Monday, November 9, 2020

किताबों की दुनिया -218 

शहरों का भटकना मिरी आदत का करम था
जंगल की शुरुआत  तिरी याद ने की है
*
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
*
क़त्ल होने की सिफ़त बाद के असबाक़ में है
पहले ख़ंजर की कसौटी पे उतरना सीखो 
सिफ़त-ख़ूबी , असबाक़-पाठों
*
कौन रक्खेगा ख़बर बाद में इस रिश्ते की
लाओ माँ-बाप की तस्वीर को उल्टा कर दूँ
*
अभी तो शक है ग़लत रहनुमाई करने का
हमें यक़ीन अगर हो गया तो क्या होगा
*
तन्हा रहने का सबब हो तो बहुत गहरा हो
वर्ना तन्हाई भी किरदार से गिर जाती है
*
जब से समझ में आया कि हम भी है आदमी
उस दिन से आदमी पे भरोसा नहीं किया
*
अना का बोझ भी रक्खा है मेरे शाने पर
ये हाथ काँप रहा है सलाम करते हुए
*
छोड़ कर खेल कैसे हट जाता
मैं जुआरी था और हार में था

बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जिन्हें पढ़ने के बाद आपका दिल कई दिनों तक दूसरी किताब उठाने को न करे। आप सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी में डूबे रहना चाहें। ऐसी किसी किताब का लिखने वाला अगर आपके लिए अनजान हो तो लुत्फ़ दुगना हो जाता है क्यूंकि नामी गरामी शायर से तो आपको उम्मीद होती ही है कि उसका कलाम क़ाबिले तारीफ़ होगा लेकिन जब अनजान शायर का क़लाम आपको झूमने पर मज़बूर कर दे तो वो ख़ुशी लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं हो सकती । इसे यूँ समझें कि अमूनन शराब की ब्रांड से हमें नशे का थोड़ा बहुत अंदाज़ा हो जाता है लेकिन अगर बोतल पर कोई ऐसा ब्रांड लिखा हो जिसे आपने कभी देखा सुना न हो और उसे पी कर उसका नशा उतरने का नाम न ले तो सोचिये उसका मज़ा क्या होगा ? 
उस्ताद शायर और संपादक 'तुफ़ैल चतुर्वेदी' साहब और आज के दौर के नौजवान बेहतरीन शायर लिप्यांतरकार जनाब 'इरशाद ख़ान सिकंदर' साहब ने मिल कर हमें जिस शायर से मुलाकात करवाई है उसे पढ़ कर दोनों को फ़र्शी सलाम करने को जी चाहता है। अगर ये दोनों आपस में न मिलते तो यकीन जानिये 'राजपाल एन्ड संस' वालों की 'सरहद आर-पार की शायरी' वाली ये श्रृंखला इतनी दिलकश न होती। दोनों ही शायरी के मर्मज्ञ हैं, जौहरी हैं लिहाज़ा इनके हाथ से जो निकलेगा वो बहुमूल्य ही होगा। 
इस श्रृंखला के एक आध शायर को छोड़ बाकि के सभी शायर ऐसे हैं जिन्हें हिंदी पाठकों ने शायद ही कभी पढ़ा हो. पाकिस्तानी शायरों को न पढ़ पाने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन अपने देश के ऐसे बेमिसाल शायरों को हिंदी के पाठक इसलिए नहीं पढ़ पाए क्यूंकि नंबर एक ,उनका काम सिर्फ उर्दू में ही शाया हुआ है नंबर दो ,उन्होंने अपनी शायरी के मयार से कभी समझौता नहीं किया इसलिए वो मुशायरों के मंच पर लोकप्रिय होने के लिए कही जाने वाली सतही और चौंकाने वाली शायरी से ताल मेल नहीं बिठा पाये। 

