Monday, January 4, 2021

किताबों की दुनिया - 222

जो अपनी ज़मीनों की हिफ़ाज़त नहीं करते 
इज़्ज़त के फ़लक उनसे मुहब्बत नहीं करते 
*
जाने किसलिए हस्सास इतना दिल हुआ मेरा 
तबस्सुम में मुझे आवाज़ आती है कराहों की 
हस्सास :संवेदनशील 
*
ख़त हमारे रख लिए और हमसे नज़रें फेर लीं 
एक काग़ज़ से भी कम क़ीमत हमारे दिल की है 
*
ये और बात है मंसूब हूँ मैं उससे मगर 
ये सच है उसपे मेरा इख़्तियार कुछ भी नहीं 
*
ऐ ज़िन्दगी बस उसमें दो बातें मिलीं मुझको 
इक तजरुबा मीठा है ,इक याद कसैली है 
*
वुसअतें उमीदों की क़ैद करके क्या होगा 
ख्वाब के परिंदों के घोंसले तो घर में हैं 
वुसअतें :ऊँचाइयाँ 
*
ये सारे तमगा-ओ-सौग़ात अपने पास रखें 
कटे सरों को अता करके ताज क्या होगा 
*
किसी के हाथ में होती है डोर किस्मत की 
पतंग बनना किसी का नसीब होता है 
*
जब तक रही तलाश तो लुत्फ़े-सफ़र रहा 
मंज़िल पे जब पहुँच गए मंज़िल नहीं रही 
*
फिर बहारों का पलट आना तो नामुमकिन है 
छू के सूखे हुए पेड़ों को तू संदल कर दे   

टैक्सी ठीक वहीँ आ कर रुकी जहाँ का पता उसे बुक करते वक्त लिखवाया गया था। ड्राइवर ने  सामने ही शहर की मशहूर आयुर्वेदिक क्लिनिक 'मीना नर्सिंग होम' देख कर इत्मीनान की साँस ली ।यहीं टैक्सी बुलवाई गयी थी। इस नर्सिंग होम को टैक्सी ड्राइवर अच्छे से पहचानता है। तीन साल पहले ही तो उसने अपनी बीवी का इलाज़ यहाँ से करवाया था और अब वो इस इलाज़ के कारण ही एक अच्छी ख़ासी सेहतमंद ज़िन्दगी गुज़ार रही है। ड्राइवर ने सोचा ज़रूर किसी मरीज़ ने ही टैक्सी बुक करवाई होगी। उसने हार्न बजाने की सोची और तभी क्लिनिक का दरवाज़ा खोल कर आहिस्ता से जो ख़ातून बाहर निकलीं उसे ड्राइवर ने फ़ौरन पहचान लिया। अरे, यही तो वो डॉक्टर हैं जिन्होंने उसकी बीवी का इलाज़ किया था और उसे दवा देते वक़्त मुस्कुरा कर कहा था कि ' बेफ़िक्र रहो बेटी तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगी, बस दवा वक्त से लेती रहना और इलाज़ पूरा करवाना '। 
धीमे क़दमों से चलती जब वो ख़ातून टैक्सी के पास पहुँची तब ड्राइवर ने ग़ौर किया कि उनके हाथ में एक छोटा सा सिलेंडर है जिस पर लिखा है 'ऑक्सीजन' और जिसमें से निकली एक ट्यूब खातून की नाक में जा रही है। ड्राइवर को माज़रा समझ नहीं आया उसने लपक के टैक्सी का दरवाज़ा खोला ,खातून उसे देख हलके से मुस्कुराई और फिर टैक्सी में बैठ गयीं . बैठने के बाद खातून ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ एक काग़ज़ का टुकड़ा ड्राइवर को पकड़ाते हुए हौले से कहा 'मुझे यहाँ ले चलो' । 
ड्राइवर ने काग़ज़ पे लिखे को पढ़ा और अदब से कहा 'जी मोहतरमा जरूर, बस आधा घंटा लगेगा यहाँ पहुँचने में ,आप आराम से बैठें।' पूरे सफर के दौरान ड्राइवर को ये अहसास होता रहा कि मोहतरमा आराम से नहीं बैठ पा रही है। तेज साँस लेने की आवाज़ लगातार उसके कानों से टकराती रही थी। बैक व्यू मिरर में ड्राइवर ने ये भी देखा कि तकलीफ़ के बावज़ूद मोहतरमा के चेहरे पर शिकन नहीं है और होंठों पर हलकी सी मुस्कुराहट है। ' ऊपर वाले का निज़ाम भी कमाल है जो सबकी तकलीफ़ों को दूर करता है उसे ही इतनी तकलीफ़ दे रहा है। वो फ़रिश्तों का भी इम्तिहान लेता है शायद ' ड्राइवर ने सोचा।            

