सुख़न-सराई कोई सहल काम थोड़ी है
ये लोग किस लिए जंजाल में पड़े हुए हैं
*
किसी किसी को है तरबीयते-सुख़नसाज़ी
कोई कोई है जो ताज़ा लकीर खींचता है
*
शेर वो लिख्खो जो पहले कहीं मौजूद न हो
ख़्वाब देखो तो ज़माने से अलग हो जाओ
शायरी ऐसे झमेलों से बहुत आगे है
इस नए और पुराने से अलग हो जाओ
*
लफ़्ज़ अहसास का अलावो है
शायरी इज़्तिराब से है मियाँ
इज़्तिराब:बेचैनी
*
लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं है बात
जब तक सुख़न में लज़्ज़ते-सोज़े-दुरूँ न हो
लज़्ज़ते-सोज़े-दुरूँ : भीतर की पीड़ा का स्वाद
*
हम क़ाफ़िया-पैमाई के चक्कर में पड़े हैं
है सिन्फ़े-सुख़न क़ाफ़िया-पैमाई से आगे
"ये बहुत ख़ुशी की बात है कि इन दिनों ग़ज़लें खूब लिखी जा रही हैं। इस विधा की लोकप्रियता का ग्राफ ऊपर ही जाता जा रहा है। उर्दू हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओँ में भी इस विधा पर खूब काम हो रहा है। ग़ज़ल, जैसा की हज़ारों बार पहले भी कहा गया है जितनी दिखाई देती है उतनी आसान विधा है नहीं। यही कारण है कि इस दौर में आयी हुई ग़ज़ल लेखन की सुनामी में अधिकतर ग़ज़लें साधारण या अतिसाधारण की श्रेणी में आती हैं। ग़ज़लकार कोई नयी बात पैदा कर नहीं पा रहे। कारण ये है कि आजकल कल हर कोई अपना क़लाम दूसरे को सुना कर ख़िसक जाने की फ़िराक में रहता है , न तो वो किसी दूसरे को सुन कर खुश हैं न पढ़ कर। पढ़ना तो जैसा छूट ही गया है। ऊपर दिए शेर क़ामयाब ग़ज़ल कहने के लिए जरूरी बातों की ओर इशारा करते हैं। सवाल ये है कि ऐसा शेर कहा कैसे जाय जिसका मफ़हूम ओर ज़मीन पहले से न बरती गयी हो ? जवाब है कि जिस तरह कुदरत अपने आप को कभी नहीं दोहराती कुछ वैसा ही शायरी में भी करना होगा। हर दिन सूरज उगता है , सवेरा होता है, चिड़ियाएँ चहचहाती हैं रात होती है चाँद निकलता है, हवा चलती है लेकिन फिर भी हर दिन, हर रात नई लगती है। हर पल नया होता है। कहीं कोई दोहराव नहीं जबकि यूँ कुछ भी बदला नज़र नहीं आता।"ये बात हमारे आज के शायर ने एक इंटरव्यू में कही थी। आप इन हज़रात की शायरी को पढ़ते वक्त महसूस करेंगे कि उन्होंने ग़ज़ल के बारे में जो शेर कहें हैं उन्हें अपनी ग़ज़लों में बहुत हद तक उतारा भी है।
पाकिस्तान के युवा शायर जनाब दिलावर अली 'आज़र' का नाम हिंदी पाठकों के लिए शायद नया हो क्यूंकि उनकी ग़ज़लें हिंदी में बहुत कम छपी हैं .उनकी ग़ज़लों की हिंदी में जो पहली किताब मंज़र-ऐ-आम पर आयी है वो है "आँखों में रात कट गयी " जिसका लिप्यंतरण और संपादन किया है जाने माने युवा शायर 'इरशाद ख़ान 'सिकंदर' ने और जिसे 'मायबुक सलेक्ट पब्लिशिंग ने अपनी 'नायाब बुक सीरीज़' के अंतर्गत प्रकाशित किया है। इस किताब को आप 9910482906 पर मायबुक से संपर्क कर मंगवा सकते हैं या फिर इरशाद भाई से उनके मोबाइल 098183 54784 पर मंगवाने का आसान तरीका पूछ सकते हैं।
