तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझको क़बूल
ये सहूलत तो मुझे सारा जहाँ देता है
*
सभी ने देखा मुझे अजनबी निगाहों से
कहाँ गया था अगर घर नहीं गया था मैं
*
मुस्कुराना सिखा रहा हूँ तुझे
अब तिरा दुःख भी पालना पड़ेगा
*
क्यों बात बढ़ाना चाहते हो
तुम अपनी कमगुफ़्तारी से
कम गुफ़्तारी -कम बोलना
*
ख़ुद ही पढ़ते हैं क़सीदे उसके
ख़ुद ही दाँतों से ज़ुबाँ काटते हैं
*
मैं जानता हूँ मुझे मुझसे माँगने वाले
पराई चीज़ का जो लोग हाल करते हैं
*
हम अगर अबके साल भी न मिले
फिर उधेड़ोगी तुम ये स्वेटर क्या
*
तुझे खोकर तो तिरी फ़िक्र बहुत जायज़ है
तुझे पाकर भी तिरा ध्यान रखा जाएगा क्या
*
मैं ये चाहता हूँ कि उम्र भर रहे तिश्नगी मिरे इश्क़ में
कोई जुस्तज़ू रहे दरमियाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी
*
तुम अपने कर्ब का इज़हार कर भी सकती हो
कि प्याज़ काट के ये वक़्त कट भी सकता है
कर्ब: दुःख
*
अब तो इक़रार भी नहीं दरकार
अब तिरी ख़ामुशी का क्या कीजे
*
बाज़-औक़ात ख़ुशी छू के गुज़र जाती है
रह भी जाती है कभी लॉटरी इक नंबर से
ओकाड़ा , पाकिस्तान के पंजाब प्रोविन्स का एक शहर जिसमें मोहल्ले हैं और मोहल्ले के घर एक दूसरे से जुड़े हुए। देखा ये गया है कि जहाँ घर जुड़े होते हैं वहां उनमें रहने वाले लोगों के दिल भी आपस में जुड़े होते हैं। लोगों की तकलीफें और खुशियाँ सांझी होती हैं। सबको पता होता है कि किसके घर के सामने वाले पेड़ का पीला पत्ता टूट के नीचे गिरा है और किसके पड़ौस के पेड़ में फल लगे हैं। इन्हीं मोहल्ले में से एक मोहल्ले का बच्चा एक घर से दूसरे घर यूँ घुसता है जैसे दूसरा घर भी उसके अपने घर का ही विस्तार हो। किसी भी घर में जा कर कुछ भी मांग के खा लेता है ये हाल सिर्फ़ इस बच्चे का ही नहीं है सभी बच्चों का है। यहाँ के सभी बच्चों के लिए मोहल्ले के सभी घर उनके अपने हैं।
जिस बच्चे का ज़िक्र मैं कर रहा हूँ उसकी पैदाइश 31 अगस्त 1980 की है और उसके घर का माहौल अलबत्ता थोड़ा सख़्त है। माँ-बाप दोनों सख़्त मिज़ाज़ हैं लेकिन बच्चे से प्यार करने वाले हैं। बच्चे को घर में शरारतें करने की सहूलिहत नहीं मिलती लिहाज़ा वो ये काम बाहर करता है। बच्चा अपने शहर ,मोहल्ले में बहुत खुश है उसे लगता है शायद सारी दुनिया इतनी ही खूबसूरत है और सारी दुनिया के लोग आपस में ऐसे ही मोहब्बत से रहते हैं। बच्चे की ज़िन्दगी के पंद्रह सोलह साल यूँ ही हँसी ख़ुशी से बीत जाते हैं । तभी एक दिन बच्चे के वालिद ऐलान करते हैं कि वो लोग ओकाड़ा छोड़ कर अपने और बच्चों के बेहतर मुस्तक़बिल के लिए जल्द ही लगभग 250 की.मी. दूरी पर बसे बड़े शहर बहावलपुर जा कर बस जाएँगे जहाँ उनके बाकि रिश्तेदार रहते हैं । बच्चा समझ नहीं पाता कि वो इस बात पर ख़ुशी ज़ाहिर करे या अपने पुराने दोस्त और मोहल्ले को छोड़ने का ग़म मनाये।
धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं
बड़े लोगों के ख़सारे भी बड़े होते हैं
ख़सारे - नुक़सान
*
ले आयी छत पे क्यों मुझे बेवक़्त की घुटन
तेरी तो ख़ैर बाम पे आने की उम्र है
*
उसे कहो जो बुलाता है गहरे पानी में
किनारे से बँधी किश्ती का मसअला समझे
*
वो दस्तयाब हमें इसलिए नहीं होता
हम इस्तेफ़ादा नहीं देखभाल करते हैं
इस्तेफ़ादा -लाभ उठाना
