Monday, November 12, 2007

हाथ उसकी तरफ़ जरा कीजे





गुफ्तगू इस से भी करा कीजे
दोस्त है दिल न यूं डरा कीजे

बात दिल की कहा करो सबसे
आप घुटघुट के ना मरा कीजे

जब सुकूंसा कभी लगे दिल में
तब दबी चोट को हरा कीजे

याद आना है खूब आओ मगर
मेरी आंखों से मत झरा कीजे

तेरा इन्साफ बस सजायें ही
खोटे को भी कभी खरा कीजे

वो न थामेगा है यकीं फिर भी
हाथ उसकी तरफ जरा कीजे

वो है खुशबू ना बांधिए नीरज
उसको साँसों में बस भरा कीजे

13 comments:

Anita kumar said...

बहुत खूब नीरज जी

Shiv said...

बहुत बढ़िया भैया,

कवि-मन में इतने अच्छे ख़याल आनायास ही आते हैं?

अमिताभ मीत said...

नीरज साहब,

कमाल है. बहुत ही ख़ूबसूरत - सब कुछ - ग़ज़ल के शेर, आप के ख़याल, अंदाज़, अदायगी - सब कुछ.

जब सुकूंसा कभी लगे दिल में
तब दबी चोट को हरा कीजे

सभी शेर एक से बढ़ कर एक. मगर आप के इस शेर ने मुझे अपना एक शेर याद दिला दिया.

"मीत" कुछ तो बात है, क्यूँ मुँह तुम्हारा ज़र्द है
दिल में खूँ बाक़ी है तो हाथों में ख़न्जर क्यों नहीं ?"

बड़ी खुशी हुई आप को पढ़ कर.

Priyankar said...

"बात दिल की कहा करो सबसे
आप घुटघुट के ना मरा कीजे।"

बहुत उपचारात्मक पंक्तियां .

Gyan Dutt Pandey said...

क्या खूबसूरत बयानी है! यह गज़ल भी है और जीवन जीने की कला के सबक भी!
बहुत पसन्द आयी। बधाई।

subhash Bhadauria said...

नीरजजी ग़ज़ल की सादगी के सदके जाऊँ.
काला टीका करो भाई कहीं नज़र न लग जाये.थोड़ी शिल्प की बात करूँ.

तेरा इंसाफ बस सज़ायें ही,
कभी खोटे को भी खरा कीजे.
इस शेर की दूसरी पंक्ति का पहला रुक्न कभी खोटे
वज़न से गिर रहा है. क लघु है जब कि शुरूआत गुरू से होनी चाहिए जो अन्य शेरों में है. इसे इस तरह करलें.
खोटे को भी कभी खरा कीजे.
इसी तरह एक शेर की पहली पंक्ति नहीं का न लघु है.देखिये-

नहीं थामेगा वो यकीं फिर भी,
हाथ उसकी तरफ जरा कीजे.
अगर पहली पंक्ति को इस तरह करलें
वो न थामेगा है यकीं फिर भी,
तो मिसरा वज़न में आ जायेगा और कथ्य में भी कोई परिवर्तन नहीं होगा.
अपनी बात साफ करने के लिए बताऊँ कि ये उर्दू की बहुत मश्हूर बहरे खफीफ मखबून महज़ूफ है
जिसका वज़न प्रत्येक मिसरे में इस प्रकार होगा-
फाइलातुन मफाइलुन फेलुन.
2122 12 12 22
कुछ उदाहरण देखें-
रात भी नींद भी कहानी भी.
हाय क्या चीज है जवानी भी. फ़िराक गोरखपुरी.

तू किसी रेल सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ. दुष्यन्तकुमार.

आपने मेल कर बताया है कि आप आइना शनास है.आप को कुछ फायदा हो रहा है.इसलिए जुर्रत की.बाकी तो लोग आइने को तोड़ते देर नहीं करते.
आप ग़ज़ल की समझ रखते हैं और अंदाजे बयां भी सादगी भरा है.इसलिए कुछ कहने को जी चाहा.

अल्लाह करे ज़ोरे कलम और ज़्यादा.

aarsee said...

तेरा इन्साफ बस सजायें ही
कभी खोटे को भी खरा कीजे

क्या विचार रखा है सर!

नीरज गोस्वामी said...

सुभाष भाई
जैसे पारस पत्थर जिसे छू दे वो सोना हो जाता है वैसे ही आप के ग़ज़ल को हाथ लगाते ही वो दमकने लगती है. मैं आप का तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ और इल्तेज़ा करता हूँ की ये स्नेह यूं ही बनाये रखें.मैंने जैसा आपने बताया वैसे ही ग़ज़ल मैं परिवर्तन कर दिया है.
नीरज

बालकिशन said...

वाह सर मज़ा आ गया. सच आपकी गजल के बारे मे ज्ञान भइया ने ठीक कहा. ये जीवन जीना भी सिखाती है.

अनूप भार्गव said...

आज पहली बार आप के ब्लौग पर आने का अवसर मिला और बहुत अच्छा लगा ।

>याद आना है खूब आओ मगर
>मेरी आंखों से मत झरा कीजे

वाह !

Krishan lal "krishan" said...

Teri ghazlo ko padh ke ye jaana
Hum to bekaar me hi likhte hain
Tere aage bade bade shayar
Humko baune se lagne lagte hain

काकेश said...

वाह वाह है जी.

वो क्या है कि कुछ दिनों से व्यस्त और त्रस्त दोनों था तो टीप नहीं पा रहा था.पढ़ता तो आपको हूँ ही.किसी निमंत्रण की जरूरत भी नहीं है जी.

रंजना said...

ati sundar...bahut achcha laga padhkar.