हमारे घर के ग़मों का कोई सवाल नहीं
सवाल ये है कि दरवाज़ा खोलना है अभी

अँधेरी रात का लम्बा सफ़र तो बाद में है
ये जगमगाता हुआ शहर काटना है अभी

तुम्हारे साथ गुज़ारे हुए महीनों से
तुम्हें निकालते रहने का सिलसिला है अभी

अच्छी और मेयारी शायरी कभी भुलाई नहीं जा सकती। वो कभी न कभी सामने आती ही है और लोगों के दिलो दिमाग़ पर छा जाती है। जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब इस किताब की भूमिका में इसी बात को अपने ख़ास अंदाज़ में यूँ बयाँ करते हैं ' ऐसी शायरी किस काम की जिसे स्टेज पर ड्रामेबाज़ी गायकी का सहारा लेना पड़े ? मुशायरे में ग़ज़ल गायकी के बल पर या कूल्हा लगाने से चल जायेगी मगर वक़्त तो बड़ी ज़ालिम चीज है। उसकी नज़र में जगह बनाने के लिए बड़ी मेहनत दरकार है। वो निर्मम है। किसी का लिहाज़ नहीं करता। किसी का ड्रामा ,गाना उसे याद नहीं रहता बक़ौल जनाब दिलावर फ़िगार साहब 'ये टेंटुआ तो किताबों में छप नहीं सकता'। "

जो चोट दे गए उसे गहरा तो मत करो
हम बेवक़ूफ़ है कहीं चर्चा तो मत करो

माना के तुमने शहर को सर कर लिया मगर
दिल जा-नमाज़ है इसे रस्ता तो मत करो
जा-नमाज़ -नमाज़ पढ़ने की चटाई

तामीर का जुनून मुबारक तुम्हें मगर
कारीगरों के हाथ तराशा तो मत करो
तामीर -निर्माण

आज हम जिस शायर की बात कर रहे हैं उसे अपने दौर के कद्दावर शायर, जो अपनी अदाकारी के बल पर मुशायरों की जान हुआ करते थे, ने अपने साथ मिलाने की भरसक कोशिश की ,लुभावने वादे किये लेकिन कामयाब नहीं हो सके। ऐसा क्या था इस शायर में कि उसे अपने दल  में शामिल करने के लिए इस नामचीन शायर को मिन्नतें करनी पड़ीं ? जवाब है -उसकी लाजवाब शायरी। ऐसी शायरी जो सामईन के दिलो-दिमाग पर हमेशा के लिए तारी हो जाय। मैं आपको उस कद्दावर शायर का नाम तो नहीं बताऊंगा लेकिन उस शायर का नाम जरूर बताऊंगा , जिसने किसी भी दल का हिस्सा बनने से साफ़ इंकार कर दिया जिसने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया जो अगर चाहता तो किसी का पिछलग्गू बन कर दाम और नाम दोनों कमाता। अपनी शर्तों पे जीने वाले और अकेले चलने वाले इस अज़ीम शायर का नाम था जनाब 'अहमद कमाल परवाज़ी'. 
हिंदी पाठकों के लिए ही नहीं बल्कि उर्दू जानने वालों के लिए भी ' परवाज़ी' साहब का नाम बहुत जाना पहचाना नहीं है। मैंने उनके बारे में जानने के लिए गूगल खंगाला अपने शायर मित्रों से बात की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। आखिर उनके छोटे बेटे 'नावेद परवाज़ी' मेरी मदद को सामने आये। उनकी बदौलत ही आज आप 'परवाज़ी' साहब के बारे में पढ़ पा रहे हैं। उनकी बाकमाल शायरी को देवनागरी में पहली बार 'सरहद के आर-पार की शायरी' किताब में शाया किया है राजपाल एन्ड संस् ने।      