मरहम लगाने आया था ज़ख़्मों पे वो मेरे 
ज़ुल्मों-सितम का साथ में लश्कर लिये हुए 
*
चेहरा किसी का जिस्म किसी का लगा लिया 
आसाँ नहीं रही कोई पहचान इन दिनों 
*
न जाने क्यों मुझे हर शख़्स टूटा-टूटा लगता है 
जो खुद किरचों में बिखरा है , मैं उस दरपन से क्या माँगूँ 
*
भड़क उठी है बनकर आग ये रिश्तों की ठंडक भी 
कि हम अब बर्फ़ में रहकर जलन महसूस करते हैं 
*
मुझको इंकार ज़रूरत से नहीं है लेकिन 
नाम उल्फ़त का न लो जिस्म से रग़बत करके  
रग़बत:चाह ,दिलचस्पी 
*
वो ख़ुशी में अपनी खुश है मैं भी अपने ग़म में खुश 
दिन हैं उसके पास मेरे पास हैं रातें बहुत 
*
मौसम हो कि बे-मौसम जब चाहें बरस जाएँ 
जब हमको ज़रूरत हो बरसात नहीं मिलती 
*
अब मुहब्बत में कशिश है तो फ़क्त इतनी है 
लोग रिश्तों को निभाते हैं ज़रूरत की तरह 
*
दर्द की सुरंगों में है बला की तारीकी 
क्यों अँधेरे रास्तों पर रौशनी नहीं जाती 
*
अब्र कुछ देर बरस के जो चला जाता है 
देर तक पेड़ की शाख़ों को रुलाती है हवा 

लगभग आधे घंटे बाद टैक्सी अपने मुकाम पर जा पहुंची। एक घर के बाहर बीस पच्चीस लोग खड़े टैक्सी का इंतज़ार ही कर रहे थे। टैक्सी के रुकते ही एक जनाब ने तपाक से दरवाज़ा खोलते हुए कहा 'तशरीफ़ लाइए मीना नक़वी साहिबा, इस हाल में भी आप ने हम लोगों के बीच आ कर जो हमारा मान बढ़ाया है उसके लिए शुक्रिया बहुत छोटा लफ्ज़ है।' 'किस हाल में ? ' हँसते हुए मीना जी ने कहा 'अरे आपका मतलब इस सिलेंडर से है ? अनवर कैफ़ी साहब अब तो ये मेरा पक्का साथी है मैं जहाँ जाती हूँ मेरे साथ ही चला आता है अब न मैं इसे छोड़ती हूँ और न ये मुझे। आप मुझे बुलाएँ और मैं न आऊं ये मुमकिन नहीं।'  मीना जी की ये बात सुन कर वहां खड़े सब लोग उनकी शायरी और अदब के प्रति दीवानगी को देख क़ायल हुए बिना नहीं रह सके। मीना जी ने टैक्सी ड्राइवर से कहा 'तुम यहीं मेरा इंतज़ार करना मैं थोड़ी देर में आती हूँ' और मेज़बान अनवर कैफ़ी साहब के साथ अंदर चली गयीं । अनवर साहब ने जब उनकी तबीयत का हाल पूछा तो मुस्कुराते हुए बोलीं ' तबियत का हाल मत पूछा करें ,आप तो जानते ही हैं मुझे कैंसर है अब ये बीमारी मुझे जिस हाल में रखेगी रहूंगी, बरसों हो गए इसका साथ निभाते ,जब तक हिम्मत है निभाती रहूंगी। चलिए छोड़िये ये सब बातें आप तो नशिस्त शुरू करें।' नशिस्त शुरू हुई ,आधा घंटा बैठने के बाद मीना जी की तबियत बिगड़ने लगी तो वो अनवर साहब से बोलीं 'आप मुझसे पहले पढ़वा लें मैं और नहीं रुक सकती। उसके बाद बड़े मन से वो दस पंद्रह मिनट तक अपने चंद चुनिंदा अशआर सुनाती रहीं और लोग सुन कर झूमते रहे। 

