Monday, June 3, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 3

तू चाहता है जो मंजिल की दीद सांकल खोल 
सदाएं देने लगी है उमीद सांकल खोल 

 बड़े मज़े में उदासी है बंद कमरे में 
 मगर हंसी तो हुई है शहीद सांकल खोल 
बाद इसके चराग़ लौ देगा 
पहले इक लौ चराग़ तक पहुंचे 
यार उकता गया हूं मैं खुद से 
यूं करो अब तुम्हीं जियो मुझको 
पास दरिया है प्यास फिर भी है 
बेबसी देखिए किनारों की 
अब आप लोगों को हो तो हो लेकिन सच बात तो ये है कि मुझे नहीं मालूम था कि मध्य प्रदेश के 'शिवपुरी' जिले में कोई 'करेरा' नाम का नगर भी है जिसके पास 'समोहा गांव है जहां लगभग 1500 साल पुराना 'हिंगलाज माता' का प्रसिद्ध मंदिर है। चलिए मान लेता हूं कि आपको यहां तक तो मालूम होगा लेकिन यह बात तो तय है कि आपको ये नहीं मालूम होगा कि 'हिंगलाज माता' का प्रसिद्ध मूल मंदिर जो हजारों साल पुराना है और 51 शक्तिपीठ में से एक है, पाकिस्तान के शहर 'कराची' से लगभग 250 किलोमीटर दूर बलूचिस्तान के बीहड़ पहाड़ों में स्थित है। आपके लिए ये विश्वास करना भी कठिन होगा कि इस मंदिर में हिंदू और मुसलमान दोनों समान रूप से पूजा/ इबादत करने हजारों की संख्या में आते हैं। बीहड़ पहाड़ों की गुफाओं में बने इन मंदिरों में 'हिंगलाज माता' के अलावा 'हनुमान जी' 'राम सीता लक्ष्मण' और 'शिव जी' के मंदिर भी हैं जहां रोज नियम से पूजा प्रार्थना होती है। यकीन नहीं हुआ ना ?मुझे भी नहीं हुआ था, जब तक मैंने यूट्यूब पर इसके वीडियोज ढूंढ कर नहीं देखे। आप भी चाहें तो देख सकते हैं, ये रहा लिंक:- 
https://dainik-b.in/uhq0M4q5Mtb 

अब के तो अश्क भी नहीं आए 
अबके दिल बेहतरीन टूटा है 
कुछ खबर ही नहीं है सीने को 
जब कि सीने के दरमियां है दिल 
*
 जिस्म बिस्तर पर ही रहा शब भर 
दिल न जाने कहां-कहां भटका 
जब कहें वो कहिए कुछ तो चुप रहूं मैं 
जब कहें वो कुछ ना कहिए तब कहूं क्या 

आप भी सोच रहे होंगे कि मैं कहां की बात ले बैठा हूं और यहां क्यों कर रहा हूं ? ये बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारी आज के शाइर जनाब "सुभाष पाठक" 'जिया' इसी गांव समोहा में 15 सितंबर 1990 को पैदा हुए थे। उन्होंने अपनी ग़ज़लों की जो किताब 'तुम्हीं से ज़िया है' मुझे भेजी थी । आज उसी किताब की बात करते हैं। इसे अभिधा प्रकाशन ने सन् 2022 में प्रकाशित किया था। इस किताब को आप अमेज़न से मंगवा सकते हैं। 