*
दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगरना मैं
बारिश की एक बूँद न बेकार जाने दूँ
*
यानी अब भी सादा दिल हूँ अंदर से
अच्छा चेहरा देख के धोका खाता हूँ
*
बेतकल्लुफ़ है बहुत मुझसे उदासी मेरी
मुस्कुराऊँ तो पकड़ती है मुझे कॉलर से
*
हम हुए क्या ज़रा ख़फ़ा तुमसे
जिसको देखो तुम्हारा हो गया है
*
बदल के देख चुकी है रियाया साहिबे-तख़्त
जो सर क़लम नहीं करता ज़ुबान खींचता है
साहिबे-तख़्त: राजा
*
हमारे ग़म कहीं कम पड़ गए तो क्या होगा
इरादा है कि अभी हमने और जीना है
*
होते-होते होगा वस्ल हमारा पाक तकल्लुफ़ से
पैर अभी मानूस नहीं है नये-नवेले बूट के साथ
*
सर झटकने से कुछ नहीं होगा
मैं तिरे हाफ़िज़े में रह गया हूँ
हाफिज़े: मष्तिष्क/ याददाश्त
तब किसे पता था कि बहावलपुर आकर ये बच्चा शायरी करेगा और एक दिन पूरी दुनिया में 'अज़हर फ़राग़' के नाम से जाना जायेगा। 'अज़हर फ़राग़' साहब की लाजवाब शायरी को हम हिन्दी पाठकों तक पहुँचाने के लिए सबसे पहले हमें जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब को उनकी ग़ज़लों के संपादन और इरशाद खान सिकंदर साहब को लिप्यांतर के लिए तहे दिल से शुक्रिया अदा करना होगा। ये दोनों ग़ज़लों के पारखी हैं इसलिए 'सरहद पार की शायरी' श्रृंखला की इस कड़ी में उन्होंने 'अज़हर साहब की शायरी के अनमोल मोती पिरोये हैं जिसे राजपाल एन्ड सन्स ने पहली बार देवनागरी में प्रकाशित किया है।
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन परदा होता था
ताले की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
कभी-कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था
शुक्र करो तुम उस बस्ती में भी इक स्कूल खुला
मर जाने के बाद किसी का सपना पूरा होता था
जब तक माथा चूम के रुख़सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े से बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
बहावलपुर ओकाड़ा से बड़ा शहर है लिहाज़ा इसमें रहने के तौर तरीक़े ओकाड़ा से अलग थे। मोहल्लों की जगह कॉलोनीज थीं जिनमें घर एक दूसरे से जुड़े हुए नहीं दूर दूर थे। लोगों के दिलों में भी जुड़ाव नहीं था। लोगों के आपसी सम्बन्ध दुआ सलाम और आप कैसे हैं? मैं ठीक हूँ, से आगे आसानी से नहीं बढ़ते थे। अज़हर को शुरू शुरू में ऐसे माहौल में बड़ी घुटन महसूस होने लगी। कुछ दिन अनमने से बीते, धीरे धीरे कॉलेज के दोस्तों के बीच मन रमने लगा और पता नहीं कब अज़हर को शायरी का शौक लग गया। उम्र के इस बासंती मोड़ पर जब हर तरफ़ फूल खिले नज़र आते हैं और हवाओं में चन्दन की महक आने लगती है अधिक तर नौजवान अपने दिल में उमड़ रहे ज़ज़्बातों को शायरी, कविता के माध्यम से वयक्त करने लगते हैं। एक उम्र के बाद बहुत से तो इस रुमानियत से बाहर निकल कर दूसरी तरफ़ चल देते हैं और कुछ बिरले इसमें डूब जाने की सोचने लगते हैं। अज़हर को शायरी से बेपनाह मोहब्बत हो गयी लेकिन उसे कोई सही ग़लत बताने वाला उस्ताद नहीं मिल रहा था। सीनियर शायरों का रुख़ बेहद रूखा था और वो सिखाने के नाम पर मुँह बना लिया करते थे। ऐसे में किसी ने उन्हें उस्ताद शायर 'नासिर अदील' साहब का नाम सुझाया जो उस वक्त अपनी नासाज़ तबियत के चलते शायरी छोड़ चुके थे।
हर शीशे का डर है भय्या
बच्चों वाला घर है भय्या