इस वाक़ये के कुछ महीनों बाद वो मुरादाबाद से अपने बेटे 'नायाब ज़ैदी' के साथ नोएडा चली गयीं और वहीं 15 नवम्बर 2020 के दिन, सिर्फ 65 साल की उम्र में वो इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।  

किताबों की दुनिया में आज हम मीना नक़वी साहिबा की हिंदी में छपी किताब 'किरचियाँ दर्द की' आपके लिए लाये हैं। जिसे 'एवाने अदब पब्लिशर्ज तुर्कमान गेट दिल्ली' ने प्रकाशित किया है।


मुझे फ़ुर्सत नहीं यादों से जिस की 
वो मुझको चाहता है फुर्सतों में 
*
जन्म देने वाली का नाम कुछ नहीं होता 
शाख़ जानी जाती है फूल के हवालों से 
*
जिस पे रिश्तों के निभाने की हो ज़िम्मेदारी 
उसके हिस्से में फ़क्त मात हुआ करती है 
*
यूँ रास्तों से इन दिनों दिलचस्पियॉँ बढ़ीं 
क़दमों की ख़ाक हो गई मंज़िल मिरे लिए 
*
उस घड़ी शजर के सब पत्ते गुनगुनाते हैं 
जब कोई नई चिड़िया शाख़ पे उतरती है 
*
इसीलिए तो ये चाँद तारे मद्धम हैं 
हमारी पलकों पे जुगनू सजा गया है कोई 
*
ये तो अच्छा हुआ कलियों का गला घोंट दिया 
वरना खुशबू भी हवाओं में बिखर सकती थी 
*
जब बर्फ़ की चादर ओढ़ चुके, मेरे ख़्वाबों के ताजमहल 
रातों की सियाही बोने लगी आँखों में जलन अंगारों सी 
*
क़ाफ़िले ग़म के गुज़रते ही रहे 
ज़िन्दगी इक राहगुज़र सी हो गई 
*
उसकी चाहत उसकी क़ुरबत उसकी बातें उसकी याद 
कितने उनवाँ मिल गए हैं इक कहानी के लिए 

'नगीना' उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर' के अंतर्गत आने वाला एक छोटा सा क़स्बा है। इस क़स्बे के सैयद इल्तज़ा हुसैन ज़ैदी साहब के यहाँ एक बेटे और बेटी के बाद 20 मई 1955 को तीसरी संतान जो हुई वो लड़की थी, उस का नाम रखा गया 'मुनीर ज़ोहरा' जो बाद में 'मीना नक़वी' के नाम से मशहूर हुईं। 'नगीना' में तब मुस्लिम लड़कियों के लिए पढ़ने का कोई स्कूल नहीं था लेकिन मीना जी के वालिद बेहद सुलझे हुए और तालीम के जबरदस्त हामी इंसान थे ,लिहाज़ा उन्होंने मीना जी को 'दयानन्द वैदिक कन्या अन्तर कॉलेज' में दाख़िला दिला दिया। इसी कॉलेज से मीना जी ने पहली क्लास से इंटर तक की पढाई बहुत अच्छे नंबरों से पास हो कर पूरी की। शुरू से ही स्कूल में होने वाले  जलसों में मीना जी हमेशा अपनी ही लिखी कोई कहानी या कविता सुनाया करती थीं। लिखने पढ़ने का शौक़ मीना जी को बचपन से पड़ गया था। ज़ैदी साहब अदब नवाज़ थे इसलिए घर की आलमारियाँ किताबों से भरी हुई थीं। ये किताबें मीना जी को अपनी और बुलातीं और वो इनकी तरफ़ खिंची चली आतीं । सबसे ख़ास बात ये थी कि घर के अदबी माहौल का असर सब बच्चों पर पड़ा। मीना जी उनकी बड़ी आपा और उनके बाद हुई पांच छोटी बहनें और सभी भाई हमेशा अपनी पसंद की किताबों को लिए घर भर में इधर उधर बैठ कर पढ़ते रहते। 

