Monday, March 21, 2022

किताबों की दुनिया - 253

गर हो तेरा इशारा सेराब हो ये सहरा 
पलकों प एक आँसू कब से मचल रहा है 
*
बुलंदियों के मुसाफ़िर तुझे खबर भी है 
ये रास्ते में है आगे ढलान किसके लिए

इसी ज़मीन प जब तेरा आबो- दाना है 
फिर आसमान में ऊँची उड़ान किसके लिए
*
ज़ात के ग़म में कायनात के ग़म 
एक दरिया में कितने धारे थे

कैसे-कैसे निशान मिलते हैं 
क्या घरोंदे नदी किनारे थे
*
झुलसती रेत प इक बूंद ही उछाल कभी 
ये बारिशों में तो दरिया उबलते रहते हैं
*
वो हिज्र था कि अँधेरा सा छा गया दिल में 
वो याद थी कि चमकने लगे थे जुगनू से 

मेरे लिए तो वो दीवाने-मीर जैसा था 
हुआ था नम कभी काग़ज़ जो पहले आंँसू से 

तो आंँख भर के उन आंँखों में देखना होगा 
तो होगा ऐसे ही जादू का तोड़ जादू से 

हवा का ज़ोर है क्या धूप की है क्या शिद्दत 
कि आँसुओं की दुआएंँ बंँधी हैं बाज़ू से

बात थोड़ी घुमा फिरा के करते हैं। आप ये बताएँ कि भारत की भूतपूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल, उप राष्ट्रपति श्री भैरूसिंह जी शेखावत और उद्योगपति श्री जमनालाल बजाज जी का आपस में क्या सम्बन्ध है ? बहुत से लोग जवाब में शायद राजस्थान कहें ,  जवाब सही भी है लेकिन मेरे ख़्याल से बहुत कम लोग 'सीकर' तक पहुंचेंगे। जी हाँ ,ये तीनों सीकर जिले से सम्बंधित हैं । भैरूसिंह जी और जमना लाल जी का जन्मस्थान सीकर जिला है वहीँ प्रतिभा जी का ये जिला ससुराल है। हमारे आज के शायर भी सीकर जिले के ही हैं बल्कि यूँ कहूं कि सीकर शहर के हैं । 'सीकर' जिला जयपुर से 114 की मी दूर है और शेखावाटी क्षेत्र में आता है। सीकर अपने आसपास बने विशालकाय किलों और हवेलियों के लिए प्रसिद्द है जिसे देखने दूर दूर से पर्यटक आते हैं। 'सीकर' की ऐसी ही एक बहुत विशालकाय हवेली के पास आपको लिए चलते हैं। ये सीकर के एक बड़े जागीरदार साहब की हवेली है जिसका ये बड़ा सा दरवाज़ा आप देख रहे हैं वो किसी ज़माने में कभी नाच, गाने जैसी दूसरी ललित कलाओं के लिए नहीं खुलता था। शायरी की तो बात ही छोड़ दें। लेकिन साहब अपवाद स्वरुप ही सही, चट्टानों में भी फूल खिलते हैं। जो अब तक नहीं हुआ था वो 15 अगस्त 1960 को हुआ को जब इस किलेनुमा हवेली में एक बहुत ही प्यारे बच्चे की किलकारी गूँजी। इस बच्चे ने आगे चल कर वो किया जो पहले इस हवेली में जन्मे किसी बच्चे ने नहीं किया था। उसने शायरी की। बंजर ज़मीन को फूलों से भर दिया। किसी अंदाज़ा नहीं था कि बच्चा आने वाले वक़्त में 'सीकर' की शान बनेगा। 

कितने सूरज ज़मीन में सोये 
नूर फूटेगा ज़र्रे ज़र्रे से 

आँख में आ गया है इक आँसू 
दश्त सेराब एक क़तरे से 
दश्त :जंगल ,  सेराब :पानी से भरा हुआ , सींचा हुआ  