ऐनक का वावैला करना
ठोकर से बेहतर है भय्या
वावैला: हंगामा
मैं जो तुमको खुश दिखता हूँ
पर्दे की झालर है भय्या
आधा-आधा रो लेते हैं
एक टिशू पेपर है भैय्या
अपनी एक ग़ज़ल कागज़ पर लिख कर अज़हर साहब 'अदील' साहब को ढूंढते ढूंढते उन तक जा पहुँचे। 'अदील' साहब को मिल कर उन्हें लगा जैसे किसी दरवेश से मिल रहे हों। बड़े अदब से अज़हर साहब ने उन्हें आदाब किया और वो कागज़ जिस पर वो अपनी ग़ज़ल लिख कर लाये थे उनके सामने रख दिया। 'अदील' साहब ने कागज़ उठाया ग़ज़ल पढ़ी और कागज़ को बड़ी ऐतियाद से एक और रख कर अज़हर साहब को गौर से देखा और उन्हें मीर की एक ग़ज़ल सुनाई उसका मतलब समझाया फिर ग़ालिब का शेर सुना कर उसकी व्याख्या की आखिर में कुमार पाशी की एक ग़ज़ल सुना कर उसके रदीफ़ काफ़िये के इस्तेमाल पर विस्तार से बताते रहे। एक आध घंटे की इस गुफ़्तगू के दौरान एक बार भी उन्होंने उस ग़ज़ल की चर्चा नहीं की जो अज़हर साहब अपने साथ लाये थे। अगले दिन अज़हर साहब अपनी एक और ग़ज़ल 'अदील' साहब को दिखाने जा पहुंचे और 'अदील' साहब ने फिर वो ही किया जो पहले दिन किया था, इस बार उन्होंने नासिर काज़मी, ज़फर इक़बाल और फ़िराक़ साहब का कलाम उन्हें बड़े मन से सुनाया और उसके एक एक लफ्ज़ पर चर्चा की। ये सिलसिला इसी तरह एक दो महीने तक रोज यूँ ही चलता रहा। कागज़ पर लिख कर लाई अज़हर साहब की ग़ज़लें एक के ऊपर एक तह कर बिना किसी चर्चा के रखी जाती रहीं। धीरे धीरे अज़हर साहब उस्तादों के कलाम और उनकी बारीकियां 'अदील' साहब से सुन सुन कर समझ गये कि जो ग़ज़लें रोज़ रोज़ कागज़ पर लिख कर वो ला रहे हैं उन्हें ग़ज़ल कहना ग़ज़ल की तौहीन है। अब ऐसे उस्ताद की शान में सिर्फ सजदा ही किया जा सकता है जो बिना कुछ कहे आपको ये अहसास करवा दे कि बरखुरदार ग़ज़ल कहना इतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है।
तुझसे कुछ और तअल्लुक़ भी ज़रूरी है मिरा
ये मुहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है
मेरी ख़्वाहिश है कि फूलों से तुझे फतह करूँ
वरना ये काम तो तलवार भी कर सकती है
हो अगर मौज में हम जैसा कोई अँधा फ़क़ीर
एक सिक्के से भी तक़दीर सँवर सकती है
इस बात को अच्छे से समझने के बाद अज़हर साहब ने
'अदील' साहब से सबसे पहले ग़ज़ल का अरूज़ सीखा ,लफ्ज़ बरतने का हुनर और ग़ज़ल के क्राफ्ट की बारीकियाँ समझीं। जब बात कुछ समझ में आयी तब उन्होंने उस्ताद की रहनुमाई में
ग़ज़लें
एक बार फिर से कहनी शुरू कीं। 'अदील' साहब का ये जुमला कि 'कोरस में गाने वाले का अपना सुर कितना भी सुरीला हो सोलो गाने वाले के जैसी पहचान नहीं बना सकता' अज़हर साहब ने गाँठ बांध लिया और उस तरह की शायरी से अलग ऐसी शायरी करनी शुरू की जो विषय और क्राफ्ट में सबसे अलग थी। नतीज़ा ? वो हज़ारों शायरों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए। बड़ा उस्ताद वो होता है जिसके शागिर्द उसकी जैसी नहीं बल्कि उस से बेहतर शायरी करते हैं। शागिर्द के नाम से उस्ताद का नाम रौशन होना चाहिए। अज़हर साहब की शायरी की कामयाबी के ताज में उस दिन एक बेशकीमती रत्न तब जुड़ा जब 2017 में 'जावेद अख़्तर' साहब ने अपनी सदारत में दुबई के एक मुशायरे में उन्हें सुनने के बाद कहा कि "यार अब तुम्हारे बाद क्या मुशायरा पढ़ना है ?"