तिरी ख़्वाहिश से ऊपर उठ रहा हूँ
यही लम्हा नतीजा हो गया तो
*
ग़म का अहसास नहीं है तो अधूरापन है
एक आंसू भी टपक जाए तो पूरा हो जाउँ
*
नायाब कोई चीज़ गुज़रती है तो हम लोग
ये सोचने लगते हैं हमारी तो नहीं है
*
सही तो ये था कि रस्ते में ख़ुश्क हो जाता 
बुरा तो ये है कि दरिया में गिर गया दरिया 
*
जो खो गया है कहीं ज़िन्दगी के मेले में
कभी-कभी उसे आँसू निकल के देखते हैं
*
चलो ये देख लें अब किसकी जीत होती है
मैं ख़ाली हाथ तिरे हाथ में निवाला है
*
खिलौने बाद में पहले तू इस रसीद से खेल
ऐ मेरे लाल तिरी फ़ीस भर के आया हूँ
*
शुरू में मैं भी इसे रौशनी समझता था
ये ज़िन्दगी है इसे हाथ मत लगा लेना
*
बच्चों की तरह तुमको बरतना नहीं आता
दुनिया तो हवाओं में उड़ाने के लिए है
*
वो अगर आज की माँ है तो थपकती कब है
तू अगर आज का दिल है तो धड़कता क्यों है

महाकाल की नगरी 'उज्जैन' में 11 मार्च 1944 को कमाल साहब का जन्म हुआ। आठ भाई बहनों में वो सातवें नंबर पर थे। पिता उज्जैन के किसी हॉस्पिटल में कम्पाउंडर थे, घर की माली हालत अच्छी न होते हुए भी उन्होंने अपने सभी बच्चों को बेहतरीन तालीम दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कमाल साहब के बड़े भाई इक़बाल हुसैन हॉकी के जबरदस्त खिलाड़ी होने के साथ साथ शायरी भी करते थे। अपने दोस्तों के घरों पर अक्सर होने वाली नशिस्तों में इक़बाल साहब अपने साथ कमाल साहब को भी ले जाते। अपने भाई के कलाम पर मिलती वाहवाहियों से कमाल साहब बहुत खुश होते और खुद भी वैसा ही कुछ लिखने की कोशिश करते। बड़े भाई को कमाल साहब ने एक आध बार अपना लिखा दिखाया जिसे उन्होंने देख कर ख़ारिज कर दिया लेकिन कमाल साहब ने लिखना नहीं छोड़ा। कभी कभी तो वो अपने भाई के क़लाम में कमियां निकाल कर उसे अपनी छोटी बहन को सुनाया करते क्यूंकि बड़े भाई को बताने से डाँट का डर जो था। ग़ज़ल सीखने के लिए उन्होंने उज्जैन के शायर 'तुफ़ैल' साहब की शागिर्दी तो की लेकिन ये सिलसिला ज्यादा दिन चला नहीं। ज़्यादातर वो अपने लिखे को तब तक काटते छाँटते रहते जब तक उन्हें अपने कलाम से पूरी तसल्ली न हो जाती।         