अदब नवाज़ डा. शेख नगीनवी अपने एक लेख में मीना जी के घर के अदबी माहौल के असर को यूँ बयाँ करते हैं " विश्व साहित्य में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ सात सगी बहनों में पांच बहनें साहित्य सर्जन कर रही हों और उन्होंने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनायी हो। मीना नक़वी की चार दूसरी बहनें 'शमीम ज़ेहरा' 'डाक्टर नुसरत मेहदी' 'अलीना इतरात रिज़वी' और 'नुसहत अब्बास' किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं और इन सभी पाँचों बहनों की शायरी को विश्व स्तर पर एक पहचान मिली हुई है।" इन में से 'डाक्टर नुसरत मेहदी' साहिबा के बारे में आप किताबों की दुनिया श्रृंखला में पढ़ ही चुके हैं। 

ये सभी बहनें अपनी दादी जान जो 'अंदलीब' तख़ल्लुस से शायरी करती थीं के नक़्शे क़दम पर चली हैं। 

बाद में बेशक समन्दर पर उठायें ऐतराज़ 
पहले दरिया ख़ुद में पैदा इतनी गहराई करें 
*
ज़रा सी सम्त बदल ली जो अपनी मर्ज़ी से 
तो नाव आ गई तूफ़ान के निशाने पर 
*
तेरे सितम से लरज़ तो गया बदन लेकिन 
ये और बात है आँखों में डर नहीं आया 
*
मेरी उड़ान इस लिए भी हो गई थी मोतबर 
क़दम तले ज़मीन थी नज़र में आसमान था 
*
शीशा-ऐ-दिल से नहीं आहो फुगाँ से निकलीं 
 किरचियाँ दर्द की निकलीं तो कहाँ से निकलीं 
आहो फुगाँ :रुदन 
*
चलो हवाओं से थोड़ी सी गुफ़्तगू कर लें 
हमें चिरागों पे इस बार एतबार है कम 
*
दरअसल वो नींदें हैं आगोश में अश्कों की 
पलकों की मुंडेरों से हर शब जो फिसलती हैं 
 *
बूढ़े माँ-बाप से बेज़ार वो घर लगता है 
उम्र लंबी हो तो ऐ ज़िन्दगी डर लगता है 
*
दरवाज़े पे नाम अपना हम लिख ही नहीं सकते 
ताउम्र रहे हैं हम गैरों के मकानों में 
*
इस नए दौर में चाहत का है मंज़र ऐसा 
जैसे सहरा में उड़े रेत बगूलों की तरह 

मीना जी ने इंटर करने बाद मेडिकल की डिग्री हरिद्वार से आयुर्वेद में ली। भाषा से उनका लगाव इतना ज्यादा था कि उन्होंने अंग्रेजी ,संस्कृत और हिंदी में प्राइवेटली पढाई कर एम.ए की डिग्रियाँ हासिल कीं। इन तीनों भाषाओँ में एम.ए करने वाले और फिर उसके बाद उर्दू में शायरी करने वाले लोग आपको विरले ही मिलेंगे।   

यूँ तो मीना जी ने अपनी शायरी का आगाज़ 'नगीना' से ही कर दिया था लेकिन उसे परवाज़ मिली जब उनकी शादी मुरादाबाद जिले के 'अगवानपुर' गाँव के निवासी जनाब हमीद आग़ा साहब से हुई। 'अगवानपुर' मुरादाबाद से महज़ 13 की.मी. की दूरी पर है। मुरादाबाद की फ़िज़ा ही शायराना है। जिगर मुरादाबादी साहब का ये शहर देश के अव्वल दर्ज़े के शायरों की खान है। मुरादाबाद की हवा और आग़ा साहब के साथ ने उन्हें लिखने का हौसला और हिम्मत दी। उनकी बेतरतीब शायरी को तरतीब वार लिखने की सलाह दी। इससे पहले वो, जब कोई ख़्याल ज़हन में आता उसे उस वक्त जो कुछ भी हाथ में होता उसे तुरंत उसी पर लिख कर छोड़ देती फिर वो चाहे हाथ में पकड़ा कोई रिसाला हो अखबार हो यहाँ तक कि मरीजों के नुस्खों की पर्चियां ही क्यों न हों। उन्होंने अपनी शायरी को अव्वल मुकाम तक पहुँचाने के लिए नामचीन शायर जनाब 'होश नोमानी रामपुरी' और जनाब 'अनवर कैफ़ी मुरादाबादी' को अपना उस्ताद तस्लीम किया। इन दो उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने वो मुक़ाम हासिल किया जिसका तसव्वुर हर शायर करता है। 

