिये, किस चालाकी से बात शुरू की है की इंसान को आखिर तक पढ़ना ही पढ़ेगा, अभी २ शेर ही पढ़कर अच्छे लगे थे की डॉक्टर साहब बीच में आ गये और वो भी बीमारी के साथ, पढ़ते ही मुँह से निकला "हाय अल्लाह" पर दिल को तसल्ली दी की भाई आगे बढ़ो हो सकता है शायर का कोई प्रेरणास्रोत हो जिसकी बीमारी या लाचारी की वजह से शायर ने और अच्छा कहना शुरू कर दिया हो
जब कलम ने तालियों की चाह में लिक्खी ग़ज़ल
तब किताबों से निकलकर मीर ने रोका मुझे
पर ये क्या हुआ, बात तो दवाई से आगे बढ़कर ऑपरेशन पे पहुँच गयी और बड़े बड़े अक्षरों में नाम दिख गया अपने इस बार के शायर साहब का, अबे ये क्या हुआ ये तो गजब हो गया
मीर के बजाय बीमारी निकल आयी ग़जल कहने से रोकने के लिए अब किताबों की दुनिया में शायर का इस्तक़बाल करना है और किताब का क्या शायर साहब का ही अता पता नहीं लग रहा है, अल्लाह अल्लाह मेरी तौबा
अरे मेरे भगवान ऑपरेशन की टेबल पे फ्लैशबैक, जैसा हिंदी फिल्मों में होता हैं , अरे किताबों की दुनिया में बिना किताब का शायर आ गया क्या, हे भगवान् मेरा तो दिल ही बैठ गया
अरे ये नीरज जी को क्या हो गया इस बार किताबों की दुनिया और बिना किताब के इस बार ऐसे कैसे, इतने सालों के नियम कायदे कानूनों का क्या हुआ
अब भाई, क्या कह सकते है बड़े है कुछ भी कर सकते है दिल पे बड़ा सा पत्थर रख कर आगे बढ़ते है और जो बचा हुआ उसे पढ़ लेते हैं
अब कुछ भी कहो, जितने अश’आर भी कहे हैं उनमे सियासत से लेकर जिंदगी और रिश्तों को सुनहरे अक्षरों में बहुत आसान भाषा में पिरो कर रख दिया है
इन अश’आर में खोते ही जा रहा था की अचानक ही डॉक्टर की बधाई हो कान में सुनाई दी और होठों पे एक मुस्कान भागती हुई आ गई लगा अश्वनी जी की नहीं अपनी जान में जान आयी है
और इसी के साथ किताबों की दुनिया में अश्वनी त्रिपाठी जी की किताब "हाशिये पे आदमी" नज़र आई अब ये नीरज जी ने जानबूझकर किया है या फिर हो गया है की "हाशिये पे आदमी" भी उनके लिखे हुए के हाशिये पे ही जा कर नज़र आता है
अश्वनी त्रिपाठी जी के अश’आर पढ़ते पढ़ते मुझे दुष्यंत जी की बात याद आ गयी
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँवो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ
दुष्यंत जी ने जो कहन हिंदी की आम बोलचाल की भाषा में शुरू किया था उसे अश्वनी त्रिपाठी जी जैसे शायर आगे ही बढ़ा रहे हैं \
मेरे भीतर इक भोला सा बच्चा है मर जाता हूँँ उसको रोज़ बचाने में
अब इस शेर को पढ़ कर नीरज जी आपके ही दोस्त और मेरे आज के दौर के मनपसंद शायर में से एक राजीव रेड्डी का शेर याद आ गया
मेरे दिल के किसी कोने में, एक मासूम सा बच्चा
बड़ो कि देख कर दुनिया, बड़ा होने से डरता है
मेरा मनपसंद शेर
अनसुनी करना नहीं बेटी की उस आवाज को तुम
जो तुम्हें खामोश रहकर कुछ बताना चाहती है
शायद इसलिये की एक बेटी का बाप हूँ
ऊपरवाला अश्वनी जी को उम्रदराज करे और वो ऐसे ही बेहतरीन कहते रहे, सही में बहुत ही सीधी सरल और आसान भाषा में बहुत गहरे अर्थ की शायरी
और नीरज जी को एक बार फ़िर सर झुकाकर तहेदिल शुक्रिया एक बेहतरीन शायर और उसकी बेहतरीन शायरी से तआ'रुफ़ कराने के लिये
आपकी लेखनी का तो कोई जवाब ही नहीं है
वाह अमित वाह... तुम्हारी टिप्पणी पढ़ कर और अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलती है...धन्यवाद भाई...