मुहब्बत के कई मानी हैं लेकिन
ज़ियादा सामने का सिर्फ़ तू है
दुआ भूली हुई होगी किसी को
फ़लक पर इक सितारा फ़ालतू है
कहीं भी रख के आ जाता हूँ खुद को
न जाने किस को मेरी जुस्तजू है
ख़ुदा सुनता है जैसे बेज़बाँ की
नमाज़ उस की भी है जो बेवज़ू है
ऐसा नहीं है कि ये कामयाबी जनाब अज़हर फ़राग़ को रातों रात मिल गयी। इस कामयाबी और अपनी मौजूदगी को दर्ज़ करवाने में उन्हें एक लम्बा अरसा लगा। अपना रास्ता, जो सबसे अलग हो, उसे खोजना और फिर उस पर चलना आसान नहीं होता। जिस तरह के रंग की शायरी अज़हर साहब करते थे वो उस ज़माने में क़बूल ही नहीं होती थी। एक बार जब उन्होंने एक बहुत नामवर प्रगतिशील शायर को अपना ये शेर 2001 में सुनाया कि 'ग़लत न जान मेरी दूसरी मोहब्बत को , यकीन कर ये तेरे हिज्र की तलाफ़ी है (हिज्र -बिछोह , तलाफ़ी-प्रायश्चित ) तो वो उनके मुँह की और हैरत से तकता रहा और सर झटक कर चल दिया। उस जमाने में ,जब अहमद फ़राज़ का ये शेर ' हम मोहब्बत में भी तौहीद (ईश्वर को एक मानना )के कायल हैं फ़राज़, एक ही शख़्स को महबूब बनाये रक्खा' पाकिस्तान की गली गली में मशहूर था, लोग इस बात पे यकीन रखते थे कि 'मोहब्बत एक से होती है हज़ारों से नहीं, रौशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं' अज़हर का ये शेर कि 'तुझसे कुछ और ताल्लुक भी जरूरी है मेरा , ये मोहब्बत तो किसी वक्त भी मर सकती है' लोगों के गले नहींउतरा।
वक़्त बदला लोगों की सोच बदली और कल तक अज़हर फ़राग़ की जिस शायरी को नकार दिया गया था उससे नयी नस्ल के लोग जुड़ने लगे। नौजवान शायरों ने उनकी राह पकड़ी और शायरी में नयी फ़िज़ा के आने का ऐलान कर दिया। फ़राग़ साहब की इस सोच ने कि 'शायर को सालों के आगे का पता होना चाहिए , सौ साल बाद कैसी दुनिया होगी उसका तसव्वुर होना चाहिए तभी उसका नाम शायरी में ज़िंदा रहेगा।आज के हालत पर शायरी करना तो अख़बार की खबर लिखने जैसा काम होगा' ग़ज़ल कहने के अंदाज़ को बदल दिया
रात की आग़ोश से मानूस इतने हो गये
रौशनी में आए तो हम लोग अंधे हो गये
आग़ोश -गोद, मानूस -अभ्यस्त
आंगनों में दफ़्न हो कर रह गई हैं ख्वाइशें
हाथ पीले होते-होते रंग पीले हो गये
भीड़ में गुम हो गये हम अपनी ऊँगली छोड़कर
मुनफ़रीद होने की धुन में औरों जैसे हो गये
मुनफ़रीद-अनूठे
बड़े उस्ताद उन्हीं नौजवानों को अपना शागिर्द बनाया करते जिनसे या तो उन्हें कोई फ़ायदा हासिल होने की उम्मीद होती या फिर किसी दोस्ती या ताल्लुकात का क़र्ज़ चुकाना होता। इस वजह से ऐसे युवा जिनमें अच्छी शायरी करने का ज़ज़्बा तो होता था लेकिन उस्ताद तक रसाई का ज़रिया नहीं होता था ,आगे नहीं बढ़ पाते थे। इससे दोयम दर्ज़े के शायर मन्ज़रे आम पर छाने लगे और शायरी में गिरावट आने लगी। अज़हर साहब ने नौजवानो की इस तकलीफ़ को शिद्दत से महसूस किया क्यूंकि वो खुद भी शुरू में इस समस्या से दो चार हो चुके थे।
