ज़िन्दगी तेरे पास क्या है बता
मौत के पास तो बहाने हैं
*
जिस्म मुजरिम है और रूह गवाह
ज़िंदगी इक बयान है प्यारे
*
ग़म, ख़ुशी, आह, दर्द और आंसू
सबकी अपनी ज़बान है प्यारे
तुझको समझूं, लिखूं, पढ़ूं, सोचूं?
तू मेरा इम्तिहान है प्यारे
*
क्या है मक़सद, कहां निशाना है
तीर जाने, कमान क्या जाने
*
किस इरादे से कौन पढ़ता है
ये भला इक किताब क्या जाने
घर की बरबादियों के बारे में
घर में रक्खी शराब क्या जाने
कितने फूलों की हो गई तौहीन
ये महकता गुलाब क्या जाने
*
मुस्कुराने से रोकिए न मुझे
आंसुओं का दबाव भारी है
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले की तहसील कांठ के गांव कूरी रवाना में 10 जनवरी 1961 को जन्मे बच्चे को अपने पिता श्री रामगोपाल जी के प्लांट पर जाना बहुत प्रिय था। बचपन से ही उसके पिता उसे बड़े चाव से अपने साथ प्लांट ले जाते थेे। बाद में थोड़ा बड़ा होने पर वो ख़ुद ही किसी न किसी के साथ कोई न कोई बहाना बनाकर वहाँ चला जाता। प्लांट में पड़े गन्ने के चट्टे यानी ढेर और उसे क्रश करती विशालकाय क्रशर मशीन उस बच्चे के आकर्षण का विशेष केंद्र थी। वहीं पास ही में लगी लकड़ी काटने वाली आरा मशीनों, धान मशीनों का शोर और ट्यूबवेल से निकलते पानी कि कल-कल उसे बहुत भाती थी। प्लांट के सभी 40-50 मज़दूर जब उसे देखकर मुस्कुराते हुए नमस्कार करते तो वो बहुत ख़ुश होता।
नवीं कक्षा की परीक्षा में सर्वप्रथम आने की ख़ुशी में उसके मित्र कबसे उससे दावत की फ़रमाइश कर रहे थे, लेकिन वो टालता जा रहा था। जब 'मतलबपुर' के 'कृषक उपकारक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय' के दसवीं कक्षा में आए इस बच्चे को क्लास का मॉनिटर घोषित कर दिया, तब उसके मित्रों ने उस पर दावत करने का दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया । बच्चे ने एक दिन हाँ कर दी और अपने पिता से, जो उसकी कोई बात नहीं टालते थे, दावत के बारे में चर्चा करने का विचार लिए प्लांट की ओर क़दम बढ़ाए। संपन्न घर-परिवार के इस बच्चे के साथ उसके कुछ मित्र भी थे। सभी चहकते हुए प्लांट की ओर बढ़ रहे थे कि अचानक एक साथी ने लगभग चिल्लाते हुए कहा 'देखो उस तरफ़ कितना धुआँ उठ रहा है।' बच्चे ने देखा कि धुआँ उसी ओर से उठ रहा था जिस और उसके पिता का प्लांट था। वो घबराकर उस ओर दौड़ने लगा। सारे बच्चे उसके पीछे दौड़ने लगे। प्लांट में क्रशर मशीन के पास रखे हज़ारों टन गन्ने के ढेर में आग लगी हुई थी। मज़दूर उसे बुझाने का भरसक प्रयास कर रहे थे। चारों तरफ़ अफरा-तफरी का माहौल था। उसके पिता दूर ये सब देखकर सर पर हाथ धरे उदास एक कोने में बैठे हुए थे। ये सब देखकर बच्चे की आँख से टपाटप आँसू गिरने लगे।
ये दुनिया है, यहां ऐसी भी धोखे ख़ूब होते हैं
कि जैसे कोई चिड़िया आइने से चोंच टकराए
*
जो सच्चाई है वो तारीफ़ की मुहताज क्यों होगी
कि असली फूल पर कोई कहाँ ख़ुशबू लगाता है
*
मैं जैसे वाचनालय में रखा अख़बार हूँ कोई
जो पढ़ता है, वो बेतरतीब अक्सर छोड़ जाता है
*
हँसी को अब शरण मिल पाय अधरों पर नहीं संभव
तुम्हारे ग़म का शासन है हृदय की राजधानी में
*
अक़ीदत है, मुहब्बत है, सियासत है कि मजबूरी
न जाने कौन सा रिश्ता है दरिया और समंदर में
*
पराए हों कि अपने हों मगर सब ख़ैरियत से हों
दुआ करते हैं हम हर रोज़ जब अख़बार लेते हैं
*
मैं सबका हूं, सभी मेरे हैं, सबका अंश है मुझमें
हवा का, आग का, आकाश का, धरती का, पानी का
*
मुहब्बत की झुलसती धूप और कांटों भरे रस्ते
तुम्हारी याद नंगे पाँव गर आई तो क्या होगा
*
मदारी और बंदर के विषय में भी ज़रा सोचो
किसे मिलता है पैसा और मेहनत कौन करता है
*
बड़े हुशियार हैं तालाब जो ख़ामोश रहते हैं
मगर नादान हैं नदियाँ जो गिरती हैं समंदर में
आग तो जैसे-तैसे बुझ गई, लेकिन उसके बाद जला हुआ गन्ना इस लायक़ नहीं था कि उसे क्रश करके चीनी बनाई जा सके। लिहाज़ा उस गन्ने से घटिया दर्जे का गुड़ बनाया जा सका। इससे बहुत भारी नुक़सान हुआ। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। कहते हैं मुसीबत कभी अकेले नहीं आती, गन्ने के ढेर में लगी आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि कुछ दिनों बाद ही इंजन की फ़ाउंडेशन में दरार आ गई, जिसकी वजह से मशीन एक महीने तक बंद रही । मज़दूर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, पूरे महीने एक पाई की आमदनी नहीं हुई, लेकिन उन्हें पूरे महीने की पगार देनी ज़रूरी थी।