मैंने पूछी मुहब्बत की सच्चाई जब 
नाम उसने मेरा बर्फ़ पर लिख दिया 
*
गिरने वाले को न गिरने दिया पलकें रख दीं 
अपने अश्कों को दिया खुद ही सहारा मैंने 
*
मुझको दहलीज़ के उस पार न जाने देना 
घर से निकलूंगी तो पहचान बदल जायेगी 
*
सहमे सहमे इन चिरागों की हिफ़ाज़त तो करो 
आँधियों का पैरहन ख़ुद काग़ज़ी हो जाएगा 
*
जाँ बचने की इम्कान अगर हैं तो इसी में 
लुट जाने का सामान रखें साथ सफर में  
*
क़ुरबत का असर होगा ये ही सोच के कुछ लोग 
काँटों से गुलाबों की महक माँग रहे हैं 
पहले उसने चिराग़ों को रौशन किया 
फिर हवाओं में कुछ आँधियाँ डाल दीं 
*
क्यों मैंने ख़ुद ही अपनी मसीहाई बेच दी 
बच्चे तो मेरे अपने भी बीमार थे बहुत 
*
ये क्या कि रोज़ वही एक जैसी उम्मीदें 
कभी तो आँखों में सपने नए सजाऊँ मैं 

उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने अपने अलग अंदाज़, लब-ओ-लहज़ा और ज़ुबान से शायरी की दुनिया में पहचान बनाई। उन्होंने तल्ख़तर विषयों को रेशमी लफ़्ज़ों में पिरोने का फ़न सीखा और सीखा कि कैसे कड़वाहट को लफ़्ज़ों की शकर में लपेट कर पेश करते हैं। मीना नक़वी जी के लिए शायरी पेशा नहीं बल्कि शौक़ था और इस शौक़ को वो पूरी ज़िम्मेदारी, फ़िक्र, अहसासात, तजुर्बात से रंगीन बना रही थीं। नर्सिंग होम की ज़िम्मेवारी के साथ साथ घर गृहस्ती और दो बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठाते हुए उन्होंने अपने लिखने के इस शौक़ को कभी कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। 
उनकी लगभग एक दर्ज़न किताबें मंज़र-ए-आम पर आ चुकी हैं इनमें से तीन 'दर्द पतझड़ का ' 'किर्चियाँ दर्द की' और 'धूप-छाँव' देवनागरी लिपि में उपलब्ध हैं। सिर्फ़ उर्दू में प्रकाशित  'सायबान', 'बादबान','जागती आँखें,'मंज़िल' और 'आइना' बहुत चर्चित हुई हैं। मीना जी की ग़ज़लें देश की सभी प्रसिद्ध उर्दू और हिंदी की पत्रिकाओं में छप चुकी हैं यही कारण है कि वो उर्दू और हिंदी पाठकों में समान रूप से लोकप्रिय हैं।
मीना जी को ढेरों अवार्ड्स मिले हैं जिनमें दिल्ली , बिहार उर्दू अकेडमी द्वारा दिया गया साहित्य सेवा सम्मान, बिहार कैफ़ मेमोरियल सोसाइटी द्वारा दिया गया बेहतरीन शायरा एवार्ड, सरस्वती सम्मान , सुर साधना मंच हरियाणा सम्मान उर्दू अकेडमी बिहार द्वारा रम्ज़ अज़ीमाबादी अवार्ड प्रमुख हैं। सबसे बड़ा सम्मान तो वो प्यार है जो मीना जी के पाठकों ने उन्हें दिया है। वो आज हमारे बीच भले ही नहीं हैं लेकिन वो अपने पाठकों के दिलों में हमेशा रहेंगी। 
अपनी मृत्यु से सिर्फ दो दिन पहले उन्होंने जो ग़ज़ल फेसबुक पर पोस्ट की उसे मैं आपको पढ़वाते हुए विदा लेता हूँ। (जैसा डा. शेख़ नगीनवी साहब के लेख में लिखा है )