तब अज़हर साहब ने, पाकिस्तान के नौजवान शायरों को ग़ज़ल की बारीकियां सीखने में मदद पहुँचाने की गरज़ से एक फ़ोरम का गठन किया। अज़हर साहब की रहनुमाई में इस फोरम से जुड़ कर नौजवान शायरों ने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा और शायरी के क्षेत्र में नाम कमाया। बहावलपुर में 2010 के बाद 'नयी ग़ज़ल' की लहर चली जिसमें नौजवान शायरों ने उन सभी विषयों पर जो समाज में कभी टैबू समझे जाते थे, ग़ज़लें कहीं जो बहुत मकबूल हुईं, नयी ज़मीनें तलाशी गयीं, नए विषय उठाये गए, क्राफ्ट और कहन की खोज की गयी। ये सब करने में ग़ज़ल के उरूज़ के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी। नयी ग़ज़ल को रिवायती ग़ज़ल के एक्टेंशन के रूप में पेश किया गया। इस बदलाव ने ग़ज़ल में नयी जान फूंक दी ,पढ़ने सुनने वालों को इसमें ताज़गी का एहसास हुआ और इससे ग़ज़ल की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए।
अज़हर साहब का मानना है कि जिस तरह आम पढ़ने सुनने वालों ने जहाँ इस नयी ग़ज़ल को ख़ुशी से अपनाया वहीँ आलोचक अभी भी ग़ज़ल की उसी पुरानी रवायत से चिपके बैठे हैं और इस ताज़गी को नकारने में लगे हैं। पारम्परिक लोग बदलाव को आसानी से नहीं स्वीकारते लेकिन वक़्त उन्हें बाद में स्वीकारने को मज़बूर कर देता है। सरकारों के भरोसे रहने से साहित्य का कभी भला नहीं हो सकता। पाठ्य पुस्तकों में अभी भी उन्हीं को जगह मिलती है जिनकी रचनाएँ अब अपना महत्व खो चुकी हैं याने सम-सामयिक नहीं हैं। सरकारों को चाहिये की वो चुनिंदा नौजवानों के कलाम भी पाठ्यपुस्तकों में लाये ताकि आने वाली पीढ़ी को अंदाज़ा हो कि आज के दौर की सोच और शायरी कैसी है।
ग़ज़ल को पूरी तरह से समर्पित अज़हर भाई की दो किताबें सन 2006 में 'मैं किसी दास्ताँ से
उभरूँगा' और सन 2017 में 'इज़ाला' के नाम से उर्दू में मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं। हिंदी में जैसा की पहले बताया है ये ही एक मात्र किताब है जिसमें उनकी 80 ग़ज़लें संकलित हैं और सभी बार बार पढ़ने लायक हैं।
अज़हर फ़राग़ साहब के बारे में सब कुछ एक पोस्ट में समेट लेना संभव नहीं लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं इसलिए थोड़े को ज्यादा माने और आखिर में उनके ये चंद अशआर पढ़ें :
हम जिसे चाहे अपना कहते रहें
वही अपना है जिसे पा लिया जाय
*
फिर उसके बाद गले से लगा लिया मैंने
ख़िलाफ़ अपने उसे पहले ज़हर उगलने दिया
*
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किसकी
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को
रियाज़त :अनवरत अभ्यास से आने वाली सिद्धता
*
घर में किसका पाँव पड़ा
छत से जाले उतर गये
*
कुछ इतना सहल न था रौशनी से भर जाना
नज़र दिये पे बड़ी देर तक जमानी पड़ी
सहल: सरल
*
कोई तो नाम हो तअल्लुक़ का
किस हवाले से बोझ ढोया जाय
45 comments:
हम जिसे चाहे अपना कहते रहें
वही अपना है जिसे पा लिया जाय
सच ही है.