इक रोज़ तुमसे हाथ मिलाने की आरज़ू
इतनी शदीद थी कि मिरे हाथ जल गये
शदीद : तीव्र

मेरी तरह से ट्रेन भी सुनसान हो गई
एक-एक करके सारे मुसाफ़िर निकल गये

ये उन दिनों की बात है जब दर्द दर्द था
अब तो हमारे ज़ख़्म भी सोने में ढल गये

कॉलेज के दिनों में उनकी दोस्ती कुछ ऐसे लोगों से हुई जो गुंडे किस्म के थे जो जुआ खेलते और हर किसी से झगड़ते फिरते थे। दोस्तों के कहने पर कमाल साहब एक कमरा किराये पर लेकर लोगों को जुआ खिलाने लगे लेकिन खुद कभी नहीं खेला। इससे उन्हें आमदनी होने लगी और अपनी जेब, जैसा कि उन्होंने अपने बेटे नावेद को बताया,अठ्ठनियों चवन्नियों से भरने लगे। एक दिन उन्हें लगा कि जो ज़ायका कभी बड़ी मुश्किल से हाथ आयी चवन्नी की चाय पीने में आता था वो लोगों को जुआ खिला कर हासिल हुई दौलत से मिली चाय में नहीं आता है । बस उसी दिन से उन्होंने जुआ खिलाना बंद कर दिया और पढाई में लग गए।
एम.ए. एल.एल.बी की डिग्री हासिल करने के बाद जिला सहकारी केंद्रीय बैंक मर्यादित की 'मकदोने' ब्रांच में नौकरी करने लगे। मकदोने उज्जैन से लगभग 60 की.मी. दूर एक गाँव है। शुरू में तो मकदोने  की हवा उन्हें रास नहीं आयी इसलिए वापस उज्जैन चले आये लेकिन जब घरवालों ने नौकरी छोड़ने पर ऐतराज़ किया तो वापस लौट गए। यहीं से उनकी शायरी के सफ़र का आगाज़ हुआ। गाँव की खुली आबोहवा, खेत खलियान, कच्ची पगडंडियां, किसान और उनके परिवारों की खुशियां, परेशानियां , मिटटी की सौंधी खुशबू सब उनकी शायरी में जगह पाने लगे। बैंक पहुँचने के लिए उन्हें साईकिल से लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था और इस पूरे रास्ते में उनका दिमाग शेर बुनता रहता जिसे वो बैंक पहुँचते ही कागज़ पर उतार लेते थे। शायर वही बन सकता है जो धुनी हो, ये पार्ट टाइम जॉब नहीं है, शायर को चौबीसों घंटे शायरी में ही डूबे रहना पड़ता है। दुनियादारी के काम साथ साथ चलते रहते हैं और दिमाग शेर कहने में उलझा रहता है। ये तपस्या है, इसे जो जितनी शिद्दत से करता है उतना ही उसे इसका फल मिलता है। कमाल साहब के बिस्तर पर तकिये के पास हमेशा एक रजिस्टर और पैन पड़ा रहता था जिसमें वो रात कभी भी उठ कर अचानक आया ख्याल दर्ज़ कर लिया करते थे। 

तुझसे बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ 
जिसपे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ

तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूठ न बोलूं तो अकेला हो जाऊँ

मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मेरे बस में नहीं है कि परिन्दा हो जाऊँ

वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उनकी मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
शगुफ़्ता- खुशहाल

समझौता परस्ती कमाल साहब की आदत का हिस्सा नहीं थी। वो जो करते हमेशा अपनी तरफ से परफेक्ट किया करते। चाहे कपड़े पहनने का शऊर हो, बैंक का काम हो, लोगों से मेल मुलाकात हो, दोस्तों से दोस्ती हो, रिश्तेदारों से रिश्तेदारी निबाहना हो या बच्चों की पढाई हो याने कोई काम हो वो उसे पूरी शिद्दत और ईमानदारी से करने की कोशिश करते। यही कारण है कि उनकी शायरी उनके समकालीन शायरों से बहुत अलग और असरदार है। इस किताब के बाहरी फ्लैप पर कमाल साहब की शायरी का निचोड़ कुछ यूँ बयाँ किया गया है "अहमद कमाल परवाज़ी की शायरी जैसे ज़िन्दगी की मुश्किलों से होड़ लेती हुई। तीखे तंज़ कसती हुई सबको होशियार,ख़बरदार करती हुई आगे बढ़ती है। परवाज़ी रवायतों को तोड़ते हुए अपनी ग़ज़लों में ऐसे ऐसे विषय पिरोते हैं जो शायद पहली बार उर्दू ग़ज़ल का हिस्सा बने हैं जैसे -रबी और खरीफ़ की फ़सल, बच्चों के स्कूल की फ़ीस,सियासत के दाँव-पेच, गाँव की ज़िन्दगी ---"
ये अलग बात है कि उन्हें इस शायरी की बदौलत वो मक़बूलियत हासिल नहीं हुई जिसके वो हक़दार थे। मक़बूलियत का दरअसल आपके हुनर से कोई सीधा रिश्ता नहीं होता कई बार ये तिकड़म या किस्मत से हासिल होती है ,ज़्यादातर ये भी देखा गया है कि हुनरमंद लोगों को मकबूलियत आसानी से मिलती भी नहीं क्यूंकि वो अपने वक़्त से बहुत आगे की सोच वाले होते हैं। दूसरी ख़ासियत जो कमाल साहब के बेटे 'नावेद' ने मुझे बताई वो ये कि'कमाल' साहब बहुत सकारात्मक सोच के इंसान थे। कैसे भी हालात हों उनकी सोच हमेशा पॉजिटिव रहती। हर हाल में खुश रहना और अपने साथ रहने वालों को हमेशा खुश रखना उन्हें आता था। हर किसी की मदद करने में उन्हें ख़ुशी हासिल होती थी। घर परिवार के लोग, रिश्तेदार,दोस्त जब कभी किसी मौके पर एक साथ इकठ्ठा होते तो कमाल साहब को पुकारते जो अपने जुमलों और किस्सों से सबके पेट में हँसा हँसा कर दर्द कर दिया करते। लोग उनकी ज़िंदादिली की मिसाल दिया करते थे। 