उम्र कितनी भी हो मगर शुहरत 
बाज़ आती कहाँ है नख़रे से 
*
बेज़रूरत घर से निकलें और फिर 
शय ख़रीदें कोई महँगे दाम पर 
*
दिल ढले होगा जश्ने-तन्हाई 
इल्तिजा है ग़मों से शिरकत की 
*
है बर्गो-बार का गिरना तो क़र्ज़ मौसम का 
हवा-ए-तुन्द! परिंदे कहाँ शजर के गये 
बर्गो-बार : पत्ते और फल , हवा-ऐ-तुन्द : तेज हवा 
*
वो साथ छोड़ गया तो मलाल क्या उस का 
बिछड़ गया जो कहीं उस का ग़म किया जाये 
*
सलीक़े से रक्खा हर इक चीज़ को 
यूँ कमरे को अपने कुशादा किया 
कुशादा: खुला हुआ या फैला हुआ   
*
बहुत शौक़ घर को सजाने का था 
मगर क्या करें अपना घर ही नहीं 
*
तजस्सुस अब नज़र का और क्या है 
जिधर सब देखते हैं देखता हूँ 
तजस्सुस :जिज्ञासा, तलाश 

बच्चे का नाम रखा गया 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान'। फ़ारूक़ देखने में तो ख़ूबसूरत था ही पढ़ाई लिखाई में भी बहुत तेज़ था। हवेली वालों को उस पर फ़क्र था तो स्कूल वाले उसे देख फूले नहीं समाते थे। 'फ़ारूक़' पढाई के साथ साथ डिबेट और ड्रामा में भी किसी से कम नहीं था। डिबेट में उसके बोलने का अंदाज़ और ड्रामा में किये सहज अभिनय को देख उसके प्रसंशकों में लगातार इज़ाफ़ा होता रहा। पंद्रह-सोलह बरस की उम्र होगी जब फ़ारूक़ को उसके ड्रामा टीचर ने 'साहिर लुधियानवी' की किताब पढ़ने को दी। जैसे अलीबाबा को 'खुल जा सिमसिम' ने ख़ज़ाने का रास्ता दिखाया वैसे ही 'साहिर' ने फ़ारूक़ को शायरी के उस ख़ज़ाने से रूबरू करवाया जिसका उसे कभी इल्म ही नहीं था। कहते हैं कोई न कोई फ़न इंसान के भीतर होता है जरुरत उसे तराश कर बाहर लाने की होती है। अगर आपके भीतर कोई फ़न नहीं है तो आप उस्ताद से सीख कर उसे सिर्फ सतही तौर पर ही हासिल कर सकते हैं उसमें मास्टरी हासिल नहीं कर सकते। 'साहिर' को पढ़ कर ही फ़ारूक़ को अपने भीतर छुपी शायरी के फ़न का पता चला। 'साहिर' के बाद 'फ़ारूक़' ने 'फैज़' और दूसरे शायरों को पढ़ने का सिलसिला जारी रखा। शायरी से फ़ारूक़ को मोहब्बत सी हो गयी। मज़े की बात है कि घर में इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी।

फ़ारूक़ जैसा मैंने बताया पढाई में होशियार था हायर सेकेंडरी के बाद उसका एडमिशन जोधपुर के एम.बी.एम. इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया , ब्रांच मिली 'इलेक्ट्रॉनिक्स ऐंड टेलिकमन्यूकेशन,, जो उस वक़्त सिर्फ अव्वल छात्रों को ही मिला करती थी।

ज़माने की दिल को हवा लग गयी है 
वगरना ये लड़का भले घर का है 
*
यादें उसकी ग़म अपने और दर्द ज़माने का 
छोटे से कमरे में आख़िर क्या क्या रक्खूँ मैं 
*
आँख हो और कोई ख़्वाब न हो 
नाज़िल ऐसा कहीं अज़ाब न हो 
नाज़िल:अवतरित , अज़ाब: पीड़ा 

सर्फ़ कीजे न इस क़दर ख़ुद को 
लाख चाहो तो फिर हिसाब न हो 
सर्फ़: खर्च 

कुछ तो महफूज़ रखिये सीने में 
ज़िंदगानी खुली किताब न हो 
*  
ग़म से ऐसे निढाल हूँ जैसे 
एक बच्चे की पीठ पर बस्ता 