क्या बात है !
तहरीर और अशआर का इंतख़ाब दोनों बेहतरीन.
बहुत मुबारक.🌺🌺❤️
इस पोस्ट के लिए आपका विशेष आभार।
ईश्वर की योजनायें भी चमत्कृत कर देती हैं। अज़हर फ़राग़ के पिता का बहावलपुर में बसने का निर्णय, अदील साहब से इनकी मुलाक़ात और अदील साहब के अंदर नायाब उस्ताद का होना और उस्ताद का नायाब तरीका उन्हें समझ आ जाना।
जो चंद शेर कह के शायर होने का भ्रम पाल लेते हैं उन्हें समझना होगा कि ग़ज़ल वहाँ से शुरू होती है जहाँ अरूज़ ख़त्म होता है, ग़ज़ल कहन से जानी जाती है। यह कहन ही है जो अज़हर फ़राग़ की शायरी को अलग करती है।
मैं तो चकित हूँ, अगर 40 वर्षीय शायर के शेर इस मक़ाम पर हैं तो आगे और किस स्तर की कहन पढ़ने को मिलेगी।
जनाब आप की टिप्पणी से लिखने का जोश दूना हो जाता है...शुक्रिया...
बकुल भाई आपने पढ़ा पसंद किया समझो लिखना सफल हुआ...
धन्यवाद आशिश भाई...
अज़हर फ़राग की पुस्तक सरहद के आर पार की शायरी पर आपकी टिप्पणी प्रशंसनीय है!
भागीनाथ
औरंगाबाद
वाह ! आपका जवाब नहीं !! धन्यवाद आपका !!!
विज्ञान व्रत
अद्भुत बेमिसाल चुनी हुई किताब भी और आपकी व्याख्या भी नीरज जी
ब्रजेन्द्र गोस्वामी
बीकानेर
भाई साहब
सादर प्रणाम करता हूँ। आप अद्भुत हैं।जैसी आत्मीयता के साथ क़िस्सागोई की तर्ज़ पर शायर और उसकी शायरी पर आप बात करते हैं वो बेमिसाल है।कभी अपने लिखे में आपने ऐसी कोई नोंक नहीं बनने दी जो किसी को चुभ जाए।
सांगोपांग आप किताब का अध्ययन करके एक एक शेर का इंतेख़ाब जिस तरह करते हैं उससे आपकी तबीयत, श्रमसाध्यता और फ़िक़्र का सहज ही अंदाज़ा लग जाता है।भाषा की रवानी और वांगमयता ऐसी की चल चित्र की तरह शायर उसके व्यक्तित्व और अशआर के चित्र उभरने लगते हैं।तय करना मुश्किल हो जाता है कि शायर अच्छा या आपका नस्र।
प्रसन्न हूँ कि आपका प्यार और आशीर्वाद मुझे सहज ही फ़राहम है।
सादर
अखिलेश तिवारी
जयपुर
रात की आग़ोश से मानूस इतने हो गये
रौशनी में आए तो हम लोग अंधे हो गये
वाह....👌👌
दुष्यन्त कुमार की याद आ जाती है
बहुत सुन्दर
बेशकीमत 🍁 अदब की इस खिदमत का कोई मोल नहीं है 🍁 सिलसिला जारी रहे🍁
प्रमोद कुमार
दिल्ली
शुक्रिया भाई...
शुक्रिया अजय भाई
हर शीशे का डर है भय्या
बच्चों वाला घर है भय्या
आधा-आधा रो लेते हैं
एक टिशू पेपर है भैय्या
वाह
हमेशा की तरह उम्दा चुनाव
Aap ke Karan bahut umda shayri to padhne ko multi hi hai sath hi shayar Ka taaruf his Tarah aap karwate ho wo shayar shayri aur pathak ke veech ek Dori ek sootar Ka kaam karta hai। Naman aapko
Bahut khoob, bahut khoob...
शुक्रिया प्रदीप भाई...
Thanks Rashmi ji
Thanks Ajay ji
waaaaaa waaaaaa
नीरज भाई जितनी खूबसूरत समीक्षा की है उतने ही खूबसूरत अशआर भी है
आपकी कलम और शायर के कलाम को नमन
शुक्रिया विजय भाई...स्नेह बनाए रखें...