मकान ए इश्क़ की पुख़्ता असास हैं हम भी  
यक़ीन मानिये ! दुनिया शनास हैं हम भी 

ये और बात कि गुल की रिदा हैं ओढ़े हुए 
ख़िज़ाँ की रुत के मगर आसपास हैं हम भी 

फ़क़त तुम्हीं में नहीं है ख़ुलूस का ख़ेमा 
मोहब्बतों के क़बीले को रास हैं हम भी 

परेशां तन्हा नहीं है वो लम्हा ए फुरक़त
ग़ज़ब का सानेहा था बदहवास हैं हम भी 

अभी तो सब को मयस्सर हैं सबके साथ हैं हम  
कि कुछ दिनों में तो बाद अज़ क़यास हैं हम भी 
अज़ : से, क़यास : अंदाज़ा 

जो दिल के सफ्हे पे लिखा था तूने चाहत से 
उसी फ़साने का इक इक्तेबास हैं हम भी 
इक्तिबास: उद्धरण   


(इस पोस्ट के लिए शुक्रगुज़ार हूँ 'नुसरत मेहदी' साहिबा का जिन्होंने 'अनवर कैफ़ी' साहब का नंबर दिया और फिर जनाब 'अनवर कैफ़ी' साहब का जिन्होंने मुझे अहम जानकारी अता फ़रमा कर मेरी मदद की )           

33 comments:

दिव्या अग्रवाल said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 04 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Mumukshh Ki Rachanain said...

बूढ़े माँ-बाप से बेज़ार वो घर लगता है
उम्र लंबी हो तो ऐ ज़िन्दगी डर लगता है
हमेशा की ही तरह इस बार एक बेहतरीन शायरा/डाक्टर से भी रू-ब-रू कराने का शुक्रिया...

तिलक राज कपूर said...

मरहूम 'मीना नक़वी' साहिबा का नाम जाना पहचाना सा लगा। आपके माध्यम से इनके बारे में बहुत कुछ जानने को मिला।
बाकमाल प्रस्तुति है आपकी। आरंभिक शेर बताने में सक्षम हैं कि आज शायरी की कैसी शख़्सियत से परिचय होना है। ऐसे शेर पढ़कर ही समझ आता है कि शायरी में कितनी गुंजाइश होती है और शायर कहाँ तक जा सकता है।
इनकी देवनागरी में प्रकाशित पुस्तकें कहाँ से प्राप्त हो सकती हैं?

कविता रावत said...

गजल प्रस्तुति के साथ मीना नक़वी साहिबा का मर्मस्पर्शी परिचय मन में गहरे उतर गया

हर बार की तरह नायाब प्रस्तुति हेतु धन्यवाद
नववर्ष मंगलमय हो आपका

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद कविता जी...🙏

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया तिलक साहब...किताबों की उपलब्धता के बारे में अनवर क़ैफ़ी साहब ही बता सकते हैं उनका न +91 90122 30805 है...

Ramesh Kanwal said...

जनाब पहचाना नाम भी नीरज जी के अंदाज़ तआरुफ़ से लाजवाब अजनबीयत की चाशनी में डुबोकर उरूज पर निखरने जैसा लगता है।
बहुत उम्दा
लाजवाब इंतख़ाब अशआर के गुलशन से



ये और बात कि गुल की रिदा हैं ओढ़े हुए
ख़िज़ाँ की रुत के मगर आसपास हैं हम भी

फ़क़त तुम्हीं में नहीं है ख़ुलूस का ख़ेमा
मोहब्बतों के क़बीले को रास हैं हम भी

बेहद शुक्रिया
रमेश कंवल

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छी जानकारी, सुन्दर समीक्षा।
--
नूतन वर्ष 2021 की हार्दिक शुभकामनाएँ।

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद शास्त्री जी

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छी समीक्षा ..मीना जी को विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🌺

निर्मल आर्या
पानीपत

नीरज गोस्वामी said...

बहुत खूब

अनवर क़ैफ़ी
मुरादाबाद

नीरज गोस्वामी said...

यह एक मर्मस्पर्शी और शानदार आलेख है जिसके लिए तहेदिल से बधाई

आर.पी.घायल
पटना

नीरज गोस्वामी said...