तिरे ख़िलाफ़ गवाही तो दे रहा हूँ मगर
दुआएँ मांग रहा हूँ तिरी रिहाई की
*
मेरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
लोग तो अब भी समझते हैं कि घर जाता हूँ
*
हम इत्तिफाक़ से दोनों ही झूठ बोलते थे
यही तो चीज़ तअल्लुक़ में एतबार की थी
*
कह तो देता हूँ यहाँ लोग मिरे अपने हैं
बाद में नाम बताने में उलझ जाता हूँ
*
रंजिशें कैसे छोड़ सकता हूँ
शहर में अजनबी न हो जाऊँ
*
मेरा दिल  भी किसान है या रब
इसका कर्ज़ा अदा नहीं होता
*
घाव की शक्ल में निकलता है
चाँद बरसात के ज़माने में
*
उम्र भर पेड़ लगाने का नतीजा रख दे
ला मिरे हाथ पे सूखा हुआ पत्ता रख दे
*
ये तो अच्छा है कि हक़ मार रहे हो लेकिन
इससे क्या होगा अभी और निखरना सीखो
*
इसमें जीने की तमन्ना ही अजब लगती है
प्यार तो डूब के मरने के लिये होता है 

एक तो रिटायरमेंट दूसरे तीनों बेटों का पढ़ लिख कर नौकरी के सिलसिले में घर छोड़ कर बाहर जाना बेटियों का आगे की पढाई के लिए हॉस्टल का रुख करना कमाल साहब को तन्हा कर गया। इसी बीच एक ऐसा हादसा भी हुआ जो उन्हें नागवार गुज़रा जिसका यहाँ ज़िक्र करना उनकी निजी ज़िन्दगी में घुसपैठ जैसी हरक़त कहलाएगी लेकिन उसकी वजह से उन्हें गहरा सदमा लगा और वो दिल की बीमारी पाल बैठे। इसका एहसास उन्हें अपने एक भाई के इंतेक़ाल के बाद हुआ जब वो उन्हें दफ़ना कर लौट रहे थे लेकिन अपनी खुद्दारी के चलते उन्होंने अपनी इस तक़लीफ़ का इज़हार किसी नहीं किया। उन्हें अल्लाह के सिवा और किसी से कभी कोई उम्मीद नहीं रखी। अपनी परेशानी किसी को बताने के हक़ में कभी नहीं रहे। 
 29 दिसम्बर 2007 शाम की बात है तीन बेटों में से मँझला बेटा जो ईदुल जुहा पर घर आया हुआ था कमाल साहब से गले मिल कर नौकरी पर वापस जाने के लिए अपने दोनों भाइयों के साथ रेलवे स्टेशन के लिए निकला।अभी तीनो भाई स्टेशन पहुँचे ही थे कि कमाल साहब के अज़ीज़ दोस्त जिया साहब का बड़े भाई के पास फोन आया कि वापस घर पहुंचो तुम्हारे अब्बा की तबियत नासाज़ है उन्हें ठंडा पसीना आ रहा है। तीनो भाई वापस लौटे तब तक कमाल साहब हॉस्पिटल पहुँच चुके थे। एक घंटे की मशक्कत के बाद डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उनके ज़नाज़े में जैसे लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। भले ही उज्जैन के बाहर लोग उन्हें ज्यादा न जानते हों लेकिन वो अपने शहर के लोगों के लाडले थे। 
उनके इंतेक़ाल के बाद एक दिन जब उनके बड़े भाई ने, जिन्होंने कभी उनके क़लाम को ध्यान से नहीं पढ़ा था, अचानक उनकी एक किताब को पढ़ना शुरू किया तो पढ़ते चले गए और आखिर में भरे गले से बोले 'अफ़सोस कमाल इतने कमाल का शायर था ये मुझे आज पता चला' .काश अपने बड़े भाई के इस जुमले को सुनने के लिए उस वक्त कमाल मौजूद होते।    