वाह सर...प्रणम्य हैं आप...🙏🏻
पहला तो ये कि शायर पर आप का श्रमसाध्य अध्ययन बेमिसाल है
और दूसरा ये कि हर शेर का इंतख़ाब और पूरे ब्लॉग में रवानी के साथ ही उसकी तहरीर, पढ़ने में आनन्द ला देती है....
बहुत धन्यवाद आपको कि आप हमें इतना अच्छा पढ़ाकर लाभान्वित करते हैं...✨
नकुल गोयल
किताबों की दुनिया**219बलाग जनाब नीरज गोस्वामी जी का
********************
हस्बे मामूल, मैं नीरज जी का एक अदना सा क़ारी हूं। उन्होंने उस हर शायर को अपने ब्लॉग में शामिल किया जो मिज़ान ए शायरी पर खरा उतरा, फिर वो शायर दुनिया के किसी भी ख़ित्त़े से ताल्लुक रखता हो या वाबस्ता हो । हालिया ब्लाग दो शायरों पर मुसतमिल है एक जनाब अज़हर फ़राग़ पाकिस्तान से और दूसरा नाम है मोहतबर जनाब अहमद कमाल परवाज़ी साब। मैं संपादक जनाब तुफैल चतुर्वेदी साहिब को भी मुबारकबाद पेश करता हूं
नीरज गोस्वामी अदबी दुनिया का वो अज़ीम,मारुफ ओ मोतबर और मुनफरिद नाम है।वो मेरे बड़े भाई हैं, और ये मुहब्बतों का शरफ़ भी मुझे हासिल है। किताबों की दुनिया 219 में एक शेर ने मुझे बहुत तड़पाया वो शेर जनाब अज़हर फ़राग़ साब का है मैं उनको मुबारकबाद पेश करता हूं।वो शेर ये है
*तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझको कबूल
ये सहूलत तो मुझे सारा जहां दे ता है।*
ये किताब अमाज़ोन से मुझे 1दिंसबर2020तक दस्तयाब हो जाएगी। शुक्रिया।
आपका ख़ैर अंदेश
सागर सियालकोटी लुधियाना
हर सोमवार को उम्दातरीन शायरी पर एक से बढ़ कर एक पोस्ट जो आप पढ़वाते हैं, प्रशंसनीय ही नहीं अतुलनीय भी होती है। शानदार और बेमिसाल अंदाज़े बयाँ ! जैसे कोई कहानी शुरू होती है वैसे आपका तब्सिरा शुरू होता है और पढ़ने वाला इस रोचक कहानी को आख़िर तक पढ़ जाता है। आपकी हर पोस्ट एक नायाब तोहफ़ा होती है। आपके इस श्रमसाध्य और अप्रतिम उपक्रम को प्रणाम।
अज़हर फ़राग़ के बहुत ख़ूबसूरत अशआर में से कुछ और भी ज़ियादा ख़ूबसूरत अशआर जो हमेशा साथ रहने वाले हैं,
*बदल के देख चुकी है रियाया साहिबे-तख़्त
जो सर क़लम नहीं करता ज़ुबान खींचता है*
*हो अगर मौज में हम जैसा कोई अँधा फ़क़ीर
एक सिक्के से भी तक़दीर सँवर सकती है*
*कुछ इतना सहल न था रौशनी से भर जाना
नज़र दिये पे बड़ी देर तक जमानी पड़ी*
*तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझको कबूल
ये सहूलत तो मुझे सारा जहां देता है।*
एक और बेहतरीन तोहफ़े के लिए हार्दिक बधाई।
❤️🙏🌹
द्विज भाई क्या कहूँ? आपकी टिप्पणी नहीं बहुत बड़ा ईनाम है मेरे लिए... और क्या चाहिए... शुक्रिया...
क्या बात है सर..!!👏🏽👏🏽
मज़ा आया अज़हर साहब के बारे में जानकर। आपकी वर्णन शैली से तो मैं सालों से चमत्कृत हूँ ही..!!
51 किताबें ग़ज़लों की... का पहला भाग भी पढ़ना शुरू कर दिया है। ईश्वर आप पर हमेशा मेहरबान रहे। अस्तु..!!!
🙏🏼🙏🏼
देवकीनंदन व्यास
जोधपुर
जनाबे-अज़हर फ़राग़ के बेमिसाल, बेश-क़ीमत अशआ'र और आपका हुस्ने-नज़र, दोनों बेनज़ीर ... शुक्रिया सद-शुक्रिया नीरज गोस्वामी साहेब...