मज़दूरों की पगार और किसानों से उधार लिये गन्ने का मूल्य चुकाने के लिए तुरंत मशीनों को बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। लोगों ने भी दुनिया का दस्तूर निभाते हुए इस मौक़े का फ़ायदा उठाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी और रामगोपाल जी वर्मा के परिवार पर आई इस विपदा का भरपूर लाभ उठाया। मशीनों को लोहे के दाम पर बेचने पर मजबूर कर दिया। प्लांट की ज़मीन भी सस्ते में बिक गई, लेकिन फिर भी चुकाने को पर्याप्त धन इकठ्ठा नहीं हो पाया। आख़िरी विकल्प के रूप में वर्मा जी ने घर गिरवी रख दिया, और तो और पूरे परिवार की लाडली भैंस 'भुई' और घर की शान बंदूक भी बेच देनी पड़ी।
पलक झपकते ही एक हँसता-खेलता संपन्न परिवार फ़ाक़े करने को मजबूर हो गया। सुबह के खाने का किसी तरह इंतज़ाम होता, तो शाम की चिंता सताने लगती और कभी तो पूरे परिवार को भूखे पेट ही सोना पड़ता। जहाँ रोज़ पेट भरने की समस्या मुँह बाये खड़ी हो, वहाँ बच्चे की आगामी शिक्षा के बारे में सोचने की फ़िक्र किसे होती? बच्चे ने दसवीं की परीक्षा तो किसी तरह पास कर ली, लेकिन आगे क्या हो, यह प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ। इंटर की पढ़ाई के लिए तो बच्चे को मुरादाबाद जाना पड़ता, जो वर्तमान परिस्थितियों में असंभव था।
सिकुड़ जाते हैं मेरे पाँव खुद ही
मैं जब रिश्तों की चादर तानता हूं
*
नींदों की जुस्तजू में लगे हैं तमाम ख्वाब
सज-धज के आ गया है कोई उनके ध्यान में
*
चार आंसुओं का रोक न पाईं बहाव वो
जिन आँखों ने हैं बाँधे समंदर कभी-कभी
*
कागज के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए
लिपटी हुई है एक महक फूलदान से
ऐ दिल कहीं यकीन की उँगली न छूट जाय
बोझल हुए हैं पाँव सफ़र की थकान से
*
कुर्बत भी चाहता है मगर फासले के साथ
कैसी अजीब शर्त तेरी दोस्ती की है
*
थोथे संबंधों के नाम
कोलन, कौमा, पूर्ण विराम
जाने क्या मजबूरी है
खु़द से ही हर पल संग्राम
*
मेरी बस्ती के चिराग़ों को बुझाने वाले
थे सभी लोग वो सूरज के घराने वाले
आज के अहद में जीने पे तअज्जुब होगा
दिन जो याद आए कभी बीते ज़माने वाले
निराशा के इस घोर अँधेरे में अचानक आशा की किरण बनकर बच्चे के पिता का एक परिचित युवक जो मुरादाबाद के 'के.जी.के.होम्योपैथिक कॉलेज' का विद्यार्थी था, गाँव आया। युवक ने बच्चे के पिता को आश्वासन दिया कि वो अपनी जान पहचान की वजह से बच्चे का दाख़िला मुरादाबाद के आयुर्वेदिक विद्यालय में निःशुल्क करवा देगा और हॉस्टल में कमरा भी दिलवा देगा। पिता को जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गयी। बच्चे का दिल भी ख़ुशी से बल्लियों उछलने लगा। मुरादाबाद जाने की कल्पना से ही ख़ुश हो कर बच्चे की रातों की नींद ही उड़ गयी।
आख़िर जल्द ही उस बच्चे की ज़िन्दगी में अपना घर-गाँव छोड़कर मुरादाबाद जाने वाला महत्वपूर्ण मोड़ आया। मुरादाबाद में, अपने साथ लाए चंद कपड़ों, एक स्टोव और थोड़े से राशन के सामान के साथ, बच्चे ने घर गाँव के साथ-साथ अपने बचपन को भी अलविदा कह दिया। पढ़ाई के साथ-साथ वो विपरीत परिस्थितियों में ख़ुद को ढालते हुए जीवन को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करने लगा। उसने छोटे बच्चों की ट्यूशन लेनी शुरू की, जिससे उसकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी होने लगीं।
उसे याद नहीं ज़िंदगी की मुश्किलों से दो-दो हाथ करते हुए अपने मन के भावों को व्यक्त करने के लिए कब उसने क़लम थामी। मुरादाबाद में उस्ताद ग़ज़लकारों की कमी नहीं। उनकी संगत में आने से इस बच्चे में, जिसका नाम कृष्ण कुमार वर्मा है, ग़ज़ल सीखने की ललक पैदा हुई। इसके चलते पहले उर्दू भाषा सीखी और फिर उरुज़ का ज्ञान प्राप्त किया। ग़ज़ल कहते-कहते कृष्ण को अहसास हुआ कि ग़ज़ल महज़ उर्दू और उरूज़ जान लेने से नहीं कही जा सकती। इस विधा को सीखने के लिए एक उस्ताद का होना ज़रूरी है। उस्ताद की खोज शुरू हुई।
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुख से लगाता क्यों है
*
हमने माना कि तरक़्क़ी तो हुई है लेकिन
तीरगी आज भी क़ायम है चराग़ों के तले
*
कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे
पेट से हटकर भी कुछ सोचें वक्त कहां मिल पाता है
ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म
सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है
*
चिंता, उलझन, दुख-सुख, नफ़रत, प्यार, वफ़ा, आंसू, मुस्कान
एक ज़रा-सी जान के देखो कितने हिस्सेदार हुए
*
रह गई अपने-पराए की कहां पहचान अब
कितना सूना हो गया रिश्तों का पनघट इन दिनों
*
बेतहाशा तंज़ करता है दिये पर आज तक
एक टुकड़ा तीरगी का पाँव से लिपटा हुआ
*
फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं
हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल
कतरने अख़बार की पढ़कर चले जाते हैं लोग
शायरी करने लगे मंचों पर हॉकर आजकल
*
रोशनी के वास्ते धागे को जलते देखकर