प्रणाम सर।
ब्लॉग पढ़ा, बहुत ही रोचक अंदाज़ में आपने पूरी किताब का खाका खींच दिया। बेशक त्रिपाठी जी ने लाजवाब शेर कहे हैं। एक और शायर को रूबरू करवाने के लिए आपका हार्दिक आभार।
दुर्गेश साध
इंदौर
चंद सिक्कों की खनक पर डगमगाया जब कभी
पर्स में रक्खी तेरी तस्वीर ने रोका
हमने उन हाथों में खंजर और तमंचे दे दिए हैं
जो पहुंचना चाहते थे रंग और पिचकारियों तक|
अनसुनी करना नहीं बेटी की उस आवाज को तुम
जो तुम्हें खामोश रहकर कुछ बताना चाहती है
कुछ ख़ताएं भी जरूरी है यहाँँ
हर ख़ता को ना सुधारा
इसे इक मुकम्मल ग़ज़ल हम बना लें
यह जीवन हमारा महज़ काफ़िया है
माँँ कहती है झुकना सीखो
जब चौखट पर सर लगता है
और, और तमामों शेर जो सीधे दिल पर ठक से असर करते हैं।
कमाल है अश्वनी जी की लेखनी।
बहुत बधाई और शुभकामनाएं उन्हें।
और आप नीरज जी.. आप भी कम कमाल नहीं करते हैं।
आपने उत्सुकता और कौतूहल पैदा करते हुए जिस खूबसूरती और रोचकता के साथ अश्वनी जी से और उनकी रचनाशीलता से परिचित कराया है , वो भी किसी कमाल से कम नहीं। जिसके लिए आपका आभार।
धन्यवाद आभा जी
लोभ धोखा जालसाज़ी दिख रहे हैं वर्क़ पर
आज खिसका जा रहा है हाशिए पर आदमी
जिंदगी तेरी ग़ज़ल कहना बहुत आसाँँ नहीं
हर तरफ अटका पड़ा है काफ़िए पर आदमी
ग़ज़ल कहने के दौर होते हैं हर शायर की ज़िंदगी में। सामान्यतः इस आयु में ग़ज़ल में एक शेर भी ऐसा हो जाये कि पढ़ने वाले पर प्रभाव छोड़ जाए तो ग़ज़ल सफल हो जाती है लेकिन इसमें पाठक की भूमिका भी कम नहीं होती। किसी के ग़ज़ल संग्रह से ऐसे नायाब शेर चुनकर प्रस्तुत करने की क्षमता आप में भरपूर है और आपकी इस क्षमता का सुखद परिणाम यह होता है कि पूर्ण ग़ज़ल पढ़ने की तीव्र इच्छा होती है। आपके प्रयासों के लिये साधुवाद।
अश्विन त्रिपाठी जी को उनकी अच्छी ग़ज़लों के लिये बधाई।
धन्यवाद तिलक जी...
बहुत आभार आदरणीय 🙏🙏
बहुत शुक्रिया आपका 🙏🙏
शुक्रिया दुर्गेश जी 🙏🙏
बहुत आभार अमित जी 🙏🙏
बहुत शुक्रिया निर्मल जी
बहुत आभार अखिलेश जी
बहुत आभार सर आपका 🙏🙏
बहुत शुक्रिया सर 🙏🙏
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वृक्ष के देवत्व को स्वीकार करके जो चला था
वह प्रगति रथ आ चुका है लौह निर्मित आरियों तक
वक्त रहते छोड़ दो कुंठा घृणा के रास्तों को
अन्यथा यह ले चलेंगे मानसिक बीमारियों तक
हमने उन हाथों में खंजर और तमंचे दे दिए हैं
जो पहुंचना चाहते थे रंग और पिचकारियों तक
अद्भुत ! अश्विन जी की लेखनी का परिचय देती नीरज जी की लेखनी , जैसे चांदी के वर्क से सजी काजू कतली। पढ़ कर जिस असीम आनंद की अनुभूति हुई, उसे शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए असंभव है । आप दोनों उत्कृष्ठ लेखकों को मेरा कोटिशः नमन।
अमित जी इस बहूमूल्य टिप्पणी के लिए आभार...
बहुत ही प्रेरणादायक कहानी अश्विनी जी की और उतनी ही ख़ूबसूरत गज़लें. साझा करने के लिए सादर आभार 🙏🙏
आलोक मिश्रा
सिंगापुर
सर, अश्विनी त्रिपाठी जी वाला ब्लॉग अभी ऑफिस में पढ़ा। बहुत अच्छा लगा। मेरे लिए तो उनके अशआर में आपकी किस्सागोई से असर पैदा हुआ।
आषुतोश तिवाड़ी
जयपुर
बहुत नायाब, आँखें खुल गई हैं। और लिखने का हौसला भी।
जया गोस्वामी
वरिष्ठ साहित्यकार
जयपुर
बहुत सुन्दर
बहुत शुक्रिया सर 🙏🙏
बहुत आभार सर आपका 🙏🙏
बहुत शुक्रिया 🙏🙏
अनूठा लेख क्या कहना अलग ही अंदाज़ में लिखा गया है शुरू से अंत तक बांधे हुए ज़िन्दाबाद वाह वाह बधाई भाई जी
मोनी गोपाल 'तपिश'
धन्यवाद ओंकार जी
धन्यवाद भाईसाहब... आशीर्वाद देते रहें
एक से बढ़कर एक ग़ज़लें हैं इस संग्रह में... कहन का अलहदा अंदाज इन्हें वर्तमान के शायरों में अलग ही बनाता है । बधाई ।
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