इल्म जितना भी हो कम पड़ता है इंसानों को
रिज़्क़ जितना भी हो बटने के लिए होता है
*
मेरी तन्हाई ने पैदा किए साये घर में
दीवार कोई दर से नमूदार हुआ
आज की रात गुज़ारी है दिये ने मुझमें
आज का दिन मिरे अंदर से नमूदार हुआ
*
उसके होंठों को नहीं आँख को दी है तर्जीह
प्यास को प्यास बुझाने से अलग रक्खा है
*
फेंक कर संगे-ख़मोशी किसी दीवाने ने
गुनगुनाती हुई नद्दी का रिदम तोड़ दिया
मेरे रस्ते के अलावा भी कई रस्ते थे
क्यों क़दम रख के मिरा नक़्शे-क़दम तोड़ दिया
*
अब मुझको एहतिमाम से कीजे सपुर्दे-ख़ाक
उकता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं
*
हद्दे-अदब की बात थी हद्दे-अदब में रह गयी
मैंने कहा कि मैं चला उसने कहा कि जाइए
*
इक तिरा साथ तिरा क़ुर्ब मिले पलभर को
यार खिलने को कहाँ फूल नहीं खिल सकते
क़ुर्ब : निकटता
*
मैं जो यारों की मुहब्बत में बिछा जाता हूँ
मेरी दरवेश तबीयत मुझे ले डूबेगी
'हसन अब्दाल' जी हाँ यही नाम है पाकिस्तान के उस शहर का जहाँ के एक छोटे से मोहल्ले सख़ी नगर के निवासी जनाब बशीर अहमद साहब के यहाँ 12 सितम्बर 1984 को दिलावर बशीर ने आँखें खोली जिसे अदब की दुनिया दिलावर अली 'आज़र' नाम से पहचानती है। दिलावर साहब पर बात करने से पहले चलिए जरा सी हसन अब्दाल शहर के बारे में बात कर ली जाय। पता नहीं क्यों लेकिन मुझे लगता है कि ज़्यादातर पाठकों ने शायद 'हसन अब्दाल' का नाम ही न सुना हो। इस शहर के बारे में मैं इसलिए बताना चाहता हूँ कि किसी भी शायर के क़लाम में उस जगह और वहाँ के माहौल का असर जरूर होता है जहाँ उसने बचपन और जवानी बिताई हो।'हसन अब्दाल' एक बहुत ही खूबसूरत शहर है। दिलावर अली साहब का बचपन 'गुनगुनाती हुई नदियों, बहते हुए झरनों , साफ़ पानी के तालाबों और सरसब्ज़ शादाब पहाड़ों के दरमियान बीता। इस शहर में सिख्खों का बेहद खूबसूरत और प्रसिद्ध गुरुद्वारा 'पंजा साहिब' है जिसके परिसर के अन्दर और बाहर लगभग दो सौ सिख परिवार सैंकड़ो सालों से मुसलमानों के बीच शांति से रह रहे हैं। हिन्दू और बौद्ध के लिए के लिए महत्वपूर्ण केन्द्र, सदियों पुराने विश्व प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय के अवशेष भी इसके निकट ही मिले थे। हसन अब्दाल में सिख गुरु श्री गुरु नानक देव जी के अलावा मुग़ल बादशाह अकबर और औरंगज़ेब के ठहरने के भी प्रमाण मिलते हैं।
दिलावर अली की ग़ज़लें प्रकृति के नज़ारे, इंसानी ज़ज़्बात और एहसासात की मुकम्मल तर्जुमानी करती हैं।
इस क़बीले में कोई इश्क़ से वाक़िफ़ ही नहीं
लोग हँसते हैं मिरी चाक-गिरेबानी पर