एक जुगनू था आस की सूरत 
भर गया रौशनी से सब रस्ता 

बारिशों की दुआएँ माँगी हैं 
और दीवार घर की है ख़स्ता 

बाँध रक्खा है कब से रख़्त-ए-सफ़र 
कभी आवाज़ दे कोई रस्ता 
रख़्त-ए-सफ़र: सफ़र का सामान 

इश्क़ को बीमारी यूँ ही नहीं कहते। अव्वल तो ये हर किसी लगती नहीं और कहीं लग जाय तो कमबख़्त छूटती नहीं। मख़्मूर देहलवी साहब का ये शेर तो आपने पढ़ा ही होगा :

मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़सूस होते हैं
ये वो नग़मा है जो हर साज़ पे गाया नहीं जाता

तो साहब यूँ समझें कि ये बीमारी फ़ारूक़ को भी लग गयी। हज़रत दिमाग से इंजीनियरिंग की मुश्किल पढाई करते और दिल से शायरी। साथ में डर भी कि इस बीमारी का किसी को पता न चल जाय। कहते हैं इश्क़ मुश्क़ छुपाये नहीं छुपते ,धीरे धीरे ही सही दोस्तों को खबर लग गयी कि फ़ारूक़ शायरी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो चुका है। एक दोस्त ने सलाह दी कि वो अपना क़लाम विजिटिंग प्रोफ़ेसर जनाब डी डी हर्ष साहब को दिखाएँ जो शायरी के जानकार माने जाते थे। हिम्मत करके फ़ारूक़ ने अपना कलाम उन्हें दिखाया , देख कर वो चौंके और बोले कि बरख़ुरदार तुम तो खूब कहते हो। हर्ष साहब की बात से फ़ारूक़ का हौंसला बुलंद हुआ। हर्ष साहब ने आगे कहा कि मैं एक पर्ची पर तुमको एक पता लिख के देता रहा हूँ तुम इस पते पर जाओ और वहाँ रहने वाले शख़्स से मिलो। 'फ़ारूक़' अगले ही दिन सुबह सुबह हर्ष साहब की पर्ची लेकर उस पर लिखे पते पर जा पहुँचे। घर की घंटी बजाई और जिसने दरवाज़ा खोला वो थे उर्दू अदब के बहुत बड़े आलिम जनाब 'शीन काफ़ निज़ाम' साहब। जो बने 'फ़ारूक़' के पहले उस्ताद।
  .    
मुअत्तर है तुम्हारी याद से शब का हर इक पहलू 
महकना रात में कब रात-रानी का बदलता है   

बदलती ही नहीं सूरत किसी भी तौर गावों की 
यहाँ नक्शा तो अक्सर राजधानी का बदलता है 

बदल जाते हैं सब अपने पराये राज रजवाड़े 
मगर घनश्याम कब 'मीरा' दीवानी का बदलता है 
*
मैं अपने आप में गुम हूँ तो क्या जरूरी है 
हर एक काम का कोई न कोई मक़सद हो 

सुकून हमसे न खो जाये इस तरह इक दिन 
तलाश उस को करें और न वो बरामद हो 

तमाम उम्र न देखे किसी की राह कोई 
हो इंतज़ार तो फिर इंतज़ार की हद हो    

हंगामें दो चार क़दम 
फिर मीलों वीरानी है 
*
घर छोड़ आये आप भी अच्छा किया हुज़ूर 
ये तो जुनूँ की राह में पहला क़दम हुआ 
*
देखता हूँ बिखरते फूलों को 
अपना अंजाम भूल जाता हूँ 