ली नसीहत मोम ने, उसको पिघलना आ गया
इस खोज का अंत जनवरी 1989 को मुरादाबाद में हर गणतंत्र दिवस पर होने वाले मुशायरे से हुआ। दोस्तों की सलाह पर मुशायरे के दौरान कृष्णकुमार लखनऊ से पधारे उस्ताद शायर 'कृष्णबिहारी नूर' साहब की बग़ल में जा बैठे और उनसे उनके घर का पता पूछा। दो दिन बाद उन्होंने 'नूर' साहब को पत्र लिखा, जिसमें उनसे उनकी ग़ज़लों की किताब के बारे में जानकारी माँगी। नूर साहब ने जवाब में लिखा कि उनकी दो किताबें मंज़रे-आम पर आई हैं- 'दुख-सुख' और 'तपस्या', इनमें से सिर्फ़ 'तपस्या' ही, जो उर्दू लिपि में है, बाज़ार में उपलब्ध है। जवाब में कृष्णकुमार जी ने 'नूर' साहब को लिखा कि वो उर्दू ज़बान से वाक़िफ़ हैं और साथ ही अपनी दो ग़ज़लें भी 'नूर' साहब को भेज दीं। ग़ज़लें नूर साहब को पसंद आईं और उनमें से एक ग़ज़ल मुंबई से छपने वाली पत्रिका ' बज़्मे फ़िक्रो फ़न' में छपने भी भेज दी। जब कृष्णकुमार जी ने नूर साहब से उनका शागिर्द बनने की इच्छा ज़ाहिर की, तो उन्होंने कहा कि इसके लिए आप लखनऊ आएं।
नूर साहब से मिलने के लगभग एक साल बाद दिसंबर 1989 में कृष्णकुमार लखनऊ गये, जो अब 'नाज़' तख़ल्लुस से ग़ज़लें कहने लगे थे। नूर साहब के घर पहुंचकर साथ लाया मिठाई का डिब्बा उनके हाथ में देकर उन्होंने नूर साहब के चरण स्पर्श किये। नूर साहब ने आशीर्वाद दिया और डिब्बे में से मिठाई का पहला टुकड़ा कृष्णकुमार जी को खिलाकर उन्हें अपना शागिर्द बनाना मंज़ूर किया।
जलो तो यूँ कि हर इक सिम्त रोशनी हो जाए
बुझो तो यूँ कि न बाक़ी रहे निशानी भी
*
बदला अपने अहसाँ का उम्रभर नहीं चाहा
सीपियों ने बचपन से मोतियों को पाला है
*
नाख़ुदा, नाव, पतवार, साहिल हमें
एक तुम क्या मिले, सब सहारे मिले
*
तू वो शक और और विश्वास का प्रश्न है
सब जिसे जोड़ते और घटाते रहे
*
तेरे नामों से तो सब है वाक़िफ़ मगर
ये बता तुझको पहचानता कौन है
दिसंबर 1989 के उस दिन से लेकर नूर साहब की ज़िंदगी के आख़िरी दिन यानी 30 मई 2003 तक कृष्णकुमार 'नाज़' साहब पर नूर साहब का वरदहस्त रहा। इन 13 सालों में नूर साहब ने 'नाज़' साहब को ग़ज़ल के विभिन्न पहलुओं, छंद के प्रकार और भाषा की बारीकियों से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि बरख़ुरदार तुम मुशायरों में जाओ, वहाँ शायरों को ध्यान से सुनो और ग़ौर करो कि शायर को उसके किस कलाम पर ज़्यादा दाद मिलती है और क्यों? शेर में रवानी का क्या असर होता है। 'नाज़' साहब ने नूर साहब की हर बात का अक्षरश: पालन किया। वो अपना लिखा नूर साहब को दिखाते और वो जिस शेर या ग़ज़ल को ख़ारिज़ करने को कहते, उसकी वजह जानकर तुरंत हटा देते। नूर साहब की रहनुमाई में ही नाज़ साहब की पहली किताब मंज़रे-आम पर आई।
सन् 2012 में नाज़ साहब ने 'हिंदी ग़ज़ल के संदर्भ में कृष्णबिहारी नूर का विशेष अध्ययन' विषय पर शोधकर पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। नाज़ साहब का ये शोधग्रंथ नूर साहब पर किया गया सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
आज कृष्णकुमार 'नाज़' साहब की ग़ज़लों की एक अनूठी किताब 'नई हवाएँ' की जानकारी और उसके चुनिंदा अशआर आप तक पहुंचा रहे हैं। बाज़ार में उपलब्ध ग़ज़लों की सैकड़ों किताबों में से ये किताब इसलिए अनूठी है कि इसमें उर्दू ग़ज़ल की 18 अत्यधिक प्रचलित बहरों पर कही 120 ग़ज़लों का संकलन किया गया है। हर बहर के अरकान और उस बहर में कही ग़ज़लें एक साथ संकलित हैं। ग़ज़ल सीखने वालों के लिए इससे बेहतर किताब शायद ही कोई हो। इस किताब को 'किताबगंज प्रकाशन' गंगापुर सिटी राजस्थान ने प्रकाशित किया है।
ये किताब अमेजन पर नहीं है इसलिए जो इसे खरीदना चाहें वो किताबगंज के प्रकाशक श्री प्रमोद सागर से 8750660105 पर संपर्क करें। आप नाज़ साहब से 9927376877 अथवा 9808315744 पर मोबाइल से संपर्क कर उन्हें इन शानदार ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं। यक़ीन मानिए, उनसे बात कर आप उनकी सहृदयता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। उनसे kknaaz1@gmail.com पर भी संपर्क किया जा सकता है।
आदमी की भूख मकड़ी की तरह है दोस्तो
और जीवन उसके जाले की तरह उलझा हुआ
*
जिसकी ख़ातिर आदमी कर लेता है ख़ुद को फ़ना
कितना मुश्किल है बचा पाना उसी पहचान को
*
ज़हन से उलझा हुआ है मुद्दतों से ये सवाल
आदमी सामान है या आदमी बाज़ार है
इस तरक़्क़ी पर बहुत इतरा रहे हैं आज हम
जूतियां सर पर रखी हैं पाँव में दस्तार है
*
मैंने दुश्मन को भी ख़ुश होकर लगाया है गले
दुश्मनी अपनी जगह, इंसानियत अपनी जगह
मैं परिंदे की तरह मजबूर भी हूँ, क़ैद भी
हां मेरी ज़हनी उड़ानों की सिफ़त अपनी जगह
*
थी कभी अनमोल, लेकिन अब तेरे जाने के बाद