 समोहा' किसी भी आम भारतीय गांव की तरह ही एक गैर शायराना माहौल वाला गांव था। ऐसे ही गैर शायराना माहौल में 'सुभाष पाठक' जी के मन में शायरी के बीज पड़े। स्कूल के दिनों में जब आम बच्चे 'किशोर कुमार' के गानों पर ठुमके लगाते थे तब 'सुभाष' जी को 'उमराव जान' फिल्म के 'इन आंखों की मस्ती में', 'दिल चीज क्या है' और फिल्म 'गमन' के गाने 'सीने में जलन दिल में ये तूफान सा क्या है' सुनने में आनंद आता था। 'जगजीत चित्रा' और ग़ुलाम अली को लगातार सुनने के बावजूद भी उनका मन नहीं भरता था। याने उनमें कुछ तो ऐसा था जो उनके साथ वाले दूसरे बच्चों में नहीं था। क्या था ?ये बात उन्हें स्कूली शिक्षा के बाद जब वो 'शिवपुरी' ग्रेजुएशन करने गए, तब समझ में आई। वो था उनका ग़ज़ल के प्रति रुझान। 'शिवपुरी' के एक मुशायरे में 'निदा फ़ाज़ली' साहब को सुनने के बाद उनमें ग़ज़ल कहने की उनकी इच्छा बलवती हो गई। ग़ज़ल कहने की बात सोचने में और ग़ज़ल कहने में ज़मीन आसमान का फ़र्क है साहब। ग़ज़ल कहने के लिए तपस्या करनी पड़ती है जैसे गाना सीखने के लिए रियाज़। उसके लिए अच्छे उस्ताद का मिलना बहुत ज़रूरी होता है। कुछ होनहार ऐसे भी हैं जिन्होंने किताबों को उस्ताद बनाया और उन्हीं की मदद से कामयाब हुए। सुभाष साहब को ग़ज़ल की टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों पर हाथ पकड़ कर चलना सिखाने वाले दो उस्ताद मिले पहले जनाब महेंद्र अग्रवाल साहब जिन्होंने उनकी पहली ग़ज़ल अपने रिसाले में छापी और ग़ज़ल के व्याकरण पर लिखी किताबें भी पढ़ने को दीं और दूसरे ज़नाब इशरत ग्वालियरी साहब जिनसे वो हमेशा इस्लाह लिया करते हैं। 

यह ख़ुशी है छुईमुई जैसी 
मशवरा दो इसे छुऊं कि नहीं 
वो तितलियां बना रहा था इक वरक़ पे 
सो इक फूल इक वरक़ पे बनाना पड़ा मुझे 
तुम्हारी बज़्म में जाएंगे शादमा होकर 
ये राज़ घर में रहेगा कि खुश नहीं हैं हम 
रेशम विसाल का रखें दिल में संभाल कर 
यादों की धूप आए तो चादर बुना करे 

पेशे से अध्यापक 'सुभाष पाठक' जिनका तख़्ल्लुस 'ज़िया' उनके उस्ताद 'इशरत' साहब का दिया हुआ है, का शेरी सफ़र आसान नहीं रहा। लगातार मेहनत और कोशिश करते रहने का नतीजा तब सामने आया जब उन्हें दिल्ली के एक मुशायरे में पद्मभूषण स्व.श्री गोपाल दास 'नीरज' और पद्मश्री 'अशोक चक्रधर' के सामने पढ़ने का मौका मिला। 'नीरज' जी ने उनकी ग़ज़लों की तारीफ़ की, उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज सुभाष जी को पूरे भारतवर्ष से मुशायरों में पढ़ने के लिए बुलाया जाता है। दूरदर्शन और रेडियो से उनकी ग़ज़लों का प्रसारण होता रहता है। देश के प्रसिद्ध ग़ज़ल गायकों ने उनकी ग़ज़लों को गाया भी है‌ जिसमें 'सारेगामा' कार्यक्रम के विजेता देश के प्रसिद्ध गायक 'मुहम्मद वकील' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सुभाष जी ग़ज़ल के अलावा गीत भी सफलता पूर्वक लिखते हैं । उनका कोरोना पर लिखा गीत जिसे मुहम्मद वकील साहब ने स्वर दिया था ' कोरोना एंथम' के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसने लाखों लोगों के दिलों में आशा के दीप जलाए। 

इतनी कम उम्र में जिन बुलंदियों को सुभाष जी ने छुआ है वहां तक या उसके आसपास तक पहुंचना बहुतों के लिए मुमकिन नहीं होता। लगातार कुछ नया सीखने और करने को उत्सुक, अपनी ज़मीन से जुड़े, सुभाष जी कभी अपनी उपलब्धियों पर गर्व नहीं करते और यही उनकी निरंतर सफलता और लोकप्रियता का राज़ है। उन्हें और ज्यादा नज़दीक से जानने के लिए मैं आपसे सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि उनकी ये किताब आप सभी मंगवा कर इत्मीनान से पढ़ें। 


आओ कि साहिलों पे घरोंदे बनाएं हम 
तुम थपथपाओ रेत सनम पांंव हम रखें 
अगर तमाज़त को सह सको तुम 
 तो हसरते- आफ़ताब रखना 
तमाज़त: गर्मी 

जो बात कहनी हो ख़ार जैसी 
तो लहज़ा अपना गुलाब रखना 
मैं ऊबता हूं ना क़िस्से को और लम्बा खींच 
अगर है हाथ में डोरी तो फिर ये पर्दा खींच

1 comments:

Onkar said...

सुन्दर