निज़ाम साहब ने फ़ारूक़ को प्यार से घर में बिठाया और पूछा कैसे आये ?जब फ़ारूख़ ने बताया कि वो शायरी सीखना चाहते हैं और फ़िलहाल जोधपुर में इंजिनीयरिंग कर रहे हैं तो निज़ाम साहब मुस्कुराते हुए बोले तुमने भी मेरी तरह ये क्या रास्ता इख़्तियार कर लिया बरखुरदार मैं तो ये पढाई बीच छोड़ आया लेकिन तुम मत छोड़ना। बहुत कम लोग जानते हैं कि शायरी से मोहब्बत के चलते निज़ाम साहब इंजीनियरिंग की पढाई बीच ही में छोड़ आये थे , बाद में उन्होंने ग्रेजुएशन की। अब तो फ़ारूख़ रोज ही निज़ाम साहब से मिलने लगे। कॉलेज ख़त्म करने के बाद लंच करते और साइकिल उठा कर सीधे निज़ाम साहब के ऑफिस पहुँच जाते और उनका ऑफिस ख़त्म होने पर साइकिल पर उनके घर तक साथ जाते। निज़ाम साहब ने उन्हें उरूज़ की जानकारी के साथ साथ क्या लिखना चाहिए कैसे लिखना चाहिए सिखाया और भरपूर ज़िन्दगी जीने के गुर भी बताये। पढ़ने के लिए ढेरों किताबें दीं। निज़ाम साहब के साथ जोधपुर में बिताये तीन साल 'फ़ारूक़' को 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान' से 'फ़ारूक़ इंजिनियर' बना गए।

हमारे सामने जनाब 'फ़ारूक़ इंजिनियर' साहब की दूसरी ग़ज़लों की किताब 'कितने सूरज' खुली हुई है जिसे सं 2018 में माई बुक्स पब्लिकेशन नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस किताब का संपादन श्रेष्ठ युवा ग़ज़लकार जनाब 'इरशाद खान सिकन्दर' साहब ने किया हैआप ये किताब, जो अमेजन पर भी मौजूद है, माई बुक्स को 9910482906/ 99104 91424 पर फोन कर मँगवा सकते हैं।


उसी की है अदालत उसी के मुंसिफ़ हैं 
उसी के सब हैं तो मेरा बयान किसके लिये 
*
जां से बढ़कर नहीं कोई लेकिन 
लोग कुछ जान से भी प्यारे थे  
*
लिखूँ ज़ख़्म को फूल दिल को चमन 
नहीं मुझमें ऐसा हुनर ही नहीं 
*
कोई चराग़ सरे-रहगुज़र भी रौशन हो 
मुँडेर पर तो दिये सबकी जलते रहते हैं 
*
इसे अब भी 'फ़ारूक़' कहते हो घर 
अब इस में तो घर सा बचा कुछ नहीं 
*
अगर हुनर है तो सर चढ़ के बोलता है ज़रूर 
गो लाख ऐब निकाले निकालने वाला  
*
इश्क़ है तो फिर इश्क़ ही रहे 
खेल ख़त्म हो जीत हार का
*
ख़ज़ाने कर दिए क्या क्या अता मुझे उस ने 
कुछ और ढूंँढने निकला था मैं समंदर में 

अजीब धुन है गले से लगा के देखता हूंँ
तुम्हारा लम्स हो जैसे हर एक मफ़्लर में
*
इस से बढ़कर क्या दिलासा है कोई 
हाथ उसने रख दिया है हाथ पर

इंजीनियरिंग के बाद 'फ़ारूक़' साहब को कोटा थर्मल प्लांट में नौकरी मिल गयी। नौकरी के साथ-साथ बाकायदा शायरी भी चलने लगी। अपने दिलकश और बिलकुल अलहदा लबो-लहज़े की वज़ह से जल्द ही लोग उन्हें जानने, पसंद करने लगे। इस्लाह के लिए उनकी निज़ाम साहब से खतो क़िताबत होती रहती थी। धीरे धीरे उनका कलाम अख़बारों और रिसालों में भी छपने लगा। अस्सी के बाद वाले दौर में आये नए मोतबर शायरों में उनका नाम लिया जाने लगा। तभी उन्होंने अपनी कुछ ग़ज़लें ऐवाने उर्दू दिल्ली से छपने वाले मशहूर रिसाले को भेजीं। मख्मूर सईदी साहब उस रिसाले के संपादक थे। बाद मख़्मूर साहब का फोन 'फ़ारूक़' साहब के पास आया बोले की ग़ज़लों की तारीफ़ करते हुए बोले 'बरखुरदार तुम कौन हो जो इतनी पुख्ता ग़ज़लें कहते हो हमने तो तुम्हारा नाम भी नहीं सुना था। इसके बाद उन्होंने ग़ज़लों में थोड़ी बहुत तब्दीली कर के कहा कि देखो इस हलकी सी फेर बदल से तुम्हारी ग़ज़ल कितनी खूबसूरत बन पड़ी है।' इसके बाद तो दोनों के बीच ऐसा राब्ता कायम हुआ जो मख़्मूर साहब के दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद ही टूटा। मख़्मूर सईदी साहब को फ़ारूक़ साहब अपना दूसरा उस्ताद मानते हैं। जब भी मख़्मूर साहब किसी मुशायरे में शिरकत के सिलसिले में कोटा आते तो अपना वक़्त 'फ़ारूक़' साहब के साथ ही गुज़ारते। लफ़्ज़ों को ख़ूबसूरती से बरतने का सलीका फ़ारूक़ साहब ने मख़्मूर सईदी साहब से ही सीखा। उन्होंने ही 'फ़ारूक़' साहब का पहला शेरी मजमुआ 'सहरा में गुम नद्दी' नाज़िश पब्लिकेशन दिल्ली से छपवाया।उनके पहले मजमुए को सं 1999-2000 को उत्तर प्रदेश का उर्दू अकादमी पुरूस्कार मिल चुका है। इस से पूर्व राजस्थान उर्दू अकादमी ने भी उन्हें 1997-1998 में सम्मानित किया था।