ज़िंदगी फ़ुटपाथ पर बिखरा हुआ सामान है
*
सर झुकाने ही नहीं देता मुझे मेरा ग़ुरूर
इक बुराई ने दबा लीं मेरी सब अच्छाइयाँ
कुछ दिनों तक तो अकेलापन बहुत अखरा मगर
धीरे-धीरे लुत्फ़ देने लग गई तनहाइयाँ
*
ये सुख भी क्षणिक हैं, ये दुख भी हैं वक़्ती
ये किसके हुए हैं, न तेरे, न मेरे
समाजशास्त्र, उर्दू और हिंदी विषयों में एम.ए.करने के बाद नाज़ साहब ने बी.एड. की परीक्षा पास की और फिर पी-एच.डी. की डिग्री भी हासिल की। मृदुभाषी नाज़ साहब विलक्षण प्रतिभा के धनी और जुझारू व्यक्तित्व के स्वामी हैं। माँ सरस्वती की उन पर विशेष कृपा रही है। उन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़ल लेखन में महारत हासिल की, बल्कि गीत, दोहा, कविता, नाटक तथा निबंध लेखन में भी कौशल दिखाया है। उनकी ये आठ किताबें इस समय बाजार में उपलब्ध हैं- ' इक्कीसवीं सदी के लिए' (ग़ज़ल-संग्रह), 'गुनगुनी धूप' (ग़ज़ल-संग्रह), 'मन की सतह पर' (गीत-संग्रह), 'जीवन के परिदृश्य' (नाटक-संग्रह), 'हिंदी ग़ज़ल और कृष्णबिहारी नूर', 'नई हवाएँ' (ग़ज़ल-संग्रह) और ग़ज़ल के विद्यार्थियों को उरूज़ आसानी से समझने के लिए बेहतरीन किताब 'व्याकरण ग़ज़ल का'।
नाज़ साहब के जीवन की कहानी हमें संघर्ष कर अपने सपनों को साकार करने की प्रेरणा देती है। उन्होंने जीवन में कभी हार नहीं मानी, विपरीत परिस्थितियों के समक्ष घुटने नहीं टेके। 'अमर उजाला' अखबार में उन्होंने सन 1989 'प्रूफ़ रीडर' के पद से नौकरी का आरम्भ किया और तीन वर्ष बाद ही उनका तबादला संपादकीय विभाग में हो गया। सन 1995 में उन्हें 'गन्ना विकास विभाग, मुरादाबाद में उर्दू अनुवादक के पद की सरकारी नौकरी मिल गई, लेकिन 'अमर उजाला' वालों ने उनसे वहीं काम करते रहने की गुज़ारिश की, लिहाज़ा वो दोनों संस्थाओं में तीन सालों तक साथ-साथ नौकरी करते रहे। दोनों जगह काम के बोझ के चलते उन्हें स्पोंडिलाइटिस व मोतियाबिंद भी हो गया, लेकिन मुरादाबाद में अपना ख़ुद का एक घर होने की चाहत ने इन तकलीफ़ों को उन पर हावी नहीं होने दिया। आख़िर अगस्त 1998 में उन्होंने 'अमर उजाला' छोड़ दिया। 31 जनवरी 2021 को वो गन्ना विकास विभाग में लेखाकार पद से सेवानिवृत्त हुए।
अब अपना पूरा समय वो अपने द्वारा स्थापित 'गुंजन प्रकाशन' और लेखन-पठन को देते हैं।
इस संघर्ष में उनके बचपन ने सीधा प्रौढ़ावस्था में कब क़दम रख दिया, ये पता ही नहीं चला। नाज़ साहब पर केन्द्रित 'निर्झरिणी' पत्रिका के अंक-12 में वो अपने बारे में लिखते हैं कि 'युवावस्था तक अभावों ने अपने बाहुपाश में जकड़े रखा।लेकिन ईश्वर हमेशा मेरी उंगली थामे रहा, उसने मुझे कभी निराश नहीं किया। तमाम दिक़्क़तों के बावजूद कभी मेरा कोई काम नहीं रुका। मैंने कभी दौलतमंद दोस्त नहीं बनाए, यह मेरा हीनताबोध भी हो सकता है। ज़िंदगी के सफ़र में मुझे बहुत अच्छे-अच्छे लोग मिले। आज जब अतीत के झरोखों में झांकता हूं, तो मेरी आंखें भीग जाती हैं। लेकिन, तभी मेरा आत्मबल मेरा कंधा थपथपाकर मेरा हौसला बढ़ाता है और कहता है- शाबाश, तुम्हारी मेहनत रंग लाई; और चलो, और चलो, चलते रहो, परिश्रम ही तुम्हारी पूजा है।
आइये अंत में उनके इन चंद चुनिंदा शेरों के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं :
चांद को पाने की कोशिश करते-करते
जुगनू क़िस्मत का हिस्सा हो जाता है
मैं ठहरा सदियों से प्यासा रेगिस्तान
तू तो नदी है, तुझको क्या हो जाता है
*
हाथ सेंकती हैं ख़्वाहिशें
ज़िंदगी है या अलाव है
*
ज़िंदगी ये बता नाम क्या दूं तुझे
आशना, अजनबी, राहज़न, राहबर
*
जहां शरीर से लेकर ज़मीर तक बिक जाय
नई हवाओं ने छोड़ा वहां पे ले जाकर
85 comments:
[4/12, 10:48] Nalini Vibha HP: सुब्हानअल्लाह सुब्हानअल्लाह
लाजवाब पेशकश एक लासानी शाइर के कलाम की, जिनके अश्आर एक नयापन और अनूठापन लिए हुए हैं। आद्योपान्त पढ़ गई, आपके लेखन में रवानी कमाल की है
[4/12, 10:49] Nalini Vibha HP: एक ख़ूबसूरत किताब, इन्तिख़ाब और शाइर से रू ब रू करवाने के लिए आपकी बेहद ममनून हूँ मोहतरम
सलामतोशाद रहिए
आमीन
नलिनी विभा
खूबसूरत अंदाज में किताब और शायर की कहानी..बहुत अच्छी लगी , धन्यवाद
बहुत क्रमवार और सजीले ढंग से जीवनी को लेखनी से उकेरा गया है।
जीवनी से ले कर शायरी तक का सफर चित्रण। कृष्ण कुमार नाज़ को दोस्त कहते हुए मुझे फ़ख़्र महसूस होता है। आप की लेखनी का तो मुद्दत से मुरीद हूं नीरज भाई।
अदब आपका अहसान नही उतार पायेगा नीरज जी
आप कमाल हैं
Regards
कहते हैं कि नीरज का है अंदाज़-ए-बयां और। बेहद खूबसूरती से आपने कृष्ण कुमार नाज़ जी को प्रस्तुत किया है और इसमें नूर साहब का ज़िक्र उस्ताद के रूप में आना, किस खूबसूरती से उन्होंने ने कृष्ण कुमार जी को शायरी की समझ प्राप्त करने का हुनर दिया। मात्र अरूज़ का अंश-ज्ञान प्राप्त कर स्वयं को ग़ज़ल का महारथी समझने वालों की आंखें खुल जाना चाहिए। ग़ज़ल तो ग़ज़ल, एक शेर भी शेर होने के लिये शायर में जो समझ चाहता है उसका अनुमान लग जाना चाहिए।