पहले मालूम नहीं था कि सफ़र होते हैं
अब ये मालूम नहीं है कि सफ़र कितने हैं

एक पत्ती से भी महरूम उगाने वाला
काटने वाले के हाथों में शजर कितने हैं

कल तलक कितना परेशान था घर की ख़ातिर
आज घर छोड़ के निकला हूँ तो घर कितने हैं

कमाल साहब की उर्दू में दो किताबें प्रकाशित हुई थीं पहली 1988 में 'मुख़्तलिफ़' और दूसरी 2005 में 'बरकरार'. कमाल साहब की दिली ख़्वाइश थी कि उनकी ग़ज़लें देवनागरी में भी शाया हों लेकिन ऐसा हो नहीं सका। सं 2009 में उनके दोस्तों ने उनकी ग़ज़लों को देवनागरी में  'चाँदी का वरक़' नाम की किताब में छपवाया। अफ़सोस, ये किताब हिंदी पाठकों के हाथ जितनी पहुँचनी चाहिए थी पहुँच नहीं पायी।अब तो शायद ही ये बाज़ार में मिले। देवनागरी में उनकी श्रेष्ठ ग़ज़लें अब 'सरहद आर-पार की शायरी' में ही संकलित हैं। ये किताब हर ग़ज़ल प्रेमी के संग्रह में होनी चाहिए क्यूंकि इसमें संकलित ग़ज़लें बार बार पढ़ने लायक हैं बल्कि यूँ कहूँ कि हज़ार बार पढ़ने लायक हैं तो ग़लत नहीं होगा। 
आख़िर में आईये उनके चंद चुनिंदा अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :
     
छोटी सी एक बात पर मंज़र बदल गए 
दामन फटा तो हाथ से रिश्ते निकल गये 
*
अंगूठे दे के उतारा गया ख़रीफ का बोझ 
रबीअ फ़स्ल में बाज़ू चुका दिए जाएँ 
*
मुझे बताओ क़ाबा किस तरफ है 
मैं हुज़रा छोड़ के चकरा गया हूँ 
*
पहले तो घर में रहने की आदत सी डाल दी 
अब कह रहे हैं कौम के धारे से कट गया 
*
बस एक पल में दो आलम तलाश कर लेना 
वो एक बार निगाहें उठा के देखेंगे 
*
ग़म के बगैर जश्न मुकम्मल न हो सका 
ऐसा लगा कि कोई मचलने से रह गया 
*
यहाँ का मसअला मिटटी की आबरू का नहीं 
यहाँ सवाल ज़मीनों पे इख़्तियार का है 
*
एक पागल है जो दिन भर यही चिल्लाती है 
मेरे भारत के लिए कौनसी बस जाती है 
*
मैंने किरदार से गिरते हुए लोगों की तरफ़ 
इतना देखा है कि कमज़ोर निगाहें कर लीं 
*
पाँव के नीचे फूल रख देगा 
ज़िन्दगी भर निकालते रहना 


28 comments:

तिलक राज कपूर said...