फ़क़त तुम्हीं में नहीं है ख़ुलूस का ख़ेमा
मोहब्बतों के क़बीले को रास हैं हम भी

👌👌क्या लोग हैं ये भी! कमाल👏👏

सर्व जीत 'सर्व'

नीरज गोस्वामी said...

आप अपने ख़यालातो - इज़हार के लिए जिस तर्जे - तहरीर से काम लेते हैं उसका मैं मद्दाह ( प्रशंसक )रहा हूँ । डॉ मीना नक़वी पर बहुत ही हुस्ने - ख़ूबसूरती और चाबुकदस्ती से क़लम चलाया है, आपको मुबारकबाद ।
मीना नक़वी मेरी प्रिय दोस्त थीं । उनका पूरा ख़ानदान इल्मो अदब से जुड़ा है और ब हतरीन अदबी ख़िदमात अंजाम दे रहा है ।

अनवारे इस्लाम
भोपाल

नीरज गोस्वामी said...

बेमिसाल अद्भुत आपका अंदाजे बयां आपकी चयनित किताब भी। नीरज भाई

ब्रजेन्द्र गोस्वामी
बीकानेर

नीरज गोस्वामी said...

रमेश जी धन्यवाद

नीरज गोस्वामी said...

बहुत उम्दा मज़मून और अशआर का इन्तेख़ाब है।
बहुत बहुत शुक्रिया

शमीम जेहरा
भोपाल

नीरज गोस्वामी said...

किताबों की दुनिया=222
किरचियां दर्द की मीना नकवी
नीरज गोस्वामी जी का काम हमेशा ही खूबसूरत और बेमिसाल होता है मैं अपनी बात मीना नकवी जी के इस शेर से करता हूं कि
'मरहम लगाने आया था ज़ख़्मों पे वो मेरे
ज़ुल्मो सितम का साथ में लश्कर लिए हुए
ऊपर वाले का निज़ाम भी कमाल है।जो सब की तकलीफों को दूर करता है उसे ही इतनी तकलीफ़ दे रहा है वो फरिश्तों का भी इम्तिहान लेता है शायद, ड्राइवर ने सोचा आज की इस मसरुफ़ ज़िन्दगी में जो काम नीरज गोस्वामी जी कर रहे हैं, यकीनन अदब के हवाले से बहुत मुश्किल और बालातर काम है, मैं सलाम करता हूं आप को किसी अदीब शायर,शायरा या किसी फनी शख़सियत को तलाश करना एक बहुत बड़ा हुनर है जो चंद लोगों के हिस्से में आता है, और फिर बड़ी शिद्दत और जिद्दत से करना आम आदमी के बस का रोग नहीं किताबों की दुनिया 222के मजमून के लिए दिली मुबारकबाद शुक्रिया ख़ाकसार

सागर सियालकोटी लुधियाना से

नीरज गोस्वामी said...

जिस्म तो फ़ुर्सत में है लेकिन अक़ील
ज़हन को फ़ुर्सत न जाने कब मिले

इस लिए आपका ब्लॉग फ़ौरन देखा और मीना नक़वी साहिबा की शख़्सियत और उनकी शाइरी पर आपके बेशक़ीमत ख़यालात की तर्जुमानी करने वाली तहरीर पढ़ी, बहुत अच्छा लिखा है आप ने, ज़िंदाबाद..... !

अक़ील नोमानी

नीरज गोस्वामी said...

भाई साहब
प्रणाम
डॉक्टर मीना नक़वी साहिबा पर लिखा आज का आपका आलेख पढ़ गया हूँ।सच पूछिए तो मैं चाहता भी यही था कि आप उन पर लिखें।यूँ नहीं कि उन पर लिखने वाले कम होंगे पर जिस मानवीय ऊष्मा,ऊर्जा , पारिवारिकता और क़िस्सागोई के अंदाज़ में आप लिखते हैं उससे उस शख्सियत का बड़ा साफ़ सुथरा शब्द चित्र बनता है और उसके बारे में बरबस ही रुचि पैदा हो जाती है।सटीक शेरों को उद्धृत करना उसके बारे में बड़ी ऑथेंटिक इनफार्मेशन इकट्ठा करना और परत परत उसके व्यक्तित्व और कॄतित्व को जमा करने में लगाई गई श्रम साध्यता आपके लेखकीय पैशन और जुनून का पता देती है।dr साहिबा से मेरा भी गायबाना परिचय रहा है।और उनका विपरीत परिस्थितियों में किया गया उत्कृष्ट लेखन प्रणम्य है।मुझे उनकी बीमारी का पता नहीं था किसी मौके पर मैंने रस्मन उनका हाल चाल पूछ लिया तो उन्होंने हंसकर जब बीमारी के बारे में बताया तो बरबस अपने पूछने पर अपराधबोध तो हुआ पर मन ही मन एक अपनापन और आत्मीयता बरबस उनके प्रति पैदा हो गई।जो आज भी जस की तस है।
आपका ये व्यक्तित्व तलाशना और उन पर संकेंद्रित और सांद्रित लेखन इसी प्रकार यशस्वी बना रहे यही कामना है।
सादर