मैं जैसे वाचनालय में रखा अखबार हूँ कोई
जो पढ़ता है वो बेतरतीब अक्सर छोड़ जाता है। ऐसे शेर यूँ ही मफाईलुन,मफाईलुन करने से नहीं हो जाते। ऐसे शेर गहरी अनुभूति से जन्मते हैं और भाषा की सीमाओं को तोड़ते हुए प्रभाव उत्पन्न करने वाले शब्द मांगते हैं।
आपका तहेदिल से शुक्रिया सर। हर बार नये- नये फनकारों से रुबरू कराते हैं
धन्यवाद जयंती जी
धन्यवाद अनूप जी
शुक्रिया भाईजान
अरे क्या कह रहे हैं विजेन्द्र भाई...शुक्रिया
बहुत बहुत याने बहुत ज्यादा बहुत धन्यवाद तिलक जी
धन्यवाद ग्यानू भाई
चांद को पाने की कोशिश करते-करते
जुगनू क़िस्मत का हिस्सा हो जाता है
कृष्ण कुमार से नाज़ साहब होने की यात्रा बहुत ही प्रेरक और उम्मीद जगाती हुई
स्वारंगी साने
पूणा
Bahut khoob नीरज साहब। आप अदब और आदीबों को अपना कीमती वक्त देकर जो खिदमत कर रहे हैं वो काबिले तारीफ़ है। जाने अनजाने शायरों कवियों और उनके कलाम से जिस अंदाज़ से आप ताउरूफ करवाते हैं वो बेमिसाल है। आपकी कलम गागर में सागर भर देती है। आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
प्रेम भंडारी
उदयपुर
नमस्कार सर........आपके सान्निध्य में बेहतरीन उत्कृष्ट लेखन पढ़ने के लिए मिल रहा हैं ....इसके लिए मैं आपकी बेहद शुक्रगुज़ार हूँ ...विद्यार्थी होने के नाते मैं अपना फर्ज समझती हूँ। लम्बी यात्रा के कारण "पाठशाला " से वंचित रही। लेकिन आपकी भेजी पुस्तक का आनंद मेरे लिए हर रस्वादन से बढ़ कर रहा सर....सचमुच बेहद उत्कृष्ट लेखनी में शब्दों का मायाजाल ने मुझे जकड़ कर रखा। यह आपकी लेखनी का कमाल हैं। धन्यवाद धन्यवाद धन्यवाद । आपसे मिलना महत्वपूर्ण रहा 🙏💐💐💐💐🙏 अभी भेजी लिंक की कृष्ण कुमार नाज़ जी की बायोग्राफी मन को छू गई । सर ऐसे लेख अवश्य भेजते रहें। शुक्रिया 🙏नीरज जी
त्रिलोचन कौर
लखनऊ
आदरणीय !
आपके लेखन के कौशल से सोने को सुहागा लग जाता है। ये आपकी लेखनी का अद्भुत सामर्थ्य है !
नाज़ साहब का जीवन संघर्ष और शायरी अद्भुत है।
विज्ञान व्रत
दिल्ली
नाज़ साहब की लाजवाब शायरी हम तक पहूँचाने का तहे दिल से शुक्रिया। उनकी शायरी और आपका अंदाज क़ाबिले तारीफ है।
चाँद हदियाबादी
डेनमार्क
मुस्कुराना है मेरे होठों की आदत में शुमार।
इसका मतलब मेरे सुख दुःख से लगाता क्यों है।
बहुत ख़ूबसूरत शेर 👏👏👌👌🙏
आदरणीय नीरज सर, कृष्ण कुमार वर्मा ‘नाज़’ साहब का जीवन परिचय जिस अंदाज़ में आपने दिया वो अतुलनीय ,अप्रतिम है। उनकी किताब ‘नयी हवाएँ’ और कुछ शेर आपने साझा किए, बहुत धन्यवाद !🙏💐
विद्या चौहान
फरीदाबाद
आदरणीय चचा उस्ताज़ को प्रणाम
आदरणीय भाईसाहब!
आपको और आपकी संवेदनशील लेखनी को सादर नमन करता हूं। आलेख में आपकी सूक्ष्म दृष्टि देखते ही बनती है। जिस सुंदरता के साथ आपने शब्दों को भावनाओं की माला में पिरोया है, वह स्वयं में अनुपमेय है। धन्यवाद और आभार अभिव्यक्ति के लिए मैं शब्दों का संयोजन नहीं कर पा रहा हूं। मां सरस्वती से प्रार्थना करता हूं कि आपकी यह निस्वार्थ साहित्य सेवा अनवरत चलती रहे और मुझ ऐसे तमाम अनुजों को आपका प्रोत्साहन और आशीर्वाद इसी प्रकार मिलता रहे।
साथ ही धन्यवाद और आभार प्रकट करता हूं अपने उन सभी रचनाकार अग्रजों का जिन्होंने पटल पर मेरा उत्साहवर्धन किया और मुझे आशीर्वाद दिया।
आप सभी को सादर नमन।
कृष्णकुमार 'नाज़'
मुरादाबाद (उ.प्र.)
आदरणीया नलिनी विभा जी इस प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार
आपका हार्दिक आभार
मोहतरम जनाब सरवत जमाल साहब इन बेपनाह मोहब्बतों के लिए आपका बहुत बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय कपूर साहब इस प्रोत्साहन और शुभकामना के लिए आपका हार्दिक आभार
स्वारंगी साने जी इस प्रोत्साहन हेतु आपका हार्दिक आभार
आदरणीया त्रिलोचन कौर जी आपका हार्दिक आभार
आदरणीय भाई साहब विज्ञान व्रत जी आपका हार्दिक आभार
आदरणीय चांद हदियाबादी साहब आपका हार्दिक आभार
आदरणीया विद्या चौहान जी आपका हार्दिक आभार
प्रिय नवीन जी नमस्कार शुभ संध्या। नवरात्रि की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएं।
आदरणीय नाज़ साहब और आपको सादर प्रणाम। बहुत सुंदर शब्दों में आपने आदरणीय नाज़ साहब की रूह के दर्शन करवा दिये।
सादर प्रणाम।
भाई साहब
अब आपके लिखे पर यह कहूँ कि हतप्रभ हूँ तो यह जुमला भी मेरे तइं आपके संबंध में पिटा हुआ माना जायेगा।क्योंकि यह आपके लिए रोज़मर्रा की सी बात है पर मेरे पास सिवाय अवाक रह जाने के कोई उपाय नहीं।लाजवाब, लासानी!