*
वो समझता है कि बेचैन हूँ मिलने के लिए
और मैं वक़्ते-मुलाक़ात बदल सकता हूँ
*
साँस की धार से कटता रहा धारा दिल का
ज़िन्दगी हिज्र के दौरान सज़ा बनती गयी
हिज्र : जुदाई
*
देखता हूँ मैं उसे ख़ुद से जुदा होते हुए
सोचता हूँ वो मिरे साथ कहाँ तक जाता
*
वो मुझे देखता रहे और मैं
देखना देखता रहूँ उसका
*
झाँक कर देखता नहीं कोई
फूल खिलते हैं रायगाँ मुझमें
रायगाँ : व्यर्थ
*
ख़ुदा का शुक्र आईना मिला है
किसी ने शक्ल पहचानी हमारी
*
सब अपने अपने ताक़ में थर्रा के रह गये
कुछ तो कहा हवा ने चराग़ों के कान में
*
ये जिस वजूद पे तुम नाज़ कर रहे हो मियाँ
यही वजूद बहुत रायगाँ निकलता है
*
फिर भी ख़ामोश ही रहता हूँ मैं अपने घर में
बात सुनते हैं अगरचे दरो-दीवार मिरी
दिलावर अपने स्कूली दिनों से ही ग़ज़लें कहने लगे थे याने जब से उन्होंने होश संभाला। वो कहते हैं कि 'बचपन खुशियों से भरपूर हुआ करता था। असली ख़ुशी तब तक ही रहती है जब तक आपके पास शऊर नहीं है। शऊर जब भी आता है तो बचपन की सारी चीजें आपसे छिन जाती हैं। मुझे जब शऊर आया तो मैं बचपन की वो शरारतें, जैसे नदी किनारे से केंकड़े पकड़ कर छोटी बहनों के हाथ में ये कह कर पकड़ाना कि ले तेरे लिए नदी किनारे से रंगीन पत्थर लाया हूँ और उनका केंकड़ा देख कर डर मारे उछलना , दोस्तों को धक्का दे कर नदी में गिरा कर हँसना, लोगों की खड़ी साइकिलों की हवा निकाल देना, भूल कर संजीदा हो गया। मैं उन सब सवालों के ज़वाब ढूंढने लगा जो शऊर आने के बाद आते हैं और जिनका जवाब आसानी से नहीं मिलता। लड़कपन में दिल की बात किससे कहें कौन समझेगा सोच कर मैंने बात करने को शायरी का सहारा लिया। मेरी शायरी पढ़ कर कुछ लोग मेरी दिल की बात समझ लेते हैं कुछ नहीं।
पहले अपने स्कूल और फिर कॉलेज की लाइब्रेरी से मुहब्बत हद दर्ज़े की हो गयी। शायरी की किताबें पढ़नी शुरू की तो बहुत से सवालों के जवाब खुद ब खुद मिलने लगे। मीर का दीवान कई कई बार पढ़ डाला। हर बार शेरों के माने नए मिलने लगे। शायरी पढ़ने का एक जूनून सा तारी हो गया। हर वक्त उसी के नशे में रहता। ये देख घर वाले परेशान हो गये। शायर का जो तसव्वुर आम लोगों के दिल में ऐसा ही है -बिखरे बाल, शराब और मोहब्बत में ग़र्क़ इंसान जो अक्सर फ़ाक़े करता है, इसलिए घर वालों का परेशां होना जायज़ था । घर वाले सोचने लगे कि ये अपनी ज़िन्दगी में बैलेंस कैसे बिठा पायेगा ? लिहाज़ा मुझे शायरी से इतर कुछ करने की सलाह दी जाने लगी पर जब देखा कि मुझ पर कोई बात असर नहीं कर रही तो मुझे मेरे हाल पे छोड़ दिया।
दरमियाँ कोई नहीं कोई नहीं कोई नहीं
तुम हमारे हम तुम्हारे रास्ते में रास्ता
*
इसमें खुलते हैं बहुत पेच मगर आख़िर तक
ये मुहब्बत है मुहब्बत नहीं खुलती साईं