अपनी शायरी के आगाज़ के 19 साल के बाद याने सं 1999 में 'फ़ारूक़' साहब का पहला शेरी मजमुआ शाया हुआ और फिर उसके 20 साल बाद 2019 में ये दूसरा। इससे अंदाज़ा हो जाता है कि जब तक फ़ारूक़ साहब को अपने कलाम से तसल्ली नहीं हो जाती वो उसे प्रकाशित करने की जल्दी नहीं करते। ये ही एक बड़े शायर की पहचान है।
स्वभाव से बेहद शर्मीले शोर शराबे और अपनी मशहूरी को लेकर बेहद ठन्डे 'फ़ारूक़' साहब एक बेहतरीन इंसान हैं। इस पोस्ट के सिलसिले में वादा करने के बावजूद वो अपने बारे में ज्यादा कुछ बताने से बचते रहे हैं। उनके बारे में इतनी सी जानकारी भी जयपुर के शायर जनाब 'आदिल रज़ा मंसूरी साहब' से हुई उनकी एक गुफ़्तगू से मिल पायी है। आप उन्हें उनकी इस लाजवाब शायरी के लिए 9414203120 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं। यकीन मानिये आपको उनसे गुफ़्तगू कर अच्छा अनुभव होगा।

'फ़ारूक़' साहब नज़्में भी कमाल की लिखते हैं। उम्मीद है उनकी नज़्मों का संकलन जल्द ही हमें पढ़ने को मिलेगा

आखिर में उनके कुछ और शेर पढ़िए :

सुबह का नूर, फब शाम की, रात की नींद, दिल का सुकूँ
एक बाज़ी थी दिल की मगर दाव पर जाने क्या क्या लगा
*
अब वो मौसम भी कहांँ आएगा 
जुल्फ़ उसकी है न शाना मेरा
*
 अभी मसरूफ हूंँ ऐ याद थम जा 
इबादत भी तो फ़ुर्सत चाहती है 

गज़ब ये है जहाने- इल्मो- फ़न पर 
जहालत भी हुकूमत चाहती है
*
जिसमें आबाद हो न वीरानी 
घर में ऐसा है कोई गोशा भी 

कोई उम्मीद, आरज़ू , न उमंग 
और कहते हैं ख़ुद को ज़िंदा भी
*
ये सच है कि मसरूफ़ रहा कारे जहाँ में 
ये बात ग़लत है कि तेरा ध्यान नहीं था


15 comments:

Ajay Agyat said...

बहुत खूब

नीरज गोस्वामी said...

फारूख इंजीनियर जी ने अपने दो मजमुये ,कितने सूरज,, और ,,सहरा में गुम नदी,, मुझे भी भेंट किये हुए है। वे बहतरीन शाइर हैं पर आप की ,खाका नवीसी ,का जवाब नहीं ,पाठक को बांधे रख कर रचनाकार के रु ब रु कराने में आप को महारत है।बधाई स्वीकारें।

मुकुट सक्सेना
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नीरज गोस्वामी said...