शायर के जीवन की सच्ची घटनाओं को, उसके जीवन संघर्षों के साथ, शेरो का चयन और उन्हें एक ख़ास तरह की बुनावट और किस्सागोई के साथ सही जगह पर समावेशित करना यह आपका ही हुनर है।अब यह तो शायर ही जाने कि उसने उन शेरों को उन्ही घटनाओं के पसमंज़र में कहा है या नही पर आपकी उन शेरो की कोटेबिलिटी के साथ उस रचनाकार का संघर्ष एकमेव हो जाता है और बेसाख़्ता लगता है कि इन्ही मौक़ों पर ये शेर कहे गए होंगे।
फिर वही प्रकाश पंडित की सी आत्मीयता और पारिवारिक अंदाज़ में शायर का तआरूफ़ खुद ही स्पष्ट कर देता है कि कितनी श्रमसाध्यता के साथ रचनाकार के संबंध में विषयवस्तु से तादात्म्य स्थापित करते हुए उसका चयन उसकी स्तरीयता और प्रामाणिकता के मानकों पर रखकर किया गया है।पुस्तक के बारे में रुचि तो जगती ही है यह अपराधबोध भी कहीं पैदा होता है कि यह पुस्तक हम ग़ज़ल के चाहने वालों की नज़र से पहले क्यों नहीं गुज़री। निश्चय ही 'नई हवाएं' की ग़ज़लें ठहरकर पढ़े जाने और उसके शेर quote किये जाने योग्य हैं।नाज़ साहब को बधाई और शुभकामनाएं आपको विनम्र प्रणाम
अखिलेश तिवारी,
जयपुर
धन्यवाद संजीव भाई
गौतम जी नमस्कार। आपका हार्दिक आभार
आदरणीय तिवारी जी को सादर नमन
किस इरादे से कौन पढ़ता है
ये भला इक किताब क्या जाने
क्या कहने, वाह वाह..👌👌👌👌
एक बार पढ़ने से तबियत नहीं भरती, बार बार पढ़ती हूँ ,आद नाज़ सर के तमाम अशआर...बेहद शांत,हँसमुख और जीवन्तता के प्रतीक हैं आदरणीय...
और आज आद.नीरज भाई जी, आपके द्वारा लिखित उनका जीवन परिचय भी पढ़ने को मिला...आप की लेखनी क़माल करती है...कितनी सहजता से उनके जीवनसंघर्ष ,उनके व्यक्तित्व के साथ-साथ उनके कीमती ख़याल पिरोते चले गए आप,लगा कि सब क्रमानुसार घटित होता गया हो,बहुत बहुत धन्यवाद, हार्दिक साधुवाद ,इतने सुंदर लेख के लिऐ।
बेहद रोचक व ज्ञानवर्धक रहा आद.नाज़ सर की नई पुस्तक
'नई हवाएं' के बारे में जानना।
सादर नमन आपको व आद.कृष्ण कुमार नाज़ सर जी को।
नीरज गोस्वामी जी व कृष्ण कुमार नाज़ साहब , आप दोनों गुणीजनों के मैं सम्पर्क में हूं ये मेरे लिए परम् सौभाग्य की बात है। आप दोनों की शायरी की बुक्स मैंने यहां अमेरिका में मंगवाई हैं । आपके मार्ग दर्शन से में बहुत लाभान्वित हुआ हूँ । आपका बहुत बहुत आभारी हूँ। तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद।
लाजवाब लेख। शायर के जीवन व उनकी लेखनी पर प्रभावोत्पादक विमर्श।
हार्दिक बधाई। सादर नमन।
ग़म ख़ुशी आह और आँसू
सबकी अपनी ज़बान है प्यारे.
ख़ूबसूरत शायरी, बेहतरीन समीक्षा सर.
🌹🌹👌🏻👌🏻🙏🙏🌷🌷
अशोक (नज़र)
धन्यवाद चोवाराम जी
निरूपमा चतुर्वेदी जी बहुत बहुत धन्यवाद...
बेहद खूबसूरत अंदाज़े-बयाँ नीरज साहब
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और नाज़ साहब का तो कोई जवाब ही नहीं ��������������������
ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म
सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है।
बेमिसाल��������
बहुत बहुत शुभकामनाएं
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सादर��
मंजु सिंह
बरेली
धन्यवाद मंजू जी
आपने बहुत उत्कृष्ट शब्द संयोजन के साथ उनके व्यक्तित्व को बाँधा है बहुत मेहनत की है भैया आपने शुक्रिया
सीमा विजय
अलवर
वाहः जबरदस्त समीक्षा। नाज़ साहिब का व्यक्तित्व वाकई प्रेरक है। उन्हें साधुवाद। उनका ग़ज़ल संग्रह कहां से मिलेगा?