अखिलेश तिवारी
जयपुर

नीरज गोस्वामी said...

नीरज भैया ऐसा बहुत कम होता है कि जैसे-जैसे तहरीर पढ़ते हुए आगे बढ़ते जाते हैं, मन में श्रद्धा और अधिक और अधिक होती जाती है । मीना आपा के बारे में जिस एहतियात के साथ गुफ़्तगू की गयी है बेहद ही कमाल की है । ज़िन्दाबाद । प्रणाम भैया । जय श्री कृष्ण ।

नवीन चतुर्वेदी
मुंबई

mgtapish said...

चेहरा किसी का जिस्म किसी का लगा लिया
आसाँ नहीं रही कोई पहचान इन दिनों
बहुत ख़ूबसूरती से लिखा तब्‍सरा हार्दिक बधाई
मोनी गोपाल 'तपिश'

नीरज गोस्वामी said...

वाह वाह वाह बहुत सुंदर आलेख लिखा है भाई साहब आपने। मैंने वहां कमेंट भी किया है, लेकिन वह दिखाई नहीं दे रहा है। सुंदर और रोचक आलेख के लिए आपको बधाई।

कृष्ण कुमार नाज़
मुरादाबाद

आलोक सिन्हा said...

बहुत महत्वपूर्ण दुर्लभ जानकारियाँ देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार |सच बहुत सी भूली यादें एक बार मन में फिर से ताजा हो गई |

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया तपिश भाई...स्नेह बनाए रखें

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद आलोक जी

डॉ. जेन्नी शबनम said...

मीना नक़वी साहिबा की शायरी और जीवनी, पढ़कर बहुत अच्छा लगा। बहुत उम्दा शायरा हैं। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि। साझा करने के लिए धन्यवाद।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया डॉ जेन्नी शबनम साहिबा...🌹🙏🌹

चोवा राम "बादल" said...

अनुपम।

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद चोवा राम जी...

नीरज गोस्वामी said...

चेहरा किसी का जिस्म किसी का लगा दिया,
आसान नहीं रही कोई पहचान इन दिनों.
बहुत उम्दा पेशकश सर.... दिली शुक्रिया

ए.एफ.नज़र

Rashmi sharma said...

मीना नक़वी साहिबा को पहले भी पढ़ चुकी हूं बहुत उम्दा शायरी
लेकिन जैसे आप एक शायर से परिचय करवाते हैं वो पहलू जो दुनिया को नहीं मालूम होते (लेकिन होने चाहिए ) उन्हें आप कितनी खूबी से कितनी मशक्कत से पाठकों के सामने लाते हैं वो अतुलनीय है

शेषधर तिवारी said...

एक थी मेरी बहन नाम था 'मीना' उसका
होना तो चाहिए था नाम नगीना उसका

पैकरे फ़िक्र, ग़ज़लगोई की वो मूरत थी
मुझसे नाराज़ था रब साथ जो छीना उसका

ज़िन्दगी यूँ तो अनासिर के सहारे काटी
एक उंसुर ने ही मुश्किल किया जीना उसका

हक़ है मुझको कि मैं नाराज़ ख़ुदा से होऊँ
ज़ेरे गिरदाब किया जिसने सफ़ीना उसका

जिक्र होगा कहीं आदाबे सुख़न का जब भी
याद आएगा हमेशा ही करीना उसका

वो कई साल से ज़िन्दा थी तो पी कर आँसू
मौत की वजह बना ज़ह्र न पीना उसका

उस चमन को कभी वीरान न होने देंगे
सीचने में जिसे काम आया पसीना उसका