*
अजीब रात उतारी गयी मुहब्बत पर
हमारी आँखें, तुम्हारे चराग़ जलते हैं
*
यानी इस ख़्वाब को ताबीर नहीं कर सकते
गोया इस ख़्वाब को मिस्मार करोगे साहब
मिस्मार : ध्वस्त
*
उम्र गुज़ारी मुन्तज़िरी में तब जा कर मालूम हुआ
वस्ल की साअत हिज्र से बढ़कर जी लरज़ाने वाली है
मुन्तज़िरी: इंतज़ार , साअत : घड़ी
*
मैं जान लूँगा कि अब साँस घुटने वाला है
हरे दरख़्त से जब शाख़ कट रही होगी
*
दोस्त देखे जा रहे हैं ताकि तन्हाई मिटे
साँप ढूंढे जा रहे हैं आस्तीनों के लिये
*
तुमने दीवार से भी सर नहीं फोड़ा जाकर
जानेवाले पसे-दीवार चले जाते हैं
*
रोता है कौन अपनी रउनत से हार कर
अपने किये पे आप ही शर्मिंदा कौन है
रउनत: घमंड
*
वो एक पल कि जो गुज़रा तिरी मईयत में
उस एक पल में मिरी उम्र कटने वाली है
किसे ख़बर थी जहाँ में कि जिस्म की खुशबू
बिखरने वाली नहीं है सिमटने वाली है
दिलावर साहब किसी एक को अपना उस्ताद नहीं बनाया। शायरी उन्होंने किताबें पढ़ कर सीखी। उस्ताद रिवायती शायरों से लेकर जदीद शायरों को पूरे दिल से पढ़ा। नतीज़ा ये हुआ कि उनकी शायरी में निख़ार आता गया। अपने से सीनियर शायरों की इज़्ज़त करते हुए उनसे राबता क़ायम किया और अपने क़लाम की बेहतरी के लिए उनसे मशवरा लेने में कभी गुरेज़ नहीं किया। अपने बराबर के और अपने से छोटे शायरों से दोस्ताना व्यवहार रखा उनसे भी मशवरा लेने में झिझके नहीं। धीरे धीरे पहले पूरे पाकिस्तान में और फिर पकिस्तान के बाहर भी उनकी शायरी की चर्चा होने लगी और उनके प्रशंसक बढ़ने लगे। उनका पहला ग़ज़ल संग्रह 'पानी' सं 2013 में मंज़र-ऐ-आम पर आया जिसे आलोचकों ने बहुत पसंद किया और उसे पिछली तीन दहाइयों में आये किसी नौजवान शायर का सबसे मज़बूत और मुकम्मल संग्रह माना। इसके ठीक तीन साल बाद उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह 'माख़ज़' प्रकाशित हुआ जो पहले वाले संग्रह से बहुत अधिक प्रसिद्ध हुआ। इस ग़ज़ल संग्रह को आलोचकों और सीनियर शायरों ने दिलावर 'आज़र' का दूसरा नहीं क़दम क़रार दिया।
पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब ज़फर इक़बाल साहब ने लिखा कि 'दिलावर अली आज़र की शायरी से गुज़रते हुए आधुनिक उर्दू ग़ज़ल पर मेरा ईमान और पुख़्ता हो गया है , शेर कहते तो बहुत से और भी हैं मगर शेर को शेर बनाना किसी किसी को ही आता है ये शायर मुझे चंद ही दूसरों के साथ अगली पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है इसका लहजा दोषमुक्त और आत्मविश्वास का ज़ज़बा आश्चर्यजनक है। इसकी ग़ज़लें ताज़गी और तासीर का एक ऐसा झोंका है जिसने आसपास का सारा वातावरण सुगन्धित कर दिया है इस शायरी ने मुझे ख़ुशी से भर दिया है।'