निर्मला कपिला
पंजाब
'नूर' का नूर है ख़यालों में।
नाम उन का है बेमिसालों में।
'नाज़' पर नाज़ करती है दुनिया -
हम भी हैं चाहने ही वालों में।
अनिल अनवर
जोधपुर
प्रिय नीरज भाई,
पता नहीं चलता कि आप शायर हैं या अफसाना निगार |बायोग्राफी लिखते हैं या किसी तिलस्म से रूबरू कराते हैं |किसी ख्वाब की हक़ीक़त का बयान करते हैं अथवा किसी मुजस्समा की रूनुमाई करते हैं |एक मामूली बात को इस ख़ूबसूरत अंदाज़ में पेश करते हैं कि आपकी क़िस्स्सा बयानी का लोहा माने बिना नहीं रहा जाता | यह बात किसी ज़र्र में आफताब की सिफ़त तलाश करने से कम नहीं जो आप कर रहे हैं | लाजवाब नीरज जी | डॉ.कृष्ण कुमार नाज़ मेरे अच्छे मित्रों में हैं लेकिन उनके बारे में इतनी जानकारी मुझे क़तई नहीं थी |
सर झुकाने ही नहीं देता मुझे मेरा ग़ुरूर
इक बुराई ने दबा लीं मेरी सब अच्छाइयाँ
कुछ दिनों तक तो अकेलापन बहुत अखरा मगर
धीरे-धीरे लुत्फ़ देने लग गई तनहाइयाँ
कितने सुन्दर अशआर का इन्तखाब कर लेते हैं आप
कुछ और अशआर जो मुझे बहुत पसंद आए :
किस इरादे से कौन पढ़ता है
ये भला इक किताब क्या जाने
घर की बरबादियों के बारे में
घर में रक्खी शराब क्या जाने
हँसी को अब शरण मिल पाय अधरों पर नहीं संभव
तुम्हारे ग़म का शासन है हृदय की राजधानी में
अक़ीदत है, मुहब्बत है, सियासत है कि मजबूरी
न जाने कौन सा रिश्ता है दरिया और समंदर में
मदारी और बंदर के विषय में भी ज़रा सोचो
किसे मिलता है पैसा और मेहनत कौन करता है
बड़े हुशियार हैं तालाब जो ख़ामोश रहते हैं
मगर नादान हैं नदियाँ जो गिरती हैं समंदर में
मेरी बस्ती के चिराग़ों को बुझाने वाले
थे सभी लोग वो सूरज के घराने वाले
आज के अहद में जीने पे तअज्जुब होगा
दिन जो याद आए कभी बीते ज़माने वाले
जलो तो यूँ कि हर इक सिम्त रोशनी हो जाए
बुझो तो यूँ कि न बाक़ी रहे निशानी भी
रोशनी के वास्ते धागे को जलते देखकर
ली नसीहत मोम ने, उसको पिघलना आ गया
थी कभी अनमोल, लेकिन अब तेरे जाने के बाद
ज़िंदगी फ़ुटपाथ पर बिखरा हुआ सामान है
नूर के नाज़ और कृष्ण के नीरज को हार्दिक बधाई और शुभकामनाये
रमेश 'कँवल'
आपकी ये पोस्टर भी हमपा अक्षरश: पढ़ जाते हैं। आप जो भी कहते हैं सब अच्छा लगता है।
नींदों की जुस्तजू में लगे हैं तमाम ख्वाब
सज-धज के आ गया है कोई उनके ध्यान में
बहुत बहुत खूब ख़्याल।
हो सकता है नाज़ साहब ने बहुत अधिक संघर्ष किया हो इसलिए उनकी क़लम से मिठास और रूमानी ख्याल दूर रहे हों। इनके शेरों में जिंदगी की तल्ख़ियां मुखर हो रही हैं।
बहुत सुंदर
दिलचस्प बयान की ताज़गी लिए एक नया लेख ज़िन्दाबाद वाह वाह क्या कहना बहुत बहुत बधाई |
मोनी गोपाल 'तपिश'
हमे जो नाज़ अपने 'नाज़ ' पर है,
एक अरसे से,
अब वही नाज़ इस 'नीरज ' के नाम करते हैं।
कमाल कर दिया तफ़सील बताने में बहुत,
कलम को आपकी सादर प्रणाम करते हैं।
बहुत सुन्दर आलेख, बधाई बहुत बहुत आदरणीय।
नूर साहब के शागिर्द की शायरी व आपका आलेख लाजवाब तो है ही,मुझे वर्ष १९८४-९१ का समय याद आ गया ।अपनी लखनऊ पोस्टिंग के समय मेरे बाल-सखा श्री देवकीनन्दन ‘शांत ‘,की याद ताज़ा हो गई ।वे UPSEB में SE थे ,किन्तु उनका अधिकांश समय नूर साहब के साथ व्यतीत होता था ।वे नूर साहब के प्रिय शागिर्द थे।’शांत’उपनाम भी उन्हीं ने दिया था ।वास्तव में शांत जी न केवल स्वभाव से शांत हैं अपितु एक गृहस्थ संत हैं व उच्चकोटि के कवि-शायर हैं।
आर बी अग्रवाल
दिल्ली
रमेश जी आपके शब्दों से लिखने का हौंसला कायम रहता है...बहुत शुक्रिया
शुक्रिया... आप का नाम पता नहीं चला
धन्यवाद ओंकार जी
धन्यवाद भाई साहब
धन्यवाद हिमांशु जी
किताबों की दुनिया-२२९
"न्ई हवाएं"शायर जनाब कृष्ण कुमार नाज़
ये मेरी खुशकिस्मती है कि मेरे बड़े भाई मोहतरम जनाब नीरज गोस्वामी जी ने मुझे ये मौका फरहाम किया कि मैं इतने बड़े शायर, जनाब कृष्ण कुमार नाज़ साहिब और उनकी शायरी पर चंद अल्फ़ाज़ रसीद कर सकूं।
इस से क़ब्ल, मैं नीरज जी के बारे में कुछ कहना चाहता हूं। नीरज गोस्वामी जी एक बेग़रज़ अदबी ख़िदमतगार, सैंकड़ों शायरों/शाइराओं को अपने ब्लॉग के ज़रिए आम अवाम तक पहुंचाया। इस से बड़ी अदबी ख़िदमत क्या हो सकती है मेरा सलाम है।
अब बात करते हैं मोहतरम जनाब कृष्ण कुमार नाज़ साहिब की,१०जनवरी१९६१को , मुरादाबाद उत्तर प्रदेश में उनका जन्म हुआ।एक संपन्न परिवार में पैदा हुए। ज़िन्दगी में बहुत से उतार चढ़ाव देखे, मगर अपने आप को हौसलों से बुलंद रखा। ग़ज़ल कुंभ २०१६ न्ई दिल्ली दिक्षित दनकोरी जी की सरपरस्ती थी ख़ाकसार ने उस प्रोग्राम का उद्घाटन किया था डाइस पर बतौर निर्णायक मंडल हम चार लोग थे जनाब परवाज़ साहिब, नाज़ साहिब, दनकोरी साहिब और सब कमज़ोर कड़ी कोई था तो सागर सियालकोटी
मेरी पहली मुलाकात नाज़ साहिब से हुई थी निहायत ही सादा खुशमिजाज़ शख़िसयत के मालिक और आज ये मेरा सौभाग्य है कि मैं उनकी किताब चर्चा कर रहा हूं। नाज़ साहिब के उस्ताद ए मोहतरम आला जनाब कृष्ण बिहारी नूर साहिब,जिनका नाम लेने से पहले सर को झुकाना लाज़िम हो जाता है नाज़ साहिब उन पर पी एच डी की और अदब की दुनिया में उनका एक मुकाम है नाज़ साहिब की लगभग आठ किताबें मंज़रे आम पर आ चुकी है और एक किताब ऊरुज़ पर भी, ताकि आने वाली नस्लें इस सरमाए से फ़ैज़याब हो सकें मेरा सलाम है नाज़ साहिब को नाज़ साहिब की शायरी जदीदियत के उन फलसफों की हामीकार है जो इन्सानी ज़िन्दगी के करीब तर करीब है प्रमात्मा उनको सेहतयाबी और कामयाबी दे। नाज़ साहिब भले ही मेरे से उम्र में दस साल छोटे हैं मगर अदब के हवाले से मेरे स बालातर हैं उनके चंद अशआर जो मुझे बहुत पसंद हैं:-