आपके माध्यम से बहुत से शायरों की शायरी Sके परिचय हुआ लेकिन इतनी नायाब शायरी पहली बार पढ़ने को मिली। जो भी शेर की कहन सीखने का इच्छुक हो उसने यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिये।

नीरज गोस्वामी said...

आपकी पारखी नज़र को सलाम तिलक भाई जी।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर जानकारीपरक पोस्ट।

Onkar said...

बहुत सुन्दर

नीरज गोस्वामी said...

जनाब अहमद कमाल परवाज़ी भी आप की ही तरह मेरे अच्छे दोस्तों में थे। आप की ही तरह से मेरा मतलब यह है कि अक्सर उज्जैन के मेरे क़याम के दौरान वे मुझ से मुलाक़ात के लिये वक़्त नहीं निकाल पाते थे। यूँ वो मुझे काफ़ी पसन्द करते थे और मेरे कलाम को भी। उज्जैन की एक तारीख़ी निशस्त में तक़रीबन बीसेक साल क़ब्ल डॉ० ज़िया राना के दौलतखाने पर उन से पहली मुलाक़ात हुई थी और उस के बाद उज्जैन में उन से कभी मिलना नसीब न हो पाया। हाँ, उज्जैन में ही उन की याद में रखे तरही मुशाइरे में कलाम पढ़ने का एक मौक़ा बाद में ज़रूर मिला जिस में उन का ही एक मिस्रा - 'बस में कोई नमकीन सवारी तो नहीं है' पर गिरह लगा कर ग़ज़ल पढ़नी थी। चन्द मुशाइरे जो हम ने साथ पढ़े, उज्जैन के बाहर की जगहों के ही थे।
वाक़ई वे एक अच्छे शाइर थे। उज्जैन के शाइरों में जनाब महमूद हसन बड़वाला, हमीद 'गौहर', डॉ० ज़िया राना, जनाब समर कबीर और जनाब मुनव्वर अली 'ताज' के साथ उन की अच्छी दोस्ती थी। जोधपुर में भी उन की शाइरी की कई क़द्रदान और क़रीबी दोस्त हैं जो उन्हें याद किया करते हैं। आप ने भी अपने झ्स ब्लॉग में उन की शाइरी और शख़्सियत पर ख़ूबसूरत मक़ाला लिखा है। पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।

अनिल अनवर
जोधपुर

नीरज गोस्वामी said...

उम्रभर पेड़ लगाने का नतीजा रख दे,
ला मेरे हाथ पे सूखा हुआ पत्ता रख दे।
वाह नीरज भाई वाह।🙏🙏


विनय कुमार
जयपुर

mgtapish said...

नीरज जी कमेंट पब्लिश न हो पाया शायद नेट की समस्या है

mgtapish said...

जब से समझ में आया कि हम भी है आदमी
उस दिन से आदमी पे भरोसा नहीं किया
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
तन्हा रहने का सबब हो तो बहुत गहरा हो
वर्ना तन्हाई भी किरदार से गिर जाती है
ग़म का अहसास नहीं है तो अधूरापन है
एक आंसू भी टपक जाए तो पूरा हो जाउँ
क्या ही कहने वाह वाह बहुत ही ख़ूबसूरत अशआर
पढ़ने को मिले ज़िन्दाबाद बेहतरीन तबसरा वाह।
मोनी गोपाल `तपिश`

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया भाई साहब

नीरज गोस्वामी said...

Bohat khoobsurat aur qabil -e-daad kaam

Kuldeepak chirag
Ludhiana

नीरज गोस्वामी said...