दोस्त तो दोस्त है दुश्मन भी बराबर का चुनो
हु-ब-हू हम नज़र आते हैं अदू में अपने
अदू : दुश्मन
एक वो प्यास जो बुझती है सुबू से अपनी
एक ये आग जो होती है सुबू में अपने
सुबू : मदिरा पात्र
*
देखता कोई नहीं आँख उठा कर मुझको
फ़ायदा क्या है मुझे चाक-गिरेबानी से
*
हमी को वो किसी इमकान में नहीं रखता
हम ऐसे लोग जो होते भी हैं फ़क़त उस के
*
वो हमेशा ही ख़सारे में रहा है जिसने
फ़ैसला करके मुहब्बत में नज़र सानी की
तेरी आसानी ने मुश्किल में मुझे डाल दिया
मिरी मुश्किल ने तिरे वास्ते आसानी की
*
उसकी आँखें देखने वालो तुम पर वाजिब है
शुक्र करो इस दुनिया में कुछ अच्छा देख लिया
*
पहले धुंदला दिए नक़ूश मिरे
फिर मुझे आइना दिखाया गया
नक़ूश : निशान
*
वो ज़ख़्म जिस्म पे आया नहीं अभी जिसके
कुरेदने को ये नाख़ुन सँभाल रक्खा है
*
जो समझता हो उसे बारे-दिगर क्या कहना
फ़ायदा कोई नहीं बात के दोहराने में
बारे-दिगर : दोबारा
हसन अब्दाल छोड़ कर अब कराची आ बसे दिलावर अली 'आज़र' की मौजूदगी के बिना पाकिस्तान में अब कोई मुशायरा मुकम्मल नहीं माना जाता। युवाओं में बेहद लोकप्रिय दिलावर 'आज़र' की दोनों किताबों पर गवर्मेंट सादिक़ अजर्टन कॉलेज से 2013 में , यूनिवर्सिटी ऑफ़ लाहौर पाकपटन से 2017 में , जी सी यूनिवर्सिटी फ़ैसलाबाद से 2018 में शोध पत्र प्रकाशित किये जा चुके हैं। उनकी तीसरी किताब 'कीमिया' का उनके सभी पाठकों को बेसब्री से इंतज़ार है।
दिलावर 'आज़र' को 2013 में लफ्ज़ अदबी अवार्ड और 2016 में बाबा गुरु नानक जी अदबी अवार्ड से नवाज़ा गया है। किताब 'आँखों में रात कट गयी में' आज़र साहब की 127 ग़ज़लें संग्रहित हैं ,उनकी शायरी का पूरा लुत्फ़ लेने के लिए आपको उनकी इस किताब को मंगवा कर पढ़ना होगा।
जाने क्या रम्ज है कि पिंजरे में
आजकल फड़फड़ा नहीं रहे तुम
रम्ज : संकेत
*
कमाल ये है मुझे देखती हैं वो आँखें
मलाल ये है उन्हें देखना नहीं आता
*
शह्र में कोई नहीं जिसको दुआ दी जाये
सो मिरी उम्र दरख्तों को लगा दी जाये
*
आँख में नींद के रस्ते से उतरता है सराब
ख़्वाब तो प्यास बढ़ाने के लिये होते हैं
सराब : मृगतृष्णा
*
तमाम उम्र की जिसमें थकान उतरेगी
वो एक लम्हा भी शायद तुम्हारे ध्यान से है
39 comments:
कमाल का शायर है भाई !!और जिन अशआर का इंतखाब किया गया है वह शहर की सूरत और सीरत का एक खूबसूरत खाका खींचने के लिए पर्याप्त हैं!!
बड़ी चीज है कि क्या खूब अल्फ़ाज़ का चयन होता है पाकिस्तान के शायरों का, लुगत की जरूरत ही नहीं पड़ती!! जबकि अपने देश के शायरों के लिए डिक्शनरी की जरूरत पड़ ही जाती है!!
आइने का भी इस्तेमाल बहुत खूबसूरत किया है आज़र ने !!
अभी और बडे़ सिग्नेचर बनेंगे ये !!
नीरज भाई आपको बधाई !!इस प्रस्तुति के लिए!!