१किसी इरादे से कौन पढ़ता है
ये भला इक किताब क्या जाने
२घर की बर्बादियों के बारे में
घर में रखी शराब क्या जाने
३अक़ीदत है मुहब्बत है सियासत है के मजबूरी
न जाने कौन सा रिश्ता है दरिया और समंदर में
४मेरी बस्ती के चिराग़ों को बुझाने वाले
ये सभी लोग हैं सूरज के घराने वाले
मैं अपनी बात यहीं पर समाप्त करता हूं, कहीं तहरीर कि लिखावट में कोई ग़लती रह गई हो तो मुआफ कर देना। शुक्रिया
सागर सियालकोटी
98768-65957
अनूठे व्यक्तित्व के धनी डॉ कृष्ण कुमार नाज़ सर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का बहुत ही ख़ूबसूरती से परिचय देता हुआ यह विवरण अपने आपने में बेमिसाल है जिसे आदरणीय नीरज गोस्वामी साहब ने बहुत ही सुंदर शब्द-संयोजन के साथ, रोचक शैली में प्रस्तुत किया है जो उनकी संवेदनशीलता एवं विशिष्ट प्रतिभा का परिचायक है
सीमा विजयवर्गीय
वाह वाह वाह वाह वाह
वाह वाह वाह वाह वाह।
इतनी खूबसूरती से नाज़
सर का जीवन वृत्तान्त
बयाँ किया गया है, शब्द
नहीं मिल रहे हैं तारीफ़ के
लिये । बहुत-बहुत शुभकामनाएं
नीरज जी👏👏🌹🌹🙏🙏
नाज़ सर के लिए जो भी लिखा गया है वह अक्षरश: सत्य है।हम सभी नाज़ सर के मुरीद हैं फिर चाहे वह सर की ग़ज़लें हों या सर का व्यवहार, बात करने की तहज़ीब। सभी कुछ अनूठा है।
आप जैसे विद्वान् व्यक्तितव को मेरा सादर अभिवादन नमन वंदन ...
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साथ ही सर को उनकी नवीन ग़ज़ल संग्रह "नई हवाएँ" के लिए
बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं
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मंजू सिंह
बहुत ही ख़ूबसूरती से आदरणीय नाज़ साहिब के व्यक्तित्व और कृतित्व पर संवेदनशील तऱीके से बयान किया है। आदरणीय नीरज जी को सादर नमन करते हैं। नाज़ साहिब के मुरीदों के लिए यह किसी तोहफ़े से कम नहीं है। नाज़ साहिब ज़िन्दाबाद...💐
दीपक जैन
इसी बहाने आपके कई अविस्मरणीय अशआर देखने को मिले .सचमुच श्लाघनीय ......ढेरो शुभकामनाएँ
अनिल कुमार सिंह
आदरणीय नीरज जी को आत्मिक साधुवाद और गुरु जी को सादर प्रणाम।
पियूष शर्मा
नीरज जी का काम बहुत बड़ा काम है ,साहित्य जगत में याद रखा जाएगा उनका काम ।बहुत बधाई आप दोनों को
अनुज अब्र
क्या बेहतरीन क़रीने से लिखा है आदरणीय गोस्वामी जी ने आपके व्यक्तित्व और कृतित्व को
जो थोड़ा बहुत नही पता था वो 😊 भी जान गये अब हम।
नीरज जी लेखक / शायर का नाम विस्फोटक़ तरीके़ से लेख के बीच में बताते है जो पाठक को बांधें रखता है ......
बहुत अच्छा लेख ....और सभी शे'र भी
👏👏👏👏👏👏👏👏👏
सोनिया वर्मा
पढ़कर बहुत अच्छा लगा नाज साहेब और गोस्वामी जी को हार्दिक बधाइयाँ
सतीश वर्धन
बहुत सुंदर जानकारी एक शायर नाज़ जी की, पुरी जीवनी, साथ ही उनकी बेहतरीन ग़ज़लें, पुस्तक परिचय।।
सभी कुछ पुस्तक के प्रति आकर्षण पैदा कर रहा है।
सुंदर समालोचक दृष्टि।
आपको एवं नाज़ साहब को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
बेहतरीन ग़ज़लें,अद्भुत प्रस्तुति।
धन्यवाद
अनुराधा जी धन्यवाद 🙏
प्रेरक व्यक्तित्व है नाज़ साहब का। बहुत उम्दा ग़ज़लकार हैं। नाज़ साहब का विस्तृत परिचय के लिए आभार।
शुक्रिया जेन्नी शबनम जी
आदरणीय नीरज सर को आत्मिक साधुवाद व वंदन
सुमित सिंह
नीरज जी,
बेहतरीन ताज़गी से पुर अश्आर पर आपका ये कामयाब तब्सिरा पढ़ कर जी बहुत ख़ुश हुआ। आपदोनों को दिली मुबारकबाद।
शुक्रिया ठाकुर साहब...स्नेह बनाए रखें
आप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
दादा, आप न सिर्फ एक अच्छे दोस्त हैं बल्कि एक महान व्यक्तित्व हैं ।कितना पढते हैं व गुणते हैं, ये कोई आप से सीखे।आनंद आ गया नाज़ साहिब की आपकी ज़ुबानी जीवनी व अशआर पढ़ कर। मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझता हूँ, कि मैं आपका दोस्त हूँ ।मंगल हो।
नवीन श्रीवास्तव
धन्यवाद अमित जी
अद्भुत किताब नहीं है भाई
अद्भुत है आपकी कलमकारी
पाठक ना पढ़ना चाहे तो भी पूरी पढ़ता है।
शायर और शायरी तो ला जवाब है ही इसमें कोई दोराय नहीं है।
लेकिन हम मुरीद हैं आपकी कलमकारी के।
ज़िंदाबाद
👍🌹👍
विजय मिश्र दानिश
जयपुर
आप हमेशा हीरे चुन कर लाते
हो
Naz साहिब बेहद उम्दा शायर हैं
और उनकी शायरी पहले भी कई बार Facebook पर पढ़ी है
और एक बार उनसे मिलना भी हुया है... मुबारक मुबारक
विजय वाजिद
लुधियाना
एकबार फिर अनूठे अंदाज में किताब और शायर की कहानी....
आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय ‘नाज़’ जी की संघर्ष गाथा प्रेरणादाई है। आदरणीय नीरज जी आपने उनके बारे में बहुत अच्छा लिखा हैं। निराले अंदाज में नाज़ के बारे में बताने और उनके बेहतरीन अश्आर साझा करने के लिए हार्दिक आभार।
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