बहुत शुक्रिया खरबंदा साहब...इनायत बनी रहे
क्या बात है हुज़ूर । राजपाल एंड सन्स एवम् तुफ़ैल साहब ने तारीख़ी काम को अंज़ाम दिया है ।
नवीन चतुर्वेदी
मुंबई
पाठ्य पुस्तकों में अभी भी उन्हीं को जगह मिलती है जिनकी रचनाएँ अब अपना महत्व खो चुकी हैं याने सम-सामयिक नहीं हैं। सरकारों को चाहिये की वो चुनिंदा नौजवानों के कलाम भी पाठ्यपुस्तकों में लाये ताकि आने वाली पीढ़ी को अंदाज़ा हो कि आज के दौर की सोच और शायरी कैसी है।
बेशक़ सही फ़रमाया आपने बहुत ही ख़ूबसूरत तब्सरा क्या ही अच्छा कलाम पढ़वाया आपने ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद
मोनी गोपाल 'तपिश'
बहुत ख़ूब, नीरज जी। अभी-अभी पढ़ा अज़हर फ़राग़ की शायरी पर आपका मज़मून - एक बेहतरीन शायर से तआरुफ़ कराने का शुक्रिया।
बहुत शुक्रिया भाई साहब आपका..।
बहुत ख़ूब, नीरज जी। अभी-अभी पढ़ा अज़हर फ़राग़ की शायरी पर आपका मज़मून - एक बेहतरीन शायर से तआरुफ़ कराने का शुक्रिया।
Shukriya Bhai Sahab ...inayat banaye rakhen.
जय हो
अप्रतिम
Dhanyvad Rohit
मजा आ गया पढ़कर
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन परदा होता था
ताले की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
कभी-कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था
शुक्र करो तुम उस बस्ती में भी इक स्कूल खुला
मर जाने के बाद किसी का सपना पूरा होता था
जब तक माथा चूम के रुख़सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े से बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
सत्य शील राम त्रिपाठी
गोरखपुर
वाह, वाह.....लाजवाब शायरी, ख़ूबसूरत अशआर...
बेहतरीन प्रस्तुति...हार्दिक धन्यवाद
देखा ये गया है कि जहाँ घर जुड़े होते हैं वहां उनमें रहने वाले लोगों के दिल भी आपस में जुड़े होते हैं। लोगों की तकलीफें और खुशियाँ सांझी होती हैं। सबको पता होता है कि किसके घर के सामने वाले पेड़ का पीला पत्ता टूट के नीचे गिरा है और किसके पड़ौस के पेड़ में फल लगे हैं।
Nani Dadi ka zamana yaad AA gya.. kash ise hum phir jeena shuru Kar den..
कुछ इतना सहल न था रौशनी से भर जाना
नज़र दिये पे बड़ी देर तक जमानी पड़ी
Sadar pranam Neeraj uncle..sadhuwaad.. mere adne se, tang shabdkosh men aapke lekhan ki prastuti ki prashansa ke layak shabd hi nahi Hain..
Aapka vishal
देखा ये गया है कि जहाँ घर जुड़े होते हैं वहां उनमें रहने वाले लोगों के दिल भी आपस में जुड़े होते हैं। लोगों की तकलीफें और खुशियाँ सांझी होती हैं। सबको पता होता है कि किसके घर के सामने वाले पेड़ का पीला पत्ता टूट के नीचे गिरा है और किसके पड़ौस के पेड़ में फल लगे हैं।
Nani Dadi ka zamana yaad AA gya.. kash ise hum phir jeena shuru Kar den..
कुछ इतना सहल न था रौशनी से भर जाना
नज़र दिये पे बड़ी देर तक जमानी पड़ी
Sadar pranam Neeraj uncle..sadhuwaad.. mere adne se, tang shabdkosh men aapke lekhan ki prastuti ki prashansa ke layak shabd hi nahi Hain..
Aapka vishal
घर में किसका पाँव पड़ा
छत से जाले उतर गये
अच्छा शायर
लाजवाब शायरी
वाह वाह लाजवाब सर।
वाह वाह लाजवाब सर।
*
क्यों बात बढ़ाना चाहते हो
तुम अपनी कमगुफ़्तारी से
Waqt ki zarurat hai is sh'er ko samjhna.
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