आपने पढ़ा... आपने सराहा मयंक भाई..लेखन सफल हुआ ...शुक्रिया
लाजवाब शायरी।
धन्यवाद चोवाराम जी
बदौलत आपके नीरज जी, शायर दिलावर अली 'आज़र' की शायरी और उनके शहर हसन अब्दाल को जानना और पढ़ना अच्छा लगा।
जाने क्या रम्ज है कि पिंजरे में
आजकल फड़फड़ा नहीं रहे तुम.. कमाल का शेर.. कितनी बड़ी बात आसान लफ़्ज़ों मे कह दी गयी।
बहुत बधाई आपको इस प्रस्तुति के लिए।
आभार।
भाई साहब
आज़र साहब को 'रात आंखों में कट गई' के हवाले से पढ़ा।
आपकी अन्वेषी दृष्टि हर बार की तरह इस बार भी एक नायाब रचनाकार को ढूंढकर सामने लाई है।
क्या क्या खूबसूरत शेर शायर ने कहे और आपने चुने हैं।
शायर की सुखनगोई, हस्सासी, शेर को शेर बनाने का फन, शिल्प विषयवस्तु सभी कुछ लाजवाब भाषा जैसा किसी भी बड़े रचनाकार के साथ होता है हाथ बांधे हुए पीछे पीछे चलती है।हर शेर पढ़ने के बाद एक खास तरह की तरलता भीतर प्रवाहित होते हुए महसूस की जा सकती है।यक़ीनन बड़ा शायर। अभी तो और मूल्यांकन होना है इस शायर का।और ये तलाश फिर मेरे बड़े भाई के नाम।
अखिलेश तिवारी
जाने क्या रम्ज है कि पिंजरे में
आजकल फड़फड़ा नहीं रहे तुम
रम्ज : संकेत
*
कमाल ये है मुझे देखती हैं वो आँखें
मलाल ये है उन्हें देखना नहीं आता
*
शह्र में कोई नहीं जिसको दुआ दी जाये
सो मिरी उम्र दरख्तों को लगा दी जाये
*
आँख में नींद के रस्ते से उतरता है सराब
ख़्वाब तो प्यास बढ़ाने के लिये होते हैं
सराब : मृगतृष्णा
*
तमाम उम्र की जिसमें थकान उतरेगी
वो एक लम्हा भी शायद तुम्हारे ध्यान से है
शायर का कलाम तो नायाब है उसपर पूरी पुस्तक पढ़कर इस खूबसूरती से प्रस्तुत करना। लाजवाब।
ग़ज़ल की महान की परम्परा और वर्तमान के ठाठें मारते समुंदर से जो नायाब गौहर निकल कर आए हैं उन्हें पढ़ने और परखने के बाद उनकी ख़ूबियों को जिस अनूठे अंदाज़ में आप सामने लाते हैं वह आपके अनूठे और अन्वेषी व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है। आप जैसे पारखियों की बदौलत शाइरी का वजूद है।
आपके तब्सिरे पढ़ते हुए हमेशा इक़बाल साहिब का यह मिसरा याद रहता है
*बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा*
इस बार भी आपने एक और बेहतरीन युवा शाइर से परिचित करवाया है। कौन सा शेर उद्धृत करूँ कौन सा छोड़ूँ? आपको और दिलावर अली आज़र साहिब को हमारा महब्बत भरा सलाम।
द्विज भाई आपका तहे दिल से शुक्रिया
शुक्रिया तिलक साहब
धन्यवाद आभा जी
ग़ज़ल की महान की परम्परा और वर्तमान के ठाठें मारते समुंदर से जो नायाब गौहर निकल कर आए हैं उन्हें पढ़ने और परखने के बाद उनकी ख़ूबियों को जिस अनूठे अंदाज़ में आप सामने लाते हैं वह आपके अनूठे और अन्वेषी व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है। आप जैसे पारखियों की बदौलत शाइरी का वजूद है।
आपके तब्सिरे पढ़ते हुए हमेशा इक़बाल साहिब का यह मिसरा याद रहता है
*बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा*
इस बार भी आपने एक और बेहतरीन युवा शाइर से परिचित करवाया है आपको और दिलावर अली आज़र साहिब को हमारा महब्बत भरा सलाम।
द्विज
कमाल ये है मुझे देखती हैं वो आँखें ।
मलाल ये है उन्हें देखना नहीं आता ।।
क्या बात है
नवीन चतुर्वेदी
मुंबई
बेहद खूबसूरत
मैं जो यारों की मुहब्बत में बिछा जाता हूँ
मेरी दरवेश तबीयत मुझे ले डूबेगी
000
हद्दे-अदब की बात थी हद्दे-अदब में रह गयी
मैंने कहा कि मैं चला उसने कहा कि जाइए
000
वो मुझे देखता रहे और मैं
देखना देखता रहूँ उसका
000
शह्र में कोई नहीं जिसको दुआ दी जाये
सो मिरी उम्र दरख्तों को लगा दी जाये
000
जाने क्या रम्ज है कि पिंजरे में
आजकल फड़फड़ा नहीं रहे तुम
000
क्या कहा जाए?