क्या कहने बहुत खूब सफर जारी रहे बहुत बहुत शुक्रिया आपका उम्दा प्रस्तुति 💎💎💎

प्रमोद कुमार
दिल्ली

नीरज गोस्वामी said...

मज़ा आ गया पढ़ कर.🌺

बकुल देव

जयपुर

नीरज गोस्वामी said...

हमेशा ही की तरह नीरज जी शानदार, अनोखा और अद्भुत

ब्रजेन्द्र
बीकानेर

बेबाक आवाज़ said...

भाई इस अज़ीम शायर को सलाम साथ जिस बेहतरीन तरीके से आपने उनका तआरुफ़ करवाया है उसके लिये नीरज भाई को नमन
ऐसे इंसान सच मे बादशाह होते है।।

नीरज गोस्वामी said...

बहुत बहुत शुक्रिया भाई...लिखना सफल हुआ

Anonymous said...

Alfaaz nahi he, behtareen sher aur usper behtareen tarruf karaya he apne, dil khush ho gaya padker

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

एक बार फिर ट्राई करता हूँ

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

भाईसाहब कमाल साहब की शायरी में कमाल का कमाल है और यह कमाल वाला कमाल इतने कमाल का है कि इस कमाल के कमाल से ज़ेहन मालामाल हो जाता है ।

नीरज गोस्वामी said...

ऐसी कमाल की टिप्पणी पोस्ट करने का कमाल आप ही कर सकते हैं... कमाल किया है जनाब शुक्रिया

नीरज गोस्वामी said...

सरहद के आर पार की शायरी आप ने इस किताब को जिंदा कर दिया वाकई लाजवाब और बेहतरीन शायरी। शेरों में रब्त और जदीदयत का एक जबरदस्त मेल जो एक शायर की ख़ूबी है मैं आपको और कमाल साहिब, तुफैल जी को दिली मुबारकबाद पेश करता हूं।

सागर सियालकोटी
लुधियाना

नीरज गोस्वामी said...

एक बेहतरीन तोहफा , गजब संग्रह ...

दयाल निमोडिया
कोटा राजस्थान

Rashmi sharma said...

एक आंसू टपक जाए तो पूरा हो जाऊं
एक इसी मिसरे पर अटकी हुई हूं
कभी कभी हालात यूं होते हैं कि आंसू टपकते है लेकिन अधूरापन
कायम रहता है। या
हो सकता है कि अभी पूरा कर देने वाला आंसू टपकना बाकी हो
लगता है ये मिसरा कुछ कर गुजरेगा आज 🙂
ये किताब मेरे पास है शायद
अपनी उलझनों से निकलकर इससे उलझना अच्छा लगेगा।
आप की बदौलत जो शायरी पढ़ने को मिलती है क्या कहने उसके लिए आपको लाखों सलाम ।

नीरज गोस्वामी said...

रश्मि जी आप जैसी प्रबुद्ध पाठक की टिप्पणी से लेखन सफल हो जाता है...बहुत धन्यवाद।

Surendra Sharma Satyam said...

Kya kahne bahut hi shandar

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya Surendra bhai...

Unknown said...

नीरज जी ये किताब सरहद के पार की शायरी कैसे मिल सकती है?

नीरज गोस्वामी said...

अमेजन से ऑन लाइन मँगवा लें या राजपाल एंड संस को मेल करें।

Anonymous said...

इक रोज़ तुमसे हाथ मिलाने की आरज़ू
इतनी शदीद थी कि मिरे हाथ जल गये
शदीद : तीव्र

मेरी तरह से ट्रेन भी सुनसान हो गई
एक-एक करके सारे मुसाफ़िर निकल गये

ये उन दिनों की बात है जब दर्द दर्द था
अब तो हमारे ज़ख़्म भी सोने में ढल गये
.
क्या खूबसूरत अशआरो का चयन सर
.
उमेश मौर्य