कितना अच्छा लिखा है आपने फ़ारूक़ भाई साहब के ऊपर।अस्ल में उनकी शायरी नदी की तरह अपने भीतर होने वाली हलचल को ऊपरी सतह के शांत जल की तरह छुपाने के जतन तो करती है लेकिन वही इस बात का प्रमाण भी देती चलती है कि नदी कितनी गहरी है।फ़ारूक़ भाई साहब से जब कभी किसी शेरी गुत्थी सुलझाने के सिलसिले में बात करने का अवसर मिला उन्होंने न केवल मेरी जिज्ञासा का शमन किया बल्कि बातचीत में शेरी तक़ाज़े के उन पहलुओं पर भी रोशनी डाली जो सर्वथा अज्ञात थे मेरे लिए। उनकी ग़ज़लें उनकी गढ़न, बुनावट और तग़ज़्ज़ुल आदि पर मेरे जैसे लोग तो क्या कह पाएंगे बस हतप्रभ हो जाता हूँ उन्हें पढ़कर।मेरी ख़ुश किस्मती है है कि सहरा में गुम नद्दी और कितने सूरज उन्होंने मुझे ख़ुद भेजे हैं।परंतु उससे ज़ियादा ये की वो मुझे जानते हैं और उनका आशीर्वाद मुझे प्राप्त है।
आपके लिए तो क्या ही कहूं और कितनी बार कहूँ कि आपकी ये क़लन्दराना रविश आपको हमारे दौर का प्रकाश पंडित सिद्ध करवाती है और मेरे जैसे तिफ़ले मकतब के लिए किसी शायर की शायरी का सरापा यकजा कर देती है पढ़ने के लिए नोट्स लेने के लिए। कितने अच्छे अशआर आप उदधृत करते हैं।प्रणाम करता हूं।

अखिलेश तिवारी
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नीरज गोस्वामी said...

आपके माध्यम से फ़ारूक़ साहब की बेहतरीन शायरी और फ़ारूक़ साहब के बारे में रोचक जानकारियाँ मिलीं. शुक्रिया नीरज जी.

अनिल अनवर
जोधपुर

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SATISH said...

Bahut khoob mohtaram Neeraj Sahib Kamal ka tasira Faarooq Engineer Sahib ki kitab par ... Aap dono ko Dili Mubarakbaad ... Raqeeb

नीरज गोस्वामी said...

shukriya satish bhai

Onkar said...

बहुत खूब

vijay ki baten said...

बहुत ही उमदा आलेख
बधाई.

तिलक राज कपूर said...
This comment has been removed by the author.
नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद ओंकार जी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद विजय जी

तिलक राज कपूर said...

आज आपके माध्यम से एक और अच्छे शायर का परिचय मिला। शीन काफ निजाम साहब और मख़्मूर सईदी साहब जैसे उस्ताद शायरों का मार्गदर्शन जिसे प्राप्त हो उसके शेरों को एक दिन तो आपकी नज़रों से होते हुए हम पाठकों तक पहुंचना ही था। आपने समय निकाल कर प्रकाशित पुस्तक का सार हम तक पहुंचाया इसके लिए आपका आभार।

mgtapish said...

बुलंदियों के मुसाफ़िर तुझे खबर भी है 
ये रास्ते में है आगे ढलान किसके लिए
इसी ज़मीन प जब तेरा आबो- दाना है 
फिर आसमान में ऊँची उड़ान किसके लिए
झुलसती रेत प इक बूंद ही उछाल कभी 
ये बारिशों में तो दरिया उबलते रहते हैं
नीरज साहेब एक समीक्षा लिखने के लिए आप कितनी खोजबीन करते हैं और फिर नक्शा बांधते हैं कि वह आपकी समीक्षा पढ़ते हुए जैसे बोलने लगती है जिन्दाबाद परमात्मा आपको स्वस्थ दीर्घ आयु प्रदान करें खूबसूरत अशआर पढ़वाने का दिल से शुक्रिया
मोनी गोपाल तपिश

नीरज गोस्वामी said...

आपने पढ़ा इसलिए आपका धन्यवाद कपूर साहब

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद मोनी भाईसाहब