आप लाते रहें ऐसे शायर
और हम पढ़ते रहें
तमाम उम्र की जिसमें थकान उतरेगी
वो एक लम्हा भी शायद तुम्हारे ध्यान से है
प्यारा अश़आर
सादर
धन्यवाद ग्यानू जी
धन्यवाद प्रदीप भाई
धन्यवाद यशोदा जी
ग़ज़ब - कमाल की शायरी - फेंक कर संगे-ख़मोशी किसी दीवाने ने
गुनगुनाती हुई नद्दी का रिदम तोड़ दिया- वाह
बहुत सुन्दर
धन्यवाद समीर भाई
बहुत बहुत बढ़िया और मनोरंजक ढंग से लिखा गया आलेख। शुक्रिया !
लुत्फ़ आ गया है आपकी रचना और उत्तम प्रस्तुति से! इससे बेहतर किसी नौजवान शायर का परिचय नहीं हो सकता!
हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई आपको इस शुभ कार्य के लिए !
मैं जान लूँगा कि अब साँस घुटने वाला है
हरे दरख़्त से जब शाख़ कट रही होगी
....क्या कहने वाह्
धन्यवाद जयंती जी
शुक्रिया सर 🙏
धन्यवाद दुर्गा शंकर जी
सर आपके माध्यम से शायर दिलावर आजर जी की शायरी और उनके शहर का परिचय प्राप्त हुआ।
दोस्त तो दोस्त है दुश्मन भी बराबर का चुनो
हु-ब हू हम नजर आते हैं अदू में अपने
जाने क्या रम्ज है कि पिंजरे में
आजकल फड़फड़ा नहीं रहे तुम
लाजवाब🙏
डॉ0 मंजू यादव
वाह वाह और वाह क्या कहना ज़िन्दाबाद वाह नीरज जी वाह
मोनी गोपाल 'तपिश'
जोहरी हैं आप नायाब हीरे ढूंढ कर लाते हैं। आपकी बदौलत ऐसी खूबसूरत शायरी और शायर से रूबरू होने का मौका मिलता है ।
जिंदाबाद
धन्यवाद मंजू जी
शुक्रिया मोनी भाइ साहब
धन्यवाद रश्मि जी
सर जी, आपकी पेशकश लाजवाब है, जितनी तारीफ शायर की उतनी ही आपकी। आपने शायर, शायरी के साथ साथ गांव का भी विस्तृत वर्णन किया है, जो काबिले तारीफ़ है, बहुत सुंदर, as usual
बहुत बहुत धन्यवाद आपका...नाम में अननौन आ रहा है😊
कमाल ये है मुझे देखती हैं वो आँखें
मलाल ये है उन्हें देखना नहीं आता
*
शह्र में कोई नहीं जिसको दुआ दी जाये
सो मिरी उम्र दरख्तों को लगा दी जाये
*
वाह वाह क्या कमाल की शायरी है।
मुबारकबाद
नायाब हीरे की एक झलक पेश करने के लिए
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“फ़क़ीर लोग थे ये किस लचक में डाल दिया”-क्या ये मुकम्मल ग़ज़ल मिल सकती है ?
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